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Adultery Didi Ki Dilchaspiyaan

sanu0956

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दोस्तों, ये कहानी मैंने पहले इंग्लिश में लिखी थी, लेकिन अब मैं इसे हिंदी में लिखकर पूरा करूंगा।

हमारे परिवार में चार लोग हैं — मैं, मेरी बड़ी दीदी, मम्मी और पापा। पहले हम शहर में रहा करते थे। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था, जब तक पापा की नौकरी किसी दूर के शहर में ट्रांसफर नहीं हो गई। मजबूरी में पापा ने हमें गाँव भेज दिया, जहाँ हमारा पुराना घर अब फिर से आबाद होने जा रहा था।

दीदी कुछ इस तरह दिखती हैं।



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दीदी हमेशा से ही आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। मध्यम कद और थोड़ी भरावदार काया वाली दीदी में एक ऐसी गरिमा थी जो पहली ही नज़र में महसूस की जा सकती थी। उनका रंग साफ था, और आँखें इतनी बोलती हुईं कि जैसे हर बात कह देना चाहती हों। वो अक्सर सूती सलवार-कुर्ता पहनतीं — एकदम सादगी से, बिना किसी बनावटीपन के। उनके कपड़ों में कोई दिखावा नहीं होता था, लेकिन उनका चाल-ढाल, उनकी मुस्कान, और हर हावभाव में एक ऐसा अनजाना आकर्षण छिपा रहता था, जिसे वो खुद भी दुनिया की नजरों से बचाना चाहती थीं। लेकिन उनके चलने की अदा और मुस्कराहट में ऐसा आकर्षण था जिसे नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं था।


वो हमेशा इस कोशिश में रहतीं कि लोग उन्हें उनकी शालीनता से जानें, न कि उनकी काया के उस सौंदर्य से जो अनजाने में ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था। उनके भीतर एक तरह की तपस्या थी — जैसे खुद को संयम में रख कर जीना उन्होंने जान-बूझकर चुना हो। लेकिन जो उन्हें थोड़ा और करीब से जानता, वो समझ सकता था कि इस सादगी के पीछे एक ऐसी स्त्री छिपी है, जो बहुत गहराई, गर्माहट और ताक़त से भरी हुई है।


उनकी चाल में ठहराव था, लेकिन उनकी मौजूदगी में हर जगह एक हलचल सी होती थी। दीदी ने कभी खुद को सजाने-सँवारने में रुचि नहीं ली, लेकिन फिर भी उनके आस-पास का माहौल खुद-ब-खुद उनके रंग में ढल जाता था। ऐसा नहीं कि उन्हें अपनी इस कशिश का अहसास नहीं था — था, लेकिन उन्होंने हमेशा उसे पर्दे के पीछे रखने की कोशिश की, जैसे कोई राज़ जो उनके और उनके अंतर्मन के बीच ही सीमित हो।

दीदी की सादगी में एक जादू था — वो जादू जो नजरों को चूम जाता था लेकिन उन पर ज़ोर डालने से खुद को बचाता था। उनकी मध्यम कद-काठी में एक निखरती हुई शान थी, जो किसी भी महफ़िल की रौनक बढ़ा देती। उनका रूप तो सरल था, लेकिन जिस तरीके से उनकी हल्की-फुल्की मुस्कान खिलती, मानो जैसे किसी ने चुपके से आग की एक लपट उनके भीतर जगा दी हो।


उनके चलने की अदा में एक अनोखी गरमाहट छिपी थी, जो बिना कुछ कहे भी बोल जाती थी। दीदी के बारे में लोगों को यही समझना मुश्किल होता था कि ये सादगी है या कोई मासूम परदे के पीछे छिपा हुआ दिलकश रहस्य। जब वो भीड़ में होतीं, तो उनकी मौजूदगी ऐसा असर छोड़ती जैसे धूप की पहली किरण, जो धीरे-धीरे हर कोना चमका देती हो।


लोगों से दूर रहना उनका फितूर था, एक ऐसा फ़साना जिसे वो पूरी नज़ाकत से निभाती थीं। वो चाहती थीं कि लोग उन्हें बस उनकी सादगी से ही जानें, न कि उनके उस अंदरूनी जोश और जज़्बे से, जो उनके दिल की हर धड़कन में छिपा था। दीदी की वह गर्मी, जो उनके चेहरे की मादक हँसी और आँखों की गहराई से झलकती थी, किसी के लिए भी एक पक्की दास्तान बन सकती थी।


