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Romance पर्वतपुर का पंडित

sunoanuj

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पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अश्वशाला के पीछे बनी कुटीर में जाने के बजाय अश्वशाला के ऊपर बने एक गुप्त कक्ष में गए। वहां नृत्यशाला के कुछ लोग थे।


गरुड़वीर, “राजा खड़गराज सहित पूर्ण सेना पर्वतों में से उतरकर सपाट भूमि पर पहुंच गई है। राजा उग्रवीर के निजी सुरक्षा पथक के अलावा उनकी सेना दिख नहीं रही है।”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “नाट्य को रोचक कहां बनाया जाता है?”


सारे विद्यार्थी एक स्वर में, “पर्दे के पीछे!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा खड़गराज, पर्दे को ढूंढो वरना नाट्य का अंत कोई और लिखेगा। ऊपर आते प्रत्येक शरणार्थी को पानी दो, खाना दो और प्रत्येक शरणार्थी से बात करो। राजा उग्रवीर ने कहा था कि वह कल युद्ध करेगा तो उसकी सेना क्यों नहीं आई?”


एक छोटी नर्तकी, “उनका रथ अटक गया होगा तो? राजा उग्रवीर ने गिनती में गलती कर दी हो तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री दूर देखते हुए, “राजा उग्रवीर बहुत कुछ है पर वह मूर्ख नहीं। नृत्यशाला को नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करो! अगर राजा उग्रवीर विजयी हुए तो हमें उनका योग्य स्वागत करना होगा।”


सारे विद्यार्थी अपने सर को हिलाकर हां कर चले गए।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी कुटीर में जाने के बाद अपने वस्त्र उतारे और अपने आप को चांदी के दर्पण में देखा। उसके चेहरे पर शांत मुस्कान थी पर उसकी पीठ पर नाखूनों के लंबे आघात थे। आज उसे अपने आप से घिन होनी चाहिए पर उसका मन पूर्णतः स्थिर और निश्चयी था। उसे अपने गुरू और राजा खड़गराज की तरह विश्वास था उस भविष्यवाणी पर जो राज ऋषि धीरानंद ने राजकुमारी शुभदा के जन्म के साथ की थी।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक खुरतरी चटाई बिछाई और कल रात्रि के रेशमी चादर पर बिछी मोतीसी मखमली काया के बारे में सोचते हुए अपने भाले को डांटा,
“अति उद्दंड है तू। कल रात्रि तुझे वह स्वर्गीय सुख मिला जिसकी ओर देखने की भी तेरी पात्रता नहीं और तू अब फिर से उसे पाने के लिए लालायित हो रहा है? चुपचाप से सो जा और मुझे भी सोने दे। यदि मैं कल अपना सर इस्तेमाल नहीं कर पाया तो वह हमारा अंतिम दिन होगा।”



पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने आंखें बंद कर चुपके से, “दीप!… केवल तुम्हारा दीप!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की स्मृति पटल पर निद्रा में कल रात्रि के क्षण चलने लगे।


राजकुमारी शुभदा, “दीप!!…”


दीप ने अपने सर को शुभदा के दूधिया गोले पर से उठाते हुए उसकी लंबी उभरी बेरी को लंबे चूसकर उठाते हुए छोड़ा था।
दीप, “हां शुभा, बोलो। जो मांगना है मांग लो!”



शुभा दीप की आंखों में देखते हुए, “मुझे नहीं पता पर… मुझे पीड़ा है। इसे ठीक करो!”


दीप ने शुभा की आंखों में देखते हुए अपने चेहरे को उसके चेहरे के इतने समीप लाया कि उनकी सांसे घुलमिलकर एक होने लगी।


शुभा मिमियाते हुए, “दीप!!…”


दीप ने शुभा पर अपना अधिकार स्थापित करते हुए अपने होठों को उसके थरथराते होठों पर लगाया और चूमने लगा।


शुभा हुं… हुं… कर रही थी पर उसके नाखून दीप की पीठ में गढ़ कर उसे अपने अंदर खींच रहे थे। दीप ने शुभा को चूमते हुए कुछ बेहद लंबे पल बिताए और फिर चूमते हुए अपने होठों को खोला। शुभा ने दीप का साथ देते हुए उसकी नकल करते हुए अपने होठों को खोला और दीप ने अपनी जीभ को शुभा के होठों के पार कर दिया।


शुभा की जीभ दीप की आक्रमणकारी जीभ से टकराई और शुभा सिहर उठी। शुभा के हाथ ऊपरी वस्त्र के बंधन को कबका त्याग चुके थे और अब कुछ करने को उत्सुक थे। दीप ने शुभा का हाथ पकड़ा और उसे अपनी धोती पर लगाया। शुभा ने सहज ज्ञान से दीप की धोती खोली और उसे एक ओर उड़ा दिया।
दीप ने शुभा को शय्या पर लिटाकर उसके शुभ्र गोलों पर प्रेम वर्षा करते हुए उसकी धोती खोल कर नीचे गिरा दी। अब दो यौन ज्वर पीड़ित बदन एक दूसरे से लिपटकर तिलमिला रहे थे जिन्हें सिर्फ अंतर्वस्त्र रोके हुए थे।



शुभा ने पहल करते हुए अपनी हथेली को दीप के अंतर्वस्त्र के ऊपर से घुमाते हुए दबाया। शुभा ने पाया कि दीप का पौरुष उसकी हथेली की लंबाई से भी बड़ा था।


दीप, “क्या तुम देखना चाहती हो?”


शुभा ने लज्जित होकर अपने सर को हिलाकर हां कहा तो दीप ने उसे अपने गले से लगाकर उसके कान में, “तो उतार दो…”


शुभा सिहर उठी और उसने दीप का अंतर्वस्त्र उतार कर उड़ा दिया। दीप के पैरों के बीच में से निकला भाला देख कर शुभा हैरान रह गई।


शुभा, “यह कितना बड़ा है! पर यह क्या और कैसे उपयोग में आता है? (दीप के आंखों में आए प्रश्न को देख कर) मेरे यहां का अंग अलग है…”


शुभा लज्जा कर, “अगर चाहते हो तो देख लो…”


दीप ने शुभा को चूमते हुए मुस्कुराकर, “जो आज्ञा…”


दीप शुभा के बदन पर प्रेमवर्षा करते हुए नीचे सरकता गया और शुभा कसमसाते हुए तड़पती रही। अंत में दीप शुभा के अंतर्वस्त्र तक पहुंचा और उसे मादक सुगंध को ढकते उस आवरण को उतार कर शय्या से नीचे गिर दिया।


शुभा के लंबे शुभ्र पैरों के जोड़ को आच्छादित करते घुंघराले काले बालों में से मादक जल की धारा उमड़ पड़ी थी। उस मादक सुगंध का पीछा करते हुए दीप की चतुर जबान स्रोत तक पहुंच गई।
दीप के होठों ने शुभा के गीले यौन होठों को चूमा और शुभा उत्तेजना से चीख पड़ी। चूमते हुए दीप के होठों ने शुभा के होठों को खोला और दीप की जबान स्त्रोत से जल पीने बड़ी पर वहां खड़े पहरेदार ने दीप की जबान को रोक दिया।



शुभा को अपने अंदर कुछ तनाव महसूस हुआ और वह डर मिश्रित उत्तेजना से चीख पड़ी, “दीप…”


दीप ने अपनी चतुर जीभ से पहरेदार को छू कर चिढ़ाया, सताया, मनाया और मार्ग देने के लिए बहलाया परंतु पहरेदार अडिग रहा। उसी समय शुभा का बदन बुरी तरह अकड़कर कांपते हुए थरथरा उठा। पहरेदार के पीछे से स्वागत की मधुर तैयारी बनकर शुभा का यौन मधु बह निकला।


दीप से अब रहा नहीं गया और वह शुभा के यौन होठों को चूमते हुए, पहरेदार को जीभ से धक्के देते हुए अपने दाहिने अंगूठे से यौन होठों के ऊपरी जोड़ में छुपे हुए यौन मोती का अनावरण किया। यौन मोती आतुर होकर फूलकर दीप के सामने आया तो दीप ने उसे प्यार से सहलाया।



शुभा चीख पड़ी, “दीप!!…”


दीप ने अपने होठों को शुभा के यौन होठों के ऊपरी जोड़ पर लगाया और अपनी जीभ से शुभा के यौन मोती के गोल गोल चक्कर लगाते हुए बीच में से ही उसे जीभ के खुर्तरे भाग से रगड़ देता। पहरेदार को मनाने का कार्य दाहिनी तर्जनी ने लिया था।


शुभा का मोती सा बदन घर्मबिंदु, पसीने की बूंदों से आच्छादित था और वह दीप को अपने गुपित पर दबाती कांपते हुए अपने सर को झटकती किसी तीव्र वेदना को झेल रही थी। धनुष्य से बाण छुटे वैसे अचानक दीप की जीभ और तर्जनी पर यौन मधु की बौछार हुई और शुभा कांपते हुए ऐसे ऐंठने लगी जैसे अकड़ी का दौरा पड़ा हो।


शुभा ने एक सुस्वप्न में से आंखें खोली तब उसने पाया कि उसके पैरों को फैलाकर उनके जोड़ में बने यौन होठों को खोल कर उनके बीच में से दीप का गरम धड़कता भाला उसे पहरेदार से यौन मोती तक रगड़ रहा था।


शुभा दीप की आंखों में देखते हुए मुस्कुराकर, “क्या यही है वात्स्यायन का कामसूत्र?”


