आखिरी आसन जो हमें बहुत भा गया था वह था कुत्ते कुतिया या जानवर स्टाइल की पीछे से चुदाई. इसमें चाची कोहनियों और घुटनों को टेककर कुतिया जैसी बिस्तर पर जम जाती थी. मैं पीछे से पहले उनकी बुर चाटता और फ़िर लंड डालकर उनके नितंब पकडकर कचाकच धक्के लगाकर पीछे से कुत्ते जैसा उन्हें चोदता. इसमें धक्के बहुत जबरदस्त लगते थे इसलिये बड़ा मजा आता था. कभी कभी झुककर अपनी बाँहों में चाची का शरीर भरकर उनपर चढ कर मम्मे दबाता हुआ मैं उन्हें चोदता. पाँच मिनिट से ज्यादा वे मेरा भार नहीं सह पाती थी पर इन पाँच मिनटों में हमे स्वर्ग सुख मिल जाता.
इस आसन की एक और खास बात यह थी कि हम अक्सर इसे आइने के सामने करते. आइने में चाची के लटकते स्तन और उनके बीच लटकता मंगलसूत्र बड़े प्यारे दिखते. जब मैं धक्के लगाता तो चाची के स्तन इधर उधर हिलते. मंगलसूत्र भी चोदने की लय में पेंडुलुम जैसा डोलता. कभी कभी तो मैं इतना उत्तेजित हो जाता कि झड़ जाता. फ़िर चाची को बुर धोने जाना पड़ता जिससे फ़िर रात के पहले बाकी समय में मैं उनकी बुर चूस सकूँ. इसलिये यह आसन हम संभाल कर कभी कभी ही करते.
चूत और लंड चूसने के भी हमने खूब तरीके ढूंढ निकाले. लंड चूसना तो किसी भी आसन में मुझे बहुत अच्छा लगता था. कभी लेट कर, कभी कुर्सी में बैठकर, कभी खड़े खड़े. हाँ कभी कभी चाची मुझे अपने मुंह को चूत जैसा चोदने देती थी.
इस आसन में वे नीचे लेट जातीं और मैं उनके खुले मुंह में जड तक लंड उतार देता. फ़िर उनपर लेट कर हाथों से उनके सिर को पकडकर उसे घचाघच चोदता. चाची के गले तक मेरा लंड उतर जाता और उस कोमल गीले गले में सुपाड़ा चलता तो बिलकुल ऐसा लगता जैसे किसी संकरी चूत को चोद रहा हूँ.
झड़ने पर वीर्य भी सीधा उनके हलक में जाता. इसीलिये यह आसन वे कम करने देती थी. एक तो उनका गला भी थोड़ा दुखता, दूसरे वीर्य सीधा पेट में जाने से वे उसका स्वाद नहीं ले पाती थी जबकि जीभ पर वीर्य लेकर उसे स्वाद ले लेकर धीरे धीरे खाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था.
चूत चूसने के तो कई मस्त आसन थे. पहला यह कि चाची को पलंग पर लिटा कर उनकी निचली जांघ का तकिया बनाकर मैं चूत चूसता. वे ऊपरी जांघ मेरे सिर पर रखकर मेरे सिर को दोनों जांघों में दबोच लेती और हाथों से मेरा सिर पकडकर अपनी चूत पर दबा कर मुझसे चुसवाती. इस आसन में वे अक्सर अपनी टाँगे ऐसे फ़टकारती जैसे साइकिल चला रही हों. उनकी सशक्त जांघें कभी कभी इतनी जोर से मेरे सिर को जकड लेती कि जैसे कुचल डालेंगी. दर्द भी होता पर उन मदमस्त चिकनी जांघों में गिरफ़्त होने का सुख इतना प्यारा था कि मैं दर्द को सहन कर लेता.
कभी कभी वे कुर्सी में बैठ कर टाँगे पसार देती और मैं जमीन पर उनके सामने बैठ कर चूत चूसता. मेरे बालों में वे प्यार से उँगलियाँ फ़ेरती रहती. यह बड़ा आराम का आसन था. खड़े खड़े चुसवाने में भी उन्हें मजा आता था. वे टाँगे फ़ैलाकर दीवार से टिककर खड़ी हो जातीं और मैं उनके बीच बैठकर मुंह उठाकर उनकी बुर चूसता रहता.
