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Adultery Didi Ki Dilchaspiyaan

sanu0956

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अगली सुबह हल्की ठंडी हवा चल रही थी। धूप अब पूरी तरह फैल चुकी थी, लेकिन उसमें जून वाली तपिश नहीं थी — बस एक नर्म-सी गरमाहट थी, जैसे कोई हाथ सहला रहा हो पीठ पर।


मैं अभी तक सोकर उठा भी नहीं था कि दीदी की चप्पलों की आवाज़ सुनाई दी — ठप-ठप करती हुई वो छत की सीढ़ियों की ओर जा रही थीं। खिड़की से देखा तो वो अपने हाथ में एक टोकरी लिए ऊपर जा रही थीं — शायद कपड़े सुखाने।


छत पर हमेशा की तरह थोड़ी सी धूप, थोड़ी सी हवा और मोहल्ले की छतों से आती मिलीजुली आवाज़ें थीं। दीदी ने चुपचाप एक-एक कर के कपड़े तार पर डालने शुरू किए। उनकी चाल में हल्कापन था — वो भारीपन अब नहीं था जो पहले हर हरकत में झलकता था।


तभी नीचे से आहट हुई।
अंकल, हाथ में अपनी बाल्टी और कपड़ों की गठरी लिए, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर आ गए।


वो भी कपड़े सुखाने ही आए थे — शायद रोज़ आते होंगे, लेकिन आज दीदी वहाँ थीं, और कुछ अलग था उस मुलाक़ात में।


वो दीदी को देखकर हल्का-सा मुस्कराए।
"गुड मॉर्निंग," उन्होंने कहा, जैसे कल रात की बात को एक नए दिन की शुरुआत बना रहे हों।


दीदी ने थोड़ी हिचक के साथ, लेकिन मुस्कुराकर जवाब दिया,
"गुड मॉर्निंग... आप रोज़ इतने जल्दी उठ जाते हैं?"


"आदत है," अंकल बोले, "और क्या करें... जब कोई बात करने वाला न हो, तो सुबहें और लंबी लगती हैं।"


एक पल की ख़ामोशी हुई, लेकिन इस बार वो खामोशी बोझिल नहीं थी — जैसे कोई खाली जगह हो जो अब भर रही हो।


दीदी ने तार पर आखिरी कपड़ा टांगा और पूछा,
"आपकी चाय पी ली आपने?"


"हाँ, खुद ही बना लेता हूँ," उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, "पर कभी-कभी कोई साथ हो तो चाय बेहतर लगती है।"


दीदी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्के से सिर झुकाया — लेकिन उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी, जो देर तक रुकी रही।


फिर दोनों अपने-अपने कपड़ों को तार पर टाँगते रहे — दो छायाएँ, जो धीरे-धीरे एक-दूसरे के साथ सहज हो रही थीं।


मैं खिड़की से सब देख रहा था — और मुझे लगा, अब यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं रह गई है।
अब यह उनकी भी है।


और शायद... अब हम सब थोड़े कम अकेले हैं।

छत पर अब हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी। कपड़े हल्के-हल्के लहराने लगे थे, जैसे वो भी इस मुलाकात की गवाही दे रहे हों। सूरज की रौशनी अब दीदी के चेहरे पर सीधी पड़ रही थी, और उसमें एक अलग सी चमक थी — वो चमक जो किसी के भीतर हल्का-सा विश्वास जागने पर आती है।


अंकल ने दो-तीन कपड़े तार पर टांगे, फिर दीदी की ओर देखा।
"आपके यहाँ नींबू का पौधा है ना... वहीं कोने में?"
उन्होंने हल्के से इशारा किया।


दीदी ने गर्दन मोड़कर देखा और मुस्कराईं,
"हाँ, पर अब फल बहुत कम आते हैं। शायद मिट्टी सही नहीं है।"


"ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने से भी कभी-कभी चीज़ें उलझ जाती हैं," अंकल ने धीरे से कहा।
"थोड़ी सी बेफ़िक्री भी ज़रूरी होती है।"


ये बात जैसे सीधी दीदी के दिल तक पहुँची हो। वो कुछ नहीं बोलीं, बस कपड़ों की पिन थामते-थामते थोड़ी देर रुकीं। फिर बोलीं,
"शायद आप ठीक कह रहे हैं।"


एक पल के लिए दोनों चुप रहे — पर इस चुप्पी में अब कोई संकोच नहीं था, बस एक सहजता थी।


फिर अंकल ने अचानक कहा,
"आज शाम को अगर आपको फुर्सत हो... तो आइएगा एक कप चाय पीने। मैं अदरक वाली बनाऊंगा।"


दीदी ने चौंककर उनकी ओर देखा — वो सीधा आमंत्रण शायद पहली बार मिला था।
थोड़ा संकोच, फिर हल्की सी हँसी के साथ उन्होंने कहा,
"ठीक है... अगर सब काम निपट गए तो ज़रूर आऊँगी।"


