अगली सुबह हल्की ठंडी हवा चल रही थी। धूप अब पूरी तरह फैल चुकी थी, लेकिन उसमें जून वाली तपिश नहीं थी — बस एक नर्म-सी गरमाहट थी, जैसे कोई हाथ सहला रहा हो पीठ पर।
मैं अभी तक सोकर उठा भी नहीं था कि दीदी की चप्पलों की आवाज़ सुनाई दी — ठप-ठप करती हुई वो छत की सीढ़ियों की ओर जा रही थीं। खिड़की से देखा तो वो अपने हाथ में एक टोकरी लिए ऊपर जा रही थीं — शायद कपड़े सुखाने।
छत पर हमेशा की तरह थोड़ी सी धूप, थोड़ी सी हवा और मोहल्ले की छतों से आती मिलीजुली आवाज़ें थीं। दीदी ने चुपचाप एक-एक कर के कपड़े तार पर डालने शुरू किए। उनकी चाल में हल्कापन था — वो भारीपन अब नहीं था जो पहले हर हरकत में झलकता था।
तभी नीचे से आहट हुई।
अंकल, हाथ में अपनी बाल्टी और कपड़ों की गठरी लिए, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर आ गए।
वो भी कपड़े सुखाने ही आए थे — शायद रोज़ आते होंगे, लेकिन आज दीदी वहाँ थीं, और कुछ अलग था उस मुलाक़ात में।
वो दीदी को देखकर हल्का-सा मुस्कराए।
"गुड मॉर्निंग," उन्होंने कहा, जैसे कल रात की बात को एक नए दिन की शुरुआत बना रहे हों।
दीदी ने थोड़ी हिचक के साथ, लेकिन मुस्कुराकर जवाब दिया,
"गुड मॉर्निंग... आप रोज़ इतने जल्दी उठ जाते हैं?"
"आदत है," अंकल बोले, "और क्या करें... जब कोई बात करने वाला न हो, तो सुबहें और लंबी लगती हैं।"
एक पल की ख़ामोशी हुई, लेकिन इस बार वो खामोशी बोझिल नहीं थी — जैसे कोई खाली जगह हो जो अब भर रही हो।
दीदी ने तार पर आखिरी कपड़ा टांगा और पूछा,
"आपकी चाय पी ली आपने?"
"हाँ, खुद ही बना लेता हूँ," उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, "पर कभी-कभी कोई साथ हो तो चाय बेहतर लगती है।"
दीदी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्के से सिर झुकाया — लेकिन उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी, जो देर तक रुकी रही।
फिर दोनों अपने-अपने कपड़ों को तार पर टाँगते रहे — दो छायाएँ, जो धीरे-धीरे एक-दूसरे के साथ सहज हो रही थीं।
मैं खिड़की से सब देख रहा था — और मुझे लगा, अब यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं रह गई है।
अब यह उनकी भी है।
और शायद... अब हम सब थोड़े कम अकेले हैं।
छत पर अब हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी। कपड़े हल्के-हल्के लहराने लगे थे, जैसे वो भी इस मुलाकात की गवाही दे रहे हों। सूरज की रौशनी अब दीदी के चेहरे पर सीधी पड़ रही थी, और उसमें एक अलग सी चमक थी — वो चमक जो किसी के भीतर हल्का-सा विश्वास जागने पर आती है।
अंकल ने दो-तीन कपड़े तार पर टांगे, फिर दीदी की ओर देखा।
"आपके यहाँ नींबू का पौधा है ना... वहीं कोने में?"
उन्होंने हल्के से इशारा किया।
दीदी ने गर्दन मोड़कर देखा और मुस्कराईं,
"हाँ, पर अब फल बहुत कम आते हैं। शायद मिट्टी सही नहीं है।"
"ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने से भी कभी-कभी चीज़ें उलझ जाती हैं," अंकल ने धीरे से कहा।
"थोड़ी सी बेफ़िक्री भी ज़रूरी होती है।"
ये बात जैसे सीधी दीदी के दिल तक पहुँची हो। वो कुछ नहीं बोलीं, बस कपड़ों की पिन थामते-थामते थोड़ी देर रुकीं। फिर बोलीं,
"शायद आप ठीक कह रहे हैं।"
एक पल के लिए दोनों चुप रहे — पर इस चुप्पी में अब कोई संकोच नहीं था, बस एक सहजता थी।
फिर अंकल ने अचानक कहा,
"आज शाम को अगर आपको फुर्सत हो... तो आइएगा एक कप चाय पीने। मैं अदरक वाली बनाऊंगा।"
दीदी ने चौंककर उनकी ओर देखा — वो सीधा आमंत्रण शायद पहली बार मिला था।
थोड़ा संकोच, फिर हल्की सी हँसी के साथ उन्होंने कहा,
"ठीक है... अगर सब काम निपट गए तो ज़रूर आऊँगी।"
अंकल ने सिर हिलाया, जैसे कह रहे हों — इंतज़ार रहेगा।
उसके बाद दोनों ने फिर अपने-अपने काम पूरे किए। कुछ ज़्यादा नहीं कहा, कुछ जताया भी नहीं — पर जो कहा गया, वो बहुत था।
जब दीदी नीचे उतरीं, उनके कदमों में एक ठहराव था — और आँखों में सोचने के लिए कुछ नया।
और मुझे… खिड़की के पीछे खड़े-खड़े लगा —
शायद ये छत, कपड़े सुखाने की जगह से कहीं ज़्यादा हो गई थी आज।
