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राजकुमारी शुभदा ने अपने आप को राज सभा के बगल में बने कक्ष में बंद कर रखा था परंतु सूर्यास्त होते ही जैसे किसी ने अग्नि प्रज्वलित कर दी।
राजकुमारी शुभदा वीरांगना की तरह राज सभा से बाहर आई और युद्ध की तैयारी करने लगी। अंगद और बाकी सैनिकों ने नगर की दीवारों में बने गुप्त छिद्र खोले जिनमें से शत्रु पर शर वर्षा की जा सकती थी।
सूर्यास्त के एक प्रहर बाद दूर से कुछ ध्वनि सुनाई देने लगी। कुछ देर सुनने के बाद पता चला कि यह तो नृत्यशाला के वाद्य और कृत्रिम बिजली की ध्वनि है। नगर की दीवार के सबसे ऊंचे स्थान से दिख रहा था जैसे नृत्यशाला राजा उग्रवीर की सेना के स्वागत में नृत्य वादन और प्रकाश आविष्कार कर उल्हास कर रही थी। राजा उग्रवीर के सैनिक ललकार और चीख कर नृत्यशाला का साथ दे रहे थे।
प्रातः तक शायद राजा उग्रवीर के सैनिक थक कर चुप हो गए पर वाद्य और नृत्य अब भी चल रहा था। संपूर्ण नृत्यशाला नगर द्वार पर नृत्य करते हुए रुक गई। स्वयं पंडित ज्ञानदीप शास्त्री नृत्य करते हुए नगर द्वार तक पहुंचे तो उन्हें देख नगर रक्षक स्तब्ध रह गए।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने ऐसा रूप बनाया था जैसे युद्ध में स्वयं काल भैरव आए हो। अपने दोनों हाथों में रक्तवर्ण लेप लगी तलवारें लिए नाचते हुए वह अपनी कमर हिला रहे थे। कमर पर रक्तवर्ण थैली बंधी हुई थी। पीछे एक विशाल हाथी की अंबारी में बैठे युवराज जोर से पुकारते हुए राजकुमारी शुभदा को द्वार खोलने को कह रहे थे। राजकुमारी शुभदा यह विश्वासघात देख टूट गई।
अंगद, “राजकुमारी शुभदा, केवल हां कहें! उस कपटी पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को अभी बाण से ढेर कर दूंगा!”
राजकुमारी शुभदा गहरी सांस लेकर, “पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को कोई चोट नहीं पहुंचाएगा। मैं चाहती हूं कि जब राजा उग्रवीर अपना राज्य प्रस्थापित करे तब पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अपनी नृत्यशाला की हालत देखे। आज द्वार हम स्वयं खोलेंगे।”
राजकुमारी शुभदा केवल एक सफेद वस्त्र पहने नगर द्वार की ओर बढ़ी। संपूर्ण नगर राजकुमारी शुभदा को प्रणाम कर रस्ते में खड़ा था। अंतिम मोड आया तो अंगद ने एक अंतिम प्रयास किया।
अंगद, “राजकुमारी, हम लड़ेंगे। किले में खड़े सौ सिपाही बाहर के सहस्त्र के बराबर हैं।”
राजकुमारी शुभदा, “फिर आगे क्या अंगद? राजा उग्रवीर नगर के हर बाल और वृद्ध को मार स्त्रियों के साथ वही करेगा जो मुझ अकेली के साथ होना है! अंगद, तुम वीर हो पर मूर्खता से बचो।”
सूर्योदय के साथ चलते हुए राजकुमारी शुभदा ने नगर द्वार पर जा कर, “द्वार खोलो!!”
नगर द्वार खुला और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने हाथ वस्त्र में लपेटकर कर आगे करते हुए अपने सर को द्वार पर रख दिया।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “हे राज्य की राजकुमारी राजनंदिनी,
हे राज्य के ऐश्वर्या राजलक्ष्मी,
है राज्य की ईश्वरी राजेश्वरी,
तुम ही हो राज्य की राजा राजश्री!
इस पापी को क्षमा करो और वर दो देवी! वर दो देवी!!”