दीप, “नहीं, पर यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं सिखा सकता हूं।”


शुभा, “क्या उसमें इतना ही मजा आता है?”


दीप, “इस से कहीं अधिक!”


शुभा लज्जित मुस्कान से, “सिखाओ मुझे!”


दीप, “मेरी आंखों में देखो शुभा। तुम इन आंखों को सदैव याद रखोगी क्योंकि अब तुम मेरी हो!”


दीप के होठों ने शुभा के होठों पर कब्जा कर लिया और दीप ने अपनी कमर को उठाया। एक हथेली से भी लंबा और तीन उंगलियों जितना चौड़ा लिंग अपने नैसर्गिक कृति के लिए योग्य दिशा में खड़ा हो गया। दीप ने शुभा के दाहिने कंधे को कस कर पकड़ते हुए अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को शुभा के सर के ऊपर के बालों में फंसाया।


शुभा ने आते प्रहार से अंजान अपने दीप की आंखों में देखते हुए चूमते हुए उसे पुकारा, “दी…
ई…
ई…
ईह…
आह!!…
आ…
आ…
आंह…”



दीप ने जोर से शुभा के होठों को दबाकर वश किया जब अथक परिश्रम कर उसका धधकता लिंग अपने घर में पूर्णतः प्रवेश कर गया।


शुभा प्रतिरोध में दीप की पीठ में नाखूनों को गड़ाकर आघात कर नहीं थी तो उसके पैर दीप से दबकर फैलने के बाद भी झटक रहे थे। शुभा के दीप से मिले नेत्र अब वेदना के अश्रु बहा रहे थे। शुभा की आंखों में एक प्रश्न था,
“यह पीड़ा क्यों?”



दीप, “अब कोई और पीड़ा नहीं होगी। यह पीड़ा तुम्हारे कौमार्यमर्दन से बनी थी और अब रुक जाएगी।”


शुभा की आंखों में जमा और वहां से बहते आंसुओं को चूमकर पीते हुए दीप ने अपने शरीर पर अनूठा नियंत्रण रखते हुए अपने गले के नीचे एक भी मांसपेशी को हिलने नहीं दिया। शुभा की क्षतिग्रस्त योनि में से बाहर बहते रक्त की बूंदें दीप अपने अंडकोष पर महसूस कर रहा था।
धीरे धीरे वेदना की जगह संवेदना ने ली और शुभा की यौन मांसपेशियों ने अपने जीवन में प्रथम बार एक पौरुष को पकड़कर निचोड़ना शुरू किया।



शुभा, “आ…”


दीप, “अब भी पीड़ा हो रही है?”


शुभा असमंजस से व्यतीत होकर, “पता नहीं…”


दीप, “शुभा, अपने पैरों को शय्या पर रखते हुए घुटनों को ऊपर उठाकर मोड लो।”


शुभा ने दीप की बात मान कर अपने पैरों को मोड़ कर उठाया तो उसकी जांघें खुल कर फैल गई। दीप ने फिर अपनी कमर को केवल एक तिनके जितना आगे पीछे करना शुरू किया।


शुभा कराहते हुए, “माता!!…”


दीप शुभा को चूमते हुए, “अब नहीं… और नहीं…”


दीप का भाला एक लय में तिनके जितना आगे पीछे करता रहा और जल्द ही शुभा की आहोंका स्वर बदलने लगा। शुभा की सांसे तेज होने लगी और वह दीप को अपने ऊपर खींचते हुए धीरे धीरे अपनी कमर को हिलाकर दीप के भाले का प्रहार बढ़ाने लगी।


दीप ने शुभा को चूमते हुए अपने भाले के प्रहार की गहराई बढ़ाते हुए लय भी तेज करने लगा और शुभा ने अपने पैरों को शय्या पर से उठाकर दीप की कमर पर रख दिया। दीप ने अपने भाले को तर्जनी जितनी गहराई में तेज और तीव्र आघात करने दिया जिस से शुभा उत्तेजना वश हिनहिनाने लगी।


शुभा की कोरी योनि जो कौमार्यमर्दन के रक्त से भरी थी वह स्त्री कामोत्तेजना के रसों से भरने लगी। यौन पहरेदार की बलि का रक्त स्त्री कामोत्तेजना के मधु में मिलकर दीप के अंडकोष पर और शुभा के यौन होठों से बूंद बूंद कर बाहर बहने लगा।


शुभा अब पीड़ा भूलकर अपनी एड़ियों को दीप की कमर के पीछे अटकाकर यौन संतुष्टि की ओर दौड़ पड़ी।


दीप शुभा को आलिंगन में कस कर पकड़कर उसके गाल पर अपना गाल रख कर अपने कूल्हे तेजी से हिलाते हुए शुभा के कानों में उस महामंत्र का जाप कर रहा था जिसे उसने इस शय्या में अनेकानेक बार किया था,
“शुभा…
शुभा
।शुभा…
शुभा…”



शुभा यौन संतुष्टि की चरम सीमा प्राप्त कर थरथराते हुए चीख पड़ी, ”दी…
ई…
ई…
प…
ई…
दी…
प!!…
आ…
आ…
आ…
आंह!!…”



दीप शुभा के गर्भ से उमड़े मधु से स्खलित होने लगा परंतु शुभा की अबोध कोरी योनि ने उसे इतनी तीव्रता से निचोड़ा की स्खलन की अनुभूति करते हुए भी अपने वीर्य को उड़ा नहीं पाया।


दीप ने शुभा के स्खलन को कम होने दिया परंतु वह पूर्णतः खत्म होने से पहले ही दीप ने शुभा को तीव्र लंबे आघात करने लगा। दीप अपने लिंग को पहरेदार के अवशेषों तक बाहर खींच लेता और फिर तेज आघात करता लिंग को तब तक दबाता जब तक नर मादा के यौन केश घुलमिल नहीं जाते।


शुभा लगभग अचेत होकर लगातार स्खलित हो रही थी। शयनगृह रतिक्रिडा के अलौकिक ध्वनि से भर गया।


चाप…
उन्ह…
चाप…
हुंह…
चाप…
आह…
चाप…
उंह
चाप…
आह!!…
चाप…
हां…



नर मादा में कोई अंतर नहीं बचा जब मदन बाण का आघात हो गया।


अर्ध घटिका तक ऐसे ही शुभा को लोक परलोक के बीच की अधर में रख कर दीप परास्त हो गया। तेज विस्फोट के साथ दीप के शिश्न में से गाढ़े सफेद वीर्य की बड़ी मात्रा जड़ तक धंसे लिंग से यौन स्खलन से खुलते गर्भ में दौड़ पड़ी।


राजकुमारी शुभदा अपनी विवाहरात्रि में अपने प्रियकर संग व्यभिचार से थकी थी। जब राजकुमारी शुभदा अपने प्रथम यौन अनुभव से तृप्त लगभग अचेत होकर पड़ी थी पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी प्रियतमा के स्तनों के साथ खेलते हुए उसे संपूर्ण निद्रा से दूर रखा।


रक्तरंजित रात्रि युद्ध तब समाप्त हुआ जब दोनों योद्धा पूर्णतः परास्त होकर विजयी हुए। उस रात्रि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को और तीन बार अपने वीर्य से भर दिया था। अपने हल से चौथा बीज राजकुमारी शुभदा की कोख में भरने के बाद पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपने पिचके हुए लिंग को गर्व से सहलाते हुए उस पर लगा कौमार्य रक्त और वीर्य का लेप शुभ्र रुमाल पर पोंछ लिया। अपने वस्त्र पहनकर पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा की ओर देखा।


सफेद रेशम पर बिछा मोतिसा मखमली सौंदर्य लूटने के कारण अब अलग मादकता झलका रहा था। फैली हुई जांघों के बीच के घुंघराले काले यौन बालों में से टपकता रक्त मिश्रित वीर्य और स्त्री कामोत्तेजना का मधु ऐसा लेप निर्माण कर धीरे से बाहर बहते हुए मांसल गद्देदार कूल्हों के नीचे बड़ा दाग बना रहे थे। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने स्नानगृह में अचेत पड़े सेनापति अचलसेन को शयनगृह में लाया पर वह लाख कोशिशों के बाद भी उस मूर्ख को अपनी राजकुमारी शुभदा के बगल में नहीं लिटा पाया। आखिरकार पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने सेनापति अचलसेन को राजकुमारी शुभदा की शय्या के दूसरी ओर के नीचे डाल दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात्रभर पुरुषार्थ सिद्ध करने के बाद पुरुष थक कर करवट लेते हुए शय्या से नीचे गिर कर वहीं सो गया।


प्रातः के पक्षी उठने लगे थे और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को भी अपने कुटीर में से बाहर निकलना चाहिए पर…
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने चूसकर फुले दूधिया गोले देखे, चुदाकर फूले यौन होंठ देखे और अपने आप को रोक नहीं पाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक वस्त्र से राजकुमारी शुभदा की नग्नता को ढकते हुए अपने जीवन के इस अतिसुंदर अध्याय को बंद कर दिया।
बहुत ही शानदार अपडेट दिया है !
 

