मेरी माँ कामिनी, भाग -16
कामिनी हड़बड़ाहट मे उठ के चली आई, रमेश के कॉल ने उसे बेटे के सामने झड़ने से रोक लिया था,
अंदर कमरे मे,
रमेश फोन पर नशे में था।
उसने इधर-उधर की बेतुकी बातें कीं और बस इतना बताकर फोन रख दिया कि वह कल सुबह तक आ जाएगा।
यानी... आज की पूरी रात कामिनी को इसी वासना मे जलना था, वैसे भी रमेश होता तब भी कामिनी के नसीब मे यही बेचैनी थी,
रात का खाना हो चुका था।
घर में सन्नाटा पसर गया था। बंटी और रवि अपने कमरे में जा चुके थे।
कामिनी अपने बेडरूम में लेटी थी, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।
उसका शरीर बिस्तर पर था, लेकिन आत्मा आग में जल रही थी।
छत पर रवि का वह जंगली चुंबन और डाइनिंग टेबल के नीचे उसकी उंगलियों का खेल... कामिनी करवटें बदल रही थी।
उसका एक मन कह रहा था उसने ऐसा कैसे कर लिया, रवि को उसकी हरकत पे डांटा क्यों नहीं? वो ऐसे कैसे बहक सकती है? वो मेरे बेटे का दोस्त है, मेरे बेटा जैसा हूँ हुआ?
लललल... लल्ल... लेकिन उसकी हिम्म, उसका वो चुम्बन, उसके लंड का कड़कपन जो शायद ही उसने पहली बार महसूस किया था,
दूसरा मन कह रहा था कि अभी उठकर रवि के कमरे में जाए और उसे भींच ले, अपनी प्यास बुझा ले।
लेकिन... उसके संस्कार, उसका 'माँ' होना और लोक-लाज की मर्यादा उसे रोक रही थी।
'नहीं कामिनी... वो तेरे बेटे का दोस्त है... यह गलत है।'
तभी... घड़ी ने 11:30 बजाए।
सन्नाटे को चीरती हुई मेन गेट के लोहे के दरवाज़े की चरमराहट सुनाई दी।
चर्ररर...
फिर किसी के लड़खड़ाते कदमों की आवाज़ और एक भद्दी, बेसुरी गुनगुनाहट कानों में पड़ी।
"हिचहह.... थोड़ी सी जो पी ली है... चोरी तो नहीं.... हिचहह... की है... हीच...."
कामिनी तुरंत बिस्तर से उठी और दबे पांव खिड़की पर गई। उसने पर्दा हटाकर बाहर झांका।
बारिश धीमी हो गई थी, बस फुहारें पड़ रही थीं।
स्ट्रीट लाइट की धुंधली रोशनी में उसने देखा—रघु चला आ रहा था।
वह बुरी तरह भीगा हुआ था। उसका कुर्ता शरीर से चिपका था, लुंगी की गांठ ढीली थी। वह झूमता हुआ, लड़खड़ाता हुआ आ रहा था।
कामिनी का शक सही निकला। यह हरामखोर पैसे लेकर गाजर नहीं, बल्कि दारू पीने बैठ गया था।
कामिनी का ज़हन गुस्से से भर उठा।
'नालायक कहीं का... मैंने गाजर मंगाई थी और यह नवाब दारू पीकर आ रहा है।'
लेकिन अगले ही पल, जब उसने रघु को बारिश में भीगते, कांपते और नशे में चूर देखा... तो उसके गुस्से की जगह एक अजीब सी दया और हवस ने ले ली।
उसे रघु के वो शब्द याद आए जो उसने सुबह स्टोर रूम में कहे थे—
"गाजर का हलवा तो मुझे भी बहुत पसंद है मेमसाब... गरम-गरम हलवा और मलाई... उफ्फ्फ!"
