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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

KEKIUS MAXIMUS

Supreme
15,849
32,669
259
aur ek shocking khabar ki rajni ka affair chal raha tha ,aur wo apne aashiq ke saath bhagne wali thi par tabhi raghuveer ne dekh liya ,aur hathapai karne laga aashiq ke saath .
rajni ne maar to diya pati ko par uska aashiq bhag nikla ,rajni ko dilasa dena bhi sahi nahi samjha
..agar safedposh ne batayi baate sach hai to yahi soch aayegi dimag me .
apne baap par tanj kasne ko gussa aa gaya vaibhab ko par sabke saamne tamasha bhi bana diya .
gyanendr ne sahi kaha ki usko apne gusse par kabu karna chahiye .
 

Game888

Hum hai rahi pyar ke
3,353
6,751
158
Penguins Of Madagascar Hello GIF
 

Yamraaj

Put your Attitude on my Dick......
2,238
7,079
159
Wo sab to thik h yaar but raat me goli chali safedposh ne ek aadmi ko goli bhi mara.....Kai logo ne uska pichha bhi kiya ....

Magar update me iska jikr nahi aaya
Jisko goli lagi uska pata nahi chala
Kisi ne dada thakur ko kuch bataya hi nahi.
 

Tiger 786

Well-Known Member
6,339
23,020
188
अध्याय - 53
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....

"किसी भी इंसान के सितारे हमेशा गर्दिश में नहीं रहते जगताप।" पिता जी ने हल्की मुस्कान में कहा____एक दिन हर इंसान का बुरा वक्त आता है। हमें यकीन है कि उस सफ़ेदपोश का भी बुरा वक्त जल्द ही आएगा।"

कुछ देर और इस संबंध में भी बातें हुईं उसके बाद सब अपने अपने काम पर चले गए। दादा ठाकुर अकेले ही बैठक में बैठे हुए थे। उनके चेहरे पर कई तरह के विचारों का आवा गमन चालू था। सहसा जाने क्या सोच कर वो मुस्कुराए और फिर उठ कर हवेली के अंदर की तरफ बढ़ गए।

अब आगे....


"इधर क्यों मोड़ दिया जीप को?" मैंने अपने नए बन रहे मकान के रास्ते की तरफ जीप को मोड़ा तो भाभी ने चौंक कर मुझसे पूछा____"क्या चंदनपुर जाने का इस तरफ से भी रास्ता है?"

"नहीं भाभी।" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"इस तरफ से आपके मायके जाने का रास्ता नहीं है लेकिन इधर इस लिए जीप को मोड़ा है क्योंकि मुझे कुछ काम है यहां पर किसी से।"

मेरी बात सुन कर भाभी मेरी तरफ देखने लगीं। ऐसा लगा जैसे कुछ सोचने लगीं हो। मैंने उनकी तरफ एक नज़र डाली और फिर ख़ामोशी से जीप चलाते हुए कुछ ही देर में मैं उस जगह पर पहुंच गया जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था। मेरी उम्मीद के अनुसार भुवन वहीं मौजूद था। मुझे आया देख वो जल्दी से मेरे पास आया और पहले मुझे सलाम किया फिर भाभी को। मैंने भाभी को जीप में ही बैठे रहने को कहा और खुद जीप से उतर कर भुवन को लिए थोड़ा दूर चला आया।

"मैं कुछ दिनों के लिए भाभी के साथ उनके मायके जा रहा हूं भुवन।" मैंने भुवन से कहा_____"पिता जी के हुकुम से मुझे उनके मायके में कुछ दिन रुकना भी पड़ेगा। इस लिए मैं तुम्हें कुछ ज़िम्मेदारियां दे कर जा रहा हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम उन ज़िम्मेदारियों को हर कीमत पर निभाओगे।"

"आप बस हुकुम कीजिए छोटे ठाकुर।" भुवन ने एकदम सतर्क हो कर कहा_____"आपकी हर आज्ञा का पालन मैं अपनी जान दे कर करूंगा। बताइए, आपके यहां ना रहने कर मुझे क्या करना होगा?"

"तुम्हें मुरारी काका के घर वालों की सुरक्षा का हर कीमत पर ख़्याल रखना है।" मैंने कहा____"तुम्हें इस बात पर ख़ास ध्यान देना है कि उस घर में बाहर का कौन व्यक्ति आता है और क्या करता है? तुम्हें तो पता ही है कि आज कल हालात बहुत ही ख़राब हैं इस लिए उनकी सुरक्षा का भार अब तुम्हारे कंधो पर रहेगा। एक बात और, जगन भले ही मुरारी का भाई है लेकिन तुम्हें उसकी गतिविधियों पर भी नज़र रखनी है।"

"मैं समझ गया छोटे ठाकुर।" भुवन ने कहा____"आप बिलकुल बेफ़िक्र हो कर जाइए। मुरारी के घर वालों पर मेरे रहते कोई आंच नहीं आएगी।"

"बहुत बढ़िया।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा_____"इस सबके लिए तुम्हारे पास आदमियों की कोई कमी नहीं है इस लिए सिर्फ़ अपने आदमियों के ही भरोसे मत रहना बल्कि इस मकान से ज़्यादा मुरारी के घर वालों की सुरक्षा का ज़िम्मा तुम खुद अपने हाथ में लिए रहोगे। रही बात यहां की तो इस बारे में तुम्हें सब पता ही है।"

"आप निश्चिंत रहिए छोटे ठाकुर।" भुवन ने पूरी गर्मजोशी से कहा____"भुवन आपको वचन देता है कि मेरे रहते मुरारी के घर वालों पर कोई आंच नहीं आएगी। इसके अलावा बाकी जो काम आपने मुझे सौंपे हैं वो भी बेहतर तरीके से होते रहेंगे।"

भुवन से मैंने विदा ली और जीप में आ कर बैठ गया। अब मैं निश्चिंत हो चुका था इस लिए खुशी मन से जीप को स्टार्ट किया और मोड़ कर वापस मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ा। मेरे पीछे एक दूसरी जीप में मेरे कुछ आदमी भी पूरी सतर्कता से आ रहे थे।

"यहां कोई ज़रूरी काम था क्या तुम्हारा?" रास्ते में भाभी ने मुझसे पूछा____"वैसे इस जगह पर मकान बनवाने का विचार क्यों आया था तुम्हारे मन में?"

"बस ये समझ लीजिए भाभी कि यहां पर मकान बनवा कर मैं ऐसा कोई काम नहीं करुंगा जिसकी शायद आप सब मुझसे उम्मीद कर रहे हैं।" मैंने एक नज़र भाभी के चेहरे पर डालने के बाद कहा____"ख़ैर ये सब छोड़िए, और ये बताइए कि मायके जाने की ख़ुशी तो है न आपको?"

"ख़ुशी क्यों नहीं होगी भला?" भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"मेरे भैया को दस सालों बाद बड़ी मन्नतों से पहली संतान हुई है। सच कहूं तो मैं बहुत खुश हूं और मुझे यकीन है कि भैया तो इस खुशी में आज कल फूले न समा रहे होंगे। जी करता है एक पल में वहां पहुंच जाऊं और उन सबके खुशी से जगमगाते चेहरे देखूं।"

"ज़रूर देखेंगी भाभी।" मैंने कहा____"बहुत जल्द मैं आपको उन सबके पास पहुंचा दूंगा। वैसे वहां पहुंच कर आप तो अपनों के साथ ही ब्यस्त हो जाएंगी लेकिन सोच रहा हूं कि मुझ मासूम का क्या होगा? वहां कोई मेरी तरफ ध्यान भी देगा या नहीं?"

"सब ध्यान देंगे।" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और हां, मेरे सामने तुम ज़्यादा मासूम और भोला बनने का ये नाटक मत करो। सब जानती हूं तुम्हारे कारनामे।"

"मेरे कारनामे??" मैं एकदम से चौंका____"ये क्या कह रही हैं आप?"
"मैंने कहा न कि मेरे सामने नाटक मत करो।" भाभी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"तुम अगर ये सोचते हो कि मुझे कुछ पता नहीं है तो ये तुम्हारी भूल है। तुमने मेरे मायके में अपने नाम का जो डंका बजा रखा है न उसके बारे में सब पता है मुझे।"

"पता नहीं ये क्या कह रही हैं आप?" मैं अंदर ही अंदर उनकी इस जानकारी पर हैरान था किंतु प्रत्यक्ष में अंजान बनते हुए बोला_____"भला मैं भोला भाला आदमी कैसे कहीं अपने नाम का डंका बजा सकता हूं?"

"कुछ तो शर्म करो वैभव, कुछ तो भगवान से डरो।" भाभी ने मेरे बाजू पर ज़ोर से मारते हुए कहा____"मैंने मां जी से सुना है कि बड़े दादा ठाकुर के भी हर जगह ऐसे ही डंके बजते थे और अब तुम्हारे बजने लगे हैं। आख़िर कब सुधरोगे तुम?"

"क्या आपको नहीं लगता कि मैं पहले से थोड़ा सा ही सही लेकिन सुधर गया हूं?" मैंने इस बार थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"क्या आपको नहीं लगता भाभी कि मैं आपकी बातों को मान कर वो सब करने लगा हूं जो मुझे करना चाहिए?"

"बिल्कुल लगता है वैभव।" भाभी ने इस बार मुझे प्रशंशा की दृष्टि से देखते हुए कहा____"और सच कहूं तो तुम्हारे इस बदले हुए रूप को देख कर मैं बेहद खुश हूं। तुमने तो वो काम किया है जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। तुमने मेरी बेरंग और उजाड़ दुनिया में जो खुशी के रंग भर दिए हैं उसके लिए मैं हमेशा तुम्हारी ऋणी रहूंगी। अब तो बस एक ही इच्छा है कि तुम पूरी तरह से सुधर जाओ और पूरी ईमानदारी से हर ज़िम्मेदारी को निभाओ।"

"मुझसे जो हो सकता है उसे मैं पूरी ईमानदारी से कर रहा हूं भाभी।" मैंने संजीदगी से कहा____"और आगे भी यही कोशिश करता रहूंगा कि आपकी उम्मीदों पर खरा उतरूं। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि अब भैया का बर्ताव कैसा है आपके साथ?"

"उनका तो जैसे कायाकल्प हो गया है वैभव।" भाभी ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"साढ़े तीन साल पहले जैसे वो थे उससे कहीं ज़्यादा अब उनका बर्ताव बेहतर हो गया है। आज कल तो मैं उनके हर क्रिया कलाप से हैरान होती रहती हूं। कभी कभी तो ऐसा आभास होता है जैसे वो मेरे पति हैं ही नहीं बल्कि उनकी शक्ल में कोई और ही बेहतर इंसान आ गया है।"

"हाहाहा ऐसा क्या करने लगे हैं वो।" मैंने हंसते हुए कहा____"जिससे आप इतना ज़्यादा हैरान होती रहती हैं?"
"अब तुमसे क्या बताऊं वैभव।" भाभी के चेहरे पर सहसा शर्म की लाली उभर आई____"बस यूं समझो कि अब उनके हर कार्य से मैं खुश हूं।"

"फिर तो ये अच्छी बात है।" मैंने सहसा मायूस हो कर कहा_____"बस एक हम ही हैं जिस पर इतने कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। कुछ लोगों को शायद हमारा ख़ुश रहना अच्छा नहीं लगता।"

"चिंता मत करो।" भाभी ने हल्के से हंसते हुए कहा_____"तुम्हारी ख़ुशी का भी जल्द इंतजाम किया जाएगा। इस बार मां जी से कहूंगी कि वो तुम्हारे लिए कोई अच्छी सी लड़की खोजें और फिर जल्दी ही तुम्हारा ब्याह कर दें ताकि ख़ुश होने का तुम्हें भी एक बेहतरीन साधन मिल जाए।"

"ये तो ग़लत बात है भाभी।" मैंने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"अभी तो मेरी खेलने कूदने की उमर है और आप मेरे गले में किसी लड़की से ब्याह करवा के घंटी बांध देने की बात कर रही हैं? सरासर नाइंसाफी है ये मेरे साथ।"

"कोई नाइंसाफी नहीं है ये।" भाभी ने हंसते हुए कहा____"बल्कि ये तो ऐसी बात है जिसके बाद तुम्हारा हर जगह झंडे गाड़ना बंद हो जाएगा। ऐसी देवरानी लाऊंगी जो हर वक्त तुम्हारी अक्ल को ठिकाने लगाती रहे और तुम्हारा उछलना कूदना बंद कर दे।"

"वाह! क्या बात है।" मैंने कहा____"मेरी अपनी ही प्यारी भाभी मेरी खुशियों को आग लगा देना चाहती हैं। हे ऊपर वाले! ये सब सुनने से पहले मैं बहरा क्यों नहीं हो गया?"

"ज़्यादा नाटक मत करो।" भाभी ने हंसते हुए कहा____"और अब चुपचाप गाड़ी चलाओ। एक बात और, मेरे मायके में किसी के यहां झंडे गाड़ने का सोचना भी मत वरना इस बार मैं ख़ुद पिटाई करूंगी तुम्हारी।"

"देखिए ऐसा है भाभी कि मैं अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश करूंगा कि ऐसा न हो।" मैंने मज़ाकिया लहजे में कहा____"लेकिन अगर कोई मुझ पर मोहित हो कर ख़ुद ही मेरे पास प्रसाद लेने आएगी तो फिर मैं प्रसाद दिए बगैर मानूंगा भी नहीं।"

"हाय राम! बहुत ही निर्लज्ज हो तुम।" भाभी ने फिर से मेरी बाजू पर ज़ोर से मारा____"मैं समझ गई कि तुम कभी नहीं सुधर सकते। जाओ मुझे तुमसे अब कोई बात नहीं करना।"

"अच्छा ठीक है बात मत कीजिए।" मैंने उन्हें छेड़ने के इरादे से कहा____"लेकिन ये तो बताइए कि आपके मायके में वो शालिनी नाम की लड़की अभी भी है न? असल में पिछली बार जब उससे मुलाक़ात हुई थी तो बता रही कि अब उसका भी ब्याह हो जाएगा तो शायद ही अब उससे मेरी मुलाक़ात हो पाए।"

"हे भगवान! क्या तुमने उसे भी नहीं बक्शा?" भाभी ने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर मेरी तरफ देखा____"कितने ख़राब हो तुम वैभव। यकीन नहीं होता कि तुमने मेरी सहेली को भी....। उफ्फ क्या कहूं तुम्हें?"

"अरे! आप ग़लत समझ रही हैं भाभी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने उस लड़की के साथ कुछ भी ग़लत नहीं किया है लेकिन हां, उस पर दिल ज़रूर आ गया था। जितनी प्यारी वो दिखती थी उतनी ही प्यारी बातें भी करती थी। हमारे बीच मामला कुछ हद तक आगे बढ़ चुका था। पिछली बार जब मैं उसकी गोद में सिर रख के लेटा हुआ था तो उसने अपनी ज़ुल्फों से मेरे चेहरे को ढंक दिया था। क़सम से भाभी, वो दृश्य बड़ा ही मनमोहक था। उसके बाद आपको पता है आगे क्या हुआ?"

"मुझे मत बताओ।" भाभी ने गुस्से से कहा____"मुझे तुम्हारी ये गंदी बातें हर्गिज़ नहीं सुनना। तुम बस ख़ामोशी से गाड़ी चलाओ।"
"ज़ालिम लोग।" मैंने हताश भाव से कहा____"किसी को हमारी खुशी की परवाह ही नहीं है। ख़ैर कोई बात नहीं, ठाकुर वैभव सिंह का नसीब ही खोटा है तो कोई क्या ही कर सकता है?"

मैं जानता था कि भाभी मेरी बातों से चिढ़ गई हैं इस लिए अब मैं और उन्हें गुस्सा नहीं दिलाना चाहता था। उसके बाद का सारा सफ़र ख़ामोशी में ही गुज़रा। आख़िर हम भाभी के मायके चंदनपुर पहुंच ही गए। वहां सबने बड़ी गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। भाभी अपने माता पिता और भैया भाभी से मिल कर बेहद खुश हो गईं थी।

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अनुराधा रसोई में दोपहर का खाना बना रही थी लेकिन उसका ध्यान खाना बनाने में नहीं बल्कि कहीं और ही था। बार बार उसके ज़हन में वैभव की कही हुई बातें गूंज उठती थी और वो उन बातों के बारे में सोचने लगती थी। जब से वैभव उसके यहां से वो सब कह कर गया था तब से वो ज़्यादातर उसी के बारे में ही सोचती रही थी। पिछली रात तो उसे नींद ही नहीं आ रही थी। चारपाई पर देर रात तक वो करवटें बदलती रही थी। बड़ी मुश्किल से पता नहीं रात के कौन से पहर उसे नींद आई थी। उसके बाद सुबह हुई और फिर जैसे ही उसे पिछली रात नींद न आने की वजह याद आई तो वो फिर से वैभव के बारे में सोचने लगी थी।

अनुराधा की मां सरोज सुबह से अब तक कई बार उससे पूछ चुकी थी कि वो इतना खोई खोई सी क्यों है? अगर उसकी तबियत ठीक नहीं है तो वो उसे वैद्य के पास ले जाएगी मगर अनुराधा ने बस यही कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। अब भला वो उसे क्या बताती कि वो क्यों सुबह से गुमसुम है अथवा किस वजह से खोई खोई सी है? वो घर के कामों में अपना मन लगा कर किसी तरह उस सबको भूलने की कोशिश करती रही लेकिन रसोई में बैठ कर जब वो खाना बनाने लगी तो एक बार फिर से उसके ज़हन में वही सब चलने लगा था।

अनुराधा कोई बच्ची नहीं थी, वो जानती थी कि दुनिया में क्या क्या होता है और लोग कैसी कैसी मानसिकता के होते हैं। उसने अपनी छोटी सी दुनिया में यूं तो और भी बहुत कुछ देखा सुना था लेकिन पिछले कुछ महीनों में जो कुछ उसने देखा सुना था वो उस सबसे अलग था। वो एक ऐसी लड़की थी जिसने कभी किसी मर्द जात को नज़र उठा कर नहीं देखा था, सिवाय अपने बापू और काका जगन के। गांव से थोड़ा दूर उसका घर अकेला ही बना हुआ था इस लिए गांव के लड़के इस तरफ नहीं आते थे। जगन काका के घर भी जब वो जाती थी तो कोई न कोई उसके साथ होता था इस लिए उसके साथ कभी ऐसा वैसा कुछ हुआ ही नहीं था। दूसरे उसका स्वभाव भी कुछ शांत और शर्मीला सा था जिसकी वजह से वो कभी किसी पराए मर्द की तरफ देखने की हिम्मत नहीं करती थी। अपने बापू की लाडली थी वो, अपने बापू का गुरूर थी वो। हालाकि उसकी मां हमेशा उसके इस गुप्पे स्वभाव के लिए डांटती थी।

जीवन बहुत खुशहाल भले ही नहीं था लेकिन जैसा भी था वो उससे खुश थी। उसकी एक छोटी सी दुनिया थी, जिसमें उसके मां बापू और एक छोटा सा लेकिन प्यारा सा भाई था। उसने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि आगे एक ऐसा वक्त आएगा जब उसके छोटे से संसार में बहुत कुछ बदल जाएगा। एक दिन उसे पता चला कि उसके बापू ने दूसरे गांव के एक ऐसे लड़के की मदद करने की ज़िम्मेदारी ले ली है जिसके बाप ने उसे गांव समाज से बेदखल कर दिया है।

वक्त कभी किसी के लिए नहीं रुकता, वो पंख लगाए उड़ता ही रहता है। अनुराधा के कानों तक भी ये बात पहुंच चुकी थी कि दादा ठाकुर ने अपने जिस लड़के को गांव समाज से बेदखल किया है उस लड़के का नाम क्या है और उसका चरित्र कैसा है। अनुराधा ये सोच कर तो खुश हुई थी कि उसके बापू किसी बेसहारे की मदद कर रहे हैं लेकिन इस बात से वो थोड़ा असहज भी हो गई थी कि जिस लड़के का चरित्र ही ठीक नहीं है उसकी मदद करने का कोई बुरा असर न पड़ जाए। उसकी मां ने भी इस बात के लिए उसके बापू को समझाया था लेकिन होनी को तो जैसे यही मंजूर था। ख़ैर वक्त ऐसे ही गुज़रता रहा, और गुज़रते वक्त के साथ वैभव नाम के लड़के के प्रति जो ख़ौफ था वो भी दूर होता गया।

वैभव जब पहली बार उसके बापू के साथ उसके घर आया था तब उसने भी उसे चुपके से देखा था। उसके भोले भाले मन में ये जानने की उत्सुकता थी कि जिस लड़के के बारे में दूर दूर तक के गांव में भी बातें फैली हुई हैं वो दिखता कैसा है? जिस घर में वो बड़ी बेबाकी के साथ रहती आई थी उस दिन वैभव के आने से पता नहीं क्यों उसे असहज महसूस होने लगा था। ख़ैर जब उसकी नज़र उस करामाती लड़के पर पड़ी तो जैसे वो कुछ देर के लिए ख़ुद को ही भूल गई थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि कामदेव की तरह सुंदर और हट्टे कट्टे जिस्म वाला ये लड़का ऐसे काम भी करता होगा। उस मासूम को भला कैसे ये ज्ञान हो सकता था कि आंखें जो देखती हैं हमेशा वही सच नहीं होता। दुनिया में ऐसे नेक इंसान भी भरे पड़े हैं जिनकी शक्लो सूरत अच्छी नहीं होती लेकिन लोग पहली नज़र में उन्हें एक बुरा इंसान ही समझ बैठते हैं।

वैभव शक्ल सूरत से भले ही एक सुंदर नवयुवक था लेकिन उसके कर्म उसकी तरह सुंदर नहीं थे। अनुराधा को उस वक्त झटका लगा था जब वैभव ने भी उसकी तरफ देखा था और उसकी नज़र उससे जा मिली थी। वो एकदम से हड़बड़ा गई थी, दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर उसकी कनपटियों पर बजने लगीं थी। वो घबरा कर जल्दी से अन्दर भाग गई थी। उसके बाद वो अक्सर यही कोशिश करती कि वैभव के घर आने पर वो उसके सामने कम ही जाए। हालाकि उसकी सूरत को एक बार देख लेने की चाह उसके मन में ज़रूर रहती थी और ऐसा क्यों था ये उसे ख़ुद नहीं पता था। शायद ये वैभव के सुंदर होने की वजह से था जिसके चलते न चाहते हुए भी एक लड़की उसे देखने पर मज़बूर हो जाती थी।

वैभव जब भी उसके घर आता तो वो चुपके से उसे देख लेती और फिर अपने सामने उसके बारे में तरह तरह की बातें सोचने लगती। उसे बार बार याद आता कि ये वही लड़का है जो न जाने कितनी लड़कियों और औरतों को अपने जाल में फांस कर उनके साथ ग़लत कर चुका है। इस ख़्याल के साथ ही अनुराधा के मन में वैभव के प्रति एक घृणा सी भर जाती लेकिन इसके लिए वो ख़ुद कुछ नहीं कर सकती थी। ऐसे ही वक्त गुज़रता रहा और एक महीना गुज़र गया। इस एक महीने में काफी कुछ बदल गया था। वैभव के प्रति उसके मन में जो ख़्याल पहले पैदा हुए थे वो अब ये सोच कर ग़ायब से होने लगे थे कि अगर ये इतना ही गंदा लड़का होता तो अब तक वो मुझे भी अपने जाल में फांस लेता, ये अलग बात है कि मैं उसके जाल में कभी न फंसती। उसने ख़ुद महसूस किया था कि इस एक महीने में वैभव ने कभी उसे ग़लत नज़र से नहीं देखा और ना ही कभी उससे बात करने की कोशिश की है। अनुराधा को लगने लगा कि शायद उसने उसके बारे में ग़लत सुना था, लेकिन फिर वो ये भी सोचती कि हर कोई तो ग़लत नहीं कह सकता ना?

