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Non-Erotic नहीं हूँ मैं बेवफा!

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आप जिस समय की बात कह रहीं हैं, वह समय लड़कियों के शिक्षा के लिए कठिन था पर आप सफल रहीं, ये सबसे बड़ी बात है
मानु जी, आपकी कमी खल रही है, अगर आप इसे पढ़ रहें हैं तो मोस्ट वेलकम मित्र, फोरम अधूरा लगता है
आपके रिव्यु के लिए शुक्रिया................आपका मैसेज मैंने लेखक जी तक पहुंचा दिया है.................फिलहाल वो स्वस्थ हो रहे हैं और जल्द ही वापस आएंगे|
 
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पहले और आज के समय में बहुत बदलाव आ चुका है.... आज सरकार खुलकर सुविधा और पैसा बांट रही है... मैं भी सरकारी स्कूल व कॉलेज में पढ़ा हूँ जो आज फ्री हैं लेकिन तब आम आदमी की हैसियत से ज्यादा महंगे थे.... 1980-85 में 2 रू 55 पैसे... 1985-90 में 3 रू 50 पैसे... 1990-96 में 15-20 रूपये और 1997-2000 में 100 रू. महीना फीस दी है मैंने सरकारी स्कूल-कॉलेज में... जो बहुत से लोगों खासकर गाँव देहात में सबके बस की बात नहीं थी... 20 पैसे से 2 रूपये किलो के भाव का गेहूँ बेचकर बच्चों को पालने वाले किसान के लिए
अब की महंगाई और कमाई/आमदनी के हिसाब से तो 100 गुना होती... लेकिन अब सब फ्री /नाममात्र को है और फीस से ज्यादा सरकारी योजनाओं में मिल जाता है वापस.... 30 रू किलो का गेहूँ और 60 रू किलो की सरसों बेचने वाले को
फिर भी ना पढ़ सकने वाले कहीं ना कहीं... स्वयं भी जिम्मेदार हैं
भाईसाहब.............मैं आपकी बात से सहमत नहीं!!!!!!! हर इंसान के पास ज़मीन नहीं होती जिस पर वो फसल ऊगा कर बेच सके..................और जिनके पास होती भी है वो इतनी छोटी होती है की उससे उनका गुज़र बसर हो जाए यही बड़ी बात है.............मुनाफ़ा कमाने की तो बात ही अलग है!!!!! मेरे ससुराल की ही बात देख लो.............पिछले साल हम ने पेपरमिंट और बाली मतलब भुट्टा बोया गया था............जब बज़ार बेचने गए तो नाम मात्र का मुनाफ़ा हुआ इसलिए इस बार पेपरमिंट बोने का ही छोड़ दिया...........मेहनत मज़दूरी करने वाले इतना नहीं कमा पाते की वो अपने बच्चों को पढ़ा सकें...........उनके लिए तो जितने कमाने वाले हाथ होंगें उतना ही बेहतर है| और आप जिन सरकारी योजनावा का ज़िक्र कर रहे हैं वो ठीक से लागू की जाती हैं????????? मैं एक यूट्यूब चैनल देखती हूँ जिसमें एक परिवार अपने बेटे को पढ़ने के लिए आंगनबाड़ी भेजता है..............इस आंगनबाड़ी में गिनती के बच्चे आते हैं और आधा समय तो आंगनबाड़ी ही बंद रहती है!!!!! ऐसे हालातों में बच्चा पढ़ना भी चाहे तो कैसे पढ़ेगा???? केवल सरकारी योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा................जब तक जनता को डंडे से इनकी तरफ हांका नहीं जाएगा कोई आगे नहीं बढ़ेगा!!!!!!!! शहरों में हमारा देश भले ही कितनी ही प्रगति कर ले..............गाँव देहात हमेशा पिछड़ा ही रहेगा.................गॉंव तभी आगे आएगा जब लोगों को जबरदस्ती आगे लाया जायेगा!!!!
 
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Awesome update
मां का संतान के प्रति मोह कभी खत्म नहीं होता चाहे संतान कैसी भी हो आपको मां की परेशानी का कारण जब समझ में आया तब चंदर वाली घटना आप के साथ हुई
शिक्षा का मोह आपको बचपन से ही रहा है भाईसाहब के ना होने से मालती से आपने बिना स्कूल गए शिक्षा ग्रहण की।
ग्रामीण परिवेश में पहले लड़कियों को स्कूल गरीबी आस पास स्कूल का ना होना समाज की रूढ़िवादी सोच आदि कई कारण थे।गरीब परिवारों में पढ़ाई पर पैसे खर्च करने की बजाय पैसे कमाकर अपने परिवार का गुजर बसर में सहायता करने पर जोर देते थे पिताजी अपनी माली हालत के कारण अपने बच्चो को नही पढ़ा पा रहे थे लेकिन चरण काका के प्रयास से आपको पढ़ाने के लिए आपके पिताजी मान गए हैं
बढ़िया रिव्यु के लिए शुक्रिया......................आप भी गॉंव से हैं क्या????
 
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matlab hum sabke kiye ki saza bhugtegen :?: update do hum to hain na jinko aana ho aayegen meko bulaya tha aapne kya :?:
नई वाली अपडेट आज आएगी.................जो नहीं देता रिव्यु न दे............ Naina को टैग कर बुलाया है..............आपको मिले तो उसे मेरी याद देना.............आपसे अच्छे दोस्त वो मेरी है....................लेखक जी की कहानी पर वो मेरे साथ बहुत मस्ती करती थी..............आगे की अपडेट उसी से जुडी है................
 
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आपके बचपन का दौर शायद अस्सी के दशक का था। मेरे बचपन के भी कुछ साल गांव मे ही गुजरे हैं। हमारी आर्थिक स्थिति भी कोई खास नही थी। कभी-कभार चावल के लिए तरस जाते थे हम। जबकि हमारे सभी चाचा के घर मे रोज पकवान ही बना करता था।
घर से बोरे ले जाते थे स्कूल मे और उसी पर बैठकर पढ़ते थे। फीस के रूप मे टीचर को अनाज दिया करते थे। कलम की जगह बांस की बनी कृत्रिम कलम और स्याही इस्तेमाल करते थे।
खेत भी नाम मात्र के थे। लेकिन हमारे गांव मे लड़कियों के पढ़ने पर कोई प्रतिबंध नही था। फिर परिस्थितियां बदली।
पिता जी और बड़े भाई की गवर्नमेंट सर्विस लगी।
फिर शहर आने के बाद 1983 मे माध्यमिक और 1988 मे ग्रेजुएशन कम्प्लीट किया। 1989 से व्यवसायिक क्षेत्र मे प्रवेश किया और अब तक वही करते आ रहा हूं।
स्कूल और कॉलेज का सबसे फेमस लड़का रहा। मेरी शादी के रिसेप्शन मे शायद ही कोई टीचर्स या प्रोफेसर होगा जो कि न आया हो।
कहने का तात्पर्य हमारे जीवन मे सुख दुख का मेला लगा ही रहता है। हमारी जिन्दगी भी कभी धूप कभी छांव जैसी ही है।

गांव देहात मे जो आर्थिक रूप से कमजोर थे , उनके लिए अपने बच्चो को स्कूल भेजना काफी मुश्किल भरा काम हुआ करता था। बहुत कम लड़के स्कूल जा पाते थे और लडकियों की अवस्था तो और भी दयनीय थी। गार्डियन की मानसिकता ही यही होती थी कि जब लड़की को ब्याह कर दूसरे घर ही भेजना है तो फिर उसे पढ़ा लिखा कर फायदा क्या !

लेकिन अब वक्त बदल रहा है। अब हर गार्डियन एजूकेशन का इम्पोरटेंट समझ रहा है। लडकियों का परफार्मेंस लड़कों से हर साल बेहतर होते जा रहा है।

आपके पिता जी ने अपने लड़के को घर से बाहर का रास्ता दिखाया। क्योकि आपके भाई की उद्दण्डता काफी बढ़ गई थी। यह और भी तब असहनीय हो गया जब उन्होने अपने पिता पर ही हाथ उठा दिया।

लड़की को स्कूल न भेजने का निर्णय उनकी आर्थिक हालात और गांव का माहौल था। मुझे विश्वास है उस वक्त गांव मे रेयर ही कोई लड़की स्कूल जाती होगी।
आप जिस परिवेश मे रहती है , उसका प्रभाव आपके जीवन शैली पर पड़ता ही पड़ता है। कहते है न कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। अगर मालती के रूप मे एक पढ़ाई करने वाली लड़की बगल मे न मिलती तो शायद संगीता कभी पढ़ न पाती।