कामिनी का दिल पिघला... या शायद उसका जिस्म पिघला, कहना मुश्किल था,
कल रात उसने जो हरकत की थी, उसने कामिनी के हौसले बढ़ा दिए थे, अक्सर चोर को हिम्मत ही तब मिलती है जब वो पकड़ा नहीं जाता,
कामिनी भी कल रात पकड़ी नहीं गई थी, उसके चुत का चोर फिर से कुलबुलाने लगा,
रघु का लंड रवि की कोमलता से अलग था। रवि 'प्यार' था, लेकिन रघु 'गन्दा नशा' सा महसूस हो रहा था,
और आज कामिनी को इस नशे की तलब लगी थी, रवि के प्यार भरे स्पर्श ने उसे इस तरफ धकेला था,
उसे एक अवसर दिखाई दिया। रघु नशे में है, घर में सब सो रहे हैं... और वह खुद 'गरम' है।
उसने तुरंत फैसला किया।
वह किचन में गई। फ्रिज से एक कटोरी में गाजर का हलवा निकाला। उसे माइक्रोवेव में हल्का गर्म किया।
फिर उसने एक हाथ में हलवे की कटोरी ली और दूसरे में छाता।
वह मेन दरवाज़े की तरफ बढ़ी।
बाहर निकलने से पहले, वह बंटी और रवि के कमरे के पास रुकी।
अंदर सन्नाटा था। शायद दोनों सो गए थे,
कामिनी ने कोई रिस्क नहीं लिया।
उसने बहुत ही सावधानी से मेन दरवाज़े की कुंडी खोली, बाहर निकली, और फिर...
कच...
उसने बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया (Lock लगा दिया)।
अब अगर रवि या बंटी की नींद खुल भी जाए, तो वे बाहर नहीं आ सकते थे। कामिनी ने अपनी सुरक्षा पक्की कर ली थी।
अब वह आंगन में थी। ठंडी हवा चल रही थी।
उसके बदन पर सिर्फ़ वही सूती गाउन था, जिसके नीचे उसने कुछ नहीं पहना था। ठंडी हवा उसके नंगे बदन को छू रही थी, जिससे उसके निप्पल फिर से अकड़ गए।
वह छाता ताने, दबे पांव स्टोर रूम की तरफ बढ़ी।
कीचड़ और पानी से बचते हुए, उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
धक्... धक्... धक्...
पैर कांप रहे थे, लेकिन पेट के निचले हिस्से में लगी आग उसे हिम्मत दे रही थी।
जैसे कोई बिल्ली अपने शिकार (या शिकारी) के पास जा रही हो।
वह स्टोर रूम के दरवाज़े पर पहुंची। दरवाज़ा आधा खुला था।
अंदर एक पीले बल्ब की मद्धम रोशनी जल रही थी।
कामिनी ने अंदर झांका।
बल्ब की पीली, मद्धम रोशनी में रघु खटिया पर निढाल पड़ा था।
उसने नशे में जैसे-तैसे अपना गीला कुर्ता तो उतार फेंका था, लेकिन उसकी गीली लुंगी अभी भी उसके कमर से चिपकी हुई थी।
उसका सोया हुआ लंड जाँघ पर किसी सांप की तरह लेता हुआ था, और लुंगी केंचुली की तरह उसपर लिपटी हुई थी.
रघु पूरी तरह बेसुध था। उसकी आँखें बंद थीं, मुंह हल्का खुला था, और वह गहरी, भारी सांसें ले रहा था।
बीच-बीच में वह नशे में कुछ बड़बड़ा देता— "अरे... और डालो..."
