जोरू का गुलाम भाग २४९
एम् -१
३७,७५, ७७९
"माइसेल्फ मिलिंद नवलकर, फ्रॉम रत्नागिरी। "
हल्की मुस्कान, बड़ा सा चश्मा, एक बैग और खिचड़ी बाल, दलाल स्ट्रीट के आसपास या कभी यॉट क्लब के नजदीक तो शाम को बॉम्बे जिमखाना में ढलते सूरज को देखते हुए मिल जाते हैं।
मनोहर राव, थोड़ा दबा रंग , एकदम काले बाल, गंभीर लेकिन कारपोरेट क़ानून की बात हो या कर्नाटक संगीत वो अपनी खोल से बाहर आ जाते थे. दिन के समय बी के सी में लेकिन अक्सर माटुंगा के आस पास, टिफिन खाते वहीँ के किसी पुराने रेस्ट्रोरेंट में,...
मनोज जोशी, चाहे हिंदी बोले या अंग्रेजी,… गुजराती एक्सेंट साफ़ झलकता था। पढ़ाई से चार्टर्ड अकउंटेंट, पेशे से कॉटन ट्रेडिंग में कभी कालबा देवी एक्सचेंज में तो कभी कॉटन ग्रीन में, और अड्डों में कोलाबा कॉजवे, लियोपॉल्ड
महेंद्र पांडे धुर भोजपुरी बनारस के पास के, अभी गोरेगांव में लेकिन जोगेश्वरी, गोरेगांव, और कांदिवली से लेकर मीरा रोड और नाला सोपारा तक, दोस्त, धंधे सब
मुन्तज़िर खैराबादी, मोहमद अली रोड के पास एक गली में कई बार सुलेमान की दूकान पे दिख जाते थे, खाने के शौक़ीन, पतली फ्रेम का चश्मा और होंठों पर हमेशा उस्तादों के शेर, फिल्मो में गाने लिखने की कोशिश नाकामयाब रही थी तो अब सीरियल में कभी भोजपुरी म्यूजिकल के लिए और आक्रेस्ट्रा के लिए
लेकिन असली नाम, ... पता नहीं। सच में पता नहीं।
असल नक़ल में फरक मिटाने के चक्कर में खुद असल नकल भूल चूके थे। हाँ जहाँ जाना हो, जो रूप धरना हो, जो भाषा एक्सेंट, मैनरिज्म, ज्यादा समय नहीं लगता और कई बार तो लोकल में सामने बैठे आदमी को देखकर आधे घंटे में कम्प्लीट एक्सेंट और
मैनरिज्म , उन्हें लगता की शायद उनका असली पेशा ऐक्टिंग हो सकता था और राडा ( रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स ) में उन्होंने एक छोटा मोटा कोर्स भी किया था,
नाम के लिए, सब लोग एम् के नाम से ही जानते थे और वो सिर्फ इसलिए की जिस देश में जिस शहर में वो नया रूप धरते, उसके सारे नाम एम से ही शुरू होते थे।
मूल रूप से कहाँ के इसमें भी विद्वानों में मतभेद था हाँ जेनेसिस मिक्स्ड थी, सेन्ट्रल यूरोप, मिडल ईस्ट और मेडिटेरेनियन। पर वह सब बंद किताब थी