अंकल ने सिर हिलाया, जैसे कह रहे हों — इंतज़ार रहेगा।


उसके बाद दोनों ने फिर अपने-अपने काम पूरे किए। कुछ ज़्यादा नहीं कहा, कुछ जताया भी नहीं — पर जो कहा गया, वो बहुत था।


जब दीदी नीचे उतरीं, उनके कदमों में एक ठहराव था — और आँखों में सोचने के लिए कुछ नया।


और मुझे… खिड़की के पीछे खड़े-खड़े लगा —
शायद ये छत, कपड़े सुखाने की जगह से कहीं ज़्यादा हो गई थी आज।
शायद यहीं से कोई नया रिश्ता अपनी डोरी पर टँग चुका था — हवा में झूमता हुआ, हल्का… सच्चा… और अपना।
 
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redgiant

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मैं मंत्रमुग्ध आपका अपडेट पढ़ता रहा और दिल में यह ख्याल आया कि काश इस कहानी को मैं इस तरह टुकड़ों - टुकड़ों में पढ़ने के बजाय पूरी एक साथ पढ़ पाता। इतनी बेहतरीन कहानी, इतनी सभ्य शैली और मन को गहराई तक छूने वाली कहानी के अपडेट्स की प्रतिक्षा करना दूभर लगता है। मेरी शुभकामनाएं सदा आपके साथ रहेंगी।
 

sanu0956

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(कुछ दिन बाद)


अब ये रोज़ की बात हो गई थी।


सुबह करीब दस बजे के आस-पास, जब मोहल्ले की छतों पर कपड़े झूलने लगते, दीदी भी ऊपर आ जातीं — कभी हाथ में फोल्डिंग स्टूल, कभी कोई किताब, कभी बस यूँ ही।


अंकल अक्सर पहले से छत पर होते — एक छोटा रेडियो पास में रखे हुए, जिसमें पुरानी ग़ज़लें चल रही होतीं।


एक दिन दीदी ने रेडियो की ओर इशारा कर पूछा —


दीदी:
"ग़ज़लें सुनना पसंद है आपको?"


अंकल (हल्की मुस्कान के साथ):
"हां… खासकर तब, जब कोई जवाब देने की जल्दी न हो।"


दीदी:
"या जब कोई सवाल पूछने वाला न हो?"


अंकल ने पहली बार थोड़ा लंबा दीदी की ओर देखा। कुछ पल तक बस हवा ही दोनों के बीच थी।


उस दिन से रेडियो की ग़ज़लें थोड़ी तेज़ हो गईं — जैसे दोनों सुन रहे हों, एक साथ।




फिर एक और दिन…


अंकल ने दीदी के लिए एक पुरानी कुर्सी साफ करके किनारे रख दी थी।


"इस पर बैठ जाइए, वो स्टूल पीठ दुखा देता होगा।"


दीदी ने कुर्सी की ओर देखा, फिर अंकल की ओर।


"ध्यान रखने लगे हैं आप?" — उन्होंने मज़ाक में कहा।


"नहीं... बस पुराने को आराम की ज़रूरत समझ में आती है।"
(इसमें इशारा कुर्सी की ओर था... शायद खुद की ओर भी।)


दीदी मुस्कुरा दीं। कुर्सी पर बैठते हुए बोलीं —
"तो मैं भी अब पुरानी होने लगी क्या?"


"आप तो बस ठीक समय पर आई हैं,"

अंकल की ये बात हवा में देर तक बनी रही।




अब... ये रोज़ की आदत हो चली थी।


कभी चाय के दो कुल्हड़ ऊपर आ जाते,
कभी नींबू का अचार किसी डब्बे में रखकर बांटा जाता,
कभी चुपचाप बैठकर दोनों सिर्फ धूप को गुजरते देखते।


एक दिन दीदी ने कहा —


"अजीब है ना… इतने बरसों बाद कोई ऐसा मिला, जिससे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती।"


अंकल ने सिर हिलाया —
"कभी-कभी जिनसे ज़्यादा कहने का मन होता है, उनके सामने चुप रहना ही काफी होता है।"




और मैं... खिड़की के पीछे से अब भी देख रहा था।


कभी हवा उनके बालों को उड़ाती थी,
कभी दोनों की हँसी एक ही पल में मिलती थी।
कपड़े अब भी सूख रहे थे...
पर अब लगता था — किसी की अकेलापन भी सूखने लगा है।
उस दिन हवा में थोड़ी थकावट थी।
सूरज था, लेकिन तेज़ नहीं। बादलों के पीछे छुपा हुआ, जैसे वो भी कुछ सोच रहा हो।


अंकल हमेशा की तरह रेडियो के पास बैठे थे — पर आज ग़ज़ल नहीं चल रही थी, बस धीमी सी लोकधुनें बज रही थीं।


