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Fantasy देवत्व - एक संघर्ष गाथा

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jaggi57

Abhinav
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Behad shandar update he jaggi57 Bhai,

Gajender ne kaafi samay tak vivek se kaam liya, lekin uski ek galti ne use bandi bana diya................khair jisne bhi gajender ko bandi banaya he.........vo bhi kuch kam mayavi nahi he...........lekin gajender ko jayada der tak koi bhi kaid me nahi rakh sakta.............

Ho sakta he gajender ko uski sangini bhi yahi par mile........

Agli update ki pratiksha rahegi Bhai
Bahut bahut dhanywad Ajju bhai aapke saath aur comment k liye .
Aapka anuman sahi bhi ho sakta hai dekhte hai aage kya hota hai
Aise hi saath banaye rakhe 🙏🌹🌹
 
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jaggi57

Abhinav
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Adhbhud update he jaggi57 Abhinav Bhai,

Gajender aur Virupaksh ke yudh ka bahut hi sunder chitran kiya he aapne................kaafi dino baad koi dev lok apar aadharit kahani padhne ko mili he.........

Gazab ka likha rahe ho aap Bhai.............Keep posting
बहुत-बहुत धन्यवाद भाई आपकी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए ऐसे ही अपना साथ बनाए रखें:thankyou::thankyou:
 
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Naik

Well-Known Member
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अध्याय - 12

याग्नेश को इसी समय काल में छोड़कर आइए अब हम चलते हैं समय के उस कालखंड में जगदेव नगर का निर्माण भी नहीं हुआ था जानते हैं देव नगर के देवता गजेंद्र और भूमि के इस भूभाग के कुछ रहस्य के बारे में।

बात उस समय की है जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ में माता सती द्वारा अपने प्राणों का परित्याग करने के पश्चात भगवान भोलेनाथ संसार से विरत होकर पृथ्वी के ऐसे भूभाग में गए जहां अब तक कोई गया नहीं था।

निर्विघ्न रूप से अपने मूल स्वरूप में स्थित होने के लिए उनकी समाधि में कोई व्यवधान ना हो इस कारण उन्होंने उस भूखंड को ऐसे ऊर्जा कवच आच्छादित कर दिया कोई भी देवता या बाहरी जीव इस क्षेत्र में ना तो प्रवेश कर पाए और ना ही देख पाए ।

पृथ्वी का यह भूखंड चारों तरफ से पर्वतों से घिरा हुआ था विभिन्न प्रकार के सरोवर और झरने यहां की सुंदरता को और बढ़ा रहे थे हर प्रकार की वनस्पतियों के पौधे एवं वृक्षों के घने जंगलों से आच्छादित दिव्य सुगंध से परिपूर्ण या क्षेत्र अद्भुत था।

इस प्रकार संसार से विलग होकर हजारों वर्ष भोलेनाथ ने यहां ध्यान किया ध्यान का उद्देश्य पूर्ण होने के पश्चात भोलेनाथ वापस कैलाश लौट गए ।

समाधि अवस्था मे भोलेनाथ के शरीर से निकलती हुई दिव्य ऊर्जा उस भूमि में समा गई थी , शिवतेज से परिपूर्ण वह भूखंड अब एक अलग ही शक्ति से आच्छादित हो गया।
उसी समय पाताल लोक मे असुरो का राजा अनलासुर तपस्यारत था । एक पैर पर खडा होकर पिछले 100 वर्षों से ब्रह्मा जी के कठिन तप कर रहा था उसके अद्भुत तप को देखकर देवताओं ने कई बार विघ्न उपस्थित करने का प्रयास किया , क्योंकि वह जानते थे के यदि इसकी तपस्या पूर्ण हुई तो सर्वप्रथम देवलोक और तत्पश्चात मानव लोक भारी संकट में आजाएंगे। परंतु अनलासूर के तेज के आगे देवताओं के संपूर्ण प्रयास विफल रहे उसके तप के प्रभाव से आखिर में ब्रह्मा जी को आना ही पड़ा


ब्रह्मा जी - नेत्र खोलो पुत्र ! मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूं कहो क्या कारण है, इस घोर तपस्या का, क्या चाहते हो मुझसे कहो।

ब्रह्मा जी के तेज का अनुभव कर और उनकी वाणी सुनकर अनलासूर ने अपने नेत्र खोलें , सामने अपने इष्ट को देखकर दोनों हाथ जोड़कर प्रथम उनके चरणों में प्रणाम किया फिर बोला

अनलासूर - प्रभु आपके दर्शन कर मैं अभिभूत हुआ । मैं तो केवल असुरों के न्याय के लिए तपस्यारत था , आप तो सृष्टि कर्ता है । एक पिता के लिए उसके सभी पुत्र समान होने चाहिए परंतु असुरों के लिए यह भेदभाव क्यों हम असूर किसी भी प्रकार से देवताओं से कम नहीं है , फिर क्यों देवताओं को स्वर्ग और हमें पताल लोक में नर्क जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता है।

ब्रह्मा जी - पुत्र इस संसार में जिसको जो भी प्राप्त होता है वह उसके कर्मानुसार ही प्राप्त होता है । असुर सदैव पाप कर्म और हिंसा में लिप्त रहते हैं इसी कारण उन्हें पाताल लोक प्राप्त हुआ है । उसी कर्म विधान के कारण तुम्हारे उत्तम तप के फल स्वरुप मैं यहां तुम्हें वांछित फल देने के लिए उपस्थित हुआ हूं।

अनलासुर - कर्म विधान प्रभु क्या कभी देवताओं ने कोई अपराध नहीं किया कोई पाप कर्म नहीं किया देवताओं के हर कर्म पर उन्हें पुरस्कार प्राप्त होता है और हम असुरों को मृत्युदंड अब सृष्टि में मैं ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगा इसलिए है प्रभु आप मुझे ऐसा वर दो जिससे मेरी मृत्यु ना हो मैं सबके लिए अवध्य रहूं।

ब्रह्मा जी - पुत्र मृत्यु तो अटल है इस संसार में जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित हुई है तुम उसी के समकक्ष कोई और वरदान मांग लो।

अनलासुर - ठीक है प्रभु तो यह वरदान दीजिए कि मैं त्रिदेवो तथा त्रीदेवीओं द्वारा देवताओं द्वारा और आपकी सृष्टि के किसी भी जीव द्वारा अवध्य रहूं।

ब्रह्मा जी तथास्तु कहकर वरदान देकर अपने लोक चले गए।

ब्रह्मा जी से वरदान पाकर अपने बल और सामर्थ्य के मद में चूर अनलासूर ने अपनी असुर सेना एकत्रित कर स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी ।
उस के बल और सामर्थ्य के आगे देवता टिक नहीं पाए , और उन्हे स्वर्ग से निष्कासित होना पड़ा । संपूर्ण त्रिलोकी पर विजय प्राप्त कर अनलासुर ने अपना एकछत्र शाषन स्थापित किया । उसने सब जगह धर्म कार्य यज्ञ देव पूजन इत्यादि ऐसा कोई भी अनुष्ठान जिससे देवताओं को बल मिले सभी बंद करवा दिए ।

ब्रह्माजी द्वारा उसने कर्मों के सिद्धांत को सुन रखा था के दुष्कर्म का प्रभाव हमेशा ही व्यक्ति के जीवन पर दुष्प्रभाव करता है। इसलिए उसने तीनों लोगों में कर्म सिद्धांत और न्याय की स्थापना की, परंतु वह यह भूल गया कि अपने सिद्धांत लागू करने में और धर्म कार्य बंद करवाने में कितने ही निर्दोषों की उसने हत्या करवाई थी कितना अत्याचार और कितनी निर्ममता अपनाई थी।

