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Chapter - 02
[ Reality & Punishment ]
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Update - 09
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[ Reality & Punishment ]
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Update - 09
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वक़्त कभी भी एक जैसा नहीं रहता और ना ही वो किसी के रोके से रुक सकता है। जो समझदार होते हैं वो वक़्त के साथ ही चलते हैं और जो अपनी अकड़ में रहते हैं या जो समय पर किसी चीज़ से समझौता नहीं करते उन्हें ये वक़्त या तो पीछे छोड़ देता है या फिर ऐसी ठोकर लगा देता है कि इंसान चाह कर भी सम्हल नहीं पाता। विशेष जी के ऐसे रवैये से इन चार सालों में बहुत कुछ बदल गया था। जिस पिता का गांव समाज में अच्छा ख़ासा रुतबा था वो पूरी तरह से खो गया था। जिनके बारे में पहले लोग दबी हुई जुबान में तरह तरह की बातें करते थे वो लोग गुज़रते समय के साथ उनके मुख पर ही करने लगे थे जिसका असर ये हुआ कि उनका गांव समाज में लोगों के बीच उठना बैठना मुश्किल पड़ गया। वो ये तो स्वीकार कर चुके थे कि धन के लालच में आ कर उन्होंने अपने बेटे का ब्याह एक ऐसी लड़की से कर दिया था जिसे दुनियां का कोई भी सुन्दर लड़का अपनी बीवी बनाने का सोच भी नहीं सकता था लेकिन ग़लती स्वीकार कर लेने के बाद भी अगर कोई उन्हें माफ़ न करे या उनके अंदर पैदा हो चुके दुखों के बारे में न सोचे वो तो हद दर्ज़े का ग़लत इंसान ही कहलाएगा।
मां और पिता जी इस सबकी वजह से बीमार पड़ गए थे। ज़ाहिर है कोई भी ऐसा ब्यक्ति बीमार ही पड़ जाएगा जो हर पल यही सोच सोच कर दुखी होता हो कि अब उसके वंश का क्या होगा और गांव समाज में जो इज्ज़त उन्होंने कमाई थी वो सब उनके बेटे की वजह से ख़ाक में मिल चुकी है। कोई भले ही जिस्म पर चार लाठियां मार ले उससे उतनी तक़लीफ नहीं होगी लेकिन लोगों की बातें ऐसी मार करती हैं जो सीधा इंसान की आत्मा को ही तक़लीफ देती हैं और उसका दर्द असहनीय होता है। ऐसी असहनीय तक़लीफ तो मुझे भी थी लेकिन मैंने अपनी तक़लीफ को जज़्ब करना जाने कब का सीख लिया था। लोग मेरे बारे में अक्सर यही कहते थे कि ये किस मिट्टी की बनी है जो इतना कुछ होने के बाद भी जीवित है? मेरी जगह कोई दूसरी औरत होती तो इतना अपमान और इतना दुःख सहन ही नहीं कर पाती और यकीनन एक दिन खुद ख़ुशी कर लेती लेकिन मैं इस सबके बावजूद ज़िंदा थी। कदाचित ये देखने के लिए कि मेरा बनाने वाला मेरे साहस और धैर्य की परीक्षा लेते हुए मुझे कितना दुःख देता है?