दीदी आईं — आज ज़रा थकी-सी, पर चेहरा मुस्कुराहट से ढका हुआ।


"आज कुछ ख़ास बनाया नीचे," उन्होंने कहा,
"पुरानी रेसिपी याद आई मम्मी की… सोचा बांट लूँ।"


अंकल ने चुपचाप डब्बा खोल लिया। अंदर हल्की सी कसैली महक थी — शायद करेले की सब्ज़ी।


"करेले?" उन्होंने हल्की सी भौंहें चढ़ाईं।


दीदी हँस दीं:
"हाँ… कुछ चीज़ें पसंद न भी हों, फिर भी हमें खानी पड़ती हैं — क्योंकि वो अपनी होती हैं।"


अंकल ने एक पल को सिर उठाकर उनकी ओर देखा —
जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों।


फिर दीदी बोलीं… धीमे, पर साफ़ लहज़े में:
"कभी-कभी मुझे लगता है, ये जो हमारे बीच बन रहा है… वो भी शायद वैसा ही कुछ है। अपना तो लगता है, पर ज़रूरी नहीं कि हमेशा अच्छा लगे।"



अंकल चुप हो गए।


कोई जवाब नहीं आया।


रेडियो की धुन तब तक बदल चुकी थी।


दीदी ने अपनी बात हल्के अंदाज़ में कही थी — जैसे खुद को समझाने के लिए। लेकिन उनके कहे शब्द जैसे कहीं अंकल के भीतर अटक गए।


उस दिन दीदी जल्दी नीचे चली गईं।


अगले दिन छत पर कोई नहीं था।


फिर दूसरा दिन… फिर तीसरा।


रेडियो चुप था।


कपड़े तो सूखते रहे, लेकिन अब वो महज़ कपड़े ही थे — हवा से उलझते, गिरते… और कोई उन्हें उठाने वाला नहीं।




मैं खिड़की के पीछे खड़ा था।
और पहली बार महसूस किया कि जो छत कभी रिश्तों से भरी लगती थी,
आज उतनी ही खाली थी — और उतनी ही सच्ची भी।

तीन दिन हो चुके थे।


दीदी ने ऊपर आना छोड़ दिया था।


अंकल अब भी सुबह छत पर आते, लेकिन रेडियो बंद रहता। हाथ में कुछ पुरानी किताबें होतीं, जिनके पन्ने ज़्यादा पलटे नहीं जाते।


चौथे दिन की सुबह दीदी ने ऊपर जाने की सोची — शायद कुछ कपड़े लेने के बहाने।


उन्हें नहीं पता था कि वो कपड़े आज तक के सबसे भारी कपड़े होंगे — क्योंकि उनके पास एक चिट्ठी भी रखी थी।


पुराने लोहे के स्टूल पर एक हल्का सा कागज़ दबा था — ऊपर रखा था वही नींबू का अचार वाला डब्बा।


दीदी ने चुपचाप वो कागज़ उठाया।




चिट्ठी


(हाथ से लिखी हुई, सीधी-सादी भाषा में, थोड़ी टेढ़ी लकीरों के साथ)


"नमस्ते,
उस दिन आपने जो कहा, वो बहुत सच था।
कुछ चीज़ें अपनी तो होती हैं, पर हर वक़्त अच्छी नहीं लगतीं।
मैं जानता हूँ — मैं शायद आदत बन गया था। एक चुप साथ। एक साया।
पर मैं यह भी जानता हूँ कि आदतें कई बार बोझ बन जाती हैं — और आप शायद किसी बोझ के साथ फिर नहीं चलना चाहतीं।
इसलिए ये आख़िरी बार कुछ कह रहा हूँ — बिना उम्मीद के, बिना जवाब के।
आपके साथ जो छत पर बिताए पल थे, वो मेरी उम्र के सबसे हल्के पल थे।
उनमें न कोई शिकायत थी, न कोई शर्त।
मैंने आपसे कोई रिश्ता नहीं माँगा… सिर्फ एक जगह माँगी थी — आपके सन्नाटे के पास बैठने की।
अगर कभी फिर वो सन्नाटा लौटे… और आप चाहें, तो मैं वहीं रहूँगा — एक कोने में।
पर अगर नहीं…
तो जान लीजिए, मैं शुक्रगुज़ार हूँ उस चुप्पी का, जिसमें आपने मुझे जगह दी।
– बस एक आदमी, जो अब थोड़ा कम अकेला है।"



दीदी ने चिट्ठी मोड़ी।
उसकी तहें साफ़ थीं, लेकिन दिल के भीतर कुछ उलझने लगी थी।


उन्होंने छत के कोने में जाकर कुर्सी को सीधा किया।
आज पहली बार वो वहाँ बैठीं — बिना किसी बहाने के।


सामने कोई नहीं था।
पर फिर भी...
ऐसा लग रहा था जैसे कोई पास बैठा हो — बिल्कुल चुप… और बिल्कुल अपना।