राजकुमारी शुभदा, “पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, क्षमा हेतु आप ने एक दिवस में ऐसा क्या कर लिया है? प्रमाण दें!”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी कमर से लटकी थैली को राजकुमारी शुभदा के चरणों में लुढ़का दिया। अंगद ने थैली में रखा समान निकाला और नगर की स्त्रियां चीख पड़ी।
“राजा उग्रवीर का शीश आप को भेंट हो राजश्री”, पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की आवाज ने नगर में फैली शांति को चीर दिया।
राजकुमारी शुभदा की आंखों में राहत और भय मुक्ति के अश्रु भर आए। पर राजकुमारी शुभदा ने पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को उनके दिए धोखे से नाराजी बनाए रखते हुए पूछा,
“पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, आप को इस नगर में जो चाहिए था वह तो आप पहले ही उपभोग चुके हो। तो अब आप को नगर में लौटने की अनुमति चाहिए या अपनी नृत्यशाला समेत भ्रमण करने के लिए पर्याप्त सुवर्ण?”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजश्री, मुझे केवल एक दिवस और आपका निजी सुरक्षा पथक चाहिए। जमानत के लिए एक छोटा उपहार छोड़ जाता हूं।”
जख्मी पर गर्व से फूला हुआ छोटा गरुड़वीर एक डोरी से बंधक को ले आया। राजकुमारी शुभदा ने देखा यह वही युवराज था जो नगर द्वार खोलने को कह रहा था।
युवराज की तीव्र पुकार नगर पर जीत की नहीं नृत्यशाला के आतंक की थी।
राजकुमारी शुभदा, “अंगद, पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को जो सहायता चाहिए वह दो और सारे सकुशल नगर लौट आओ!”
राजकुमारी का निजी सुरक्षा पथक नृत्यशाला के लोगों के साथ अश्व पर बैठ एक प्रहर से पहले गायब हो गया। राजकुमारी शुभदा अपनी राज सभा की ओर बढ़ी तो नागरिकों ने आनंद से घोषणाएं की।
“राजकुमारी शुभदा की जय!!”
“पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की जय!!”
राजकुमारी शुभदा को पता था कि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अंगद की लेकर किस प्रयोजन से गया है। राजकुमारी शुभदा ने गरुड़वीर और नागरिकों की सहायता से सेनापति अचलसेन, राजा उग्रवीर, और राजा उग्रवीर के अनेक सैनिकों का दाहसंस्कार पूर्ण किया।
अगले दिन नगर के द्वार के दोनों ओर भीड़ खड़ी थी। सूर्य की पहली किरण के साथ राजा खड़गराज की बंधक हुई सेना लौट आई और लोगों ने दुबारा घोषणाएं दी।
“राजकुमारी शुभदा की जय!!”
“पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की जय!!”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री का नगर द्वार पर राजकुमारी शुभदा ने विजयी योद्धा समान स्वागत किया और अपने रथ में उन्हें राज सभा में ले आई।
नागरिकों और सभासदों ने पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को इस कायापलट को समझाने को कहा तो पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के कहने पर यह जिम्मेदारी राजा उग्रवीर के युवराज को दी गई।
युवराज पूरी तरह टूट कर, “आपको यह जानना है कि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने हमें युद्ध में कैसे हराया? वह युद्ध नहीं था! युद्ध हमें आता है! हमारा नरसंहार हुआ है!”
युवराज ने अपनी बेड़ियों को सहारे की तरह सीने से लगा कर किसी घोर आतंक का ब्यौरा देना शुरू किया।
राजा उग्रवीर और उनकी विजयी सेना सरल मार्ग से पर्वतपुर की ओर बढ़ने लगे तो उन्हें वाद्य के बोल सुनाई दिए। मार्ग की एक ओर से पंडित ज्ञानदीप शास्त्री नृत्य करते हुए मार्ग के बीच आए और राजा उग्रवीर को प्रणाम कर नृत्य करने लगे।
राजा उग्रवीर, “नगर से निष्कासित होने से अब यह हमारे लिए नृत्य कर रहा है। इसे सभा में तब नृत्य करने के लिए कहो जब राजकुमारी शुभदा को हमारे सेना शिविर में ले जाया जाएगा।”
नृत्य देखने सारे सैनिक आगे बढ़े पर जैसे ही पूर्ण सेना सरल मार्ग पर आ गई भगदड़ मच गई। सरल मार्ग के नीचे से और पास के पर्वतों के गर्भ से बिजली चमक उठी। भूमि में से तीव्र गति कंकड़ सेना के कवच को ऐसे भेद गए जैसे सेना नग्न हो। ऊपर पर्वतों से बड़े बड़े पत्थर वर्षा जैसे बरसने लगे। कुछ क्षणों में सहस्त्र योद्धा गतप्राण हो गए। इस से पहले की कुछ समझ आता मार्ग के दोनों ओर से अग्नि के कुंभ की वर्षा होने लगी। जो सैनिक कंकड़ और पत्थरों से मरे नहीं थे वह जलने लगे। हमारा हाथी नियंत्रण खो बैठा और राजा उग्रवीर का निजी पथक राजा उग्रवीर के हाथी से मारा गया।
युवराज रोते हुए, “पांच सहस्त्र योद्धा एक शत्रु को देखे बगैर मारे गए। जब केवल एक मुट्ठी भर सैनिक बचे तो पंडित ज्ञानदीप शास्त्री दो तलवारों को लहराते हुए नृत्य करता बाहर आया। राजा उग्रवीर ने बाकी योद्धा के साथ उस अकेले नर्तक पर धावा बोला पर वह नर्तक नहीं था। वह स्वयं काल भैरव था!!”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की ओर आतंक से देखते हुए युवराज, “उसने अपना नृत्य तब भी चालू रखा जब उसने राजा उग्रवीर का शीश उनके धड़ से विभक्त कर नृत्य के समान की तरह अपनी कमर में बांध लिया। मुझे क्या सिर्फ नगर द्वार पर खड़े होकर राजकुमारी शुभदा को पुकारने के लिए जीवित रखा था?”