मैं पूरे मन से अपने सास ससुर की सेवा कर रही थी। यहाँ तक कि मैंने कभी उन्हें ये नहीं दिखाया कि मैं भी एक इंसान हूं और मुझे भी कभी कोई न कोई बिमारी हो सकती है। मैं हमेशा ख़ामोश ही रहती थी और मेरा ज़हन चौबीसों घंटे जैसे एक ज़िद किए हुए था कि चाहे जो हो जाए मुझे किसी भी चीज़ से हार नहीं मानना है। दुनियां की चाहे जैसी भी तक़लीफ मुझे दर्द देने आ जाए लेकिन मैं उसे ख़ुशी से स्वीकार कर के जज़्ब कर लूंगी।
मां पिता जी की तबीयत जब ज़्यादा ही ख़राब हो गई तो उनके एक पहचान वाले ने विशेष जी को ख़बर भेजवा कर उन्हें बता दिया कि उनके माता पिता की बहुत ज़्यादा तबीयत ख़राब है इस लिए अगर उनके दिल में ज़रा सा भी अपने माता पिता के प्रति लगाव बाकी है तो वो घर आ जाए। इस ख़बर के दूसरे दिन ही विशेष जी शहर से आ गए थे। वो माँ पिता जी का इलाज़ करवाने के लिए उन्हें जिले के अच्छे हॉस्पिटल में ले गए। मैं ये मानती हूं कि विशेष जी ने अपने माता पिता के इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि इसके बावजूद माँ और पिता जी की सेहत पर कोई सुधार नहीं हो रहा था। यहाँ तक कि एक दिन डॉक्टर ने विशेष जी से ये भी कह दिया कि वो माँ और पिता जी को घर ले जाएं।
कहते हैं कि जो भी इंसान इस धरती पर पैदा होता है वो अपनी एक निश्चित आयु ले कर ही इस धरती पर पैदा होता है। इंसान का जब इस धरती पर रहने का समय समाप्त हो जाता है तो दुनियां का कोई भी डॉक्टर या दुनियां की कोई भी दवा उसे बचा कर उसे जीवन नहीं दे सकती। माँ और पिता जी का आख़िरी वक़्त आ गया था। चार साल से जिनकी पूरे मन से सेवा करती आ रही थी वो भी अब मुझे छोड़ कर चले जाने को तैयार थे। इन चार सालों में मैं कभी अपने मायके अपने माँ बाबू जी के घर नहीं गई थी। मेरे लिए मेरे सास ससुर ही मेरे माँ बाबू जी थे और वो मुझे अपनी बेटी मान कर ही मुझे स्नेह और प्यार देते थे। उन्हें भले ही इस बात का रंज़ था कि उन्होंने अपने बेटे की शादी मुझसे कर के अच्छा नहीं किया था लेकिन उस रंज़ से ज़्यादा उन्हें इस बात की ख़ुशी थी कि उन्हें मेरे जैसी गुणवान बहू मिली थी जिसने इन चार सालों में कभी भी उन्हें अपनी तक़लीफें नहीं दिखाई बल्कि अपनी क्षमता से भी ज़्यादा उनकी सेवा करते हुए घर को सम्हाला था। वो अक्सर माँ जी से कहते थे कि इतनी अच्छी औरत को ऊपर वाला इतना दुःख कैसे दे सकता है? ये एक ऐसा सवाल था जो शायद गांव के हर प्राणी के ज़हन में गूंजता था।
अपने आख़िरी वक़्त में माँ और पिता जी ने मेरे सामने ही विशेष जी से कहा था कि उनके जाने के बाद मेरा इस दुनियां में कोई सहारा नहीं होगा इस लिए अगर उनके दिल में मेरे प्रति ज़रा सा भी रहम या दया भाव है तो वो मुझे अपना लें और जहां भी रहें मुझे अपने साथ ही रखें। उस दिन मैं फूट फूट कर रो रही थी। मेरे लिए वो दोनों प्राणी ऐसे थे जिन्होंने मेरे माँ बाबू जी और भाई के जैसा ही स्नेह और प्यार दिया था। माँ जी ने कभी भी मेरी कुरूपता को ले कर मुझे ताना नहीं मारा था बल्कि हमेशा मुझे बेटी कहते हुए मुझे खुश रखने का ही प्रयास किया था और सच तो ये है कि ये उन दोनों का स्नेह और प्यार ही था जिसके सहारे मैं अब तक जीवित थी।
मां और पिता जी दुनियां से चले गए। उनके जाते ही जैसे मेरी तरह वो घर भी खामोश हो गया था। विशेष जी ने बड़े अच्छे तरीके से उनके जाने के बाद सारी क्रियाएं की थीं और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे पहली बार बात करते हुए शहर चलने को कहा। मेरे अंदर उनसे कहने के लिए तो बहुत कुछ था लेकिन फिर ये सोच कर ज़्यादा कुछ नहीं कहा कि उस इंसान से कुछ कहने का क्या फ़ायदा जिसने कभी एक पल के लिए भी ये न सोचा हो कि इतने सालों से मैंने क्या कुछ सहा होगा और उनके इस तरह त्याग देने से मैं कैसे हर रोज़ हर पल तिल तिल कर मरती रही होऊंगी? ये मेरा गुनाह नहीं था कि मैं कुरूप थी, बल्कि ये बनाने वाले का गुनाह था कि उसने मुझे कुरूप बनाया था, वरना मेरे माता पिता और भाई तो सुन्दर ही थे। ख़ैर विशेष जी ने जब मुझसे शहर चलने के लिए कहा तो लाख रोकने के बावजूद मेरे अंदर का थोड़ा सा गुबार निकल ही गया। मैंने सपाट लहजे में उनसे कहा था कि मुझे किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है। जब पिछले चार सालों से मैं उनके सहारे के बिना जीती आई थी तो आगे भी उनके सहारे के बिना अपना ये जीवन गुज़ार ही लूंगी। विशेष जी को शायद मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी इस लिए कुछ पलों तक मेरी तरफ देखते रहे थे उसके बाद उन्होंने जैसे फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि अगले दिन की टिकट बनी हुई है इस लिए अपनी तैयारी कर लेना।
माना कि मुझ में इतनी क्षमता थी और इतना साहस था कि मैं उनके सहारे के बिना अपना बाकी का जीवन उस घर में गुज़ार सकती थी लेकिन दिल के किसी हिस्से में ये चाहत उस वक़्त भी मौजूद थी कि अपने इस जीवन में कम से कम एक बार मुझे अपने पति का साथ तो मिल ही जाए। फिर भले ही चाहे ऊपर वाला मेरे प्राण ले ले। अगले दिन विशेष जी के साथ मैं शहर जाने के लिए तैयार थी। मेरे बाबू जी और मेरा छोटा भाई उस दिन घर आये हुए थे। वो दोनों ये देख कर बड़ा खुश हुए थे कि आख़िर वो दिन आ ही गया जब मेरे पति ने मुझे अपना लिया था और अब वो मुझे अपने साथ शहर ले जा रहे थे। उन दोनों की आँखों से ख़ुशी के आंसू छलक पड़े थे। मेरे बाबू जी ने विशेष जी के सामने हाथ जोड़ कर बस इतना ही कहा था कि दामाद जी मेरी बेटी ने अब तक बहुत दुःख सहे हैं इस लिए अब इसे ऐसे दिन दुबारा न दिखाइएगा, बल्कि इसे इतना प्यार और इतनी ख़ुशी देना कि ये अपने अब तक के सारे दुःख दर्द भूल जाए।
उस दिन अपने बाबू जी और भाई से लिपट कर मैं इतना रो रही थी जैसे असल में मैं उस दिन ही ब्याह के बाद उनसे विदा हो रही थी। वो दोनों खुद भी रो रहे थे। उसके बाद ढेर सारा प्यार और ढेर साड़ी दुआएं ले कर मैं विशेष जी के साथ शहर चल पड़ी थी। मेरे अंदर जो सपने, जो ख़्वाहिशें और जो अरमान कहीं मर खप से गए थे वो एक बार फिर से जैसे ज़िंदा होने होने लगे थे। किसी उजड़े हुए चमन की तरह मेरा जो जीवन वीरान हुआ पड़ा था उसमें जैसे बहार की हवा लगती महसूस होने लगी थी। भला मैं ये कैसे सोच सकती थी कि विशेष जी के साथ आगे का मेरा सफ़र मुझे कौन सी मंज़िल की तरफ ले जाने वाला था?
ट्रेन के सफ़र में हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। हालांकि मैं यही उम्मीद कर रही थी कि शायद विशेष जी मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत उन्होंने कुछ कहने की तो बात दूर बल्कि मेरी तरफ देखा तक नहीं था। ऐसा लगा था जैसे मुझे अपने साथ ले जाना उनकी मजबूरी थी। ख़ैर मैंने भी उनसे कुछ नहीं कहा, मेरे लिए तो यही काफी था कि वर्षों बाद आज मैं अपने पति के साथ जीवन का कोई सफ़र कर रही थी। दूसरे दिन हम शहर पहुंच गए। शहर की चकाचौंध देख कर एक बार को तो मैं भौचक्की सी रह गई थी लेकिन फिर जैसे मैंने किसी तरह खुद को सम्हाल लिया था।
शहर में विशेष जी मुझे ले कर अपने फ्लैट में आ गए थे। मेरे मन में तरह तरह के ख़याल उभर रहे थे। कुछ ऐसे भी ख़याल थे जो मेरे चेहरे को लाज और शर्म की वजह से सुर्ख कर देते थे। मैंने महसूस किया था कि मेरे अंदर अचानक से ही कुछ चीज़ें बड़ी तेज़ी से उछल कूद कर रहीं थी। ऐसा लगता था जैसे उन्हें किसी बात से बेहद ख़ुशी हो रही थी लेकिन, मेरे अंदर की हर चीज़ को उस वक़्त झटका लगा जब विशेष जी ने कहा कि वो मुझे शहर में ले कर ज़रूर आए हैं लेकिन मुझसे उनका अब भी कोई मतलब नहीं है। यानि वो आज भी मुझे अपनी बीवी नहीं मानते हैं। उस वक़्त दिल तो किया था कि खिड़की से कूद कर अपनी जान दे दूं लेकिन फिर अपने अंदर के इन ख़यालों को किसी तरह ये सोच कर दबा लिया था कि शायद साथ रहने से एक दिन वो वक़्त भी आ जाए जब उनके अंदर भी मेरे प्रति कोई एहसास जागृत हो जाए।
शहर में एक ही फ्लैट में दो अलग अलग कमरों में रहने से ज़िन्दगी बड़ी अजीब सी लगने लगी थी। कहने को तो हम दो इंसान उस घर में रहते थे लेकिन दोनों ही एक दूसरे के लिए अजनबी थे। उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि उन्हें मुझसे कोई मतलब नहीं है और वो चाहते हैं कि मैं भी उनसे कोई मतलब न रखूं। बाकी जीवन जीने के लिए जो ज़रूरी है उसमें वो कभी कोई कमी नहीं करेंगे और आगे चल कर ऐसा भी होने लगा था। एक झटके में वो उमंगें और वो ख़ुशी चकनाचूर हो गई थी जो शहर आते वक़्त रास्ते में जागृत हो गई थी। ऐसा लगा कि कुछ देर के लिए नींद आ गई थी और आँखों ने कुछ पल के लिए कुछ ऐसे ख़्वाब देख लिए थे जो उन्हें नहीं देखना चाहिए था। दिल में बड़ा तेज़ दर्द उठा और उसने एक बार फिर से मेरी अंतरात्मा तक को झकझोर कर रख दिया। अकेले कमरे में एक बार फिर से वही कहानी दोहराई जाने लगी जो पिछले चार सालों से गांव में दोहराई जा रही थी। ज़हन में अपने बनाने वाले से बस एक ही सवाल उभरता कि अभी और कितने दुःख दोगे मुझे?