हर आसन में मैं उनकी बुर में अक्सर जीभ डालता. पर जब उन्हें जीभ से चुदने का शौक चढ़ता, वे एक खास आसन का इस्तेमाल करती थी. मैं पलंग पर लेटकर जीभ जितनी हो सकती थी उतनी बाहर निकाल देता और कड़ी कर लेता. मेरे सिर पर बैठकर वे जीभ बुर में ले लेती और फ़िर ऊपर नीचे होकर उसे लंड सा चोदती. पाँच मिनिट से ज्यादा मैं नहीं यह कर पाता था क्यों की जीभ दुखने लगती थी. पर चाची को इतना मजा आता था कि एक दो मिनिट को जीभ को आराम देकर मैं फ़िर उसमें जुट जाता. इस आसन में रस खूब निकलता था जो सीधा मेरी जीभ पर टपकता था.
और जब चाची मुझे हस्तमैथुन करके दिखाती तो मैं तो वासना से पागल हो जाता. यहाँ तक कि एक दो बार न रहकर मैंने मुठ्ठ मार ली और चाची नाराज होकर लाल पीली हो गई. उसके बाद वे पहले मेरे हाथ पैर बांध देती और फ़िर बाद में अपनी हस्तमैथुन कला मुझे दिखाती. इसकी शुरुआत एक दिन दोपहर को तब हुई जब चाची ने दो उँगलियाँ अपनी बुर में घुसेड कर मुठ्ठ मार कर मुझे दिखायी. मेरी खुशी देखकर उन्हें और तैश आया. "रुक लल्ला, अभी आती हूँ" कहकर वे रसोई में चली गई.
वापस आई तो हाथ में एक मोटा गाजर और दो तीन बैंगन थे. मुस्कराते हुए वे वापस पलंग पर चढीम और फ़िर गाजर अपनी चूत में डाल कर उससे मुठ्ठ मारकर दिखाई. लाल लाल मोटा गाजर उस नरम नरम चूत में अंदर बाहर होता देखकर मैं ऐसा उत्तेजित हुआ कि पूछो मत. मेरी खुशी देखकर वे हंसते हुए बोली. "यह तो कुछ नहीं है लल्ला, अब देखो तमाशा." कहकर उन्हों ने बैंगन उठा लिये. वे लंबे वाले बैंगन थे. पर फ़िर भी बहुत मोटे थे. मेरे लंड से दुगने मोटे होंगे. और फ़ुट फ़ुट भर लंबे थे.
"कभी सोचा है लल्ला कि इस घर में बैंगन की सब्जी इतनी क्यों बनती है?" उन्हों ने शैतानी से बैंगनों को उलट पलट कर देखते हुए पूछा. मैं वासना से ऐसे सकते में था कि कुछ नहीं कह सका. आखिर चाची ने एक चुना. दूसरे या तो ज्यादा ही टेढ.ए थे या दाग वाले थे. उन्हों ने जो चुना वह एकदम चिकना फ़ुट भर लम्बा होगा. नीचे से वह एक इंच मोटा था और धीरे धीरे बीच तक उसकी मोटाई तीन इंच हो जाती थी. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि चाची उस मोटे बैंगन को अपने शरीर के अंदर ले लेंगी. मैंने वैसा कहा भी तो माया चाची हंसने लगी.
"मैंने कहा था ना लल्ला कि मेरी चूत तो तुझे भी अंदर ले ले. अरे औरत की चूत को तू नहीं जानता. जब बच्चे का सिर निकल जाता है तो इस बैंगन की क्या बात है." कहकर उन्हों ने डंठल को पकडकर धीरे धीरे बैंगन अपनी चूत में घुसेडना शुरू किया. तीन चार इंच तो आराम से गया. फ़िर वे रुक गई और बड़ी सावधानी से इंच इंच करके उसे और अंदर घुसाने लगी. मैं आँखें फ़ाड कर देखता रह गया. अंत में नौ इंच से ज्यादा बैंगन उन्हों ने अंदर ले लिया. चूत अब बिलकुल खुली थी. उसका लाल छल्ला बैंगन को कस कर पकड़ा था. ऐसा लगता था कि फ़ट जायेगी.