उनकी आत्मा की वह आग, जो बाहर से झलकती नहीं थी, दीदी की हर एक मुस्कान में छुपी हुई एक चमक की तरह थी — मद्धिम पर स्थायी, और सबको अपनी ओर खींचने वाली। ऐसा लगتا था जैसे उन्होंने अपने अंदर की हर एक जज़्बात को एक खूबसूरत छुपा हुआ ख़ज़ाना बना रखा हो, जिसे वो केवल खुद ही छू पाती थीं। और यही बात उन्हें और भी रहस्यमय, और सबसे अलग बनाती थी।

गाँव में हमारे पड़ोसी थे, जिनकी उम्र लगभग 40 के करीब थी। वे बाकी लोगों से अलग दिखते थे—शांत, समझदार और हमेशा अपनी बातें छुपाए हुए। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि उन्होंने दीदी को कैसे प्रभावित किया।


उनकी बातचीत में कभी कोई ज़ोर नहीं था, न ही कोई दिखावा। लेकिन जो बातें वे कहते, उनकी निगाहें, उनकी छुअन — कुछ ऐसी बातें थीं जो बस दीदी के दिल को छू जाती थीं। वे हमेशा दीदी के करीब रहने की कोशिश करते, लेकिन एक तरह की दूरी भी बनाए रखते, जैसे कोई छुपा हुआ राज़ हो।


दीदी भी अपने भीतर की आग छुपाने में लगी रहतीं। उनकी मुस्कान में एक नर्मी आती थी, लेकिन सच में वे कभी पूरी तरह खुलती नहीं थीं। पड़ोसी की मौजूदगी में उनके अंदर छुपा हुआ जोश कुछ पल के लिए बाहर झलक जाता, लेकिन फिर वह वापस अपने भीतर समा जाता।

अंकल जब भी हमारे घर आते, मम्मी से बातें करते, पर उनकी नजरें कहीं और रहतीं — दीदी की तरफ। पर ये नजरें सीधे नहीं, बल्कि थोड़ी चुपके से, जैसे कोई कोई राज़ छुपा हो।


मुझे ये बात सबसे ज़्यादा अजीब लगती थी। कभी-कभी मैं देखता कि अंकल दीदी की ओर छुप-छुप कर देखते हैं, फिर जब दीदी उनकी तरफ देखतीं, तो वे जल्दी ही नजरें हटा लेते।
 
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फिर जब दीदी उनकी तरफ देखतीं, तो वे जल्दी से नजरें हटा लेते।


धीरे-धीरे मैंने नोटिस किया कि अंकल का घर पर आना कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। कभी सब्ज़ी देने के बहाने आ जाते, कभी कहते कि मम्मी से कोई पुरानी किताब चाहिए, तो कभी पंखा ठीक करने लग जाते।


असल में, अंकल दीदी को अंदर ही अंदर बहुत पसंद करने लगे थे। उन्होंने कभी सीधे कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका हर काम दीदी के आस-पास घूमने लगा था। वे हमेशा कोई न कोई बहाना ढूँढते कि घर पर रुक सकें और मदद कर सकें।


उन्होंने घर के छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटाना भी शुरू कर दिया था। कभी बिजली का स्विच ठीक कर देते, कभी पानी का टपकता नल ठीक करने लगते। ये सब देखकर मम्मी को भी उनका व्यवहार अच्छा लगने लगा।


दीदी शुरू में थोड़ी असहज होती थीं, लेकिन अंकल की शालीनता, उनकी हर समय मदद के लिए तैयार रहने की आदत, और बातों में सादगी धीरे-धीरे दीदी को भी पसंद आने लगी।


अब तो हाल ये था कि अगर दो-तीन दिन अंकल न दिखें, तो घर में कोई न कोई पूछ ही लेता, आज चाचा नहीं आए?"

शायद ये सब कुछ बहुत धीरे-धीरे हो रहा था, लेकिन अब ये साफ़ दिखने लगा था — अंकल अब सिर्फ पड़ोसी नहीं, घर का एक हिस्सा बनते जा रहे थे।

एक दिन दीदी छत पर कपड़े डाल रही थीं। गर्मी का मौसम था, और दोपहर का वक़्त। हमारे और अंकल के घर की छतें एकदम सटी हुई थीं — इतना कि अगर चाहो तो एक छत से दूसरी छत पर आसानी से जाया जा सकता था। नीचे उनके आँगन से पानी के गिरने की आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई नहा रहा हो।


दीदी को अचानक हलकी सी आवाज़ सुनाई दी — बाल्टी की खड़खड़ाहट और पानी की छलछलाहट। शायद उन्हें लगा कि नीचे कुछ गिर गया या कोई तकलीफ में है। जिज्ञासावश वो छत की मुंडेर तक गईं और नीचे झाँककर देखा।


अंकल अपने आँगन में नहा रहे थे — बिना कपड़ों के, पूरी तरह खुले बदन।


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दीदी को एक पल के लिए झटका सा लगा। वो घबरा गईं और तुरंत पीछे हट गईं।


पर उस एक पल में जो उन्होंने देखा, वो उनके लिए नया था। अंकल का शरीर काफी मजबूत और गठीला था — जैसे कोई रोज़ कसरत करता हो। उनकी त्वचा पर सूरज की रोशनी पड़ रही थी और पानी की बूंदें उनके शरीर से फिसल रही थीं।


दीदी हड़बड़ाकर वापस मुड़ीं और कपड़ों की टोकरी उठाकर जैसे-तैसे नीचे आ गईं। उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था — न शर्म का, न डर का, बल्कि कुछ ऐसा जिसे वो खुद भी ठीक से समझ नहीं पा रही थीं।


शायद पहली बार उन्होंने अंकल को एक अलग नज़र से देखा था — एक ऐसे पुरुष के रूप में, जो सिर्फ़ पड़ोसी नहीं, एक संजीदा और आकर्षक इंसान भी था।


उस दिन के बाद दीदी का व्यवहार थोड़ा बदल गया था। वो पहले से ज्यादा शांत और खोई-खोई सी रहने लगीं, जैसे किसी सोच में डूबी रहती हों।

ये पहली बार था जब दीदी ने किसी पुरुष को इस तरह देखा था — इतने सीधे और निजी रूप में। उनके लिए ये अनुभव चौंकाने वाला भी था और उलझन से भरा भी।


उन्हें खुद पर थोड़ा गुस्सा आया कि उन्होंने देखा ही क्यों, और ये भी कि उनकी नज़रें हट क्यों नहीं पाईं। वो हड़बड़ाकर सीढ़ियों से नीचे भाग आईं और अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया।


उनकी सांसें तेज़ हो रही थीं। वो खुद को सँभालने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन बार-बार वही दृश्य उनकी आंखों के सामने घूम रहा था।


उन्होंने खुद से कहा, "मैं ये क्या सोच रही हूं? ये सब ठीक नहीं है। छिः, मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए।"


अपनी उलझनों को दबाने के लिए वो रसोई में चली गईं और खुद को काम में लगा लिया — सब्ज़ी काटना, रोटियां बनाना, बर्तन धोना... लेकिन मन बार-बार भटक रहा था।


शायद दीदी के लिए ये एक नई शुरुआत थी — एक भावनात्मक उलझन, जिसे वो खुद भी ठीक से समझ नहीं पा रही थीं।

शाम का समय था। घर के सामने हल्की सी हवा चल रही थी और सूरज ढलने को था। दीदी सब्ज़ी लेकर लौट रही थीं, तभी रास्ते में अचानक अंकल सामने से आते दिखाई दिए। दीदी एक पल को ठिठक गईं। सुबह की घटना अभी भी उनके मन में कहीं छुपी हुई थी।


अंकल हमेशा की तरह मुस्कराए और बोले,
"अरे वंदना जी, आज तो बहुत जल्दी बाज़ार से लौट आईं!"


दीदी ने हल्की सी मुस्कान दी, लेकिन उनकी आंखों में एक झिझक सी थी। वो सोच नहीं पा रही थीं कि अंकल की आंखों में सीधे कैसे देखें। सुबह जो कुछ देखा था, वो अनजाने में ही सही, अब उनके मन में जगह बना चुका था।


"हाँ, कुछ ज़्यादा भीड़ नहीं थी आज," दीदी ने धीरे से जवाब दिया।


अंकल ने देखा कि दीदी थोड़ा असहज महसूस कर रही हैं, लेकिन उन्होंने कोई सवाल नहीं किया। बल्कि वो वहीं पास में खड़े होकर बोले,
"आपका थैला थोड़ा भारी लग रहा है, मैं उठा देता हूँ।"


दीदी पहले तो मना करने ही वाली थीं, लेकिन फिर बिना कुछ कहे थैला उन्हें पकड़ा दिया। दोनों धीरे-धीरे साथ चलने लगे।


रास्ते में ज़्यादा बात नहीं हुई, लेकिन एक अजीब सी चुप्पी थी जो दोनों को महसूस हो रही थी — एक ऐसी चुप्पी, जिसमें शब्दों की ज़रूरत नहीं थी, बस एहसास ही काफ़ी था।


घर के दरवाज़े पर पहुँचकर अंकल ने थैला थमाते हुए कहा,
"अगर कभी कुछ मदद चाहिए हो, तो बेझिझक बताइएगा।"


दीदी ने सिर हिलाया और बिना ज़्यादा देखे ‘धन्यवाद’ कहकर अंदर चली गईं। दरवाज़ा बंद करते वक़्त उन्होंने एक बार फिर पलटकर देखा — अंकल अब भी वहीं खड़े थे, मुस्कुराते हुए।


वो मुस्कान सीधी दीदी के दिल में उतर गई।


शायद ये पहली बार था जब दीदी ने अपने भीतर एक नई भावना को जन्म लेते महसूस किया — एक ऐसी भावना जिसे वो खुद भी नाम नहीं दे पा रही थीं।
 

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उस रात करीब साढ़े आठ बजे की बात है। मैं अपने कमरे में पढ़ाई कर रहा था, तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। देखा तो अंकल खड़े थे, हाथ में एक स्टील का डब्बा लिए। चेहरे पर हमेशा की तरह हल्की मुस्कान थी।


"अरे, मैं कुछ स्पेशल बना रहा था — मटन। सोचा तुम्हें भी चखवाऊँ।"
फिर रुककर बोले,
"और हाँ, वंदना जी को भी देना... और बताना ज़रूर, कैसा बना है।"


मैंने मुस्कराकर डब्बा ले लिया और कहा, "अभी देता हूँ उन्हें।"


मैं किचन में गया और डब्बा खोला तो ज़ायकेदार खुशबू पूरे घर में फैल गई। माँ उस समय पूजा कर रही थीं और दीदी अपने कमरे में थीं। मैंने एक प्लेट में थोड़ा मटन निकाला और दीदी के पास ले गया।


"दीदी, ये मोहित अंकल ने भेजा है, कह रहे थे कि ज़रूर खाना और बताना कैसा बना है।"


दीदी ने पहले थोड़ा चौंक कर मेरी ओर देखा। शायद उन्हें हैरानी हुई थी कि अंकल ने उनके लिए खासतौर पर कहा। लेकिन फिर मुस्कराईं और प्लेट थाम ली।


"अच्छा... ठीक है, तुमने खाया?"


"हाँ, अभी खा रहा हूँ, बहुत अच्छी खुशबू है।"


दीदी ने धीरे-धीरे खाना शुरू किया। पहले एक निवाला, फिर दूसरा। चेहरा बदलने लगा था — शायद स्वाद ने उन्हें भी प्रभावित किया था।


मैंने पूछा, "कैसा है?"


दीदी ने थोड़ी देर सोचकर जवाब दिया, "बहुत अच्छा है। मसाले बिल्कुल सही हैं... और मटन भी नरम है।"


फिर दीदी थोड़ी देर चुप रहीं। ऐसा लगा जैसे कुछ सोच रही हों। शायद वही पुरानी सुबह की यादें फिर से ज़हन में लौट आई थीं — और अब उस पर ये स्वाद, जो किसी ने उनके लिए खुद बना कर भेजा था।


रात को सोते वक़्त मैंने देखा दीदी बेड पर लेटे-लेटे कुछ सोच रही है। । शायद वो भी अब अंकल को सिर्फ एक पड़ोसी नहीं मान रही थीं। कुछ तो बदल रहा था... चुपचाप, धीमे-धीमे।


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sanu0956

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अगली सुबह कुछ अलग ही थी। हवा में ताज़गी थी, और सूरज की हल्की-हल्की किरणें कमरे में आ रही थीं। हमेशा की तरह मैं सबसे पहले उठने वाला था, लेकिन उस दिन दीदी मुझसे भी पहले जाग चुकी थीं।
रसोई से चाय की खुशबू आ रही थी। मैंने चौंककर देखा — दीदी चाय बना रही थीं। ये थोड़ा अजीब था, क्योंकि आमतौर पर वो देर से उठती थीं और चाय माँ बनाती थीं।


मैंने पूछा, "दीदी, आज इतनी सुबह-सुबह?"