शायद यहीं से कोई नया रिश्ता अपनी डोरी पर टँग चुका था — हवा में झूमता हुआ, हल्का… सच्चा… और अपना।
मैं अभी तक सोकर उठा भी नहीं था कि दीदी की चप्पलों की आवाज़ सुनाई दी — ठप-ठप करती हुई वो छत की सीढ़ियों की ओर जा रही थीं। खिड़की से देखा तो वो अपने हाथ में एक टोकरी लिए ऊपर जा रही थीं — शायद कपड़े सुखाने।
छत पर हमेशा की तरह थोड़ी सी धूप, थोड़ी सी हवा और मोहल्ले की छतों से आती मिलीजुली आवाज़ें थीं। दीदी ने चुपचाप एक-एक कर के कपड़े तार पर डालने शुरू किए। उनकी चाल में हल्कापन था — वो भारीपन अब नहीं था जो पहले हर हरकत में झलकता था।
तभी नीचे से आहट हुई।
अंकल, हाथ में अपनी बाल्टी और कपड़ों की गठरी लिए, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर आ गए।
वो भी कपड़े सुखाने ही आए थे — शायद रोज़ आते होंगे, लेकिन आज दीदी वहाँ थीं, और कुछ अलग था उस मुलाक़ात में।
वो दीदी को देखकर हल्का-सा मुस्कराए।
"गुड मॉर्निंग," उन्होंने कहा, जैसे कल रात की बात को एक नए दिन की शुरुआत बना रहे हों।
दीदी ने थोड़ी हिचक के साथ, लेकिन मुस्कुराकर जवाब दिया,
"गुड मॉर्निंग... आप रोज़ इतने जल्दी उठ जाते हैं?"
"आदत है," अंकल बोले, "और क्या करें... जब कोई बात करने वाला न हो, तो सुबहें और लंबी लगती हैं।"
एक पल की ख़ामोशी हुई, लेकिन इस बार वो खामोशी बोझिल नहीं थी — जैसे कोई खाली जगह हो जो अब भर रही हो।
दीदी ने तार पर आखिरी कपड़ा टांगा और पूछा,
"आपकी चाय पी ली आपने?"
"हाँ, खुद ही बना लेता हूँ," उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, "पर कभी-कभी कोई साथ हो तो चाय बेहतर लगती है।"
दीदी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्के से सिर झुकाया — लेकिन उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी, जो देर तक रुकी रही।
फिर दोनों अपने-अपने कपड़ों को तार पर टाँगते रहे — दो छायाएँ, जो धीरे-धीरे एक-दूसरे के साथ सहज हो रही थीं।
मैं खिड़की से सब देख रहा था — और मुझे लगा, अब यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं रह गई है।
अब यह उनकी भी है।
और शायद... अब हम सब थोड़े कम अकेले हैं।
छत पर अब हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी। कपड़े हल्के-हल्के लहराने लगे थे, जैसे वो भी इस मुलाकात की गवाही दे रहे हों। सूरज की रौशनी अब दीदी के चेहरे पर सीधी पड़ रही थी, और उसमें एक अलग सी चमक थी — वो चमक जो किसी के भीतर हल्का-सा विश्वास जागने पर आती है।
अंकल ने दो-तीन कपड़े तार पर टांगे, फिर दीदी की ओर देखा।
"आपके यहाँ नींबू का पौधा है ना... वहीं कोने में?"
उन्होंने हल्के से इशारा किया।
दीदी ने गर्दन मोड़कर देखा और मुस्कराईं,
"हाँ, पर अब फल बहुत कम आते हैं। शायद मिट्टी सही नहीं है।"
"ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने से भी कभी-कभी चीज़ें उलझ जाती हैं," अंकल ने धीरे से कहा।
"थोड़ी सी बेफ़िक्री भी ज़रूरी होती है।"
ये बात जैसे सीधी दीदी के दिल तक पहुँची हो। वो कुछ नहीं बोलीं, बस कपड़ों की पिन थामते-थामते थोड़ी देर रुकीं। फिर बोलीं,
"शायद आप ठीक कह रहे हैं।"
एक पल के लिए दोनों चुप रहे — पर इस चुप्पी में अब कोई संकोच नहीं था, बस एक सहजता थी।
फिर अंकल ने अचानक कहा,
"आज शाम को अगर आपको फुर्सत हो... तो आइएगा एक कप चाय पीने। मैं अदरक वाली बनाऊंगा।"
दीदी ने चौंककर उनकी ओर देखा — वो सीधा आमंत्रण शायद पहली बार मिला था।
थोड़ा संकोच, फिर हल्की सी हँसी के साथ उन्होंने कहा,
"ठीक है... अगर सब काम निपट गए तो ज़रूर आऊँगी।"
अंकल ने सिर हिलाया, जैसे कह रहे हों — इंतज़ार रहेगा।
उसके बाद दोनों ने फिर अपने-अपने काम पूरे किए। कुछ ज़्यादा नहीं कहा, कुछ जताया भी नहीं — पर जो कहा गया, वो बहुत था।
जब दीदी नीचे उतरीं, उनके कदमों में एक ठहराव था — और आँखों में सोचने के लिए कुछ नया।
और मुझे… खिड़की के पीछे खड़े-खड़े लगा —
शायद ये छत, कपड़े सुखाने की जगह से कहीं ज़्यादा हो गई थी आज।
शायद यहीं से कोई नया रिश्ता अपनी डोरी पर टँग चुका था — हवा में झूमता हुआ, हल्का… सच्चा… और अपना।
Last edited: