UPDATE 6
हर साल की तरह इस साल भी गांव में ठाकुरों की कुलदेवी के मंदिर की तरफ मेले का आयोजन किया था बंजारों ने और इस बार गांव के लोगो की तरह ठाकुर के परिवार से भी सभी लोग आए थे मेले का लुप्त लेने जहा अमन अपनी मौज मस्ती में लगा था वही मालती और ललिता बंजारों द्वारा बनाई हुई नई नई वस्तुओ को देख रही थी उनके साथ संध्या भी थी मालती और ललिता को मेले से बंजारों से अपने लिए कुछ न कुछ खरीदते हुए साथ आपस में हस्ते हुए देख संध्या भी हल्का सा मुस्कुरा रही थी जैसे लग रहा हो बे मन से हस रही हो संध्या की तभी किसी ने संध्या को कुछ बोला
अंजान – बे वजह खुश होने का दिखावा क्यों करती है तू पुत्री
संध्या –(पलट के देखती है उसके सामने एक बुद्धा आदमी खड़ा है जिसकी वेश भूषा से लग रहा था जैसे कोई संत महात्मा हो संध्या ने जैस देखा और पूछा) आप कॉन हो बाबा और यहां पे
साधु – (मुस्कुरा के) मैं इन बंजारों के साथ रहता हूं जहा ये जाते है वही चला जाता हूं मैं भी
संध्या –ओह , अच्छा ठीक है बाबा मैं चलती हू
साधु –(जाती हुए संध्या को रोकते हुए) तुमने मेरे प्रशन का उत्तर नही दिया पुत्री
संध्या – क्या बाबा
साधु – मेले के इस खुशनुमा माहौल का हर कोई लुप्त उठा रहा है लेकिन इन सब की तरह तेरी आखों में कोई खुशी नही है क्यों पुत्री
संध्या – कुछ साल पहले मेरी खुशी मुझसे बहुत दूर चली गई है बाबा उसके बिना मुझे कोई खुशी नही भाती बाबा
साधु – कॉन चला गया दूर तूझसे पुत्री
संध्या – मेरा बेटा अभय बाबा अनजाने में मैने क्या क्या नहीं किया उसके साथ और एक रात वो चला गया घर से उसके बाद उसकी लाश मिली जंगल में (इतना बोल के संध्या की आंख से आसू आ गए) बस अब उसकी यादों के साथ मेरी दिन रात कटते है बाबा (ये बोल संध्या हाथ जोड़े सिर झुकाए खड़ी आसू बहा रहे थी तभी बाबा ने बोला उसे)
साधु – हम्म्म जख्म तो तुझे भी मिला है पुत्री बे वक्त तेरी शादी और फिर हमसफर का साथ बीच में छूट जाना , इतनी उम्र में बहुत कुछ झेला है तूने लेकिन देने वालो ने तेरे साथ एक जख्म तेरे खून को भी दिया है शायद उपर वाला भी तेरे आखों के आसू को बर्दश ना कर सका। तू फिक्र ना कर पुत्री (संध्या के सिर पे हाथ रख के) मेरा आशिर्वाद है तुझे जिसने जख्म दिया है वही मरहम भी देगा
संध्या – (इतना सुन के जैस ही अपना सिर ऊपर उठाया देखा वहा कोई नही है तभी चारो तरफ देखने लगी संध्या लेकिन उसे वो साधु कही ना दिखा इससे पहले संध्या कुछ और करती तभी पीछे से ललिता ने आवाज दे दी)
ललिता – दीदी वहा क्या कर रही हो आओ इधर देखो ये झुमके कितने अच्छे है ना
संध्या – (उसे कुछ समझ नही आ रहा था तभी जल्दी बाजी में) हा अच्छे है , तू देख जब तक मैं आती हूं
उसके बाद संध्या की नजर फिर से उस साधु को डूडने में लगी थी लेकिन संध्या को ना मिला साधु बाकी के सभी लोगो ने संध्या को साथ लिए मेले घूमने लगे लेकिन संध्या का ध्यान बस साधु की बातो में था और जब तक मेला चलता रहा संध्या किसी तरह से मेले में आती रही लेकिन उसे वो साधु कही ना मिला आखिर कर वो दिन भी आगया जब मेला खत्म होगया सारे बंजारे रातों रात निकल गए वहा से अगले दिन से गांव में वही हाल था हर कोई किसी तरह से संध्या तक बात कैसे पहौचाय इसमें लगा हुआ था लेकिन रमन और उसके मुनीम ने इंतजाम ही ऐसा किया था की गांव वाले चाह के भी संध्या तक खबर नही दे पा रहे थे और इस तरह से ये साल भी गुजर गया
