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मैं हवेली से मोटर साईकिल में निकला। रूपचंद्र के घर के सामने जैसे ही आया तो मेरी नज़र अंदर से सड़क पर आते रूपचंद्र पर पड़ी। इससे पहले कि मैं निकल पाता उसने मुझे आवाज़ दी जिससे मुझे ना चाहते हुए भी रुकना पड़ा।
"तुम हवेली से आ रहे हो क्या?" रूपचंद्र ने मेरे क़रीब आ कर थोड़ी हैरानी से पूछा।
"हां क्यों?" मैंने निर्विकार भाव से उसकी तरफ देखा।
"वो...वो मुझे लगा तुम मेरी बहन के पास होगे।" रूपचंद्र झिझकते हुए बोला____"लेकिन अगर तुम यहां थे तो उसके पास कौन था? क्या वो वहां पर अकेली है? हे भगवान! वैभव तुम उसे वहां पर अकेला कैसे छोड़ सकते हो? क्या तुम्हें मेरी बहन की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है?"
"इस बारे में अपनी बहन से पूछ लेना।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"चलता हूं अब।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया। पीछे रूपचंद्र हकबकाया सा खड़ा रह गया। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव नुमायां हो रहे थे और साथ ही चिंता के भाव भी। वो फ़ौरन ही पलटा और भागते हुए अंदर गया। कुछ ही देर में जब वो बाहर आया तो उसके हाथ में मोटर साईकिल की चाभी थी। उसने एक तरफ खड़ी मोटर साईकिल पर सवार हो कर झट से उसे स्टार्ट किया और फिर मेरा पीछा करने लगा।
रूपचंद्र उस वक्त चौंका जब मेरी मोटर साईकिल मेरे मकान की तरफ न जा कर मुरारी काका के घर की तरफ जाने लगी। मोटर साईकिल रोक कर वो कुछ देर मुझे जाता हुआ देखता रहा। चेहरे पर दुविधा के भाव लिए जाने वो क्या सोचता रहा और फिर अपनी मोटर साईकिल को मेरे मकान की तरफ बढ़ा दिया। अचानक ही उसके चेहरे पर थोड़े दुख के साथ नाराज़गी के भाव भी उभर आए थे।
मकान में पहुंच कर जब रूपचंद्र ने मकान के दरवाज़े को बाहर से कुंडी के द्वारा बंद पाया तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। इधर उधर निगाह घुमाई तो उसे कोई नज़र ना आया। ये देख वो एकदम से चिंतित हो उठा। तभी उसे मकान के बगल से ठक ठक की आवाज़ आती सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही मोटर साईकिल से उतरा और आवाज़ की तरफ तेज़ी से बढ़ता चला गया।
जल्दी ही वो उस जगह पहुंचा जहां से उसे आवाज़ आ रही थी। उसने देखा दो व्यक्ति मकान के बगल में लकड़ियों द्वारा कुछ बनाने में लगे हुए थे। लकड़ियों पर कुल्हाड़ी से ठोकने से ही आवाज़ आ रही थी। रूपचंद्र को समझ ना आया कि वो लोग ये क्या कर रहे हैं। वो झट से आगे बढ़ा और उनसे पूछने लगा कि ये सब क्या कर रहे हैं वो लोग और साथ ही उसकी बहन कहां है? जवाब में उन्होंने जो बताया उसे सुन कर जहां एक तरफ रूपचंद्र ने राहत की सांस ली तो वहीं दूसरी तरफ उसे थोड़ी हैरानी भी हुई।
वापस आ कर रूपचंद्र मकान के बाहर छोटे से बरामदे में रखे तखत पर बैठ गया। उसे अब ये सोच कर थोड़ी ग्लानि सी हो रही थी कि उसने थोड़ी देर पहले वैभव के बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। जबकि असल में तो ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मौजूदा समय में वैभव जिस मानसिक हालत में था उसके चलते उसका इस तरह रूखा ब्यौहार करना स्वाभाविक ही था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद रूपचंद्र के कानों में जब किसी मोटर साईकिल की आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो वैभव को मोटर साईकिल से इस तरफ ही आता देखा। उसके पीछे अपनी बहन को बैठा देख उसका चेहरा बरबस ही खिल उठा। ये देख कर उसे खुशी हुई कि वैभव उसकी बहन के साथ कोई भी ग़लत बर्ताव नहीं कर रहा है।
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लकड़ी की चारदीवारी के अंदर आ कर जैसे ही मोटर साईकिल रुकी तो अचानक ही रूपा की नज़र तखत पर बैठे अपने भाई रूपचंद्र पर पड़ी। ये देख वो बुरी तरह बौखला गई और झट मोटर साईकिल से उतर कर शरमाते हुए मकान के अंदर की तरफ भाग गई। रूपचंद्र अपनी बहन को इस तरह शर्माते देख मन ही मन हंस पड़ा। यूं तो रूपा उससे डेढ़ साल ही छोटी थी और दोनों साथ ही खेल कूद कर बड़े हुए थे इसके बाद भी वो अपने बड़े भाई का पूरा सम्मान करती थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र को अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। सहसा उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वो तखत से उठ कर मेरी तरफ बढ़ा।
"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने खेद भरे भाव से कहा____"मैं कुछ देर पहले तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच बैठा था।"
"कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इसी लिए तुमने ऐसा सोचा। ख़ैर अपनी बहन से मिल लो और उसका हाल चाल जान लो। मुझे एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है। शाम होने से पहले ही वापस आ जाऊंगा।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को घुमाया और उसकी किसी बात का इंतज़ार किए बिना ही मोटर साईकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। रूपचंद्र कुछ देर तक मुझे देखता रहा।
रूपचंद्र जब वापस आ कर तखत पर बैठ गया तो रूपा अंदर से बाहर आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी लाज की हल्की सुर्खी छाई हुई थी।
"घर में सब लोग कैसे हैं भैया?" फिर उसने हिम्मत कर के रूपचंद्र की तरफ देखते हुए पूछा।
"वैसे तो सब लोग ठीक ही हैं रूपा।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन सब तेरे लिए फिक्रमंद भी हैं। ख़ैर उनकी छोड़ और अपनी बता। तू यहां कैसी है? तुझे कोई परेशानी तो नहीं है ना यहां और....और तू अनुराधा के घर में क्यों थी?"
रूपा ने संक्षेप में सब कुछ बता दिया जिसे सुन कर रूपचंद्र आश्चर्यचकित रह गया। उसे अपनी बहन से ख़्वाब में भी इस सबकी उम्मीद नहीं थी किंतु फिर सहसा उसे एक अलग ही एहसास हुआ। एक ऐसा एहसास जिसने उसे खुशी से भर दिया और साथ ही उसे अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। एक बार फिर उसकी बहन ने साबित कर दिया था कि वो कितने विसाल हृदय वाली लड़की थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र की आंखें भर आईं।
"मुझे गर्व है कि तू मेरी बहन है।" फिर उसने रूपा से कहा____"और मैं ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने तेरे जैसी नेकदिल लड़की को मेरी बहन बना कर हमारे घर में जन्म दिया। मैं ईश्वर से दुआ करता हूं कि वो जीवन में तुझे हर ख़ुशी दे और हर दुख तकलीफ़ से दूर रखे।"
"जिसके पास इतना प्यार और स्नेह करने वाले भैया हों।" रूपा ने नम आंखों से रूपचंद्र को देखते हुए कहा____"उसे भला कैसे कभी कोई दुख तकलीफ़ हो सकती है?"
