रात के 1 बज रहे थे।
दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर, जंगलों और फैक्ट्रियों के बीच एक वीरान सड़क... चारों तरफ सन्नाटा, सिर्फ दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़।
एक भारी ट्रक, पुराने जर्मन इंजन की खरखराहट के साथ धुआँ उड़ाता हुआ बॉर्डर की तरफ बढ़ रहा था।
ट्रक के पीछे लकड़ी के ढांचे में छुपे थे 500 किलो सोने की ईंटें।
और साथ था हसन मिर्ज़ा का खौफनाक लश्कर — 20 हथियारबंद आदमियों का घातक काफ़िला।
ड्राइवर - यूसुफ़, एक पुराना खिलाड़ी, हसन मिर्ज़ा का भरोसेमंद आदमी।
साथ वाली सीट पर बैठा था खालसी - तबरेज़, जो बार-बार राइफल की नली को गीले कपड़े से साफ कर रहा था।
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खालसी: (सिगरेट मुंह में दबाकर)
"भाई… बॉर्डर पास है… कोई हरकत दिखे तो सीधे खोपड़ी उड़ा दूँ?"
ड्राइवर:
"जब तक फोन न आए, गोली नहीं चलानी… ये दिल्ली है तबरेज़.... "
तभी... ट्रक अचानक रुक जाता है।
सामने एक बांस की बैरिकेडिंग लगाई गई थी, जिसे दो लाल झंडों से घेरा गया था।
और पास ही एक जलता हुआ टायर, धुएँ में लिपटा हुआ…
ड्राइवर घबराता है…
"ये तो प्लान में नहीं था…"
तबरेज़:
(चौंक कर ट्रक से उतरने की तैयारी में)
"रुक यार! मैं देखता हूँ…"
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तभी ट्रक के दोनों तरफ़ झाड़ियों में सरसराहट होती है।
चारों तरफ अंधेरे में हलचल… हथियारबंद लोग एक-एक कर ट्रक के आसपास उतरते हैं, पोजिशन लेते हैं।
तबरेज़ चिल्लाता है—
"कौन है बे… सामने आ!"
कोई जवाब नहीं… सिर्फ हवा की सीटी।
ड्राइवर:
"नज़र नहीं आ रहा कोई… बस रोड घेरा है, और कोई निकलता भी नहीं… लगता है कोई गैंग…"
तबरेज़: (गुस्से से)
"साले सामने क्यों नहीं आते… छुप कर खेलते हो बे...
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ड्राइवर अब ट्रक के क्लच पर पैर रखे तैयार है… मगर तभी…
पास के पेड़ पर एक जलती लाल लाइट चमकती है…
ट्रक के आगे पड़ा बैरिकेड खुद-ब-खुद हटने लगता है — बिना किसी इंसान के…
खालसी:
(डर के साथ फुसफुसाते हुए)
"भूत है क्या बे…?"
ड्राइवर:
"नहीं बे…. जो भी हो कट्टा तैयार रख.. सामने आये तो भर दो सालो को...
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सड़क की रात अब और डरावनी हो गई थी।
ट्रक धीरे-धीरे बैरिकेड पार कर रहा था।
ड्राइवर के चेहरे पर पसीने की लकीरें थीं, और तबरेज़ की उंगलियां ट्रिगर पर सख्त हो चुकी थीं।
तभी...
“टटटटटटटटटटटटटटटट!!!”
चारों तरफ से गोलियों की बौछार शुरू हो जाती है।
ट्रक की बॉडी पर छर्रे ऐसे लगते हैं जैसे किसी पर अंगारे बरसाए जा रहे हों।
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ड्राइवर चीखता है —
"अबे क्या हो रहा है ये!!!"
तबरेज़:
" घेर लेल्हन भाई रे.."(भोजपुरी)
तभी तीनों तरफ़ की झाड़ियों से
तीन परछाइयाँ उड़ती हुई बाहर आती हैं
साद, राहिल और बीच में — **
सिकंदर...
काले हुडी में, , हाथ में एक रुस्सियन तमंचा।
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साद छलांग मारकर ट्रक के दरवाज़े पर पहुंचता है, ड्राइवर को नीचे खींचता है —
साद:
"निचे आ रे मादरचोद.."
ड्राइवर डर के मारे हड़बड़ाकर नीचे गिरता है।
साद स्टेयरिंग संभालता है, ट्रक को एक झटके में बंद कर देता है।
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राहिल, —घायल गुंडों के जेबों से उनका फोन निकाल कर तोड़ता जा रहा था...
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सिकंदर की तरफ़…
सामने छह गुंडे, हाथों में देसी कट्टा, पर सिकंदर की आँखों में डर नहीं — ।
सिकंदर:
"क्यों मरना चाहते हो बे.. भाग जाओ... जिन्दा रहोगे..