लेकिन इन शब्दों का कोई मतलब नहीं था। वह इस दुनिया में था ही नहीं। आज दिन भर उसने शायद गाजर खरीदने के बजाय सिर्फ़ शराब ही पी थी।
कामिनी को उस पर गुस्सा तो बहुत आया।
'जानवर कहीं का... यहाँ मैं इंतज़ार कर रही थी और यह यहाँ बेहोश पड़ा है।'
उसने सोचा कि हलवे की कटोरी पास में रखी मेज़ पर रख दे और चली जाए। जब होश आएगा, खा लेगा।
वह पलटी भी, जाने के लिए कदम बढ़ाया भी... लेकिन फिर रुक गई।
उसके लालची, प्यासे और उत्तेजित मन में एक ख्याल आया। एक ऐसा ख्याल जिसे 'नैतिकता' पाप कहती है, लेकिन 'हवस' उसे मौका कहती है।
उसने खुद को समझाया— "बेचारा... गीले कपड़ों में सो रहा है। निमोनिया हो जाएगा। इंसानियत के नाते इसकी लुंगी उतार देती हूँ, कोई चादर ओढ़ा दूंगी।"
यह सिर्फ़ एक बहाना था। एक सफ़ेद झूठ जो वह खुद से बोल रही थी।
असल में, वह उस 'जानवर' को फिर से देखना चाहती थी। जो लुंगी रुपी केंचूली ओढे शांत लेटा हुआ था रघु की जांघो पर.
वह वापस खटिया के पास गई।
उसका दिल गले में धड़क रहा था। घर का दरवाजा बाहर से बंद था, रघु बेहोश था... उसे रोकने वाला कोई नहीं था।
उसने अपने कांपते हुए हाथ रघु की कमर की तरफ बढ़ाए।
उसकी उंगलियों ने गीली लुंगी की गीली गांठ को छुवा।
गांठ थोड़ी टाइट थी, लेकिन गीली होने के कारण फिसल रही थी। कामिनी ने धीरे से उसे खींचा।
सर्रर्र...
गांठ खुल गई।
जैसे ही गांठ ढीली हुई और लुंगी का कपड़ा रघु की कमर से अलग हुआ, एक तेज़, मादक और कसैली मर्दाना गंध का भभका कामिनी की नाक से टकराया।
यह गंध पसीने, पुरानी शराब, गीले कपड़े और एक 'कामकाजी मर्द' की कच्ची महक का मिश्रण थी।
रवि के पास से महंगे इत्र की खुशबू आती थी, लेकिन रघु के पास से "मर्दना " गंध आ रही थी।
कामिनी न चाहते हुए भी उस गंध को अपनी सांसों में भर गई। सससन्नणीयफ़्फ़्फ़.... सस्नेनीफ्फ...उसे नशा सा होने लगा। आप लाख चाहो लेकिन ऐसी महक को नकारते हुए भी बार बार सूंघने का मन करता है.
यही हालात कामिनी की थी, वो सांस भी लेना नहीं चाहती थी इस माहौल मे लेकिन... सिनीफ्फ... शनिफ्फ्फ्फफ्फ्फ़.... जीरो जोर से सांस खिंच रही थी.
रघु की गंदी मर्दाना गंध उसके जलते जिस्म मे घुलने लगी.
उसने धीरे से लुंगी को खींचकर नीचे कर दिया।
और फिर... वह नज़ारा उसकी आँखों के सामने था।
रघु का लंड। गन्दा, नसो से भरा, काला मोटा लंड.
वह उसकी बाईं जांघ पर एक तरफ लुढ़का पड़ा था।
कल रात जो 'दानव' बनकर उसके गले तक उतरा था, वह अभी एक सोये हुए अजगर की तरह शांत था।
वह काला था। बेहद काला।
उसके आसपास घने, घुंघराले बाल थे जो जांघों तक फैले थे।
वह शांत अवस्था (Flaccid) में भी काफी मांसल और भारी लग रहा था। उसकी चमड़ी (Foreskin) आगे से बंद थी, जो उसे एक सुप्त ज्वालामुखी जैसा रूप दे रही थी।
कामिनी की आँखें उस पर चिपक गईं।
सुबह उसने रवि का 'गुलाबी और साफ़' लंड देखा था—जो सुंदर था, सुडौल था।
और अभी वह रघु का 'काला और जंगली' लंड देख रही थी—जो डरावना था, लेकिन उसमें एक अजीब सा खिंचाव (Magnetism) था।
कामिनी की सांसें भारी हो गईं।
वह अपनी जांघों के बीच फिर से गीलापन महसूस करने लगी।
उसका मन किया कि वह उसे छूकर देखे।
कल रात गुस्से, धुंधली आँखों से वह ठीक से देख भी नहीं पाई थी। मगर आज सब कुछ सामने था, बिल्कुल साफ आँखों के सामने, इसे झूठलाया भी नहीं जा सकता था.