अगले दिन सुबह की हवा में एक अजीब सी नमी थी — न बारिश की, न आँसुओं की… बस एक भीगी-सी ख़ामोशी।


अंकल रोज़ की तरह छत पर नहीं आए थे।


दीदी आईं — हाथ में एक किताब थी, पुरानी, थोड़ी मुड़ी हुई। 'गुलज़ार की नज़्में' — वही किताब, जो उन्होंने एक बार अंकल के हाथ में देखी थी।


छत एकदम शांत थी।


दीदी ने धीरे से स्टूल के पास रखे रेडियो को देखा — बंद पड़ा था। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस धीरे से किताब की एक पन्नी मोड़ी… और उसमें एक कागज़ की तह रख दी।


फिर किताब को उठाकर वहीं रख दिया — ठीक उसी जगह, जहाँ एक दिन चिट्ठी मिली थी।


जाते-जाते उन्होंने एक नज़र पीछे डाली।
कोई नहीं था।
पर कुछ था… जो अब छत पर रह गया था।

शाम ढल चुकी थी। नीली रोशनी में छत और भी अकेली लग रही थी।
अंकल आए — धीमे क़दमों से, जैसे किसी पुराने वक़्त को छूने आए हों।


वहीं पुराना डब्बा पड़ा था, लेकिन उसके पास अब किताब थी।


उन्होंने किताब खोली — और वही पन्ना जिसमें चुपचाप एक जवाब रखा था।



दीदी की चिट्ठी (किताब के पन्ने से)


"आपने कभी जवाब नहीं माँगा… पर मैंने फिर भी लिख दिया।
मैंने उस चिट्ठी को कई बार पढ़ा।
हर बार लगा कि आप मेरे लिए उतने ही जरूरी हो गए हैं, जितना कोई अपने नाम से जुड़ा दूसरा हिस्सा।
पर फिर डर लगा — कि कहीं ये हिस्सा मेरी पहचान को ही निगल न जाए।
इसलिए दूर हुई।
लेकिन दूर रहकर भी जो एहसास गया नहीं — वही शायद असली था।
आपने मेरी चुप्पियों को बोझ नहीं कहा, और ये बात कहीं अंदर तक छू गई।
मैं नहीं जानती कि आगे क्या होगा।
पर अब जब आप छत पर होंगे, तो मैं भी आऊँगी — कभी जवाब देने नहीं, बस साथ बैठने।
और हाँ —
अगली बार, चाय मैं बनाऊँगी।
– एक औरत, जो अब थोड़ा कम उलझी है।"



अंकल किताब को बंद करते हैं।
रेडियो को ऑन करते हैं — आज बहुत दिनों बाद।
एक पुरानी ग़ज़ल हवा में बहती है…


"कुछ तो हवा भी साथ निभाती है,
कुछ लोग भी खामोशी में बोल जाते हैं…"

और उसी समय दीदी छत पर आती हैं — दो कुल्हड़ हाथ में लिए।


कोई कुछ नहीं कहता।


क्योंकि अब कहने की ज़रूरत नहीं रही।
 

rajeev13

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मैं मंत्रमुग्ध आपका अपडेट पढ़ता रहा और दिल में यह ख्याल आया कि काश इस कहानी को मैं इस तरह टुकड़ों - टुकड़ों में पढ़ने के बजाय पूरी एक साथ पढ़ पाता। इतनी बेहतरीन कहानी, इतनी सभ्य शैली और मन को गहराई तक छूने वाली कहानी के अपडेट्स की प्रतिक्षा करना दूभर लगता है। मेरी शुभकामनाएं सदा आपके साथ रहेंगी।
आपने तो मेरा ही दर्द बयां कर दिया, मेरे भी यही विचार है!
 

sanu0956

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वो एक और रात थी। गर्मी की, चुपचाप बहती हवा वाली। पूरा घर गहरी नींद में डूबा था, पर दीदी की आँखों में नींद नहीं, कुछ और था — कुछ जो उन्हें खींच लाया था उस सन्नाटे में छुपी छत पर।


धीरे से दरवाज़ा खोला, चप्पलों को हाथ में लिया और कदम-दर-कदम वो ऊपर पहुँचीं — जैसे कोई राज़ छुपा हो उस छत पर, कोई इंतज़ार करता हो।


और वहाँ... चौंककर नहीं, एक अनकही उम्मीद लिए देखा — वो पहले से मौजूद थे।


छत की मुंडेर पर टिके, हाथ में चाय का कुल्हड़, और नज़रे चाँद में उलझी हुईं।


उनकी पीठ दीदी की तरफ थी, लेकिन जैसे ही चप्पलों की आहट हुई, वो बिना पलटे बोले —
"आज देर हो गई, सोचा अकेले ही पी लूँगा।"