वहीं दूसरी ओर अपनी समस्या का कोई समाधान ना पाकर देवता छुपते छुपते दर-दर भटक रहे थे। उस समय भोलेनाथ भी सृष्टि से विरत होकर अज्ञात स्थान पर तप कर रहे थे जैसे ही भोलेनाथ कैलाश वापस आए सभी देवता अपने समाधान हेतु कैलाश पहुंचे भगवान भोलेनाथ को अपने सम्मुख पाकर सभी प्रसन्ना हुए।

देवराज इंद्र ने भोलेनाथ को प्रणाम कर सभी देवताओं की समस्या का वर्णन किया

भोलेनाथ - हे देवताओं ! तुम्हारी समस्या से मैं अवगत हूं , परंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण मैं सीधे-सीधे तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता परंतु तुम्हारी समस्या के समाधान का मार्ग आवश्य बता सकता हूं।

तुम सभी देवता पृथ्वी के उस भूखंड में जाओ जहां मैं तपस्यारत था। उस भूमि में समाई मेरी उर्जा द्वारा तुम्हें तुम्हारी समस्या का समाधान प्राप्त हो जाएगा।

उस भूखंड को मैंने एक ऊर्जा परत से आच्छादित कर दिया है इस कारण वह क्षेत्र किसी बाहरी व्यक्ति के लिए अदृश्य है।
वहां तुम सब असुरों की दृष्टि से भी सुरक्षित रहोगे और बिना व्यवधान अपना कार्य संपन्न कर सकोगे।

वहां तुम सब जाकर तप करो , तप ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे हर समस्या का समाधान प्राप्त हो सकता है। इतना कहकर भगवान भोलेनाथ ने सभी देवताओं को उसी जगह पहुंचा दिया जहां वह समाधि में थे।

उस अद्भुत भूखंड पर पहुंचते ही देवताओं का मन शांत हो गया वहां उन्हें भोलेनाथ की उर्जा का भी अनुभव हुआ ।

सभी देवता वहां अपने लिए उचित स्थान बनाकर तपस्या करने के लिए बैठ गए, तप करते हुए उन्हें वहा कई वर्ष बीत गए
तप करते हुए उनके शरीर से ऊर्जा निकलने लगी उन सबकी उर्जा वहां एक स्थान पर जहां भगवान भोलेनाथ का तेज समाया हुआ था उस जगह समाने लगी शिवतेज और देवताओं का तेज मिलकर एक दिव्य तेज पुंज मैं परिवर्तित हो गया।

अग्नि देव वायु देव और वरुण देव के तेज ने जैसे ही उस भूमि से स्पर्श किया उस तेज पुंज ने एक बालक का आकार धारण करना शुरू किया धीरे-धीरे वह आकार 5 वर्ष की अवस्था वाले एक दिव्य बालक के रूप में परिवर्तित हो गया।

उस बालक का रूप बड़ा ही दिव्य था , सुनहरे बाल , श्वेत धवल रंग, मस्तक पर दिव्यतेज, कोमल भुजाएं और सब को अपनी ओर आकर्षित करने वाले नीले नेत्र ।

उस बालक ने जब अपने नेत्र खोलें तो अपने चारों ओर देखा तत्पश्चात अपने आपको देखा , सर्वप्रथम उसके मन में प्रश्न प्रकट हुआ के मैं कौन हूं ? कौन मेरे माता-पिता है ? किस कारण मेरी उत्पत्ति हुई है ? ऐसे अनेकों प्रश्न इस बालक के मन में उठने लगे।


अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए उसने चारों और देखा तो वहां उसे देवता ध्यान की अवस्था में बैठे हुए नजर आए। उत्सुकता वश और अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए बालक जैसे ही उन देवताओं की और बढा तो उसे वहां पास की ही झाड़ियों के पीछे से वृक्षों के गिरने का और अनेक पंछियों का स्वर सुनाई दिया ।

बाल सुलभ उत्सुकता वश वह बालक स्वर की दिशा में चल दिया जैसे ही वह उन बड़ी-बड़ी झाड़ियों के उस पार पहुंचा तो उसने वहां अनेक सुंड वाला श्वेत रंग का एक विशाल हाथी देखा जो वहां के वृक्षों को उखाड़ उखाड़ कर उन वृक्षों के फलों का रसास्वादन कर रहा था , जिस कारण उन वृक्षों पर स्थित अनेक पंछियों के घोंसले नष्ट हो गए थे उन पंछियों का करुण क्रंदन सुनकर उस बालक ने उस विशाल हाथी को रोकने का निश्चय किया।


बालक - हे रुको! तुम इस प्रकार इस वन को नुकसान नहीं पहुंचा सकते, रुक जाओ !!

उस बालक की आवाज सुनकर गजराज ने एक बार मुड़ कर देखा और फिर वापस अपने काम में लग गया।

अपनी बात का उस गजराज पर कुछ भी असर ना होता हुआ देखकर उस बालक को क्रोध आ गया , जहां वाणी से कार्य ना हो वहां बल से ही कार्य संपन्न करना पड़ता है यह बात सोच कर बालक आगे बढ़ा और उसने उस गजराज की झूलती हुई पूछ को पकड़कर पीछे खींचा ।
दिखने में तो वह बालक कोमल एवं बहुत छोटा सा दिखता था परंतु उसकी हल्के से खींचने मात्र से ही वह विशाल गजराज पीछे की और घसीटता हुआ चला गया।


पुंछ के खींचे जाने और पिछे घसीटने के कारण उस गजराज को अत्यन्त क्रोध आया, वह बालक की ओर मुड़ गया और उसकी ओर देखकर जोर-जोर से चींघाड़ने लगा।

बालक उस गजराज की ओर देखकर अपना एक हाथ ऊपर उठाकर उसके नेत्रों में झांकते हुए उसे शांत रहने का इशारा किया।

उस बालक के नेत्रों में ना जाने क्या वशिकरण था के उस गजराज का चिंघाड़ना बंद हो गया वह गजराज उस बालक की ओर घूर घूर कर देखने लगा।

बालक - तुम इस प्रकार इस वन को नुकसान नहीं पहुंचा सकते । देखो तुमने अपने स्वार्थ के लिए वृक्षों पर रहने वाले कितने पंछियों के घरोंदो को उजाड़ दिया है। यदि फल ही खाने हैं तो नीचे देखो कितने पके हुए फल गिरे पड़े हैं यदि ताजे फल खाने हैं तो वृक्षों को हल्का सा हिलाने मात्र से ही वह फल तुम्हें प्राप्त हो जाएंगे उसके लिए इन्हें उखाड़ कर नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।

उस बालक के सम्मोहन में बंधा हुआ गजराज अब तक उसकी बातें शांति से सुन रहा था , परंतु उस वन के सुगंधित फलों की मनमोहक सुगंध ने उसका ध्यान फिर से अपनी और आकर्षित किया , जिससे गजराज का सम्मोहन टूट गया उसने अपने सिर को एक बार झटका और चिंघाडते हुए इस बालक की और उसे मारने के लिए दौड़ा।

उस बालक ने जब उस विशाल गजराज को अपनी तरफ आते हुए देखा तो वह भी अपनी आत्मरक्षा के लिए सज्ज हो गया जैसे ही वह गजराज उस बालक से टकराने वाला था तभी उस बालक ने बड़ी फुर्ती के साथ हाथी की सूंड को पकड़कर एक झटका दिया जिससे वह हाथी भूमि पर गिर पड़ा ।

एक नन्हे से बालक के द्वारा भूमि पर गिराए जाने को देखकर वह गजराज और भी क्रोध में भर आया भूमि से उठकर एक बार फिर उस बालक को रोकने के लिए उसकी और दौड़ा अपनी तरफ आते हुए गजराज को देखकर बालक ने छलांग लगाई और वह गजराज के सिर के ऊपर पहुंच गया, अपने नन्हे नन्हे हाथों से उसने उसने गजराज के सिर पर एक प्रहार किया उस प्रहार का प्रभाव इतना था वह गजराज वहीं रुक गया और पीड़ा के कारण जोर जोर से चिंघाडने लगा।

वह गजराज और कोई नहीं देवराज इंद्र का वाहन ऐरावत था उसके जोर-जोर से चिंघाड़ने की ध्वनि देवताओं तक पहुंची जिस कारण उन सभी देवताओं का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। अपने प्यारे ऐरावत का ऐसा स्वर सुन देवराज को लगा कि उनका वाहन ऐरावत आवश्य किसी संकट में फस गया है ।

कहीं कोई असुर तो यहां तक नहीं पहुंच गए , ऐसा विचार आते ही सभी देवता ऐरावत की ध्वनि की दिशा में चल पड़े तब तक ऐरावत की ध्वनि आना भी बंद हो गई थी ।

सभी देवता जब झाड़ियों के उस पार पहुंचे उन्होने ने अद्भुत नजारा देखा। उन्होंने देखा कि एक बालक ऐरावत के सिर पर अपना हाथ रखे उसके ऊपर बैठा है।


उस बालक को इस प्रकार अपने ऐरावत पर बैठा हुआ देखकर देवराज के मन में शंका उत्पन्न हुई कि कहीं ये कोई असुरी माया तो नहीं यह बालक यहां कहां से आया ? और कौन है ? कहीं कोई असुर ही तो नहीं जो इस बालक का रूप धारण करके यहां आया हो।

देवराज इंद्र - कौन हो तुम और यहां कैसे आए और क्यों इस गजराज को प्रताड़ित कर रहे हो। मैं जानता हूं कि तुम कोई असुर हो इसलिए चुपचाप अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाओ तो हो सकता है मैं तुम्हें यहां से जीवित जाने दूं।

बालक - आप कौन हो जो इस प्रकार मुझे आदेश दे रहे हो और यह क्या कह रहे हो वास्तविक स्वरूप यही मेरा वास्तविक स्वरूप है मैं कोई असुर नहीं और रही बात इस गजराज की तो आप स्वयं देखो इसने यहां कैसा उत्पात मचा रखा है , यदि मैं इसे ना रोकता यह संपूर्ण वन को नष्ट कर देता । प्रकृति हमारा पोषण करती है हमें उसका संरक्षण करना चाहिए उसके लिए किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

देवराज - यह व्यर्थ का ज्ञान हमें ना दो तुरंत हमारे एरावत से नीचे उतर आओ और अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट करो अन्यथा तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा।

देवराज की बात सुनकर उस बालक ने गजराज के सिर पर हल्की सी थपकी देकर कुछ इशारा किया , वह इशारे को समझ कर वह गजराज नीचे बैठ गया और बड़ी सावधानी से उस बालक को अपने सिर के ऊपर से भूमि पर उतार दिया । अपने ऐरावत को उस बालक के इशारे को समझकर कार्य करते हुए देखकर देवराज बड़े आश्चर्यचकित हो गए।

बालक - मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं कोई असर नहीं हूं , आप क्यों बार-बार मुझे असुर कह कर संबोधित कर रहे हो मैं कौन हूं कहां से आया हूं यह सब नहीं जानता हूं।

देवराज - तुम इस प्रकार नहीं मानोगे , यह स्थान भगवान शिव के द्वारा सुरक्षित है या कोई भी नहीं आ सकता तो एक बालक किस प्रकार यहां आ गया । आवश्य तुम कोई मायावी असुर हो मेरे इतना कहने पर भी तुम अपने वास्तविक स्वरूप में प्रगट नही हुए तुमने मुझे अपने बल का प्रयोग करने पर विवश कर दिया है।

इतना कहकर देवराज इंद्र ने बालक पर प्रहार करने के लिए अपना वज्र उठाया , तभी वहां आकाश में प्रकाश उत्पन्न हुआ और
आकाशवाणी हुई -

हे देवराज इंद्र !! आप जिस समस्या के समाधान के हेतु यहां तपस्या कर रहे थे , यह बालक उसी समस्या का समाधान है ।यह बालक आपके तथा संपूर्ण देवता के और शिव जी के तेज से उत्पन्न हुआ है इस कारण यह आप सब का पुत्र है।

आकाशवाणी सुनकर वहां उपस्थित सभी देवगण आश्चर्यचकित हो गए आकाशवाणी के शब्द उस बालक ने भी सुने थे जिससे वह कुछ कुछ तो समझ गया था , के उसकी उत्पत्ति इन्हीं देवताओं द्वारा हुई है ।

वहीं दूसरी ओर देवराज ने भी अपना वज्र नीचे कर लिया था और उस बालक को बड़े स्नेहा से देखने लगे थे ।

आकाशवाणी द्वारा उन्हें पता चल गया था के यह बालक उन सब का पुत्र है देवराज इंद्र ने उस बालक को इशारे से अपनी और बुलाया, देवराज इंद्र का इशारा पाते ही वह बालक धीरे-धीरे उनकी और पहुंचा और देवराज इंद्र के चरणों में प्रणाम किया।


अपने चरणों में प्रणाम करते हुए उस बालक को देखकर देवराज ने स्नेहा से अपना हाथ उसके सिर पर रखा एक बालक के सिर पर हाथ रखते ही देवराज इंद्र के नेत्रों के आगे उस बालक की उत्पत्ति के संपूर्ण रहस्य उजागर हो गए।

आज के लिए इतना ही ----------- अगला अध्याय जल्द ही ।
स्वस्थ रहे और प्रसन्न रहें।
Bahot badhiya shaandar update bhai
& Welcome back again brother
 

Naik

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Update - 13

आकाशवाणी द्वारा उन्हें पता चल गया था के यह बालक उन सब का पुत्र है देवराज इंद्र ने उस बालक को इशारे से अपनी और बुलाया, देवराज इंद्र का इशारा पाते ही वह बालक धीरे-धीरे उनकी और पहुंचा और देवराज इंद्र के चरणों में प्रणाम किया।

अपने चरणों में प्रणाम करते हुए उस बालक को देखकर देवराज ने स्नेह से अपना हाथ उसके सिर पर रखा एक बालक के सिर पर हाथ रखते ही देवराज इंद्र के नेत्रों के आगे उस बालक की उत्पत्ति के संपूर्ण रहस्य उजागर हो गए।

अब आगे -------


देवराज का स्नेह से भरा हुआ अपने मस्तक पर स्पर्श पाकर वह बालक अभिभूत हो गया सभी देवताओं को आदर पूर्वक प्रणाम करते हुए वह बालक बोला

बालक - आप सभी के चरणों में मेरा प्रणाम हैं। आकाशवाणी द्वारा मुझे इतना तो ज्ञात हो गया कि मेरी उत्पत्ति आप सभी से हुई है , इसलिए आप सभी मेरे लिए पिता समान हुए परंतु अभी भी मैं अपने जीवन के लक्ष्य से अनभिज्ञ हूं और मेरा कोई नाम भी नहीं है। इसलिए आप सभी से प्रार्थना है कि कृपया करके मेरे जीवन की उत्पत्ति के रहस्य भेरे प्रति उजागर करें।

इस बालक की मधुर वाणी सुनकर सभी देवता प्रसन्न हुए देवराज इंद्र से बोले

देवराज - हे पुत्र ! तुम्हारी बात यह दर्शाती है फिर तुम अद्भुत गुणों से संपन्न हो हमें बड़ी प्रसन्नता है कि तुममे अपने जीवन के लक्ष्य को जानने की उत्सुकता है ,और मेरे गजराज को जिस प्रकार से तुमने अपने वश मे किया वह तुम्हारे बल बुद्धि और विवेक को दर्शाता है। तुम वास्तव मे अद्भूत हो ।