इस सृष्टि का नियम है कि देर से ही सही लेकिन हमारे लिए सब कुछ सामान्य हो जाता है और हम सब कुछ भूल कर एक नए सिरे से जीवन को जीना शुरू कर देते हैं। यही हाल अनुराधा का हुआ था। उसे पूरी तरह से भले ही यकीन नहीं हुआ था लेकिन क्योंकि वो देख और महसूस कर चुकी थी कि वैभव वैसा तो बिलकुल नहीं है जैसा कि उसके बारे में लोगों ने फैला रखा है, इस लिए अब वो काफी हद तक सहज हो गई थी।

अपने गांव के लड़कों को देखा था उसने लेकिन वैभव उन सबसे अलग ही दिखता था उसे। वो उन सबसे सुंदर दिखता था, उसका जिस्म हट्टा कट्टा था जो उसकी उमर के लड़कों में उसने किसी का भी नहीं देखा था। जब भी किसी दिन वो उसके घर आता था तो वो उसे छुप कर देखती थी। अकेले में वो बस यही सोचती थी कि उसकी बूढ़ी दादी अपनी कहानियों में जिन राजकुमारों का ज़िक्र करती थी वैभव बिलकुल वैसा ही लगता है। ये बात सोच कर वो एकदम से खुश हो जाती और फिर सहसा मायूस हो कर सोचती कि काश वो भी एक राजकुमारी की तरह सुंदर होती।

सहसा कुछ जलने की गंध महसूस हुई तो अनुराधा को होश आया। उसने हड़बड़ा कर देखा तो तवे में पड़ी रोटी धुआं देने लगी थी। चूल्हे के अंदर जो रोटी लकड़ी के अंगारों की आंच में पकने के लिए एक तरफ टिकी थी वो तो कब की ख़ाक हो चुकी थी। ये सब देख कर अनुराधा बुरी तरह घबरा गई। एक तो गर्मी और ऊपर से चूल्हे की आंच में वैसे भी उसका बुरा हाल था। जीवन में पहली बार उसे खाना बनाना इतना मुश्किल काम लग रहा था। वो हताश और परेशान सी हो कर कभी तवे के ऊपर पड़ी अधजली और धुआं दे रही रोटी को देखती तो कभी अपने हाथ में लिए उस लोई को जिसे दोनों हथेलियों द्वारा थाप लगाने से उसे रोटी का आकार देना बाकी था।

अनुराधा ने फौरन ही लोई को गुंथे हुए आटे पर रखा और चिमटे से तवे को चूल्हे से उतारा। तवे पर पड़ी रोटी तवे पर एकदम से चिपक गई थी और धुआं छोड़ रही थी। अनुराधा जल्दी जल्दी चिमटे से उसे कुरेद कुरेद कर निकालने लगी। पसीने से उसका बुरा हाल था, उसने महसूस किया जैसे आज कुछ ज़्यादा ही गर्मी है। कुछ ही देर के प्रयास में उसने तवे से उस अधजली रोटी को निकाल कर एक तरफ रख दिया। तवे में एक काली परत सी बन गई थी जिससे नई बनने वाली रोटियां यकीनन ख़राब हो सकतीं थी इस लिए अनुराधा चिमटे से तवे को पकड़ कर बाहर नरदे के पास ले आई। उसकी मां कपड़े वगैरा ले कर घर के पीछे कुएं में गई हुई थी। अनुराधा ने जल्दी जल्दी पानी डाल कर पहले गर्म तवे को ठंडा किया और फिर थोड़ी मिट्टी ले कर तवे को मांजने लगी। कुछ ही देर में उसने तवे को एकदम साफ़ कर दिया।

रसोई में आ कर अनुराधा ने तवे में सफ़ेद छुई से हल्का लेप लगाया और फिर उस तवे को मिट्टी के चूल्हे पर चढ़ा दिया। चूल्हे में मौजूद लकड़ी और कंडे को उसने सुव्यवस्थित किया और फिर गुंथे हुए आटे से लोई ले कर रोटी पोने लगी। उसने निश्चय कर लिया कि अब वो सिर्फ़ रोटी बनाने पर ही ध्यान देगी वरना अगर उसकी मां आ गई और उसे रोटियों के जलने की गंध महसूस हो गई तो बहुत डांटेगी।

अक्सर ऐसा होता है कि हम सोचते कुछ हैं और होता कुछ और ही है। जिस चीज़ को हम भुलाने का प्रयास करते हैं वो भूलने के बहाने से याद आती ही रहती है। अनुराधा को सच में आज का खाना बनाना बेहद मुश्किल काम लगा था। ख़ैर किसी तरह खाना बना ही डाला उसने। उसकी मां भी नहा धो कर आ गई थी इस लिए सबने एक साथ ही बैठ कर खाना खाया। खाने के बाद अनुराधा ने जूठे बर्तनों को एक तरफ रखा और फिर वो अपने कमरे में चारपाई पर आराम करने के लिए लेट गई। आंखें बंद की तो एक बार फिर से वैभव का चेहरा उभर आया और साथ ही उसकी बातें उसके कानों में गूंजने लगीं।

अनुराधा ने झट से आंखें खोली और फिर बेचैनी से करवट बदल कर दूसरी तरफ घूम गई। वो बच्ची नहीं थी, उसे दुनियादारी वाली हर बातों की समझ थी। अच्छे बुरे का भली भांति ज्ञान था उसे। जो चीज़ उसे रात से परेशान कर रही थी उसका उसे अब शिद्दत से एहसास हो रहा था। उसे एहसास हो रहा था कि उसने वैभव को भावना में बह कर कुछ ज़्यादा ही बोल दिया था। पिछले पांच महीनों से वो वैभव को पहचानने की कोशिश कर रही थी और इन पांच महीनों में इतना तो उसे एहसास हो ही चुका था कि वैभव दूसरी लड़कियों के बारे में भले ही चाहे जैसा सोचता हो लेकिन कम से कम उसके बारे में वो ग़लत नहीं सोचता था।

अनुराधा को सहसा याद आया कि कैसे वो हर बार उसे ठकुराईन कह कर चिढ़ाता था और वो अपने लिए ठकुराईन सुन कर शर्म से सिमट जाती थी। आम तौर पर ठकुराईन शब्द किसी ब्याहता औरत के लिए प्रयोग किया जाता है किंतु वैभव का उसे ठकुराईन कहना अजीब तो लगता ही था लेकिन कहीं न कहीं अपने लिए उसे वैभव के मुख से ये सुन कर अच्छा भी लगता था। एक अलग ही तरह का एहसास होता था उसे जिसके बारे में उसे ख़ुद ही पता नहीं था। चारपाई पर दूसरी तरफ मुंह किए लेटी अनुराधा वैभव के साथ बिताए आख़िरी पलों में जैसे खो सी गई।

"आप क्यों बार बार मुझे ठकुराईन कहते हैं?" वैभव के ठकुराईन कहने पर वो शर्म से लाल हो गई थी, और फिर उसने उससे यही कहा था।

"क्यों न कहूं?" उसने मानों उसे छेड़ा____"आख़िर तुम हो तो ठकुराईन ही। अगर तुम्हें मेरे द्वारा ठकुराईन कहने पर ज़रा सा भी एतराज़ होता तो तुम्हारे होठों पर इस तरह मुस्कान न उभर आती।"

"तो क्या चाहते हैं आप कि मैं आपके द्वारा ठकुराईन कहने पर आप पर गुस्सा हुआ करूं?" उसने अपनी मुस्कान को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा था।

"क्यों नहीं।" वैभव ने उसकी गहरी आंखों में देखा था____"तुम्हें मुझ पर गुस्सा होने का पूरा हक़ है। तुम मेरी डंडे से पिटाई भी कर सकती हो।"

"धत्त! ये क्या कह रहे हैं आप?" वो वैभव की ये बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, फिर शर्माते हुए बोली____"मैं भला कैसे आपकी पिटाई कर सकती हूं?"
"क्यों नहीं कर सकती?" वैभव ने मुस्कुराते हुए कहा था____"अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें पूरा हक़ है मेरी पिटाई करने का।"

"न जी न।" वो शरमा कर दरवाज़े से एक तरफ हट गई थी, फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए बोली____"मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती।"

चारपाई पर लेटी अनुराधा की आंखों के सामने जैसे ही ये सारे दृश्य उजागर हुए और वैभव से उसकी ये बातें महसूस हुईं तो सहसा उसके होठों पर मुस्कान उभर आई। उसके नन्हे से दिल में एक हलचल सी मच गई थी। तभी सहसा उसे कुछ ऐसा याद आया जिसने उसे कहीं और ही धकेल दिया।

"ओह! तो मेरी अनुराधा रूठ गई है मुझसे?" वैभव के मुख से जैसे ही उसने ये सुना तो उसे बड़ा ज़ोर का झटका लगा था। आंखें फाड़े वो उसकी तरफ देखने लगी थी, किंतु जल्दी ही सम्हली और फिर बोली____"ये क्या कह रहे हैं आप? मैं आपकी अनुराधा कैसे हो गई?"

"पता नहीं कैसे मेरे मुख से निकल गया?" उसने महसूस किया जैसे वैभव ने अपनी घबराहट को दबाने का प्रयास करते हुए कहा था____"वैसे क्या तुम्हें मेरी अनुराधा कह देने पर एतराज़ है?"

"हां बिलकुल एतराज़ है मुझे।" उसके चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे____"मैं सिर्फ़ अपने माता पिता की अनुराधा हूं किसी और की नहीं। अगर आप ये समझते हैं कि आप बाकी लड़कियों की तरह मुझे भी अपने जाल में फंसा लेंगे तो ये आपकी सबसे बड़ी भूल है छोटे ठाकुर।"

अनुराधा को अपनी कही हुई बातें जब महसूस हुई तो सहसा उसके समूचे बदन में सिहरन सी दौड़ गई। ज़हन में ख़्याल उभरा कि उस वक्त कितना कठोर हो गई थी वो। उसने वैभव की उन बातों का बस वही एक मतलब समझा था, पर क्या ये ज़रूरी था कि उसके कहने का सिर्फ़ वही मतलब रहा हो? ये सब सोच कर उसके अंदर एक हूक सी उठी जिसके चलते उसे एक ऐसे दर्द की अनुभूति हुई जो अब तक मिले हर दर्द से अलग था। अचानक उसके कानों में वैभव के कहे शब्द गूंज उठे।

"अब जल्दी से कोई डंडा खोज कर लाओ।" उसकी तीखी बातें सुन कर वैभव ने कहा था____"और उस डंडे से मेरी पिटाई करना शुरू कर दो।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" वैभव की बात सुन कर जब वो उलझ गई थी तो उसने जैसे उसे समझाते हुए कहा था____"सही तो कह रहा हूं मैं। कुछ देर पहले मैंने तुमसे कहा था ना कि अगर मैं कोई ग़लती करता हूं तो तुम्हें मेरी पिटाई करने का पूरा हक़ है। अब क्योंकि मैंने ग़लती की है तो इसके लिए तुम्हें डंडे से मेरी पिटाई करनी चाहिए।"

"बातें मत बनाइए।" उसने कठोरता से कहा था____"सब समझती हूं मैं। अगर आपके मन में मेरे प्रति यही सब है तो चले जाइए यहां से। अनुराधा वो लड़की हर्गिज़ नहीं है जो आपके जाल में फंस जाएगी। हम ग़रीब ज़रूर हैं छोटे ठाकुर लेकिन अपनी जान से भी ज्यादा हमें अपनी इज्ज़त प्यारी है।"

"तो फिर ये भी जान लो अनुराधा कि तुम्हारी इज्ज़त मुझे भी खुद अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।" उसकी बातें सुन कर वैभव मानो हताश हो कर बोल पड़ा था____"मैं खुद मिट्टी में मिल जाना पसंद करूंगा लेकिन तुम्हारी इज्ज़त पर किसी भी कीमत पर दाग़ नहीं लगा सकता और ना ही किसी के द्वारा लगने दे सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरा चरित्र ही ऐसा है कि किसी को भी मेरी किसी सच्चाई पर यकीन नही हो सकता लेकिन एक बात तुम अच्छी तरह समझ लो अनुराधा कि मैं चाहे सारी दुनिया को दाग़दार कर दूं लेकिन तुम पर दाग़ लगाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं कि तुम वो लड़की हो जिसने मेरे मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और मुझे खुशी है कि तुमने मेरा कायाकल्प कर दिया है। तुमसे हसी मज़ाक करता हूं तो एक अलग ही तरह का एहसास होता है। मेरे मन में अगर ग़लती से भी तुम्हारे प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो मैं अपने आपको कोसने लगता हूं। ख़ैर, मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं देना चाहता। अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

कानों में गूंजते वैभव के ये एक एक शब्द मानो अनुराधा के हृदय को चीरते हुए उसकी अंतरात्मा तक को झकझोरते चले गए थे। उसे एकदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे सब कुछ एक पल में शांत हो गया हो। अपने चारो तरफ उसे दूर दूर तक फैली एक सफेद धुंध सी दिखाई दी और उस धुंध के बीच उसने खुद को अकेला पाया___एकदम बेबस, लाचार और असहाय। अनुराधा घबरा कर चारपाई पर उठ कर बैठ गई। समूचे बदन में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई उसके। दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से कोई तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ। नन्हे दिल में अभी अभी पैदा हुए जज़्बात बुरी तरह से मचल उठे। सहसा उसकी बाईं आंख से एक आंसू का कतरा निकला और उसके रुखसार पर टपक पड़ा। उसने चौंक कर इधर उधर देखा और फिर आंसू के उस कतरे को पोंछते हुए कमरे से बाहर निकल गई। उसे बहुत तेज़ रोने का मन करने लगा था।



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अब तक....

कानों में गूंजते वैभव के ये एक एक शब्द मानो अनुराधा के हृदय को चीरते हुए उसकी अंतरात्मा तक को झकझोरते चले गए थे। उसे एकदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे सब कुछ एक पल में शांत हो गया हो। अपने चारो तरफ उसे दूर दूर तक फैली एक सफेद धुंध सी दिखाई दी और उस धुंध के बीच उसने खुद को अकेला पाया___एकदम बेबस, लाचार और असहाय। अनुराधा घबरा कर चारपाई पर उठ कर बैठ गई। समूचे बदन में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई उसके। दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से कोई तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ। नन्हे दिल में अभी अभी पैदा हुए जज़्बात बुरी तरह से मचल उठे। सहसा उसकी बाईं आंख से एक आंसू का कतरा निकला और उसके रुखसार पर टपक पड़ा। उसने चौंक कर इधर उधर देखा और फिर आंसू के उस कतरे को पोंछते हुए कमरे से बाहर निकल गई। उसे बहुत तेज़ रोने का मन करने लगा था।

अब आगे....

गांव के शमशान में काफ़ी लोग जमा थे।
दरोगा ने रेखा और शीला की लाश को उनके घर वालों के सुपुर्द कर दिया था और अब दोनों के घर वाले अपनी अपनी बीवियों का अंतिम संस्कार करने के लिए उन्हें शमशान में ले आए थे। गांव के लोग तो थे ही साथ ही पास के गांव के भी लोग आ गए थे। दादा ठाकुर भी अपने छोटे भाई जगताप और बड़े बेटे अभिनव के साथ वहां मौजूद थे। गांव का साहूकार मणि शंकर तथा मुंशी चंद्रकांत भी वहीं था। ख़ैर सारी क्रियाएं होने के बाद लाशों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। दोनों मृतकों के घर वाले बेहद दुखी थे। रेखा और शीला के छोटे छोटे बच्चे थे जो अब बिना मां के हो गए थे। कुछ समय बाद एक एक कर के सब लोग वहां से चले गए।

दादा ठाकुर ने आगे बढ़ कर मंगल और देवधर को सांत्वना दी और साथ ही ये भी कहा कि उन्हें जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो वो हमेशा उन्हें हवेली से मिलती रहेगी। मंगल और देवधर को क्योंकि अपनी अपनी बीवियों का सच पता चल चुका था इस लिए वो खुद भी उस सबके लिए दादा ठाकुर के सामने हाथ जोड़े हुए थे। ख़ैर उसके बाद दादा ठाकुर और साहूकार मणि शंकर साथ साथ ही वहां से वापस चल दिए। रास्ते में इसी संबंध में थोड़ी बहुत बातें हुईं उसके बाद मणि शंकर ने बताया कि उसकी बेटी का रिश्ता एक जगह पक्का हो गया है और अब लग्न बनवा कर वो जल्द ही अपनी बेटी का ब्याह कर देना चाहते हैं। मणि शंकर की इस बात से दादा ठाकुर ने उसे बंधाई दी।

कुछ समय बाद दादा ठाकुर अपने भाई और बेटे के साथ हवेली पहुंच गए। बैठक में रखे अपने सिंहासन पर बैठने के बाद दादा ठाकुर ने जगताप और अभिनव को अलग अलग काम सौंपा और फिर कुछ देर आराम करने के लिए अपने कमरे में चले गए।

"क्या हुआ?" कमरे में आते ही हवेली की ठकुराईन सुगंधा देवी ने दादा ठाकुर से कहा____"आराम करने की जगह कहीं खोए हुए हैं आप?"
"कोई ख़ास बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने बात को टालने की गरज से कहा____"बस ऐसे ही किसी के बारे में सोच रहे थे।"

"आप तो कभी हमसे कुछ बताते ही नहीं हैं।" सुगंधा देवी ने शिकायती लहजे में कहा____"हम तो सिर्फ़ नाम के लिए ही हैं इस हवेली में। आप मानें या न मानें लेकिन ये सच है कि इस हवेली के मर्द औरत जात को कभी कोई प्राथमिकता नहीं देते।"

"आप बेवजह ही ऐसा सोचती हैं।" दादा ठाकुर ने पलंग के सिरहाने से अपनी पीठ टीका कर कहा____"हमारी नज़र में तो इस हवेली की असल मालकिन आप ही हैं। हवेली के अंदर सिर्फ़ आप ही का शासन चलता है।"

"ये तो आप हमारा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" सुगंधा देवी ने कटाक्ष किया____"शायद आप ये समझते हैं कि हम बिल्कुल ही दिमाग़ से पैदल हैं इस लिए जो कुछ आप कह देंगे उसी को हम सच समझ बैठेंगे।"

"आज क्या हो गया है आपको?" दादा ठाकुर के माथे पर सहसा बल पड़ गया____"आज से पहले तो कभी आपने हमसे ऐसे उखड़े हुए लहजे में बात नहीं की, फिर आज ऐसा क्या हो गया है? क्या हमें बताएंगी नही?"

"हम जानना चाहते हैं कि आज कल हवेली के अंदर और बाहर दोनों जगह क्या चल रहा है?" सुगंधा देवी ने दादा ठाकुर की तरफ देखते हुए कहा____"अगर आप ये समझते हैं कि हमें कुछ महसूस नहीं होता तो ये आपकी ग़लतफहमी है।"

दादा ठाकुर ने फ़ौरन कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि वो सुगंधा देवी के चेहरे पर मौजूद भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगे थे। उधर सुगंधा देवी उनके मुख से जवाब सुनने की उम्मीद में उन्हीं को देखे जा रहीं थी।

"ऐसा कुछ भी नहीं चल रहा है जैसे कि आप आशंका जता रही हैं।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"आप इन सब बातों के बारे में इतना ज़्यादा मत सोचिए। बाकी आप तो जानती ही हैं कि हर इंसान के जीवन में छोटी मोटी समस्याएं बनी ही रहती हैं। हमारे सामने भी छोटी मोटी समस्याएं हैं लेकिन आप फ़िक्र मत कीजिए, हम अपने तरीके से सब सम्हाल लेंगे।"

"हवेली की दो नौकरानियों की मौत हो गई।" सुगंधा देवी ने सहसा नाराज़गी भरे अंदाज़ से कहा____"कल सुबह गांव के कुछ लोग उनकी मौत होने पर आपकी हवेली में आ कर आपके ही सामने ऊंची आवाज़ में आप पर ही उनकी हत्या का आरोप लगा रहे थे और आप कहते हैं कि ये छोटी मोटी समस्या है? गांव के लोगों का तो समझ में आता है कि वो रेखा और शीला की इस तरह हो गई मौत से दुखी हो कर आपसे ऐसा कह रहे थे लेकिन ये समझ में नहीं आता कि हवेली में काम करने वाली दो नौकरानियों की इस तरह से मौत हो जाए? रेखा ने हमारी ही हवेली के एक कमरे में ज़हर खा कर खुदकुशी कर ली और शीला को किसी ने हमारे ही बगीचे में गला रेत कर मार डाला। क्या ये सब बातें आपको छोटी मोटी लगती हैं? नहीं ठाकुर साहब, ये कोई छोटी मोटी बात नहीं है बल्कि बहुत बड़ी बात है। आख़िर ऐसा क्या हो रहा है आज कल जिसे आप हम सबसे छुपा रहे हैं? आख़िर क्यों हवेली की दो दो नौकरियां इस तरह से ऊपर वाले को प्यारी हो गईं?"