Lefty69

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समय के कुछ माप और उनका आज के प्रमाण

घटिका २४ मिनिट लगभग आधा घंटा
प्रहर ३ घंटे

यदि कोई शब्द समझ न आए तो प्रश्न पूछ लीजिए।
 
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Lefty69

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Sushil@10

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पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अश्वशाला के पीछे बनी कुटीर में जाने के बजाय अश्वशाला के ऊपर बने एक गुप्त कक्ष में गए। वहां नृत्यशाला के कुछ लोग थे।


गरुड़वीर, “राजा खड़गराज सहित पूर्ण सेना पर्वतों में से उतरकर सपाट भूमि पर पहुंच गई है। राजा उग्रवीर के निजी सुरक्षा पथक के अलावा उनकी सेना दिख नहीं रही है।”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “नाट्य को रोचक कहां बनाया जाता है?”


सारे विद्यार्थी एक स्वर में, “पर्दे के पीछे!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा खड़गराज, पर्दे को ढूंढो वरना नाट्य का अंत कोई और लिखेगा। ऊपर आते प्रत्येक शरणार्थी को पानी दो, खाना दो और प्रत्येक शरणार्थी से बात करो। राजा उग्रवीर ने कहा था कि वह कल युद्ध करेगा तो उसकी सेना क्यों नहीं आई?”


एक छोटी नर्तकी, “उनका रथ अटक गया होगा तो? राजा उग्रवीर ने गिनती में गलती कर दी हो तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री दूर देखते हुए, “राजा उग्रवीर बहुत कुछ है पर वह मूर्ख नहीं। नृत्यशाला को नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करो! अगर राजा उग्रवीर विजयी हुए तो हमें उनका योग्य स्वागत करना होगा।”


सारे विद्यार्थी अपने सर को हिलाकर हां कर चले गए।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी कुटीर में जाने के बाद अपने वस्त्र उतारे और अपने आप को चांदी के दर्पण में देखा। उसके चेहरे पर शांत मुस्कान थी पर उसकी पीठ पर नाखूनों के लंबे आघात थे। आज उसे अपने आप से घिन होनी चाहिए पर उसका मन पूर्णतः स्थिर और निश्चयी था। उसे अपने गुरू और राजा खड़गराज की तरह विश्वास था उस भविष्यवाणी पर जो राज ऋषि धीरानंद ने राजकुमारी शुभदा के जन्म के साथ की थी।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक खुरतरी चटाई बिछाई और कल रात्रि के रेशमी चादर पर बिछी मोतीसी मखमली काया के बारे में सोचते हुए अपने भाले को डांटा,
“अति उद्दंड है तू। कल रात्रि तुझे वह स्वर्गीय सुख मिला जिसकी ओर देखने की भी तेरी पात्रता नहीं और तू अब फिर से उसे पाने के लिए लालायित हो रहा है? चुपचाप से सो जा और मुझे भी सोने दे। यदि मैं कल अपना सर इस्तेमाल नहीं कर पाया तो वह हमारा अंतिम दिन होगा।”



पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने आंखें बंद कर चुपके से, “दीप!… केवल तुम्हारा दीप!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की स्मृति पटल पर निद्रा में कल रात्रि के क्षण चलने लगे।


राजकुमारी शुभदा, “दीप!!…”


दीप ने अपने सर को शुभदा के दूधिया गोले पर से उठाते हुए उसकी लंबी उभरी बेरी को लंबे चूसकर उठाते हुए छोड़ा था।
दीप, “हां शुभा, बोलो। जो मांगना है मांग लो!”



शुभा दीप की आंखों में देखते हुए, “मुझे नहीं पता पर… मुझे पीड़ा है। इसे ठीक करो!”


दीप ने शुभा की आंखों में देखते हुए अपने चेहरे को उसके चेहरे के इतने समीप लाया कि उनकी सांसे घुलमिलकर एक होने लगी।


शुभा मिमियाते हुए, “दीप!!…”


दीप ने शुभा पर अपना अधिकार स्थापित करते हुए अपने होठों को उसके थरथराते होठों पर लगाया और चूमने लगा।


शुभा हुं… हुं… कर रही थी पर उसके नाखून दीप की पीठ में गढ़ कर उसे अपने अंदर खींच रहे थे। दीप ने शुभा को चूमते हुए कुछ बेहद लंबे पल बिताए और फिर चूमते हुए अपने होठों को खोला। शुभा ने दीप का साथ देते हुए उसकी नकल करते हुए अपने होठों को खोला और दीप ने अपनी जीभ को शुभा के होठों के पार कर दिया।


शुभा की जीभ दीप की आक्रमणकारी जीभ से टकराई और शुभा सिहर उठी। शुभा के हाथ ऊपरी वस्त्र के बंधन को कबका त्याग चुके थे और अब कुछ करने को उत्सुक थे। दीप ने शुभा का हाथ पकड़ा और उसे अपनी धोती पर लगाया। शुभा ने सहज ज्ञान से दीप की धोती खोली और उसे एक ओर उड़ा दिया।
दीप ने शुभा को शय्या पर लिटाकर उसके शुभ्र गोलों पर प्रेम वर्षा करते हुए उसकी धोती खोल कर नीचे गिरा दी। अब दो यौन ज्वर पीड़ित बदन एक दूसरे से लिपटकर तिलमिला रहे थे जिन्हें सिर्फ अंतर्वस्त्र रोके हुए थे।



शुभा ने पहल करते हुए अपनी हथेली को दीप के अंतर्वस्त्र के ऊपर से घुमाते हुए दबाया। शुभा ने पाया कि दीप का पौरुष उसकी हथेली की लंबाई से भी बड़ा था।


दीप, “क्या तुम देखना चाहती हो?”


शुभा ने लज्जित होकर अपने सर को हिलाकर हां कहा तो दीप ने उसे अपने गले से लगाकर उसके कान में, “तो उतार दो…”


शुभा सिहर उठी और उसने दीप का अंतर्वस्त्र उतार कर उड़ा दिया। दीप के पैरों के बीच में से निकला भाला देख कर शुभा हैरान रह गई।


शुभा, “यह कितना बड़ा है! पर यह क्या और कैसे उपयोग में आता है? (दीप के आंखों में आए प्रश्न को देख कर) मेरे यहां का अंग अलग है…”


शुभा लज्जा कर, “अगर चाहते हो तो देख लो…”


दीप ने शुभा को चूमते हुए मुस्कुराकर, “जो आज्ञा…”


दीप शुभा के बदन पर प्रेमवर्षा करते हुए नीचे सरकता गया और शुभा कसमसाते हुए तड़पती रही। अंत में दीप शुभा के अंतर्वस्त्र तक पहुंचा और उसे मादक सुगंध को ढकते उस आवरण को उतार कर शय्या से नीचे गिर दिया।


शुभा के लंबे शुभ्र पैरों के जोड़ को आच्छादित करते घुंघराले काले बालों में से मादक जल की धारा उमड़ पड़ी थी। उस मादक सुगंध का पीछा करते हुए दीप की चतुर जबान स्रोत तक पहुंच गई।
दीप के होठों ने शुभा के गीले यौन होठों को चूमा और शुभा उत्तेजना से चीख पड़ी। चूमते हुए दीप के होठों ने शुभा के होठों को खोला और दीप की जबान स्त्रोत से जल पीने बड़ी पर वहां खड़े पहरेदार ने दीप की जबान को रोक दिया।



शुभा को अपने अंदर कुछ तनाव महसूस हुआ और वह डर मिश्रित उत्तेजना से चीख पड़ी, “दीप…”


दीप ने अपनी चतुर जीभ से पहरेदार को छू कर चिढ़ाया, सताया, मनाया और मार्ग देने के लिए बहलाया परंतु पहरेदार अडिग रहा। उसी समय शुभा का बदन बुरी तरह अकड़कर कांपते हुए थरथरा उठा। पहरेदार के पीछे से स्वागत की मधुर तैयारी बनकर शुभा का यौन मधु बह निकला।


दीप से अब रहा नहीं गया और वह शुभा के यौन होठों को चूमते हुए, पहरेदार को जीभ से धक्के देते हुए अपने दाहिने अंगूठे से यौन होठों के ऊपरी जोड़ में छुपे हुए यौन मोती का अनावरण किया। यौन मोती आतुर होकर फूलकर दीप के सामने आया तो दीप ने उसे प्यार से सहलाया।



शुभा चीख पड़ी, “दीप!!…”


दीप ने अपने होठों को शुभा के यौन होठों के ऊपरी जोड़ पर लगाया और अपनी जीभ से शुभा के यौन मोती के गोल गोल चक्कर लगाते हुए बीच में से ही उसे जीभ के खुर्तरे भाग से रगड़ देता। पहरेदार को मनाने का कार्य दाहिनी तर्जनी ने लिया था।


शुभा का मोती सा बदन घर्मबिंदु, पसीने की बूंदों से आच्छादित था और वह दीप को अपने गुपित पर दबाती कांपते हुए अपने सर को झटकती किसी तीव्र वेदना को झेल रही थी। धनुष्य से बाण छुटे वैसे अचानक दीप की जीभ और तर्जनी पर यौन मधु की बौछार हुई और शुभा कांपते हुए ऐसे ऐंठने लगी जैसे अकड़ी का दौरा पड़ा हो।


शुभा ने एक सुस्वप्न में से आंखें खोली तब उसने पाया कि उसके पैरों को फैलाकर उनके जोड़ में बने यौन होठों को खोल कर उनके बीच में से दीप का गरम धड़कता भाला उसे पहरेदार से यौन मोती तक रगड़ रहा था।


शुभा दीप की आंखों में देखते हुए मुस्कुराकर, “क्या यही है वात्स्यायन का कामसूत्र?”