विशेष जी के साथ शहर आए हुए मुझे छह महीने होने वाले थे। इन छह महीनों में मैंने एक बार फिर से खुद को ब्यवस्थित कर लिया था। विशेष जी अपने कपड़े वग़ैरा खुद ही धो लेते थे। उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं उनके कपड़े धुल दूं। उनसे जितना हो सकता था वो अपने काम ख़ुद ही कर लेते थे लेकिन एक चीज़ अजीब थी कि वो मेरा बनाया हुआ खाना बिना कुछ कहे खा लेते थे। अगर हमें एक दूसरे कुछ कहना होता था तो हम एक दूसरे को कागज़ में लिख कर पर्ची छोड़ देते थे। पर्ची का ये नियम उन्होंने ही शुरू किया था। मैं ये तो मानती थी कि उन्हें मुझसे कोई मतलब नहीं था लेकिन ये भी समझती थी कि इस सबके बावजूद उनकी नज़र में मेरी कुछ तो अहमियत थी ही। अगर नहीं होती तो वो मेरे हाथ का बनाया हुआ खाना भी नहीं खाते। शायद यही वजह थी कि मेरे मन में अभी भी एक उम्मीद बनी हुई थी कि एक दिन वो वक़्त आएगा जब वो मुझे बाकी चीज़ो में भी अहमियत देंगे।
उस दिन भी मैं हर रोज़ की तरह अपने काम में ही लगी हुई थी। शाम हो चुकी थी और ऑफिस से विशेष जी के आने का समय हो रहा था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि आज की शाम मेरे लिए एक नई सौग़ात ले कर आने वाली है और वो सौग़ात ऐसी होगी जिससे मारे ख़ुशी के मेरा रोम रोम खिल उठेगा।
डोर बेल बजी तो मैंने जा कर दरवाज़ा खोला और चुप चाप पलट कर अंदर की तरफ आने ही लगी थी कि विशेष जी की आवाज़ सुन कर मेरे क़दम जैसे जाम से हो गए। पहले तो लगा कि शायद मेरे कान बज उठे थे लेकिन जब दुबारा विशेष जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मेरा दिल जैसे धक् से रह गया।
"मैं जानता हूं कि मेरी वजह से अब तक तुम्हें न जाने कितनी ही तक़लीफें सहनी पड़ी हैं।" विशेष जी ने गंभीर भाव से कहा था____"और इसके लिए मैं तुम्हारी हर सज़ा को भुगतने के लिए तैयार हूं।"
ये सब कहने के पहले उन्होंने मेरा नाम ले कर मुझे दो बार पुकारा था और मेरे क़दम अपनी जगह पर जैसे जाम से हो गए थे। मेरा दिल बुरी तरह से धड़कने लगा था और जब विशेष जी ने ये सब कहा तो कानों को जैसे यकीन ही नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से मैंने हिम्मत दिखाई और पलट कर उनकी तरफ देखा।
"मैंने हमेशा ये ख़्वाहिश की थी कि मेरी हर चीज़ ख़ास हो।" मेरे पलटते ही उन्होंने आगे कहा____"मैं अपनी ज़िन्दगी में ऐसी कोई चीज़ बरदास्त नहीं करता था जो ख़ास न हो। पिता जी ने जब मुझे बताया कि मेरा ब्याह तय हो गया है तो मैं ये सोच कर थोड़ा घबरा सा गया था कि जिससे मेरा ब्याह तय हुआ है वो अगर ख़ास न हुई तो क्या होगा? फिर मैंने ये सोच कर खुद को तसल्ली दी थी कि मेरे माता पिता किसी ऐसी लड़की से मेरा ब्याह थोड़े न कर देंगे जिसमें कोई ख़ासियत ही न हो। हालांकि उस वक़्त मेरे ज़हन में ये ख़याल भी उभरा था कि एक बार अपनी आँखों से तुम्हें