दादा ठाकुर को समझते देर न लगी कि सुगंधा देवी बिना जवाब पाए मानेंगी नहीं। अतः उन्होंने उन्हें संक्षेप में उतना ही बताया जितना बताना ज़रूरी था और जितने में उनके मन में ज़्यादा बुरा असर न पड़ सके। दादा ठाकुर के मुख से सुगंधा देवी ने जो कुछ सुना वो उन्हें हैरत में डाल देने के लिए और सोचो में गुम कर देने के लिए काफ़ी था।

"हम चाहते हैं कि ये सब बातें सिर्फ़ आप तक ही रहें।" अपनी पत्नी सुगंधा देवी को कहीं खोए हुए देख कर दादा ठाकुर ने कहा____"हवेली के अंदर किसी को भी इन सब बातों का पता नहीं लगना चाहिए। हम नहीं चाहते कि इस सबके चलते किसी के भी मन में डर और चिंता के भाव पैदा हो जाएं।"

"हमें तो यकीन ही नहीं हो रहा कि इतने समय से ये सब चल रहा है।" सुगंधा देवी ने हैरानी भरे भाव से कहा____"हे भगवान! ये कैसा दिन दिखा रहे हैं आप?"
"शांत हो जाइए।" दादा ठाकुर ने पलंग से उठ कर सुगंधा देवी को सम्हाला____"इसी लिए हम आपसे कुछ भी नहीं बताना चाहते थे, क्योंकि इससे आप पर गहरा असर पड़ जाना था। ख़ैर, हमने जो कहा है उस बात पर ध्यान दीजिएगा। हवेली में किसी को भी इन बातों का पता नहीं लगना चाहिए।"

"कौन कर रहा है ये सब?" सुगंधा देवी ने दादा ठाकुर की तरफ देखते हुए पूछा____"आख़िर क्या दुश्मनी है उसकी हमसे?"

"वैसे तो हमें थोड़ा बहुत अंदाज़ा है।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन जब तक कोई प्रमाण नहीं मिलता तब तक न हमारी आशंका सच हो सकती है और न ही ये पता चल सकता है कि ये सब कौन कर रहा है। ख़ैर आप इस सबको अपने ज़हन से निकाल दीजिए और सबके सामने पहले की तरह ही सामान्य बने रहिए। मेनका, रागिनी बहू और हमारी कुसुम बिटिया को इस सबका पता नहीं चलना चाहिए।"

"ठीक है।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ली____"हम इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहेंगे। हमें भी भान है कि इस सबका पता चलने से हमारे अपनों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।"

"ठीक है अब आप आराम कीजिए।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें एक जगह ज़रूरी काम से जाना है।"
"जी ठीक है।" सुगंधा देवी ने कहा____"आप अपना ख़्याल रखिएगा। ऐसे समय में लेश मात्र की भी लापरवाही नुकसानदायक हो सकती है।"

दादा ठाकुर आगे बढ़े और एक तरफ की दीवार से लगी लकड़ी की अलमारी को खोल कर उसमें से अपना एक रिवॉल्वर निकाला और फिर उसे कुर्ते के अंदर कमर के पास धोती में छुपा लिया। उसके बाद उन्होंने अलमारी को बंद किया और कमरे से बाहर निकल गए। सुगंधा देवी सोचो में गुम उन्हें जाता देखती रहीं।

[][][][][]

जब से वैभव के साथ रागिनी अपने मायके आई थी तब से घर के सभी सदस्य खुश थे। पूरे चंदनपुर में ये ख़बर फैल गई थी कि नरसिंहपुर के दादा ठाकुर का छोटा बेटा यानि ठाकुर वैभव सिंह आया है। दादा ठाकुर की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी इस वजह से लोग उन्हें भली भांति जानते थे और उनकी भारी इज्ज़त करते थे। दादा ठाकुर की तरह वैभव सिंह का नाम भी लोगों ने काफी सुन रखा था लेकिन उसके बारे में सबके मन में अलग अलग विचार थे। वो ये तो जानते थे कि ठाकुर वैभव सिंह एक रंग मिज़ाज नवयुवक है लेकिन उन्हें ये भी पता था कि वो ज़बरदस्ती किसी पर अत्याचार नहीं करता था। जहां उसके पिता दादा ठाकुर नम्र और शांत स्वभाव वाले थे वहीं वैभव थोड़ा गरम स्वभाव का था। लोग जब वैभव को देखते थे तो उसके चेहरे की सुंदरता और मासूमियत को देख कर भ्रम का शिकार भी हो जाते थे, ये सोच कर कि ऐसा सुंदर और मासूम दिखने वाला नवयुवक भला इतने संगीन काम कैसे कर सकता है?

(दोस्तो, यहां पर मैं रागिनी के मायके वालों का संक्षिप्त परिचय देना उचित समझता हूं।)

☞ ठाकुर किशन सिंह (रागिनी के दादा/ये अब इस दुनिया में नहीं हैं)
गायत्री सिंह (रागिनी की दादी/ये भी अब इस दुनिया में नहीं हैं)

ठाकुर किशन सिंह और गायत्री को कुल तीन संतानें हैं। जो इस प्रकार हैं:-

(01) वीरभद्र सिंह
(02) बलभद्र सिंह
(03) राधिका सिंह

✮ वीरभद्र सिंह (रागिनी के पिता)
सुलोचना सिंह (रागिनी की मां)

वीरभद्र सिंह और सुलोचना को चार संतानें हैं।
(01) वीरेंद्र सिंह (रागिनी का बड़ा भाई)
वंदना सिंह (वीरेंद्र सिंह की पत्नी)
वीरेंद्र सिंह और वंदना को दस सालों बाद बड़ी मन्नतों से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है।

(02) रागिनी सिंह (वीरेंद्र की बहन और दादा ठाकुर की बहू)

(03) नागेंद्र सिंह (रागिनी का छोटा भाई)
नागेंद्र सिंह अपने बड़े भाई की तरह ही एक अच्छा इंसान था और घर की सभी जिम्मेदारियां निभाता था। किसी को आज तक समझ नहीं आया कि आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसके चलते वो अचानक ही एक दिन घर गांव से गायब हो गया। उसके गायब होने के दो साल बाद रागिनी का ब्याह हुआ था। नागेंद्र को तलाश करने का बहुत प्रयास किया गया लेकिन उसका कहीं कोई सुराग़ तक नहीं मिला। अब तो बस ऊपर वाले पर ही भरोसा रह गया है कि शायद वो खुद ही किसी दिन वापस घर आ जाए। हालाकि गांव में तो सब दबी जुबान में यही कहते हैं कि नागेंद्र शायद अब इस दुनिया में नहीं है।

(04) कामिनी सिंह (रागिनी की छोटी बहन)
कामिनी का अभी तक ब्याह नहीं हुआ है किन्तु वीरभद्र और वीरेंद्र उसके ब्याह के लिए लड़के की तलाश करने लगे हैं। कामिनी, एक ऐसी लड़की है जो रागिनी की तरह सुंदर तो है लेकिन स्वभाव से एकदम शांत और किसी से ज़्यादा मतलब नहीं रखती है। वैभव ने कई बार उसको अपने झांसे में लेने की कोशिश की थी लेकिन सफल नहीं हो पाया था। वैभव की नीयत का उसे बखूबी पता है इस लिए जब भी वैभव उसके यहां आता है तो वो उससे दूर ही रहती है।

वीरभद्र सिंह अपने गांव में सबसे ज़्यादा संपन्न व्यक्ति हैं। उनके पास काफ़ी सारी जमीनें हैं जिन पर कई तरह की फसलें उगाई जाती हैं। उनकी आय का मुख्य स्त्रोत फल और सब्जियां हैं जो उनकी ज़मीन के काफी सारे हिस्से में उगाई जाती हैं। इधर कुछ सालों से वीरभद्र को घुटने में बात की समस्या हो गई है जिसके चलते उन्हें कहीं आने जाने में समस्या होती है। उधर उनकी पत्नी सुलोचना की भी तबियत ज़्यादा ठीक नहीं रहती है। असल में बेटे नागेंद्र के लापता होने का कुछ ज़्यादा ही दुख हुआ है उन्हें जिसके चलते उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता।

✮ बलभद्र सिंह (रागिनी के चाचा जी)
पुष्पा सिंह (रागिनी की चाची)

बलभद्र सिंह और पुष्पा के कुल चार बच्चे हैं जो इस प्रकार हैं:-

(01) वीर सिंह (बलभद्र सिंह का बड़ा बेटा)
गौरी सिंह (वीर सिंह की पत्नी)
=> वीर सिंह और गौरी के दो बच्चे हैं जो अभी बालिग नहीं हुए हैं।

(02) बलवीर सिंह (बलभद्र सिंह का दूसरा बेटा)
सुषमा सिंह (बलवीर की पत्नी)
=> बलवीर सिंह और सुषमा की शादी को अभी एक साल ही हुआ है, इन्हें अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(03) कंचन सिंह (बलभद्र सिंह की बेटी/अविवाहित)
(04 मोहिनी सिंह (बलभद्र सिंह की सबसे छोटी बेटी/अविवाहित)
कंचन और मोहिनी दोनों ही विवाह के योग्य हो गई हैं।

✮ राधिका सिंह (ठाकुर किशन सिंह की इकलौती बेटी)
राधिका सिंह का विवाह बहुत पहले हो गया था इस लिए अब वो यहां नहीं रहती। ससुराल में उसका अपना परिवार है। ख़ास मौकों पर ही उसका यहां आना होता है।

वीरभद्र सिंह और बलभद्र सिंह दोनों ही परिवार यूं तो अलग अलग घरों में रहते हैं लेकिन दोनों परिवारों के बीच आपसी रिश्ते बहुत ही गहरे हैं। इसका सबूत ये है कि दोनों भाइयों ने अभी तक ज़मीन का बटवारा नहीं किया है और सारी ज़मीन पर सब एक साथ ही मेहनत कर के अपना जीवन यापन करते हैं। जैसा प्रेम वीरभद्र और बलभद्र का आपस में है वैसा ही प्रेम उन दोनों के बच्चों में भी है। गांव के सब लोग इनकी बहुत इज्ज़त करते हैं, क्योकि ये सबकी हर तरह से मदद करते हैं।

(तो दोस्तो, ये था रागिनी के मायके वालों का संक्षिप्त परिचय, अब चलते हैं कहानी की तरफ।)

वैभव का हर बार की तरह इस बार भी ख़ास स्वागत सत्कार हुआ था। वैभव एक ऐसा लड़का था जिसे सब बेहद पसंद करते थे, क्योंकि सबको वैभव सिंह में असली ठाकुर के लक्षण नज़र आते थे। वीरभद्र तो मन ही मन ये भी चाहते थे कि उनकी बड़ी बेटी की तरह उनकी दूसरी बेटी कामिनी भी दादा ठाकुर की बहू बन जाए। अपनी बेटी कामिनी के लिए उन्हें वैभव हर तरह से पसंद था लेकिन वो खुल कर इस रिश्ते के लिए दादा ठाकुर से बात करने में झिझकते थे और इसका कारण ये था कि उन्हें अपनी बेटी कामिनी में वो बात नहीं दिखती थी जो वैभव सिंह जैसे लड़के के लिए योग्य हो। वो अपनी बेटी के स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे। कामिनी यूं तो शांत स्वभाव की थी लेकिन जब उसे गुस्सा आता था तो वो खुद का ही नुकसान करने लगती थी जिसमें उसकी जान तक का ख़तरा हो जाता था। वीरभद्र वैभव के चरित्र से भी वाक़िफ थे इस लिए वो समझते थे कि अगर उनकी बेटी का वैभव सिंह से ब्याह हुआ तो वो उसके चरित्र को ध्यान में रख कर कोई समझौता नहीं कर पाएगी। वो ये भी जानते थे कि वैभव सिंह एक ऐसा लड़का है जो कभी किसी के बंधन में बंध जाना पसंद नही करता। वो अपनी मर्ज़ी से चलने वाला नवजवान है जिसके ऊपर खुद उसके पिता दादा ठाकुर भी आज तक कोई पाबंदी नहीं लगा पाए। ऐसे में अगर कामिनी ने पत्नी के रूप में उस पर पाबंदी लगाने की कोशिश की तो बहुत हद तक संभव है कि बात बिगड़ जाएगी और फिर आगे जो कुछ होगा उसकी कल्पना करना ज़्यादा मुश्किल नहीं है।

एक तो लंबा सफर, दूसरे स्वागत सत्कार के चक्कर में वैभव को इतना खिला पिला दिया गया था कि उसने बस आराम करना ही बेहतर समझा था। यूं तो अब तक उसे हर कोई नज़र आ चुका था लेकिन अब तक उसे अपनी भाभी की छुटी बहन कामिनी नज़र नहीं आई थी। पिछली बार दोनो के बीच झगड़ा हो ही गया होता अगर रागिनी ने आ कर फ़ौरन ही सब कुछ सम्हाल न लिया होता।

ख़ैर शाम तक वैभव किसी राजा महाराजा की तरह पलंग पर सोता रहा उसके बाद जब उसकी आंख खुली तो सहसा उसकी नज़र दरवाज़े के ओट से झांकती किसी के हसीन चेहरे पर पड़ी। ये देख कर वो मुस्कुराया। भाभी के मायके आने के लिए वो हमेशा तैयार रहता था क्योंकि यहां पर सुंदर सुंदर चेहरों वाली और मादक जिस्मों वाली लड़कियों की कमी नहीं थी। अभिनव सिंह की तो ये नाम मात्र की ससुराल थी जबकि ससुराल का असली मज़ा तो वैभव लेता था।

"अब अगर जी भर के दीदार कर लिया हो तो हम पर भी थोड़ा नज़रे इनायत कर दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"हमारी नज़रों को भी आपके खूबसूरत चेहरे को देखने की हसरत है।"

"अच्छा जी।" बलभद्र सिंह की बड़ी बेटी कंचन दरवाज़े के उस पार से निकल कर कमरे के अंदर आते हुए किंतु शर्मा कर बोली____"तो आपकी नज़रें सिर्फ़ ख़ूबसूरत चेहरे देखने की ही हसरत रखती हैं हमेशा?"

"नहीं ऐसा तो बिलकुल नहीं है।" मैंने उठ कर पलंग के सिरहाने से अपनी पीठ टिका कर कहा____"आप कहें तो हम अपनी नज़रों को आपके चेहरे के अलावा भी ख़ास हिस्सों पर डाल देते हैं।"

"बड़ी गुस्ताख़ नज़रें है आपकी।" कंचन ने आंखें फैलाते हुए कहा____"अपनी नज़रों को थोड़ा सम्हाल कर रखिए, उन्हें चेहरे के अलावा कहीं और जा कर ठहरने की इजाज़त नहीं है।"

"ये तो संभव ही नहीं है सरकार।" मैंने कंचन को सिर से ले कर पांव तक देखते हुए कहा____"क्योंकि इसमें दोष हमारी नज़रों का नहीं है बल्कि आपके कहर ढाते हुस्न का है जो हमारी नज़रों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है।"

"हाय राम!" कंचन शर्म से लाल तो हुई ही थी किंतु फिर सम्हल कर बोली____"आपसे तो बात करना ही बेकार है। पता नहीं क्या क्या बिना मतलब की बातें करते रहते हैं।"

"तो आप ही बताइए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"हम ऐसी क्या बातें करें जो सिर्फ आपके मतलब की हों?"
"हमें नहीं पता।" कंचन ने अपनी मुस्कान को दबाते हुए कहा____"अब चलिए शाम हो गई है, ताऊ जी आपका इंतज़ार कर रहे हैं।"

"आप तो बड़ी ज़ालिम चीज़ हैं सरकार।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"हम तो बड़ी उम्मीद ले कर आए थे यहां कि हमारी प्यारी प्यारी सालियां हमारा हर तरह से ख़्याल रखेंगी। ख़ैर कोई बात नहीं, अब तो यही हो सकता है कि हम कल सुबह ही यहां से वापस अपने गांव लौट जाएं।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" कंचन एकदम से चौंक कर बोली____"आप इतना जल्दी कैसे चले जाएंगे यहां से?"
"अब रुकने का फ़ायदा ही क्या है सरकार?" मैंने झूठा अफ़सोस जताते हुए कहा____"भारी आस लगा कर आपके पास आए थे। अब जब आपसे ही हर उम्मीद टूट गई तो रुकने का क्या मतलब रह गया?"

"आप तो बड़ा जल्दी हार मान गए।" कंचन ने एक बार फिर से अपनी मुस्कान को दबाते हुए कहा____"जबकि आपको अंतिम सांस तक प्रयास करते रहना चाहिए। क्या पता आख़िरी सांस के वक्त आपको कोई कामयाबी मिल जाए।"

"अच्छा ऐसा है क्या?" मैं उसकी इस बात से मुस्कुरा पड़ा____"फिर तो अभी से प्रयास करना शुरू कर देंगे हम। अगर आख़िरी सांस के वक्त ही कामयाबी के रूप में मीठा फल मिलना है तो बेशक पूरी शिद्दत से प्रयास करेंगे सरकार।"

"बिलकुल प्रयास कीजिए।" कंचन ने मुस्कुराते हुए कहा____"हम भी देखते कि आप कामयाबी पाने के लिए क्या क्या पैंतरे आजमाते हैं?"
"क्या ये चुनौती है?" मैंने उसकी आंखों में देखा।
"चुनौती तो नहीं है।" उसने बड़ी अदा से कहा___"पर क्या आप किसी चुनौती से डरते हैं?"

"सवाल ही नहीं पैदा होता।" मैंने जैसे गर्व से कहा___"ठाकुर वैभव सिंह आज तक किसी चुनौती से नहीं डरा। हम ज़रूर प्रयास करेंगे सरकार, बस आप अपनी बात पर क़ायम रहना।"

मेरी बात सुन कर कंचन ने शरारती अंदाज़ में जीभ निकाल कर मुझे चिढ़ाया और फिर मुस्कुराते हुए कमरे से चली गई। मैं भी सोचने लगा कि अब तो कुछ करना ही पड़ेगा। कंचन नाम की मिठाई को चखने का कोई न कोई जुगाड़ लगाना ही पड़ेगा। ये सब सोचते हुए मैं पलंग से उतरा और बाहर निकल गया।

[][][][][]

"सेवक हाज़िर है मालिक।" एक हट्टे कट्टे आदमी ने बैठक में बैठे दादा ठाकुर के सामने अदब से सिर नवा कर कहा।
"शेरा।" दादा ठाकुर ने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें भी पता चल ही गया होगा कि वैभव यहां नहीं है इस लिए जब तक वो यहां नहीं है तब तक तुम्हें एक विशेष काम करना है।"

"हुकुम कीजिए मालिक।" शेरा ने नम्र भाव से कहा____"सेवक अपनी जान दे कर भी आपके हुकुम की तामील करेगा।"

"तुम्हें उस काले नकाबपोश आदमी को पकड़ना है जिसने शुरुआत में हमारे बेटे वैभव पर हमला करने की कोशिश की थी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अभी हाल ही में तुमसे उसका सामना भी हुआ था, ये अलग बात है कि तुम्हारे रहते हुए भी उसने शीला को मौत के घाट उतार दिया था।"

"माफ़ कर दीजिए मालिक।" शेरा ने सिर झुका कर कहा____"आपका हुकुम नहीं था इस लिए मैंने कभी उसे खोजने का प्रयास नहीं किया। आपने सिर्फ़ छोटे ठाकुर की सुरक्षा का कार्य सौंपा था मुझे।"

"हम जानते हैं कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"हालात ऐसे थे कि हमें सबसे ज़्यादा वैभव की फ़िक्र थी और इसी लिए हमने तुमसे कहा था कि उसकी सुरक्षा करने के अलावा तुम्हें कुछ भी नहीं करना है। ख़ैर, अब तुम्हारा सिर्फ़ एक ही काम है कि उस काले नक़ाबपोश को खोज कर ज़िंदा पकड़ो और साथ ही उसके आका उस सफ़ेदपोश का भी पता लगाओ। हम जानना चाहते हैं कि जो व्यक्ति रात के अंधेरे में भी अपने सफेद कपड़ों के चलते थोड़ा बहुत दिखता है वो अचानक से गायब कैसे हो जाता है?"

"जो हुकुम मालिक।" शेरा ने कहा____"अब मैं आपको अपनी शक्ल तभी दिखाऊंगा जब मैं अपने कार्य में सफल हो जाऊंगा।"
"ठीक है।" दादा ठाकुर ने कहा____"और हां, इस बात का विशेष ख़्याल रहे कि हमारे अलावा तुम्हारी किसी भी असलियत का किसी को भी पता ना चलने पाए। अब तुम जा सकते हो।"

शेरा ने सिर नवा कर दादा ठाकुर को प्रणाम किया और पलट कर बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद दादा ठाकुर कुछ देर तक सोच विचार करते रहे उसके बाद वो उठे और हवेली से बाहर निकल गए। कुछ ही देर में वो जीप में दो आदमियों के साथ बैठे हाथी दरवाज़े से बाहर निकलते नज़र आए।

कुछ ही समय में उनकी जीप एक जगह रुकी। दादा ठाकुर जीप से उतरे और दोनों आदमियों को जीप के पास ही खड़े रहने का बोल कर एक मकान की तरफ बढ़ गए। ये गांव का पूर्वी छोर था। जिस मकान के क़रीब वो आए थे वो कच्चा ही बना हुआ था। दरवाज़े पर बाहर से कुंडी नहीं लगी हुई थी इस लिए उन्होंने कुंडी को पकड़ कर खड़काया तो कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़ा खुलते ही धनंजय नाम का दरोगा नज़र आया। बाहर दादा ठाकुर को देखते ही उसने सबसे पहले उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और फिर एक तरफ हट गया।

"तुमने हमें काफी निराश किया है धनंजय?" अंदर लकड़ी की एक कुर्सी पर बैठने के बाद दादा ठाकुर ने दारोगा से कहा____"जबकि हमने उम्मीद की थी कि तुम्हारे जैसा पढ़ा लिखा दारोगा जल्द ही मुरारी के हत्यारे को तलाश लेगा और साथ ही उस सफ़ेदपोश का भी पता लगा लेगा जिसने तुम्हारी आंखों के सामने अपने एक काले नकाबपोश को जान से मार दिया था।"

"माफ़ कीजिए ठाकुर साहब कि मैंने आपको निराश किया।" दरोगा ने बेचैनी से पहलू बदलते हुए कहा____"पर बिना किसी साक्ष्य के हत्यारे का पता लगाना इतना भी आसान नहीं था। मुरारी की हत्या जिस हथियार से की गई थी ना तो वो मेरे पास था और ना ही आपने मुझे घटना स्थल पर जाने दिया था। ऐसे में हत्यारे का पता लगाना कैसे आसान हो सकता था? रही बात उस सफ़ेदपोश की तो वो उस समय के बाद कभी नज़र ही नहीं आया मुझे। दूसरी बात ये भी हुई कि मां की तबियत अचानक से काफी बिगड़ गई थी जिसके चलते मैं इस मामले पर ज़्यादा ध्यान भी नहीं दे पाया।"

"ओह! हमें माफ़ करना धनंजय।" दादा ठाकुर ने अफ़सोस जताते हुए कहा____"हमें इस बारे में इल्म नहीं था। ख़ैर अब कैसी तबियत है तुम्हारी मां की?"
"जी अब पहले से बेहतर हैं वो।" दरोगा ने कहा____"उनकी देख भाल के लिए एक औरत को रखा है।"

"चलो ये अच्छा किया।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर, तो अब क्या पता चला है तुम्हें इस मामले में?"
"रेखा और शीला की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से कुछ ख़ास पता नहीं चल सका।" दरोगा ने कहा____"रिपोर्ट में बस यही लिखा गया है कि शीला को किसी तेज़ धार वाले खंज़र से गला रेत कर मारा गया था और रेखा ने खुद ही ज़हर खाया था क्योंकि उसके शरीर पर ऐसे कोई निशान नहीं थे जिससे ये लगे कि किसी ने उसके साथ कोई ज़ोर ज़बरदस्ती की हो।"

"ह्म्म्म।" दादा ठाकुर ने हल्के से हुंकार भरी____"और?"
"मुरारी की हत्या जिस औजार से की गई थी वो मुझे मिल गया है।" दरोगा ने ये कहा तो दादा ठाकुर चौंके और फिर बोले____"क्या सच में?? कहां मिला वो तुम्हें?"