बहुत खुबसूरत अपडेट संगीता जी। आउटस्टैंडिंग अपडेट।
आप की कहानी कभी-कभार मुझे भी बचपन के दौर मे ले चली जाती है। बहुत खूब। लिखते रहिए।
 
Last edited:

kamdev99008

FoX - Federation of Xossipians
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भाईसाहब.............मैं आपकी बात से सहमत नहीं!!!!!!! हर इंसान के पास ज़मीन नहीं होती जिस पर वो फसल ऊगा कर बेच सके..................और जिनके पास होती भी है वो इतनी छोटी होती है की उससे उनका गुज़र बसर हो जाए यही बड़ी बात है.............मुनाफ़ा कमाने की तो बात ही अलग है!!!!! मेरे ससुराल की ही बात देख लो.............पिछले साल हम ने पेपरमिंट और बाली मतलब भुट्टा बोया गया था............जब बज़ार बेचने गए तो नाम मात्र का मुनाफ़ा हुआ इसलिए इस बार पेपरमिंट बोने का ही छोड़ दिया...........मेहनत मज़दूरी करने वाले इतना नहीं कमा पाते की वो अपने बच्चों को पढ़ा सकें...........उनके लिए तो जितने कमाने वाले हाथ होंगें उतना ही बेहतर है| और आप जिन सरकारी योजनावा का ज़िक्र कर रहे हैं वो ठीक से लागू की जाती हैं????????? मैं एक यूट्यूब चैनल देखती हूँ जिसमें एक परिवार अपने बेटे को पढ़ने के लिए आंगनबाड़ी भेजता है..............इस आंगनबाड़ी में गिनती के बच्चे आते हैं और आधा समय तो आंगनबाड़ी ही बंद रहती है!!!!! ऐसे हालातों में बच्चा पढ़ना भी चाहे तो कैसे पढ़ेगा???? केवल सरकारी योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा................जब तक जनता को डंडे से इनकी तरफ हांका नहीं जाएगा कोई आगे नहीं बढ़ेगा!!!!!!!! शहरों में हमारा देश भले ही कितनी ही प्रगति कर ले..............गाँव देहात हमेशा पिछड़ा ही रहेगा.................गॉंव तभी आगे आएगा जब लोगों को जबरदस्ती आगे लाया जायेगा!!!!
मेरी गुस्सैल बहन.... ना तो ये बहस के लिए लिखा मैंने और ना ही हवाई बातें हैं.... हमारी योग्यता सर्टिफिकेट या हम क्या जानते हैं उससे नहीं.... हम क्या कर पाये, इससे पता चलती है.... मैं एक ऐसे गाँव में बचपन में रहा जहाँ सरकारी कर्मचारी चौपाल पर हाजिरी देने आते थे.... 14 साल
फिर बहुत बड़े शहर में रहा... 20 साल
अब 14+ साल से एक ऐसे गाँव में रह रहा हूँ जो आपके देखे सुने किसी भी गाँव से छोटा और पिछड़ा हुआ था.... बिजली, सड़क, स्कूल, नाली, खड़ंजा तक सबकुछ पहली बार ... 15-16 मकान वाले इस गाँव के लिए इन्हीं सरकारी कार्यालयों, कर्मचारियों और योजनाओं से कराया है मैंने..... मेरे बच्चे इसी गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़कर बड़े हुये... और इस गाँव में मेरे पास मात्र 300 वर्ग मीटर खेती की जमीन है... पूर्ण रूप से भूमिहीन...
जिस गाँव में 15 साल पहले कोई मेरी फरियाद भी नहीं सुनता था अब वहीं आसपास के गाँव के लोग ही नहीं सरकारी कर्मचारी तक मुझसे अपने काम निकलवाने को फरियाद लेकर आते हैं.... कृषि, बागवानी, लेखपाल, पंचायत सचिव, आँगनबाड़ी, स्कूल, राशन,निर्वाचन सब विभागों में अपने गाँव का निर्वाचित/निर्विरोध प्रतिनिधि हूँ... ग्राम प्रधान से खिलाफ़ रहकर भी.....

