दोस्तों, ये कहानी मैंने पहले इंग्लिश में लिखी थी, लेकिन अब मैं इसे हिंदी में लिखकर पूरा करूंगा।
हमारे परिवार में चार लोग हैं — मैं, मेरी बड़ी दीदी, मम्मी और पापा। पहले हम शहर में रहा करते थे। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था, जब तक पापा की नौकरी किसी दूर के शहर में ट्रांसफर नहीं हो गई। मजबूरी में पापा ने हमें गाँव भेज दिया, जहाँ हमारा पुराना घर अब फिर से आबाद होने जा रहा था।
दीदी कुछ इस तरह दिखती हैं।

दीदी हमेशा से ही आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। मध्यम कद और थोड़ी भरावदार काया वाली दीदी में एक ऐसी गरिमा थी जो पहली ही नज़र में महसूस की जा सकती थी। उनका रंग साफ था, और आँखें इतनी बोलती हुईं कि जैसे हर बात कह देना चाहती हों। वो अक्सर सूती सलवार-कुर्ता पहनतीं — एकदम सादगी से, बिना किसी बनावटीपन के। उनके कपड़ों में कोई दिखावा नहीं होता था, लेकिन उनका चाल-ढाल, उनकी मुस्कान, और हर हावभाव में एक ऐसा अनजाना आकर्षण छिपा रहता था, जिसे वो खुद भी दुनिया की नजरों से बचाना चाहती थीं। लेकिन उनके चलने की अदा और मुस्कराहट में ऐसा आकर्षण था जिसे नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं था।
वो हमेशा इस कोशिश में रहतीं कि लोग उन्हें उनकी शालीनता से जानें, न कि उनकी काया के उस सौंदर्य से जो अनजाने में ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था। उनके भीतर एक तरह की तपस्या थी — जैसे खुद को संयम में रख कर जीना उन्होंने जान-बूझकर चुना हो। लेकिन जो उन्हें थोड़ा और करीब से जानता, वो समझ सकता था कि इस सादगी के पीछे एक ऐसी स्त्री छिपी है, जो बहुत गहराई, गर्माहट और ताक़त से भरी हुई है।
उनकी चाल में ठहराव था, लेकिन उनकी मौजूदगी में हर जगह एक हलचल सी होती थी। दीदी ने कभी खुद को सजाने-सँवारने में रुचि नहीं ली, लेकिन फिर भी उनके आस-पास का माहौल खुद-ब-खुद उनके रंग में ढल जाता था। ऐसा नहीं कि उन्हें अपनी इस कशिश का अहसास नहीं था — था, लेकिन उन्होंने हमेशा उसे पर्दे के पीछे रखने की कोशिश की, जैसे कोई राज़ जो उनके और उनके अंतर्मन के बीच ही सीमित हो।
दीदी की सादगी में एक जादू था — वो जादू जो नजरों को चूम जाता था लेकिन उन पर ज़ोर डालने से खुद को बचाता था। उनकी मध्यम कद-काठी में एक निखरती हुई शान थी, जो किसी भी महफ़िल की रौनक बढ़ा देती। उनका रूप तो सरल था, लेकिन जिस तरीके से उनकी हल्की-फुल्की मुस्कान खिलती, मानो जैसे किसी ने चुपके से आग की एक लपट उनके भीतर जगा दी हो।
उनके चलने की अदा में एक अनोखी गरमाहट छिपी थी, जो बिना कुछ कहे भी बोल जाती थी। दीदी के बारे में लोगों को यही समझना मुश्किल होता था कि ये सादगी है या कोई मासूम परदे के पीछे छिपा हुआ दिलकश रहस्य। जब वो भीड़ में होतीं, तो उनकी मौजूदगी ऐसा असर छोड़ती जैसे धूप की पहली किरण, जो धीरे-धीरे हर कोना चमका देती हो।
लोगों से दूर रहना उनका फितूर था, एक ऐसा फ़साना जिसे वो पूरी नज़ाकत से निभाती थीं। वो चाहती थीं कि लोग उन्हें बस उनकी सादगी से ही जानें, न कि उनके उस अंदरूनी जोश और जज़्बे से, जो उनके दिल की हर धड़कन में छिपा था। दीदी की वह गर्मी, जो उनके चेहरे की मादक हँसी और आँखों की गहराई से झलकती थी, किसी के लिए भी एक पक्की दास्तान बन सकती थी।
उनकी आत्मा की वह आग, जो बाहर से झलकती नहीं थी, दीदी की हर एक मुस्कान में छुपी हुई एक चमक की तरह थी — मद्धिम पर स्थायी, और सबको अपनी ओर खींचने वाली। ऐसा लगتا था जैसे उन्होंने अपने अंदर की हर एक जज़्बात को एक खूबसूरत छुपा हुआ ख़ज़ाना बना रखा हो, जिसे वो केवल खुद ही छू पाती थीं। और यही बात उन्हें और भी रहस्यमय, और सबसे अलग बनाती थी।
गाँव में हमारे पड़ोसी थे, जिनकी उम्र लगभग 40 के करीब थी। वे बाकी लोगों से अलग दिखते थे—शांत, समझदार और हमेशा अपनी बातें छुपाए हुए। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि उन्होंने दीदी को कैसे प्रभावित किया।
उनकी बातचीत में कभी कोई ज़ोर नहीं था, न ही कोई दिखावा। लेकिन जो बातें वे कहते, उनकी निगाहें, उनकी छुअन — कुछ ऐसी बातें थीं जो बस दीदी के दिल को छू जाती थीं। वे हमेशा दीदी के करीब रहने की कोशिश करते, लेकिन एक तरह की दूरी भी बनाए रखते, जैसे कोई छुपा हुआ राज़ हो।
दीदी भी अपने भीतर की आग छुपाने में लगी रहतीं। उनकी मुस्कान में एक नर्मी आती थी, लेकिन सच में वे कभी पूरी तरह खुलती नहीं थीं। पड़ोसी की मौजूदगी में उनके अंदर छुपा हुआ जोश कुछ पल के लिए बाहर झलक जाता, लेकिन फिर वह वापस अपने भीतर समा जाता।
अंकल जब भी हमारे घर आते, मम्मी से बातें करते, पर उनकी नजरें कहीं और रहतीं — दीदी की तरफ। पर ये नजरें सीधे नहीं, बल्कि थोड़ी चुपके से, जैसे कोई कोई राज़ छुपा हो।
मुझे ये बात सबसे ज़्यादा अजीब लगती थी। कभी-कभी मैं देखता कि अंकल दीदी की ओर छुप-छुप कर देखते हैं, फिर जब दीदी उनकी तरफ देखतीं, तो वे जल्दी ही नजरें हटा लेते।
हमारे परिवार में चार लोग हैं — मैं, मेरी बड़ी दीदी, मम्मी और पापा। पहले हम शहर में रहा करते थे। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था, जब तक पापा की नौकरी किसी दूर के शहर में ट्रांसफर नहीं हो गई। मजबूरी में पापा ने हमें गाँव भेज दिया, जहाँ हमारा पुराना घर अब फिर से आबाद होने जा रहा था।
दीदी कुछ इस तरह दिखती हैं।

दीदी हमेशा से ही आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। मध्यम कद और थोड़ी भरावदार काया वाली दीदी में एक ऐसी गरिमा थी जो पहली ही नज़र में महसूस की जा सकती थी। उनका रंग साफ था, और आँखें इतनी बोलती हुईं कि जैसे हर बात कह देना चाहती हों। वो अक्सर सूती सलवार-कुर्ता पहनतीं — एकदम सादगी से, बिना किसी बनावटीपन के। उनके कपड़ों में कोई दिखावा नहीं होता था, लेकिन उनका चाल-ढाल, उनकी मुस्कान, और हर हावभाव में एक ऐसा अनजाना आकर्षण छिपा रहता था, जिसे वो खुद भी दुनिया की नजरों से बचाना चाहती थीं। लेकिन उनके चलने की अदा और मुस्कराहट में ऐसा आकर्षण था जिसे नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं था।
वो हमेशा इस कोशिश में रहतीं कि लोग उन्हें उनकी शालीनता से जानें, न कि उनकी काया के उस सौंदर्य से जो अनजाने में ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था। उनके भीतर एक तरह की तपस्या थी — जैसे खुद को संयम में रख कर जीना उन्होंने जान-बूझकर चुना हो। लेकिन जो उन्हें थोड़ा और करीब से जानता, वो समझ सकता था कि इस सादगी के पीछे एक ऐसी स्त्री छिपी है, जो बहुत गहराई, गर्माहट और ताक़त से भरी हुई है।
उनकी चाल में ठहराव था, लेकिन उनकी मौजूदगी में हर जगह एक हलचल सी होती थी। दीदी ने कभी खुद को सजाने-सँवारने में रुचि नहीं ली, लेकिन फिर भी उनके आस-पास का माहौल खुद-ब-खुद उनके रंग में ढल जाता था। ऐसा नहीं कि उन्हें अपनी इस कशिश का अहसास नहीं था — था, लेकिन उन्होंने हमेशा उसे पर्दे के पीछे रखने की कोशिश की, जैसे कोई राज़ जो उनके और उनके अंतर्मन के बीच ही सीमित हो।
दीदी की सादगी में एक जादू था — वो जादू जो नजरों को चूम जाता था लेकिन उन पर ज़ोर डालने से खुद को बचाता था। उनकी मध्यम कद-काठी में एक निखरती हुई शान थी, जो किसी भी महफ़िल की रौनक बढ़ा देती। उनका रूप तो सरल था, लेकिन जिस तरीके से उनकी हल्की-फुल्की मुस्कान खिलती, मानो जैसे किसी ने चुपके से आग की एक लपट उनके भीतर जगा दी हो।
उनके चलने की अदा में एक अनोखी गरमाहट छिपी थी, जो बिना कुछ कहे भी बोल जाती थी। दीदी के बारे में लोगों को यही समझना मुश्किल होता था कि ये सादगी है या कोई मासूम परदे के पीछे छिपा हुआ दिलकश रहस्य। जब वो भीड़ में होतीं, तो उनकी मौजूदगी ऐसा असर छोड़ती जैसे धूप की पहली किरण, जो धीरे-धीरे हर कोना चमका देती हो।
लोगों से दूर रहना उनका फितूर था, एक ऐसा फ़साना जिसे वो पूरी नज़ाकत से निभाती थीं। वो चाहती थीं कि लोग उन्हें बस उनकी सादगी से ही जानें, न कि उनके उस अंदरूनी जोश और जज़्बे से, जो उनके दिल की हर धड़कन में छिपा था। दीदी की वह गर्मी, जो उनके चेहरे की मादक हँसी और आँखों की गहराई से झलकती थी, किसी के लिए भी एक पक्की दास्तान बन सकती थी।
उनकी आत्मा की वह आग, जो बाहर से झलकती नहीं थी, दीदी की हर एक मुस्कान में छुपी हुई एक चमक की तरह थी — मद्धिम पर स्थायी, और सबको अपनी ओर खींचने वाली। ऐसा लगتا था जैसे उन्होंने अपने अंदर की हर एक जज़्बात को एक खूबसूरत छुपा हुआ ख़ज़ाना बना रखा हो, जिसे वो केवल खुद ही छू पाती थीं। और यही बात उन्हें और भी रहस्यमय, और सबसे अलग बनाती थी।
गाँव में हमारे पड़ोसी थे, जिनकी उम्र लगभग 40 के करीब थी। वे बाकी लोगों से अलग दिखते थे—शांत, समझदार और हमेशा अपनी बातें छुपाए हुए। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि उन्होंने दीदी को कैसे प्रभावित किया।
उनकी बातचीत में कभी कोई ज़ोर नहीं था, न ही कोई दिखावा। लेकिन जो बातें वे कहते, उनकी निगाहें, उनकी छुअन — कुछ ऐसी बातें थीं जो बस दीदी के दिल को छू जाती थीं। वे हमेशा दीदी के करीब रहने की कोशिश करते, लेकिन एक तरह की दूरी भी बनाए रखते, जैसे कोई छुपा हुआ राज़ हो।
दीदी भी अपने भीतर की आग छुपाने में लगी रहतीं। उनकी मुस्कान में एक नर्मी आती थी, लेकिन सच में वे कभी पूरी तरह खुलती नहीं थीं। पड़ोसी की मौजूदगी में उनके अंदर छुपा हुआ जोश कुछ पल के लिए बाहर झलक जाता, लेकिन फिर वह वापस अपने भीतर समा जाता।
अंकल जब भी हमारे घर आते, मम्मी से बातें करते, पर उनकी नजरें कहीं और रहतीं — दीदी की तरफ। पर ये नजरें सीधे नहीं, बल्कि थोड़ी चुपके से, जैसे कोई कोई राज़ छुपा हो।
मुझे ये बात सबसे ज़्यादा अजीब लगती थी। कभी-कभी मैं देखता कि अंकल दीदी की ओर छुप-छुप कर देखते हैं, फिर जब दीदी उनकी तरफ देखतीं, तो वे जल्दी ही नजरें हटा लेते।
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