कामिनी की सांसे थमने को थी, हाँथ कांप रहे थे, उसका जिस्म उस से कुछ कह रहा था, बहार साय साय कर हवा चलती ही जा रही थी.
लेकिन असल मे ये कामिनी के जिस्म और मनचले दिल मे उठते तूफान की आवाज़ थी.
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स्टोर रूम में एक अजीब सी, भारी खामोशी थी। बाहर हो रही बारिश की रिमझिम अब धीमी पड़ चुकी थी, लेकिन कामिनी के मन का तूफ़ान अपनी चरम सीमा पर था।
दीवार पर टंगा पीला बल्ब अपनी मद्धम रोशनी में उस छोटे से कमरे को एक तिलिस्मी दुनिया बना रहा था—एक ऐसी दुनिया जो घर के नियमों, समाज के दायरों और एक 'इज़्ज़तदार बहू' की मर्यादाओं से कोसों दूर थी।
कामिनी खटिया के पास खड़ी थी। उसके हाथ में गाजर के हलवे की कटोरी थी, जो अब ठंडी हो रही थी। लेकिन कामिनी का जिस्म? वह किसी भट्टी की तरह तप रहा था।
सामने खटिया पर रघु बेसुध पड़ा था।
उसका सांवला, पसीने और बारिश के पानी से भीगा हुआ बदन खटिया पर ऐसे निढाल था जैसे कोई युद्ध हार चुका योद्धा हो। उसके मुंह से शराब की तीखी और सड़ी हुई गंध आ रही थी, जो कमरे की सीलन भरी हवा में मिल गई थी।
आमतौर पर, किसी भी सभ्य औरत को इस गंध से उबकाई आ जाती। कामिनी को भी आनी चाहिए थी। लेकिन आज... आज यह गंध उसे किसी महंगे इत्र से ज्यादा मादक लग रही थी।
यह 'मर्दानगी' की गंध थी—कच्ची, जंगली और बिना किसी बनावट के।
कामिनी की नज़रों ने रघु के जिस्म का मुआयना किया।
चौड़ा सीना, जिस पर काले बाल उगे थे, सांसों के साथ ऊपर-नीचे हो रहा था।
उसका पेट, जो लुंगी की ढीली गांठ के कारण आधा नंगा था।
और उसके नीचे... वह गीली लुंगी, जो उसके पैरों के बीच के हिस्से को किसी रहस्य की तरह छुपाए हुए थी।
कामिनी के दिमाग में द्वंद्व चल रहा था। एक तरफ उसका 'अहंकार' था—कि वह मालकिन है और यह नौकर। दूसरी तरफ उसकी 'भूख' थी—जो कल रात इसी नौकर ने जगाई थी।
उसने हलवे की कटोरी पास के एक टूटे हुए स्टूल पर रख दी।
"जानवर कहीं का..." वह बुदबुदायी, लेकिन उसकी आवाज़ में नफरत नहीं, बल्कि एक अजीब सा अपनापन था। "गीले कपड़ों में सो रहा है, बीमार पड़ेगा तो मर जायेगा, यहाँ तेरी लुगाई बैठी है क्या सेवा करने को?"
