पंडित ज्ञानदीप शास्त्री अश्वशाला के पीछे बनी कुटीर में जाने के बजाय अश्वशाला के ऊपर बने एक गुप्त कक्ष में गए। वहां नृत्यशाला के कुछ लोग थे।
गरुड़वीर, “राजा खड़गराज सहित पूर्ण सेना पर्वतों में से उतरकर सपाट भूमि पर पहुंच गई है। राजा उग्रवीर के निजी सुरक्षा पथक के अलावा उनकी सेना दिख नहीं रही है।”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “नाट्य को रोचक कहां बनाया जाता है?”
सारे विद्यार्थी एक स्वर में, “पर्दे के पीछे!”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री, “राजा खड़गराज, पर्दे को ढूंढो वरना नाट्य का अंत कोई और लिखेगा। ऊपर आते प्रत्येक शरणार्थी को पानी दो, खाना दो और प्रत्येक शरणार्थी से बात करो। राजा उग्रवीर ने कहा था कि वह कल युद्ध करेगा तो उसकी सेना क्यों नहीं आई?”
एक छोटी नर्तकी, “उनका रथ अटक गया होगा तो? राजा उग्रवीर ने गिनती में गलती कर दी हो तो?”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री दूर देखते हुए, “राजा उग्रवीर बहुत कुछ है पर वह मूर्ख नहीं। नृत्यशाला को नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करो! अगर राजा उग्रवीर विजयी हुए तो हमें उनका योग्य स्वागत करना होगा।”
सारे विद्यार्थी अपने सर को हिलाकर हां कर चले गए।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी कुटीर में जाने के बाद अपने वस्त्र उतारे और अपने आप को चांदी के दर्पण में देखा। उसके चेहरे पर शांत मुस्कान थी पर उसकी पीठ पर नाखूनों के लंबे आघात थे। आज उसे अपने आप से घिन होनी चाहिए पर उसका मन पूर्णतः स्थिर और निश्चयी था। उसे अपने गुरू और राजा खड़गराज की तरह विश्वास था उस भविष्यवाणी पर जो राज ऋषि धीरानंद ने राजकुमारी शुभदा के जन्म के साथ की थी।
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक खुरतरी चटाई बिछाई और कल रात्रि के रेशमी चादर पर बिछी मोतीसी मखमली काया के बारे में सोचते हुए अपने भाले को डांटा,
“अति उद्दंड है तू। कल रात्रि तुझे वह स्वर्गीय सुख मिला जिसकी ओर देखने की भी तेरी पात्रता नहीं और तू अब फिर से उसे पाने के लिए लालायित हो रहा है? चुपचाप से सो जा और मुझे भी सोने दे। यदि मैं कल अपना सर इस्तेमाल नहीं कर पाया तो वह हमारा अंतिम दिन होगा।”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने आंखें बंद कर चुपके से, “दीप!… केवल तुम्हारा दीप!”
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री की स्मृति पटल पर निद्रा में कल रात्रि के क्षण चलने लगे।
राजकुमारी शुभदा, “दीप!!…”
दीप ने अपने सर को शुभदा के दूधिया गोले पर से उठाते हुए उसकी लंबी उभरी बेरी को लंबे चूसकर उठाते हुए छोड़ा था।
दीप, “हां शुभा, बोलो। जो मांगना है मांग लो!”
शुभा दीप की आंखों में देखते हुए, “मुझे नहीं पता पर… मुझे पीड़ा है। इसे ठीक करो!”
दीप ने शुभा की आंखों में देखते हुए अपने चेहरे को उसके चेहरे के इतने समीप लाया कि उनकी सांसे घुलमिलकर एक होने लगी।
शुभा मिमियाते हुए, “दीप!!…”
दीप ने शुभा पर अपना अधिकार स्थापित करते हुए अपने होठों को उसके थरथराते होठों पर लगाया और चूमने लगा।
शुभा हुं… हुं… कर रही थी पर उसके नाखून दीप की पीठ में गढ़ कर उसे अपने अंदर खींच रहे थे। दीप ने शुभा को चूमते हुए कुछ बेहद लंबे पल बिताए और फिर चूमते हुए अपने होठों को खोला। शुभा ने दीप का साथ देते हुए उसकी नकल करते हुए अपने होठों को खोला और दीप ने अपनी जीभ को शुभा के होठों के पार कर दिया।
शुभा की जीभ दीप की आक्रमणकारी जीभ से टकराई और शुभा सिहर उठी। शुभा के हाथ ऊपरी वस्त्र के बंधन को कबका त्याग चुके थे और अब कुछ करने को उत्सुक थे। दीप ने शुभा का हाथ पकड़ा और उसे अपनी धोती पर लगाया। शुभा ने सहज ज्ञान से दीप की धोती खोली और उसे एक ओर उड़ा दिया।
दीप ने शुभा को शय्या पर लिटाकर उसके शुभ्र गोलों पर प्रेम वर्षा करते हुए उसकी धोती खोल कर नीचे गिरा दी। अब दो यौन ज्वर पीड़ित बदन एक दूसरे से लिपटकर तिलमिला रहे थे जिन्हें सिर्फ अंतर्वस्त्र रोके हुए थे।
शुभा ने पहल करते हुए अपनी हथेली को दीप के अंतर्वस्त्र के ऊपर से घुमाते हुए दबाया। शुभा ने पाया कि दीप का पौरुष उसकी हथेली की लंबाई से भी बड़ा था।
दीप, “क्या तुम देखना चाहती हो?”