दीप, “नहीं, पर यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं सिखा सकता हूं।”


शुभा, “क्या उसमें इतना ही मजा आता है?”


दीप, “इस से कहीं अधिक!”


शुभा लज्जित मुस्कान से, “सिखाओ मुझे!”


दीप, “मेरी आंखों में देखो शुभा। तुम इन आंखों को सदैव याद रखोगी क्योंकि अब तुम मेरी हो!”


दीप के होठों ने शुभा के होठों पर कब्जा कर लिया और दीप ने अपनी कमर को उठाया। एक हथेली से भी लंबा और तीन उंगलियों जितना चौड़ा लिंग अपने नैसर्गिक कृति के लिए योग्य दिशा में खड़ा हो गया। दीप ने शुभा के दाहिने कंधे को कस कर पकड़ते हुए अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को शुभा के सर के ऊपर के बालों में फंसाया।


शुभा ने आते प्रहार से अंजान अपने दीप की आंखों में देखते हुए चूमते हुए उसे पुकारा, “दी…
ई…
ई…
ईह…
आह!!…
आ…
आ…
आंह…”



दीप ने जोर से शुभा के होठों को दबाकर वश किया जब अथक परिश्रम कर उसका धधकता लिंग अपने घर में पूर्णतः प्रवेश कर गया।


शुभा प्रतिरोध में दीप की पीठ में नाखूनों को गड़ाकर आघात कर नहीं थी तो उसके पैर दीप से दबकर फैलने के बाद भी झटक रहे थे। शुभा के दीप से मिले नेत्र अब वेदना के अश्रु बहा रहे थे। शुभा की आंखों में एक प्रश्न था,
“यह पीड़ा क्यों?”



दीप, “अब कोई और पीड़ा नहीं होगी। यह पीड़ा तुम्हारे कौमार्यमर्दन से बनी थी और अब रुक जाएगी।”


शुभा की आंखों में जमा और वहां से बहते आंसुओं को चूमकर पीते हुए दीप ने अपने शरीर पर अनूठा नियंत्रण रखते हुए अपने गले के नीचे एक भी मांसपेशी को हिलने नहीं दिया। शुभा की क्षतिग्रस्त योनि में से बाहर बहते रक्त की बूंदें दीप अपने अंडकोष पर महसूस कर रहा था।
धीरे धीरे वेदना की जगह संवेदना ने ली और शुभा की यौन मांसपेशियों ने अपने जीवन में प्रथम बार एक पौरुष को पकड़कर निचोड़ना शुरू किया।



शुभा, “आ…”


दीप, “अब भी पीड़ा हो रही है?”


शुभा असमंजस से व्यतीत होकर, “पता नहीं…”


दीप, “शुभा, अपने पैरों को शय्या पर रखते हुए घुटनों को ऊपर उठाकर मोड लो।”


शुभा ने दीप की बात मान कर अपने पैरों को मोड़ कर उठाया तो उसकी जांघें खुल कर फैल गई। दीप ने फिर अपनी कमर को केवल एक तिनके जितना आगे पीछे करना शुरू किया।


शुभा कराहते हुए, “माता!!…”


दीप शुभा को चूमते हुए, “अब नहीं… और नहीं…”


दीप का भाला एक लय में तिनके जितना आगे पीछे करता रहा और जल्द ही शुभा की आहोंका स्वर बदलने लगा। शुभा की सांसे तेज होने लगी और वह दीप को अपने ऊपर खींचते हुए धीरे धीरे अपनी कमर को हिलाकर दीप के भाले का प्रहार बढ़ाने लगी।


दीप ने शुभा को चूमते हुए अपने भाले के प्रहार की गहराई बढ़ाते हुए लय भी तेज करने लगा और शुभा ने अपने पैरों को शय्या पर से उठाकर दीप की कमर पर रख दिया। दीप ने अपने भाले को तर्जनी जितनी गहराई में तेज और तीव्र आघात करने दिया जिस से शुभा उत्तेजना वश हिनहिनाने लगी।


शुभा की कोरी योनि जो कौमार्यमर्दन के रक्त से भरी थी वह स्त्री कामोत्तेजना के रसों से भरने लगी। यौन पहरेदार की बलि का रक्त स्त्री कामोत्तेजना के मधु में मिलकर दीप के अंडकोष पर और शुभा के यौन होठों से बूंद बूंद कर बाहर बहने लगा।


शुभा अब पीड़ा भूलकर अपनी एड़ियों को दीप की कमर के पीछे अटकाकर यौन संतुष्टि की ओर दौड़ पड़ी।


दीप शुभा को आलिंगन में कस कर पकड़कर उसके गाल पर अपना गाल रख कर अपने कूल्हे तेजी से हिलाते हुए शुभा के कानों में उस महामंत्र का जाप कर रहा था जिसे उसने इस शय्या में अनेकानेक बार किया था,
“शुभा…
शुभा
।शुभा…
शुभा…”



शुभा यौन संतुष्टि की चरम सीमा प्राप्त कर थरथराते हुए चीख पड़ी, ”दी…
ई…
ई…
प…
ई…
दी…
प!!…
आ…
आ…
आ…
आंह!!…”



दीप शुभा के गर्भ से उमड़े मधु से स्खलित होने लगा परंतु शुभा की अबोध कोरी योनि ने उसे इतनी तीव्रता से निचोड़ा की स्खलन की अनुभूति करते हुए भी अपने वीर्य को उड़ा नहीं पाया।


दीप ने शुभा के स्खलन को कम होने दिया परंतु वह पूर्णतः खत्म होने से पहले ही दीप ने शुभा को तीव्र लंबे आघात करने लगा। दीप अपने लिंग को पहरेदार के अवशेषों तक बाहर खींच लेता और फिर तेज आघात करता लिंग को तब तक दबाता जब तक नर मादा के यौन केश घुलमिल नहीं जाते।


शुभा लगभग अचेत होकर लगातार स्खलित हो रही थी। शयनगृह रतिक्रिडा के अलौकिक ध्वनि से भर गया।


चाप…
उन्ह…
चाप…
हुंह…
चाप…
आह…
चाप…
उंह
चाप…
आह!!…
चाप…
हां…



नर मादा में कोई अंतर नहीं बचा जब मदन बाण का आघात हो गया।


अर्ध घटिका तक ऐसे ही शुभा को लोक परलोक के बीच की अधर में रख कर दीप परास्त हो गया। तेज विस्फोट के साथ दीप के शिश्न में से गाढ़े सफेद वीर्य की बड़ी मात्रा जड़ तक धंसे लिंग से यौन स्खलन से खुलते गर्भ में दौड़ पड़ी।


राजकुमारी शुभदा अपनी विवाहरात्रि में अपने प्रियकर संग व्यभिचार से थकी थी। जब राजकुमारी शुभदा अपने प्रथम यौन अनुभव से तृप्त लगभग अचेत होकर पड़ी थी पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी प्रियतमा के स्तनों के साथ खेलते हुए उसे संपूर्ण निद्रा से दूर रखा।


रक्तरंजित रात्रि युद्ध तब समाप्त हुआ जब दोनों योद्धा पूर्णतः परास्त होकर विजयी हुए। उस रात्रि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को और तीन बार अपने वीर्य से भर दिया था। अपने हल से चौथा बीज राजकुमारी शुभदा की कोख में भरने के बाद पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपने पिचके हुए लिंग को गर्व से सहलाते हुए उस पर लगा कौमार्य रक्त और वीर्य का लेप शुभ्र रुमाल पर पोंछ लिया। अपने वस्त्र पहनकर पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा की ओर देखा।


सफेद रेशम पर बिछा मोतिसा मखमली सौंदर्य लूटने के कारण अब अलग मादकता झलका रहा था। फैली हुई जांघों के बीच के घुंघराले काले यौन बालों में से टपकता रक्त मिश्रित वीर्य और स्त्री कामोत्तेजना का मधु ऐसा लेप निर्माण कर धीरे से बाहर बहते हुए मांसल गद्देदार कूल्हों के नीचे बड़ा दाग बना रहे थे। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने स्नानगृह में अचेत पड़े सेनापति अचलसेन को शयनगृह में लाया पर वह लाख कोशिशों के बाद भी उस मूर्ख को अपनी राजकुमारी शुभदा के बगल में नहीं लिटा पाया। आखिरकार पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने सेनापति अचलसेन को राजकुमारी शुभदा की शय्या के दूसरी ओर के नीचे डाल दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात्रभर पुरुषार्थ सिद्ध करने के बाद पुरुष थक कर करवट लेते हुए शय्या से नीचे गिर कर वहीं सो गया।


प्रातः के पक्षी उठने लगे थे और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को भी अपने कुटीर में से बाहर निकलना चाहिए पर…
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने चूसकर फुले दूधिया गोले देखे, चुदाकर फूले यौन होंठ देखे और अपने आप को रोक नहीं पाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक वस्त्र से राजकुमारी शुभदा की नग्नता को ढकते हुए अपने जीवन के इस अतिसुंदर अध्याय को बंद कर दिया।
Shandaar update and nice story
 

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राजकुमारी शुभदा अपने घर में गई और और जल चक्र चलाकर अपने तपे हुए बदन को शीतल जल से धोया। राजकुमारी शुभदा ने अपने बदन को सुखाने के लिए वस्त्र लेने हाथ बढ़ाया जब उसे नीचे चलता चूषक दिखा। स्नानगृह की भूमि पत्थर से बनी थी जिसे फोड़कर और फिर घिस कर सपाट बनाया गया था। राजकुमारी शुभदा ने चूषक को उठाया और उसके अंदर से आती ध्वनि सुनी।


चक…
चक…
चक…



राजकुमारी शुभदा ने अपनी हथेली को चूषक के मुंह जैसे खुले हिस्से पर लगाया तो उसकी हथेली को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसकी हथेली को चूम लिया हो। हर कुछ पल में बनता चूसना राजकुमारी शुभदा को कल रात्रि के सपने की याद दिला रहा था।


राजकुमारी शुभदा ने सर्वत्र देखा पर स्नानगृह की कोई खिड़की नहीं थी और घर में एकांत था। राजकुमारी शुभदा ने चूषक से अपना हाथ हटाया तो अपने हाथ पर कुछ सूखा लेप पाया। यह लेप पानी को उल्टा बहने से रोकता होगा यह सोचकर राजकुमारी शुभदा ने पास रखा लाल लेप वहां लगाया। लेप को चूषक के मुंह पर लगाने के बाद राजकुमारी शुभदा ने चूषक के मुंह को अपनी जांघ पर लगाया।


चक…
आह!!…



राजकुमारी शुभदा ने हैरान होते हुए चूषक को देखा। उसे विश्वास था कि कल रात्रि भी उसकी जांघ को ऐसे ही चूसा गया था। क्या कल रात्रि सेनापति अचलसेन ने उस से क्रूरता करने से पहले?… क्या वह क्रूरता थी?