यह एक झूठ था। एक बहाना था खुद को छूने की अनुमति देने का।
कामिनी धीरे से खटिया के किनारे बैठ गई। पुरानी खटिया 'चर्र' से बोल उठी, लेकिन रघु को कोई होश नहीं था।
कामिनी ने अपना कांपता हुआ हाथ आगे बढ़ाया। उसकी उंगलियों ने रघु की कमर पर बंधी गीली लुंगी की गांठ को छुआ।
कपड़ा गीला और ठंडा था, लेकिन उसे छूते ही कामिनी की उंगलियों में एक गरम लहर दौड़ गई।
उसने गांठ को खींचा।
वह खुल गई।
लुंगी की पकड़ ढीली पड़ते ही कामिनी ने उसे धीरे-धीरे नीचे सरका दिया।
जैसे ही कपड़ा हटा, कामिनी की आँखें फटी रह गईं।
रघु का नंगापन उसके सामने था।
उसकी बाईं जांघ पर, काले घने बालों के जंगल के बीच, उसका लंड एक तरफ लुढ़का हुआ पड़ा था।
उसमें वह 'अकड़' नहीं थी जो कल रात थी।
कामिनी की सांसें भारी होने लगीं। उसका सीना गाउन के अंदर ज़ोर-ज़ोर से ऊपर-नीचे होने लगा।
उसके दिमाग में तुलना शुरू हो गई।
सुबह उसने रवि का 'गुलाबी, गोरा और सुडौल' लंड देखा था। वह सुंदरता की मूरत था।
और अभी वह रघु का 'काला, खुरदरा और जंगली' अंग देख रही थी। यह ताकत का प्रतीक था।
उसकी चूत, जो रवि के स्पर्श से पहले ही गीली थी, अब इस नज़ारे को देखकर और भी ज्यादा रस छोड़ने लगी।
कामिनी का हाथ खुद-ब-खुद आगे बढ़ा।
उसने रघु के शांत लंड को अपनी मुट्ठी में भर लिया।
वह नरम था, लचीला था।
कामिनी उसे सहलाने लगी।उसने अपने अंगूठे से उसके सुपारी के ऊपर चढ़ी चमड़ी को पीछे करने की कोशिश की।
"उठ ना... जाग ना..." कामिनी मन ही मन फुसफुसा रही थी। "कल तो बड़ा शेर बन रहा था... आज क्या हुआ?"
वह उसे पंप करने लगी, सहलाने लगी।
लेकिन रघु इतनी गहरी शराब के नशे में था कि उसके शरीर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसका लंड कामिनी के हाथ में एक बेजान मांस के टुकड़े की तरह झूल रहा था।
कामिनी को झुंझलाहट होने लगी।
उसे अभी, इसी वक़्त राहत चाहिए थी।
रवि ने छत पर और डाइनिंग टेबल के नीचे उसे जिस मुकाम पर छोड़ा था, वहां से वापस लौटना नामुमकिन था। उसके जिस्म का हर रेशा चीख-चीख कर 'संतुष्टि' मांग रहा था।
लेकिन रघु का यह बेजान अंग उसकी मदद नहीं कर पा रहा था।
"धत्त तेरे की..." कामिनी ने गुस्से में उसे छोड़ दिया।
निराशा और कामवासना के मिश्रण ने उसकी आँखों में आंसू ला दिए। वह जल रही थी, और पानी का स्रोत (रघु) सूखा पड़ा था।
रघु ने नशे में अपना मुंह खोला। उसके होंठ पपड़ी की तरह सूखे हुए थे।
वह नींद में बड़बड़ाया—
"पानी... पानी... बहुत प्यास लगी है... गला सूख रहा है..."
उसकी आवाज़ फटी हुई थी, दर्द भरी थी। शराब ने उसके हलक को रेगिस्तान बना दिया था।
रघु की यह मांग— 'पानी'—सुनकर कामिनी के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी।
पानी?