इसके पश्चात देवराज ने अनलासुर की तपस्या से लेकर यहां आने का कारण सब कुछ उस बालक से कह सुनाया और कहां

देवराज -- पुत्र तुम्हारा निर्माण हम सभी देवताओं की उर्जा से हुआ है , इसलिए तुम हम सभी के पुत्र हुए ।

तुमने प्रकट होते ही मेरे गजराज ऐरावत को वश में किया जिसे मेरे सिवा कोई नहीं कर सकता इसलिए आज से तुम्हारा नाम होगा-----

--- गजेन्द्र।


सभी देवताओं की सम्मिलित ऊर्जा के द्वारा उसका जन्म और देवराज द्वारा अपने दिए गए नाम " गजेंद्र " को सुनकर बालक सभी के आगे नतमस्तक हो गया उसने देवराज इंद्र के चरणों में प्रणाम किया , देवराज ने भी स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे आशीर्वाद दिया।

बालक -- स्वयं देवराज द्वारा मेरा नामकरण , यह मेरे लिए अत्यन्त गौरव की बात हैं ।
मै आपके दिये हुए इस नाम को स्वीकार करता हू।
आप सभी मेरे जन्म दाता हो इसलिए मेरे लिए पिता तुल्य हो , मेरे द्वारा पूर्व में की गई धृष्टता के लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूं ।


संसार के प्रत्येक घटनाक्रम के पीछे कोई ना कोई उद्देश्य अथवा कारण तो होता ही है ऐसी परिस्थिति में आप सभी देवताओं की ऊर्जा द्वारा मेरा निर्माण किसी न किसी उद्देश्य की ओर इंगित करता है, मेरे लिए क्या आज्ञा है कृपया मुझे बताएं।

देवराज -- पुत्र मुझे प्रसन्नता हुई है देख कर कि तुममें बुद्धि , बल और ज्ञान के साथ-साथ अपने कर्म के प्रति सजगता भी है।

इस समय संसार में अनलासुर नाम का असुर भयंकर उत्पात मचाए हुए हैं । ब्रह्मा जी के वरदान के कारण ना तो हम देवता और ना ही त्रिदेव मे से कोई उसका वध कर सकता है । उसका वध करके संसार में शांति स्थापित करने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है।

देवराज इंद्र के मुख से अपने जीवन का उद्देश्य जानने के पश्चात गजेंद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ

गजेंद्र -- ईश्वर ने मुझे ऐसे महान कार्य के लिए चुना है यह मेरे लिए परम गौरव की बात है परंतु मैं अभी युद्ध कला आदि और शक्तियों के प्रयोग से अनभिज्ञ हूं , कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए। जिससे मैं अपने कार्य में सफल हो सकूं।

देवराज -- इसके लिए तुम्हें तनिक भी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है वत्स , तुम्हें आगे आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करना हम सब का कार्य है।

तुममें पहले से ही हम सब देवताओं की शक्तियां समाहित है , तुम्हें बस ध्यान योग के द्वारा अपने भीतर उन शक्तियों को खोजना है , तत्पश्चात उनके उपयोग करने की कला का अभ्यास करना होगा जो हम सभी देवता मिलकर करायेंगे।

उसके पश्चात गजेन्द्र का देव गुरु बृहस्पति द्वारा ध्यान योग की शिक्षा और देवराज तथा अन्य देवताओ द्वारा अस्त्र - शस्त्र व शक्तियों के प्रयोग का अभ्यास शुरू हो गया।


देखते ही देखते गजेंद्र इन सब में पारंगत हो गया और उसने बहुत शीघ्र ही अपने भीतर की शक्तियों को अपने नियंत्रण में करना सिख लिया । शस्त्रों के साथ-साथ शक्तियों के प्रयोग की कला भी उसने बड़ी शीघ्रता के साथ सीख ली थी ।

जितनी शीघ्रता से वह सारी विद्याये सीख रहा था उतनी ही शीघ्रता से उसका शरीर भी बदल रहा था 5 हफ्ते के कम समय में ही अब वह 18 साल के , एक बलिष्ठ युवा की भांति लग रहा था। कम समय मे वह पुर्ण रुप से एक योद्धा बन गया था । जिसे देखकर सभी देवता भी बहुत प्रसन्न थे ।

गजेंद्र को पूर्ण रूप से एक योद्धा के रूप में तैयार हुआ देखकर देवराज को विश्वास हो गया कि अब स्वर्ग उनसे ज्यादा दूर नहीं है उन्हें शीघ्र ही अनलासुर पर विजय प्राप्त करने की योजना पर कार्य करना होगा।



ऐसे ही एक दिन जब सभी देवता विश्राम कर रहे थे और गजेंद्र युद्ध अभ्यास कर रहा था । तभी वहां की भूमि में कंपन होने लगा जैसे कोई भूकंप आया हो और वहां उसे किसी की भयंकर गर्जना सुनाई दी।

उस भयंकर गर्जना को सुनकर गजेंद्र ने देवताओं के चारों ओर सुरक्षा कवच का निर्माण कर दिया जिससे उनके विश्राम में कोई व्यवधान ना हो और स्वयं आने वाले अज्ञात शत्रु का सामना करने के लिए सज्ज हो गया।

अभी कुछ ही क्षण हुए थे के उसने देखा एक विशाल दैत्याकार दानव जिसके तीन नेत्र धधकती हुई ज्वालामुखी के समान प्रतीत हो रहे थे , विशाल भुजाएं एवं विशाल शरीर के कारण वह बहुत ही भयावह दिख रहा था वह बारंबार अपने गिरिकंदरा जैसा विशाल मुंह खोलकर भयंकर गर्जना कर रहा था , उसके हाथ में एक विशाल तेज पूर्ण शूल था।

अपनी और बढ़ रहे अद्भुत विशाल दानव को देखकर गजेंद्र को बड़ा भारी विस्मय हुआ।
उस दानव की जैसी दृष्टि गजेंद्र एवं विश्राम करते हुए सभी देवताओं पर पड़ी तो वहीं रुक गया और अपने नेत्र फाड़ कर गजेंद्र को घूरने लगा और वाह ---वाह --- भोजन ,,,,भोजन ,,,इतना सारा भोजन आज तो मै भरपेट खाऊंगा।

अपनी ओर इस प्रकार घूरते हुए देखकर गजेंद्र भी पूर्ण सावधान हो गया और उस दानव के यहां आने का अभिप्राय जानने के लिए बोला---
गजेंद्र - कौन हो तुम अपने विशाल शरीर और अपनी भयंकर गर्जना के द्वारा क्यों यहां के वन्य प्रदेश को तहस-नहस कर रहे हो अपना परिचय दो और हमें देखकर इस प्रकार भोजन भोजन कहकर क्यों चिल्ला रहे हो।

दानव - हे बालक मैं एक ब्रह्मराक्षस हूं और यह समय मेरे भोजन का है । मैं भूखा हूं प्रकृति ने ही यह निर्धारित किया है कि मेरे भोजन काल में जो भी जिव मेरे सामने उपस्थित होगा वह मेरा आहार होगा ।
आज मैं बहुत प्रसन्न हूं क्योंकि आज तुम और यहां विश्राम कर रहे यह सब मेरा आहार बनेंगे आज मुझे पर्याप्त मात्रा में भोजन प्राप्त हो जाएगा मैं तृप्त हो जाऊंगा इसलिए अब मेरा आहार बनने के लिए तैयार हो जाओ।


गजेंद्र - रुको ! जिस प्रकृति की तुम बात कर रहे हो वह प्रकृति बिना कारण ऐसे किसी की हत्या करने का अधिकार किसी को भी नहीं देती इसलिए सीधे-सीधे यहां से चले जाओ अन्यथा भयंकर परिणाम के लिए तैयार रहो, खाने के लिए प्रकृति ने फल कन्द मूल और भी बहुत सी वस्तुओ की व्यवस्था की है , उन्हे खाकर अपनी क्षुधा शांत करो।

ब्रह्मराक्षस - वाह बहुत अच्छे ! तुम रोकोगे मुझे , है तुममें इतना सामर्थ्य ! चलो पहले यही करके देख लेते हैं । मैं तुम्हें पूर्ण अवसर देता हूं अपनी तथा इन लोगों की रक्षा का मेरे लिए भी मनोरंजन हो जाएगा तत्पश्चात तुम सबको तो मेरा आहार बनना ही है । हा हा हा हा -------


गजेंद्र - तुम इस प्रकार नहीं मानोगे तो यह लो परिणाम के लिए तैयार हो जाओ-----

इतना कहकर गजेंद्र ने अपने दोनों हाथ हवा में लहरा कर अपनी उर्जा से एक गोला बनाकर उस ब्रह्मराक्षस पर प्रहार किया जिसे उस ब्रह्मराक्षस ने बड़ी सहजता के साथ किसी गेंद की भांती अपने हाथ में पकड़ लिया और वापस गजेंद्र की और फेंक दिया । अपनी ओर आते हुए अपनी उर्जा के पिंड को देखकर गजेंद्र ने अपना बांया हाथ हवा में लहरा कर उस तेज को वापस अपने भीतर समा लिया।

इस प्रकार इतनी आसानी से शक्ति को रोककर और वापस प्रहार करना देखकर गजेंद्र को ये आभास हो गया कि यह कोई साधारण दानव नहीं है।

गजेंद्र - ( मन में ) यह कोई साधारण दानव नहीं है , मुझे अपनी पूर्ण शक्ति से इस पर वार करना पड़ेगा।
इस बार उसने अग्नि तत्व की उर्जा से एक बड़ा सा अग्नि पिंड बनाकर उस ब्रह्मराक्षस की ओर प्रहार किया परंतु देखते ही देखते उस प्रचंड अग्नि पिंड को उस ब्रह्मराक्षस ने अपने विशाल मुख में समा लिया।

गजेंद्र ने अग्नि तत्व का प्रयोग करते हुए बड़े-बड़े आग के गोलो से प्रहार किया, वायु तत्व का प्रयोग करते हुए बड़े बवंडर अर्थात चक्रवात से भी प्रहार किया, आकाश तत्व की आकाशीय ऊर्जा का भीषण विद्युत प्रहार भी किया , पृथ्वी तत्व से बड़े-बड़े पत्थरों से प्रहार किया, परंतु उस ब्रह्मराक्षस पर सभी व्यर्थ रहा।
गजेंद्र ने क्रमशः वायु तत्व और जल तत्व ऊर्जा से प्रहार किया परंतु वह भी उस ब्रह्मराक्षस के आगे निष्क्रिय हो गया।

ब्रह्मराक्षस - बस इतना ही बल है तुम्हें बच्चे ! तुम्हारा हो गया हो तो अब मैं अपना कार्य करूं, वैसे भी मुझे बहुत भूख लगी है , मुझसे और प्रतिक्षा नही हो रही।

गजेंद्र - अभी कहां ! अभी तो यह शुरुआत है ,
इतना कहकर गजेंद्र ने पंचतत्व की ऊर्जा को अपनी हथेली में एकत्रित किया और अपना दायां हाथ भूमि पर रखकर ब्रह्मराक्षस की ओर देखने लगा और देखते ही देखते भूमि से विशाल तथा मजबूत लताएं निकलकर ब्रह्मराक्षस को जकड़ने लगी । भूमि से निकलती हुई उन बेलो ने ब्रह्मराक्षस को पूरी तरह से जकड़ लिया ।

अब गजेंद्र ने अपनी आंतरिक मारक उर्जा का संचार उन बेलों में कर दिया जिससे वह बेले और मोटी होकर जकड़ने लगी उन बेलो में भयंकर विद्युत प्रभाव होने लगा।
और साथ ही साथ उन बेलो से मोटे मोटे कांटे भी प्रगट होने लगे जो उस ब्रह्मराक्षस के विशाल शरीर के भीतर प्रवेश करने का प्रयत्न करने लगे। उन बेलो के भयंकर मारक विद्युत प्रवाह और कांटो का ब्रह्मराक्षस पर कोई असर ना होता हुआ देखकर गजेंद्र आश्चर्यचकित हुआ ।

गजेंद्र के इतने भयंकर प्रहार जिनका सामना शायद देवता भी ना कर पाए , उन भयंकर प्रहारों से ब्रह्मराक्षस के शरीर पर एक खरोच तक नहीं आई थी, वह ब्रह्मराक्षस गजेंद्र के प्रत्येक प्रहार का प्रतिकार करते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई पिता अपने पुत्र से खेल रहा हो।

ब्रह्मराक्षस - वाह अद्भुत ! मानना पड़ेगा तुम्हें तुम्हारी यह कला तो बड़ी अद्भुत है परंतु तुम्हारे यह सब खेल मुझ पर कोई असर नहीं करने वाले

गजेंद्र - बंध तो तुम चुके ही हो ब्रह्मराक्षस ! अब यदि यहां से जाने का वचन देते हो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूं अन्यथा मुझे तुम पर अपने शास्त्रों का प्रयोग करना पड़ेगा ।

ब्रह्मराक्षस - बच्चे ! तुम्हारे ये घास फूस मुझे बांध नहीं सकते , मैं तो अब तक बस तुम्हारा खेल देख रहा था । इतना कहते ही ब्रह्मराक्षस के शूल से भयंकर अग्नि की लपटें निकलने लगी और उस अग्नि में वह सारी बेले जों ब्रह्मराक्षस को जकड़ी हुई थी सब भस्म हो गई ।

अब ब्रह्मराक्षस ने भी अपनी उर्जा से प्रहार करना शुरू कर दिया गजेंद्र ने उस प्रहार से बचने के लिए अपने दोनों हाथ आगे करके एक रक्षा कवच का निर्माण किया परंतु फिर भी ब्रह्मराक्षस की उर्जा के प्रभाव से वह पीछे कुछ दूर तक घसीटते हुआ चला गया ।

अब दोनों ओर से ऊर्जा के प्रहार होने लगे , गजेंद्र ने देवताओं से प्राप्त शस्त्रों का भी प्रयोग किया जीसे उस ब्रह्मराक्षस ने अपने शूल से बड़ी ही सरलता के साथ रोक दिया ।

अब तक के युद्ध में गजेंद्र इतना तो जान गया था कि यह कोई साधारण ब्रह्मराक्षस नही यह कोई दिव्य पुरुष है , जो उसकी परीक्षा लेने के लिए आया हुआ है । क्योंकि अब तक के युद्ध में वह इतना तो जान गया था के ब्रह्मराक्षस ने उस पर अब तक कोई भी प्राणघातक वार नहीं किया था, जैसे मानो वह ब्रह्मराक्षस उसके साथ खेल रहा हो ।

गजेंद्र का मन भी न जाने क्यों उस ब्रह्मराक्षस के व्यक्तित्व की ओर बारंबार आकर्षित हो रहा था ।

उसके हर वार में गजेंद्र को न जाने क्यों स्नेह की अनुभूति हो रही थी । सारी परिस्थितियां समझ कर गजेंद्र युद्ध छोड़कर दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