राजकुमारी शुभदा ने याद करने की कोशिश की पर सब कुछ रात्रि के स्वप्न से मिश्रित था। उसे स्मरण हो रहा था जैसे पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने उसकी जांघों की अंदरुनी त्वचा को हल्के स्पर्श से मोहित कर पहले छेड़ा और फिर चूमा। लाख प्रयास कर के भी राजकुमारी शुभदा सेनापति अचलसेन को उसके शरीर से ऐसे खेलते हुए नहीं देख सकती थी।


राजकुमारी शुभदा की माता ने उसे प्रतियोगिता के बाद एकांत में, “पुत्री, तेरे पिता ने राज्य के हेतु तेरा विवाह सेनापति अचलसेन से योजना पूर्वक करवाया। परंतु सेनापति अचलसेन के बारे में कुछ गुप्त वार्ता मैंने सुनी है। उसका पौरुष अस्थिर है और बेहद कम समय में निद्रास्त हो जाता है। इस कमी को भरने हेतु वह क्रूरता का अवलंब करता है। जब सेनापति अचलसेन तुम्हें शय्या पर ले जाए तब तुम्हें केवल कुछ देर धैर्य रखना होगा।”


राजकुमारी शुभदा ने सुबह जो देखा उस से यह बिलकुल नहीं लगा कि कुछ देर में ही सब समाप्त हो गया था। उसकी यादों में तो…


चूषक का स्पर्श यौन केशों के ऊपर कमर पर करते ही राजकुमारी शुभदा की स्मरण में एक चित्र आया जहां पंडित ज्ञानदीप शास्त्री उसकी धोती को खोले बगैर उसकी नाभि के नीचे जोर से चूस रहे हैं और वह उनकी शिखा में उंगलियों को फंसाकर उन्हें अपने ऊपर खींचने का प्रयास कर रही है।


चक…
आह!!…



राजकुमारी शुभदा ने चूषक को कांपते हाथों से अपनी नाभि पर लगाया।


चक…
उंह!…



निराशा!! घोर निराशा!! राजकुमारी शुभदा ने चूषक को हटाकर अपनी नाभि को सहलाया और उसकी एक गीली उंगली नाभि में जा फंसी।


आह!!…


राजकुमारी शुभदा ने पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को अपनी कमर को चूमने से रोकते हुए ऊपर खींचा किसी ऐसी भूख को मिटाने जिसका उसे कोई पता नहीं था। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अचानक अपने सर को झुकाया। इस से पहले की राजकुमारी शुभदा उसे खींच पाती पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के गीले होंठ उसकी तपती नाभि पर चिपक गए और पंडित की तेज जबान राजकुमारी की नाभि में गोल गोल घूमते हुए उसके प्राणों को तड़पाने लगी।


चूषक को पेट और पसलियों के जोड़ पर लगाया।


चक…
आह!!…



राजकुमारी शुभदा की आंखें हैरानी से खुल गई। उसने अपने फुले हुए स्तनों के बीच में से चूषक को देखा। राजकुमारी शुभदा की दाहिनी हथेली ने उसकी चीख को दबाया पर कल रात्रि वह उत्तेजनावश चीखी थी जब पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने उसके पसलियों और पेट के जोड़ पर जोर से चुम्बन लेते हुए अपने हाथों को ऊपर उठाया और राजकुमारी शुभदा के फूले हुए स्तनों को ऊपरी वस्त्र के ऊपर से दबाया। राजकुमारी शुभदा की अंतरात्मा में से एक मादा जानवर जागी जिसे वस्त्र में बंद रहना पसंद नहीं था।


कांपते हाथों से राजकुमारी शुभदा ने चूषक को अपने गले में तेजी से धड़कती हुई धमनी पर लगाया।


चक…
आ…
आ…
आ…
आ!!…

आह!…


राजकुमारी शुभदा ने शय्या पर अपनी पीठ को कमान की तरह किया तो स्तनों को दबाते होशियार हाथों ने पीठ को सहारा देते हुए उठाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को आलिंगन देते हुए उसके गले की धमनी को चूमते हुए हल्के से अपने दांतों में पकड़ा। शेर के जबड़े में गर्दन दबी हिरनी की तरह राजकुमारी शुभदा ने छटपटाते हुए पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के पीठ में अपने नाखूनों को गड़ा कर उसे अपने आलिंगन में खींचा जब पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा के ऊपरी वस्त्र की पीछे से बनी गांठें खोल दी। उस वस्त्र सहित हमला करते नाखूनों को ऊपर उठाकर राजकुमारी शुभदा के हाथों को पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने ऊपर बांध दिया।


चूषक राजकुमारी शुभदा के हाथों में से छुटकर उसके पैरों पर गिर गया। राजकुमारी शुभदा ने अपने दोनों हाथों को देखा और फिर उनसे अपना चेहरा ढक लिया।


नहीं…

यह सत्य नहीं…

यह यादें नहीं थीं…

यह तो बस एक…

स्वप्न?…



राजकुमारी शुभदा ने अपनी हथेलियों से अपनी नग्नता छुपाते हुए अपनी हथेलियों को अपने स्तनों पर दबाया जब उसके बाएं स्तन का कड़क नुकीला स्तनाग्र अंगुलियों में फंसकर भींच दिया गया।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा के नग्न सीने को भूखी नजरों से देखा और राजकुमारी शुभदा ने लज्जित होते हैं उनके सर को अपने सीने से छुपाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के होठों ने राजकुमारी शुभदा के बाएं स्तन को जितना संभव था उतना खाते हुए जोर जोर से चूस कर अपनी चतुर जबान से उभरी हुई बेरी जैसा स्तनाग्र दांतों और जीभ में भींचा।


"दीप!!…”

ज्ञानदीप…

पंडित ज्ञानदीप शास्त्री…


राजकुमारी शुभदा को समझ नहीं आ रहा था पर उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि उसका प्रेमी उसका पति नहीं बल्कि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री था। सारे साक्ष और प्रमाणों के परे अंतरात्मा की आवाज है जो बता रही थी कि उसका प्रेमी उसका प्यार था जिसे वह गत अनेक वर्षों से चाहती थी।


राजकुमारी शुभदा ने जल चक्र बंद किया चूषक को उसके स्थान पर रखा और अपने आप को एक वस्त्र में लपेटकर शय्या पर लेट गई। रक्त का दाग उसकी आंखों को अपनी ओर खींच रहा था और राजकुमारी शुभदा ने अपनी उंगलियों को उस के ऊपर से घुमाते हुए स्वयं से पूछा,
“यह कैसे हो सकता है?”
Rajkumari ka kaumarya kaun tod gaya usko bhi nahin pata hai.
 

Lefty69

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Rajkumari ka kaumarya kaun tod gaya usko bhi nahin pata hai.
Yahi to rajkumari ki vyatha hai.
Chahati hai ek ko vivah hua dusre se.
Rat bitayi pati ke sath par yaad me hai premi
Ab vishwas sabooton aur gavahon par kare ya sapne aur dil pe.

Khair aap ko kya lagata hai ki aage kya ho sakta hai?
 

avsji

Weaving Words, Weaving Worlds.
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पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अश्वशाला के पीछे बनी कुटीर में जाने के बजाय अश्वशाला के ऊपर बने एक गुप्त कक्ष में गए। वहां नृत्यशाला के कुछ लोग थे।


गरुड़वीर, “राजा खड़गराज सहित पूर्ण सेना पर्वतों में से उतरकर सपाट भूमि पर पहुंच गई है। राजा उग्रवीर के निजी सुरक्षा पथक के अलावा उनकी सेना दिख नहीं रही है।”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “नाट्य को रोचक कहां बनाया जाता है?”


सारे विद्यार्थी एक स्वर में, “पर्दे के पीछे!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा खड़गराज, पर्दे को ढूंढो वरना नाट्य का अंत कोई और लिखेगा। ऊपर आते प्रत्येक शरणार्थी को पानी दो, खाना दो और प्रत्येक शरणार्थी से बात करो। राजा उग्रवीर ने कहा था कि वह कल युद्ध करेगा तो उसकी सेना क्यों नहीं आई?”