वो मुस्कराईं, पर उस मुस्कान में कुछ बदला हुआ था। बोलीं, "बस यूँ ही नींद जल्दी खुल गई। अच्छा लग रहा है... सुबह की शांति में थोड़ी देर अकेले रहना।"


मुझे महसूस हुआ कि दीदी आज कुछ अलग थीं। उन्होंने अपना पसंदीदा हल्का गुलाबी सूती कुर्ता पहना था — जो वो बहुत कम पहनती थीं। उनका चेहरा शांत था, लेकिन आंखों में जैसे कोई कहानी चल रही हो।


तभी दरवाज़े की घंटी बजी।


मैं दौड़कर दरवाज़ा खोलने गया। सामने अंकल खड़े थे — वही हमारे पड़ोसी, जो कुछ वक़्त से दीदी से ज़्यादा बातें करने लगे थे। उनके हाथ में अख़बार और एक डिब्बा था।


"गुड मॉर्निंग बेटा," उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "कल हलवा बनाया था, सोचा तुम्हारी दीदी को भी दे आऊं।"


मैंने उन्हें अंदर बुलाया और दीदी की तरफ देखा। दीदी थोड़ी सकपकाईं, लेकिन मुस्कराते हुए बोलीं, "अरे, इसकी क्या ज़रूरत थी अंकल?"


अंकल ने हँसते हुए जवाब दिया, "ज़रूरत नहीं, मन था बस।"


कमरे में कुछ सेकंड का सन्नाटा छा गया। मैं पास खड़ा सब देख रहा था। उस ख़ामोशी में कोई अजीबपन नहीं था — बल्कि एक अपनापन था।
जैसे कुछ बिना कहे समझा जा रहा हो।


मैंने महसूस किया — दीदी अब अंकल को सिर्फ एक पड़ोसी नहीं मानतीं।
कुछ तो बदल गया था... और अब वो सिर्फ मेरी कल्पना नहीं थी।
 
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redgiant

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मैं कभी कभार ही अपनी प्रतिक्रिया इस फोरम की किसी भी कहानी पर देता हूं। आपकी कहानी का पहला अपडेट इतना शानदार है कि मैं आपकी लेखनी की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। मैने इस फोरम पर शायद ही किसी अन्य लेखक या लेखिका को इतनी सुंदर शैली मैं और त्रुटिहीन हिंदी मैं लिखते देखा है।

मैं आशा करता हूं कि आप पूरी कहानी मैं यही उच्च स्तर बनाए रखेंगे। मैं जानता हूँ कि अनेकों बार पहले कुछ अपडेट्स से लेखक या लेखिकाओं ने बहुत उम्मीदें जताई, परन्तु बाद में उन उम्मीदों ने दम तोड़ दिया। या तो कहानी लेखक/ लेखिका की थी ही नहीं, या फिर कहानी आगे जा कर पूरी भटक गई। मैं यही उम्मीद करता हूं कि आपसे वह निराशा नहीं मिलेगी।
 

rajeev13

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मैं कभी कभार ही अपनी प्रतिक्रिया इस फोरम की किसी भी कहानी पर देता हूं। आपकी कहानी का पहला अपडेट इतना शानदार है कि मैं आपकी लेखनी की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। मैने इस फोरम पर शायद ही किसी अन्य लेखक या लेखिका को इतनी सुंदर शैली मैं और त्रुटिहीन हिंदी मैं लिखते देखा है।

मैं आशा करता हूं कि आप पूरी कहानी मैं यही उच्च स्तर बनाए रखेंगे। मैं जानता हूँ कि अनेकों बार पहले कुछ अपडेट्स से लेखक या लेखिकाओं ने बहुत उम्मीदें जताई, परन्तु बाद में उन उम्मीदों ने दम तोड़ दिया। या तो कहानी लेखक/ लेखिका की थी ही नहीं, या फिर कहानी आगे जा कर पूरी भटक गई। मैं यही उम्मीद करता हूं कि आपसे वह निराशा नहीं मिलेगी।
बिलकुल, मैं भी यही कहने वाला था मित्र,

अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी...
 