"ईश्वर से बस यही प्रार्थना करता हूं कि तुझे कभी किसी की नज़र ना लगे।" रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से कहा____"अच्छा ये बता यहां ज़रूरत का सब समान तो है ना? देख, अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बेझिझक बता दे।"
"बाकी तो सब है भैया।" रूपा ने कहा____"किंतु चाय बनाने के लिए यहां दूध नहीं है। कल मां ने जो दिया था उसमें से मैंने थोड़ा बचा लिया था जिससे सुबह उनके (वैभव) लिए चाय बना दी थी।"
"ओह! हां।" रूपचंद्र ने सिर हिलाया____"मुझे भी इसका ध्यान नहीं रहा था। ख़ैर तू फ़िक्र मत कर। मैं सुबह शाम के लिए हर रोज़ घर से दूध ले आया करूंगा और आज शाम के लिए मैं शाम होने से पहले ही ले आऊंगा।"
दोनों भाई बहन इधर उधर की बातें करते रहे। इस बीच रूपचंद्र को रूपा के द्वारा और भी दो तीन चीज़ों की कमी का पता चल गया था जिसे उसने ला देने को कह दिया था। क़रीब डेढ़ घंटे बाद रूपचंद्र को वैभव आता नज़र आया तो उसने अपनी बहन से जाने की बात कही। जाते समय ये भी कहा कि वो थोड़ी ही देर में दूध और बाकी का समान यहां ले कर आ जाएगा।
मैं जैसे ही मकान में पहुंचा तो रूपचंद्र को बाहर निकलते देखा। वो मुझे देख हल्के से मुस्कुराया और फिर चला गया।
"छोटे कुंवर।" मैं जैसे ही चारदीवारी के अंदर दाख़िल हुआ तो मकान के बगल में काम कर रहे दोनों मजदूरों में से एक ने आ कर कहा____"हमने गुसलखाना तैयार कर दिया है। आप चल कर एक बार देख लीजिए कैसा बना है?"
"ठीक है।" कहने के साथ ही मैं चल पड़ा।
कुछ ही पलों में मैं मकान के बगल में बनाए गए गुसलखाने के पास पहुंच गया। मैंने देखा दोनों ने मिल कर लकड़ी का एक बढ़िया सा गुसलखाना बना दिया था। ज़मीन पर पत्थर के चौड़े चौड़े दासा बिछाए गए थे जिससे गुसलखाने का फर्श ज़मीन से थोड़ा ऊंचा हो गया था। उसके बाद दो तरफ से लकड़ी की क़रीब छः या सात फीट ऊंची दीवार बनाई गई थी। लकड़ी की दीवारों के बाहरी तरफ तांत की पन्नी इस तरह से चिपका कर बांध दी गई थी कि बाहर से अंदर का एक ज़र्रा भी किसी को नज़र ना आए। गुसलखाने का दरवाज़ा भी लकड़ी का था जिसके बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी गई थी। कुल मिला कर दोनों ने बहुत सोच समझ कर गुसलखाने को बनाया था।
"हम्म्म्म अच्छा बनाया है।" मैंने गुसलखाने का मुआयना करने के बाद कहा____"अब एक काम करो, मकान के अंदर जो छोटा सा ड्रम रखा है उसे ले जा कर पानी से अच्छी तरह साफ कर दो। उसके बाद उस ड्रम को ला कर यहां रख देना।"
"जी ठीक है छोटे कुंवर।" दोनों ने सिर हिलाया और फिर उनमें से एक ड्रम लाने के लिए चला गया।
मैं भी पलट घर उस तरफ चल पड़ा जिधर अनुराधा के होने का मुझे भ्रम था। मुझे जाते देख रूपा भी मेरे पीछे पीछे आने लगी।
सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था। आसमान में उसका प्रकाश सिंदूरी सा हो गया था। जल्दी ही मैं उस जगह पर पहुंच गया और फिर कुछ पलों तक उस ज़मीन को देखने के बाद वहीं पर बैठ गया। मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गईं और बंद पलकों में अनुराधा का मासूम चेहरा चमक उठा जिसे देख मेरे अंदर एक टीस सी उभरी।
"क्या तुमने अनूप को विद्यालय में दाखिला दिलाने के लिए बात की है किसी से?" सहसा रूपा की आवाज़ मेरे बगल से आई तो मैं हल्के से चौंका और फिर आंखें खोल कर उसकी तरफ देखा। वो सामने की तरफ देख रही थी। चेहरे पर गंभीरता के भाव थे।
"हां उसी के लिए पास के गांव गया था।" मैंने वापस सामने की तरफ देखते हुए कहा____"वहां पर मैं प्रधान शिक्षक से मिला और उससे इस बारे में बात की। उसने बताया कि दाखिला तो हो जाएगा लेकिन बच्चे का दाखिला अगर उस समय करवाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा जब छुट्टियों के बाद विद्यालय नए सिरे से खुलते हैं।"
"हां ये भी सही कहा उन्होंने।" रूपा ने सिर हिला कर कहा____"अनूप के लिए यही बेहतर रहेगा। तुम्हारी क्या राय है इस बारे में?"
"मुझे भी यही ठीक लगता है।" मैंने कहा____"बाकी तुम्हें जो ठीक लगे करो।"
"काश! हमारे गांव में भी एक विद्यालय होता।" रूपा ने एक गहरी सांस ली____"जिससे हमारे गांव के बच्चे उसमें पढ़ते तो उनका एक अलग ही व्यक्तित्व बनता। वैसे हैरानी की बात है कि बाकी गावों से ज़्यादा हमारा गांव बेहतर रहा है और तो और आस पास के सभी गांवों के मामलों का फ़ैसला भी तुम्हारे पूर्वज और फिर तुम्हारे पिता जी ही करते आए हैं किंतु किसी ने भी इस बारे में नहीं सोचा कि हमारे गांव में एक विद्यालय होना चाहिए।"
"इस बारे में मेरी बात हो चुकी थी पिता जी से।" मैंने कहा____"और सिर्फ इस बारे में ही नहीं बल्कि इस बारे में भी कि हमारे गांव में एक अस्पताल भी होना चाहिए ताकि आम इंसानों को इलाज़ के लिए शहर जाने का कष्ट न उठाना पड़े।"
"हां ये भी सही कहा तुमने।" रूपा ने कहा____"इस गांव में ही क्या बल्कि किसी भी गांव में अस्पताल नहीं है। लोग वैद्यों से ही उनकी जड़ी बूटियों द्वारा अपना उपचार करवाते हैं और अगर बड़ी बीमारी हुई तो शहर भागते हैं। ग़रीब आदमी को सबसे ज़्यादा परेशानी होती है। कई तो इतने बदनसीब होते हैं कि पैसों की तंगी के चलते इलाज़ भी नहीं करवा पाते और फिर उन्हें अपने अथवा अपने किसी चाहने वाले के जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है।"
"अनुराधा के गुज़रने से पहले मैंने अपने इस गांव के विकास के लिए बहुत कुछ सोचा था।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"पिता जी से मेरी कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी और फिर ये निर्णय लिया गया था कि जल्द से जल्द इस बारे में प्रदेश के मंत्री विधायकों से बात करेंगे मगर....कुछ अच्छा करने से पहले ही चंद्रकांत ने मेरे जीवन में विष घोल दिया। उसकी दुश्मनी मुझसे थी तो उसको मेरी हत्या करनी चाहिए थी। फिर क्यों उसने एक निर्दोष की इतनी निर्दयता से जान ले ली?"
"वो पागल हो गया था वैभव।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"इसी लिए उसे अच्छे बुरे का ख़याल ही नहीं रह गया था लेकिन उसे भी तो अपनी करनी की सज़ा मिली। सबसे अच्छी बात यही हुई कि तुमने अपने हाथों से उस नीच को सज़ा दी।"
"लेकिन ऐसा कर के मुझे मेरी अनुराधा तो वापस नहीं मिली न।" मैंने एकाएक दुखी हो कर कहा____"मैंने तो उसे हमेशा हमेशा के लिए खो दिया रूपा। तुम्हें पता है, मैंने तो अभी जी भर के उसे देखा भी नहीं था और ना ही जी भर के उससे दिल की बातें की थी। मैं ये भी जानता हूं कि उसे भी मुझसे अपने दिल की ढेर सारी बातें करनी थी। देखो ना, ऊपर वाला कितना पत्थर दिल बन गया कि हम दोनों को एक दूसरे से अपने दिल की बातें कहने का अवसर ही नहीं दिया उसने। उधर वो अपनी तड़प और तृष्णा लिए चली गई और इधर मैं भी यहां उसी तड़प और तृष्णा में डूबा हुआ मर रहा हूं।"
"ख़ुद को सम्हालों वैभव।" रूपा ने मेरे कंधे को हल्के से दबाया____"तुम भी जानते हो कि इस संसार में किसी को भी सब कुछ नहीं मिला करता। इस धरती पर जन्म लेने वाले हर व्यक्ति की कोई न कोई ख़्वाईश अधूरी रह ही जाती है। इंसान अपने जीवन में चाह कर भी सब कुछ हासिल नहीं कर पाता और फिर एक दिन उसी अधूरी चाहत को लिए इस दुनिया से रुख़सत हो जाता है। अपनी भाभी को ही देख लो, इतनी कम उमर में उन्हें विधवा हो जाना पड़ा। क्या तुम बता सकते हो कि उनके जैसी औरत ने किसी के साथ ऐसा क्या बुरा किया था जिसके चलते उन्हें इतनी कम उमर में ऐसा असहनीय दुख मिला? उन्हीं की तरह मेरी भाभियों के बारे में भी सोचो। मेरे पिता अथवा चाचाओं की बात छोड़ो क्योंकि मुझे भी पता है कि उनके कर्म अच्छे नहीं थे और इसी लिए उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा लेकिन जो निर्दोष थे उनका क्या? उन्हें क्यों ऐसा दुख सहना पड़ा? वैभव, यही जीवन की सच्चाई है और यही नियति का खेल है। इस लिए यही कहूंगी कि खुद को सम्हालो और आगे बढ़ते हुए उनके बारे में सोचो जिनकी खुशियां सिर्फ और सिर्फ तुमसे हैं।"
"कहना आसान होता है।" मैंने कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल होता है।"
"हां जानती हूं।" रूपा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इसके बावजूद लोगों को अमल करना ही पड़ता है। जानती हूं आसान नहीं होता लेकिन किसी न किसी तरह आगे बढ़ कर अमल करना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारी भाभी ने अमल किया, जैसे मेरी भाभियों ने अमल किया, जैसे तुम्हारे माता पिता ने अपने बड़े बेटे के दुख से निकलने के लिए अमल किया और जैसे तुम्हारी चाची ने अमल किया। ज़रा सोचो, क्या उन सबके लिए अमल करना आसान रहा होगा? फिर भी उन्होंने अमल किया, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए।"
"कैसे कर लेती हो इतनी गहरी गहरी बातें?" मैंने सहसा चकित सा हो कर उसे देखा।
"वक्त और हालात इंसान को बहुत कुछ सिखा देते हैं मेरे साजन।" रूपा ने फीकी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"कुछ तुम्हारे विरह ने और कुछ मेरे अपनों की बेरुखी ने मुझे बहुत सी ऐसी बातों से रूबरू कराया जिन्हें सोच कर अब भी समूचे जिस्म में सर्द लहर दौड़ जाती है। ख़ैर छोड़ो इन बातों को। चलो मैं तुम्हारे लिए बढ़िया सी चाय बनाती हूं। या अभी और यहां बैठने का इरादा है तुम्हारा?"
रूपा जब गहरी नज़रों से मुझे देखने लगी तो मैं उसके साथ जाने से इंकार ना कर सका। उठ कर एक नज़र अपनी अनुराधा के विदाई स्थल पर डाली और फिर पलट कर मकान की तरफ बढ़ चला। रास्ते में रूपा की बातें मेरे मन में गूंज रहीं थी जो रफ़्ता रफ़्ता गहन विचारों का रूप लेती जा रहीं थी।
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हम दोनों को मकान में आए अभी कुछ ही समय हुआ था कि तभी रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से आ गया। उसे देख मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। मैं सोचने लगा कि अभी कुछ समय पहले ही तो वो यहां से गया था तो फिर अब किस लिए आया है? मैंने रूपा की तरफ देखा तो उसने जाने क्या सोच कर अपनी नज़रें झुका ली।
रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से उतर कर हमारे पास आया। उसके हाथ में स्टील का एक डल्लू था। मुझे समझ न आया कि आख़िर माजरा क्या है?
"ये लो रूपा।" उधर रूपचंद्र ने रूपा की तरफ उस डल्लू को बढ़ाते हुए कहा____"इसमें तुम दोनों के लिए ताज़ा दूध लाया हूं।"
रूपचंद्र की ये बात सुन कर मेरी समझ में आ गया कि वो क्यों यहां दुबारा आया था। उधर जैसे ही रूपा ने उसके हाथ से दूध का डल्लू पकड़ा तो रूपचंद्र ने पलट कर मुझसे कहा____"अच्छा अब चलता हूं वैभव। तुम दोनों अपना ख़याल रखना।"
उसकी इस बात पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया और शायद वो मेरा कोई जवाब सुनने का इच्छुक भी नहीं था। तभी तो अपनी बात कह कर वो सीधा बाहर खड़ी अपनी मोटर साईकिल की तरफ बढ़ गया था। कुछ ही पलों में वो चला गया।
"तो तुमने अपने भाई से दूध मंगवाया था?" मैंने पलट कर रूपा से कहा।
"हां लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए।" रूपा ने थोड़ा झेंपते हुए कहा____"मैं नहीं चाहती थी कि तुम काली चाय पियो। इस लिए जब भैया ने मुझसे पूछा कि यहां मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है तो मैंने उनसे चाय के लिए दूध न होने की बात कह दी थी।"
"हम्म्म्म।" मैंने धीमें से हुंकार भरी____"ख़ैर मज़दूरों ने आज तुम्हारे नहाने के लिए गुसलखाना बना दिया है। अब तुम्हें खुले में नहीं नहाना पड़ेगा।"
"अच्छा, देखूं तो सही कैसा गुसलखाना बनाया है उन लोगों ने?" रूपा थोड़ा उत्साहित सी हो कर बोली और फिर दूध के डल्लू को मेरे पास तखत में रख कर गुसलखाने की तरफ बढ़ गई।
"काफी बेहतर बनाया है।" कुछ देर में जब वो आई तो मुस्कुराते हुए बोली___"और बहुत सोच समझ कर बनाया है। लकड़ी की दीवार के बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी है जिससे ना तो अंदर से बाहर देखा जा सके और ना ही बाहर से अंदर। वैसे उन्हें इस तरह से बनाने के लिए क्या तुमने कहा था?"