दीदी मुस्कुरा दीं।
"कुल्हड़ दो थे... आप ही के लिए लाई थी।"


वो मुड़े। धीमी मुस्कान, थकी आँखों में किसी पुराने गीत की उदासी और गर्माहट।
उन्होंने एक कुल्हड़ ले लिया — और कुछ पल दोनों बिना बोले बैठे रहे।


चाँदनी उनके चेहरे पर पड़ी थी — और हवा में इलायची की खुशबू।


"अक्सर लोग इस वक़्त सोते हैं," दीदी ने कहा, कुल्हड़ से उठती भाप को देखते हुए।


"और कुछ लोग जागते हैं... किसी की याद में," उन्होंने जवाब दिया।


एक ख़ामोशी फिर से दोनों के बीच पसरी, मगर अब वो बोझ नहीं, एक पुल जैसी थी — जो दिल से दिल को जोड़े।


धीरे से दीदी ने पूछा,
"आपको चाय में चीनी ज़्यादा पसंद है न?"


उन्होंने सिर हिलाया —
"पर आज कम भी चल जाएगी।"


उस रात छत पर दो कुल्हड़ रखे रह गए — अधूरी चाय के, मगर पूरी कहानी के।

छत पर चाय के कुल्हड़ अब खाली हो चले थे, मगर हवा में अब भी एक गर्माहट तैर रही थी — वो जो शब्दों से नहीं, मौजूदगी से पैदा होती है।


कुछ देर और बैठे रहे दोनों। फिर दीदी धीरे-धीरे उठीं।


शायद ज़्यादा देर बैठने से पैर सुन्न हो गए थे, या शायद उस चाँदनी में किसी पुराने एहसास ने वक़्त को थोड़ी देर के लिए रोक दिया था।
उठते ही उनका संतुलन डगमगाया — एक पल को लगा जैसे छत की मुंडेर पास आती जा रही हो।


"अरे!" बस इतना ही निकला उनके मुँह से...


...और उसी पल उनके हाथों ने थाम लिया उन्हें — कमर के पास से, मजबूती से, मगर बहुत नर्मी से।


एक साँस का फ़ासला था अब उनके बीच। आँखें मिलीं।
कोई घबराहट नहीं थी, सिर्फ़ एक हल्का काँपता सा एहसास — जैसे कुछ कहना था, लेकिन शब्दों ने इनकार कर दिया।


"सambhal ke..." उनके लफ़्ज़ बहुत धीमे थे, लेकिन स्वर में जो कंपन था, वो सीधे दिल में उतरा।


दीदी की पलकों ने झपक कर उस लम्हे को थाम लिया,
"पैर सुन्न हो गए शायद..." उन्होंने सिर झुका लिया।


उन्होंने धीरे से दीदी का हाथ पकड़कर उन्हें दोबारा बैठाया। अब दोनों फिर से वहीं थे, जहाँ से उठे थे —
मगर कुछ तो बदल गया था।


उस छत पर हवा अब भी चल रही थी, चाँद अब भी वही था —
लेकिन दो दिल अब ज़रा और क़रीब थे।


कोई कुछ नहीं बोला।


क्योंकि अब भी... कहने की ज़रूरत नहीं थी।
छत पर अब बस धीमी हवा थी और अधूरी चाय की खुशबू —
पर सबसे ज़्यादा भारी थी वो ख़ामोशी, जो उनके बीच धीरे-धीरे गहराती जा रही थी।


काफी देर बाद दीदी ने हल्की आवाज़ में कहा —
"अब मुझे चलना चाहिए... अगर घर में कोई जाग गया तो दिक्कत हो जाएगी।"


अंकल ने सिर हिलाया, लेकिन उनकी आँखों में साफ़ दिख रहा था — दिल अभी रोक रहा है।


फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।
बस उठे... और उनके साथ सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ने लगे।


सीढ़ियों के पास रुककर दीदी ने मुड़कर देखा।
चाँद की रोशनी उनके चेहरे पर गिर रही थी —
कुछ थकी हुई, कुछ डरती हुई, कुछ... चाहती हुई।


और तभी अचानक...


अंकल ने धीरे से उन्हें अपनी बाँहों में भर लिया।


ना ज़ोर, ना हड़बड़ी —
बस एक धीमी-सी पकड़, जैसे कोई छाया को छूने की कोशिश कर रहा हो,
जैसे बहुत वक़्त से थामना चाहते थे, और आज पहली बार हिम्मत कर पाए हों।


दीदी चौंकी नहीं —
बस कुछ पल यूँ ही ठहर गईं।


उनकी साँसें एक-दूसरे के कंधों पर टिक गईं।
कोई कुछ नहीं बोला —
क्योंकि अब आवाज़ों की ज़रूरत ही कहाँ थी?


फिर दीदी ने खुद को हल्के से छुड़ाया —
नज़रें अब भी झुकी हुई थीं, पर चेहरे पर एक अनकहा इकरार था।


"चाय अच्छी थी..." उन्होंने फुसफुसाकर कहा,
और सीढ़ियों से नीचे उतर गईं —
हर कदम उनके जाने का था,
मगर हर एहसास वहीं छोड़ गईं।


अंकल छत पर फिर अकेले रह गए —
पर अब वो छत भी वैसी नहीं रही थी।


चाँदनी में अब एक कहानी तैर रही थी —
जिसे सिर्फ़ दोनों ने जिया, और सिर्फ़ दोनों समझ पाए।

अंकल अभी भी छत पर खड़े थे।
हवा में एक अनकही उम्मीद तैर रही थी, जैसे कोई फिर से लौट आएगा।
उनकी नज़रें सीढ़ियों की ओर टिकी थीं, दिल में एक नाज़ुक सी बेचैनी।


समय धीरे-धीरे बीत रहा था, पर उनकी साँसें तेज़ थीं —
हर क़दम की आवाज़ सुनने को बेचैन।


और फिर, जैसे कोई ख्वाब सच हो गया हो,
दरवाज़ा फिर खुला।


दीदी लौट आईं।


चाँद की रोशनी में उनका साया लंबा हो रहा था,
हर एक कदम जैसे उनके दिल की धड़कन को और तेज़ कर रहा हो।


बिना किसी शब्द के, उन्होंने सीधे अंकल की ओर बढ़ना शुरू किया।


अंकल ने दोनों हाथ फैलाए, जैसे दुनिया की सारी खुशी समेटना चाहते हों।


दीदी भी बिना हिचकिचाए, सीधे उनकी बाँहों में समा गईं।


उनका आलिंगन गहरा था —
ना सिर्फ़ शरीर का, बल्कि दो आत्माओं का मिलन था जो लंबे वक्त से बंधी हुई थीं।


उनकी साँसें एक-दूसरे में घुल रही थीं,
और छत पर ठंडी हवा भी अब उस गर्माहट को महसूस कर रही थी।


अंकल ने धीरे से दीदी के सिर को अपने कंधे पर टिका लिया,
और उनकी उँगलियाँ उनके बालों में उलझ गईं।


दीदी ने अपनी आँखें बंद कर लीं,
जैसे इस पल को ज़िंदगी भर थाम लेना चाहती हों।


कोई शब्द नहीं, कोई वादा नहीं —
बस दो दिलों की मौन भाषा, जो हर धड़कन में इकरार कर रही थी।


छत के उस कोने में,
जहाँ सिर्फ चाँद और तारे थे,
वो दोनों थे — और उनकी एक छोटी सी दुनिया।
 
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sanu0956

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अंकल ने धीरे-धीरे अपनी उँगलियाँ दीदी के नाज़ुक होंठों पर फेरनी शुरू कीं।
उनका स्पर्श हल्का और बेहद कोमल था, जैसे किसी कीमती खिलौने को संभाल रहे हों।


दीदी की पलकों ने शर्म से झपक कर अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसके चेहरे पर एक हल्की लालिमा फैल गई, जो उसके भीतर की नाज़ुकता और बेपनाह मासूमियत को बयाँ कर रही थी।


अंकल ने फिर दीदी का चेहरा अपनी हथेलियों में लेकर नज़रें उसकी आँखों में डालीं।
धीरे से मुस्कुराते हुए बोले,
"तुम्हारे होंठ कितने खूबसूरत हैं... और ये नाज़ुक चेहरा... जैसे कोई जादू हो जो बस देखता ही चला जाए।"


उनके उँगलियाँ अब भी होंठों को सहला रही थीं, धीरे-धीरे उस नाज़ुक स्पर्श से दीदी के दिल की धड़कनें और तेज़ हो गईं।


दीदी की सांसें भी अनजाने में तेज़ हो रही थीं, पर फिर भी वो शांत रहना चाहती थीं।


अंकल ने अपनी उँगलियों से दीदी के गालों पर प्यार से रेखाएं बनाईं और बोले,
"तुम्हारी यह मासूमियत और खूबसूरती, मेरे लिए किसी खज़ाने से कम नहीं।"


दीदी ने नर्म मुस्कान के साथ सिर हिला दिया,
और दोनों के बीच वो मौन था जो लाखों बातों से ज़्यादा कुछ कह रहा था।

दीदी ने सिर थोड़ा झुका लिया, होठों पर एक नरम मुस्कान उभर आई। उनके बीच खामोशी फैल गई — शब्दों से परे, एक ऐसी तड़प के साथ जो शहर की गर्म हवाओं की तरह हवा में तैर रही थी।


“क्या ये सही है?” उन्होंने धीरे से पूछा।


अंकल ने थोड़ा पीछे हटकर उनकी आँखों में देखा।
“सही? ‘सही’ का मतलब क्या होता है? क्या इसका मतलब है कि हम अपने एहसासों को नकार दें? क्या इसका मतलब है कि ये…रिश्ता…मौजूद नहीं है?”