शोक के सफेद वस्त्र पहने राजकुमारी शुभदा ने राज सभा से, “यह उद्दंड हमें आज सर्वसमक्ष… क्या करने आया था यह हमें संधि पत्र से पता है। तो सभासद इसका क्या किया जाए?”
सभी सभासदों में होड लग गई की युवराज को सबसे अपमानासपद मृत्यु की योजना बनाने में। पर अंत में पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को अभिवादन कर युवराज को आदरपूर्वक अपने राज्य वापस भेज देने की मांग की।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की मांग से युवराज भी स्तब्ध रह गए पर राजकुमारी शुभदा ने विचार कर हां में सर हिलाया।
राजकुमारी शुभदा, “युवराज, युद्ध आप ने पर्वतपुर पर थोपा पर युद्ध के बाद पर्वतपुर प्रतिशोध जैसी निम्न भावना नहीं रखता। सेना अधिकारी गरुड़वीर युवराज को एक अश्व और उनके बाकी सैनिकों के साथ पर्वतपुर के क्षेत्र से आदरपूर्वक बाहर छोड़ आओ।”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के नेत्र राजकुमारी शुभदा से मिले और उन्होंने राजकुमारी शुभदा को प्रशंसा का संदेश दिया। सभासद मात्र इस निर्णय के विरुद्ध थे इस लिए पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को सभी को समझाना पड़ा।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा उग्रवीर ने उत्तराधिकारी की घोषणा नहीं की ताकि उनका उत्तराधिकारी उनके विरुद्ध युद्ध न कर पाए पर अब अगला राजा बनने के लिए उनके राज्य में गृहयुद्ध होगा। युवराज कुछ सेना के साथ हार कर लौटना नहीं चाहेंगे तो वह अपने ही नगर में अपने ही भाइयों से युद्ध कर हमारे लिए अपने राज्य को और अस्थिर बनाएंगे।”
सभी सभासदों ने राजकुमारी शुभदा की प्रशंसा की जब राजकुमारी शुभदा के एक वाक्य न सभी का दिल दहला दिया।
राजकुमारी शुभदा, “युद्ध में पर्वतपुर विजयी हो गया है तो अब हम निश्चिंत हो कर सती जाएंगी।”
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अद्भुत!
जैसा सोचा था, उससे भी कहीं अधिक कर दिखाया ज्ञानदीप ने!
साक्षात् रौद्र रूप! शत्रु पर मृत्यु वर्षा इसी तरह होती है।
इसीलिए मैंने पहले भी लिखा था कि पराजित को इतना नहीं दबाना चाहिए कि उसके पास सम्मुख युद्ध के अतिरिक्त कोई उपाय ही न बचे।
उग्रवीर से यही चूक हुई और इस बात का दंड उसने अपने जीवन से चुकाया।
उसका युवराज भी उत्तराधिकार के अंतःयुध्द में मारा ही जाएगा।
शुभदा की सती होने की इच्छा समझ तो आ रही है, लेकिन फोरम के मनोरंजन के उपयुक्त नहीं है!
वैसे भी पूर्व में ज्ञानदीप शास्त्री की इच्छा शुभदा से विवाह करने की थी। उग्रवीर की सेना को परास्त कर के उसने युद्ध कौशल दिखा ही दिया है।
शासन कौशल भी सीखा ही होगा उसने।
दुःख इस बात का है कि शुभदा के पिता राजा खड़गसेन इस अनावश्यक युद्ध में खेत रहे।
अन्यथा अपनी पुत्री को सुख से विवाहिता, फिर माता, और फिर साम्राज्ञी बानी हुई देखते।
अति उत्तम लेखन!