पर चाची के चेहरे पर असीमित सुख था. आँखें बंद करके कुछ देर बैठा रही. फ़िर धीरे धीरे बैंगन अपनी चूत में अंदर बाहर करने लगी. कुछ ही देर में उनकी स्पीड बढ गयी. चूत भी अब इतनी गीली हो गयी थी कि बैंगन आराम से सरक रहा था. पाँच मिनिट बाद तो वे सटासट मुठ्ठ मार रही थी. दूसरे हाथ की उंगली क्लिट को मसल रही थी. यह इतना आकर्षक कामुक नजारा था कि मैं भी मुठ्ठ मारने लगा. वहाँ चाची झड़ीं और यहाँ मैं.
झड़ने के बाद में वे बहुत नाराज हुई, यहाँ तक कि मुझे एक करारा तमाचा भी जड दिया. शायद और मार पड़ती पर मैंने कम से कम इतनी होशियारी की थी कि झड़ कर वीर्य को गिरने नहीं दिया था बल्कि अपनी बाम्यी हथेली में जमा कर लिया था. चाची ने उसे चाट लिया और तब तक उनकी बुर से बैंगन निकालकर उसे मैंने चाट डाला. उस रात उसी बैंगन की सब्जी बनी, यह बात अलग है.
पर उसके बाद चाची मुझे कुरसी में बिठाकर हाथ पैर बांध करके ही सब्जियों और फलों से मुठ्ठ मार कर दिखाती. कोई चीज़ उन्हों ने नहीं छोड़ी. ककड़ी, छोटी वाली लौकी, केले, मूली इत्यादि. छिले केले से हस्तमैथुन करने में एक फ़ायदा यह था कि मुठ्ठ मारने के बाद उनकी चूत में से वह मीठा चिपचिपा केला खाने में बड़ा मजा आता था. पर चाची केला ज्यादा इस्तेमाल नहीं करती थी क्योंकी धीरे धीरे संभल कर हस्तमैथुन करना पड़ता था नहीं तो केला टूट जाने का खतरा रहता था.
चाची ने बस एक जुल्म मुझ पर किया. उन शुरुआत के दिनों में एक भी बार गुदा मैथुन नहीं करने दिया जिसके लिये मैं मरा जा रहा था. उनके गोरे मुलायम मोटे मोटे चूतड़ों ने मुझ पर जादू कर दिया था. अक्सर कामक्रीडा के बाद वे जब पट पड़ी आराम करती, मैं उनके नितंबों को खूब प्यार करता, उन्हें चूमता, चाटता, मसलता यहाँ तक कि उनके गुदा पर मुंह लगाकर भी चूसता और कभी कभी जीभ अंदर डाल देता. वह अनोखा स्वाद और सुगंध मुझे मदहोश कर देते.
चाची मेरी गांड पूजा का मजा लेती रहती पर जब भी मैं उंगली डालने की भी कोशिश करता, लंड की बात तो दूर रही, वे बिचक जातीं और सीधी होकर हंसने लगतीं. मेरी सारी मिन्नतें बेकार गई. बस एक बात पर मेरी आशा बंधीं थी, उन्हों ने कभी यह नहीं कहा कि कभी गांड मारने नहीं देगी. बस यही कहतीं. "अभी नहीं लल्ला, तपस्या करो, इतना बड़ा खजाना ऐसे ही थोड़े दे दूँगी."
हमारी मस्त रतिक्रीडा में एक बड़ी खूबसूरत बाधा तब पड़ी जब माया चाची की भांजी, उनकी बड़ी बहन की अठारह साल की किशोर लड़की मुन्नी, चाची के बुलाने से गर्मी की छुट्टी में आई. असल में चाची ने उसे सिर्फ़ इसी लिये बुलाया था कि मेरे आने का पक्का नहीं था.
जिस दिन वह आने वाली थी, मैं बड़ा परेशान हुआ. चाची से मैंने कहा भी कि मुन्नी के आने के बाद हमारी बेझिझक चुदाई में खलल पड़ेगा. छुप छुप कर कहाँ तक हम मजा लेंगे क्यों की वह कन्या तो हमेशा यहीं घर में रहेगी. चाची भी थोड़ी परेशान जरूर थी पर ज्यादा नहीं, मुझे दिलासा देकर बोली "कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे लल्ला. तुम परेशान न हो."