"सच सुनेंगे तो आप यकीन नहीं कर सकेंगे।" दरोगा ने ये कहा तो दादा ठाकुर ने कहा____"अब तक जो कुछ देखा सुना है वो भी यकीन करने लायक नहीं था धनंजय। तुम बेझिझक हो कर बताओ कि तुम्हें मुरारी की हत्या में प्रयोग किया गया औज़ार कहां मिला?"

"आपके बाग़ में जो मकान है वहीं एक जगह मिला है मुझे।" दरोगा ने ये कह कर मानों धमाका सा किया।
"क्या??" दादा ठाकुर बुरी तरह चौंके____"ये क्या कह रहे हो तुम?"

"यही सच है ठाकुर साहब।" धनंजय ने कहा____"आपके बाग़ में बने मकान के पीछे ट्रैक्टर की जो पुरानी टूटी हुई ट्रॉली पड़ी हुई है न उसी की पेटी में पड़ी थी वो कुल्हाड़ी।"

"ये तो बड़े ही आश्चर्य की बात है धनंजय।" दादा ठाकुर ने चकित भाव से कहा____"मुरारी की हत्या जिस औज़ार से हुई थी वो हमारी अपनी जगह पर कैसे पहुंच गया होगा? आख़िर किसने रखा होगा उस कुल्हाड़ी को उस जगह पर और क्यों रखा होगा? क्या इस लिए कि जब वो औज़ार हमारी अपनी किसी जगह पर मिले तो मुरारी की हत्या का आरोप सीधा हम पर या हमारे परिवार के किसी सदस्य पर लगे?"

"बिल्कुल, इसका तो यही मतलब हुआ।" धनंजय ने कुछ सोचते हुए कहा____"वैसे अगर आप बुरा न मानें तो अपनी एक बात आपके सामने रखूं?"
"क्या कहना चाहते हो?" दादा ठाकुर ने उसकी तरफ शंकित भाव से देखा।

"कहीं ऐसा तो नहीं कि मुरारी की इस तरह से हत्या करने वाला।" धनंजय ने धड़कते दिल से कहा____"कोई और नहीं बल्कि आपके ही परिवार का कोई सदस्य है?"

"ऐसा किस आधार पर कर रहे हो तुम?" दादा ठाकुर ने उसे घूरते हुए कहा____"भला हमारे परिवार का कोई सदस्य मुरारी की हत्या क्यों करेगा?"

"फिलहाल तो इसकी एक ही वजह समझ में आती है ठाकुर साहब।" धनंजय ने कहा____"छोटे ठाकुर को मुरारी की हत्या के आरोप में फंसा कर आपके अंदर अपने ही बेटे के प्रति ज़हर भर देना। ये तो सब जानते हैं कि आप छोटे ठाकुर को उनकी ग़लत हरकतों की वजह से पसंद नहीं करते हैं। ऐसे में अगर छोटे ठाकुर पर इतने बड़े संगीन अपराध का आरोप लगेगा तो ज़ाहिर है कि आप उनके और भी खिलाफ़ हो जाएंगे।"

दादा ठाकुर ने दारोगा की बातें सुन कर फ़ौरन कोई जवाब नहीं दिया। उनके चेहरे पर सोचो के भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे। दरोगा की बातों में कहीं न कहीं सच्चाई तो थी ही। कुछ देर पता नहीं वो क्या सोचते रहे उसके बाद बोले____"बात तो तुम्हारी ठीक है, लेकिन हम सोच रहे हैं कि अगर असल हत्यारा हमारे बेटे को ही पूरी तरह मुरारी का हत्यारा बनाना चाहता था तो वो उस औज़ार को हमारे बाग़ में पड़ी ट्रैक्टर की उस ट्राली में नहीं बल्कि उस जगह पर रखता जहां वैभव झोपड़ा बना कर रह रहा था। उस सूरत में अगर लोगों को वो कुल्हाड़ी उसके झोपड़े से मिलती तो यकीनन हमें भी यकीन कर लेना पड़ता कि मुरारी की हत्या उसी ने ही की है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टा ये हुआ कि वो कुल्हाड़ी मुरारी के गांव से दूर हमारे गांव में हमारे बाग़ वाले मकान के पीछे पड़ी ट्राली में मिली। ये बहुत ही अजीब बात है धनंजय, जो आसानी से हजम नहीं हो रही है। ख़ैर हमारे लिए अब ये भी सोचने वाली बात है कि उस हत्यारे की कुल्हाड़ी तक तुम कैसे पहुंचे?"

"पुलिस वाला हूं ठाकुर साहब।" धनंजय ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"हम पुलिस वालों को ऐसा बना दिया जाता है कि हम अपने आप पर भी शक करने लगते हैं। ख़ैर, कुछ बातें ऐसी थीं जिन पर मैंने पहले ध्यान नहीं दिया था लेकिन अभी हाल ही में सब कुछ मेरी समझ में आया है। दिल तो मेरा भी कहता था कि छोटे ठाकुर भला उस इंसान की हत्या क्यों करेंगे जिसने उनके बुरे समय में हर तरह से मदद की हो लेकिन दिमाग़ पूरी तरह इस सच को मान नहीं रहा था।"

"ऐसा क्यों?" दादा ठाकुर पूछे बगैर न रह सके थे।

"क्योंकि छोटे ठाकुर के नाजायज़ संबंध मुरारी की बीवी सरोज से थे।" धनंजय ने ये कह कर मानों एक बार फिर से धमाका किया। दादा ठाकुर को ये सुन कर मन ही मन झटका तो लगा लेकिन फिर वो ये सोच कर कुछ न बोले कि अपने बेटे से उन्हें अच्छे काम की उम्मीद भी भला कैसे हो सकती है?

"पहले मुझे इस बात का पता नहीं था।" दादा ठाकुर जब कुछ न बोले तो धनंजय ने कहा____"एक दिन मैं छोटे ठाकुर का पीछा करते हुए मुरारी के खेत के पास पहुंच गया था। वहां पर मैंने छुप कर देखा कि मुरारी की बीवी सरोज छोटे ठाकुर के गुप्तांग को पकड़ रही थी और उनसे कुछ कह रही थी जिस पर छोटे ठाकुर ने उसे झिड़क दिया था। मैं ये देख कर बुरी तरह हैरान रह गया था। उनकी बातें सुनने के लिए मैं फ़ौरन ही उनके थोड़ा और क़रीब गया तो मैंने सुना कि छोटे ठाकुर सरोज को डांटते हुए कह रहे थे कि पहले जो कुछ हमारे बीच हुआ है अब वो दुबारा नहीं हो सकता और ये बात सरोज को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। वहां से आने के बाद मैं ये सोच सोच कर चकित होता रहा कि छोटे ठाकुर के ऐसे संबंध उस औरत से कैसे हो सकते हैं जो उमर में उनसे दो गुना बड़ी हो। उसके बाद मैं दूसरे मामलों में व्यस्त हो गया। अभी जब कुछ दिन पहले मां का इलाज़ करा के लौटा और फिर से इस मामले में अपना दिमाग़ लगाया तो मुझे वो सब फिर से याद आ गया। एकदम से मेरे दिमाग़ की बत्ती जली कि कहीं मुरारी की हत्या छोटे ठाकुर ने ही तो नहीं की? ऐसा करने का उनके पास ठोस कारण भी था क्योंकि मुरारी की बीवी से उनके नाजायज़ संबंध थे और संभव है कि इस बात का पता मुरारी को चल गया रहा हो। मुरारी ने उन्हें धमकी दी होगी और आपको ख़बर कर के आपसे इंसाफ मांगने की बात कही होगी। छोटे ठाकुर मुरारी की इस धमकी से या तो डर गए होंगे या फिर गुस्से में आ गए होंगे और फिर उसी डर और गुस्से की वजह से उन्होंने मुरारी की हत्या कर दी होगी। हत्या का औज़ार नहीं मिला था इसका मतलब साफ था कि उन्होंने उसे कहीं छुपा दिया होगा। मैंने सोचा कुल्हाड़ी जैसा हत्या का औज़ार वो उस वक्त अपने झोपड़े में नहीं रख सकते थे क्योंकि ऐसे में उनका भेद जल्दी पता चल जाता इस लिए उन्होंने उसे ऐसी जगह छुपाया होगा जहां पर उसके होने की कोई कल्पना भी ना कर सके। अभी कुछ दिन पहले मैंने उन्हें बाग़ के मकान की तरफ जाते देखा था तो मेरे ज़हन में ख़्याल उभरा कि क्या वो हत्या का औज़ार यहां पर छुपाए हो सकते हैं? बस, अपनी तसल्ली के लिए मैं बारीकी से छानबीन के काम पर लग गया। मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि मुरारी की हत्या का औज़ार मुरारी के गांव से दूर इस गांव में ऐसी जगह पर छुपा हुआ मिल जाएगा।"

"तुमने कैसे पहचाना कि जो कुल्हाड़ी हमारी टूटी हुई ट्रॉली की पेटी से तुम्हें मिली है वो वही है जिसके द्वारा मुरारी की हत्या की गई थी?" दादा ठाकुर ने सपाट लहजे में पूछा____"क्या इसका तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिलकुल है ठाकुर साहब।" धनंजय ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"कुल्हाड़ी पर लगा खून मुरारी के खून से पूरी तरह मिलता है और इसी से साबित हो जाता है कि वो कुल्हाड़ी ही वो औज़ार है जिसके द्वारा मुरारी की हत्या की गई थी।"

"मुरारी का खून कहां मिला तुम्हें?" दादा ठाकुर के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे____"हमने तो तुम्हें मुरारी की लाश देखने के लिए उसके घर आने से भी मना कर दिया था और फिर कुछ समय बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया था। फिर तुम्हें उसका खून कैसे मिला?"

"आपने मुझे घटना स्थल पर आने से ज़रूर मना किया था ठाकुर साहब।" धनंजय ने कहा____"लेकिन ये भी तो कहा था आपने कि मुरारी के हत्यारे का मुझे गुप्त रूप से पता लगाना है। अब भला बिना कोई सबूत या बिना कोई साक्ष्य के में कैसे हत्यारे का पता लगा सकता था? इस लिए मैं आपके मना करने के बावजूद सादे कपड़ों में तथा भेष बदल कर घटना स्थल पर पहुंचा था। घटना स्थल से मैंने मुरारी के खून का सैंपल लिया और थोड़ा बहुत मुआयना करने के बाद वापस चला गया था। उस कुल्हाड़ी के मिलने के बाद मैं उसके फल पर लगे खून की जांच के लिए उसे शहर ले गया था। कुल्हाड़ी पर लगे खून का मिलान तो मुरारी के खून से हो गया लेकिन कुल्हाड़ी की मूठ पर हत्यारे के उंगलियों के निशान कहीं पर भी नहीं मिले। ज़ाहिर है हत्यारा या तो इतना शातिर था कि उसने कुल्हाड़ी से अपनी उंगलियों के निशान मिटा दिए थे या फिर ये हो सोता है कि उसने हाथ में कोई कपड़ा लपेटा रहा होगा जिसकी वजह से कुल्हाड़ी पर उसकी उंगलियों के निशान छपे ही नहीं।"

"तो तुम इस नतीजे पर पहुंच चुके हो कि मुरारी की हत्या हमारे बेटे वैभव ने की है?" दादा ठाकुर ने दारोगा की तरफ देखते हुए कहा____"वजह यही है कि मुरारी की बीवी से उसके नाजायज संबंध थे जिसका पता मुरारी को चल गया था? तुम्हारी इस कहानी का यही सार है न?"

धनंजय को समझ न आया कि वो उन्हें क्या जवाब दे। हालाकि, उसे जो सबूत मिले थे और जो कुछ उसने देखा सुना था उसके आधार पर वो इसी नतीजे पर पहुंचा था कि मुरारी की हत्या दादा ठाकुर के बेटे वैभव सिंह ने ही की है। दादा ठाकुर जवाब पाने की उम्मीद में उसी की तरफ देख रहे थे और धनंजय मन ही मन इस दुविधा में पड़ गया था कि उसने जो कुछ दादा ठाकुर को मुरारी की हत्या के संबंध में विस्तार से बताया है क्या वास्तव में वही सच है या अभी भी कुछ ऐसा शेष है जिसे समझना उसके लिए बाकी है?


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Tiger 786

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अध्याय - 55
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अब तक....

धनंजय को समझ न आया कि वो उन्हें क्या जवाब दे। हालाकि, उसे जो सबूत मिले थे और जो कुछ उसने देखा सुना था उसके आधार पर वो इसी नतीजे पर पहुंचा था कि मुरारी की हत्या दादा ठाकुर के बेटे वैभव सिंह ने ही की है। दादा ठाकुर जवाब पाने की उम्मीद में उसी की तरफ देख रहे थे और धनंजय मन ही मन इस दुविधा में पड़ गया था कि उसने जो कुछ दादा ठाकुर को मुरारी की हत्या के संबंध में विस्तार से बताया है क्या वास्तव में वही सच है या अभी भी कुछ ऐसा शेष है जिसे समझना उसके लिए बाकी है?

अब आगे....


क्षितिज में चमक रहा सूरज तेज़ी से पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ते हुए शाम ढलने का संकेत दे रहा था। हालाकि सूरज के डूबने में अभी क़रीब एक से डेढ़ घंटे का समय लगना था किन्तु सूरज की तपिश अब कम हो गई थी। सरोज किसी काम से अपने देवर जगन के घर गई हुई थी जबकि अनुराधा अपने छोटे भाई अनूप के साथ घर पर ही थी। बाहर घर के बगल से ही एक ऊंचा तथा लंबा पेड़ था जिसकी छाया आंगन में आ रही थी। अनुराधा ने बरामदे से चारपाई ला कर आंगन में ही बिछा लिया था और अपने भाई अनूप के साथ लेटी हुई थी। खुले आंगन में पेड़ से छन कर ठंडी हवा आ रही थी जिसके चलते गर्मी से काफ़ी राहत थी।

चारपाई में एक तरफ लेटा अनूप अपने एक खिलौने के साथ खेल रहा था जबकि अनुराधा बिना पलकें झपकाए किसी गहरे ख़्यालों में गुम नज़र आ रही थी। आज सारा दिन वो गुमसुम ही रही थी और अभी भी उसका यही हाल था। मां के सामने उसने किसी तरह खुद को सम्हाले रखा था किंतु मां के जाते ही वो फिर से कहीं खो गई थी। सुबह से किसी भी काम में उसका मन नहीं लग रहा था। उसे ऐसा महसूस होता था जैसे उसके लिए दुनिया में अब ऐसी कोई चीज़ नहीं रही जिसमें कोई ख़ास बात हो और जिसे देख कर उसे कोई खुशी हो। आज से पहले अपना जीवन उसे कभी भी इतना नीरस और मायूसी भरा नहीं लगा था। वो अपने छोटे से घर में अपनी मां और छोटे भाई के साथ खुश थी मगर एक ही दिन में जैसे सब कुछ बदल गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्यों उसका मन बार बार वैभव की तरफ चला जाता था? वो ये मानती थी कि उसने वैभव के साथ कठोरता से बात कर के ठीक नहीं किया था और इसका उसे पछतावा भी था लेकिन इसके बावजूद क्यों उसका मन इतना विचलित था? आख़िर क्यों वो अपने ज़हन से वैभव और उससे संबंधित सभी बातों को निकाल नहीं पा रही थी?

सरोज ने उसे दुनियादारी की बातें तो बताई थी और अच्छे बुरे का भेद भी बताया था लेकिन ये नहीं बताया था कि अगर कोई किसी भी तरह से हमारे ज़हन से न जाए तो उसका क्या मतलब होता है? प्रेम के किस्से तो उसने कहानियों में सुने थे जो उसकी बूढ़ी दादी तब सुनाया करती थी जब वो ज़िंदा थीं लेकिन उन कहानियों में भी ज़्यादातर ज़िक्र किसी राज कुमार और राज कुमारी के प्रेम संबंधों का ही होता था। उस समय अनुराधा का ज़हन इतना विकसित नहीं था। उस समय तो कहानियां उसे बस अच्छी लगती थीं। उनके मर्म का अथवा उन कहानियों के भावों का उसे एहसास नहीं होता था। ये अलग बात है कि जहां पर उसके पसंदीदा किरदारों के बिछड़ जाने का प्रसंग आता तो उसे भी इस बात से बुरा लगता था। असल ज़िंदगी में प्रेम के मायने कभी उसने किसी के द्वारा समझे ही नहीं थे और ना ही कभी ऐसा उसके जीवन में हुआ था जिसके चलते उसे प्रेम के इस गहरे एहसास का पता चला होता।

वैभव को जब उसने पहली बार देखा था तो उसकी सुंदरता को देख कर उसे अपनी बूढ़ी दादी की कहानियों वाले राज कुमार की ही याद आई थी। अक्सर सोचती थी कि काश वो भी कहानियों की राज कुमारी की तरह सुंदर होती मगर जल्द ही उसे एक ऐसी हकीक़त का एहसास हुआ जिसने उसे विचलित कर दिया। उसने भी सुना था कि वैभव का चरित्र कैसा है। उसके चरित्र के बारे में सोचते ही उसे कहानियों वाला राज कुमार समझ लेने की अपनी ग़लती का एहसास हो गया था। हालाकि गुज़रते वक्त के साथ उसे एहसास हो चुका था कि वैभव उसके बारे में कुछ भी ग़लत नहीं सोचता है। वैभव का उससे बातें करना, उसका छेड़ना, और उसके बनाए खाने की तारीफ़ करना उसे एकदम से पुलकित कर देता था लेकिन वो इस सबको ये नहीं सोचती थी कि ये किस तरह का एहसास है अथवा ये किस तरह की खुशी है? वैभव को एक बार फिर से उसने कहानियों वाला राज कुमार मान लिया था मगर अचानक एक दिन उसे एक ऐसे सच का पता चला जिसकी वजह से उसे सदमा सा लग गया था।

रूपचंद्र नाम का एक लड़का एक दिन जाने कहां से आ टपका था और उसने वैभव के बारे में जो कुछ उसे बताया और फिर जो कुछ उसे करने के लिए कहा था वो उसके लिए किसी सदमे से कम नहीं था। उसके लिए इस हकीक़त को हजम करना बेहद मुश्किल हो गया था कि जिस वैभव को वो कहानियों वाला राज कुमार समझ कर खुश होती है उसी वैभव के उसके मां के साथ नाजायज़ संबंध हैं। पलक झपकते ही उसे ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे वो आसमान से गिर कर धरती पर आ गई हो। रूपचंद्र की बातों का उसे बिलकुल भी यकीन नहीं हुआ था मगर जब रूपचंद्र ने ये कहा कि इस सच को खुद वैभव उसके सामने कुबूल करेगा तो उसके ज़हन ने जैसे काम करना ही बंद कर दिया था। ख़ैर जल्दी ही वैभव से उसका सामना हुआ और जब उसने उस संबंध में बात करते हुए वैभव को लताड़ा तो वैभव ने उस कड़वे सच को कबूल कर ही लिया। उस वक्त अनुराधा को बहुत तकलीफ़ हुई थी। वैभव के बारे में फैली हुई बातें जो उसने सुन रखी थीं उसका उसे बेहद ही कड़वा प्रमाण मिल गया था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसने उसकी ही मां के साथ ऐसा पाप कर्म किया था। उसे अपनी मां पर भी बेहद गुस्सा आया था लेकिन वो इस बारे में भला कर ही क्या सकती थी? जब उसकी अपनी मां ही ऐसी निकली थी तो दूसरे को क्या कहती?