"नहीं, उन लोगों ने खुद ही अपने से सोच कर ऐसा बनाया है।" मैंने कहा____"मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा था।"
"अच्छा, फिर तो बड़ी समझदारी दिखाई उन लोगों ने।" रूपा ने कहा____"ख़ैर, तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं।"
"पानी है या ले आऊं?" मैंने पूछा।
"थोड़ा है अभी।" उसने बताया____"वैसे लाना ही पड़ेगा क्योंकि रात का खाना भी बनाना होगा इस लिए पानी की ज़रूरत तो पड़ेगी ही।"
"ठीक है।" मैंने तखत से उतरते हुए कहा____"लाओ मटका, मैं कुएं से ले आता हूं पानी।"
रूपा अंदर गई और मटका ला कर मुझे पकड़ा दिया। मैं मटका ले कर कुएं की तरफ बढ़ चला। थोड़ी ही देर में मैं पानी ले आया और अंदर रसोई के पास रख दिया। मेरी नज़र चूल्हा जलाती रूपा पर पड़ी। वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी। पता नहीं क्या सोच के मुस्कुरा रही थी वो? मुझे अजीब लगा मगर मैं चुपचाप बाहर आ कर फिर से तखत पर बैठ गया और उसके बारे में सोचने लगा।
नियति का खेल बड़ा ही अजब ग़ज़ब होता है जिसके बारे में हम इंसान कल्पना भी नहीं कर पाते। एक वक्त था जब साहूकारों से हमारे रिश्ते नदी के दो किनारों की तरह थे। बिल्कुल भी यकीन नहीं था कि एक दिन वो किनारे आपस में मिल जाएंगे। किंतु हर उम्मीद के विपरीत वो मिले। ये अलग बात है कि इसके पहले दोनों किनारों का मिलना एक गहरी साज़िश का हिस्सा था जिसका कहीं न कहीं हम सबको अंदेशा भी था। नहीं जानते थे कि उस साज़िश के चलते जो परिणाम सामने आएगा वो इतना दर्दनाक होगा। ख़ैर इस सबके बाद वो दोनों किनारे फिर से अलग हो गए लेकिन नियति अब भी हमारे लिए कोई योजना बनाए हुए थी जिसका परिणाम आज इस सूरत में मेरे सामने था। दोनों किनारे एक बार फिर से मिले लेकिन इस कायाकल्प के बीच मैंने हमेशा के लिए उसे खो दिया जिसे मैं बेपनाह प्रेम करता था। नियति ने एक ऐसी लड़की का जीवन छीन लिया जो बेहद मासूम थी और गंगा की तरह निर्दोष एवं पाक थी।
मेरे मन में विचारों का बवंडर शुरू हुआ तो एकाएक फिर उस ख़याल पर जा ठहरा जिस ख़याल से मुझे बेहद पीड़ा होती थी और मेरी आंखें छलक पड़तीं थी। वो ख़याल था____'मेरी अनुराधा का असल हत्यारा कोई और नहीं बल्कि मैं ख़ुद ही हूं। वो मेरे कुकर्मों की वजह से ही आज इस दुनिया में नहीं है।' बस, इस ख़याल के उभरते ही दिलो दिमाग़ में भयंकर रूप से ज्वारभाटा सा उठ जाता और मैं अत्यधिक पीड़ा में डूब जाता था।
"ये लो।" मैं अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी रूपा की आवाज़ से चौंक कर वास्तविकता के धरातल पर आ गया।
मैंने देखा, रूपा मेरे पास खड़ी थी। उसके हाथ में चाय का प्याला था जिसे उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मैंने उसके चेहरे से नज़र हटा कर उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया।
"एक बात पूछूं?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा।
"हां पूछो।" उसने भी उसी अंदाज़ में मेरी तरफ देखा।
"क्या तुम्हें अपने घर वालों की याद नहीं आती?" मैंने पूछा____"मेरा मतलब है कि कल सुबह से तुम अपने घर परिवार से दूर यहां पर हो, तो क्या उनकी याद नहीं आती तुम्हें? क्या उन्हें देखने का मन नहीं करता तुम्हारा?"
"रूप भैया को देख लेती हूं तो फिर किसी से मिलने का मन नहीं करता।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे भी मेरे लिए मेरे परिवार वालों से ज़्यादा तुम मायने रखते हो। मेरी ज़िंदगी का हर सुख दुख तुमसे जुड़ा हुआ है। अगर मेरा महबूब किसी तकलीफ़ से ग्रसित होगा तो उसे देख कर मेरा हाल भी उसके जैसा ही हो जाएगा। इस वक्त यहां मैं अपनी जान के पास हूं। मेरे लिए यही सबसे बड़ी बात है। इसके अलावा मुझे किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है।"
"मुझे समझ नहीं आता कि मेरे जैसे इंसान से तुम इतना प्रेम कैसे कर सकती हो?" मैंने सहसा आहत हो कर कहा____"बाकी लड़कियों की तरह मैंने तुम्हारी इज्ज़त को भी तो दाग़दार किया था। मैंने कभी तुम्हारी भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया बल्कि हर बार तुम्हारे द्वारा दी गई प्रेम की दलीलों पर तुम्हारा मनोबल ही तोड़ा था। इस सब के बाद भी तुम्हें मुझसे घृणा नहीं हुई, आख़िर क्यों?"
"सच्चे प्रेम में घृणा का कहीं कोई वजूद नहीं होता साजन।" रूपा ने बड़े प्रेम से कहा____"प्रेम में तो सिर्फ प्रेम ही होता है। प्रेम में अपने प्रियतम की जुदाई का दर्द भले ही असहनीय की सूरत में मिल जाता है लेकिन इसके बावजूद प्रेम अपने प्रेम से लेश मात्र भी घृणा नहीं करता। शायद इसी लिए प्रेम की भावना सबसे पवित्र होती है जिसे ऊपर वाला भी सर्वोपरि मानता है।"
"काश! मुझे प्रेम का ये पाठ वक्त से पहले समझ आ गया होता ।" मैंने गहरी सांस ली____"तो आज मेरी वजह से ना तो किसी को चोट पहुंचती और ना ही किसी की जान जाती।"
"गुज़र गई बातों को बार बार याद करने से सिवाय दुख और तकलीफ़ के कुछ नहीं मिलता जान।" रूपा ने कहा____"इस लिए उस सब को मत याद करो। अपनों की ख़ुशी और भलाई के लिए आगे बढ़ो।"
"मैं चाह कर भी ऐसी बातें भुला नहीं पा रहा।" मैं एकदम से दुखी हो गया____"बार बार मुझे अपने द्वारा किए गए कुकर्म याद आ जाते हैं। ये सब जो हुआ है मेरे ही कुकर्मों की वजह से ही हुआ है। ऊपर वाले ने सभी निर्दोष लोगों की जान ले ली लेकिन मुझ गुनहगार को ज़िंदा रखा है। शायद वो भी अपनी दुनिया में मेरे जैसे इंसान को रखना पसंद नहीं करता है।"
"ईश्वर के लिए ऐसी बातें मत करो वैभव।" रूपा ने तड़प कर कहा____"क्यों खुद को निराशा और हताशा के दलदल में इस तरह डुबाने पर तुले हुए हो? तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम खुद को शांत रखोगे और अपनी अनुराधा की आत्मा की शांति के लिए अच्छे काम करोगे। क्या तुम अपना किया वादा इतना जल्दी भूल गए? क्या तुम सच में नहीं चाहते कि अनुराधा की आत्मा को शांति मिले?"