देख लूं लेकिन पिता जी के डर से मैं ऐसा नहीं कर सका था। ख़ैर उसके बाद ब्याह हुआ और उस रात सुहाग सेज पर जब मैंने तुम्हारा घूंघट उठा कर तुम्हें देखा था तो मेरे पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गई थी। पलक झपकते ही मेरे अंदर ये सोच कर गुस्सा भर गया था कि जब मेरी हर चीज़ ख़ास है तो मेरी बीवी बन कर मेरी ज़िन्दगी में आने वाली तुम ख़ास क्यों नहीं थी? बात अगर थोड़ी बहुत की होती तो मैं बरदास्त भी कर लेता या खुद को समझा भी लेता लेकिन तुम्हारे में थोड़ी बहुत जैसा सवाल ही नहीं था बल्कि मेरी नज़र में तो तुम दुनियां की सबसे बदसूरत औरत थी। मेरे दिलो दिमाग़ में तुम्हारे प्रति नफ़रत और घृणा इस क़दर भर गई थी कि मैंने गुस्से में तुम्हें वो सब कहा और फिर कभी तुमसे मतलब नहीं रखा। इन साढ़े चार सालों में ऐसा कोई दिन ऐसा कोई पल नहीं गुज़रा जब मैंने इस बारे में सोच कर खुद को समझाया न हो लेकिन मैं हमेशा इसी बात पर अड़ा रहा कि नहीं, मैं एक ऐसी औरत को अपनी बीवी नहीं स्वीकार कर सकता जो हद से ज़्यादा बदसूरत हो।"
विशेष जी ये सब कहने के बाद सांस लेने के लिए रुक गए थे या शायद वो ये देखना चाहते थे कि उनकी बातों का मुझ पर क्या असर हुआ है? मैंने उनसे तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनकी बातों से मेरे अंदर भूचाल सा ज़रूर आ गया था जिसे मैं बड़ी मुश्किल से रोकने का प्रयास कर रही थी।
"समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता रूपा।" उन्होंने मेरा नाम लेते हुए कहा था____"हर चीज़ का एक दिन अंत हो ही जाता है। मेरे अंदर तुम्हारे प्रति भले ही इतना ज़हर भरा हुआ था लेकिन इन छह महीनों में मुझे एहसास हो गया है कि मैंने तुम्हें ठुकरा कर अच्छा नहीं किया था। अगर तुम छह महीनों से मेरे साथ यहाँ न होती और मैं तुम्हें इस तरह ख़ामोशी से सब कुछ करते हुए नहीं देखता तो शायद आगे भी मुझे ये एहसास न होता। तुम्हारे यहाँ आने के बाद से मैं अक्सर ये सोचता था कि आख़िर किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम कि मेरी इतनी बेरुखी के बाद भी तुम उफ्फ तक नहीं करती? तुम्हारी जगह अगर कोई दूसरी औरत होती तो इतना कुछ होने के बाद यकीनन वो बहुत पहले ही आत्म हत्या कर चुकी होती। ख़ैर तुमने अपने हर कर्तब्य पूरे मन से निभाए और मेरी बेरुखी को भी ऊपर वाले का विधान समझ कर स्वीकार किया। ये सब चीज़ें ऐसी हैं जिनकी वजह से मुझे एहसास हुआ कि मैं अब तक कितना ग़लत था। मुझे अपनी हर चीज़ ख़ास की सूरत में ही चाहिए थी और तुम तो सच में ही ख़ास थी। ये अलग बात है कि मुझे कभी तुम्हारी खासियत का एहसास ही नहीं हुआ। मेरे जैसा बुरा इंसान शायद ही इस दुनियां में कही होगा रूपा। मैं तुम्हारा गुनहगार हूं। मुझे इसके लिए तुम जो चाहे सज़ा दे दो लेकिन आज की सच्चाई यही है कि मेरे दिल में तुम्हारे प्रति अब कोई ज़हर नहीं रहा बल्कि अब अगर कुछ है तो बस इज्ज़त और सम्मान की भावना है।"