कुछ समय बाद एक दिन शाम की बात है गर्मी के दिन था, ठंडी हवाएं चल रही थी। राज गांव के स्कूल के पुलिया पर दो लड़को के साथ बैठा था।
राज और वो दोनो लड़के आपस में बाते कर रहे थे।
राजू – यार राज अब तो छुट्टी के दिन भी बीत गए, कल से कॉलेज शुरू हो रहा है। फिर से उस हरामि अमन के ताने सुनने पड़ेंगे।"
इस लड़के की बात सुनकर पास खड़ा दूसरा लड़का बोला।
लल्ला – सही कहा यार राजू तूने। भाई राज सच में , ये ठाकुर के बच्चो का कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा।
राज –(उन दोनो की बात सुनकर बोला) क्या कर सकते है, झगड़ा करें, अरे उन लोगो का चक्कर छोड़ो, और जरा पढ़ाई लिखाई में ध्यान लगाओ। हमारे पास कुछ बचा नही है, जो जमीन थी, वो भी उस हरमजादे ठाकुर ने हड़प ली, अब तो सिर्फ पढ़ाई लिखाई का ही भरोसा है। काश अगर अपना यार आज होता तो जरूर अपने लिए कुछ करता। पर वो भी हमे छोड़ कर (आसमान को देखते हुए) उन तारों के बीच चला गया। (गुस्से में) साला मुझे तो अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है की, जंगल में मिली वो लाश अभय की थी।"
राज की बात सुनकर, लल्ला बोला।
लल्ला – भाई, मुझे एक बात समझ नही आई?"
राज --"कैसी बात?"
लल्ला – यही की अपने अभय की लाश जंगल में पड़ी मिली, पर पुलिस कुछ नही की। कोई जांच पड़ताल कुछ नही। और अभय की मां ने भी पता लगवाने की कोशिश नही की।"
राज – यही बात तो मुझे समझ नहीं आई आज तक। क्योंकि पुलिस भी तभी आई थी जिस दिन लाश मिली उसके बाद पुलिस दिखी ही नही यहाँ पर
राजू – भाई पुलिस दिखेगी भी कैसे यहा पे वो हरामी मुनीम खुद मिलने गया था पुलिस वालो से मैने खुद देखा था मुनीम को पुलिस वालो से मिलते हुएं साले खूब हस हस के बाते कर रहे थे आपस में
राज – राजू तेरी बात सुन के मुझे इतना जरूर समझ आता है की अभय की जान किसी जंगली जानवर की वजह से नहीं गई है, बल्कि किसी इंसानी जानवर किं वजह से गई है।"
अजय की बात सुनकर दोनो लड़के अपना मुंह खोले राज को देखते हुए पूछे...
लल्ला --"ये तुम कैसे कह सकते हो?"
राज – क्योंकि अभय के जाने से एक दिन पहले मैंने बगीचे में....
तभी पीछे से किसी ने राज को आवाज दी
आदमी – राज क्या कर रहा है यहा पे चल तेरी मां बुला रही है तुझे
राज – हा बाबा आया , (अपने दोस्तो से) चल छोड़ो भाई लोग अब क्या फायदा उस बात को लेके जो अपने आप को दुख दे चलो घर चलते है, कल से कॉलेज शुरू होने वाला है, आज छुट्टी का अखिरीं दिन है।"
ये कह कर सब अपने अपने घरों के रास्ते पर चल पड़े...
अगले दिन
हवेली को आज सुबह सुबह ही सजाया जा रहा था। संध्या,मालती,ललिता,अमन और निधि डाइनिंग टेबल पर बैठे हुए नाश्ता कर रह थे। मालती बार बार संध्या को ही देखे जा रही थी। और ये बात संध्या को भली भाती पता थी।
संध्या --"ऐसे क्यूं देख रही है तू मालती? अब बोल भी दे, क्या बोलना चाहती है?"
संध्या की बात सुनकर, मालती मुस्कुराते हुऐ बोली...