"म...मैं चाहता हूं रूपा।" हताशा के भंवर में फंसा मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"मैं अपनी अनुराधा को कोई तकलीफ़ नहीं देना चाहता लेकिन.....लेकिन मैं क्या करूं? बार बार मेरे दिलो दिमाग़ में वही सब उभर आता है जो मैंने किया है और जो मेरी वजह से हुआ है।"
रूपा ने चाय के प्याले को झट से एक तरफ रखा और फिर झपट कर मुझे खुद से छुपका लिया। मुझे इस तरह दुखी होते देख उसकी आंखें भर आईं थी। उसका हृदय तड़प उठा था। ये सोच कर उसकी आंखें छलक पड़ीं कि जिसे वो इतना प्रेम करती है उसकी तकलीफ़ों को वो इतनी कोशिश के बाद भी दूर नहीं कर पा रही है। मन ही मन उसने अपनी देवी मां को याद किया और उनसे मेरी तकलीफ़ों को दूर करने की मिन्नतें करने लगी।
जब मैं वापस मकान के पास पहुंचा तो देखा भुवन आ गया था। मुझे यहां पर आया देख वो थोड़ा खुश नज़र आया। कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैंने उससे कहा कि वो कुछ विश्वासपात्र आदमियों को सरोज काकी के घर की और मेरी ग़ैर मौजूदगी में मेरे उस मकान पर नज़र रखें। मैं नहीं चाहता था कि सरोज अथवा रूपा के साथ किसी भी तरह की अनहोनी हो जाए। भुवन ने मुझे फ़िक्र न करने के लिए कहा और फिर काम में लग गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली के लिए निकल गया।
अब आगे....
"अरे! तू आ गया बेटा।" मैं जैसे ही हवेली के अंदर पहुंचा तो मां मुझे देख खुश होते हुए बोलीं____"तुझे देख के मेरे कलेजे को कितनी ठंडक मिली है मैं बता नहीं सकती।"
कहने के साथ ही मां ने मुझे लपक कर अपने कलेजे से लगा लिया। मां की आवाज़ सुन बाकी लोग भी जहां कहीं मौजूद थे फ़ौरन ही बाहर आ गए। कुसुम की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी तो वो भागते हुए आई और भैया कहते हुए मेरे बगल से छुपक गई। मेनका चाची और रागिनी भाभी के चेहरे भी खिल उठे। वहीं निर्मला काकी के होठों पर भी मुस्कान उभर आई जबकि उनकी बेटी कजरी के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। ज़ाहिर है उस दिन की खातिरदारी के चलते उसके अरमानों के सारे दिए बुझ चुके थे।
"ये क्या बात हुई दीदी?" मेनका चाची ने मेरे क़रीब आ कर मां से कहा____"वैभव सिर्फ आपका ही नहीं मेरा भी बेटा है। मुझे भी तो इसे अपने कलेजे से लगाने दीजिए।"
चाची की बात सुन मां ने मुस्कुराते हुए मुझे खुद से अलग किया और फिर चाची से बोलीं____"हां हां क्यों नहीं मेनका। ये तेरा भी बेटा है।"
मां की बात सुन चाची ने मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में असीम स्नेह झलक रहा था। उन्होंने एक पल भी जाया नहीं किया मुझे अपने कलेजे से लगाने में। अपने लिए सबका ऐसा प्यार और स्नेह देख अंदर से मुझे खुशी तो हुई किंतु फिर तभी अनुराधा की याद आ गई जिसके चलते दिल में दर्द सा जाग उठा। उधर भाभी मुझे ही अपलक देखे जा रहीं थी। जैसे समझने की कोशिश कर रही हों कि रूपा के क़रीब रहने से मुझमें कोई परिवर्तन आया है कि नहीं?
"दीदी आपको नहीं लगता कि मेरा बेटा एक ही रात में कितना दुबला हो गया है?" मेनका चाची ने मुझे खुद से अलग करने के बाद सहसा मां से कहा____"लगता है मेरी होने वाली बहू ने मेरे बेटे का ठीक से ख़याल नहीं रखा है।"
चाची की बात का मतलब ज़रा देर से मां को समझ आया तो उन्होंने हल्के से कुहनी मारी चाची को जिस पर चाची खिलखिला कर हंसने लगीं लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी हंसी को रोक लिया। कदाचित ये सोच कर कि बाकी लोग क्या सोचेंगे और शायद मैं खुद भी? हालाकि मैंने उनकी बात को गहराई से सोचना गवारा ही नहीं किया था।
"जब देखो उल्टा सीधा बोलती रहती है।" मां ने चाची पर झूठा गुस्सा करते हुए कहा____"ये नहीं कि बेटा आया है तो उसके खाने पीने का बढ़िया से इंतज़ाम करे।"
"अरे! चिंता मत कीजिए दीदी।" चाची ने कहा____"अपने बेटे की सेहत का मुझे भी ख़याल है। मैंने तो पहले से ही वैभव के लिए उसकी पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाना शुरू कर दिया है।"
"खाना तो अभी बन रहा है इस लिए उससे पहले मैं अपने सबसे अच्छे वाले भैया को अदरक वाली बढ़िया सी चाय बना के पिलाऊंगी।" कुसुम ने झट से कहा____"देखना मेरे हाथ की बनी चाय पीते ही मेरे भैया खुश हो जाएंगे, है ना भैया?"
"हां सही कह रही है मेरी गुड़िया।" मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा_____"मेरी बहन का प्यार दुनिया में सबसे बढ़ कर है। जा बना के ले आ मेरे लिए चाय।"
मेरी बात सुनते ही कुसुम खुशी से झूमते हुए रसोई की तरफ दौड़ पड़ी। उसके जाने के बाद मैं भी पलटा और आंगन को पार कर के सीढ़ियों से होते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। मुझे इस तरह चला गया देख मां और चाची के चेहरे पर पीड़ा और निराशा के भाव उभर आए थे।
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नहा धो कर अपने कमरे में आने के बाद मैंने कपड़े पहने ही थे कि तभी खुले दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने पलट कर देखा तो मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी। वो दरवाज़े की दहलीज़ पर खड़ीं थी।
"क्या मैं अंदर आ सकती हूं?" मुझे अपनी तरफ देखता देख उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ पूछा।
"आपको मेरे कमरे में आने के लिए मुझसे इजाज़त लेने की कब से ज़रूरत महसूस होने लगी?" मैंने भावहीन स्वर में कहा____"ख़ैर अंदर आ जाइए।"
"क्या करें जनाब समय बदल रहा है।" भाभी ने अंदर आते हुए उसी मुस्कान के साथ कहा____"इजाज़त ले कर कमरे में आने की अभी से आदत डालनी होगी हमें। आख़िर कुछ समय बाद हमारे महान देवर जी एक से दो जो हो जाएंगे। उसके बाद तो बिना इजाज़त के कोई कमरे में आ भी नहीं सकेगा।"
"सबको भले ही मेरे कमरे में इजाज़त ले कर आना पड़े।" मैंने कहा____"लेकिन आपको मेरे कमरे में आने के लिए कभी इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।"