बाद में भले ही वैभव ने दुबारा वैसा न किया हो और हर तरह से उसके परिवार की रक्षा की हो लेकिन उसके मन में उसके प्रति ये बात बैठ चुकी थी कि जो इंसान उसकी मां को अपने जाल में फांस कर उसके साथ ग़लत कर सकता है वो किसी दिन उसके साथ भी यही सब करने की कोशिश करेगा। अनुराधा ने सोच लिया था कि वो वैभव के जाल में किसी भी कीमत पर नहीं फंसेगी और अगर कभी ऐसा उसने महसूस किया तो वो उसी दिन वैभव को खरी खोटी सुना कर उसे अपने घर से चले जाने को कह देगी।

इंसान की सोच और उसके संकल्प महज परिस्थियों के तहत जन्म लेते हैं और फिर ऐसी ही दूसरी परिस्थितियों में वो या तो कमज़ोर पड़ जाते हैं या फिर एक अलग ही रूप अख़्तियार कर लेते हैं। अनुराधा ने भले ही ये सब सोच लिया था लेकिन हालात ऐसे बने कि वैभव के प्रति उसके विचार फिर से पहले जैसे बनते चले गए थे। इसकी वजह शायद ये थी कि हर मुलाक़ात में वैभव ने जिस तरह से अपने चरित्र को दर्शाया था और जिस तरह से उसके परिवार की जिम्मेदारी ली थी उससे उसके कोमल हृदय में उसके लिए नरमी आ गई थी। हर मुलाक़ात में वैभव ने उसे ये समझाने की कोशिश की थी कि वो एक ऐसी लड़की है जिसने उसके मुकम्मल वजूद को बदल दिया है और इसके लिए वो बेहद खुश है। वो उसके बारे में कभी ग़लत नही सोच सकता और अगर ग़लती से भी उसके मन में उसके प्रति कोई ग़लत ख़्याल आ जाता है तो वो खुद को कोसने लगता है। वक्त और हालात बड़े से बड़े ज़ख्म और बड़ी से बड़ी बात को इंसान के ज़हन से निकाल देते हैं।

अनुराधा चारपाई पर लेटी वैभव के ख़्यालों में खोई ही हुई थी कि तभी बाहर के दरवाज़े की शांकल बजी जिससे उसका ध्यान भंग हो गया। वो हड़बड़ा कर उठी तो उसके बगल से लेटा अनूप भी उठ बैठा। अनुराधा ने जा कर दरवाज़ा खोला तो बाहर किसी अंजान आदमी पर उसकी नज़र पड़ी। बाहर किसी अंजान आदमी को यूं खड़ा देख अनुराधा अंदर ही अंदर घबरा गई। बिजली की तरह उसके ज़हन में वैभव की बातें गूंज उठीं कि हालात ठीक नहीं हैं इस लिए किसी अंजान व्यक्ति के लिए दरवाज़ा मत खोलना।

"घबराओ मत।" अनुराधा के चेहरे पर उभर आई घबराहट को देख कर उस आदमी ने बड़ी शालीनता से कहा____"मैं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूं जिससे तुम्हें घबराने की अथवा डरने की ज़रूरत हो। मैं बस ये देखने आया हूं कि यहां सब ठीक है कि नहीं?"

"अ..आप कौन हैं?" अनुराधा ने बड़ी मुश्किल से हिम्मत कर के पूछा।
"मैं भुवन हूं।" बाहर खड़े आदमी ने कहा____"और यहां पर मैं छोटे ठाकुर के हुकुम पर ही हाल चाल पूछने आया हूं।"

भुवन नाम सुनते ही अनुराधा को झटका लगा। मस्तिष्क में बिजली की तरह वैभव द्वारा कही गई उस दिन की बात गूंज उठी जब उसने उससे कहा था कि जहां पर उसका नया मकान बन रहा है वहां एक भुवन नाम का आदमी मिलेगा उसे। अगर उसे कोई परेशानी हो तो वो फ़ौरन उसके पास जा कर अपनी परेशानी बता सकती है। इस बात के याद आते ही अनुराधा के अंदर एक हूक सी उठी जिसके चलते उसका समूचा वजूद एक अजीब एहसास से आंदोलित हो उठा।

"घर में सब ठीक है ना बहन?" अनुराधा को ख़ामोशी से कुछ सोचता देख भुवन ने उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हुए पूछा____"तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझ सकती हो। छोटे ठाकुर ने मुझे तुम्हारे घर की जिम्मेदारी सौंपी है और ये भी कहा है कि इस घर के किसी भी सदस्य को किसी भी तरह से कोई समस्या न होने पाए। इस लिए बहन तुम मुझे बताओ, यहां सब ठीक है ना?"

"ह..हां भैया सब...ठीक है।" अनुराधा के दिलो दिमाग़ में एकदम से तूफान उठ खड़ा हुआ था जिसे वो बड़ी मुश्किल से दबाते हुए कापती आवाज़ में बोली____"यहां हमें कोई समस्या नहीं है।"

"अच्छी बात है बहन।" भुवन ने नम्रता से कहा____"बाकी किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो अपने इस भाई के पास आ जाना। मैं अपनी जान दे कर भी तुम्हारी ज़रूरत को पूरा करूंगा। ख़ैर, मैं यहीं पास में ही हूं इस लिए दिन में भी और रात में भी यहां का हाल चाल देखने आता रहूंगा।"

अनुराधा को समझ में न आया कि वो भुवन को अब क्या जवाब दे इस लिए ख़ामोशी से उसने सिर हिला दिया। भुवन के जाने के बाद अनुराधा ने दरवाज़ा बंद किया और चारपाई पर आ कर बैठ गई। अनूप चारपाई में ही अपना खिलौना लिए बैठा था। भुवन की बातें सुन कर अनुराधा को अब एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था। एक बार फिर से उसके ज़हन में वैभव द्वारा कही गई बातें गूंजने लगीं थी।

"अगर तुम्हें लगता है कि मेरे यहां आने का सिर्फ़ यही एक मकसद है कि मैं तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह अपने जाल में फंसाना चाहता हूं तो ठीक है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि ठाकुर वैभव सिंह आज के बाद तुम्हारे इस घर की दहलीज़ पर अपने क़दम नहीं रखेगा। तुम्हारे साथ जो चंद खूबसूरत लम्हें मैंने बिताए हैं वो जीवन भर मेरे लिए एक अनमोल याद की तरह रहेंगे। ये भी वचन देता हूं कि इस घर के किसी भी सदस्य पर किसी के द्वारा कोई आंच नहीं आने दूंगा। चलता हूं अब, ऊपर वाला तुम्हें हमेशा खुश रखे।"

वैभव द्वारा कही गई ये बातें बार बार उसके जहन में गूंजने लगीं थी जिसके असर से अनुराधा के कोमल हृदय में दर्द का आभास होने लगा था। वो अपनी आंखें बंद कर के इस सबको अपने मन से निकालने का प्रयास करने लगी मगर कामयाब न हुई। बेबस और लाचारी का एहसास होते ही उसकी आंखें भर आईं और न चाहते हुए भी उसकी आंखों से आंसू के कुछ कतरे छलक ही पड़े। सहसा किसी आहट से वो चौंकी और फिर घबरा कर जल्दी जल्दी अपने आंसू पोछने लगी।


[][][][][]

"क्या सोचने लगे धनंजय?" दादा ठाकुर ने दारोगा को सोचो में गुम हुआ देखा तो बोले____"तुम्हारी चुप्पी और तुम्हारा अचानक से इस तरह से सोच में पड़ जाना इस बात को ज़ाहिर करता है कि तुमने जो कुछ मुरारी और उसके हत्यारे के संबंध में हमें बताया है उसे तुम खुद ही कबूल नहीं कर पा रहे हो।"

दादा ठाकुर की बात सुन कर दरोगा ने सिर उठा कर उनकी तरफ देखा किंतु जल्दी ही उनसे नज़रें हटा कर बगले झांकने लगा। चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे। दादा ठाकुर उसी को देख रहे थे।

"प्रतीत होता है जैसे तुम हमसे कुछ छुपा रहे हो।" दादा ठाकुर ने उसके चेहरे पर तेज़ी से बदलते भावों को देखते हुए कहा____"हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम्हारे जैसा पढ़ा लिखा दारोगा इस मामले में ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता। तुम भी अच्छी तरह समझते हो कि अगर वैभव ही मुरारी का हत्यारा होता तो खुद उस पर नकाबपोशों का हमला नहीं होता और ना ही वो हमें मुरारी के हत्यारे का पता लगाने के लिए ज़ोर देता।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" धनंजय ने नज़रें चुराते हुए कहा____"मैं इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकता।"
"ऐसा क्यों कह रहे हो तुम?" दादा ठाकुर के माथे पर सिलवटें उभर आईं____"आख़िर बात क्या है धनंजय? ऐसा क्या है जो तुम हमें बता नहीं रहे?"

"मैं जानता हूं कि आपके बहुत उपकार हैं मुझ पर।" दरोगा ने भारी गले से कहा____"आपने मेरे और मेरे परिवार के लिए बहुत कुछ किया है। आपके उपकारों का बदला मैं अपनी जान दे कर भी चुका नहीं सकता।"
"तुम्हें ऐसा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम सिर्फ़ ये जानना चाहते हैं कि असल बात क्या है?"

"अपनी मां की तबियत के बारे में मैंने आपको जो कुछ बताया वो झूठ था ठाकुर साहब।" धनंजय ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"जबकि सच ये है कि मेरी मां का कुछ समय पहले अपहरण कर लिया गया है।"
"ये क्या कह रहे हो तुम?" दादा ठाकुर बुरी तरह चौंके____"कैसे हुआ ये और किसने किया ऐसा?"

"एक ऐसे रहस्यमई आदमी ने जो खुद को सफ़ेद कपड़े और नक़ाब में छुपा के रखता है।" धनंजय ने कहा____"एक हफ़्ता पहले की बात है। मैं इस कमरे से आगे की तहक़ीकात के लिए निकल ही रहा था कि तभी बाहर से दरवाज़ा खटखटाया गया। मैंने सोचा शायद आप होंगे इस लिए जा कर दरवाज़ा खोला। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला एकदम से क़यामत टूट पड़ी मुझ पर। एक काला नकाबपोश आदमी बिजली की सी तेज़ी से टूट पड़ा था मुझ पर। मुझे उस सबकी ख़्वाब में भी उम्मीद नहीं थी इस लिए मैं उस सबसे बुरी तरह बौखला गया था किंतु जब तक सम्हला तब तक मैं काले नकाबपोश आदमी के कब्जे में आ चुका था। उसने पीछे से मेरे गले पर तेज़ धार वाला खंज़र लगा दिया था। अगर बात सिर्फ़ इतनी ही होती तो शायद मैं कुछ कर भी सकता था किंतु अगले ही पल दरवाज़े से उसके ही जैसा एक और नकाबपोश कमरे में आ गया। दूसरे नकाबपोश में सिर्फ़ इतना ही फ़र्क था कि उसके कपड़े सफ़ेद थे और चेहरे पर भी सफ़ेद रंग का ही नक़ाब था। उसे देख कर मेरी आंखों के सामने उस दिन का मंज़र घूम गया जब वो अपने ही एक नकाबपोश आदमी की जान ले रहा था। मैं सोच में पड़ गया था कि वो सफ़ेदपोश आदमी अपने काले नकाबपोश साथी के साथ मेरे पास क्यों आया है? क्या वो मेरी जान लेने आया था? अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी कमरे में उस सफ़ेदपोश की अजीब सी आवाज़ गूंजी। उसने मुझसे कहा कि अब से मैं वही करूंगा जो वो चाहेगा और अगर मैने ऐसा नहीं किया तो ये मेरे लिए ठीक नहीं होगा। उसके अनुसार मुझे मुरारी के हत्यारे का पता लगाने में कोई जल्दबाजी नहीं करनी है और ना ही कोई ईमानदारी दिखाना है। अगर आप मेरे पास आ कर मुझसे इस मामले में कुछ पूछते हैं तो मुझे यही बताना है कि मुरारी का हत्यारा आपका बेटा वैभव सिंह ही है। इसको प्रमाणित करने के लिए उसने मुझे वही तरीका बताया जो मैं आपको बता चुका हूं कि आपके बेटे का मुरारी की बीवी सरोज के साथ नाजायज़ संबंध बन गया था और ये बात मुरारी को पता चल गई थी। ख़ैर ये सब कह कर उस सफ़ेदपोश ने मुझे फिर से चेताया कि अगर मैंने उसका कहा नहीं माना तो अंजाम अच्छा नहीं होगा। उसके बाद उसके काले नकाबपोश साथी ने मेरे सिर पर वार किया जिससे मैं बेहोश हो गया। होश आया तो देखा वो दोनों कमरे से गायब थे। मैं सोचने लगा कि आख़िर वो सफ़ेदपोश मुझसे ये सब क्यों करवाना चाहता है? भला ऐसा करने से उसे क्या फ़ायदा हो सकता था जबकि वैभव को मुरारी का हत्यारा साबित करने से भी कुछ नहीं हो सकता था? ख़ैर उसकी धमकी को मैंने पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया था। मैं भला ऐसे किसी आदमी के कहने पर अपने फर्ज़ से कैसे मुंह मोड़ लेता लेकिन जल्दी ही मुझे समझ में आ गया कि मुझे उसका कहा मान लेना चाहिए था। चार दिन पहले मुझे पता चला कि मेरी मां घर से गायब है। मैंने उन्हें बहुत खोजा मगर उनका कहीं पता नहीं चला। मुझे समझते देर न लगी कि ये काम ज़रूर उस सफ़ेदपोश का ही होगा। इस दुनिया में मां के अलावा मेरा है ही कौन? मैं बुरी तरह घबरा गया था कि अगर मां को कुछ हो गया तो मैं कैसे खुद को माफ़ कर पाऊंगा? मन में ख़्याल आया कि इस बारे में आपको बताऊं लेकिन फिर ये सोच कर बताना सही नहीं समझा कि इससे कहीं बात और न बिगड़ जाए। मैं जानता था उस सफ़ेदपोश से यहीं मुलाक़ात हो सकती है इस लिए मैं यहीं आ गया। दो दिन पहले रात के अंधेरे में सच में ही वो सफ़ेदपोश मेरे सामने आ गया और फिर उसने खुद ही बताया कि मेरी मां उसके कब्जे में है। अगर अब भी मैं उसका कहा नहीं मानूंगा तो इस बार मैं अपनी मां से हाथ धो बैठूंगा। बेबस हो कर मुझे उसके अनुसार चलना ही पड़ा ठाकुर साहब।"

"तो क्या तुम्हारी मां अभी भी उसी के कब्जे में है?" दादा ठाकुर ने पूछा।
"हां।" धनंजय ने हताश भाव से कहा____"उसका कहना है कि वो तभी मेरी मां को आज़ाद करेगा जब मैं आपको ये सब बता दूंगा कि मुरारी का हत्यारा आपका बेटा ही है।"

"बड़ी अजीब बात है।" दादा ठाकुर ने हैरानी भरे भाव से कहा____"भला उसे तुम्हारे द्वारा ऐसा करवाने से क्या लाभ हो सकता है? क्या उसे इतना भी ज्ञान नहीं है कि तुम्हारे द्वारा वैभव को मुरारी का हत्यारा साबित कर देने से भी हमें यकीन नहीं हो सकता या ये कहें कि हमारे बेटे पर कोई आंच नहीं आ सकती?"

"मैं खुद भी अभी तक यही बात सोच सोच कर परेशान हूं ठाकुर साहब।" धनंजय ने कहा____"मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा कि मेरे द्वारा ऐसा करवाने से उसे क्या लाभ हो सकता है। ख़ैर, मैं तो ये सोच कर डर रहा हूं कि आपको असलियत बता देने के बाद अब मेरी मां का क्या होगा? कहीं वो मेरी मां को जान से न मार दे, अगर ऐसा हुआ तो मैं अनाथ हो जाऊंगा ठाकुर साहब। मेरी वजह से मेरी मां की जान चली गई तो कैसे इस अपराध बोझ से जी पाऊंगा मैं?"

"कुछ नहीं होगा तुम्हारी मां को।" दादा ठाकुर ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा____"हमें यकीन है कि वो तुम्हारी मां के साथ कुछ भी बुरा नहीं करेगा।"
"पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी।" धनंजय ने हताश हो कर कहा____"जब मेरा तबादला इस शहर में हुआ था और फिर मैं इस मामले में फंस गया?"

"फ़िक्र मत करो धनंजय।" दादा ठाकुर ने खड़े हो कर उसके कंधे पर हाथ रखा____"तुम्हारी मां सही सलामत तुम्हें मिल जाएंगी। एक बात और, हम तुम्हें अब इस मामले से आज़ाद करते हैं। तुम्हारे आला अधिकारी से बात कर के हम तुम्हारा तबादला भी कहीं और करवा देंगे। हम नहीं चाहते कि हमारी वजह से तुम दोनों मां बेटे पर कोई संकट आए। अच्छा अब हम चलते हैं, अपना ख़्याल रखना।"

धनंजय ने हाथ जोड़ कर दादा ठाकुर को प्रणाम किया तो दादा ठाकुर उसे आशीर्वाद दे कर कमरे से बाहर निकल गए। कुछ ही देर में वो जीप में अपने दोनों आदमियों के साथ बैठे हवेली की तरफ बढ़े चले जा रहे थे। उनके चेहरे पर सोचो के गहरे बादल छाए हुए थे।


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शाम हो चुकी थी।
मैं सबके साथ बैठा चाय पी रहा था। गांव की कुछ औरतें आई हुईं थी और अंदर वो सब सोहर गीत गा रहीं थी। ये सुबह शाम रोज़ का ही काम बन गया था उनका। जब से बड़े भैया के साले वीरेंद्र को पुत्र हुआ था तभी से घर में खुशियों का माहौल छाया हुआ था। हम सब बाहर ही बैठे हुए थे इस लिए गाना बजाना साफ साफ सुनाई दे रहा था। मैं पहली बार रागिनी भाभी के द्वारा कोई गीत सुन रहा था। उनकी आवाज़ तो मधुर थी ही किंतु गाना भी वो बहुत ही सुंदर गा रहीं थी। कुछ गांव की औरतें और लड़कियां भी थीं जो उनका साथ दे रहीं थी।

चाय के दौरान ही मैंने वीरेंद्र से कहा कि मेरे लायक जो भी काम हो वो बेझिझक मुझे बताएं। मेरी ये बात सुन कर सब कहने लगे कि वो अपनी बेटी के देवर से कोई काम नहीं करवाएंगे। मैंने काफी कहा लेकिन वो न माने तब मैंने कहा कि ठीक है लेकिन मेरे साथ जो आदमी आए हैं वो यहां काम करने के लिए ही आए हैं इस लिए वो उन्हें काम पर लगा लें। मेरी इस बात से सब राजी हो गए। ख़ैर उसके बाद मैं गांव घूमने का बोल कर निकल गया।

चंदनपुर गांव में ज़्यादातर ठाकुर ही थे और बाकी अन्य जाति के लोग थे। यहां मुझे सब जानते थे और बड़े ही प्रेम भाव से मिलते थे। गांव में ज़्यादातर कच्चे मकान बने हुए थे। मैं बाहर आया और सोचा किस तरफ घूमने के लिए जाया जाए? घर में क्योंकि सब लोग गीत संगीत ने व्यस्त थे इस लिए किसी के पास मेरे लिए समय ही नहीं था। मैं चलते हुए अपने भैया के चाचा ससुर के घर की तरफ आ गया। शाम ढल चुकी थी इस लिए हर घर में लालटेन जला दी गई थी। हालाकि बिजली भी थी गांव में लेकिन उसके आने का कोई समय नहीं था। चौबीस घंटे में मुश्किल से चार पांच घंटे ही बिजली रहती थी, वो भी भगवान भरोसे।

घर का दरवाज़ा खुला हुआ था तो मैं अंदर दाखिल हो गया। चाचा ससुर यानि बलभद्र सिंह भाभी के घर में ही बैठे हुए थे और उनके साथ में उनका बड़ा बेटा भी था। मैं अंदर आया तो देखा बैठका खाली था तो मैं अंदर की तरफ बढ़ गया। थोड़ी ही देर में मैं अंदर आंगन में आ गया। आंगन में आ कर जैसे ही मैंने बाएं तरफ नज़र डाली तो एकदम से मेरी आंखें फट पड़ीं। अंदर की सांस अंदर और बाहर की बाहर ही रह गई। मैं अपनी जगह पर बुत बना खड़ा रह गया था।

आंगन के बाएं तरफ कोने में बलवीर की बीवी सुषमा पूरी तरह नंगी खड़ी थी। उसकी साड़ी नीचे ज़मीन पर पड़ी हुई थी। उसका पूरा जिस्म लालटेन के प्रकाश में नहाया हुआ था। उसकी नज़र मुझ पर नहीं पड़ी थी। मैंने देखा वो एक दूसरी साड़ी को हाथ में लिए उसे पहनने वाली थी। सहसा उसे किसी बात का आभास हुआ तो उसने नज़र उठा कर देखा और जैसे ही उसकी नज़र किसी पराए मर्द पर पड़ी तो वो बुरी तरह उछल पड़ी। डर और घबराहट के मारे उसके कंठ से चीख ही निकल गई। उसके बाद फ़ौरन ही वो अपनी नग्नता को छुपाने में लग गई थी। इधर उसकी चीख सुन कर मुझे होश आया था। उसको हैरत से अपनी तरफ देखता देख मैं एकदम से बौखला गया और फ़ौरन ही पलट कर बाहर की तरफ भागा।

बाहर बैठक में आ कर मैं एक तरफ रखे लकड़ी के तख्त पर बैठ गया। मेरी सांसें इतनी तेज़ चलने लगीं थी मानों मैं सैकड़ों मील भाग कर आया था। आंखों के सामने सुषमा का नंगा जिस्म बार बार घूमे जा रहा था। गोरे जिस्म का एक एक अंग साफ देखा था मैंने। सीने पर मध्यम आकार की ठोस और तनी हुई चूचियां, उसके नीचे सपाट पेट, पेट के बीच सुंदर सी नाभि और उसके नीचे चिकनी जांघों के बीच घने बालों में छुपी उसकी योनि। उफ्फ मैंने आंखें बंद कर के एक गहरी सांस ली। बंद आंखों में सुषमा का डरा सहमा और हैरत से सराबोर चेहरा उभर आया। यकीनन इस तरह उसे किसी के आ जाने की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी और उसे ही बस क्यों मुझे खुद भी इसकी उम्मीद नहीं थी। मैं सोचने लगा कि साला ये कैसा चूतियापा हो गया? सहसा मेरे मन में ख़्याल उभरा कि वो आंगन में उस हालत में क्यों थी? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी अंदर से पायलों की छम छम करती आवाज़ बाहर आती सुनाई दी। मैं एकदम से सम्हल कर बैठ गया। मेरी धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं।

कुछ ही पलों में सुषमा बाहर आ गई। मैंने नज़र उठा कर उसकी तरफ देखा। हमारी नज़रें मिलीं तो उसने बुरी तरह शरमा कर अपना सिर झुका लिया। इस वक्त वो साड़ी पहने हुए थी। गोरा चेहरा लाज्जावश सुर्ख पड़ा हुआ था।

"माफ़ कीजिएगा, मुझे पता नहीं था कि अंदर आप उस हालत में होंगी।" मैंने झिझकते हुए धीमें स्वर में कहा____"मैं तो बस आपसे मिलने आया था। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि अंदर मुझे ऐसा ख़ूबसूरत नज़ारा देखने को मिल जाएगा।"

"आप बहुत ख़राब हैं ननदोई जी।" सुषमा ने बुरी तरह शरमा कर किन्तु नाराज़गी जताते हुए कहा____"भला कोई किसी के घर के अंदर इस तरह दबे पांव जाता है क्या? कम से कम आवाज़ तो लगाना चाहिए था आपको।"

"देखिए अब जो हो गया उसके लिए क्या ही किया जा सकता है भाभी जी।" मैंने जब देखा कि सुषमा उस सबसे ज़्यादा नाराज़ नहीं हुई है तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"रही बात आवाज़ लगा कर अन्दर आने की तो अब मैंने फ़ैसला कर लिया है कि अब से जब भी यहां आऊंगा तो ऐसे ही दबे पांव आऊंगा ताकि ऐसा ही ख़ूबसूरत नज़ारा देखने को मिलें।"

"धत्त, सच में बहुत गंदे हैं आप?" सुषमा एक बार फिर बुरी तरह लजा गई फिर बोली____"अगर आइंदा इस तरह दबे पांव आएंगे तो कूटे जाएंगे आप।"
"कोई बात नहीं सरकार।" मैंने मुस्कुरा कर कहा___"ऐसे ख़ूबसूरत नज़ारे को देखने के लिए तो हम खुशी से अपनी जान भी दे देंगे।"

"बस कीजिए अब।" सुषमा मानों शर्म से गड़ी जा रही थी____"वरना रागिनी दीदी से आपकी शिकायत कर देंगे हम।"
"ज़रूर कर दीजिए सरकार।" मैंने छेड़ा____"और ये भी बताइएगा कि कैसे आप मुझ मासूम को अपने हुस्न का दीदार करा रहीं थी।"

"हाय राम! हमने कब किया ऐसा?" सुषमा बुरी तरह हैरान हो कर बोल पड़ी थी।
"ख़ैर ये सब छोड़िए।" मैंने कहा____"और ये बताइए कि आप आंगन में उस हालत में क्यों थीं? भला आपको ये कैसा शौक चढ़ा हुआ था?"