एक छोटी नर्तकी, “उनका रथ अटक गया होगा तो? राजा उग्रवीर ने गिनती में गलती कर दी हो तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री दूर देखते हुए, “राजा उग्रवीर बहुत कुछ है पर वह मूर्ख नहीं। नृत्यशाला को नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करो! अगर राजा उग्रवीर विजयी हुए तो हमें उनका योग्य स्वागत करना होगा।”


सारे विद्यार्थी अपने सर को हिलाकर हां कर चले गए।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी कुटीर में जाने के बाद अपने वस्त्र उतारे और अपने आप को चांदी के दर्पण में देखा। उसके चेहरे पर शांत मुस्कान थी पर उसकी पीठ पर नाखूनों के लंबे आघात थे। आज उसे अपने आप से घिन होनी चाहिए पर उसका मन पूर्णतः स्थिर और निश्चयी था। उसे अपने गुरू और राजा खड़गराज की तरह विश्वास था उस भविष्यवाणी पर जो राज ऋषि धीरानंद ने राजकुमारी शुभदा के जन्म के साथ की थी।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक खुरतरी चटाई बिछाई और कल रात्रि के रेशमी चादर पर बिछी मोतीसी मखमली काया के बारे में सोचते हुए अपने भाले को डांटा,
“अति उद्दंड है तू। कल रात्रि तुझे वह स्वर्गीय सुख मिला जिसकी ओर देखने की भी तेरी पात्रता नहीं और तू अब फिर से उसे पाने के लिए लालायित हो रहा है? चुपचाप से सो जा और मुझे भी सोने दे। यदि मैं कल अपना सर इस्तेमाल नहीं कर पाया तो वह हमारा अंतिम दिन होगा।”



पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने आंखें बंद कर चुपके से, “दीप!… केवल तुम्हारा दीप!”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की स्मृति पटल पर निद्रा में कल रात्रि के क्षण चलने लगे।


राजकुमारी शुभदा, “दीप!!…”


दीप ने अपने सर को शुभदा के दूधिया गोले पर से उठाते हुए उसकी लंबी उभरी बेरी को लंबे चूसकर उठाते हुए छोड़ा था।
दीप, “हां शुभा, बोलो। जो मांगना है मांग लो!”



शुभा दीप की आंखों में देखते हुए, “मुझे नहीं पता पर… मुझे पीड़ा है। इसे ठीक करो!”


दीप ने शुभा की आंखों में देखते हुए अपने चेहरे को उसके चेहरे के इतने समीप लाया कि उनकी सांसे घुलमिलकर एक होने लगी।


शुभा मिमियाते हुए, “दीप!!…”


दीप ने शुभा पर अपना अधिकार स्थापित करते हुए अपने होठों को उसके थरथराते होठों पर लगाया और चूमने लगा।


शुभा हुं… हुं… कर रही थी पर उसके नाखून दीप की पीठ में गढ़ कर उसे अपने अंदर खींच रहे थे। दीप ने शुभा को चूमते हुए कुछ बेहद लंबे पल बिताए और फिर चूमते हुए अपने होठों को खोला। शुभा ने दीप का साथ देते हुए उसकी नकल करते हुए अपने होठों को खोला और दीप ने अपनी जीभ को शुभा के होठों के पार कर दिया।


शुभा की जीभ दीप की आक्रमणकारी जीभ से टकराई और शुभा सिहर उठी। शुभा के हाथ ऊपरी वस्त्र के बंधन को कबका त्याग चुके थे और अब कुछ करने को उत्सुक थे। दीप ने शुभा का हाथ पकड़ा और उसे अपनी धोती पर लगाया। शुभा ने सहज ज्ञान से दीप की धोती खोली और उसे एक ओर उड़ा दिया।
दीप ने शुभा को शय्या पर लिटाकर उसके शुभ्र गोलों पर प्रेम वर्षा करते हुए उसकी धोती खोल कर नीचे गिरा दी। अब दो यौन ज्वर पीड़ित बदन एक दूसरे से लिपटकर तिलमिला रहे थे जिन्हें सिर्फ अंतर्वस्त्र रोके हुए थे।



शुभा ने पहल करते हुए अपनी हथेली को दीप के अंतर्वस्त्र के ऊपर से घुमाते हुए दबाया। शुभा ने पाया कि दीप का पौरुष उसकी हथेली की लंबाई से भी बड़ा था।


दीप, “क्या तुम देखना चाहती हो?”


शुभा ने लज्जित होकर अपने सर को हिलाकर हां कहा तो दीप ने उसे अपने गले से लगाकर उसके कान में, “तो उतार दो…”


शुभा सिहर उठी और उसने दीप का अंतर्वस्त्र उतार कर उड़ा दिया। दीप के पैरों के बीच में से निकला भाला देख कर शुभा हैरान रह गई।


शुभा, “यह कितना बड़ा है! पर यह क्या और कैसे उपयोग में आता है? (दीप के आंखों में आए प्रश्न को देख कर) मेरे यहां का अंग अलग है…”


शुभा लज्जा कर, “अगर चाहते हो तो देख लो…”


दीप ने शुभा को चूमते हुए मुस्कुराकर, “जो आज्ञा…”


दीप शुभा के बदन पर प्रेमवर्षा करते हुए नीचे सरकता गया और शुभा कसमसाते हुए तड़पती रही। अंत में दीप शुभा के अंतर्वस्त्र तक पहुंचा और उसे मादक सुगंध को ढकते उस आवरण को उतार कर शय्या से नीचे गिर दिया।


शुभा के लंबे शुभ्र पैरों के जोड़ को आच्छादित करते घुंघराले काले बालों में से मादक जल की धारा उमड़ पड़ी थी। उस मादक सुगंध का पीछा करते हुए दीप की चतुर जबान स्रोत तक पहुंच गई।
दीप के होठों ने शुभा के गीले यौन होठों को चूमा और शुभा उत्तेजना से चीख पड़ी। चूमते हुए दीप के होठों ने शुभा के होठों को खोला और दीप की जबान स्त्रोत से जल पीने बड़ी पर वहां खड़े पहरेदार ने दीप की जबान को रोक दिया।



शुभा को अपने अंदर कुछ तनाव महसूस हुआ और वह डर मिश्रित उत्तेजना से चीख पड़ी, “दीप…”


दीप ने अपनी चतुर जीभ से पहरेदार को छू कर चिढ़ाया, सताया, मनाया और मार्ग देने के लिए बहलाया परंतु पहरेदार अडिग रहा। उसी समय शुभा का बदन बुरी तरह अकड़कर कांपते हुए थरथरा उठा। पहरेदार के पीछे से स्वागत की मधुर तैयारी बनकर शुभा का यौन मधु बह निकला।


दीप से अब रहा नहीं गया और वह शुभा के यौन होठों को चूमते हुए, पहरेदार को जीभ से धक्के देते हुए अपने दाहिने अंगूठे से यौन होठों के ऊपरी जोड़ में छुपे हुए यौन मोती का अनावरण किया। यौन मोती आतुर होकर फूलकर दीप के सामने आया तो दीप ने उसे प्यार से सहलाया।



शुभा चीख पड़ी, “दीप!!…”


दीप ने अपने होठों को शुभा के यौन होठों के ऊपरी जोड़ पर लगाया और अपनी जीभ से शुभा के यौन मोती के गोल गोल चक्कर लगाते हुए बीच में से ही उसे जीभ के खुर्तरे भाग से रगड़ देता। पहरेदार को मनाने का कार्य दाहिनी तर्जनी ने लिया था।


शुभा का मोती सा बदन घर्मबिंदु, पसीने की बूंदों से आच्छादित था और वह दीप को अपने गुपित पर दबाती कांपते हुए अपने सर को झटकती किसी तीव्र वेदना को झेल रही थी। धनुष्य से बाण छुटे वैसे अचानक दीप की जीभ और तर्जनी पर यौन मधु की बौछार हुई और शुभा कांपते हुए ऐसे ऐंठने लगी जैसे अकड़ी का दौरा पड़ा हो।


शुभा ने एक सुस्वप्न में से आंखें खोली तब उसने पाया कि उसके पैरों को फैलाकर उनके जोड़ में बने यौन होठों को खोल कर उनके बीच में से दीप का गरम धड़कता भाला उसे पहरेदार से यौन मोती तक रगड़ रहा था।


शुभा दीप की आंखों में देखते हुए मुस्कुराकर, “क्या यही है वात्स्यायन का कामसूत्र?”


दीप, “नहीं, पर यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं सिखा सकता हूं।”


शुभा, “क्या उसमें इतना ही मजा आता है?”


दीप, “इस से कहीं अधिक!”


शुभा लज्जित मुस्कान से, “सिखाओ मुझे!”


दीप, “मेरी आंखों में देखो शुभा। तुम इन आंखों को सदैव याद रखोगी क्योंकि अब तुम मेरी हो!”