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sanu0956

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आपकी इतनी सुंदर और सच्ची प्रतिक्रिया पढ़कर मन अत्यंत आनंदित हुआ। यह जानकर बहुत खुशी हुई कि मेरी लेखनी ने आपको प्रभावित किया। आपके शब्दों ने न केवल मेरा उत्साह बढ़ाया है, बल्कि मुझे इस बात की भी ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाया है कि आगे भी मैं इसी स्तर को बनाए रखूं और पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरूं।


आपकी आशंका भी एकदम जायज़ है। कई बार कहानियाँ अपने आरंभ में बहुत आकर्षक होती हैं, परंतु धीरे-धीरे वह अपनी दिशा या गुणवत्ता खो बैठती हैं। मैं आपको विश्वास दिलाना चाहताहूं कि यह कहानी मेरी ही रचना है और इसका हर एक अध्याय मैंने बहुत सोच-समझकर रचा है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कहानी की आत्मा बरकरार रहे और आप जैसे सुधी पाठक अंत तक उससे जुड़े रहें।


आपका समय निकाल कर प्रतिक्रिया देना मेरे लिए बहुत मूल्यवान है। कृपया यूं ही मार्गदर्शन और सहयोग बनाए रखें।


सादर धन्यवाद। 🙏
बिलकुल, मैं भी यही कहने वाला था मित्र,

अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी...
 
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sanu0956

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कमरे में घुली उस चुप्पी ने जैसे वक्त को थाम लिया था। दीदी की आँखों में एक अजीब सी नरमी थी — वो नरमी जो कभी माँ की आँखों में देखी थी मैंने, जब वो पापा की ओर देखती थीं।


अंकल भी खामोश थे, लेकिन उनकी मुस्कान में एक सुकून था, जैसे उन्हें अब किसी जवाब का इंतज़ार नहीं रहा। उन्होंने दीदी की ओर देखा, और दीदी ने नज़रें नहीं चुराईं — ये पहली बार हुआ था।


मुझे लगा, मैं कोई बच्चा नहीं रहा जो बस बाहर से चीज़ें देखता है। उस पल में, मैं भी उस ख़ामोशी का हिस्सा बन गया था।


मैंने कमरे से बाहर निकलते हुए दरवाज़ा धीरे से बंद किया — ताकि वो ख़ामोशी टूटे नहीं।


कुछ रिश्ते चुपचाप बनते हैं, बिना शोर किए।
और शायद, कुछ जवाब शब्दों के मोहताज नहीं होते।

मैं बाहर आया तो बरामदे की ठंडी हवा ने मेरा स्वागत किया। रात का सन्नाटा कुछ ज़्यादा गहरा लग रहा था — लेकिन अब वो डराने वाला नहीं था। भीतर जो देखा था, उसने मेरे अंदर कुछ बदल दिया था।


मुझे याद है, जब पहली बार हम इस मोहल्ले में आए थे, दीदी कितनी चुपचाप रहा करती थीं। बातें करती थीं, लेकिन बस ज़रूरत भर। मुस्कराती थीं, पर वो मुस्कान आंखों तक नहीं जाती थी।


अंकल का घर ठीक सामने था, लेकिन वो हमेशा एक “दूरी” पर रहते थे — जैसे कोई अनकहा नियम हो दोनों के बीच। पर वक़्त धीरे-धीरे काम करता है, बिना किसी शोर के। शायद अकेलेपन की भाषा वही समझ पाते हैं, जो खुद उससे गुज़रे हों।


अभी कुछ देर पहले, जब दीदी ने उन्हें चाय ऑफ़र की थी — एक साधारण सा लम्हा था, लेकिन उसमें एक नर्मी थी, एक अपनापन। और जब उन्होंने चाय लेते हुए सिर्फ "धन्यवाद" कहा था — वो शब्द जैसे भारी हो गया था उन दोनों के बीच।


कभी-कभी इंसान को आवाज़ नहीं, बस एक एहसास चाहिए होता है — कि कोई है, जो समझता है।
और आज वो एहसास कमरे में मौजूद था।


मैं जानता हूं, सब कुछ अभी शुरू ही हुआ है।
पर जो शुरू होता है, वो कहीं न कहीं पहुँचेगा भी — और इस बार, शायद सही जगह।


मैं मुस्कराया, आसमान की ओर देखा!