"धत्त।" सुषमा ने शर्म से मुस्कुराते हुए कहा____"हमें ऐसा करने का कोई शौक नहीं चढ़ा हुआ था। हम तो दिशा मैदान जाने के लिए कपड़ा बदल रहे थे। घर में कोई था नहीं इस लिए सोचा आंगन में ही झट से कपड़ा बदल लेते हैं और फिर दिशा मैदान के लिए चले जाएंगे। अब हमें क्या पता था कि आप ऐसे दवे पांव आ जाएंगे।"

"शायद मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी भाभी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"इसी लिए तो इतना खूबसूरत नज़ारा देखने को मिल गया मुझे। उफ्फ! क्या लग रहीं थी आप?"

"भगवान के लिए ऐसी बातें मत कीजिए।" सुषमा ने फिर से शर्मा कर कहा____"हमारा वैसे भी शर्म से बुरा हाल है। कृपया इस बात का ज़िक्र किसी से मत कीजिएगा वरना बहुत बदनामी होगी हमारी।"

"फ़िक्र मत कीजिए।" मैंने उसके शर्म से लाल पड़े चेहरे को देखते हुए कहा____"मैं इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन ये भी तो बताइए कि इससे मुझे क्या मिलेगा?"

"क...क्या मतलब है आपका?" सुषमा मानों उलझ गई।
"सीधी सी बात है भाभी।" मैंने समझाने वाले अंदाज़ से कहा____"मैं आपके इतने बड़े राज़ को सबसे छुपा कर रखूंगा जिससे कोई आपके बारे में ग़लत नहीं सोचेगा? तो मेरे इतने बड़े काम के लिए मुझे भी तो आपसे कुछ मिलना चाहिए।"

"क..क्या चाहते हैं आप?" सुषमा ने संदेहपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा।
"ज़्यादा कुछ नहीं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"सिर्फ़ यही कि एक बार फिर से वैसा ही ख़ूबसूरत नज़ारा देखने को मिल जाए।"

"हाय राम! ये क्या कह रहे हैं आप?" सुषमा ने बुरी तरह चौंकते हुए कहा_____"नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने तख्त से उतर कर कहा____"अभी थोड़ी देर पहले तो हुआ ही है तो एक बार फिर से क्यों नहीं हो सकता?"

"वो तो बस अंजाने में हुआ था।" सुषमा ने शर्म से नज़रें झुकाते हुए कहा____"अब वैसा कुछ भी हम जान बूझ कर नहीं करेंगे। कृपया आप हमें इसके लिए मजबूर न करें। अच्छा, अब हम चलते हैं। हमें दिशा मैदान के लिए जाना है।"

सुषमा मेरी कोई बात सुने बिना ही चली गई। शायद वो समझ गई थी कि जितना वो मुझसे इस बारे में बातें करेगी उतना वो खुद ही फंसती जाएगी। या फिर ये भी संभव था कि दिशा मैदान के लिए जाना उसके लिए ज़रूरी हो गया था। ख़ैर, मैं उसकी हालत को सोच कर मन ही मन मुस्कुराया और फिर बाहर की तरफ चल पड़ा। अभी दरवाज़े पर ही पहुंचा था कि सामने से मुझे सुषमा की ननद कंचन इधर ही आती हुई दिखी। उसे आता देख मेरे होठों पर गहरी मुस्कान उभर आई और मैं पलट कर इस बार दरवाज़े के बगल से दीवार की ओट में छिप गया।


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Lazwaab update
 

Iron Man

Try and fail. But never give up trying
44,204
116,739
304
अध्याय - 100
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मैं और भाभी जीप में बैठे आगे बढ़े चले जा रहे थे। मैं धीमी गति से ही जीप चला रहा था। जब से भाभी जीप में बैठीं थी तब से वो ख़ामोश थीं और ख़यालों में खोई हुई थीं। मैं बार बार उनकी तरफ देख रहा था। वो कभी हौले से मुस्कुरा देती थीं तो कभी फिर कुछ सोचने लगती थीं। इधर मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मैं उनसे जानना चाहता था कि आख़िर उन्होंने अनुराधा से क्या बातें की थीं?

"आख़िर कुछ तो बताइए भाभी।" जब मुझसे बिल्कुल ही न रहा गया तो मजबूर हो कर मैंने उनसे पूछा____"मैं काफी देर से देख रहा हूं कि आप जाने क्या सोच सोच कर बस मुस्कुराए जा रही हैं। मुझे भी तो कुछ बताइए। मैं जानना चाहता हूं कि आपने अनुराधा से क्या बातें की अकेले में?"

"आय हाय! देखो तो सबर ही नहीं हो रहा जनाब से।" भाभी ने एकदम से मुस्कुराते हुए मुझे छेड़ा____"वैसे क्या जानना चाहते हो तुम?"

"वही जो आपने अकेले में उससे बातें की हैं।" मैं उनके छेड़ने पर पहले तो झेंप गया था फिर मुस्कुराते हुए पूछा____"आख़िर कुछ तो बताइए। अकेले में ऐसी क्या बातें की हैं आपने?"

"अगर मैं ये कहूं कि वो सब बातें तुम्हें बताने लायक नहीं हैं तो?" भाभी ने मुस्कुराते हुए तिरछी नज़र से मुझे देखा____"तुम्हें तो पता ही होगा कि हम औरतों के बीच भी बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिन्हें मर्दों को नहीं बताई जा सकतीं।"

"ये बहुत ग़लत बात है भाभी।" मैंने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"आपको मुझे छेड़ना ही है तो बाद में छेड़ लीजिएगा लेकिन अभी बताइए ना कि आपने उससे क्या बातें की हैं? आपको अंदाज़ा भी नहीं है कि उतनी देर से सोच सोच कर मेरी क्या हालत हुई जा रही है?"

मेरी ये बात सुनते ही भाभी एकदम से खिलखिला कर हंसने लगीं। हंसने से उनके सच्चे मोतियों जैसे दांत चमकने लगे और उनकी मधुर आवाज़ फिज़ा में मीठा संगीत सा बजाने लगी। उन्हें हंसता देख मुझे बहुत अच्छा लगा। यही तो चाहता था मैं कि वो अपने सारे दुख दर्द भूल कर बस हंसती मुस्कुराती रहें।

"अच्छा एक काम करो।" फिर उन्होंने अपनी हंसी को रोकते हुए किंतु मुस्कुराते हुए ही कहा____"तुम अपनी अनुराधा से ही पूछ लेना कि हमारी आपस में क्या बातें हुईं थी?"

"बहुत ज़ालिम हैं आप, सच में।" मैंने फिर से बुरा सा मुंह बना कर कहा____"आज तक किसी लड़की अथवा औरत में इतनी हिम्मत नहीं हुई थी कि वो मुझे आपके जैसे इस तरह सताने का सोचे भी।"

"तुम ये भूल रहे हो वैभव कि मैं कौन हूं?" भाभी ने कहा____"आज तक तुम्हारे जीवन में जो भी लड़कियां अथवा औरतें आईं थी वो सब ग़ैर थीं और निम्न दर्जे की सोच रखने वाली थीं जबकि मैं तुम्हारी भाभी हूं। दादा ठाकुर की बहू हूं मैं। क्या तुम मेरी तुलना उन ग़ैर लड़कियों से कर रहे हो?"

"नहीं नहीं भाभी।" मैंने हड़बड़ा कर झट से कहा____"मैं आपकी तुलना किसी से भी करने के बारे में सोच तक नहीं सकता। मैंने तो ऐसा सिर्फ मज़ाक में कहा था वरना आप भी जानती हैं कि आपके प्रति मेरे मन में कितनी इज्ज़त है।"

"हां जानती हूं मैं।" भाभी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"और मुझे खुशी है कि तुम मेरे प्रति ऐसे भाव रखते हो। मुझे पता है कि तुम मेरे होठों पर मुस्कुराहट लाने के लिए नए नए तरीके अपनाते हो। सच कहूं तो मुझे तुम्हारा ऐसा करना अच्छा भी लगता है। मुझे गर्व महसूस होता है कि तुम्हारे जैसा लड़का मेरा देवर ही नहीं बल्कि मेरा छोटा भाई भी है। मेरे लिए सबसे ज़्यादा खुशी की बात ये है कि तुम खुद को बदल कर एक अच्छा इंसान बनने की राह पर चल रहे हो। तुम हमेशा एक अच्छे इंसान बने रहो यही मेरी तमन्ना है और इसी से मुझे खुशी महसूस होगी।"

"फ़िक्र मत कीजिए भाभी।" मैंने कहा____"मैं हमेशा आपकी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा और आपकी खुशी का ख़याल रखूंगा।"

"और अनुराधा तथा रूपा की खुशी का ख़याल कौन रखेगा?" भाभी ने मुस्कुराते हुए मुझे फिर से छेड़ा_____"मत भूलो कि अगले साल दो दो बीवियों के बीच फंस जाने वाले हो तुम। फिर मैं भी देखूंगी कि दोनों की खुशियों का कितना ख़याल रख पाते हो तुम।"

"अरे! इसमें कौन सी बड़ी बात है भाभी।" मैंने बड़े गर्व से कहा____"इस मामले में तो मुझे बहुत लंबा तज़ुर्बा है। दोनों को एक साथ खुश रखने की क्षमता है मुझमें।"

"ज़्यादा उड़ो मत।" भाभी ने मुझे घूरते हुए कहा____"जिस दिन बीवियों के बीच हमेशा के लिए फंस जाओगे न तब समझ आएगा कि बाहर की औरतों को और अपनी बीवियों को खुश रखने में कितना फ़र्क होता है।"

"आप तो बेवजह ही डरा रही हैं मुझे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ये मत भूलिए कि आपके सामने ठाकुर वैभव सिंह बैठे हैं।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" भाभी ने आंखें फैला कर मेरी तरफ देखा____"फिर तो अनुराधा से ब्याह करने के लिए तुम्हें अपनी इस भाभी की मदद की कोई ज़रूरत ही नहीं हो सकती, है ना?"

"य...ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैं बुरी तरह हड़बड़ा गया, बोला____"आपकी मदद के बिना तो मेरी नैया पार ही नहीं हो सकती। कृपया ऐसी बातें न करें जिससे मेरी धड़कनें ही रुक जाएं।"

मेरी बात सुन कर भाभी एक बार फिर से खिलखिला कर हंस पड़ीं। इधर मैं अपना मुंह लटकाए रह गया। मेरी सारी अकड़ छू मंतर हो गई थी। उन्होंने मेरी कमज़ोर नस पर वार जो कर दिया था। ख़ैर मैं विषय को बदलने की गरज से उनसे फिर ये पूछने लगा कि उनकी अनुराधा से क्या बातें हुईं हैं लेकिन भाभी ने कुछ नहीं बताया मुझे। बस यही कहा कि मैं अगर इतना ही जानने के लिए उत्सुक हूं तो अनुराधा से ही पूछूं। भाभी मेरी हालत का पूरा लुत्फ़ उठा रहीं थी और ये बात मैं बखूबी समझता था। ख़ैर मुझे उनके न बताने से ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ रहा था, अलबत्ता इस बात की खुशी थी कि इस सफ़र में भाभी खुश थीं। ऐसी ही नोक झोंक भरी बातें करते हुए हम हवेली पहुंच गए।

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रूपचंद्र को अपने कमरे में दाखिल होता देख रूपा पहले तो चौंकी फिर सम्हल कर बैठ गई। आज काफी समय बाद उसके बड़े भाई ने उसके कमरे में क़दम रखा था। दोनों की उमर में सिर्फ डेढ़ साल का अंतर था। हालाकि दोनों को देखने से यही लगता था जैसे दोनों ही जुड़वा हों। एक वक्त था जब दोनों भाई बहन का आपस में बड़ा ही प्रेम और लगाव था।

बचपन से ही दोनों एक साथ खेल कूद कर बड़े हुए थे। बढ़ती उम्र के साथ जैसे जैसे दोनों में समझदारी आती गई वैसे वैसे दोनों एक दूसरे का छोटा बड़ा होने के नाते आदर और सम्मान करने लगे थे। रूपा वैसे भी एक लड़की थी इस लिए उसे अपनी मर्यादा में ही रहने की नसीहतें मिलती रहती थीं किंतु रूपचंद्र के मन में हमेशा से ही अपनी छोटी बहन रूपा के लिए विशेष लगाव और स्नेह था। फिर जब रूपचंद्र को अपनी बहन रूपा का वैभव के साथ बने संबंध का पता चला तो वो रूपा से बहुत नाराज़ हुआ। एक झटके में अपनी बहन से उसका बचपन का लगाव और स्नेह जाने कहां गायब हो गया और उसकी जगह नाराज़गी के साथ साथ गुस्सा भी भरता चला गया। उसे लगता था कि उसकी बहन ने वैभव के साथ ऐसा संबंध बना कर बहुत ही नीच और गिरा हुआ कार्य किया है और साथ ही खानदान की इज्ज़त को दाग़दार किया है। उसने ये समझने की कभी कोशिश ही नहीं की थी कि उसकी बहन ने अगर ऐसा किया था तो सिर्फ अपने प्रेम को साबित करने के चलते किया था।

आज मुद्दतों बाद रूपचंद्र को अपने कमरे में दाखिल होते देख रूपा चौंकी तो थी ही किंतु एक अपराध बोझ के चलते उसने अपना सिर भी झुका लिया था। ये अलग बात है कि अपने भाई के प्रति उसके मन में भी नाराज़गी और गुस्सा विद्यमान था। उधर रूपचंद्र कमरे में दाखिल हुआ और फिर अपनी बहन की तरफ ध्यान से देखने लगा। उसने देखा रूपा उसकी तरफ देखने से कतरा रही थी। ये देख उसके दिल में एक हूक सी उठी जिसके चलते कुछ पल के लिए उसके चेहरे पर वेदना के चिन्ह उभरते नज़र आए। उसने ख़ामोशी से पलट कर दरवाज़े को अंदर से कुंडी लगा कर बंद किया और फिर उसी ख़ामोशी के साथ पलंग के एक कोने में सिमटी बैठी रूपा की तरफ बढ़ चला। जल्दी ही वो उसके क़रीब पहुंच गया। कुछ पलों तक वो रूपा को निहारता रहा और फिर आहिस्ता से पलंग के किनारे बैठ गया।

"मैं जानता हूं कि तू अपने इस भाई से बहुत नाराज़ है।" फिर उसने अधीरता से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"और नाराज़ होना भी चाहिए। मैंने कभी भी तुझे समझने की कोशिश नहीं की बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि मैंने तुझे समझने के बारे में सोचा तक नहीं। तुझे कहने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि आज मुद्दतों बाद मुझे खुद ही ये एहसास हो रहा है कि मैंने अपनी उस बहन को कभी नहीं समझा जिसे कभी मैं बहुत प्रेम करता था और जो कभी मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैंने हमेशा वैभव के साथ तेरे संबंध को ग़लत नज़रिए से सोचा और तेरे बारे में तरह तरह की ग़लत धारणाएं बनाता रहा। शायद यही वजह थी कि मेरे अंदर तेरे लिए नाराज़गी और गुस्सा हमेशा ही कायम रहा। जबकि मुझे समझना चाहिए था और सबसे बड़ी बात तुझ पर भरोसा करना चाहिए था। मुझे समझना चाहिए था कि जब किसी इंसान को किसी से प्रेम हो जाता है तो वो उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता है। वो अपना सब कुछ अपने प्रेम में न्यौछावर कर देता है, क्योंकि उसकी नज़र में उसका अपने आप पर कोई अधिकार ही नहीं रह जाता है। काश! इतनी सी बात मैं पहले ही समझ गया होता तो मैं तेरे बारे में कभी ग़लत न सोचता और ना ही तुझसे नाराज़ रहता। मुझे माफ़ कर दे मेरी बहन। मैं तेरा गुनहगार हूं। कई दिनों से तेरे पास आ कर तुझसे माफ़ी मांगना चाहता था मगर शर्मिंदगी के चलते हिम्मत ही नहीं होती थी। आज बहुत हिम्मत जुटा कर तेरे पास आया हूं। मैं जानता हूं कि मेरी मासूम बहन का दिल बहुत बड़ा है और वो अपने इस नासमझ भाई को झट से माफ़ कर देगी।"

"भ...भैया!!" रूपचंद्र की बात ख़त्म हुई ही थी कि रूपा एकदम से रोते हुए किसी बिजली की तरह आई और रूपचंद्र के गले से लिपट गई। उसकी आंखों से मोटे मोटे आंसुओं की धारा बहने लगी थी। रूपचंद्र खुद भी अपनी आंखें छलक पड़ने से रोक न सका। उसने रूपा को अपने सीने से इस तरह छुपका लिया जैसे कोई मां अपने छोटे से बच्चे को अपने सीने से छुपका लेती है।

"आह! आज मुद्दतों बाद तुझे अपने सीने से लगा कर तेरे इस भाई को बड़ा ही सुकून मिल रहा है रूपा।" रूपचंद्र ने रुंधे गले से कहा____"इतने समय से मेरा जलता हुआ हृदय एकदम से ठंडा पड़ गया सा महसूस हो रहा है।"

"मैं भी ऐसा ही महसूस कर रही हूं भैया।" रूपा ने सिसकते हुए कहा____"आप नहीं समझ सकते कि आज आपके इस तरह मुझे अपने सीने से लगा लेने से मेरी आत्मा पर से कितना बड़ा बोझ हट गया है। ऐसा लगता है जैसे मेरे अस्तित्व का फिर से एक नया जन्म हो गया है।"

"कुछ मत कह पगली।" रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा____"देर से ही सही मगर अब मैं तेरी भावनाओं को बखूबी समझ रहा हूं। मुझे एहसास हो गया है कि तूने अब तक किस अजीयत के साथ अपने दिन रात गुज़ारे हैं लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। तेरा ये भाई तुझे वचन देता है कि अब से तुझे कोई दुख नहीं सहना पड़ेगा। तेरे रास्ते की हर रुकावट को मैं दूर करूंगा और हर पल तेरे लिए दुआ करूंगा कि तू हमेशा खुश रहे। तुझे वो मिले जिसकी तूने ख़्वाईश की है।"

"ओह! भैया।" रूपा अपने भाई की बातें सुन कर और भी ज़्यादा ज़ोरों से उससे छुपक गई। उसकी आंखें फिर से मोटे मोटे आंसू बहाने लगीं।

रूपचंद्र ने उसे खुद से अलग किया और अपने हाथों से उसके आंसू पोंछने लगा। रोने की वजह से रूपा का खूबसूरत चेहरा बुरी तरह मलिन पड़ गया था। रूपचंद्र की आंखें भी भींगी हुईं थी जिन्हें उसने साफ करने की ज़रूरत नहीं समझी बल्कि जब रूपा ने देखा तो उसने ही अपने हाथों से उसकी भींगी आंखों को पोंछा। बंद कमरे में भाई बहन के इस अनोखे प्यार और स्नेह का एक अलग ही मंज़र नज़र आ रहा था इस वक्त।

"मुझसे वादा कर कि अब से तू आंसू नहीं बहाएगी।" रूपचंद्र ने रूपा की तरफ देखते हुए कहा____"तुझे जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तू मुझसे कहेगी। यूं समझ ले कि अब से तेरा ये भाई तेरी खुशी के लिए कुछ भी कर जाएगा।"

"आपने इतना कह दिया मेरे लिए यही बहुत है भैया।" रूपा ने अधीरता से कहा____"मुझे अपने सबसे ज़्यादा प्यार करने वाले भैया वापस मिल गए। मेरे लिए यही सबसे बड़ी खुशी की बात है।"

"तूने मुझे माफ़ तो कर दिया है ना?" रूपचंद्र ने उसकी आंखों में देखा।

"आपने ऐसा कुछ किया ही नहीं है जिसके लिए आपको मुझसे माफ़ी मांगनी पड़े।" रूपा ने बड़ी मासूमियत से कहा____"मेरा ख़याल है कि आपने वही किया है जो हर भाई उन हालातों में करता या सोचता।"

"नहीं रूपा।" रूपचंद्र ने सहसा खेद भरे भाव से कहा____"कम से कम तेरे बारे में मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था। मैं तुझे बचपन से जानता था। हम दोनों एक साथ खेल कूद कर बड़े हुए थे। मुझे अच्छी तरह पता है कि मेरी बहन के मन में भूल से भी कभी कोई ग़लत ख़याल नहीं आ सकता था। खोट तो मेरे मन में था मेरी बहना। मन तो मेरा ही मैला हो गया था जिसकी वजह से मैंने अपनी सबसे चहेती बहन के बारे में ग़लत सोचा और इतना ही नहीं जब तुझे सबसे ज़्यादा मेरी ज़रूरत थी तब मैं तेरे साथ न हो कर तेरे खिलाफ़ हो गया था।"

"भूल जाइए भैया।" रूपा ने बड़े स्नेह से रूपचंद्र का दायां गाल सहला कर कहा____"इस दुनिया में सबसे ग़लतियां होती हैं। अगर आपसे हुई हैं तो मुझसे भी तो हुई हैं। मैंने भी तो अपने खानदान और अपने परिवार की मान मर्यादा का ख़याल नहीं रखा था।"

"छोड़ ये सब बातें।" रूपचंद्र ने कहा____"मैं सब कुछ भूल जाना चाहता हूं। तू भी उस बुरे वक्त को भूल जा। अब तो बस खुशियां मनाने की बारी है। अरे! तेरी सबसे बड़ी ख़्वाईश पूरी होने वाली है। अगले साल हमेशा के लिए तुझे वो शख़्स मिल जाएगा जिसे तूने बेहद प्रेम किया है। चल अब इसी बात पर मुस्कुरा के तो दिखा दे मुझे।"

रूपचंद्र की ये शरारत भरी बात सुन कर रूपा एकदम से शर्मा गई और उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर मुस्कान उभर आई। लेकिन अगले ही पल उसकी वो मुस्कान गायब हो गई और उसके चेहरे पर उदासी के बादल मंडराते नज़र आए। रूपचंद्र ने भी इस बात पर गौर किया।

"क्या हुआ?" फिर उसने फिक्रमंद हो कर उससे पूछा____"अचानक तेरे चेहरे पर ये उदासी क्यों छा गई है? बता मुझे, आख़िर तेरी इस उदासी की वजह क्या है?"