मालती – बस ये बोलना चाहती थी दीदी, अब अभय का जन्मदिन मनाने की क्या जरूरत है आपको ? इस तरह से तो हमे उसकी याद आती ही रहेगी। और पता नही , हम उसका जन्म दिन माना रहे है या उसके छोड़ के जाने वाला दिन।"
मालती की बात सुनकर संध्या कुछ पल के लिए शांत रही, फिर बोली...
संध्या --"अब मुझसे ये हक़ मत छीनना मालती, की उसके जाने के बाद मैं उसको याद नहीं कर सकती, या उसका जन्म दीन नही मना सकती। भले आज अभय नही है लेकिन मेरे दिल में मरते दम तक जिंदा रहेगा वो।"
ये सुनकर मालती कुछ बोलती तो नही, पर मुस्कुरा जरूर पढ़ती है। मालती की मुस्कुराहट संध्या के दिल में किसी कांटे की तरह चुभ सी जाती है। वो मालती के मुंह नही लगना चाहती थीं, क्यूंकि संध्या को पता था, की अगर उसने मालती के मुस्कुराने का कारण पूछा तो जरूर मालती कुछ ऐसा बोलेगी की संध्या को खुद की नजरों में गिरना पड़ेगा। इस लिए संध्या अपनी नजरों में चोर बनी बस चुप रही।
तभी मालती की नजर अमन पे पड़ी जो भुक्कड़ की तरह पराठे पे पराठा ठूसे जा रहा था। ये देखकर मालती अमन को बोली...
मलती --"इंसानों के जैसा खा ना, हैवानों की तरह क्यूं खा रहा है? पेट है या कुंवा? जो भरने का नाम ही नही ले रहा है।"
मालती की बात सुनकर, संध्या मालती को घूरते हुए देखने लगी। देख कर ही लग रहा था की मालती की बात संध्या को बुरी लगी। पर संध्या कुछ बोली नहीं, और गुस्से में वहां से चली गई। संध्या को जाते देख मालती भी उठ कर अपने कमरे में चली गई। थोड़ी देर के बाद ललिता, संध्या के कमरे में जाति है तो पाती है की संध्या अपने बेड पर बैठी हाथो में अभय की तस्वीर सीने से लगा कर रोए जा रही थी।
ललिता, संध्या के करीब पहौचते हुऐ उसके बगल में बैठ जाती है, और संध्या को प्यार से दिलासा देने लगती है।
संध्या --(रूवासी आवाज में) मेरी तो क़िस्मत ही खराब है ललिता। क्या करूं कुछ समझ में ही नही आ रहा है। मैं सोचती थी कि मालती हमेशा मुझे नीचा दिखाती रहती है, मैं भी कितनी पागल हूं, वो मुझे नीचा क्यूं दिखाएगी, वो तो मुझे सिर्फ आइना दिखाती है, मैं ही उस आईने में खुद को देख कर अपनी नजरों में गीर जाती हूं। भला कौन सी मां ऐसा करती है? जब तक वो मेरे पास था, उसकी हर गलती पर मारती रही। और आज जब वो छोड़ कर चला गया तो मेरा सारा प्यार सबको दिखावा लग रहा है। लगना भी चाहिए, मैं इसी लायक हूं। जी तो चाहता है की मैं भी कही जा कर मर जाऊं।"
कहते हुए संध्या ललिता के कंधे पर सर रख कर रोने लगती है। ललिता भी संध्या को किसी तरह से शांत करने की कोशिश करती है।
कुछ समय बाद ठाकुर रमन सिंह कहीं से मुनीम के साथ जब हवेली लौटता है, तो हवेली को दुल्हन की तरह सज़ा देख कर मुनीम की तरफ़ देख कर बोला...
रमन – देख रहे हो मुनीम जी, वैसे क्या लगता है आपको भाभी अपने बेटे के जन्मदिन की खुशी में हवेली को सजाया है या उसके मरण दिन के खुशी में?"
ये सुनकर मुनीम हंसने लगता है और साथ ही ठाकुर रमन सिंह भी, फिर दोनो हवेली के अंदर चले जाते है।ठाकुर रमन सिंह और मुनीम को हंसते हुए देख कर वहा काम कर रहे गांव के दो लोग आपस में बात करते हुए बोले...
"देख रहा है, बल्लू। कैसे ये दोनो अभय बाबू के जन्म दिन का मजाक बना रहे है?"