बरामदे की रेलिंग पर हाथ टिकाए मैं देर तक खड़ा रहा। सामने अमलतास का पेड़ रात की हवा में हल्के-हल्के揺 रहा था। चाँदनी नीचे गिरी थी, मगर उस चाँदनी में अब अकेलापन नहीं था — एक अजीब सी गर्माहट थी, जैसे कोई पुरानी बात धीरे-धीरे फिर से जिंदा हो रही हो।


पीछे कमरे से धीमे-धीमे बातों की आवाज़ आने लगी थी। साफ़ कुछ सुनाई नहीं दे रहा था, लेकिन लहज़ा अब औपचारिक नहीं रहा था। दीदी की हँसी — हल्की सी, नर्म सी — बरसों बाद सुनी थी। उस हँसी में एक भरोसा था, एक राहत।


यही तो चीज़ें होती हैं जिनका कोई नाम नहीं होता। न रिश्ते होते हैं, न परिभाषा — बस दो इंसान होते हैं, जो एक-दूसरे की थकान समझते हैं, ख़ामोशी पहचानते हैं।


मुझे याद है, जब पापा गए थे, दीदी जैसे खाली हो गई थीं। उनका पूरा वजूद जैसे एक भारी चुप्पी में बदल गया था। और अब... वो चुप्पी जैसे धीरे-धीरे किसी और की मौजूदगी से भर रही थी।


अगली सुबह शायद कुछ न बदले। वही चाय, वही अख़बार, वही गेट की चरमराहट।
लेकिन आज रात, कुछ दरवाज़े खुले थे — अंदर वाले दरवाज़े, जिन्हें हम खुद भी नहीं जानते कि कब बंद कर आए थे।


मैंने गहरी सांस ली।
शायद यह भी एक किस्म की दुआ थी — बिना शब्दों वाली।

अंदर से अब भी धीमी-धीमी आवाज़ें आ रही थीं। दीदी की मुस्कान कभी-कभार शब्दों के बीच झलक जाती थी। अंकल कुछ कह रहे थे — उनकी आवाज़ में वो स्थिरता थी जो किसी ने बहुत कुछ सहकर पाई हो।


थोड़ी देर बाद, कुर्सी खिसकने की हल्की आवाज़ आई। फिर उनके जूतों की आहट — धीमी, संयमित।
मैंने देखा, अंकल उठ खड़े हुए थे। उन्होंने दीदी की ओर देखा, कुछ पल रुके... मानो कुछ और कहना चाह रहे हों, लेकिन ज़रूरत नहीं समझी।


“ठीक है, चलता हूँ अब,” उन्होंने कहा, जैसे कोई वादा बीच में अधूरा छोड़ने का मन नहीं हो।


दीदी ने सिर हिलाया, पर इस बार उनकी नज़रें झुकी नहीं थीं।
“हाँ... रात हो गई है। आराम कीजिए,” उन्होंने धीरे से कहा।


इतना छोटा संवाद, लेकिन उसमें एक आत्मीयता थी — जैसे कोई रिश्ता अब मजबूती से अपनी जगह लेने लगा हो।


अंकल दरवाज़े तक आए। मैं वहीं खड़ा था, अब भी रेलिंग पर हाथ टिकाए।
हमारी नज़रें मिलीं, तो उन्होंने मुस्कराकर सिर हिलाया — वो मुस्कान अब पहले जैसी औपचारिक नहीं थी।


“तुम भी सो जाओ,” उन्होंने कहा,
“कल स्कूल नहीं है तो इसका मतलब ये नहीं कि रात भर जागो।”


मैं मुस्कराया, “जी अंकल।”


फिर वो चले गए — धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते हुए, जैसे कोई भारी किताब बंद कर के रख रहा हो।


दीदी अब भी खिड़की के पास खड़ी थीं, पर्दे के पीछे से। शायद उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा था कि सब कुछ इतना सहज हो सकता है।


मैंने सोचा —
कभी-कभी कुछ रिश्ते बहुत धीरे पनपते हैं... लेकिन जब पनपते हैं, तो मौसम बदल जाते हैं।


आज रात कुछ बदला था — और यह बदलाव, सुकून देता था।
 
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