दीदी ने नजरें दूर क्षितिज की ओर घुमा लीं, जहां शहर की रोशनी धुंधली चमक रही थीं।


“तुम्हारे परिवार वाले इसे नहीं समझेंगे,” उनका स्वर कड़क हो गया। “वे दुनिया को सिर्फ काले और सफेद रंग में देखते हैं। वे नहीं समझ पाएंगे दिल की जटिलताओं को, कि कैसे दो आत्माएँ अलग-अलग हालातों के बावजूद एक-दूसरे की ओर खिंची चली आती हैं।”


वे पास आए, उनका हाथ दीदी के हाथ में आकर मिला। उनकी उंगलियाँ उसकी उंगलियों के बीच गुंथ गईं, छूते ही दीदी के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई।
“मुझे देखो,” उन्होंने कहा, आवाज़ को नरम करते हुए।


दीदी हिचकिचाई, फिर धीरे-धीरे अपनी नज़रें उनकी ओर घुमाईं। उनका चेहरा, जो अक्सर हँसी और गर्माहट से भरा रहता था, अब गहराई से भरा हुआ था, जो उसे डराने के साथ-साथ रोमांचित भी कर रहा था।


“क्या तुम्हें ये महसूस होता है?” उनकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि मुश्किल से सुनी जा रही थी।
“क्या तुम्हें ये खिंचाव, ये ज़रूरत महसूस होती है?”


दीदी ने गले में अटकती हुई सांस निगल ली, गला अचानक सूख गया।
“हाँ,” उसने फुसफुसाया, वह शब्द मुश्किल से उसके होठों से निकला।


वे उनके और करीब आए, दूसरा हाथ भी उनके चेहरे को सहलाने लगा।
उनका अंगूठा जब उनके जबड़े की हड्डी पर धीरे-धीरे रेंगने लगा, तो दीदी की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
“तो इसे मत रोको,” उन्होंने सांस भरी, उनकी नज़रें उनकी आँखों में टिकी थीं।
“अपने आपको इस…खुशी से मत वंचित करो।”


उनका सिर झुका, होठ धीरे-धीरे उनके होठों को छू गए।
हल्का-सा, नाज़ुक-सा स्पर्श, जो दीदी के शरीर में बिजली दौड़ा गया।
उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं, शरीर कांप उठा।


उन्होंने चुंबन को गहरा किया, होठों को खुलवाया, जीभ से रास्ता खोजा।
दीदी के होठों से एक नर्म आह निकली, जो रात की ख़ामोशी में गूंज गई।


“आह,” उन्होंने उनके होंठों के पास फुसफुसाया,
“तुम शहद और चाँदनी का स्वाद देती हो।”


वे दीदी को ठंडी दीवार के खिलाफ दबा गए, उनका शरीर उसके शरीर से टकरा गया।
दीदी ने उनकी गर्दन में उंगलियाँ डाल दीं, उनके गहरे काले बालों में उलझ गईं।


थोड़ी देर बाद वे पीछे हटे, अपनी आँखों में जलती हुई आग लिए।
“क्या तुम सच में पक्की हो?” उनका स्वर जुनून से घना था।
“एक बार हम ये कदम उठा लें, फिर कोई वापसी नहीं।”


दीदी ने उनकी आँखों में झाँका, जहाँ वही तड़प, वही चाहत दिख रही थी।
धीरे-धीरे उसके होठों पर मुस्कान खिल गई।
“मेरी ज़िंदगी में मैंने कभी इतना यकीन नहीं किया,” उसने धीरे से कहा।


अंकल ने एक गहरी हँसी छोड़ी, जो उसकी हद से बाहर की गर्माहट लेकर आई।

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अंकल ने धीरे-धीरे अपनी उँगलियाँ दीदी के नाज़ुक होंठों पर फेरनी शुरू कीं।
उनका स्पर्श हल्का और बेहद कोमल था, जैसे किसी कीमती खिलौने को संभाल रहे हों।


दीदी की पलकों ने शर्म से झपक कर अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसके चेहरे पर एक हल्की लालिमा फैल गई, जो उसके भीतर की नाज़ुकता और बेपनाह मासूमियत को बयाँ कर रही थी।


अंकल ने फिर दीदी का चेहरा अपनी हथेलियों में लेकर नज़रें उसकी आँखों में डालीं।
धीरे से मुस्कुराते हुए बोले,
"तुम्हारे होंठ कितने खूबसूरत हैं... और ये नाज़ुक चेहरा... जैसे कोई जादू हो जो बस देखता ही चला जाए।"


उनके उँगलियाँ अब भी होंठों को सहला रही थीं, धीरे-धीरे उस नाज़ुक स्पर्श से दीदी के दिल की धड़कनें और तेज़ हो गईं।