वो दौड़ता है, एक को सीधे रॉड से जबड़े पर मारता है — टूटी हड्डी की ‘चड़ाक’ गूंजती है।
दूसरे को गर्दन से पकड़कर धकेलता है — उसकी रीढ़ की हड्डी चटक जाती है।
तीसरे की आंखों में उंगलियाँ घुसा देता है — चीख गूंजती है।
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लेकिन लड़ाई आसान नहीं…थी..
एक गुंडा पीछे से सिकंदर के सिर पर डंडा मारता है —
"ठक!!!"
सिकंदर लड़खड़ा जाता है।
उसके माथे से खून बहता है, आँखें धुंधली… पैर में भी एक चाकू घुस जाता है।
साद चिल्लाता है:
"भाई!!"
पर सिकंदर उठता है… खून से सना चेहरा… आँखे सुर्ख़…
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फिर वो आख़िरी बार गुस्से से दहाड़ता है, एक-एक करके बच गए गुंडों को गिरा देता है।
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सड़क पर अब सिर्फ़ गोली की खुशबू, खून की बूंदें, और तीन शेरों की साँसे गूंज रही हैं।
ट्रक अब ‘कब्ज़े’ में है… पर सिकंदर का सर फटा है, खून टपक रहा है पर चेहरे पर जीत की मुस्कान थी...।
राहिल सिकंदर से - भाई तू घर जा... तू घायल है.. हम गाड़ी को ठिकाने लगा देंगे...
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हसन मिर्ज़ा को जब बताया जाता है तो वो किसी घायल सांप के तरह चटपटाने लगता हो.. मानो जैसे उसके फन को किसी ने कुचल दिया है... एक ही रात मे उसे दो इतने बड़े घाव मिले थे.. जो अगर भर भी जाये तो भी उसके निसान हसन का पीछा नहीं छोडेंगे.... वो तिलमिलाया हुवा अलीना से बोलता है..
अलीना मुझे जाना होगा.. तुम सहबाज का ख्याल रखना और अब ये तुम्हारी ज़िमेदारी है उस लोंडे को उसके किये का सुध समेत वापस लोटाना....
अलीना बिना उससे कुछ पूछे अपना गर्दन हाँ मे हिला देती है.. और पूछती भी कैसे... शोहर जो था.. शोहर जो करें सब सही है...
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हॉस्पिटल का ऑपरेशन रूम बाहर का हिस्सा – रात के दो बजे
अलिना का चेहरा सख़्त था,… और होंठों पर नफ़रत वाले शब्द। उसके सामने दो गुंडे खड़े काँपते हुए अपना बयान दे रहे थे।
पहला गुंडा (डरते हुए):
"बीबी साहिबा… हम कुछ ना कर पाए… साहब ने हुक्म दिया कि उस लौंडिया को उठाओ और गाड़ी में ले आओ… पर जैसे ही हम बढ़े, वो छोरा आ गया… जैसे कोई जिन…… साहब पे हमला कर दिया… सर पे रॉड मारी… और… और हम कुछ ना कर पाए…”
दूसरा गुंडा (गला सूखा हुआ):
"हमने मना किया था बीबी साहिबा… कहा था मत करो… पर साहब बोले – ‘ये मेरी रखैल बनेगी… चाहे कुछ भी हो जाए।’… पर उस छोरे ने… उसने तो क़यामत ढा दी…”
(एक सेकंड के लिए हॉस्पिटल में सन्नाटा फैल जाता है)
अलिना की साँसें तेज़ हो रही थीं… फिर उसने एक गहरी, ठंडी सांस ली… और अपनी बड़ी-बड़ी झिलमिल आँखों में अंगारें भरकर बोली:
अलिना (आहिस्ता मगर कांपते हुए शब्दों में):
"उस लोंडे ने मेरे बेटे को मारा है?… उस बदजात ने मेरी ममता को ज़लील किया है?... मेरी औलाद को मिट्टी में घसीटा है?... अब सुन ले ये दुनयाँ … सुन ले ये रहमत नगर… अलिना मीरज़ा का अब एक ही ऐलान है..."
(उसने पीछे पलटकर देखा – उसका पूरा ख़ानदान, भाई, भाभी, नौकर, बॉडीगार्ड – सब सन्न खड़े थे)
अलिन :
"अब उस लोंड़िया को… मैं उसके उस यार के सामने अपने बेटे का तोहफा बनाकर पेश करूंगी… अब वो ज़ोया… मेरी बहू नहीं… मेरी बेटे की रखैल बनेगी… और उस लफंगे को… मैं अपने हाथों से… कुत्तों की तरह मारूंगी!!"