शुभा ने लज्जित होकर अपने सर को हिलाकर हां कहा तो दीप ने उसे अपने गले से लगाकर उसके कान में, “तो उतार दो…”
शुभा सिहर उठी और उसने दीप का अंतर्वस्त्र उतार कर उड़ा दिया। दीप के पैरों के बीच में से निकला भाला देख कर शुभा हैरान रह गई।
शुभा, “यह कितना बड़ा है! पर यह क्या और कैसे उपयोग में आता है? (दीप के आंखों में आए प्रश्न को देख कर) मेरे यहां का अंग अलग है…”
शुभा लज्जा कर, “अगर चाहते हो तो देख लो…”
दीप ने शुभा को चूमते हुए मुस्कुराकर, “जो आज्ञा…”
दीप शुभा के बदन पर प्रेमवर्षा करते हुए नीचे सरकता गया और शुभा कसमसाते हुए तड़पती रही। अंत में दीप शुभा के अंतर्वस्त्र तक पहुंचा और उसे मादक सुगंध को ढकते उस आवरण को उतार कर शय्या से नीचे गिर दिया।
शुभा के लंबे शुभ्र पैरों के जोड़ को आच्छादित करते घुंघराले काले बालों में से मादक जल की धारा उमड़ पड़ी थी। उस मादक सुगंध का पीछा करते हुए दीप की चतुर जबान स्रोत तक पहुंच गई।
दीप के होठों ने शुभा के गीले यौन होठों को चूमा और शुभा उत्तेजना से चीख पड़ी। चूमते हुए दीप के होठों ने शुभा के होठों को खोला और दीप की जबान स्त्रोत से जल पीने बड़ी पर वहां खड़े पहरेदार ने दीप की जबान को रोक दिया।
शुभा को अपने अंदर कुछ तनाव महसूस हुआ और वह डर मिश्रित उत्तेजना से चीख पड़ी, “दीप…”
दीप ने अपनी चतुर जीभ से पहरेदार को छू कर चिढ़ाया, सताया, मनाया और मार्ग देने के लिए बहलाया परंतु पहरेदार अडिग रहा। उसी समय शुभा का बदन बुरी तरह अकड़कर कांपते हुए थरथरा उठा। पहरेदार के पीछे से स्वागत की मधुर तैयारी बनकर शुभा का यौन मधु बह निकला।
दीप से अब रहा नहीं गया और वह शुभा के यौन होठों को चूमते हुए, पहरेदार को जीभ से धक्के देते हुए अपने दाहिने अंगूठे से यौन होठों के ऊपरी जोड़ में छुपे हुए यौन मोती का अनावरण किया। यौन मोती आतुर होकर फूलकर दीप के सामने आया तो दीप ने उसे प्यार से सहलाया।
शुभा चीख पड़ी, “दीप!!…”
दीप ने अपने होठों को शुभा के यौन होठों के ऊपरी जोड़ पर लगाया और अपनी जीभ से शुभा के यौन मोती के गोल गोल चक्कर लगाते हुए बीच में से ही उसे जीभ के खुर्तरे भाग से रगड़ देता। पहरेदार को मनाने का कार्य दाहिनी तर्जनी ने लिया था।
शुभा का मोती सा बदन घर्मबिंदु, पसीने की बूंदों से आच्छादित था और वह दीप को अपने गुपित पर दबाती कांपते हुए अपने सर को झटकती किसी तीव्र वेदना को झेल रही थी। धनुष्य से बाण छुटे वैसे अचानक दीप की जीभ और तर्जनी पर यौन मधु की बौछार हुई और शुभा कांपते हुए ऐसे ऐंठने लगी जैसे अकड़ी का दौरा पड़ा हो।
शुभा ने एक सुस्वप्न में से आंखें खोली तब उसने पाया कि उसके पैरों को फैलाकर उनके जोड़ में बने यौन होठों को खोल कर उनके बीच में से दीप का गरम धड़कता भाला उसे पहरेदार से यौन मोती तक रगड़ रहा था।
शुभा दीप की आंखों में देखते हुए मुस्कुराकर, “क्या यही है वात्स्यायन का कामसूत्र?”