"कुछ नहीं भैया।" रूपा ने बात को टालने की गरज से कहा____"कोई ख़ास बात नहीं है।"

"तुझे बचपन से जानता हूं मैं।" रूपचंद्र ने कहा____"तेरी हर आदत से परिचित हूं मैं। इस लिए यकीन के साथ कह सकता हूं कि तेरी इस उदासी की वजह कोई मामूली बात नहीं है। तू मुझे बता सकती है रूपा। अपने इस भाई पर भरोसा रख, मैं तेरी हर परेशानी को दूर करने के लिए अपनी जान तक लगा दूंगा।"

"नहीं नहीं भैया।" रूपा ने घबरा कर झट से अपनी हथेली रूपचंद्र के मुख पर रख दी____"ऐसा कभी दुबारा मत कहिएगा। इस परिवार में अब सिर्फ आप ही तो बचे हैं, अगर आपको भी कुछ हो गया तो हम सब जीते जी मर जाएंगे। रही बात मेरी उदासी की तो आप चिंता मत कीजिए और यकीन कीजिए ये बस मामूली बात ही है। वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा।"

"अगर तू कहती है तो मान लेता हूं।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ली, फिर सहसा मुस्कुराते हुए बोला____"अच्छा ये बता मेरे होने वाले जीजा श्री से मिलने का मन तो नहीं कर रहा न तेरा? देख अगर ऐसा है तो तू मुझे बेझिझक बता सकती है। मेरे रहते जीजा जी की तरफ जाने वाले तेरे रास्ते पर कोई रुकावट नहीं आएगी।"

"धत्त।" रूपा बुरी तरह शर्म से सिमट गई। उसे अपने भाई से ऐसी बात की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी, बोली____"ये कैसी बातें कर रहे हैं आप?"

"अरे! इसमें ग़लत बात क्या है भला?" रूपचंद्र ने अपने कंधे उचकाते हुए कहा____"मैं तो अपनी प्यारी बहन की खुशी वाली बात ही कर रहा हूं। एक भाई होने के नाते ये मेरा फर्ज़ है कि मैं अपनी बहन की हर खुशी का ख़याल भी रखूं और उसे खुश भी रखूं। अब क्योंकि मुझे पता है कि आज के समय में अगर मेरी बहन की मुलाक़ात उसके होने वाले पतिदेव से हो जाए तो उसे कितनी बड़ी खुशी मिल जाएगी इसी लिए तो तुझसे वैसा कहा मैंने।"

"बहुत ख़राब हैं आप।" रूपा बुरी तरह शर्मा तो रही ही थी किंतु वो बौखला भी गई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपने भाई की बातों का वो क्या जवाब दे। हालाकि एक सच ये भी था कि अपने भाई से अपने होने वाले पतिदेव से मिलने की बात सुन कर उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं थी और साथ ही उसके मन का मयूर नाचने लगा था।

"हद है भई।" रूपचंद्र ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भलाई का तो ज़माना ही नहीं रहा अब। ठीक है फिर, अगर तू यही चाहती है तो यही सही। वैसे आज मैंने अपने होने वाले जीजा श्री से भी मिलने का सोचा हुआ था। सोचा था अपनी बहन की खुशी का ख़याल करते हुए उनसे तेरे मिलने का कोई बढ़िया सा जुगाड़ भी कर दूंगा मगर अब जब तेरी ही इच्छा नहीं है तो मैं उन्हें मना कर दूंगा।"

"न...न...नहीं तो।" रूपा बुरी तरह हड़बड़ा गई। बुरी तरह हकलाते हुए बोल पड़ी____"म..मेरा मतलब है कि......नहीं...आप....जाइए मुझे आपसे कोई बात ही नहीं करना।"

रूपा लाज के चलते खुल कर जब कुछ बोल ना पाई तो अंत में बुरा सा मुंह बना कर रूपचंद्र से रूठ गई। ये देख रूपचंद्र ठहाका लगा कर हंसने लगा। पूरे कमरे में उसकी हंसी गूंजने लगी। इधर उसे यूं हंसता देख रूपा ने और भी ज़्यादा मुंह बना लिया।

"अरे! अब क्या हुआ तुझे?" रूपचंद्र ने फौरन ही अपनी हंसी रोकते हुए उससे पूछा____"इस तरह मुंह क्यों बना लिया तूने?"

"मुझे आपसे कोई बात ही नहीं करना।" रूपा ने पूर्व की भांति ही रूठे हुए लहजे से कहा____"आप बहुत ख़राब हैं।"

"अरे! भला मैंने ऐसा क्या कर दिया?" रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तो तेरी भलाई की बात ही कर रहा था। अब जब तुझे ही मंज़ूर नहीं है तो मैं क्या करूं भला?"

"सब कुछ जानते समझते हुए भी आप मुझसे ऐसी बात कर रहे हैं।" रूपा ने अपनी आंखें बंद कर के मानों एक ही सांस में कहा____"वैसे तो बड़ा कहते हैं कि आपको हर चीज़ का बखूबी एहसास है, फिर ये क्या है?"

"अरे! तो इसमें शर्माने वाली कौन सी बात है?" रूपचंद्र ने उसी मुस्कान के साथ कहा____"तुझे अगर जीजा श्री से मिलना ही है तो साफ साफ कह दे ना। मैं ख़ुद तुझे उन महापुरुष के पास ले जाऊंगा।"

"सच में बहुत ख़राब हैं आप।" रूपा का चेहरा लाजवश फिर से लाल सुर्ख पड़ गया, नज़रें झुकाए बोली____"आप ये क्यों नहीं समझते कि एक बहन अपने बड़े भाई से इस तरह की कोई बात नहीं कह सकती।"

"हां जानता हूं पागल।" रूपचंद्र ने कहा___"मैं तो बस तुझे छेड़ रहा था। तुझे इन सब बातों के लिए मुझसे शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। तू मुझसे बेझिझक हो कर कुछ भी कह सकती है। मैं तो बस ये चाहता हूं कि मेरी बहन हर तरह से खुश रहे। और हां, मैं जानता हूं कि तू वैभव से मिलना चाहती है। उससे ढेर सारी बातें करना चाहती है। इसी लिए तो तुझसे कहा था मैंने कि मैं तेरी मुलाक़ात करवा दूंगा उससे।"

रूपचंद्र की बातें सुन कर रूपा बोली तो कुछ नहीं लेकिन खुशी के मारे उसके गले ज़रूर लग गई। रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए उसकी पीठ सहलाई और फिर उसे खुद से अलग कर के कहा____"फ़िक्र मत कर, जल्दी ही मैं तेरी ये इच्छा पूरी करूंगा। अब चल मुस्कुरा दे....।"

रूपा के चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई और साथ ही उसके होठों पर मुस्कान भी उभर आई। ये देख रूपचंद्र ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और फिर पलंग से नीचे उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। जैसे ही वो दरवाज़ा खोल कर बाहर गया तो रूपा झट से पलंग पर से उतर कर दरवाज़े के पास पहुंची। दरवाजे को उसने फ़ौरन ही बंद किया और फिर तेज़ी से पलंग पर आ कर पीठ के बल लेट गई। छत के कुंडे पर झूलते पंखे पर निगाहें जमाए वो जाने क्या क्या सोचते हुए मुस्कुराने लगी।

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अध्याय - 103
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"सही कह रहे हैं आप?" महेंद्र सिंह ने सिर हिलाते हुए कहा____"अब हमें भी आभास होने लगा है कि ये मामला उतना सीधा नहीं है जितना नज़र आ रहा है। यकीनन कोई बड़ी बात है। ख़ैर चलिए चंद्रकांत के घर चलते हैं।"

कहने के साथ ही महेंद्र सिंह कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। उनके उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में एक एक कर के सब बैठक से निकल कर हवेली से बाहर की तरह बढ़ गए। सबके पीछे पीछे मैं भी चल पड़ा। मुझे भी ये जानने की बड़ी उत्सुकता थी कि आख़िर ये सब हुआ कैसे और वो कौन है जिसे चंद्रकांत ने अपना फ़रिश्ता कहा था?



अब आगे....


चंद्रकांत और उसके बेटे के ससुराल वाले पहले ही आ गए थे जिसके चलते काफी रोना धोना हुआ था उसके घर में। रघुवीर की ससुराल वाले तो आपे से बाहर भी हो ग‌ए थे जिसके चलते हंगामा होने वाला था मगर गांव वालों ने फ़ौरन ही सब सम्भाल लिया था।

हम सब जब वहां पहुंचे तो देखा कि गांव के कुछ बड़े बुजुर्ग लोग पहले से ही चंद्रकांत के घर में मौजूद थे। रघुवीर का साला और उसका ससुर बाहर ही एक तरफ गुमसुम से बैठे थे जबकि उनके साथ आई औरतें और लड़कियां घर के अंदर थीं। बहरहाल, पिता जी के साथ जब महेंद्र सिंह आदि लोगों का काफ़िला पहुंचा तो घर के बाहर ही सबके बैठने की व्यवस्था कर दी गई। आसमान में घने बादल छाए हुए थे जिसके चलते धूप नहीं थी और ठंडी हवाएं चल रहीं थी।

सब लोग बैठे हुए थे जबकि चंद्रकांत चेहरे पर अजीब सी सख़्ती धारण किए घर के बाहर दोनों तरफ बनी चबूतरेनुमा पट्टी पर बैठा था। वातावरण में अजीब सी ख़ामोशी छाई हुई थी। आगे की कार्यवाही अथवा पूछताछ के लिए महेंद्र सिंह ने औपचारिक रूप से सभी लोगों के सामने वार्तालाप शुरू किया और फिर मुद्दे की बात के लिए चंद्रकांत को अपने थोड़ा पास बुला लिया।

"हम उम्मीद करते हैं कि अब तुम्हारा दिलो दिमाग़ पहले से थोड़ा शांत और बेहतर हो गया होगा।" महेंद्र सिंह ने चंद्रकांत की तरफ देखते हुए कहा____"अतः अब हम ये उम्मीद करते हैं कि हम जो कुछ भी तुमसे पूछेंगे उसका तुम सही सही जवाब दोगे।"

कुछ घंटे लोगों के बीच रहने के चलते कदाचित चंद्रकांत की मनोदसा में थोड़ा परिवर्तन आ गया था। इस लिए महेंद्र सिंह की बात सुन कर उसने ख़ामोशी से ही हां में सिर हिला दिया था।

"बहुत बढ़िया।" महेंद्र सिंह ने कहा___"हमारा सबसे पहला सवाल ये है कि वो कौन था जिसने तुम्हें ये बताया कि तुम्हारे बेटे की हत्या किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारी अपनी ही बहू ने की थी?"

"कल रात की बात है।" चंद्रकांत ने सपाट लहजे से कहा____"शायद उस वक्त रात के बारह बजे रहे होंगे। मैं पेशाब करने के लिए घर से बाहर निकला था। पेशाब कर के वापस घर के अंदर जाने ही लगा था कि तभी अजीब सी आहट हुई जिसके चलते मैं रुक गया। पहले मुझे लगा कि शायद ये मेरा वहम है इस लिए ध्यान न दे कर मैंने फिर से अपने क़दम आगे बढ़ाए मगर तभी आहट फिर से हुई। इस बार की आहट से मैं समझ गया कि इसके पहले मुझे कोई वहम नहीं हुआ था। ख़ैर मैं ये देखने के लिए इधर उधर निगाह डालने लगा कि रात के इस वक्त आख़िर किस चीज़ से आहट हो रही है? मुझे याद आया कि ऐसी ही एक रात मेरे बेटे की किसी ने हत्या कर दी थी। मुझे एकदम से लगा जैसे उस वक्त भी वो हत्यारा मेरे आस पास मौजूद है। अंधेरा था इस लिए स्पष्ट कुछ दिख नहीं रहा था लेकिन जल्दी ही मेरी निगाह नीम अंधेरे में एक जगह खड़े एक साए पर पड़ गई।"

"साए पर??" महेंद्र सिंह पूछे बगैर न रह सके थे____"किसका साया था वो?"

"एक ऐसे रहस्यमय व्यक्ति का जिसके बारे में इसके पहले दादा ठाकुर ज़िक्र कर चुके थे।" चंद्रकांत ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"हां ठाकुर साहब, वो कोई और नहीं बल्कि वही सफ़ेदपोश व्यक्ति था जिसके बारे में आपने मुझसे और गौरी शंकर जी से पूछा था।"

चंद्रकांत की ये बात सुन कर पिता जी के साथ साथ बाकी सब लोग भी बुरी तरह चौंक पड़े थे। हैरत में डूबा चेहरा लिए सब एक दूसरे की तरफ देखने लगे थे। इधर मेरा भी वही हाल था। मैं भी सोच में पड़ गया था कि साला अब ये क्या चक्कर है? इतने समय से सफ़ेदपोश का कहीं कोई अता पता नहीं था और अब इस तरह से उसका पता चल रहा था। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि चंद्रकांत के इस मामले में सफ़ेदपोश कहां से और कैसे आ गया?

"ये तुम क्या कह रहे हो चंद्रकांत?" पिता जी पूछने से खुद को रोक न सके____"पिछली रात तुमने जिस साए को देखा क्या वो सच में सफ़ेदपोश था? कहीं तुम्हें कोई वहम तो नहीं हुआ था?"

"वहम का सवाल ही नहीं उठता ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने पूरी मजबूती से कहा____"क्योंकि मैंने उसे बहुत क़रीब से और अपनी आंखों से देखा था। इतना ही नहीं काफी देर तक मेरी उससे बातें भी हुईं थी। वो वही था जिसके समूचे बदन पर सफ़ेद लिबास था।"

"बड़े आश्चर्य की बात है ये।" पिता जी बरबस ही कह उठे____"इतने समय से हम उस सफ़ेदपोश को तलाश कर रहे हैं किंतु उसका कहीं कोई सुराग़ नहीं मिल सका और तुम कह रहे हो कि तुमने उसे देखा है? उससे बातें भी की हैं?"

"यही सच है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने दृढ़ता से कहा____"उसी ने मुझे बताया कि मेरे बेटे का हत्यारा मेरी अपनी ही बहू थी।"

"और उसके कहने से तुमने मान लिया?" महेंद्र सिंह ने हैरत से उसे देखा____"बड़े आश्चर्य की बात है कि तुमने एक ऐसे व्यक्ति की बात मान ली जो जाने कब से खुद को सबसे छुपाए फिर रहा है। इतना ही नहीं जो ठाकुर साहब के बेटे वैभव की जान का दुश्मन भी बना हुआ है। हमें बिल्कुल भी इस बात का यकीन नहीं हो रहा कि तुमने ऐसे व्यक्ति के कहने पर अपनी बहू को अपने बेटे की हत्यारिन मान लिया और फिर बदले की भावना के चलते उसे मार भी डाला।"

"बिल्कुल, हमारा भी यही कहना है।" पिता जी ने कहा____"लेकिन हम ये भी समझते हैं कि तुमने उस सफ़ेदपोश के कहने बस से ही अपनी बहू को हत्यारिन नहीं मान लिया होगा। यकीनन उसने तुम्हें कोई ऐसी वजह भी बताई होगी जिसके बाद तुम्हें अपनी बहू के हत्यारिन होने पर यकीन आ गया होगा। हम सब भी ये जानना चाहते हैं कि सफ़ेदपोश ने तुम्हें ऐसा क्या बताया था?"

"मैं हर बात किसी को बताना ज़रूरी नहीं समझता।" चंद्रकांत ने सख़्ती से जबड़े भींच कर कहा____"ये मेरा पारिवारिक और बेहद निजी मामला है।"

"जब किसी औरत को बेरहमी से मार डाला जाए तो मामला पारिवारिक अथवा निजी नहीं रह जाता चंद्रकांत।" महेंद्र सिंह ने कठोर भाव से कहा____"तुमने अपनी बहू को बेरहमी से मार डाला है, इस लिए अब तुम्हें बताना ही होगा कि इसके पीछे की असल वजह क्या है? परिवार का मामला चाहे जैसा भी हो लेकिन किसी की हत्या कर देने का हक़ किसी को भी नहीं है। तुमने अपनी बहू की हत्या की है और इस अपराध के लिए तुम्हें सज़ा भी मिलेगी।"

"हां तो दे दीजिए मुझे सज़ा।" चंद्रकांत पागलों की तरह चीख पड़ा____"चढ़ा दीजिए मुझे सूली पर। मेरे मर जाने से कम से कम दादा ठाकुर के कलेजे को शांति तो मिल जाएगी।"

"मादरचोद, क्या बोला तूने?" चंद्रकांत की बात से मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं गुस्से में आग बबूला हो कर पलक झपकते ही उसके क़रीब पहुंच गया।

इससे पहले कि कोई कुछ कर पाता मैंने उसका गिरेबान पकड़ कर उठा लिया और फिर गुर्राते हुए कहा____"तू कौन सा दूध का धुला है जो हर बात में तू मेरे बाप पर उंगली कर के तंज़ कसने लगता है? तेरी सच्चाई ये है कि तू एक नामर्द है और तेरा बेटा तुझसे भी बड़ा नामर्द था। तेरे घर की औरतें तेरे सामने दूसरे मर्दों के साथ अपनी हवस मिटाती थीं और तुम दोनों बाप बेटे अपने उबलते खून को पानी से ठंडा करते थे।"

"ये क्या हिमाकत है??" पिता जी गुस्से से दहाड़ उठे।

उनके साथ साथ बाकी सब भी उछल कर खड़े हो गए थे। महेंद्र सिंह का छोटा भाई ज्ञानेंद्र सिंह लपक कर मेरे पास आया और मुझे पकड़ कर अपनी तरफ खींचने लगा मगर मैंने झटक दिया उसे। इस वक्त बड़ा तेज़ गुस्सा आया हुआ था मुझे। मेरे झटक देने पर ज्ञानेंद्र झोंक में पीछे जा कर गिरते गिरते बचा। इधर चंद्रकांत चेहरे पर दहशत के भाव लिए चिल्लाने लगा था। ज्ञानेंद्र सम्हल कर फिर से मुझे छुड़ाने के लिए मेरे क़रीब आया और इस बार वो मुझे पूरी ताक़त से खींच कर चंद्रकांत से दूर ले गया।

"तुम दोनो बाप बेटे जैसा हिजड़ा इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं होगा।" मैं गुस्से चीखते हुए बोला____"साले नामर्द, अपनी औरतों को तो बस में कर नहीं सका और मर्द बनता है बेटीचोद।"

"तुम्हें इस हिमाकत की सख़्त से सख़्त सज़ा दी जाएगी।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए बेहद गुस्से में कहा____"इसी वक्त चले जाओ यहां से वरना हमसे बुरा कोई नहीं होगा।"

"बेशक सज़ा दे दीजिएगा पिता जी।" मैंने गुस्से से भभकते हुए खुद को एक झटके में ज्ञानेंद्र से छुड़ाया, फिर बोला____"लेकिन इस मादरचोद ने अगर दुबारा फिर से किसी बात पर आपकी तरफ उंगली उठाई तो इसकी ज़ुबान हलक से निकाल कर इसके हाथ में दे दूंगा।"

शोर शराबा सुन कर घर के अंदर से औरतें भाग कर बाहर आ गईं थी। बाहर मौजूद लोग भी तितर बितर हो कर दूर हट गए थे। सभी के चेहरों पर ख़ौफ के भाव उभर आए थे। उधर चंद्रकांत सहम कर घर के बाहर दोनों तरफ बनी पट्टी पर बैठ गया था। जूड़ी के मरीज़ की तरह थर थर कांपे जा रहा था वो।

"हमने कहा चले जाओ यहां से।" पिता जी इस बार गुस्से में दहाड़ ही उठे। पिता जी का गुस्सा देख महेंद्र सिंह ने अपने भाई को इशारा किया तो वो मुझे ले कर अपनी जीप की तरफ बढ़ चला।

"मुझे तुमसे ऐसी बेहूदा हरकत की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी वैभव।" रास्ते में ज्ञानेंद्र सिंह ने गंभीरता से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"सबके सामने तुम्हें ऐसे गंदे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए था और ना ही उसे गालियां देनी चाहिए थी।"

"और उसे सबके सामने मेरे पिता पर तंज कसना चाहिए था, है ना?" मैंने तीखे भाव से ज्ञानेंद्र की तरफ देखा।

"तुम उस व्यक्ति के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित हो।" ज्ञानेंद्र ने कहा____"पिछले कुछ समय में यहां जो कुछ हुआ है उससे हम सब भी इतना समझ चुके हैं कि कौन कैसा है। एक बात हमेशा याद रखो कि कीचड़ में अगर पत्थर मारोगे तो वो कीचड़ उल्टा तुम्हें ही गंदा करेगा, जबकि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। चंद्रकांत की दशा कीचड़ जैसी ही है।"