"ओहो! भला ऐसा क्यों जनाब?" भाभी की आंखें सिकुड़ गईं।
"बस ऐसे ही।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
"अरे! ऐसे कैसे बस ऐसे ही?" भाभी ने आंखें फैला कर कहा____"कोई तो ख़ास बात ज़रूर होगी जिसकी वजह से तुम ऐसा कह रहे हो।"
"बस यूं समझ लीजिए कि मैं अपनी भाभी पर अपनी तरफ से किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाना चाहता।" मैंने कहा____"और ना ही ये चाहता हूं कि मेरी वजह से आपको किसी तरह की असुविधा हो।"
"ऐसी बातें मत करो वैभव जिनके लिए बाद में तुम्हें पछताना पड़े?" भाभी ने कहा____"इंसान शादी हो जाने के बाद ज़्यादातर बीवी के ही कहने पर चलता है। इस लिए ऐसी बातें मत कहो जो बाद में तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी कर दें।"
"अगर मैंने पिता जी को रूपा से ब्याह करने के लिए हां नहीं कहा होता तो मैं शादी नहीं करता।" मैंने कहा____"अपनी अनुराधा को खो देने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे इस दुनिया में अब मेरे लिए कुछ है ही नहीं। जीवन बेरंग हो गया है। जी करता है जहां मेरी अनुराधा चली गई है वहीं मैं भी चला जाऊं।"
"ख़बरदार वैभव।" भाभी ने एकाएक कठोर भाव से कहा____"आज के बाद ऐसी बात सोचना भी मत। तुम्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि तुम्हारे मुख से ऐसा सुनने मात्र से इस घर के कितने लोगों को दिल का दौरा पड़ सकता है और उनकी जान जा सकती है।"
"मैं क्या करूं भाभी?" मैं हताश भाव से पलंग पर धम्म से बैठ गया____"उसकी बहुत याद आती है मुझे। एक पल के लिए भी उसे भूल नहीं पा रहा मैं। आंखों के सामने बार बार पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश चमक उठती है। उस भयानक मंज़र को देखते ही बस एक ही ख़याल ज़हन में आता है कि मेरी वजह से आज वो इस दुनिया में नहीं है। मुझसे प्रेम करने की कितनी भयंकर सज़ा मिली उसे।"
"शांत हो जाओ वैभव।" भाभी ने झट से मेरे पास आ कर मेरे सिर को बड़े प्यार से अपने हृदय से लगा लिया_____"किसी के इस तरह चले जाने का दोषी भले ही इंसान हो जाता है लेकिन सच तो ये है कि हर इंसान इस दुनिया में अपनी एक निश्चित आयु ले कर ही आता है। दुनिया का सबसे बड़ा सत्य यही है कि जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है उसे एक दिन वापस ऊपर वाले के पास जाना ही पड़ता है। उसके जाने पर तुम इस तरह ख़ुद को दुखी मत करो। क्या इतना जल्दी भूल गए कि आज जिस हालत में तुम हो कुछ समय पहले मैं भी ऐसी ही हालत में थी। उस समय तुम भी मुझे यही सब समझाते थे और मेरे अंदर जीने के लिए नई नई उम्मीदें जगाते थे। आज भी तुम मेरे चेहरे पर खुशी लाने के लिए जाने कैसे कैसे हथकंडे अपनाते हो। अगर अपने दिल का सच बयान करूं तो वो यही है कि आज मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी मेहरबानियों के चलते ही अपने उस असहनीय दुख से बाहर निकल सकी हूं। मुझे खुशी है कि मेरे देवर ने मेरे लिए इतना कुछ सोचा और मेरे दुखों को दूर करने की हर कोशिश की। ऊपर वाले से यही दुआ करती हूं ईश्वर मेरे जैसा देवर हर औरत को दे।"
"ऐसी दुआ मत कीजिए भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मेरे जैसा कुकर्मी इंसान किसी भी औरत का कुछ भी बनने के लायक नहीं हो सकता।"
"अगर तुमने दुबारा ऐसी ऊटपटांग बात कही तो सोच लेना।" भाभी ने जैसे मुझे धमकी देते हुए कहा____"मैं कभी तुमसे बात नहीं करूंगी और तुम्हारी तरह मैं भी वापस अपने उसी दुख में डूब जाऊंगी जिसमें से निकाल कर तुम मुझे यहां लाए हो।"
"नहीं भाभी नहीं।" मैंने भाभी को ज़ोर से पकड़ लिया____"भगवान के लिए ऐसा मत कीजिएगा।"
"हां तो तुम भी अपने मुख से ऐसी फ़िज़ूल की बातें नहीं बोलोगे।" भाभी ने कहा____"तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम एक अच्छा इंसान बन कर दिखाओगे और पूरी ईमानदारी से अपनी हर ज़िम्मेदारियां निभाओगे। क्या तुम अपना वचन तोड़ कर मुझे फिर से दुख में डुबा देना चाहते हो?"
"नहीं....हर्गिज़ नहीं।" मैंने पूरी दृढ़ता से इंकार में सिर हिला कर कहा____"मैं खुद को मिटा दूंगा लेकिन अपना वचन तोड़ कर आपको दुखी नहीं होने दूंगा।"
"सच कह रहे हो ना?" भाभी ने जैसे मुझे परखा____"मुझे झूठा दिलासा तो नहीं दे रहे हो ना?"
मैंने इंकार में सिर हिलाया तो भाभी ने कहा____"मेरे प्यारे देवर, मैं जानती हूं कि जब कोई अपना दिल अज़ीज़ इस तरह से रुख़सत हो जाता है तो बहुत पीड़ा होती है लेकिन हमें किसी न किसी तरह उस पीड़ा को सह कर अपनों के लिए आगे बढ़ना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारे समझाने के बाद अब मैं अपने अपनों के लिए आगे बढ़ने की कोशिश में लगी हुई हूं। मेरा तुमसे यही कहना है कि तुम इस दुख से बाहर निकलने की कोशिश करो। रूपा के बारे में सोचो, बेचारी कितना प्रेम करती है तुमसे। तुम्हारे दुख से वो भी दुखी है। उसके प्रेम की पराकाष्ठा देखो कि उसने अपने प्रियतम को दुख से बाहर निकालने के लिए एक ऐसा रास्ता अख़्तियार कर लिया जिसके बारे में दुनिया का कोई भी आम इंसान ना तो सोच सकता है और ना ही हिम्मत जुटा सकता है। दुनिया में भला कौन ऐसी लड़की होगी और ऐसे घर वाले होंगे जो ब्याह से पहले ही अपनी बेटी को अपने होने वाले दामाद के साथ अकेले रहने की इस तरह से खुशी खुशी अनुमति दे दें? ये दुनिया किसी एक पर ही बस नहीं सिमटी हुई है वैभव, बल्कि ये दुनिया अनगिनत लोगों के वजूद का हिस्सा है। हमें सिर्फ एक के बारे में नहीं बल्कि हर किसी के बारे में सोचना पड़ता है।"
भाभी की बातों से मेरे अंदर हलचल सी मच गई थी। मैं गंभीर मुद्रा में बैठा जाने किन ख़यालों में खोने लगा था?
"अच्छा अब छोड़ो ये सब।" मुझे ख़ामोश देख भाभी ने कहा____"और ये बताओ कि मेरी होने वाली देवरानी का निरादर तो नहीं किया न तुमने? उस बेचारी पर गुस्सा तो नहीं किया न तुमने?"