उसने अपनी टांगों के बीच महसूस किया।
वहां तो सैलाब आया हुआ था।
रवि की उंगलियों ने, छत की बारिश ने और अब इस नंगेपन ने उसके मूत्राशय (Bladder) पर भी दबाव बना दिया था।
सेक्स की उत्तेजना और पेशाब का दबाव—ये दोनों मिलकर कामिनी के निचले हिस्से में एक मीठा लेकिन असहनीय दर्द पैदा कर रहे थे।
उसे बहुत ज़ोरों की लगी थी।
उसका पेट का निचला हिस्सा (Lower abdomen) फटने को था।
और सामने रघु 'पानी' मांग रहा था।
कामिनी के चेहरे पर एक शैतानी, विकृत मुस्कान तैर गई।
यह मुस्कान उस 'कामिनी' की नहीं थी जो पूजा करती थी, यह उस 'कामिनी' की थी जो अपनी हदों को पार कर चुकी थी।
'तुझे पानी चाहिए? प्यास लगी है तुझे?' उसने मन ही मन सोचा।
'मैं पिलाऊंगी तुझे पानी... ऐसा पानी जो तेरी रूह तक को तृप्त कर देगा। मेरी जवानी का रस, मेरी गर्मी, मेरा सब कुछ...'
उसने एक पल के लिए भी नहीं सोचा।
नैतिकता? संस्कार? वो सब तो दरवाज़े के बाहर छूट गए थे।
कामिनी खटिया पर घुटनों के बल खड़ी हो गई।
उसने अपने दोनों हाथों से अपने सूती गाउन को पकड़ा और एक झटके में उसे अपनी कमर तक ऊपर चढ़ा लिया।
अंधेरे कमरे में उसकी नंगी जवानी चमक उठी।
उसकी चूत... वह किसी पके हुए फल की तरह सूजी हुई थी। उसके दोनों होंठ (Lips) खुले हुए थे और उनमें से काम-रस की बूंदें टपक रही थीं। जांघों पर पानी की लकीरें बनी हुई थीं।
कामिनी की साफ चिकनी चुत चमक उठी थी, चुत को इस कद्र चमकता देख कोई भी कह सकता था की उसकी मनसा क्या है?
कामिनी रघु के सिरहाने की तरफ बढ़ी।
उसने रघु के चेहरे के दोनों तरफ अपने पैर जमाए।
एक पैर रघु के बाएं कान के पास, दूसरा दाएं कान के पास।
अब वह रघु के चेहरे के ठीक ऊपर थी। उसकी विशाल, गीली और टपकती हुई योनि रघु की नाक से महज कुछ इंच ऊपर हवा में लटक रही थी।
रघु की सांसों की गर्म हवा सीधा कामिनी की चूत पर लग रही थी, और कामिनी की उत्तेजना की गंध रघु की नाक में भर रही थी।![]()
कामिनी वहाशहीपन की हद पर आ गई थी, जो उसका पति उसे देता था, आज वो रघु को देने जा रही थी, यही तो कर्म का सिद्धांत है, करता कोई है, भरना किसी को पड़ता है,
कामिनी ने धीरे-धीरे अपनी कमर नीचे की।
वह बैठने जा रही थी—रघु के मुंह पर। उसका डर, उसका संस्कार, उसका घरेलू औरत होना ये सब भाव खत्म हो गए थे, वो इस समय वो प्यासी औरत थी जो किसी प्यासे की प्यास बुझाने का पुण्य काम करने जा रही थी.
प्यास भी अजीब चीज है...
धप... पच.... फूरररर.....
कामिनी ने अपनी भारी गांड और अपनी गीली चूत को सीधा रघु के मुंह पर टिका दिया।
उसकी चूत के गीले खुले हुए होंठ रघु के सूखे होंठों पर फिट हो गए।
जैसे ही वह बैठी, रघु के चेहरे की हड्डी और उसकी नाक कामिनी की नरम मांसल गुफा में धंस गई.।![]()
रघु, जो पानी मांग रहा था, उसे अचानक अपनी नाक और मुंह पर एक गरम, गीला और भारी दबाव महसूस हुआ।
"उफ्फ्फ्फ..." कामिनी ने आंखें बंद कर लीं और सिर पीछे झुका दिया।
रघु के गालों की खुरदरी दाढ़ी उसकी जांघों की कोमल त्वचा को छील रही थी। यह दर्द उसे और भी उत्तेजित कर रहा था।
उसने अपने वजन से रघु का मुंह पूरी तरह ढक दिया था। अब रघु को सांस लेने के लिए कामिनी की चूत के अंदर से हवा खींचनी पड़ रही थी।
रघु की नाक पूरी तरह से कामिनी की योनि-दरार (Cleft) में दबी हुई थी।
वह कामिनी की कस्तूरी जैसी गंध—जिसमें पसीना, काम-रस और हल्का सा पेशाब का अहसास था—को अपनी सांसों में भर रहा था।
रघु के होंठों पर गीलापन लगा।
नींद में, प्यास से तड़पते हुए रघु के अवचेतन मन (Subconscious mind) ने इसे 'पानी' या कोई 'गीला फल' समझा।
उसकी जीभ प्रतिक्रिया स्वरूप बाहर निकली।
लप... लापक... लपाक...
रघु की जीभ बाहर निकली और उसने कामिनी की चूत के बाहरी हिस्से को चाटा।
"सीईईईई.... आअह्ह्ह...."
कामिनी का पूरा शरीर कमान की तरह तन गया। एक बिजली का झटका उसकी रीढ़ की हड्डी से होता हुआ उसके दिमाग तक पहुंचा।
रघु की जीभ खुरदरी थी, एक जानवर की तरह।
वह खुरदरापन कामिनी की अति-संवेदनशील (Hypersensitive) चूत को किसी रेगमाल की तरह रगड़ रहा था।
रघु चाटने लगा।
चप-चप-चप... लप लप लप...
वह प्यासा था, वह उस रस को पीने की कोशिश कर रहा था जो कामिनी की चूत से बह रहा था।![]()
उसकी जीभ अब रास्ता ढूंढती हुई कामिनी की योनि के अंदर घुसने की कोशिश कर रही थी।
कामिनी पागल हो रही थी।
उसने अपने दोनों हाथों से अपने भारी स्तनों को गाउन के ऊपर से ही दबोच लिया। वह उन्हें बुरी तरह मसल रही थी, नोच रही थी।
वह अपनी कमर को रघु के चेहरे पर गोल-गोल घुमाने लगी (Grinding)।![]()
वह चाहती थी कि रघु की जीभ और अंदर जाए... और अंदर...
"हाँ रघु... चाट... अपनी मालकिन को चाट... पी ले मेरी गंदगी..." वह नशे में बड़बड़ा रही थी। "तुझे प्यास लगी है ना? मैं बुझाउंगी तेरी प्यास..."
रघु की जीभ अब लगातार कामिनी के 'क्लिटोरिस' (Clitoris) और पेशाब के रास्ते (Urethra) को टटोल रही थी।
कामिनी की उत्तेजना अब बर्दाश्त से बाहर हो गई थी।
उसका मूत्राशय (Bladder) अब और एक सेकंड भी इंतज़ार नहीं कर सकता था।
रवि का दिया हुआ नशा, रघु की खुरदरी जीभ और सालों की दबी हुई हवस—सब एक साथ विस्फोट होने को तैयार थे।
कामिनी का बदन अकड़ गया।
उसने रघु के बालों को मुट्ठी में जकड़ लिया और उसका सिर अपनी चूत में और कसकर दबा दिया।
"उफ्फ्फ्फ.... ले पी ले..... पी ले मेरा अमृत....."
और इसके साथ ही, कामिनी के जिस्म ने अपना नियंत्रण छोड़ दिया।
उसकी पेशाब की थैली का वाल्व खुल गया।
सर्रर्रर्रर्र.....
एक तेज़, गर्म और दबावपूर्ण धार कामिनी के जिस्म से निकली।
सीधा रघु के खुले हुए मुंह के अंदर।![]()
यह बूंद-बूंद नहीं था, यह एक बाढ़ थी।
कामिनी का पेशाब—जो उसकी उत्तेजना की गर्मी से उबल रहा था—सीधा रघु के गले में उतरने लगा।
रघु, जो प्यास से मर रहा था, उसे लगा जैसे स्वर्ग से कोई धारा उसके मुंह में गिर रही है।
वह नमकीन था, कसैला था, गरम था... लेकिन तरल था।
रघु का गला तर होने लगा।
उसने विरोध नहीं किया। उसका शरीर पानी मांग रहा था, और उसे मिल रहा था।
वह उसे गटकने लगा।
गटक... गटक... गटक...