दीप के होठों ने शुभा के होठों पर कब्जा कर लिया और दीप ने अपनी कमर को उठाया। एक हथेली से भी लंबा और तीन उंगलियों जितना चौड़ा लिंग अपने नैसर्गिक कृति के लिए योग्य दिशा में खड़ा हो गया। दीप ने शुभा के दाहिने कंधे को कस कर पकड़ते हुए अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को शुभा के सर के ऊपर के बालों में फंसाया।


शुभा ने आते प्रहार से अंजान अपने दीप की आंखों में देखते हुए चूमते हुए उसे पुकारा, “दी…
ई…
ई…
ईह…
आह!!…
आ…
आ…
आंह…”



दीप ने जोर से शुभा के होठों को दबाकर वश किया जब अथक परिश्रम कर उसका धधकता लिंग अपने घर में पूर्णतः प्रवेश कर गया।


शुभा प्रतिरोध में दीप की पीठ में नाखूनों को गड़ाकर आघात कर नहीं थी तो उसके पैर दीप से दबकर फैलने के बाद भी झटक रहे थे। शुभा के दीप से मिले नेत्र अब वेदना के अश्रु बहा रहे थे। शुभा की आंखों में एक प्रश्न था,
“यह पीड़ा क्यों?”



दीप, “अब कोई और पीड़ा नहीं होगी। यह पीड़ा तुम्हारे कौमार्यमर्दन से बनी थी और अब रुक जाएगी।”


शुभा की आंखों में जमा और वहां से बहते आंसुओं को चूमकर पीते हुए दीप ने अपने शरीर पर अनूठा नियंत्रण रखते हुए अपने गले के नीचे एक भी मांसपेशी को हिलने नहीं दिया। शुभा की क्षतिग्रस्त योनि में से बाहर बहते रक्त की बूंदें दीप अपने अंडकोष पर महसूस कर रहा था।
धीरे धीरे वेदना की जगह संवेदना ने ली और शुभा की यौन मांसपेशियों ने अपने जीवन में प्रथम बार एक पौरुष को पकड़कर निचोड़ना शुरू किया।



शुभा, “आ…”


दीप, “अब भी पीड़ा हो रही है?”


शुभा असमंजस से व्यतीत होकर, “पता नहीं…”


दीप, “शुभा, अपने पैरों को शय्या पर रखते हुए घुटनों को ऊपर उठाकर मोड लो।”


शुभा ने दीप की बात मान कर अपने पैरों को मोड़ कर उठाया तो उसकी जांघें खुल कर फैल गई। दीप ने फिर अपनी कमर को केवल एक तिनके जितना आगे पीछे करना शुरू किया।


शुभा कराहते हुए, “माता!!…”


दीप शुभा को चूमते हुए, “अब नहीं… और नहीं…”


दीप का भाला एक लय में तिनके जितना आगे पीछे करता रहा और जल्द ही शुभा की आहोंका स्वर बदलने लगा। शुभा की सांसे तेज होने लगी और वह दीप को अपने ऊपर खींचते हुए धीरे धीरे अपनी कमर को हिलाकर दीप के भाले का प्रहार बढ़ाने लगी।


दीप ने शुभा को चूमते हुए अपने भाले के प्रहार की गहराई बढ़ाते हुए लय भी तेज करने लगा और शुभा ने अपने पैरों को शय्या पर से उठाकर दीप की कमर पर रख दिया। दीप ने अपने भाले को तर्जनी जितनी गहराई में तेज और तीव्र आघात करने दिया जिस से शुभा उत्तेजना वश हिनहिनाने लगी।


शुभा की कोरी योनि जो कौमार्यमर्दन के रक्त से भरी थी वह स्त्री कामोत्तेजना के रसों से भरने लगी। यौन पहरेदार की बलि का रक्त स्त्री कामोत्तेजना के मधु में मिलकर दीप के अंडकोष पर और शुभा के यौन होठों से बूंद बूंद कर बाहर बहने लगा।


शुभा अब पीड़ा भूलकर अपनी एड़ियों को दीप की कमर के पीछे अटकाकर यौन संतुष्टि की ओर दौड़ पड़ी।


दीप शुभा को आलिंगन में कस कर पकड़कर उसके गाल पर अपना गाल रख कर अपने कूल्हे तेजी से हिलाते हुए शुभा के कानों में उस महामंत्र का जाप कर रहा था जिसे उसने इस शय्या में अनेकानेक बार किया था,
“शुभा…
शुभा
।शुभा…
शुभा…”



शुभा यौन संतुष्टि की चरम सीमा प्राप्त कर थरथराते हुए चीख पड़ी, ”दी…
ई…
ई…
प…
ई…
दी…
प!!…
आ…
आ…
आ…
आंह!!…”



दीप शुभा के गर्भ से उमड़े मधु से स्खलित होने लगा परंतु शुभा की अबोध कोरी योनि ने उसे इतनी तीव्रता से निचोड़ा की स्खलन की अनुभूति करते हुए भी अपने वीर्य को उड़ा नहीं पाया।


दीप ने शुभा के स्खलन को कम होने दिया परंतु वह पूर्णतः खत्म होने से पहले ही दीप ने शुभा को तीव्र लंबे आघात करने लगा। दीप अपने लिंग को पहरेदार के अवशेषों तक बाहर खींच लेता और फिर तेज आघात करता लिंग को तब तक दबाता जब तक नर मादा के यौन केश घुलमिल नहीं जाते।


शुभा लगभग अचेत होकर लगातार स्खलित हो रही थी। शयनगृह रतिक्रिडा के अलौकिक ध्वनि से भर गया।


चाप…
उन्ह…
चाप…
हुंह…
चाप…
आह…
चाप…
उंह
चाप…
आह!!…
चाप…
हां…



नर मादा में कोई अंतर नहीं बचा जब मदन बाण का आघात हो गया।


अर्ध घटिका तक ऐसे ही शुभा को लोक परलोक के बीच की अधर में रख कर दीप परास्त हो गया। तेज विस्फोट के साथ दीप के शिश्न में से गाढ़े सफेद वीर्य की बड़ी मात्रा जड़ तक धंसे लिंग से यौन स्खलन से खुलते गर्भ में दौड़ पड़ी।


राजकुमारी शुभदा अपनी विवाहरात्रि में अपने प्रियकर संग व्यभिचार से थकी थी। जब राजकुमारी शुभदा अपने प्रथम यौन अनुभव से तृप्त लगभग अचेत होकर पड़ी थी पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी प्रियतमा के स्तनों के साथ खेलते हुए उसे संपूर्ण निद्रा से दूर रखा।


रक्तरंजित रात्रि युद्ध तब समाप्त हुआ जब दोनों योद्धा पूर्णतः परास्त होकर विजयी हुए। उस रात्रि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को और तीन बार अपने वीर्य से भर दिया था। अपने हल से चौथा बीज राजकुमारी शुभदा की कोख में भरने के बाद पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपने पिचके हुए लिंग को गर्व से सहलाते हुए उस पर लगा कौमार्य रक्त और वीर्य का लेप शुभ्र रुमाल पर पोंछ लिया। अपने वस्त्र पहनकर पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा की ओर देखा।


सफेद रेशम पर बिछा मोतिसा मखमली सौंदर्य लूटने के कारण अब अलग मादकता झलका रहा था। फैली हुई जांघों के बीच के घुंघराले काले यौन बालों में से टपकता रक्त मिश्रित वीर्य और स्त्री कामोत्तेजना का मधु ऐसा लेप निर्माण कर धीरे से बाहर बहते हुए मांसल गद्देदार कूल्हों के नीचे बड़ा दाग बना रहे थे। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने स्नानगृह में अचेत पड़े सेनापति अचलसेन को शयनगृह में लाया पर वह लाख कोशिशों के बाद भी उस मूर्ख को अपनी राजकुमारी शुभदा के बगल में नहीं लिटा पाया। आखिरकार पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने सेनापति अचलसेन को राजकुमारी शुभदा की शय्या के दूसरी ओर के नीचे डाल दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात्रभर पुरुषार्थ सिद्ध करने के बाद पुरुष थक कर करवट लेते हुए शय्या से नीचे गिर कर वहीं सो गया।


प्रातः के पक्षी उठने लगे थे और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को भी अपने कुटीर में से बाहर निकलना चाहिए पर…
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने चूसकर फुले दूधिया गोले देखे, चुदाकर फूले यौन होंठ देखे और अपने आप को रोक नहीं पाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक वस्त्र से राजकुमारी शुभदा की नग्नता को ढकते हुए अपने जीवन के इस अतिसुंदर अध्याय को बंद कर दिया।

सुहागरात्रि का चित्रण अत्यंत प्रचण्ड रहा भाई!

सुकुमारी शुभदा और ज्ञानदीप शास्त्री का मेल हुआ था - जैसा हम सभी पाठकों ने सही क़यास लगाया था!
प्रतीत तो यही हो रहा है कि ज्ञानदीप और शुभदा को किसी न किसी स्तर पर एक दूसरे से प्रेम है।
ऐसे में अगर क्रूर राजा उग्रवीर, राजा खड़गसेन को परास्त कर के इस राज्य और राजकुमारी शुभदा को हस्तगत कर लेता है, तो यह ज्ञानदीप की निजी पराजय होगी।
ऐसे में उसके स्वयं के मन में उग्रवीर की विजय की सम्भावना (और उसके बाद उसके स्वागत की तैयारी) - यह थोड़ा समझ से परे रहा।

उग्रवीर की सेना वहीं कहीं होगी - और छुप कर वार करने वाली होगी। ऐसी भयंकर intelligence failure कैसे हो गई?
इतनी बड़ी सेना बिना किसी चिन्ह के गायब हो जाए, तो धिक्कार है सेनापति अचलसेन के कौशल पर।

इस युद्ध को जीतने के लिए ज्ञानदीप की कोई भूमिका तो होनी ही चाहिए!

अतिसुन्दर लेखन मित्र! वाह वाह!
 