वो बिना कुछ कहे सहबाज़ के कमरे में जाती है… उसे होश नहीं था… मशीने बीप कर रही थीं… उसके सिर पर पट्टी बंधी थी।
अलिना झुकती है… उसके माथे पर एक नज़र डालती है… और सिर्फ एक लफ्ज़ कहती है…
अलिना (धीमे मगर खून से सना लहजा):
"अम्मी हूं मैं तेरी… अब देखना… कैसे चुकाती हूं अम्मी होने का कर्ज़…!"
(फिर वो सीधे बाहर निकलती है – हाथ हिलाती है – इशारा होता है)
15-20 काले शीशों वाली SUVs हॉस्पिटल के पोर्च से निकलती हैं – सभी कारें रहमत नगर की तरफ दौड़ पड़ती हैं।
रहमत नगर – रात के 3 बजे
ठंडी हवा में लिपटी चाँदनी – मोहल्ला नींद में डूबा था…या ऐसा जाता रहा था... आज शाम जो हुवा था उसके बाद किसी मे हिम्मत नहीं बची थी धरना देने की.. सब समझ चूके थे... सहजादे ( सहबाज ) को मारा है तो रानी तो आये गी ही.. सब सहमे हुवे थे...
एक भारी सा ब्रेक… टायर्स की चरमराहट… और गाड़ियों की कतार मोहल्ले के बीचोबीच रुक जाती है।
दरवाज़ा खुलता है… पहली गाड़ी से अलिना उतरती है – काले लिबास में – ऊँचे एड़ी के जूते, हाथ में महेंगे बैग कलाई मे सोने के कंगन और आँखों में गुरुर और आत्मबिस्वास …
सड़क के दोनों किनारों पर लोग जाग जाते हैं… दरवाज़ों से झांकते हैं… सब जानते थे… "रानी साहिबा खुद पधारी हैं…"
पीछे की गाड़ियों से उतरते हैं बॉडीगार्ड्स, नौकर, – सब सहमे हुए हैं…
माहौल में सिहरन है… हवा सर्द है… और अलिना की आंखों में एक ही प्यास – इंतकाम!
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अभी लोग अपने घरों से झाँक ही रहे थे कि एक कर्कश, घबराई हुई आवाज़ ने मोहल्ले को झकझोर दिया—
मुस्ताक अहमद (चीखते हुए, ऊँगली हवा में उठाकर):
"सुनो मोहल्लेवालों!! आज उस लोंडे का जनाज़ा नकलने खुद मलिकाए नवाब – अलिना मीरज़ा –और तुम्हारा हिसाब लेने आई है!! बचा सको तो बचा लो!!"
(एक पल को मोहल्ले की रूह काँप उठती है… दरवाजों के पीछे की हालचल बढ़ जाती है … चेहरों पे डर उतर आता है…)
अलिना ने हाथ का इशारा किया।
गुंडे ज़ोया के घर की ओर बढ़े।
घनघनाते हुए लातों से दरवाज़ा पीटना शुरू हुआ –
"दरवाज़ा खोलो!! मालिकाए नवाब का हुक्म है!! उस लोंड़िया को बाहर भेज!!"
अंदर हड़कंप मच गया था। पर ज़ोया की आँखें शांत थीं – न वो डरी, न हिली। पर रुक्सार घबरा गई थी – उसने बेटी को छिपाने की कोशिश की, पर गुंडे दरवाजे को तोड़ते हुए अंदर घुस आए। अली ने कोशिस की पर उसे एक तरफ कर दिया गया..
कुछ ही पल में ज़ोया को बालों से पकड़कर घसीटते हुए बाहर लाया गया।
मोहल्लेवाले अपनी खिड़कियों से देख रहे थे – कोई मदद करने की हिम्मत न कर सका।
ज़ोया को अलिना के क़दमों में पटका गया।
रुक्सार ज़मीन से चिपकती हुई दौड़ी… और अलिना के क़दमों में गिर पड़ी।
रुक्सार (चीखती, काँपती आवाज़ में):
"बख्श दो मेरी बेटी को… वो मासूम है बीबी साहिबा … तुम भी तो माँ हो… तुम्हे मां की ममता का वास्ता है… मेरी बच्ची को छोड़ दो…!"
अलिना की आँखों में कोई नर्मी नहीं थी।
उसका चेहरा सख़्त था… और लहजा ज़हर से भरा हुआ।
अलिना (धीमे मगर अंगारों की तरह जलते शब्दों में):
"मां?... तू मुझे मां की दुहाई देती है कुत्त्या?... मेरी औलाद लहूलुहान पड़ी है अस्पताल में… और तू मुझसे रहम माँगती है?... जब मेरे बच्चे को बेहरहमी से मारा गया तब तेरी ममता कहाँ थी?..."
"अब मेरी ममता सिर्फ़ इंतकाम माँगती है… और वो मैं तुझे दे के रहूंगी!"