उसी वक्त संध्या वहां से गुज़र रही थी, और उस आदमी के मुंह से अपने बेटे के बारे में सुनकर संध्या के पैर वहीं थम से जाते है। और वो हवेली के बने मोटे पिलर की आड़ में छुप कर उनकी बातें सुनने लगती हैं.....
बल्लू --"अरे छैलू अब हम क्या बोल सकते है? जिसका बेटा मरा उसी को फर्क नही पड़ा तो हमारे फर्क पड़ने या ना पड़ने से क्या पड़ता है?"
छैलू --"तो तेरे कहने का मतलब क्या है, ठाकुराइन को अभय बाबू के जाने का दुःख नहीं है ?"
बल्लू --"अरे काहे का दुःख, मैं ना तुझे एक राज़ की बात बताता हु, पर हां ध्यान रहे किसी को इस राज़ की बात को कानों कान ख़बर भी नही होनी चाहिए!"
बल्लू की बात सुनकर संध्या के कान खड़े हो गए, और वो पिलर से एकदम से चिपक जाती है और अपने कान तेज़ करके बल्लू की बातों को ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगती है।
छैलू -- जरा धीरे बोल कोई सुन ना ले
बल्लू --"अरे कोई सुनता है तो सुने, मैं थोड़ी ना झूठ बोल रहा हूं, जो अपनी आंखो से देखा है वहीं बता रहा हूं, और सच पूछो तो मुझे ठाकुराइन का असलीयत उसी दिन पता चली थी। मैं तो सोच भी नही सकता था कि ठकुराइन अपने सगे बेटे के साथ ऐसा भी कर सकती है! तुझे पता है वो अमरूद वाला बाग, उसी बाग में ना जाने किस बात पर, मुनीम ने ठाकुराइन के कहने पर अभय बाबू को भरी दोपहरी में पूरे 4 घंटे तक पेड़ में बांध कर रखा था। अब तू ही बता ऐसा कोई मां करवा सकती है क्या?? अच्छा हुआ, जो अभय बाबू को मुक्ति मिल गई नही तो....."
इससे आगे बल्लू कुछ बोल पाता, उसके गाल पर जोर का तमाचा पड़ा...
संध्या –कुत्ते..... हरामजादे तेरी हिम्मत कैसे हुई, मेरे बेटे के बारे में ऐसे शब्द बोलने की।"
संध्या की चिल्लाहट सुन कर, रमन, मुनीम, मलती, ललिता ये सब हवेली के बहार आ जाते है, मलती ने संध्या को पकड़ते हुए बोला..
मलती --"अरे क्या हुआ दीदी? उस बेचारे को क्यूं मार रही हो?"
संध्या अभि भी गुस्से में चिल्लाती हुई खुद को मलती से छुड़ाते हुए उस बल्लू की तरफ़ ही लपक रही थी।
संध्या – ये हरमजादा... बोल रहा है की, मैं अपने अभय को भरी दोपहरी में अमरूद के पेड़ में बंधवाया था। इसकी हिम्मत कैसे हुई ऐसी घिनौनी इल्जाम लगाने की मुझ पर।
अमरूद वाले बाग की बात सुनकर, रमन सिंह और मुनीम दोनो की आखें बड़ी हो गई दोनो एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। उन दोनो के चेहरे फक्क पड़ गए थे। तभी रमन ने आखों से इशारा किया मुनिम को तभी मुनीम लपकते हुए बल्लू की तरफ़ बढ़ा, और बल्लू का गिरेबान पकड़ कर घसीटते हुए...
मुनीम --"साले, औकात भूल गया क्या तू अपना, अरे लट्ठहेरो देख क्या रहे हो? मारो इस हराम के जने को।"
फिर क्या था... लट्ठहेरो ने लाठी मार मार कर बल्लू की गांड़ ही तोड़ दी। जब संध्या अपने गुस्से में से होश में आई तो, लेकिन तब तक छैलू बल्लू को सहारा देते हुए हवेली से ले कर चल दिया। ये देख संध्या का दिमाग घूम गया तभी वो मुनीम की तरफ़ गुस्से में देखते हुए बोली...
संध्या --(गुस्से में) उस पर लाठी बरसाने को किसने कहा तुमसे मुनीम?"