दीदी की सांसें भी अनजाने में तेज़ हो रही थीं, पर फिर भी वो शांत रहना चाहती थीं।


अंकल ने अपनी उँगलियों से दीदी के गालों पर प्यार से रेखाएं बनाईं और बोले,
"तुम्हारी यह मासूमियत और खूबसूरती, मेरे लिए किसी खज़ाने से कम नहीं।"


दीदी ने नर्म मुस्कान के साथ सिर हिला दिया,
और दोनों के बीच वो मौन था जो लाखों बातों से ज़्यादा कुछ कह रहा था।

दीदी ने सिर थोड़ा झुका लिया, होठों पर एक नरम मुस्कान उभर आई। उनके बीच खामोशी फैल गई — शब्दों से परे, एक ऐसी तड़प के साथ जो शहर की गर्म हवाओं की तरह हवा में तैर रही थी।


“क्या ये सही है?” उन्होंने धीरे से पूछा।


अंकल ने थोड़ा पीछे हटकर उनकी आँखों में देखा।
“सही? ‘सही’ का मतलब क्या होता है? क्या इसका मतलब है कि हम अपने एहसासों को नकार दें? क्या इसका मतलब है कि ये…रिश्ता…मौजूद नहीं है?”


दीदी ने नजरें दूर क्षितिज की ओर घुमा लीं, जहां शहर की रोशनी धुंधली चमक रही थीं।


“तुम्हारे परिवार वाले इसे नहीं समझेंगे,” उनका स्वर कड़क हो गया। “वे दुनिया को सिर्फ काले और सफेद रंग में देखते हैं। वे नहीं समझ पाएंगे दिल की जटिलताओं को, कि कैसे दो आत्माएँ अलग-अलग हालातों के बावजूद एक-दूसरे की ओर खिंची चली आती हैं।”


वे पास आए, उनका हाथ दीदी के हाथ में आकर मिला। उनकी उंगलियाँ उसकी उंगलियों के बीच गुंथ गईं, छूते ही दीदी के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई।
“मुझे देखो,” उन्होंने कहा, आवाज़ को नरम करते हुए।


दीदी हिचकिचाई, फिर धीरे-धीरे अपनी नज़रें उनकी ओर घुमाईं। उनका चेहरा, जो अक्सर हँसी और गर्माहट से भरा रहता था, अब गहराई से भरा हुआ था, जो उसे डराने के साथ-साथ रोमांचित भी कर रहा था।


“क्या तुम्हें ये महसूस होता है?” उनकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि मुश्किल से सुनी जा रही थी।
“क्या तुम्हें ये खिंचाव, ये ज़रूरत महसूस होती है?”


दीदी ने गले में अटकती हुई सांस निगल ली, गला अचानक सूख गया।
“हाँ,” उसने फुसफुसाया, वह शब्द मुश्किल से उसके होठों से निकला।


वे उनके और करीब आए, दूसरा हाथ भी उनके चेहरे को सहलाने लगा।
उनका अंगूठा जब उनके जबड़े की हड्डी पर धीरे-धीरे रेंगने लगा, तो दीदी की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
“तो इसे मत रोको,” उन्होंने सांस भरी, उनकी नज़रें उनकी आँखों में टिकी थीं।
“अपने आपको इस…खुशी से मत वंचित करो।”


उनका सिर झुका, होठ धीरे-धीरे उनके होठों को छू गए।
हल्का-सा, नाज़ुक-सा स्पर्श, जो दीदी के शरीर में बिजली दौड़ा गया।
उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं, शरीर कांप उठा।


उन्होंने चुंबन को गहरा किया, होठों को खुलवाया, जीभ से रास्ता खोजा।
दीदी के होठों से एक नर्म आह निकली, जो रात की ख़ामोशी में गूंज गई।


“आह,” उन्होंने उनके होंठों के पास फुसफुसाया,
“तुम शहद और चाँदनी का स्वाद देती हो।”


वे दीदी को ठंडी दीवार के खिलाफ दबा गए, उनका शरीर उसके शरीर से टकरा गया।
दीदी ने उनकी गर्दन में उंगलियाँ डाल दीं, उनके गहरे काले बालों में उलझ गईं।


थोड़ी देर बाद वे पीछे हटे, अपनी आँखों में जलती हुई आग लिए।
“क्या तुम सच में पक्की हो?” उनका स्वर जुनून से घना था।
“एक बार हम ये कदम उठा लें, फिर कोई वापसी नहीं।”


दीदी ने उनकी आँखों में झाँका, जहाँ वही तड़प, वही चाहत दिख रही थी।
धीरे-धीरे उसके होठों पर मुस्कान खिल गई।
“मेरी ज़िंदगी में मैंने कभी इतना यकीन नहीं किया,” उसने धीरे से कहा।


अंकल ने एक गहरी हँसी छोड़ी, जो उसकी हद से बाहर की गर्माहट लेकर आई।

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