बस एक ही काम किया है मैंने... जब बाबर ने श्री रामजन्मभूमि पर हमला किया... मैंने श्री राम की मूर्ति को धनुष-बाण देकर उनसे रक्षा की प्रार्थना करते हुये मरने की बजाय उनके धनुष-बाण लेकर उनकी रक्षा प्राण रहने तक करने का प्रयास किया..... बाबर को दोष देने से मन्दिर नहीं लौटा, हमें ही स्वयं बनाना पड़ा दोबारा...
दूसरे ने आपके साथ बुरा किया कहने से आपकी समस्या खत्म नहीं हो सकती.... जब कुछ बचा ही नहीं और मिल भी नहीं रहा तो कोई आपका क्या बिगाड़ सकता है..... जो चाहिये, जो हक है उसे पाने के लिये हर रास्ते के पत्थर को तोड़कर कदमों में बिछा दो... दशरथ माँझी की तरह

दुष्यंत कुमार

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक़ से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो
यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुम ने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

No one is innocent...
सभी अपनी गलतियों से दुखी हैं
और सुखी कोई दूसरा नहीं करेगा. .आपको स्वयं प्रयास करना होगा
 
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आपके बचपन का दौर शायद अस्सी के दशक का था। मेरे बचपन के भी कुछ साल गांव मे ही गुजरे हैं। हमारी आर्थिक स्थिति भी कोई खास नही थी। कभी-कभार चावल के लिए तरस जाते थे हम। जबकि हमारे सभी चाचा के घर मे रोज पकवान ही बना करता था।
घर से बोरे ले जाते थे स्कूल मे और उसी पर बैठकर पढ़ते थे। फीस के रूप मे टीचर को अनाज दिया करते थे। कलम की जगह बांस की बनी कृत्रिम कलम और स्याही इस्तेमाल करते थे।
खेत भी नाम मात्र के थे। लेकिन हमारे गांव मे लड़कियों के पढ़ने पर कोई प्रतिबंध नही था। फिर परिस्थितियां बदली।
पिता जी और बड़े भाई की गवर्नमेंट सर्विस लगी।
फिर शहर आने के बाद 1983 मे माध्यमिक और 1988 मे ग्रेजुएशन कम्प्लीट किया। 1989 से व्यवसायिक क्षेत्र मे प्रवेश किया और अब तक वही करते आ रहा हूं।
स्कूल और कॉलेज का सबसे फेमस लड़का रहा। मेरी शादी के रिसेप्शन मे शायद ही कोई टीचर्स या प्रोफेसर होगा जो कि न आया हो।
कहने का तात्पर्य हमारे जीवन मे सुख दुख का मेला लगा ही रहता है। हमारी जिन्दगी भी कभी धूप कभी छांव जैसी ही है।

गांव देहात मे जो आर्थिक रूप से कमजोर थे , उनके लिए अपने बच्चो को स्कूल भेजना काफी मुश्किल भरा काम हुआ करता था। बहुत कम लड़के स्कूल जा पाते थे और लडकियों की अवस्था तो और भी दयनीय थी। गार्डियन की मानसिकता ही यही होती थी कि जब लड़की को ब्याह कर दूसरे घर ही भेजना है तो फिर उसे पढ़ा लिखा कर फायदा क्या !

लेकिन अब वक्त बदल रहा है। अब हर गार्डियन एजूकेशन का इम्पोरटेंट समझ रहा है। लडकियों का परफार्मेंस लड़कों से हर साल बेहतर होते जा रहा है।

आपके पिता जी ने अपने लड़के को घर से बाहर का रास्ता दिखाया। क्योकि आपके भाई की उद्दण्डता काफी बढ़ गई थी। यह और भी तब असहनीय हो गया जब उन्होने अपने पिता पर ही हाथ उठा दिया।

लड़की को स्कूल न भेजने का निर्णय उनकी आर्थिक हालात और गांव का माहौल था। मुझे विश्वास है उस वक्त गांव मे रेयर ही कोई लड़की स्कूल जाती होगी।
आप जिस परिवेश मे रहती है , उसका प्रभाव आपके जीवन शैली पर पड़ता ही पड़ता है। कहते है न कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। अगर मालती के रूप मे एक पढ़ाई करने वाली लड़की बगल मे न मिलती तो शायद संगीता कभी पढ़ न पाती।