दीप, “नहीं, पर यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं सिखा सकता हूं।”
शुभा, “क्या उसमें इतना ही मजा आता है?”
दीप, “इस से कहीं अधिक!”
शुभा लज्जित मुस्कान से, “सिखाओ मुझे!”
दीप, “मेरी आंखों में देखो शुभा। तुम इन आंखों को सदैव याद रखोगी क्योंकि अब तुम मेरी हो!”
दीप के होठों ने शुभा के होठों पर कब्जा कर लिया और दीप ने अपनी कमर को उठाया। एक हथेली से भी लंबा और तीन उंगलियों जितना चौड़ा लिंग अपने नैसर्गिक कृति के लिए योग्य दिशा में खड़ा हो गया। दीप ने शुभा के दाहिने कंधे को कस कर पकड़ते हुए अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को शुभा के सर के ऊपर के बालों में फंसाया।
शुभा ने आते प्रहार से अंजान अपने दीप की आंखों में देखते हुए चूमते हुए उसे पुकारा, “दी…
ई…
ई…
ईह…
आह!!…
आ…
आ…
आंह…”
दीप ने जोर से शुभा के होठों को दबाकर वश किया जब अथक परिश्रम कर उसका धधकता लिंग अपने घर में पूर्णतः प्रवेश कर गया।
शुभा प्रतिरोध में दीप की पीठ में नाखूनों को गड़ाकर आघात कर नहीं थी तो उसके पैर दीप से दबकर फैलने के बाद भी झटक रहे थे। शुभा के दीप से मिले नेत्र अब वेदना के अश्रु बहा रहे थे। शुभा की आंखों में एक प्रश्न था,
“यह पीड़ा क्यों?”
दीप, “अब कोई और पीड़ा नहीं होगी। यह पीड़ा तुम्हारे कौमार्यमर्दन से बनी थी और अब रुक जाएगी।”
शुभा की आंखों में जमा और वहां से बहते आंसुओं को चूमकर पीते हुए दीप ने अपने शरीर पर अनूठा नियंत्रण रखते हुए अपने गले के नीचे एक भी मांसपेशी को हिलने नहीं दिया। शुभा की क्षतिग्रस्त योनि में से बाहर बहते रक्त की बूंदें दीप अपने अंडकोष पर महसूस कर रहा था।
धीरे धीरे वेदना की जगह संवेदना ने ली और शुभा की यौन मांसपेशियों ने अपने जीवन में प्रथम बार एक पौरुष को पकड़कर निचोड़ना शुरू किया।
शुभा, “आ…”
दीप, “अब भी पीड़ा हो रही है?”
शुभा असमंजस से व्यतीत होकर, “पता नहीं…”
दीप, “शुभा, अपने पैरों को शय्या पर रखते हुए घुटनों को ऊपर उठाकर मोड लो।”
शुभा ने दीप की बात मान कर अपने पैरों को मोड़ कर उठाया तो उसकी जांघें खुल कर फैल गई। दीप ने फिर अपनी कमर को केवल एक तिनके जितना आगे पीछे करना शुरू किया।
शुभा कराहते हुए, “माता!!…”
दीप शुभा को चूमते हुए, “अब नहीं… और नहीं…”
दीप का भाला एक लय में तिनके जितना आगे पीछे करता रहा और जल्द ही शुभा की आहोंका स्वर बदलने लगा। शुभा की सांसे तेज होने लगी और वह दीप को अपने ऊपर खींचते हुए धीरे धीरे अपनी कमर को हिलाकर दीप के भाले का प्रहार बढ़ाने लगी।
दीप ने शुभा को चूमते हुए अपने भाले के प्रहार की गहराई बढ़ाते हुए लय भी तेज करने लगा और शुभा ने अपने पैरों को शय्या पर से उठाकर दीप की कमर पर रख दिया। दीप ने अपने भाले को तर्जनी जितनी गहराई में तेज और तीव्र आघात करने दिया जिस से शुभा उत्तेजना वश हिनहिनाने लगी।
शुभा की कोरी योनि जो कौमार्यमर्दन के रक्त से भरी थी वह स्त्री कामोत्तेजना के रसों से भरने लगी। यौन पहरेदार की बलि का रक्त स्त्री कामोत्तेजना के मधु में मिलकर दीप के अंडकोष पर और शुभा के यौन होठों से बूंद बूंद कर बाहर बहने लगा।
शुभा अब पीड़ा भूलकर अपनी एड़ियों को दीप की कमर के पीछे अटकाकर यौन संतुष्टि की ओर दौड़ पड़ी।
दीप शुभा को आलिंगन में कस कर पकड़कर उसके गाल पर अपना गाल रख कर अपने कूल्हे तेजी से हिलाते हुए शुभा के कानों में उस महामंत्र का जाप कर रहा था जिसे उसने इस शय्या में अनेकानेक बार किया था,