ब्रह्मराक्षस - क्या बात है बच्चे ! इस प्रकार बीच युद्ध में समर्पण क्यों कर रहे हो , तुम्हारी वीरता देखकर मैं तुम्हें एक और अवसर देता हूं , इस बार मैं कोई वार नहीं करूंगा और ना ही तुम्हारे किसी वार को रोकूंगा ।

गजेंद्र - क्षमा कीजिए ! मैं अब और युद्ध नहीं करूंगा , क्योंकि मैं जान गया हूं के आप कोई ब्रह्मराक्षस नहीं हो । ब्रह्मराक्षस के भेष में छुपे हुए कोई दिव्य पुरुष हो ।

ब्रह्मराक्षस - मैं कोई दिव्य पुरुष नहीं मैं तो अपनी क्षुधा से व्याकुल एक ब्रह्मराक्षस हूं जो भोजन के खोज में यहां तक आया हूं । मैं तुम्हारी वीरता देखकर बड़ा ही प्रसन्न हो इसीलिए मैं तुम्हें नहीं यह विश्राम कर रहे हैं देवताओं को खाऊंगा तुम जा सकते हो ।

गजेंद्र - नहीं मैं इस प्रकार आपको इन विश्राम कर रहे देवताओं का भक्षण नहीं करने दूंगा यदि आप खाना ही चाहते हैं तो मुझे खा ले ।

ब्रह्मराक्षस - हे बालक सोच लो कि तुम क्या कह रहे हो क्योंकि यहां मुझे किसी ना किसी को तो खाना ही पड़ेगा यही प्रकृति का नियम है जो मेरे लिए निर्धारित हुआ है ।

गजेंद्र - मैं सत्य कह रहा हूं मैं अपने आपको आपके अर्पण कर रहा हूं आप मुझे खाकर अपनी क्षुधा को शांत कर लीजिए।
मै अपने आप को आपके प्रति समर्पित करता हूं ।


गजेंद्र के इतना कहते हैं वहां एक दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ और देखते ही देखते हैं उस ब्रह्मराक्षस का शरीर भूतों के नाथ भगवान भोलेनाथ में परिवर्तित हो गया ।
भाल चंद्रमा , जटा में गंगा , तन पर भस्म , बाघ अंबर पहने , हाथ में त्रिशूल धारण किए । गजेंद्र की ओर देखकर मंद मंद मुस्कुराने लगे ।
सारे देवता भी जागृत अवस्था में आकर भोलेनाथ के आगे दोनों हाथ जोड़कर नतमस्तक हो गए ।


आज के लिए इतना ही -------- अगला भाग जल्द ही
आप सभी पाठकों से निवेदन है कि आप अपनी प्रतिक्रिया एवं अपने सुझाव अवश्य दें धन्यवाद
आपका मित्र

अभिनव
Zabardast shaandar update bhai
Gajendr or bholenath m badhiya ladayi huwi ek tarah se gajendr ki pariksha huwi
Zabardast
 

jaggi57

Abhinav
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94
Bahot badhiya shaandar update bhai
& Welcome back again brother
Thanku soo much Naik bhai 🌹🌹🌹
Zabardast shaandar update bhai
Gajendr or bholenath m badhiya ladayi huwi ek tarah se gajendr ki pariksha huwi
Zabardast
Bahut bahut dhanyawad bhai aise hi apna saath banaye rakhe 🙏🌹🌹
:thankyou: :thankyou: :thankyou: :thankyou: :thankyou:
 

jaggi57

Abhinav
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अध्याय - 16

अब तक आपने देखा के गजेंद्र उस वन की माया को पहले जान गया था । विरुपाक्ष से गजेंद्र का युद्ध और अंत मे गजेंद्र की जीत ।

अब आगे --------

विरुपाक्ष को इस प्रकार हाथ जोड़ भूमि पर बैठे हुए देखकर गजेंद्र विरुपाक्ष के मन के भावों को समझ गया और विरुपाक्ष के निकट पहुंच कर

गजेंद्र - उठो विरुपाक्ष उठो ! तुम जैसे वीर को इस प्रकार हाथ जोड़कर भूमि पर बैठना शोभा नहीं देता ।

विरुपाक्ष - हे वीर मैं अब आपको पहचान गया हूं के आप कोई विशिष्ट व्यक्ति हो । आपमे मुझे महादेव का अंश दिखाई दे रहा है , उन्हीं की कृपा से हम यक्षो को इस स्थान पर शरण मिली थी । पहले मैं अपने बल के अहंकार में चूर होकर आपको पहचान नहीं पाया इसलिए मुझे क्षमा कर दीजिए ।

गजेंद्र - हे वीर ! तुमने क्षमा मांगने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है । तुम तो केवल अपने राजा के आदेश का पालन कर रहे थे और अपने सैनिक धर्म का निर्वाह कर रहे थे ।

( फिर आगे बढ़कर विरुपाक्ष को कंधे से पकड़ कर उठाते हुए )

तुम जैसे वीर योद्धा से लड़ कर मुझे तो आनंद ही आया , तुम व्यर्थ में अपने मन में ग्लानि का भाव मत लाओ मित्र

विरुपाक्ष - आपका बहुत-बहुत धन्यवाद , मेरे मनोभावों को समझने के लिए और यह क्या आपने मुझे मित्र का कर संबोधित किया मैं एक यक्ष हूं मैंने अपने जीवन में बहुत सारे पाप किए हैं मैं आपकी मित्रता के योग्य नहीं हूं ।

गजेन्द्र - ऐसा मत कहो मित्र तूम सर्वथा मेरी मित्रता की योग्य हो । मेरा अब तक कोई भी मित्र नहीं है तुम जैसे योद्धा को अपने मित्र रूप में प्राप्त कर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करोगे ।

विरुपाक्ष - मेरे नेत्रों से अहंकार का पर्दा हट गया है और मै स्पष्ट रूप से आपमें स्थित दिव्यता को देख पा रहा हूं , मैं तो केवल आपका दास होने की योग्यता रखता हूं । परंतु आपने मुझे मित्र कहा आपकी मित्रता तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी ।

गजेंद्र - अपने आप को कम मत समझो मित्र तुम सर्वथा मेरे मित्र बनने के योग्य हो

इतना कहकर गजेंद्र ने विरुपाक्ष को गले लगाया अब दोनों के बीच मित्रता का संबंध स्थापित हो गया था । रात का अंधेरा चारों ओर फैल चुका था इसलिए गजेंद्र ने अग्नि तत्व का प्रयोग करते हुए वहां एक अलाव जलाया और उसके प्रकाश में दोनों बैठ गए ।

गजेंद्र - अब कहो मित्र , तुम विस्तार से मुझे पूरी बात बताओ के तुम यक्ष अपना स्थान त्याग के इस जगह पर किस प्रकार और क्यों आए ? और जो तुमने मानव वाली बात कही थी उसका क्या तात्पर्य है ? तुम्हारा राजा कौन है ?