मैंने ना में सिर हिला दिया। उसके बाद उनके पूछने पर मैंने उन्हें अपने और रूपा के बीच का सारा किस्सा बता दिया। सब कुछ जानने के बाद भाभी के होठों पर मुस्कान उभर आई थी।
"वाह! मुझे अपनी होने वाली देवरानी से ऐसी ही समझदारी की उम्मीद थी।" फिर उन्होंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"तुम्हारे साथ साथ वो बेचारी अनुराधा की मां का भी दुख दूर करने की कोशिश कर रही है। इतना ही नहीं बेटी बन कर सच्चे दिल से वो अपनी नई मां की सेवा भी कर रही है। इतना कुछ इंसान तभी कर पाता है जब उसके दिल में किसी के प्रति अथाह प्रेम हो और हर इंसान के प्रति कोमल भावनाएं हों। तुम्हें ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने इतनी अच्छी लड़की को तुम्हारी जीवन संगिनी बनाने के लिए चुन रखा है।"
कुछ देर बाद भाभी कमरे से चली गईं। मैं पलंग पर लेटा काफी देर तक उनकी बातों के बारे में सोचता रहा। कुसुम जब मुझे भोजन करने के लिए बुलाने आई तो मैं उसके साथ ही नीचे आ गया।
मेरे पूछने पर मां ने बताया कि पिता जी गौरी शंकर के साथ सुबह नाश्ता कर के कहीं गए हुए हैं। ख़ैर खाना लग चुका था। सचमुच मेनका चाची ने मेरी पसंद का ही भोजन बनवाया था। वो अपने हाथों से मुझे खाना परोस रहीं थी। सबके चेहरों पर खुशी के भाव थे। ज़ाहिर है सब मुझे खुश करने के ही प्रयास में लगे हुए थे। मां मेरे बगल में बैठ कर अपने हाथों से खिलाने लगीं थी। मुझे ये सब पसंद तो नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए खाए जा रहा था कि मेरी वजह से उनकी भावनाएं आहत न हों।
भोजन के बाद मैं वापस अपने कमरे में आराम करने के लिए चला आया। मैं बहुत कोशिश कर रहा था कि खुद को सामान्य रखूं और सबके साथ सामान्य बर्ताव ही करूं लेकिन जाने क्यों मुझसे ऐसा हो नहीं पा रहा था।
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सरोज अब पहले से काफी बेहतर थी। रूपा के आने की वजह से काफी हद तक उसका अकेलापन दूर हो गया था। रूपा उसे उदास होने का मौका ही नहीं देती थी। सरोज के साथ रूपा का बर्ताव बिल्कुल वैसा ही था जैसे सच में ये उसी का घर है और सरोज उसकी असल मां है। इसके विपरीत सरोज उसके ऐसे बेबाक अंदाज़ पर अभी भी थोड़ा संकोच कर रही थी। शायद अभी वो पूरी तरह से सहज नहीं हो पाई थी।
दोपहर का खाना रूपा ने ही बनाया था। उसके बाद पहले उसने अनूप को खिलाया था और फिर सरोज के साथ बैठ कर उसने खाया था। खाना खाने के बाद उसने सारे जूठे बर्तन भी धो दिए थे। रूपा को किसी मशीन की तरह अपने घर में काम करते देख सरोज मन ही मन हैरान भी होती थी और ये सोच कर उसे थोड़ा खुशी भी महसूस होती थी कि उसके जीवन की नीरसता को दूर करने के लिए वो बेचारी कितना कुछ कर रही थी। अनायास ही उसके मन में सवाल उभरा कि क्या उसे इस तरह से किसी दूसरे की बेटी को अपने लिए यहां परेशान होते देखना चाहिए? अगर गहराई से सोचा जाए तो उससे उसका रिश्ता ही क्या है? आख़िर उसने ऐसा कौन सा गुनाह किया है जिसके लिए उसको ये सब करना पड़े?
सरोज सोचती कि किसी दूसरे की बेटी उसे मां कह रही थी और उसे वैसा ही स्नेह और सम्मान दे रही थी जैसे कोई अपनी सगी मां को देता है। सरोज ये सब सोचते हुए खुद से यही कहती कि ये सब उसकी अपनी बेटी की वजह से ही हो रहा है। अगर उसकी बेटी ने दादा ठाकुर के बेटे से प्रेम न किया होता तो यकीनन एक बड़े घर की लड़की उसे अपनी मां मानते हुए उसके यहां ऐसे काम ना करती। यानि ये सब कुछ उसकी अपनी बेटी के संबंधों के चलते ही हो रहा है।
सरोज को याद आया कि हवेली की ठकुराईन अपनी बहू के साथ खुद चल कर उसके घर आईं थी। इतना ही नहीं उसके दुख दर्द को समझते हुए उसे धीरज दिया था। उनकी बहू ने तो उसे अपनी मां तक बना लिया था। उसकी बेटी को उसने अपनी छोटी बहन बना लिया था। उनमें से किसी को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि उसकी बेटी ने इतने बड़े घर के बेटे से प्रेम संबंध बनाया और उसके साथ ब्याह भी करने का इरादा रखती थी। बल्कि हवेली का हर सदस्य उसकी बेटी को अपनी बहू बनाने के लिए खुशी से तैयार था। ये तो उसका और उसकी बेटी का दुर्भाग्य था जिसके चलते ऐसा हो ही न सका था।
सरोज को बड़ी शिद्दत से एहसास हुआ कि सच में किसी का कोई दोष नहीं था। उसकी बेटी का इस तरह से मरना तो नियति का लेख था। सरोज को याद आया कि उसके पति का हत्यारा तो उसका अपना ही देवर जगन था जो अपने ही भाई की संपत्ति हड़पना चाहता था। ज़ाहिर है उसके पति की मौत में भी दादा ठाकुर के लड़के वैभव का कोई हाथ नहीं था। बल्कि उसने तो एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगा कर उसके पति के हत्यारे को उसके सामने ला कर खड़ा कर दिया था।
अचानक ही सरोज की आंखों के सामने गुज़रे वक्त की तस्वीरें किसी चलचित्र की मानिंद चमकने लगीं। उसे नज़र आया वो मंज़र जब उसके पति की तेरहवीं करने के लिए वैभव ने क्या कुछ किया था। तेरहवीं के दिन सुबह से शाम तक वो किसी मजदूर की तरह पूरी ईमानदारी और सच्चे दिल से हर काम में लगा हुआ था। उसके घर के अंदर बाहर भीड़ जमा थी। हर व्यक्ति की ज़ुबान में बस यही बात थी कि मुरारी की तेरहवीं का ऐसा आयोजन आम इंसानों के बस की बात नहीं थी। सरोज को सहसा याद आया कि उसके बाद कैसे वैभव ने उसकी और उसके परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर रख ली थी। किसी भी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया था उसने। यहां तक कि उसके खेतों पर काम करने के लिए दो दो आदमियों को लगा दिया था। इतना कुछ तो वही कर सकता है जो उसे और उसके परिवार को दिल से अपना मानता हो और उसका हर तरह से भला चाहता हो।
घर के आंगन में चारपाई पर बैठी सरोज के ज़हन में यही सब बातें चल रहीं थी जिसके तहत उसका मन भारी हो गया था। उसे पता ही न चला कि कब उसकी आंखों ने आंसू के कतरे बहा दिए थे। इस वक्त वो अकेली ही थी। उसका बेटा अनूप अपनी नई दीदी के साथ पीछे कुएं पर गया हुआ था जहां रूपा उसके और अनूप के कपड़े धो रही थी।
"अरे! मां आप अभी तक वैसी ही बैठी हुई हैं?" तभी रूपा दूसरे वाले दरवाज़े से अंदर आंगन में आ कर उससे बोली____"ओह! अच्छा समझ गई मैं। आप फिर से बीती बातों को याद कर खुद को दुखी करने में लगी हुई हैं।"
"नहीं बेटी, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" सरोज ने झट से खुद को सम्हालते हुए कहा____"असल में बात ये है कि मैं तेरे आने का इंतज़ार कर रही थी। मैं चाहती थी कि जैसे कल तूने मेरे बालों को संवार कर जूड़ा बना दिया था वैसे ही आज भी बना दे।"
"वाह! आप तो बड़ा अच्छा बहाना बना लेती हैं।" रूपा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप बैठिए, मैं इन गीले कपड़ों को रस्सी में फैला दूं उसके बाद आपके बालों को संवारती हूं।"
कहने के साथ ही रूपा आंगन के दूसरे छोर पर लगी डोरी पर एक एक कर के गीले कपड़े फैलाने लगी। कुछ ही देर में जब सारे कपड़े टंग गए तो वो अंदर गई और फिर कंघा शीशा वाली छोटी सी डलिया ले कर आ गई।
सरोज बड़े ध्यान से उसकी एक एक कार्यविधि को देख रही थी। वैसे ये कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि जब से रूपा यहां आई थी तभी से वो उसकी हर कार्यविधि को देखती आ रही थी। उसके मन में बस एक ही ख़याल उभरता कि ये भी उसकी बेटी अनुराधा की ही तरह है। बस इतना ही फ़र्क है कि ये उसकी बेटी की तरह ज़रूरत से ज़्यादा शर्मीली और संकोच करने वाली नहीं है। बाकी जो भी करती है पूरे दिल से और पूरी ईमानदारी से करती है, जैसे उसकी बेटी करती थी।
"क्या हुआ मां?" सरोज को अपलक अपनी तरफ देखता देख रूपा ने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देख रही हैं मुझे? मुझसे कोई भूल हो गई है?"