Lefty69

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प्रातः पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अश्वशाला के पीछे बनी कुटीर में से बाहर आते ही नृत्यशाला की तैयारियों को ध्यान से देखा और फिर नदी में स्नान संध्या कर मंदिर गए।


आज राज सभा सुनी पड़ी थी और कुछ वृद्ध सभासद छोड़ वहां केवल राजकुमारी शुभदा और उनकी माता थी। नगर के द्वार खुलते ही संदेशवाहकोंको नीचे भेजा गया था परंतु युद्ध की कोई वार्ता कल सुबह से पहले आना संभव नहीं था।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की सलाह से राजकुमारी शुभदा ने कुछ नित्य के कार्य पूर्ण किए और सारे प्रतीक्षा करते बैठ गए।
दोपहर के भोजन के १ प्रहर बाद कुछ सेवक दौड़ते हुए राज सभा में आए। उनके चेहरे से उड़े रंग वार्ता की दिशा बता रहे थे पर राजकुमारी शुभदा ने फिर भी शांति से बात पूछी।


सेवक, “राजकुमारी शुभदा, राजा उग्रवीर के ध्वज के साथ दूत आए हैं।”


राजकुमारी शुभदा, “उन्हें आदरपूर्वक राज सभा में ले आओ।”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री गरुड़वीर से, “तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है।”


गरुड़वीर पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के पैर छू कर चला गया और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अपने आसन पर बैठ गए।


राजदूत राज सभा में आया तो उसने राजकुमारी शुभदा को अभिवादन किए बगैर अपनी बात कहने लगा।


राजदूत, “आप लोगों ने संदेशवाहकोंको नीचे भेजा होगा। पर राजा उग्रवीर ने आपको अपनी दया का परिचय देते हुए स्वयं वार्ता भेजी है। सबसे पहले राजा उग्रवीर ने नया संधि प्रस्ताव भेजा है। यह नगर केवल वृद्ध और एक सौ रक्षा पथक के साथ सेना से युद्ध नहीं कर सकता। आप सब को बंदी दास बनाकर खदानों में तब तक काम करना होगा जब तक खदाने रिक्त नहीं हो जाती। राजकुमारी शुभदा ने राजा उग्रवीर की रखैल बनने का दुर्लभ अवसर खो दिया है पर उन्होंने एक रात्रि का विवाह किया है इसलिए उन्हें एक विशेष पद दिया जाएगा। राजकुमारी शुभदा राजा उग्रवीर के संपूर्ण सेना की एक रात्रि की शय्या दासी बनेगी। राजकुमारी शुभदा को अपने जीवन की रक्षा हेतु चिंता की जरूरत नहीं क्योंकि सेना हर रात्रि 50 सैनिकों का पथक बना के आएगी। तो राजकुमारी शुभदा अगले चार महीने व्यस्त रहेंगी। आप के राजा अपने निजी सुरक्षा पथक के साथ भस्म हो चुके हैं। आपका मूर्ख सेनापति अति मूर्खता का प्रमाण देते हुए मर गया। बाकी सैनिकों ने कुछ बुद्धि का प्रमाण देते हुए समर्पण कर दिया।”


रानी और राजकुमारी यह वार्ता सुन शोक में डूब गई। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने सेविकाओं को बुलाकर उन्हें आराम करने दूसरे कक्ष में भेज दिया। कुछ वृद्ध सभासद राजा उग्रवीर से प्रतिशोध हेतु दूतों का शिरच्छेद करना चाहते थे।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री हाथ जोड़कर नम्रता से, “आदरणीय राजदूत, जैसे आप देख चुके हैं रानी और राजकुमारी शुभदा अत्यंत व्यथित हो गई है। उन्हें आपके प्रस्ताव पर विचार करने का समय दें। साथ ही, हमें अपने संदेशवाहकों से आपकी लाई वार्ता को सत्यापित करना होगा अन्यथा कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।”


राजदूत की युद्ध से सीखी आंखें चमक गई जब उसे और उसके पथक को राज अतिथिगृह में कल सुबह तक रुकने का आग्रह किया गया।


राजदूत सभा से बाहरे निकला तो गरुड़वीर उनका आदर आतिथ्य करते हुए, “आपको पर्वतों से ऊपर आते हुए कोई कष्ट तो नहीं हुआ? सरल मार्ग विशेष लोगों के लिए ही है। जैसे जब राजा खड़गराज या अन्य राजा आना जाना चाहते हो तो उसे इस्तमाल किया जाता है।”


राजदूत मुस्कुराकर, “तुम हो गरुड़वीर जिसने राजा उग्रवीर को वह मार्ग दिखाया। सत्य बताओ, राजा उग्रवीर की सेना का संदेश आते ही तुम वहां से क्यों भागे? या तो तुम गुप्तचर हो या देशद्रोही। दोनों परिस्थिति में तुम विश्वास के पात्र नहीं हो।”


गरुड़वीर, “सत्यवचन युवराज, किंतु यदि यह देशद्रोही आपके काम आए तो आप को कोई समस्या?”


राजदूत, “तुम्हें कैसे पता की मैं राजा उग्रवीर का बेटा हूं?”


गरुड़वीर, “अपने जीवन को दांव पर लगाते हुए मैं केवल सही व्यक्ति से बात करूंगा। पहले राजा उग्रवीर और अब आप युवराज।”


युवराज, “क्यों?”


गरुड़वीर, “हर राज्य में कुछ लोग होते हैं जो राज्य से असंतुष्ट हैं। मैं योद्धा बनना चाहता था परंतु मेरी दुबली कद काठी के कारण मुझे एक सभासद बना दिया गया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को केवल उनके जन्म के कारण रोज प्रताड़ित किया जाता है।”


युवराज, “तो इस खेल के लेखक पंडित ज्ञानदीप शास्त्री हैं! वह ब्राह्मण जो जन्म से शूद्र है पर भाषा से ब्राह्मण। क्यों?”


गरुड़वीर, “क्यों ना आप आज रात्रि भोजन पश्चात अश्वशाला देखने जाएं?”


रात्रि के प्रथम प्रहर बाद युवराज अश्वशाला में अश्व देखने लगे तो एक आधिकारिक आवाज ने उन्हें अपनी ओर खींचा।


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अपने उमदा अश्व को स्वच्छ करते हुए, “पवन तुम एक अत्यंत उत्तम अश्व हो। परंतु इस राज्य में तेज अश्व नहीं केवल सफेद अश्व को प्रेम मिलता है। इसी वजह से तुम अपने निम्नस्तर के चालक को गिरा देते हो।”


युवराज, “पर यदि पवन को ऐसा चालक मिले जो उसे रंग के परे देख उसे दौड़ने दे तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “तो पवन स्वेच्छा से उसका दास होगा। यदि कोई इसे प्रतिदिन एक चक्कर के बजाय उसकी मर्जी से दौड़ने दे तो यह दौड़ते हुए मर जाएगा पर अपने चालक का काम पूर्ण करेगा और मृत्यु के लिए आभारी होगा।”


युवराज, “जब सैन्य गया तब नृत्यशाला नहीं गई पर अब नृत्यशाला का सारा सामान समेटा हुआ है। क्या हुआ?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “हारा हुआ राजा नृत्य नहीं देखेगा। शायद नृत्यशाला को नए राज्य की आवश्यकता है।”


युवराज हिम्मत जुटकर, “राजा उग्रवीर की राज सभा मिले तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “तो मैं राजकुमारी शुभदा को आपके प्रस्ताव को मानने के लिए प्रवृत्त कर सकता हूं।”


युवराज चौंककर, “पूरे सैन्य की शय्या दासी बनने के लिए भी?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “यदि आप उन्हें उनके पति और पिता का देह देने का वचन दें तो… स्त्री भावनाविवश होती है!”


युवराज, “यदि अपने पति का मृतदेह पाने के बाद राजकुमारी शुभदा मना कर दे तो?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा उग्रवीर तो अपना सैन्य वैसे भी ले आएंगे। प्रश्न यह है कि उन्हें क्या मिलेगा? एक किला जिसके अंदर के सौ सिपाही और नागरिक मृत्यु तक लड़ते हुए आपकी सेना को क्षति पहुंचाएं या एक विलाप करती राजकुमारी जो आपकी उपस्थिति में अपने पति की चिता को अग्नि दे कर आपकी दासी बन जाए।”


युवराज, “आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?”


पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “मैंने राजकुमारी शुभदा से प्रेम किया परंतु केवल जन्म के कारण मुझे स्वयंवर से निष्कासित किया गया। मैंने राजा खड़गराज, सेनापति अचलसेन और राजकुमारी शुभदा से अपना प्रतिशोध ले लिया है पर अब मुझे अपनी नृत्यशाला को यहां से सुरक्षित ले जाने के लिए आप के मार्गों को आवश्यकता है। वैसे मेरी घुटन तो आप भी समझ सकते हो। आपके समेत राजा उग्रवीर के तीन पुत्र युद्धभुमि से बाहर आ गए हैं परंतु राजा उग्रवीर अपना उत्तराधिकारी घोषित करने को तैयार नहीं। हर वर्ष के साथ आप के दो और भ्राता इस सूची में आएंगे। भला कौन वृद्ध होने के बाद राजा बनना चाहेगा? वह भी कोई और चुनौती के बाद!”


युवराज ने पंडित ज्ञानदीप शास्त्री के साथ सौदा पक्का किया और अपने राजा बनने का सपना देखते हुए राज अतिथि गृह पहुंच गए।
 
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