जहां तक मैं जानता हूं सभी यक्षों का तो केवल एक ही राजा है धनाध्यक्ष कुबेर जिनका निवास स्थान कैलाश पर्वत के निकट अलकापुरी में है ।

विरुपाक्ष - मित्र यह जो काले पत्थरों से बना हुआ रास्ता दिख रहा है वह सीधा हमारे नगर को जाता है जो यहां से कुछ ही दूरी पर है यह नगर हमारे राजा कामरान द्वारा बसाया गया है , जिसका नाम यक्षपूर रखा गया हैं ।

गजेंद्र - परंतु मित्र जहां तक मैंने सुना है , यक्षों के राजा तो कुबेर जी है और उनकी नगरी अलकापुरी है , तो यह कामरान किस प्रकार तुम यक्षों का राजा बना और तूम सब इस क्षेत्र में किस प्रकार आकर बसे मुझे पूरा विस्तार से सुनाओ अभी हमारे पास पूरी रात्रि पड़ी है ।

विरुपाक्ष - मित्र आपने बिल्कुल सही कहा कामरान किसी राज परिवार से नहीं है । जब महाराज कुबेर हम यक्षों के अधिपति बने तब यक्षो के वैभव का अत्यंत विस्तार हुआ । हम यक्षो की शक्तियां चरम पर थी ।

महाराज कुबेर ने यक्षों के अनेक यक्ष नगर बसाएं । और हर नगर मे अपना प्रतिनिधी राजा , नगर के शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए नियुक्त किया ।
उन में से ही एक हिमालय की गोदी में स्थित हमारा नगर भी था , कामरान वहाँ के सेनानायक का पुत्र था । जो बहुत महत्वाकांक्षी क्रूर और बहुत बलवान था उसने बहुत सारे यक्षों को भडकाकर और अनेक प्रकार के षडयन्त्र कर अपनी एक अलग सेना बना ली थी ।

उसी समय पृथ्वी पर यज्ञ और धर्म अपनी चरम पर था , जिसके कारण देवता भी अधिक बलवान हो गए थे और इस कारण असुरों की दयनीय अवस्था हो गई थी असुर अब केवल पाताल लोक तक ही सीमित रह गए थे ।

यहां कामरान कुबेर जी द्वारा नियुक्त किए गए हमारे नगर के राजा के विरुद्ध षड्यंत्र करके अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था और वहां पाताल लोक में असुर कुल में ही उत्पन्न काली शक्तियों का उपासक एक अघोर तांत्रिक भद्रा असुरों के उत्थान और त्रिलोक पर अपने अधिकार प्राप्त करने के उपायो को ढूंढने में लगा हुआ था ।

उस समय दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी असुरों के संग नहीं थे । वह किसी तपस्या में कई वर्षो से संलग्न थे ।

शुक्राचार्य जी की अनुपस्थिति में तांत्रिक भद्रा ने असुरों को अपने वश में कर लिया । परंतु वह जानता था कि असुरों की शक्ति अभी क्षीण है उसे ऐसा कोई योद्धा चाहिए था जो उसके उद्देश्यों को पूरा कर सके ।

तांत्रिक भद्रा ने पाताल लोक में एक अनुष्ठान प्रारंभ किया जिससे उसे एक महायोद्धा प्राप्त होना था जो उसके सपनों को पूरा कर सके ।

अनुष्ठान में उसने सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई । अनुष्ठान की समाप्ति पर उस कुंड की धधकती हुई ज्वाला से एक विशाल असुर प्रकट हुआ अनल अर्थात अग्नि से प्रकट होने के कारण उसे असुर का नाम अनलासुर रखा ।

वह असुर बड़ा ही विशाल और भयावह था । प्रकट होते ही उसने इतनी जोर से अट्टाहास किया की उसकी ध्वनी से पाताल लोक की भूमि कंपायमान हो गई अपना अनुष्ठान को सफल हुआ देखकर तांत्रिक भाद्रा बहुत ही प्रसन्न हुआ ।

अनालासुर - प्रणाम गुरुदेव मेरे लिए क्या आज्ञा है ! आपने मुझे क्यों प्रकट किया आदेश कीजिए ।

तांत्रिक भद्रा - अमलापुर मेरे पुत्र ! हम असुरों के साथ देवों ने सदैव ही छल किया है ।
हमें उनके छल का प्रतिशत लेना है और अपनी असुर जाति का उत्थान करना है । हम असुर सृष्टि पर शासन करने के सर्वथा योग्य होते हुए भी हम असुरों को पाताल लोक में बंदी बना दिया गया है । जब अधिकार सहजता से प्राप्त न हो तो उसे छीन लेना ही उचित है , यही हमारा धर्म हैं ।

तुम्हें सर्वप्रथम तपस्या करके बल एकत्रित करना होगा और ऐसा वर मांगना होगा के ना तो तुम्हारा वध कोई देवता असुर दानव दैत्य कर पाए और ना ही त्रिदेव ।

तांत्रिक भाद्रा के कहने पर अनलासुर ने ब्रह्मा जी का कठिन तप किया , और मनचाहा वरदान पाया । वरदान पाकर अनलासुर , वापस पाताल लोक आया और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए असुरों की सेना संगठित करने लगा ।

तांत्रिक भद्रा और अनलासुर ने सर्वप्रथम स्वर्ग को अपना लक्ष्य बनाया देवताओं से युद्ध करने के लिए उन्हें आवश्यकता थी एक विशाल सेना की जो अभी उनके पास नहीं थी ।

तांत्रिक भद्रा पूर्व में कामरान से मिल चुका था । वह जानता था के कामरान अत्यन्त महत्वकांक्षी है अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए वह उनका साथ अवश्य देगा । तांत्रिक भद्र जानता था के देवताओं और असुरों के पश्चात यदि कोई शक्तिशाली प्रजाति है तो वह है यक्ष । यक्ष भी उनके साथ मिल गए तब निश्चित ही वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा ।

इसलिए उसने कामरान से भेंट की और उसे आश्वासन दिया यदि वह उनका साथ देता है तो तीनों लोको का शासन उनके हाथ में आएगा तब संपूर्ण यक्षों का राजा उसे बना दिया जाएगा ।
कामरान एक महत्वाकांक्षी , छल और कपट से भरपूर यक्ष था । उसे पता था के वह कितना भी प्रयत्न कर ले परंतु वह संपूर्ण यक्षों का राजा नहीं बन सकता था । परंतु अब उसके सामने तांत्रिक भद्रा अनलासुर के रूप में एक विकल्प था । सो उसने उनका साथ देने का निश्चय किया ।

तांत्रिक भद्रा और अनलासुर की सहायता से कामरान ने एक विशाल यक्ष सेना खड़ी कर दी ।
सर्वप्रथम उसने असुरों की सहायता से खुशी अक्षय नगर के राजा तथा उसके संपूर्ण परिवार और उसके सहायकों को समाप्त कर दिया और स्वयं राजगद्दी पर विराजमान हो गया ।

असूरों की सहायता से कुबेर जी की अलकापुरी को छोड़कर कामरान ने सभी यक्षो के नगरों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया था ।
अलकापुरी कैलाश पर्वत की सीमा भीतर थी इसलिए वहां प्रवेश कर पाना उनके लिए असंभव था ।
अब उसके पास यक्षो की एक विशाल सेना थी ।
यक्षो की सेना और असुरों की सेना को साथ मे लेकर अनलासुर ने स्वर्ग पर भीषण आक्रमण कर दिया ।

बड़ा ही भयंकर संग्राम हुआ परंतु अनलासुर शक्ति के आगे देवताओं की सेना हार गई और उन्हें स्वर्ग छोड़कर जाना पड़ा अनलासुर अब स्वर्ग का अधिपति बन गया था ।

धीरे-धीरे करके उसने संपूर्ण लोकों में अपनी सत्ता स्थापित कर दी थी उसने यज्ञ कार्य धर्म पूजा पाठ आदि सब बंद करवा दिए थे।

कामरान भी अनलासुर की मित्रता प्राप्त कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा था । अब उसे किसी का भी भय नही था ।

अनलासुर एक नरभक्षी था , क्योंकि उसकी उत्पत्ति ऐसे कुंड से हुई थी जिसमें सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई थी ।

मनुष्य का मांस से उसे अत्यंत प्रिया था । अनलासूर का संग पाकर कामरान भी अब नरभक्षी बन गया था । उसके यक्ष नित्यप्रति किसी ने किसी मनुष्य को पकड़ कर लाते और उसका माँस कामरान को परोसते थे ।