बहुत खुबसूरत अपडेट संगीता जी। आउटस्टैंडिंग अपडेट।
आप की कहानी कभी-कभार मुझे भी बचपन के दौर मे ले चली जाती है। बहुत खूब। लिखते रहिए।
मेरी पैदाइश सं ८० की है..........उस समय से अभी तक गॉंव में बहुत बदलाव आये हैं.........पढ़ाई के नए आयाम खुल गए हैं...........सड़क है.......बिजली है.......सब कुछ बनता जा रहा है गर लड़कियों की पढ़ाई को वो तवज्जो नहीं दी जाती जो यहाँ शहरों में दी जाती है| इतना अवश्य है की जो बच्चा पढ़ रहा है उसे पढ़ने दिया जाता है मगर लड़कियों को अभी तक खुल कर पढ़ने नहीं दिया जाता| मैं ये इसलिए कह रही हूँ की मुझे अपनी बड़ी बेटी को पढ़ाने के लिए खुद से दूर रखना पड़ रहा है............अच्छा लगता है जब हमें पता लगता है की कोई और भी था जो हमारी ही तरह संघर्ष कर के पढ़ा है| हमें सब कुछ चांदी के बर्तनों में नहीं परोसा गया...........हमने मेहनत कर के पाया| लेकिन आपकी किस्मत मेरे से अच्छी थी...........कम से कम आप अपनी ख़ुशी से..........अपनी इच्छा से पढ़ पाए..........लेकिन कहते हैं न हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता..............ये लो..........लेखक जी के साथ रहते रहते मैं भी शायरी बोलने लगी हूँ!!!!!! आपके कमेंट के लिए बहुत शुक्रिया.............बहुत इंतज़ार करवा कर रिव्यु दिया आपने.........जल्दी दिया कीजिये 🙏
 
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मेरी गुस्सैल बहन.... ना तो ये बहस के लिए लिखा मैंने और ना ही हवाई बातें हैं.... हमारी योग्यता सर्टिफिकेट या हम क्या जानते हैं उससे नहीं.... हम क्या कर पाये, इससे पता चलती है.... मैं एक ऐसे गाँव में बचपन में रहा जहाँ सरकारी कर्मचारी चौपाल पर हाजिरी देने आते थे.... 14 साल
फिर बहुत बड़े शहर में रहा... 20 साल
अब 14+ साल से एक ऐसे गाँव में रह रहा हूँ जो आपके देखे सुने किसी भी गाँव से छोटा और पिछड़ा हुआ था.... बिजली, सड़क, स्कूल, नाली, खड़ंजा तक सबकुछ पहली बार ... 15-16 मकान वाले इस गाँव के लिए इन्हीं सरकारी कार्यालयों, कर्मचारियों और योजनाओं से कराया है मैंने..... मेरे बच्चे इसी गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़कर बड़े हुये... और इस गाँव में मेरे पास मात्र 300 वर्ग मीटर खेती की जमीन है... पूर्ण रूप से भूमिहीन...
जिस गाँव में 15 साल पहले कोई मेरी फरियाद भी नहीं सुनता था अब वहीं आसपास के गाँव के लोग ही नहीं सरकारी कर्मचारी तक मुझसे अपने काम निकलवाने को फरियाद लेकर आते हैं.... कृषि, बागवानी, लेखपाल, पंचायत सचिव, आँगनबाड़ी, स्कूल, राशन,निर्वाचन सब विभागों में अपने गाँव का निर्वाचित/निर्विरोध प्रतिनिधि हूँ... ग्राम प्रधान से खिलाफ़ रहकर भी.....

बस एक ही काम किया है मैंने... जब बाबर ने श्री रामजन्मभूमि पर हमला किया... मैंने श्री राम की मूर्ति को धनुष-बाण देकर उनसे रक्षा की प्रार्थना करते हुये मरने की बजाय उनके धनुष-बाण लेकर उनकी रक्षा प्राण रहने तक करने का प्रयास किया..... बाबर को दोष देने से मन्दिर नहीं लौटा, हमें ही स्वयं बनाना पड़ा दोबारा...
दूसरे ने आपके साथ बुरा किया कहने से आपकी समस्या खत्म नहीं हो सकती.... जब कुछ बचा ही नहीं और मिल भी नहीं रहा तो कोई आपका क्या बिगाड़ सकता है..... जो चाहिये, जो हक है उसे पाने के लिये हर रास्ते के पत्थर को तोड़कर कदमों में बिछा दो... दशरथ माँझी की तरह

दुष्यंत कुमार

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक़ से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो
यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुम ने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