कामिनी की जांघें थर-थर कांप रही थीं।
उसकी योनि से निकलती हुई वह सुनहरी धारा रघु के गालों से होती हुई, उसकी ठुड्डी से बहती हुई, खटिया पर गिर रही थी। लेकिन उसका अधिकांश हिस्सा रघु के हलक में जा रहा था।
कामिनी को एक ऐसा सुकून मिला जो उसे आज तक किसी संभोग में नहीं मिला था।
यह सिर्फ जिस्म का हल्का होना नहीं था, यह उसकी आत्मा का हल्का होना था।
उसने अपने अंदर की सारी गंदगी, सारी शर्म, सारी हया उस शराबी, दो कोड़ी के आदमी के मुंह में त्याग दी थी।
उसे एक राक्षसी आनंद आ रहा था।
उसे महसूस हो रहा था कि वह कितनी ताकतवर है। एक मर्द, जो कल रात उस पर हावी था, आज उसकी गंदगी पी रहा है। वह उसे अपने पेशाब से 'पवित्र' कर रही थी, या शायद उसे अपनी तरह 'अपवित्र' बना रही थी।
"पी... पूरा पी जा... एक बूंद मत छोड़ना..." वह सिसक रही थी, हाफ रही थी।
करीब 30-40 सेकंड तक वह धारा बहती रही।
रघु लगातार उसे पीता रहा, चाटता रहा। उसकी जीभ अब उस पेशाब की धारा के बीच में लपलपा रही थी।
कामिनी के पेट का भारीपन खत्म हो गया, उसकी जलन शांत हो गई।
धीरे-धीरे धारा कम हुई और बूंदों में बदल गई।
कामिनी अभी भी रघु के मुंह पर बैठी थी।
उसका शरीर पसीने से लथपथ था। उसकी चूत अब भी रघु के मुंह से चिपकी हुई थी, आखिरी कतरे निचोड़ रही थी।
रघु अब शांत हो गया था। शायद उसकी प्यास बुझ गई थी। वह फिर से गहरी नींद में जाने लगा था, उसके मुंह में कामिनी का स्वाद भरा हुआ था।
कामिनी ने एक गहरी, लंबी सांस ली।
"हम्म्म्म्म....."
उसने धीरे से अपनी कमर उठाई।
एक 'चप' की आवाज़ के साथ उसकी चूत रघु के गीले मुंह से अलग हुई।
उसने नीचे देखा।
रघु का चेहरा गीला था, उसके होंठों पर कामिनी के पेशाब की चमक थी।
कामिनी ने अपनी उंगली से रघु के होंठों पर लगे उस तरल को पोंछा और अपनी जीभ से चाट लिया।
नमकीन। अपना ही स्वाद।
उसने ऐसा क्यों और कैसे किया उसे खुद नहीं पता, या फिर ये जिस्म के शांत होने का उन्माद था जिस वजह से कामिनी ये गंदी हरकत कर गई.
उसे कोई घिन नहीं आई। उसे गर्व महसूस हुआ।
उसने अपना गाउन नीचे किया।
मेज़ पर रखा गाजर का हलवा अब पूरी तरह ठंडा हो चुका था और बेमानी लग रहा था।
कामिनी ने हलवे की कटोरी को उठा लिया,
"मैडम गाजर का हलवा तो मुझे भी बहुत पसंद है "
जाती हुई कामिनी के जहन मे याकायाक दिन मे कहे गए रघु के शब्द गूंज उठे.
"अच्छा तो तुझे हलवा भी खाना है "
कामिनी रघु की और पलट के मुस्कुरा दी,
इंसान की दबी हुई वासना, इच्छा कब विकृत रूप ले लेती है, इसका उदाहरण है कामिनी.
क्रमशः......