परंतु बुराई का संग सदैव ही बुरा परिणाम देता है । कामरान के साथ भी वही हुआ ।

असुर स्वभाव से ही कामवासना में लिप्त होते है ।
मानव कन्या और अप्सराओ से अब उनका मन भर गया था इसलिए उन्होंने यक्ष कन्याओं को अपनी कामवासना का शिकार बनना शुरू किया ।

पहले वह यक्ष कन्याओं को अपने कामवासना का शिकार बनाते उसके पश्चात् उन्हें खा जाते ।
जिस कारण यक्षो में अब असुरों का भय व्याप्त होने लगा ।

नगर वासियों ने यह सारी बात कामरान को बताई , परंतु कामरान असूरों के विरुद्ध जाकर कुछ भी करना नहीं चाहता था । उसे केवल अपनी सत्ता प्रिय थी जो असुरों का विरोध करने पर जा भी सकती थी ।

कामरान की इसी उदासीनता के कारण सभी यक्ष उसके विरुद्ध एकजुट होने लगे ।
उसके नगर से विद्रोह की आवाज़े उठने लगी उसे पता था कि यदि प्रजा ठान ले तो शासक कितना भी बलवान क्यों ना हो उसका पतन हो ही जाता है । इसलिए उसने इस समस्या के निदान के लिए अनलासुर को संदेश भेजा।

कामरान का संदेश प्रकार अनलासुर ने तांत्रिक भद्रा से भेंट की के अब क्या करना चाहिए इस बारे में बताए

तांत्रिक भद्रा - पुत्र अब हमारा शासन संपूर्ण लोको पर है । केवल यक्षों को छोड़कर अब समय आ गया है उन्हें भी अपने अधीन करने का ।
अभी सृष्टि का केवल एक ही राजा होगा । तुम्हें क्या करना है यह तुम भली-भांति समझ चुके हो ।

अनलासुर - जी गुरुदेव आपने जैसा कहा वैसा ही होगा अब हमें उस मुर्ख कामरान की कोई आवश्यकता नहीं है ।

उसके पश्चात अनलासुर ने कामरान को संदेश भेजा की समस्या का निदान करने के लिए वह स्वयं नगरी में आ रहा है

अनलासुर का संदेश प्रकार कामरान बड़ा ही प्रसन्न हुआ ।
अपने शक्तिशाली मित्र के स्वागत करने के लिए उसने पूरा नगर सजाया । अपनी पत्नी शलाका छोटी कन्या अमृता जिसकी अवस्था 5 वर्ष जितनी होगी और उसका युवा पुत्र भानु सब नगर के मुख्य द्वार पर अनलासुर का स्वागत करने के लिए खड़े हो गए ।

अनलासुर जब उस नगर में आया तो उसकी दृष्टि कामरान की पत्नी शलाका पर गई जो अत्यंत रूपवती थी । उसको देखकर उसके तन - मन में कामवासना का संचार हुआ ।

कामरान अपने मित्र का स्वागत बड़ी भव्यता के साथ किया और अपने महल में उत्तम कक्षा में व्यवस्था की । रात्रि भोज के पश्चात उसने सारी समस्या अनलासुर के सामने रखी ।
कामरान की सारी बातें सुनने के बाद

अनलासुर - हा हा हा हा , यह कोई इतनी विकट समस्या नहीं है , प्रजा तो होती ही है भोगने के लिए , फिर भी मैं तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा ।

परंतु अब तक मैंने तुम्हारी बहुत सहायता की और उसके बदले में मैंने तुमसे कुछ नहीं लिया और तुमने भी मुझे अब तक भेंट रूप में कोई वस्तु नहीं दी इसे क्या कहा जाए ।

कामरान - यह कैसी बातें कर रहे हो मित्र मेरा सब कुछ तो तुम्हारा ही दिया हुआ है, सब पर तुम्हारा अधिकार प्रथम है ।

अनलासुर - अधिकार की बात है तब तो तुम्हारी पत्नी पर भी मेरा अधिकार होना चाहिए । आह ! कितनी सुंदर है जब से उसे देखा है मेरे तन मन में आग सी लग गई है

कामरान क्रोध में भरकर - अनलासुर ! मर्यादा में रहो । शलाका मेरी धर्मपत्नी है उस पर को दृष्टि डालने का तुमने साहस भी कैसे किया ।
कामरान अनलासुर को क्रोध की दृष्टि से देख ही रहा था कि तभी उसे अपनी पत्नी के चीखने चिल्लाने की आवाज आई तो उसने पलट कर देखा उसकी पत्नी शलाका को दो असुर पकडकर ला रहे हैं जो की पूरी तरह से निर्वस्त्र थी ।
असुरों ने शलाका को अनलासुर की गोदी में दे दिया । जिसे उस असुर ने अपनी मजबुत भुजाओ मे जकड लिया । वो चीख रही थी चिल्ला रही थी , अपने पति को देखकर अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी ।

अपनी पत्नी की ऐसा दशा देखकर कामरान क्रोध में भरकर गर्जना करता हुआ अपनी तलवार लेकर अनलासुर की और बड़ा परंतु तभी अनलासुर ने उसे अपने पाश में बांध दिया ।

अनलासुर - ना ना ना कामरान ऐसी भूल मत करना , तुम्हें समाप्त करने के लिए मुझे एक क्षण भी नहीं लगेगा । चुपचाप इस दृश्य का आनन्द लो , तुम्हे तो यह सब देखकर आनान्द आता था, अब क्या हुआ ।

अनलासुर के पाश में बंधकर कामरान भूमि पर गिर पड़ा अपनी दयनीय दशा देख कर उसकी नेत्रों से अश्रु बहने लगे कतर स्वर में वह अनलासुर से प्रार्थना करने लगा ।

कामरान - अनलासुर छोड़ दो मेरी पत्नी को , कुछ तो विचार करो , तुम तो मेरे मित्र थे इस प्रकार अनाचार मत करो ,दया करो अपने मित्र पर , मैने तूम्हारी इतनी सहायता की उसका यह कैसा प्रतिफल दे रहे हो।

अनलासुर - हा हा हा हा ! मित्र ! किस प्रकार का मित्र ! तुमसे मेरी कोई मित्रता - वित्रता नहीं थी अपनी , ( गोदी में नग्न शलाका जो छूटने का असफल प्यास कर रही थी , उसके स्तनों का मर्दन करते हुए )
तुमने भी तो मेरे साथ मिलकर इस प्रकार का दुसरो के साथ कई बार आनंद लिया है । वही अब यदि मैं तुम्हारे साथ यह कर रहा हूं तो तूम्हे आपत्ति हो रही है । अब यदि एक शब्द भी कुछ और कहा तुम्हारे सामने ही तुम्हारी पत्नी को भोगूंगा ।

अभी यहाँ इतना कुछ हो ही रहा था के कामरान का पुत्र भानु ने उस कक्ष में प्रवेश किया । अपने माता-पिता की ऐसी अवस्था देखकर उसे अत्यंत क्रोध आया ,
वह अपनी तलवार निकाल कर अनलासुर की ओर दौड़ पड़ा के तभी अनलासुर के असुर ने अपना खड़क उसकी और फेंक कर प्रहार किया जिससे कामरान पुत्र भानु का सिर धड़ से अलग हो गया और रक्त का फवारा उठने लगा ।

अपने नेत्रों के सामने अपने पुत्र की ऐसी स्थिति देखकर कामरान जोर से चीख पड़ा नहीं ऽऽऽऽऽऽऽ
और मूर्छित हो गया ।

आज के लिए इतना ही -------
अगला अध्याय शीघ्र ही -----
सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
स्वस्थ रहे , प्रसन्न न रहे
धन्यवाद 🙏🙏🌹🌹🌹

आपका मित्र - अभिनव
 

sunoanuj

Well-Known Member
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Bahut hi behtarin updates… 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
 
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