No one is innocent...
सभी अपनी गलतियों से दुखी हैं
और सुखी कोई दूसरा नहीं करेगा. .आपको स्वयं प्रयास करना होगा
मैं अहमेषा कहती थी की आप में मंत्री बनने के पूरे गुण हैं...............बताओ मैंने कहा क्या और आप ने जवाब क्या दिया!!!!!!!! मैं एक गरीब इंसान के अपने बच्चों को न पढ़ा पाने की बात कह रही थी और आप ने तो अपने गॉंव का ज़िक्र और राम जन्म भूमि का ही ज़िक्र कर दिया................वैसे जानकार ख़ुशी हुई की आप भी राम जन्मभूमि के समर्थकों में से हैं..............न की उन वॉक लोगों में से.............आपकी बताओं से लग रहा है की शायद आपका और मेरा आस पास ही है :hinthint2: ....................हम भी अयोध्यावासी..............और शायद आप भी अयोध्या वासी ?????????? वैसे आपको बता दूँ की हमारा गॉंव आपसे भी छोटा है..........गिनती के ७ मकान हैं उसमें बस हमारा घर ही पक्का है......बाकी सब कच्चे हैं!!!!!!!!! मेरा मायका तो बस ४ घरों का गॉंव है.............!!!!!!! तो मेरा पलड़ा अब भी भारी है!!!!!!!!! :hehe:
 
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जैसे तैसे अम्मा और बप्पा मान गए थे.............मगर जानकी इस बात से बहुत नाखुश थी!!!! मेरी अपनी सगी बहन..........मेरे स्कूल जाने के नाम से चिढ गई थी!!!!!



जानकी को पढ़ाई का ज़रा भी शौक नहीं था...........उसे तो बस दिन भर सोनी के साथ खेलना पसंद था| जब उसे पता चला की मैं पढ़ने स्कूल जा रही हूँ तो वो मुझसे उखड़ गई.................उस बुद्धू को लग रहा था की मेरे बाद उसे भी स्कूल भेजा जाएगा!!! इस बात को ले कर जानकी ने मुझसे बहुत झगड़ा किया की कैसे मेरे स्कूल जाने से उसे भी जबरदस्ती स्कूल भेजा जाएगा.................इतने अनजान बच्चों के साथ वो कैसे खुद को डालेगी इसकी चिंता कर के उसकी जान सूख रही थी!!!



उधर मैं भी बुद्धू थी जो उसे पढ़ाई का महत्व समझा रही थी............ जबकि असल बात कुछ और ही थी| मेरे अम्बाला जाने से अब सारा काम धाम अम्मा जानकी को कहतीं...........जिससे बेचारी सोनी के साथ खेल नहीं पाती| इसी बात का गुस्सा जानकी मुझ पर निकाल रही थी.............और मैं इस बात से अनजान उसे प्यार से समझा रही थी|



अम्मा को मेरा पढ़ने जाना बिलकुल रास नहीं आ रहा था...........तभी तो उन्होंने भी जानकी की तरह मुझे छोटी छोटी बातों पर झिड़कना शुरू कर दिया| अम्बाला जा कर मुझे खुद को कैसे संभालना है........अपनी मौसी को तंग नहीं करना है..........मामी मामा के घर भी जाना है.........आदि बातें डांट डांट कर सिखाई जा रही थीं| मैं सबकी डांट और झिड़कियां सुन रही थी तो बस इसलिए की कम से कम मुझे पढ़ने को तो मिल रहा है!!!!





आखिर वो दिन आ ही गया.............. जब मुझे अम्बाला जाना था| मैं सबसे पहले अपनी अम्मा के पास पहुंची और उनके पॉंव छू कर आशीर्वाद माँगा.................मगर मेरी अम्मा मुझे आशीर्वाद देने के बजाए मुझे हिदायतें देने लगीं की मुझे मौसी के पास कैसे रहना है| फिर मैं पहुंची चरण काका के पास.............उन्हीं के कारन तो मुझे पढ़ने को मिल रहा था| काका ने मेरे सर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया और बोले "खूब मन लगाए के पढयो मुन्नी.............ख़ुशी ख़ुशी जाओ और जब छुट्टी होइ तब गहरे आयो|" माँ के मुक़ाबले चरण काका ने मुझे बड़े प्यार से आशीर्वाद दिया था...............जिस कारन मैं बहुत खुश थी|



फिर मैं पहुंची जानकी और सोनी के पास............जानकी मुझसे बहुत गुस्सा थी इसलिए बजाए मुझे कोई शुभेछा देने के...........वो तो मुझे गुस्से से घूरने लगी!!! "अम्मा बप्पा का ख्याल रखयो...........और तनिक भी मस्ती बाजी ना किहो नाहीं तो लडे जाबो!" एक बड़ी बहन होते हुए मैं तो बस अपनी छोटी बहन को थोड़ी हिम्मत दे रही थी..............मगर मेरी बात सुन जानकी मुँह टेढ़ा करते हुए बोली "हुंह!!!!!!"