विशेष जी बोलते जा रहे थे और मेरे अंदर जैसे विस्फोट से हो रहे थे। ऐसे विस्फोट जिनके धमाकों से मेरा समूचा वजूद हिल भी रहा था और ख़ुशी का एहसास भी करा रहा था। आख़िर ऊपर वाले ने मेरी इतने सालों की तपस्या का फल देने का सोच ही लिया था। मेरा रोम रोम इस फल की ख़ुशी में खिलता जा रहा था। मन कर रहा था कि इस ख़ुशी में नाचने लगूं और सारी दुनियां के सामने चीख चीख कर कहूं कि____'देख लो दुनियां वालो, आज मेरे पति ने मुझे अपना लिया है। आज उन्होंने मुझे अपनी पत्नी मान लिया है। आज उनके दिल में मेरे प्रति नफ़रत और घृणा नहीं है बल्कि मेरे लिए इज्ज़त और सम्मान की भावना आ गई है।'
खुशियों का एहसास इतना भी प्रबल हो सकता है ये उस दिन पता चला था मुझे। लोग ख़ुशी में किस तरह नाचने लग जाते हैं ये उस दिन समझ आया था मुझे। लोग ख़ुशी में पागल कैसे हो जाते हैं ये उस दिन महसूस हुआ था मुझे। मैं तो अपने बनाने वाले से यही कहना चाहती थी कि वो मुझे उस ख़ुशी में पागल ही कर देता। मेरे अंदर मेरे जज़्बात मचल रहे थे और जब मैंने उन खुशियों को किसी तरह भी ब्यक्त न किया तो जैसे मेरी आँखों ने खुद ही उन्हें ज़ाहिर कर देने का फैसला कर लिया था। वो खुद ही मारे ख़ुशी के छलक पड़ीं थी और उस वक़्त तो मैं खुद भी अपने आपको सम्हाल नहीं पाई थी जब विशेष जी ने अपनी बाहें फैला कर मुझे गले लग जाने का इशारा किया था। एक पल की भी तो देरी नहीं की थी मैंने, बल्कि झपट कर मैं उनके सीने से जा लिपटी थी। उनके सीने से लगते ही ऐसा लगा जैसे वर्षों से जल रहे मेरे कलेजे को ठंडक मिल गई हो। अब अगर ऊपर वाला मेरे प्राण भी ले लेता तो मुझे उससे कोई शिकायत न होती। जाने कितनी ही देर तक मैं उनके सीने से लिपटी रोती बिलखती रही। बस रोए ही जा रही थी, मुख से कोई अलफ़ाज़ नहीं निकल रहे थे और वो मेरी पीठ पर इस अंदाज़ से अपने हाथ फेरते जा रहे थे जैसे मुझे दिलासा देते हुए कह रहे हों कि____'बस रूपा, अब से तुम्हें दुनियां का कोई भी दुख दर्द रुलाने नहीं आएगा।'
मेरी ज़िन्दगी में खुशियों का आगमन हो गया था और फिर तो जैसे ये खुशियां अपने नए नए रूपों में मुझे और भी ज़्यादा खुश रखने के करतब दिखाने लगीं थी। सब कुछ मेरी आँखों के सामने हक़ीक़त में होता हुआ नज़र आ रहा था लेकिन ऐसा लगता था जैसे मैं कोई ख़्वाब देख रही थी। मन में ख़याल आता कि अगर ये सब ख़्वाब ही है तो मैं जीवन भर बस ऐसे ही ख़्वाब देखना चाहती हूं। अगले ही पल अपने बनाने वाले से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगती कि____'हे ऊपर वाले! जिस दिन इन ख़्वाबों का अंत हो उसी दिन मेरे प्राणों का भी अंत कर देना। क्योंकि इस सबके बाद मैं खुद भी जीने की ख़्वाहिश नहीं रखूंगी।'
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