(अलिना ज़ोया की तरफ़ बढ़ती है… उसे बालों से पकड़कर उठाती है…)
ज़ोया की आँखों में आँसू नहीं थे… न डर… बस एक ख़ामोशी थी… और यही अलिना को जला रही थी।
अलिना (गुस्से से काँपते हुए):
"घूर क्या रही है हरामजादी? तेरे उस लफंगे यार ने मेरे बेटे को अधमरा कर दिया ! अब देख – तुझे पुरे बस्ती के के सामने नंगा करूँगी!" तब मेरा बदला पूरा होगा..
(मोहल्ले में सन्नाटा है… सिर्फ़ चाँद की रोशनी और अलिना की गूँजती आवाज़ है…)
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रात थी… मगर ये कोई आम रात नहीं थी।
आसमान में चाँद अपनी आखिरी साँसें लेने लगा था, और पूरी हवाओं पर किसी मातम का बादल छाया हुवा था...।
और कुछ ही पलों मै बारिश सुरु हो गयी... मानो आसमान को समझ आ गया था क्या होने वाला है...
मोहल्ले के बीचोंबीच, कूड़े और कीचड़ से सनी गलियों में गूँजता सन्नाटा था।
सिर्फ़ एक औरत की साँसें तेज़ थीं — वो औरत थी अलिना मिर्ज़ा।
उसके एक हाथ में ज़ोया के बाल थे, जो भीगती हुई ज़मीन पर घुटनों के बल गिरी थी… और दूसरा हाथ उसकी तरफ़ उठा था, जैसे कोई आसमान से इन्साफ़ माँग रही हो…
अलिना की आँखों में पागलपन उतर आया था।
"हरामज़ादी! चल कपड़े उतार....आज तुझे पुरे शहर के नंगे चककर लगवाउंगी...
ज़ोया की आँखों से आँसू नहीं, — सायद अब बचे ही नहीं थे... एक ही रात मै दो बार उसे उसके घर से घसीटा गया.... पुरे समाज के सामने जलील किया गया... अब उसमे ताकत नहीं बची थी... वो पुरे समाज के सामने तार तार हो गयी थी...
तभी…
गर्र्रर्रररर…
एक मोटरसाइकल की आवाज़ जैसे मौत का साया बनकर मोहल्ले में गूँजी।
उसके साथ एक छाया सामने आई — काले बरसाती कोट में, खून से लथपथ, माथे पर पट्टी और फूटे हुवे होंठ — वो था ‘सिकंदर’। घायल सिकंदर..
मगर अलिना अब भी बेख़बर थी… अंधरे के कारण वो उसका चेहरा नहीं देख पायी.....
तभी मुस्ताक अहमद ने तेज़ी से उसकी ओर बढ़ते हुए कहा—
"मैडम… वही है! वही लोंडा है जो छोटे मालिक को मारा था..
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रात अब और गहरी हो चुकी थी।
बिजली अब आसमान में नहीं, ज़मीन पर चमक रही थी — छुरियों, सरियों और डंडों की शक्ल में।
मोहल्ले की बीचोंबीच, कीचड़ और खून में लथपथ ज़मीन पर सिकंदर खड़ा था — , …
"तू है ना रे... तूने ही मारा था ना मेरे बेटे को...
अलिना ने गुस्से से काँपते हुए चीख़ कर पूछा।
सिकंदर की मुस्कराहट में खून मिला था… उसकी फटे हुवे होंठ से खून टपक रहा था, एक आँख के ऊपर बड़ा सा घाव था., पैर से खून बह रहा था… फिर भी वो सीधा खड़ा रहा।
"हाँ… मैं ही हूँ।"
उसकी आवाज़ सीधी अलिना की छाती में जा धँसी।
"तुम्हारे बेटे को ज़मीन पर पटकने वाला मैं ही था।"
अलिना की आँखें खून से लाल हो गईं… उसने पीछे मुड़कर अपने आदमियों को देखा — और बोली—
"मारो इसे… टुकड़े-टुकड़े कर दो…! जला दो इस हरामी को!" हराम के जाने... मेरे बेटे को मरता है... अलीना मिर्ज़ा के बेटे को मारे गा तू... इतनी हिम्मत....
गुंडों की भीड़ टूट पड़ी…
कोई सरिया लेकर दौड़ा, कोई छुरी लेकर…
और उस बेचारे पर, जो पहले से ही ज़ख़्मी था, जो अब हिल भी मुश्किल से पा रहा था…
सिकंदर एक पल को पीछे हटा… फिर खुद को संभालने की नाकाम कोशिश की… मगर पहला वार उसकी पीठ पर पड़ा।
दूसरा उसके पेट पर…
तीसरा उसके चेहरे पर…
और फिर तो जैसे... मौत का जश्न शुरू हो गया।
मोहल्ले की फटी-पुरानी ईंटों वाली गलियों में सिकंदर को 100 से ज़्यादा लोग मार रहे थे…
उसके जिस्म से खून ऐसे बह रहा था जैसे गिलास टूटने के बाद लाल शराब..…
हर वार के साथ उसकी साँसे धीमी होती जा रही थीं…
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एक कोने में ज़ोया पड़ी थी — बेहोश। उसकी साँसे चल रही थीं मगर शरीर में जान नहीं थी।
रुक्सार ज़मीन पर घुटनों के बल बैठी थी… उसकी चीखें रात को फाड़ रही थीं—
"छोड़ दो उसे… खुदा का वास्ता है… मार डालोगे क्या उसे!"
अली के हाथ की हड्डी टूटी पड़ी थी, वो दर्द में कराहता हुआ बस दूर से देख रहा था…
हासिम साहब… वो बूढ़े इंसान… जिनकी आँखों ने ज़िंदगी के कई ज़ुल्म देखे थे… आज बेबस खड़े थे…
उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे… होंठ काँप रहे थे…
"या खु*दा… ये तूने क्या किया…..
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सिकंदर अब गिर पड़ा था।
उसका जिस्म हिलना बंद हो गया था…मगर अलिना के रूह को अब भी ठंडक नहीं मिली थी..
सिकंदर मुस्कुराते हुवे खुद से बोलता है..
"जिसे अपनी कोख से निकाला था…"
"उसे ही मार दिया … किसी और के लिए.. हाहा.."
और फिर एक तेज़ साँस के साथ…
फिर से खड़ा होने की कोशिस करता है..
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गुंडों भीड़ छँटने लगी…
अलिना अब भी वहीं खड़ी थी… बारिश अब भी गिर रही थी…
उसे नहीं पता था… कि उसने किसे मरवाया है...
उसे नहीं पता था… उस लड़के के जिस्म से बह रही हर खून की बून्द उसकी अपनी है...
मगर… वो पल बहुत दूर नहीं था… जब ये सच्चाई उसकी रूह को छलनी कर देगी।
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बारिश अब तेज़ हो चुकी थी।
पानी की बूँदें जैसे ज़ख्मों पर नमक छिड़क रही थीं।
सिकंदर अब भी उठने की कोशिश कर रहा था… उसका जिस्म टूट चुका था, मगर उसकी रगों में अब भी वही आग थी… वही हिम्मत… वही जूनून।
वो लरज़ते हुए घुटनों पर आया… फिर कांपते हाथों से खुद को ऊपर खड़ा किया।
उसके जिस्म से खून ऐसे बह रहा था जैसे कोई नदी फूट पड़ी हो…
गुंडों की भीड़ अब थोड़ी पीछे हट गई थी — क्यूँकि जिसने अब तक दम नहीं तोड़ा, वो शायद मौत से बड़ा कुछ था।
अलिना ने देखा… और कुछ पल को ठिठक गई।
उसके होंठ हिले — “इतना मार खाकर भी… ये फिर खड़ा हो गया?”
सिकंदर दूर… अँधेरे में खड़ा था…
अलिना का दिल जाने क्यूँ काँपा… पर उस काँप को उसने गुस्से में बदल दिया।
“मुस्ताक़ …” वो बोली।
मुसताक़ ने तुरंत कोट के अंदर से एक चमचमाता हुआ पिस्टल निकाला और अलिना की हथेली में रख दिया।
"ये लो मैडम… अब तो खत्म कर ही दो इस नासूर को।"
अलिना ने पिस्टल पकड़ी। उसका चेहरा पत्थर जैसा सख़्त था… आँखों में खून था, और दिल में बदले की आग।
उसने हथियार तान दिया…
"मर"… जिस तरह तूने मेरे बेटे को मारा… आज तू भी उसी तरह ज़मीन पर गिरेगा… और कोई आँसू नहीं बहाएगा!"
सिकंदर ने सिर ऊँचा किया… उसकी आँखें अलिना की आँखों से टकराईं…उसकी चमकती नीली आँखें अंधेरे मे भी जाहिर थी.... पर अलीना उसे पहचान नहीं पायी.. या वो अभी पहचानना नहीं चाहती थी...
"तू क्या सोचेगा आख़िरी वक्त में?" अलिना ने हँसते हुए पूछा।
सिकंदर ने हल्की सी मुस्कान दी… —
“बस यही… कि जिसे खुदा कहकर माँगा था… उसने ही मुझे मिटा दिया।”
"बकवास बंद कर!" अलिना चीखी — और तभी…
“धड़ाम!!”
आसमान को चीरती हुवी बिजली गिरी… और एक पल के लिए पूरा मोहल्ला उजाले से नहाया…
और उसी उजाले में अलिना की आँखों के सामने जो चेहरा आया…
उसने उसकी रूह तक को झकझोर दिया।
वो फुसफुसाते हुवे बोली...
"ना... ना.... मौला...!"
उसके होंठ काँपने लगे…
"सि… सि… सिकंदर…?"
पर तब तक…
“धम्म्म…!!”
ट्रिगर दब चुका था। गोली चल चुकी थी।
सिकंदर के सीने से खून का फव्वारा निकला… उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं…
उसके चेहरे पर एक ही भाव था — सुकून।
ए.. खु*दा.... बिना अपने बाप( अब्दुल रहामान) को देखे ही मार देगा मुझे..?
वो बुदबुदाया… और फिर उसके घुटने ढीले पड़ गए…
सिकंदर ज़मीन पर गिर पड़ा… ज़ोया की ओर हाथ बढ़ाया… मगर उसकी पलकों ने फिर कभी ना खुलने की कसम खा ली।
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अलिना वहीं अपने घुटनो के बल धारम से गिरती है …
उसके हाथ से पिस्टल गिरा… आँखें चौड़ी… और आवाज़ बंद।
मुस्ताक़ ने घबरा कर पुछा — "क्या हुआ, मैडम?"
अलिना धीमे से बोली —
"मैंने… अपने ही बेटे को मार डाला…"
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बारिश की बूँदें अब आँसूओं की तरह नहीं, सज़ा की तरह गिर रही थीं।
हर बूँद ज़मीन से टकरा रही थी जैसे वक्त किसी गुनाह का हिसाब ले रहा हो।
सिकंदर ज़मीन पर पड़ा था… छाती से खून बह रहा था… पर वो अब भी जीने की कोशिश कर रहा था।
उसका जिस्म काँप रहा था… हाथ ज़मीन पर रगड़ता हुआ थोड़ा ऊपर उठा… फिर नीचे गिर गया…
पर आँखें… उसकी आँखें अब भी खुली थीं।
वो अलिना को देख रहा था।
और अब… अलिना घुटनों के बल उसके सामने थी।
वो बस दूर से उसकी आँखों मे देख रही थी… सन्नाटे में… चुपचाप… बेआवाज़…
उसकी साँसें चल रही थीं… पर आत्मा जैसे रुक चुकी थी।
उसकी आँखों में आँसू नहीं थे… सायद आँखें रोना भूल चुकी थी...
उसके सामने वही बच्चा था… जिसकी नब्ज़ कभी उसकी हथेली पर धड़कती थी…
जिसकी पहली चीख उसने सुनी थी…
जिसका चेहरा उसने अपनी छाती से चिपका कर पहली बार माँ कहलाने का हक पाया था…
और आज वही बच्चा उसके सामने पड़ा था… उसकी ही गोली से…
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सिकंदर ने देखा… और हल्की सी मुस्कान दी…
“अम्मी…” वो बुदबुदाया, होंठ हिले… आवाज़ बेहद धीमी थी… पर अलीना ने दूर से ही समझ लिया...
“आज… तूम… जीतीं… मैं हार गया…” यही चाहिए था ना तुम्हे... सिकंदर को मरना होगा... हाहाहा... लो सिकंदर मर रहा है...
अलिना काँपी नहीं… हिली भी नहीं…
बस उसके चेहरे पर सैकड़ों सवाल थे… और जवाब एक भी नहीं।
उसे याद आया… जब सिकंदर पैदा हुआ था, डॉक्टर ने कहा था — “बच नहीं पाएगा।”उस वक्त अलीना बहुत ख़ुश हुवी... थी..पर उस वक़्त भी सिकंदर ने हार नहीं मानी थी…
वो नन्हीं सी जान, मशीनों से लड़ती रही… साँसों से जूझती रही… और आखिरकार… जी उठा था।
और आज… वही बच्चा… फिर से हार नहीं मान रहा था…
फिर से उसके अंदर जीने की आग थी…
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अचानक… जैसे मोहल्ले की दीवारों मे आवाज गूंजती है... जैसे किसी डायन को जिन्दा जलाया जा रहा हो..
अलिना की चीखें मोहल्ले की दीवारों से टकरा कर आसमान तक पहुँच गईं —
आआआआआ.... या खु*दाआआआआआ …!”
“मेरा सिकंदर.. मर नहीं सकता...
वो ज़मीन पर झुक गई… सिकंदर के चेहरे को अपनी गोद में रखा…
हाथ कांप रहे थे… होंठ थरथरा रहे थे…
“ए.... ए.. बाबू... मिरी जान... चल उठ चल अस्पताल चलते है...
पर अब कोई आवाज़ नहीं आई…
सिर्फ़ बारिश थी… बिजली की गूंज थी… और अलिना की टूटी हुई रूह की चीखें।
भीड़ चुप थी।
रुक्सार बेसुध रो रही थी।
हसीम साहब ने मुँह फेर लिया था… शायद उन्होंने भी कुछ खो दिया था।
अली, घुटनों पर था — उसकी आँखों में जल रही थी, उसके बस मे होता सो सायद अलीना का गला काट देता...
ज़ोया अब भी बेहोश थी… और सिकंदर की हथेली बस उसकी उंगलियों को छूना चाहती थी।
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अलिना ने सिकंदर के माथे पर हाथ रखा… और धीमे से बोली —
“सिकंदर... मेरी जान... चल अस्पताल.. चल.. उठ ना.. अम्मी को सजा भी तो देनी है.. जितने गुनाह मेने किये है हिसाब लेगा ना मुझसे... तो फिर चल....
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बारिश अब भी थमने का नाम नहीं ले रही थी…
गोलि की आवाज़ अब सन्नाटे में बदल चुकी थी।
चारों ओर बस भीगी मिट्टी की गंध, चीखों की गूंज और टूटे दिलों की खामोशी थी।
सिकंदर, अलीना की गोद में पड़ा था।
उसका लहू उसकी काली पोशाक में समा गया था, और उस पवित्र ममता की गंध में अब खून की गर्माहट शामिल हो चुकी थी।
अलीना कांप रही थी… उसकी आँखें, मे आंसू जम गये थे..
वो बार-बार अपने बेटे के चेहरे को थपथपाती, उसकी सांसें जांचती, और फिर प्यार से कहती...
मेरी जान... आँखे बंद मत करो.... अम्मी से बातें करो ना...
कुछ नहीं होने दूंगी तुम्हे... तुम तो मेरी जान हो.. मेरे लाल हो..
फिर अचानक—
“मुसताक!!! जल्दी कर, गाड़ी निकाल! इसे हॉस्पिटल ले चल!!!”
उसकी आवाज़ अब आदेश नहीं… गुहार बन चुकी थी।
मुसताक भागता है।
इसी बीच… ज़ोया को होश आता है।
उसकी आँखें खुलती हैं… सामने वो मंजर—
सिकंदर… अलीना की गोद में पड़ा… खून से सना…
"सिक्कूउउउउउ!!!"
एक ऐसी चीख… जैसे पूरे आसमान को चीर दे।
ज़ोया घिसटती हुई उसके पास दौड़ती है, लड़खड़ाती है, गिरती है… पर रुकती नहीं।
सिकंदर… जो अब तक अधमरा पड़ा था… अलीना की गोद से धीरे से उठता है।अलीना उसे रोकने की कोशिस करती है... पर सिकंदर उसे अनदेखा कर देता है...
उसके हाथ काँप रहे थे, पैर लड़खड़ा रहे थे… लेकिन उसके भीतर कोई ऐसी रोशनी थी जो बुझने का नाम नहीं ले रही थी।
वो दर्द में भी मुस्कुराता है… उसकी आँखों में जलन नहीं, सुकून है।
ज़ोया के पास पहुँचकर वो उसे कस कर गले लगा लेता है।
"श्श्श… रो मत मेरी जंगली…बिल्ली...
उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, मगर सीधा ज़ोया की रूह तक उतर गई।
"कुछ नहीं हुआ मुझे…"
वो बोलता है, हल्के से उसके माथे पर चूमते हुए।
"तू जानती है ना… तेरा सिकंदर… कोई आम लड़का नहीं है… फौजी है.. वो भी.. बहुत बड़े वाला... ( मारकोस) तो ये छोटी सी गोली..
"मेरी जान इतनी सस्ती नहीं कि एक गोली से निकल जाए…"
"तू रोई तो मैं हार जाऊंगा… "
ज़ोया उसे थामे हुए बुरी तरह रो रही थी, पर उसकी सांसों में अब भी एक उम्मीद थी… सिकंदर की बातों से जिंदा उम्मीद।
"सिकंदर… मुझे माफ़ कर दो सब मेरी वजह से हुवा है.."
वो हँसता है हल्के से — कुछ नहीं हुवा है.. सब ठीक है.."
वो फिर ज़ोया की गोद में हल्का सा सिर टिका देता है… जैसे बच्चा माँ के सीने से लगकर सुकून पाता है।
अलीना ज़मीन पर बैठी थी।
उसका चेहरा अब धुंधला था… पानी की बूंदों और उसके आंसुओं में कोई फर्क नहीं बचा था।
वो बस सिकंदर को देख रही थी उसकी आंखों मे जोया के लिए प्यार देख रही थी.. जो कभी उसके लिए भी होता था...