मुनीम --(अपना चश्मा ठीक करते हुए) वो ऐसी बकवास बातें आप के लिऐ करेगा तो क्या मै चुप रहूंगा मालकिन?"
मलती --(मुनीम की बात को बीच में काटते हुए) भला उस बेचारे को ऐसी बकवास बातें करके क्या मिलेगा? जरूर उसने कुछ तो देखा होगा, तभी तो बोल रहा था।"
ये सुनकर संध्या एक नजर मालती की तरफ़ घूर कर देखती है, क्यूंकि संध्या समझ गई थीं कि, मलती का निशाना उसकी तरफ़ ही है, और जब तक संध्या कुछ बोल पाती मालती वहां से चली गई थीं।
मुनीम भी जाने लगा था रमन के साथ के तभी
संध्या --(मुनीम को रोकते हुए) एक मिनट मुनीम मुझे वो दिन आज भी अच्छे से याद है। उस दिन मै अभय को स्कूल ना जाने की वजह से अमरूद के बाग में मैंने उसे थप्पड़ मारा था, साथ ही पेड़ में बांधने वाली बात मैने तो अभय से बोली थी उसे डराने के लिए लेकिन तुझे तो मैने एसा कुछ भी करने को बोला नही था मुनीम जबकि मैने तुमसे कहा था कि, अभय को स्कूल छोड़ कर आ जाओ। तो क्या उस दीन तुमने उसे स्कूल छोड़ था?"
संध्या की बात सुनकर, मुनीम कांपने लगा तभी रमन की तरफ एक नजर देखा तो रमन ने आखों से इशारा किया तब मुनीम बोला...
मुनीम --"वो...वो... वो आपने ही तो कहा था ना ठाकुराइन, की इसे स्कूल ले जाओ और अगर नही गया तो, इसी कड़कती धूप में पेड़ से बांध दो फिर दिमाग ठिकाने पर आएगा।"
और बस इतना सुन संध्या के पैरों तले ज़मीन और सर से आसमान दोनो खिसक गए। वो मुनीम के मुंह से ये बात सुनकर हंसने लगी... मानो कोई पागल हो। कुछ देर तक जोर जोर से हंसी फिर बोली।
संध्या – मैने ये बात अभय को बोली थीं। तुझे नही हरामजादे मुनीम, तूने मेरे बेटे को कड़कती धूप में पेड़ में बांध दिया। तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेटे के साथ एसा करने की...
अभि संध्या कुछ बोल ही रही थीं की...
कहा है वो हराम की जनि ठाकुराइन, छीनाल कहीं की। ठाकुराइन बनती फिरती है, बताओ क्यों मेरे बेटे को किसी कुत्ते की तरह मारा है हरामजादी ने,।"
संध्या के साथ साथ वहां खड़े सब की नजरे हवेली के गेट पर पड़ी तो एक मोटी सी औरत रोते हुए संध्या को गालियां बक रही थीं। इस तरह की भद्दी गाली सुनकर रमन गुस्से में अपने लट्ठेरी को इशारा करता है। वहां खड़े चार पांच लट्ठेरो ने उस औरत को पकड़ लिया और हवेली से बाहर करने लगे... मगर वो औरत अभि भी रोते हुए ठाकुराइन को गालियां बक रहि थीं...
अच्छा हुआ करमजली, जो तेरा बेटा मर गया। तू सच में उस लायक नही है अरे बेटा क्या होता है अपने मां के लिए तू क्या जाने छीनाल, कभी प्यार किया होता अपने बेटे से तूने तो पता होता तुझे कुटिया , सच में तू एक घटिया औरत है ।"
धीरे धीरे उस औरत की आवाज संध्या के कानो से ओझल हो गई। संध्या किसी चोर की तरह अपनी नज़रे झुकाई, बेबस, लाचार वहीं खड़ी रही। तभी वहां ललिता आ कर संध्या को हवेली के अंदर ले जाती है। संध्या की आंखो से लगातार अश्रु की बूंदे टपक रही थीं। वो हवेली के अंदर जाते हुए एक बार रुकी और पीछे मुड़ते हुए रमन की तरफ देख कर बोली...
संध्या --ये मुनीम इस हवेली के आस -पास भी नजर नहीं आना चाहिए वर्ना मेरे अभय की कसम है मुझे वो दिन इस मुनीम की जिन्दगी का आखरी दिन होगा
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जारी रहेंगी