मैं जानकी का गुस्सा जानती थी इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और सोनी को आखरी बार गोदी लेने को हतः आगे बढ़ाये.............पर जानकी बहुत गुस्से में थी इसलिए उसने फट से सोनी को गोदी में उठा लिया और बोली "कउनो जर्रूरत नाहीं आपन प्यार दिखाए की..............अतना ही प्यार आवत रहा तो काहे जात हो??? तोहका आपन पढ़ाई बहुत भावत है...........जाए का आपन पढ़ाई करो!!!!" ये कहते हुए वो सोनी को गोदी में लिए हुए भुनभुनाते हुए अंदर चली गई|



अपनी छोटी बहन के इस तिरस्कार को ही उसका प्यार समझ मैं बप्पा के साथ अम्बाला आ गई| मेरी मौसी का घर और मां का घर आस पास था इसलिए सभी ने मेरा ध्यान रखने की जिम्मेदारी ली| जब बप्पा चलने को हुए तो मैं बहुत उदास हो गई थी..............आज पहलीबार मैं अपने घर से इतना दूर आई थी और मेरे बप्पा मुझे यहाँ छोड़ कर जा रहे थे इसलिए मैं रो पड़ी| मुझे रोता हुआ देख बप्पा ने मेरे सर पर हाथ रखा और अपनी कड़क आवाज़ में बोले "रोवा नाहीं जात है........तू हियाँ आपन पढ़ाई करे खतिर आयो है..........पूर श्रद्धा से पढ़ाई करो!!!! जब तोहार स्कूल का छुट्टी होइ तब हम आबे अउर तोहका लेइ जाब|" बप्पा के कहे ये वो शब्द हैं जो आज उनके न रहने पर भी मुझे याद हैं..........स्वभाव से बप्पा बहुत सख्त थे पर उनका प्यार उनके सख्त शब्दों में ही छुपा होता था|





मेरे मौसा मौसी............मामा मामी बड़े अच्छे थे............ऊपर से दोनों घर आस पास थे ..............तो मैं कभी मौसी के घर रहती तो कभी मामा जी के घर| वहां मेरी दो बहने थीं.............एक मौसेरी बहन..........और एक ममेरी बहन| मेरी मौसेरी बहन मुझसे ४ साल बड़ी थी और मेरी ममेरी बहन मुझसे दो साल बड़ी थी| दोनों मेरा बहुत ध्यान रखती थीं और शाम को मुझे अम्बाला घुमाती थीं| मैंने अपनी दोनों बहनों से स्कूल के बारे में पूछना शुरू किया……. उन्होंने मुझे बताया की हमारा स्कूल एक सरकारी स्कूल है जो सुबह ७ बजे से १ बजे तक होता है..........उसके बाद १ से ६ लडकों का स्कूल होता है| स्कूल में मुझे एक ड्रेस पहननी होगी जो की मेरी ममेरी बहन की पुरानी ड्रेस थी.........उस ड्रेस को मामी जी ने सिल कर मेरे नाप का बना दिया था| फिर मुझे मिलीं मेरी ममेरी बहन की पुरानी किताबें............अपनी किताबें देख कर मैं बहुत खुश हुई| एक बच्चे के लिए उसकी पहली स्कूल ड्रेस..........उसकी किताबें कितना मायने रखती हैं ये ख़ुशी आप सभी जानते ही होंगें| आप सब खुश नसीब हैं की आपको नए कपड़े और नई और कोरी किताबें पढ़ने को मिलीं...................मेरे लिए तो मेरी बहन की पुरानी किताबें............उसकी पुरानी ड्रेस ही सब कुछ थी| मैं खुद को बहुत भायग्यशाली समझ रही थी की मुझे ये खुशियां मिलीं| मगर ये सारी खुशियां...........चिंता में जल्द ही बदल गईं............जब मेरा स्कूल का पहला दिन आया!





स्कूल का पहला दिन था इसलिए मैं नहा धो कर...........सर पर अच्छे से तेल चुपड़ कर..........बालों में रिबन बाँध कर............अपनी स्कूल ड्रेस पहन कर तैयार हो गई| तभी मेरी मौसी जी ने मुझे एक प्लास्टिक का बक्सा दिया और बोलीं की आधी छुट्टी में मुझे ये खाना है| अब हमारे गॉंव में स्कूल में आधी छुट्टी नहीं होती थी................बच्चे दोपहर १ बजे तक घर लौटते थे और खाना खाते थे| मुझे भी यही लगा था की मैं घर आ कर खाना खाउंगी..............पर जब मौसी ने मुझे ये प्लास्टिक बक्सा दिया तो मैं सोच में पड़ गई|



"मौसी.........हम गहरे आये के खाये लेब.........ई......." इसके आगे मैं कुछ बोलती उससे पहले ही मौसी बोलीं "नाहीं नाहीं मुन्नी!!! पढाई म मन लगाए खतिर पेट भरा हुए का चाहि! भूखे पेट पढ़ाई नाहीं होत है!" मौसी की बातें सुन कर मैं हैरान थी................ गॉंव में सुबह बच्चे कुल्ला कर चाय पीते थे...........फिर भूख लगी तो बासी खाते थे और फिर स्कूल जाते थे| दोपहर १ बजे सीधा खाना खाया जाता था..........पर यहाँ तो मौसी ने मुझे ताज़ा ताज़ा खाना बना कर डिब्बे में पैक कर के दिया था!!!! क्या शहर के माँ बाप अपने बच्चों को .............गाँव के माँ बाप से ज्यादा ज्यादा प्यार करते हैं?????



मैं मन ही मन इस सवाल का जवाब सोच रही थी की तभी मेरी मौसेरी बहन मुस्कुराते हुए बोली; "संगीता इसे डिब्बा नहीं लंच बॉक्स कहते हैं.........और स्कूल में सभी बच्चे घर से लंच बॉक्स ले कर आते हैं|" 'लंच....बॉक्स...' ये नाम मुझे भा गया था और मेरे चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आ गई थी| अपना लंच बॉक्स ले कर मैं स्कूल के लिए जाने ही वाली थी की मेरी मौसी जी ने मुझे रोका..........मुझे लगा उन्हें कोई काम बताना होगा मगर मौसी ने गर्मागर्म परांठे की थाली उठा कर मुझे दी और बोलीं; " अरे खाली पेट स्कूल जैहो??? चलो पाहिले दोनों बहिन नास्ता खाओ|"



मुझे अम्बाला आये बस एक दिन हुआ था और मुझे मौसी के घर के नियम कानून के बारे में ज़रा भी नहीं पता था| मैंने आज पहलीबार सुबह इतना स्वाद नास्ता किया...............गरमा गर्म आलू के परांठे........साथ में आम का अचार!!!!! स्कूल जाने की इससे स्वादिष्ट शुरआत तो हो ही नहीं सकती थी!!!!
 
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इस अपडेट ने भी कुछ पुरानी यादें ताजा करा दी। मेरी मां भी मेरे पुराने कपड़े मेरे दूर के एक कजन को दे दिया करती थी। उनकी फाइनेंशियल स्थिति तो और भी बदतर थी। मेरी मां और बाबू जी जैसा इंसान मैने आज तक नही देखा। उन्होने अपने परिवार का ही नही बल्कि अपने सभी रिलेटिव का भरपूर फाइनेंशियल हेल्प किया।

संगीता और जानकी दोनो लगभग हमउम्र थी। बच्चो के अंदर प्रतिद्वंदिता की भावना नेचुरल है। लेकिन यही बहने जब बड़ी हो जाती है , इनकी शादी हो जाती है तब अपने बचपन को याद कर इमोशनल भी होती है और आँसू भी बहाती है।

संगीता और जानकी के उम्र मे सिर्फ एकाध साल की ही फर्क था। दोनो बहुत ही कम उम्र की थी। इस उम्र मे जो कुछ होता है वो बाल सुलभ नेचर होता है।
लेकिन बाद मे , समझदार होने के बाद भी , अगर यही नेचर रहा तब जरूर कोई बड़ी प्राब्लम है।

दरअसल इंसानी फितरत है - हम अपने दुख सुख से , अपने चश्मे से , अपने नजरिए से सभी लोगों को आकलन करना शुरू कर देते है। लेकिन सच तो यह है कि यह पुरी तरह गलत है। हर इंसान का कर्म भी अलग है और हर इंसान का तकदीर भी अलग है।

बहुत ही खूबसूरत अपडेट संगीता जी।
 
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