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ज़ोया ने काँपती हुई आवाज़ में उसका चेहरा थामा —
"सिकंदर, चलो… हॉस्पिटल ले चलती हूं… देखो, बहुत खून बह रहा है…"
सिकंदर ने हल्का सा मुस्कराकर उसके माथे पर हाथ रखा, जैसे उसे ही ढाढ़स बंधा रहा हो
भीगे कपड़ों और ज़मीन पर फैले खून के बीच वो उठता है, लड़खड़ाता है, फिर सीधा खड़ा होता है।
ज़ोया का हाथ थामे वो अपनी मोटरसाइकिल की तरफ़ बढ़ता है…
बारिश अब हल्की हो चली थी, मगर फिजा में एक भारीपन अब भी टंगा था।
और तभी…
"रुको!!!"
एक दर्द से भरी चीख… अलीना।
वो दौड़ती हुई आती है… उसके पाँव की मोती जरी हुवी जुति पीछे छूट गई थी, लेकिन उसे परवाह नहीं।
गीली ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ … सिकंदर के घुटनो को अपने बांहों मे लपेट लेती है..
"मत जा उस मोटरसाइकिल पर… प्लीज़… मेरे साथ.. कार में चल…अभी तेरी हालत नहीं है ड्राइविंग करने की..."
सिकंदर का चेहरा शांत था… वो चुपचाप ज़ोया का हाथ थामे आगे निकलने लगा।
"क्यों जिद्द कर रहा है... "
सिकंदर उसकी तरफ़ देखता है… मगर आंखों में कोई कोमलता नहीं थी… उसकी आंखों मे कुछ था ही नहीं.. जैसे अलीना उसके लिए कोई अजनबी हो..।
वो झुकता है…दर्द के बाबजूद.... उसके चेहरे के पास जाकर, ठंडी और खामोश आवाज़ में कहता है—
"मैडम जी… आप भूल रही हैं, आपके पति और बेट नाराज़ हो जाएंगे…"
"कहीं वो ना कहें, कि आपने अपने बेटे के गुनेहगार को अपनी कार में बैठाया…"
"जिसे मारना था… उसी को बचाने दौड़ पड़ीं आप?" वैसे भी मेरे गन्दे खून से आपकी ये आलीशान गाड़ी गन्दी हो जाएगी..
अलीना की रगों में जैसे कुछ फट गया हो… उसका चेहरा पत्थर जैसा हो गया।
वो चाहती थी कुछ कहे… मगर शब्द उसके होंठों तक ही नहीं आ पाए।
सिकंदर मुड़ने ही वाला होता है कि… अलीना खुद को रोक नहीं पाती…
वो उसके गले लग जाती है…
"क्यों नहीं सुन रहा मेरी बात? तू मेरे साथ चल ना… मत जा उस मोटरसाइकिल से … तू जीत गया है, मैं हार गई… अब और क्या चाहिए तुझे?"
सिकंदर उसकी बाहें धीरे से अपने कंधे से हटाता है…
और ठंडी मुस्कान के साथ बोलता है—
"आपकी ये हार भी वक़्त की मेहरबानी है… वरना आप तो हमेशा वक्त से पहले बिक जाती थीं…"
अलीना पीछे हटती है, जैसे किसी ने उसके सीने में खंजर घोंप दिया हो।
वो अब भी ज़मीन पर बैठी है… भीगी… टूटी हुई।
ज़ोया ये सब देख रही थी… मगर कुछ समझ नहीं पा रही थी।
वो खुद से पूछती है—
"इसे सिकंदर की इतनी चिंता क्यों हो रही है..अभी कुछ देर पहले कितना जहर उगल रही थी."
अलीना… धीरे-धीरे ज़ोया की तरफ़ घूमती है… उसकी आँखें लाल थीं,
अलीना ( जोया के आगे हाथ जोरती हुवी) - बोल ना इसे.. ऐसे ज़िद ना करें...
सिकंदर चुपचाप उसकी तरफ़ देखता है…
"ज़ोया… चलो…"
वो अब भी कमजोर था… लेकिन उसकी आँखों में एक जुनून था।
वक्त निकलता जा रहा था.. सिकंदर के सीने मे गोली धसी हुवी थी... उसकी जान को खतरा था.. तो अलीना को उसके ज़िद के आगे हारना परता है...
ज़ोया उसके पीछे बैठ जाती है।
मोटरसाइकिल स्टार्ट होती है।
अलीना एक बार फिर चीख पड़ती है — मुस्ताक़ गाड़ी निकालो... पीछे चलो...
पूरी गरीयों की काफिले मोटरसाइकिल के पीछे चल देती है... अब हल्का हल्का उजाला होने लगा था... और उस उजाले मे एक मोटरसाइकिल के पीछे लगभग 25 महंगी गरिया पूरी रोड को घेरे चेले जा रहे थे..
"