"मैं काफी समय से उसको बर्दास्त करता आ रहा था चाचू।" मैंने खीझते हुए कहा____"लेकिन आज सबके सामने जब उसने फिर से पिता जी पर तंज कसा तो मैं बर्दास्त नहीं कर सका। एक तो मादरचोद ने खुद अपनी ही बहू को मार डाला और ऊपर से अभी भी खुद को साधू महात्मा दर्शाने की कोशिश कर रहा है।"

"मूर्ख लोग ऐसे ही होते हैं वैभव।" ज्ञानेंद्र सिंह ने कहा____"समझदार लोग मूर्खों की बातों पर ध्यान नहीं देते। जैसे तुम्हारे पिता जी उसकी बातों को सुन कर धैर्य धारण किए रहते हैं वैसे ही तुम्हें भी करना चाहिए था।"

अब तक मेरा गुस्सा काफी हद तक ठंडा हो गया था इस लिए ज्ञानेंद्र सिंह की बातें अब मेरे ज़हन में आसानी से घुस रहीं थी। मुझे एहसास होने लगा था कि वाकई में मुझसे ग़लती हो गई है। मुझे सबके सामने इस तरह का तमाशा नहीं करना चाहिए था।

"मैंने सुना है कि तुम पहले से अब काफी बदल गए हो।" ज्ञानेंद्र सिंह ने मुझे ख़ामोश देखा तो इस बार बड़ी शालीनता से कहा____"और एक अच्छे इंसान की तरह अपनी हर ज़िम्मेदारियां निभा रहे हो। एक वक्त था जब हम लोग दादा ठाकुर के सामने तुम्हारा ज़िक्र करते थे तो अक्सर उनका चेहरा मायूस हो जाया करता था किंतु पिछले कुछ समय से हमने यही देखा है कि तुम्हारा ज़िक्र होने पर उनके चेहरे पर खुशी और गर्व के भाव आ जाते हैं। अगर एक पिता अपने बेटे के लिए खुशी और गर्व महसूस करने लगे तो इसका मतलब ये होता है कि उन्हें दुनिया की हर खुशी मिल चुकी है। यानि अब उन्हें किसी चीज़ की हसरत नहीं है। ख़ैर, मैं रिश्ते में तुम्हारा चाचू हूं लेकिन तुम मुझे अपना दोस्त भी मान सकते हो। एक दोस्त के नाते मैं तुमसे यही कहूंगा कि इतना कुछ होने के बाद अब तुम ही दादा ठाकुर की एक मात्र उम्मीद हो। तुम भले ही उनके बेटे हो लेकिन तुमसे कहीं ज़्यादा उनके बारे में हम जानते हैं। हमने बचपन से दादा ठाकुर को लोगों की खुशी के लिए संघर्ष करते देखा है। मेरे भैया हमेशा मुझसे कहा करते हैं कि मैं दादा ठाकुर की तरह बनूं और हमेशा उनके नक्शे क़दम पर चलूं। ज़ाहिर है मेरे भैया भी समझते हैं कि दादा ठाकुर कितने महान इंसान हैं। हम सब उनके नक्शे क़दम पर चलने की कोशिश भले ही करते हैं लेकिन उनके जैसा बनना बिल्कुल भी आसान नहीं है। फिर भी इतना तो कर ही सकते हैं कि हमारे आचरण से किसी का अहित न हो बल्कि सबका भला ही हो।"

"मैं समझ गया चाचू कि आप क्या कहना चाहते हैं।" मैंने अधीरता से कहा____"यकीन कीजिए मैं भी अब ऐसा ही इंसान बनने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे एहसास है कि मैंने इसके पहले बहुत ग़लत कर्म किए थे जिसके चलते मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ और पिता जी को हमेशा मेरी वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी। अब सब कुछ भुला कर यही कोशिश कर रहा हूं कि मुझसे ग़लती से भी कोई ग़लत काम न हो।"

"बहुत बढ़िया।" ज्ञानेंद्र सिंह ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"और हां अपने गुस्से पर भी लगाम लगाए रखा करो। तुम्हारा गुस्सा दूर दूर तक मशहूर है। लोग तुम्हारे गुस्से से बहुत डरते हैं। इस लिए इस पर लगाम लगा के रखो।"

"कोशिश कर रहा हूं चाचू।" मैंने झेंपते हुए कहा____"मैंने काफी समय से किसी पर गुस्सा नहीं किया और ना ही किसी को बुरा भला कहा है। आज भी मैं गुस्सा ना होता अगर चंद्रकांत मेरे पिता जी पर तंज न कसता।"

"ख़ैर छोड़ो इस बात को।" ज्ञानेंद्र सिंह ने कहा____"देखो, हम हवेली पहुंच गए हैं। तुम जाओ आराम करो, मैं अब वापस जाऊंगा।"

हवेली के हाथी दरवाज़े के पास जीप रुकी तो मैं उतर गया। ज्ञानेंद्र सिंह ने जीप को वापस मोड़ा और फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मुझे पता है कि तुम हर जगह मशहूर हो लेकिन फिर भी एक नई पहचान के लिए लोगों से मिलना मिलाना बेहद ज़रूरी होता है। कभी समय निकाल कर आओ हमारे यहां।"

"बिल्कुल चाचू।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा___"मैं ज़रूर आऊंगा। आख़िर अब आप मेरे चाचू के साथ साथ दोस्त भी तो बन गए हैं।"

मेरी बात सुन कर ज्ञानेंद्र सिंह हल्के से हंसा और फिर जीप को आगे बढ़ा कर चला गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली की तरफ पैदल चल पड़ा। ज्ञानेंद्र सिंह मुझे एक अच्छा इंसान प्रतीत हुआ था। वो विवाहित था किन्तु उम्र ज़्यादा नहीं हुई थी उसकी। शरीर काफी फिट था जिसके चलते उसकी उमर का पता नहीं चलता था। ख़ैर उसके बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में हवेली के अंदर दाखिल हो गया।

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मेरी वजह से जो हंगामा हुआ था उसे जल्द ही सम्हाल लिया गया था और अब सब कुछ ठीक था। पिता जी के चेहरे पर अभी भी नाराज़गी दिख रही थी। ज़ाहिर है मेरी वजह से उन्हें एक बार फिर से शर्मिंदगी हुई थी। किसी को भी मुझसे ऐसी हरकत की उम्मीद नहीं थी। ख़ैर जो होना था वो हो चुका था। महेंद्र सिंह ने चंद्रकांत को फिर से अपने सामने बुला लिया था। इस वक्त वो अजीब सा चेहरा लिए खड़ा था।

"ठाकुर साहब को बचपन से जानते हुए भी तुम इनके बारे में ऐसे ख़याल रखते हो जोकि हैरत की बात है।" महेंद्र सिंह ने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हारा जो भी मामला था उसे तुम दूसरे तरीके से भी बहुत अच्छी तरह सुलझा सकते थे। दूसरी बात ये भी है कि ग़लती सिर्फ ठाकुर साहब के बेटे की ही बस नहीं थी बल्कि तुम्हारे घर की औरतों की भी थी। तुमने अपने घर की औरतों को कुछ नहीं कहा और ना ही उनके ग़लत कर्मों के लिए उन्हें धिक्कारा। इसके बदले तुमने वो किया जो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए था। अगर तुम्हें पता चल ही गया था कि तुम्हारे घर के मामले में वैभव भी शामिल है तो तुम्हें सीधा ठाकुर साहब से इस बारे में बात करनी चाहिए थी। इसके बाद भी अगर कोई हल न निकलता तो तुम्हारा ऐसा क़दम उठाना जायज़ कहलाता लेकिन नहीं, तुमने वो किया जिसके चलते ना जाने कितने लोगों की जानें चली गईं।"

चंद्रकांत अपराध बोझ से सिर झुकाए खड़ा रहा। उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था। चौगान में बैठे लोग सांसें रोके महेंद्र सिंह की बातें सुन रहे थे और साथ ही समझने की कोशिश कर रहे थे कि किसकी कहां ग़लती रही है?

"ख़ैर जो हो गया उसे तो अब लौटाया नहीं जा सकता।" महेंद्र सिंह ने गहरी सांस ली____"लेकिन ये जो तुमने किया है उसके लिए तुम्हें कोई माफ़ी नहीं मिल सकती। किंतु उससे पहले हम तुमसे ये जानना चाहते हैं कि सफ़ेदपोश ने तुम्हारी बहू के बारे में ऐसा क्या बताया था जिससे तुमने ये मान लिया कि तुम्हारी बहू ने ही रघुवीर की हत्या की है?"

"उसने मुझे बताया था कि मेरी बहू रजनी ने हाल ही में एक नए व्यक्ति से संबंध बना लिया था।" चंद्रकांत ने जबड़े भींच कर कहा____"वो व्यक्ति रजनी को हमेशा के लिए अपनी बना कर ले जाना चाहता था। रजनी भी इसके लिए तैयार थी। उस रात रजनी अपने उस नए आशिक़ के साथ भाग ही रही थी। उसने जब देखा कि मेरा बेटा गहरी नींद में सोया हुआ है तो वो चुपके से अपना ज़रूरी समान ले कर घर से बाहर निकल आई थी। घर के बाहर उसका आशिक़ पहले से ही उसका इंतज़ार कर रहा था। रजनी को बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था कि ऐन वक्त पर मेरा बेटा उसके पीछे पीछे आ जाएगा। असल में मेरे बेटे को रात में पेशाब करने के लिए दो तीन बार बाहर जाना पड़ता था। उस रात भी वो पेशाब करने के लिए ही बाहर निकला था। कमरे में रजनी को न देख कर वो चौंका ज़रूर था किंतु उसने यही सोचा था कि शायद रजनी भी उसकी तरह बाहर लघुशंका करने गई होगी। ख़ैर जब मेरा बेटा बाहर आया तो उसने देखा कि उसकी बीवी अंधेरे में किसी के पास खड़ी थी और धीमी आवाज़ में बातें कर रही थी। रघुवीर फ़ौरन ही उसके क़रीब पहुंचा तो वो दोनों मेरे बेटे को देख कर बुरी तरह डर गए। इधर मेरा बेटा भी अपनी बीवी को रात के उस वक्त किसी गैर मर्द के साथ देख कर उछल पड़ा था। उसे समझने में देर न लगी कि रजनी अंधेरे में अपने आशिक़ के साथ क्या कर रही थी। मेरे बेटे को इतना गुस्सा आया कि उसने पहले तो रजनी को ज़ोर का धक्का दे कर दूर धकेला और फिर उसके आशिक़ को मारने लगा। रजनी इस सबसे बहुत ज़्यादा घबरा गई। उसे लगा कहीं बात ज़्यादा न बढ़ जाए और लोगों को पता न चल जाए। उधर मेरा बेटा उसके आशिक़ की धुनाई करने में लगा हुआ था। रजनी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? तभी उसकी नज़र वहीं कुछ ही दूरी पर पड़ी कुल्हाड़ी पर पड़ी। उसने झट से उस कुल्हाड़ी को उठा लिया और रघुवीर के क़रीब आ कर उसे धमकाया कि वो उसके आशिक़ को छोड़ दे वरना वो उस कुल्हाड़ी से उसका खून कर देगी। रघुवीर को लगा था कि रजनी सिर्फ उसे धमका रही है इस लिए उसने उसे गंदी गाली दे कर फिर से धक्का दे दिया और उसके आशिक़ को मारने लगा। अब तक इस सबके चलते थोड़ा शोर होने लगा था जिससे रजनी और भी ज़्यादा घबरा उठी थी। वो क्योंकि अपने आशिक़ के साथ नई दुनिया बसा लेना चाहती थी इस लिए उसने समय न ख़राब करते हुए आगे बढ़ कर मेरे बेटे पर उस कुल्हाड़ी से वार कर दिया। कुल्हाड़ी का वार सीधा रघुवीर की गर्दन पर लग गया। ऐसा इत्तेफ़ाक से ही हुआ था। रजनी को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी। रघुवीर लहरा कर वहीं ज़मीन पर गिर गया और दर्द से तड़पने लगा। कुछ ही देर में उसका जिस्म एकदम से शांत पड़ गया। मेरा बेटा मर चुका था। जब रजनी और उसके आशिक़ को इस बात का आभास हुआ तो दोनों ही सन्न रह गए। रजनी का आशिक़ मेरे बेटे के इस तरह मर जाने से इतना डर गया कि वो वहां से फ़ौरन ही भाग गया। इधर रजनी की भी हालत ख़राब हो गई थी। उसने अपने जाते हुए आशिक़ को पुकारना चाहा मगर किसी के सुन लेने के डर से वो उसे पुकार ना सकी किंतु इतना उसे ज़रूर समझ आ गया था कि उसके आशिक़ ने उसे ऐसे वक्त पर धोखा दे दिया है। रजनी से वो हो गया था जिसे उसने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था। काफी देर तक वो मेरे बेटे की लाश के पास बैठी रोती रही। फिर जैसे ही उसे हालात की गंभीरता का एहसास हुआ तो वो सोचने लगी कि अब वो क्या करे? वो जानती थी कि उससे बहुत बड़ा कांड हो गया है और जब इस बात का पता घर वालों को चलेगा तो वो कोई जवाब नहीं दे पाएगी। उसने आनन फानन में खून से सनी उस कुल्हाड़ी को फेंका और फिर अपना हुलिया ठीक कर के घर के अंदर आ गई। अपने कमरे में आ कर वो सोचने लगी कि इस गंभीर मुसीबत से बचने के लिए वो क्या करे? सारी रात उसने सोचा लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे अपने धोखेबाज आशिक़ पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था। उसी की वजह से उसने इतना बड़ा क़दम उठाया था। तभी उसे रूपचंद्र का ख़याल आया। रूपचंद्र ने उसे पिछली शाम रास्ते में रोका था और उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती की थी जिसके जवाब में रजनी ने उसे खरी खोटी सुनाई थी। रजनी ने जब इस बारे में सोचा तो उसे अपने बचाव के लिए तरीका सूझ गया। सुबह जब हम सबको इस बात का पता चला तो हम सब रोने धोने लगे। रजनी भी हमारी तरह रोने धोने लगी थी। कुछ देर बाद उसने रोते हुए वही सब कहना शुरू कर दिया जो रात में उसने सोचा था। उसकी बात सुन कर मैं भी उसके फेर में आ गया था और फिर आगे क्या हुआ ये सब आप जानते ही हैं।"

इतना सब कुछ बताने के बाद चंद्रकांत चुप हुआ तो वातावरण में सन्नाटा सा छा गया। पिता जी के साथ साथ महेंद्र सिंह और बाकी सब भी चकित भाव से उसकी तरफ देखे जा रहे थे।

"तो उस सफ़ेदपोश ने तुम्हें ये सब बताया था जिसके बाद तुम्हें भी यकीन हो गया कि तुम्हारे बेटे की हत्या तुम्हारी बहू ने ही की है?" महेंद्र सिंह ने कहा____"अगर वाकई में ये सच है तो ये बड़े ही आश्चर्य की बात है कि अब तक हम में से किसी को इस बारे में पता तक नहीं चल सका। वैसे तुमने उस सफ़ेदपोश से पूछा नहीं कि उसे ये सब बातें कैसे पता थीं? आख़िर इतनी गहरी राज़ की बातें उसे कैसे पता चलीं? तुम्हारी बातें सुन कर तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सफ़ेदपोश ने अपनी आंखों देखा हाल ही बताया था तुम्हें। अगर यही सच है तो सवाल उठता है कि उसने इस सबको रोका क्यों नहीं? क्यों अपनी आंखों के सामने तुम्हारे बेटे की हत्या हो जाने दी?"

चंद्रकांत, महेंद्र सिंह की ये बात सुन कर बड़े अजीब भाव से देखने लगा उन्हें। चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते हुए नज़र आने लगे थे। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वो बड़ी तेज़ी से कुछ सोचने समझने की कोशिश कर रहा हो।

"उस सफ़ेदपोश से और क्या बातें हुईं थी तुम्हारी?" दादा ठाकुर ने कुछ सोचते हुए चंद्रकांत से पूछा____"हमारा मतलब है कि उस सफ़ेदपोश ने तुम्हारे बेटे के हत्यारे के बारे में तुम्हें बताया तो बदले में क्या उसने तुमसे कुछ नहीं चाहा?"

"चाहा है।" चंद्रकांत बड़ी अजीब दुविधा लिए बोला____"कल रात उसने कहा था कि बदले में मुझे भी वही करना होगा जो वो करने को कहेगा मुझसे।"

"अच्छा।" महेंद्र सिंह ने कहा____"और क्या कहा था उसने?"

"यही कि आज रात वो किसी भी वक्त मुझसे मिलने आ सकता है।" चंद्रकांत ने कहा____"शायद अब वो मुझे कोई काम सौंपेगा जिसे मुझे करना होगा। उसने मुझे धमकी भी दी थी कि अगर मैं अपने वादे से मुकर गया तो ये मेरे और मेरे परिवार के लिए अच्छा नहीं होगा।"

"बहुत खूब।" महेंद्र सिंह बोल पड़े____"फिर तो तुम्हें उसके लिए तैयार रहना चाहिए, है ना?"

चंद्रकांत अजीब सा मुंह बनाए खड़ा रह गया। उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो किसी द्वंद से जूझ रहा है।

"ठाकुर साहब क्या लगता है आपको?" महेंद्र सिंह सहसा दादा ठाकुर से मुखातिब हुए____"क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो हम सोच रहे हैं?"

"हमें तो लगता है कि वो सफ़ेदपोश चंद्रकांत के साथ बड़ा ही हौलनाक खेल खेल गया है।" दादा ठाकुर ने कहा____"उसने चंद्रकांत को ऐसी कहानी सुनाई जिसे सच मान कर चंद्रकांत ने अपने हाथों अपनी ही बहू को बेटे की हत्यारिन मान कर मार डाला।"

"बिल्कुल सही कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने कहा____"हमें भी यही लगता है। सफ़ेदपोश को चंद्रकांत की मनोदशा का भली भांति एहसास था जिसका उसने फ़ायदा उठाया और फिर उसने वो किया जो कोई सोच भी नहीं सकता था।"

"सोचने वाली बात है कि रघुवीर की हत्या हुए इतने दिन गुज़र गए हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अभी तक उस सफ़ेदपोश का कहीं अता पता नहीं था। अगर उसे चंद्रकांत से इतनी ही हमदर्दी थी तो उसने पहले ही चंद्रकांत के पास आ कर उसे ये क्यों नहीं बताया था कि उसके बेटे का हत्यारा कौन है? इतने दिनों तक किस बात का इंतज़ार कर रहा था वो? ख़ैर ये तो थी एक बात, दूसरी सोचने वाली बात ये है कि ये सब बताने के पीछे सफ़ेदपोश का मकसद क्या था? क्या ये कि अपने बेटे के हत्यारे के बारे में जान कर चंद्रकांत उसकी जान ही ले ले? अगर यही सच है तो फिर उसे चंद्रकांत का हमदर्द नहीं कहा जा सकता क्योंकि अपनी बहू की हत्या करने के बाद चंद्रकांत को कोई पुरस्कार तो नहीं मिलने वाला बल्कि सख़्त से सख़्त सज़ा ही मिलेगी।"

"सही कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने सिर हिलाते हुए कहा____"चंद्रकांत ने जो किया है उसके लिए तो इसे यकीनन सज़ा ही मिलेगी लेकिन अभी ये भी देखना है कि आगे क्या होता है? हमारा मतलब है कि सफ़ेदपोश ने आज रात चंद्रकांत से मिलने को कहा है तो देखते हैं ऐसा होता है कि नहीं।"

चंद्रकांत सारी बातें सुन रहा था और अब उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे अभी रो देगा। बड़ी मुश्किल से खुद को रोके हुए था वो। चौगान में बैठे बाकी लोग सतब्ध से बैठे बातें सुन रहे थे।

"अगर आज रात वो सफ़ेदपोश सचमुच चंद्रकांत से मिलने आएगा तो यही समझा जाएगा कि उसकी बातों में अथवा ये कहें कि उसकी कहानी में कहीं न कहीं सच्चाई थी।" महेंद्र सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"और अगर वो नहीं आया तो स्पष्ट हो जाएगा कि वो चंद्रकांत के साथ बड़ा ही हैरतंगेज खेल खेल गया है।"

कहने के साथ ही महेंद्र सिंह चंद्रकांत से मुखातिब हुए____"आगे की कार्यवाही कल की जाएगी चंद्रकांत। आज रात हम भी ये देखना चाहते हैं कि तुम्हारा वो हमदर्द सफ़ेदपोश अपनी कसौटी पर कितना खरा उतरता है।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह कुर्सी से उठ कर अभी खड़े ही हुए थे कि तभी चंद्रकांत आर्तनाद सा करता हुआ उनके पैरों में लोट गया। ये देख उनके साथ साथ बाकी उपस्थित लोग भी चौंक पड़े। उधर चंद्रकांत रोते बिलखते हुए कहता चला गया____"मुझे माफ़ कर दीजिए। मुझे बड़ी शिद्दत से एहसास हो रहा है कि मुझसे बहुत बड़ा गुनाह हो गया है।"

"नहीं चंद्रकांत।" महेंद्र सिंह ने पीछे हटते हुए कहा____"तुमने जो किया है वो किसी भी सूरत में माफ़ी के लायक नहीं है। ख़ैर आज की कार्यवाही तो फिलहाल यहीं पर स्थगित कर दी गई है किंतु कल यहीं पर पंचायत लगेगी और इस मामले का फ़ैसला होगा। तब तक तुम भी देखो और हम भी देखते हैं कि तुम्हारा हमदर्द आज रात तुम्हारे लिए क्या सौगात ले कर आता है।"




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सफेद नकाबपोश ने मुंशी की मनोदशा का फायदा उठाकर उसकी बहु रजनी को मरवा दिया चंद्रकांत ने ठाकुर साहब को सफेद नकाबपोश के बारे में बता दिया है और ये भी बताया कि ये सब उसने ही बताया है मुंशी की बातो की सच्चाई जानने के लिए रजनी के आशिक का पता लगाना चाहिए हो सकता है वह भी सफेद नकाबपोश का ही मोहरा हों अब से पहले तो मुंशी को अपने किए पर पछतावा नहीं हुआ था लेकिन अब हो गया है क्या ये नाटक है या सच है
अब देखते हैं क्या रात को सफेद नकाबपोश मुंशी से मिलने आता है या नहीं???
 
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