“शुभा…
शुभा
।शुभा…
शुभा…”
शुभा यौन संतुष्टि की चरम सीमा प्राप्त कर थरथराते हुए चीख पड़ी, ”दी…
ई…
ई…
प…
ई…
दी…
प!!…
आ…
आ…
आ…
आंह!!…”
दीप शुभा के गर्भ से उमड़े मधु से स्खलित होने लगा परंतु शुभा की अबोध कोरी योनि ने उसे इतनी तीव्रता से निचोड़ा की स्खलन की अनुभूति करते हुए भी अपने वीर्य को उड़ा नहीं पाया।
दीप ने शुभा के स्खलन को कम होने दिया परंतु वह पूर्णतः खत्म होने से पहले ही दीप ने शुभा को तीव्र लंबे आघात करने लगा। दीप अपने लिंग को पहरेदार के अवशेषों तक बाहर खींच लेता और फिर तेज आघात करता लिंग को तब तक दबाता जब तक नर मादा के यौन केश घुलमिल नहीं जाते।
शुभा लगभग अचेत होकर लगातार स्खलित हो रही थी। शयनगृह रतिक्रिडा के अलौकिक ध्वनि से भर गया।
चाप…
उन्ह…
चाप…
हुंह…
चाप…
आह…
चाप…
उंह
चाप…
आह!!…
चाप…
हां…
नर मादा में कोई अंतर नहीं बचा जब मदन बाण का आघात हो गया।
अर्ध घटिका तक ऐसे ही शुभा को लोक परलोक के बीच की अधर में रख कर दीप परास्त हो गया। तेज विस्फोट के साथ दीप के शिश्न में से गाढ़े सफेद वीर्य की बड़ी मात्रा जड़ तक धंसे लिंग से यौन स्खलन से खुलते गर्भ में दौड़ पड़ी।
राजकुमारी शुभदा अपनी विवाहरात्रि में अपने प्रियकर संग व्यभिचार से थकी थी। जब राजकुमारी शुभदा अपने प्रथम यौन अनुभव से तृप्त लगभग अचेत होकर पड़ी थी पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपनी प्रियतमा के स्तनों के साथ खेलते हुए उसे संपूर्ण निद्रा से दूर रखा।
रक्तरंजित रात्रि युद्ध तब समाप्त हुआ जब दोनों योद्धा पूर्णतः परास्त होकर विजयी हुए। उस रात्रि पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा को और तीन बार अपने वीर्य से भर दिया था। अपने हल से चौथा बीज राजकुमारी शुभदा की कोख में भरने के बाद पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने अपने पिचके हुए लिंग को गर्व से सहलाते हुए उस पर लगा कौमार्य रक्त और वीर्य का लेप शुभ्र रुमाल पर पोंछ लिया। अपने वस्त्र पहनकर पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने राजकुमारी शुभदा की ओर देखा।
सफेद रेशम पर बिछा मोतिसा मखमली सौंदर्य लूटने के कारण अब अलग मादकता झलका रहा था। फैली हुई जांघों के बीच के घुंघराले काले यौन बालों में से टपकता रक्त मिश्रित वीर्य और स्त्री कामोत्तेजना का मधु ऐसा लेप निर्माण कर धीरे से बाहर बहते हुए मांसल गद्देदार कूल्हों के नीचे बड़ा दाग बना रहे थे। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने स्नानगृह में अचेत पड़े सेनापति अचलसेन को शयनगृह में लाया पर वह लाख कोशिशों के बाद भी उस मूर्ख को अपनी राजकुमारी शुभदा के बगल में नहीं लिटा पाया। आखिरकार पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने सेनापति अचलसेन को राजकुमारी शुभदा की शय्या के दूसरी ओर के नीचे डाल दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात्रभर पुरुषार्थ सिद्ध करने के बाद पुरुष थक कर करवट लेते हुए शय्या से नीचे गिर कर वहीं सो गया।
प्रातः के पक्षी उठने लगे थे और पंडित ज्ञानदीप शास्त्री को भी अपने कुटीर में से बाहर निकलना चाहिए पर…
पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने चूसकर फुले दूधिया गोले देखे, चुदाकर फूले यौन होंठ देखे और अपने आप को रोक नहीं पाया। पंडित ज्ञानदीप शास्त्री ने एक वस्त्र से राजकुमारी शुभदा की नग्नता को ढकते हुए अपने जीवन के इस अतिसुंदर अध्याय को बंद कर दिया।