"नहीं बेटी।" सरोज ने हल्के से हड़बड़ा कर कहा____"तुझसे कोई भूल नहीं हुई है। मैं तो बस ये सोच रही हूं कि कब तक तू मेरे लिए यहां परेशान होती रहेगी? एक दिन तो तुझे अपने घर जाना ही होगा। उसके बाद मैं फिर से इस घर में अकेली हो जाऊंगी।"
"आप तो जानती हैं न मां कि बेटियां पराई होती हैं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा____"अपने मां बाप के घर में कुछ ही समय की मेहमान होती हैं उसके बाद तो वो किसी दूसरे का घर आबाद करने चली जाती हैं। ख़ैर आप फ़िक्र मत कीजिए, जब तक आपके पास हूं आपकी देख भाल करूंगी।"
"और फिर मुझे अपने मोह के बंधन में बांध कर चली जाएगी?" सरोज ने अधीरता से कहा____"उसके बाद तो मैं फिर से उसी तरह दुख में डूब जाऊंगी जैसे अनू के चले जाने से डूब गई थी, है ना?"
"अगर आप कहेंगी तो आपको छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाऊंगी।" रूपा ने सरोज के दोनों कन्धों को पकड़ कर कहा____"हमेशा आपके पास रहूंगी और आपको कभी दुखी नहीं होने दूंगी।"
"ऐसा मत कह मेरी बच्ची।" सरोज के जज़्बात मचल उठे तो उसने तड़प कर रूपा को अपने सीने से लगा लिया, फिर रुंधे गले से बोली____"तुझे मेरे लिए अपना जीवन बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं भी तेरा जीवन बर्बाद कर के पाप की भागीदार नहीं बनना चाहती।"
"ऐसा कुछ नहीं है मां।" रूपा ने कहा____"माता पिता की सेवा में अपना जीवन कुर्बान कर देना तो औलाद के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है। मैंने आपको मां कहा है तो अब ये मेरी ज़िम्मेदारी है कि आपको किसी भी तरह का कोई कष्ट अथवा दुख न हो।"
"मुझे अब कोई कष्ट या दुख नहीं रहा बेटी।" सरोज ने रूपा को खुद से अलग कर उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में ले कर कहा____"तेरे इस स्नेह ने मुझे हर दुख से उबार दिया है। अब मैं ये चाहती हूं मेरी ये बेटी अपने बारे में भी सोचे।"
रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी किसी ने बाहर वाला दरवाज़ा खटखटाया जिससे दोनों का ध्यान उस तरफ गया।
"शायद वो (वैभव) आए होंगे मां।" रूपा ने थोड़ा शरमाते हुए कहा और फिर चारपाई से उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चली।
रूपा ने जब दरवाज़ा खोला तो उसकी उम्मीद के विपरीत दरवाज़े के बाहर एक औरत और कुछ लड़कियां खड़ी नज़र आईं। रूपा उनमें से किसी को भी नहीं पहचानती थी इस लिए उन्हें देख उसकी आंखों में सवालिया भाव उभर आए। यही हाल उन लोगों का भी था किंतु रूपा ने महसूस किया कि औरत के चेहरे पर दुख और तकलीफ़ के भाव थे। बहरहाल, रूपा ने एक तरफ हट कर उन्हें अंदर आने का रास्ता दिया तो वो सब अंदर आ गईं।
"अरे! मालती तू?" सरोज की नज़र जैसे ही औरत और लड़कियों पर पड़ी तो उसने कहा____"अपनी बेटियों के साथ इस वक्त यहां कैसे? सब ठीक तो है ना?"
सरोज का ये पूछना था कि मालती नाम की औरत झट से आगे बढ़ी और फिर लपक कर सरोज से लिपट कर रोने लगी। ये देख सरोज के साथ साथ रूपा भी चौंकी। मालती को यूं रोते देख उसके साथ आई लड़कियां भी सुबकने लगीं।
"अरे! तू रो क्यों रही है मालती?" सरोज ने एकाएक चिंतित हो कर पूछा____"आख़िर हुआ क्या है?"
"सब कुछ बर्बाद हो गया दीदी।" मालती ने रोते हुए कहा____"मैं और मेरे बच्चे कहीं के नहीं रहे।"
"य...ये क्या कह रही है तू?" सरोज चौंकी____"साफ साफ बता हुआ क्या है?"
"आपके देवर ने जिन लोगों से कर्ज़ा लिया था उन लोगों ने आज हमें हमारे ही घर से निकाल दिया है।" मालती ने सुबकते हुए कहा____"अभी थोड़ी देर पहले ही वो लोग घर आए थे और अपना कर्ज़ा मांग रहे थे मुझसे। मेरे पास तो कुछ था ही नहीं तो कहां से उनका कर्ज़ा देती? एक हफ़्ता पहले भी वो लोग आए थे और ये कह कर चले गए थे कि अगर मैंने एक हफ़्ते के अंदर उन लोगों का उधार वापस नहीं किया तो वो मुझे और मेरे बच्चों को मेरे ही घर से निकाल देंगे और मेरे घर पर कब्ज़ा कर लेंगे।"
मालती की बातें सुन कर सरोज सन्न रह गई। रूपा भी हैरान रह गई थी। उधर मालती थी कि चुप ही नहीं हो रही थी। उसके साथ साथ उसकी बेटियां और छोटा सा उसका बेटा भी रो रहा था।
मालती, मरहूम जगन की बीवी और सरोज की देवरानी थी। जगन को चार बेटियां थी और आख़िर में एक बेटा जोकि उमर में अनूप से बहुत छोटा था।
(यहां पर जगन के परिवार का छोटा सा परिचय देना मैं ज़रूरी समझता हूं।)
✮ जगन सिंह (मर चुका है)
मालती सिंह (जगन की बीवी/विधवा)
जगन और मालती को पांच संताने हुईं थी जो इस प्रकार हैं:-
बटवारे में मुरारी और जगन को अपने पिता की संपत्ति से बराबर का हिस्सा मिला था। जगन अपने बड़े भाई की अपेक्षा थोड़ा लालची और जुआरी था। अपने बड़े भाई मुरारी की तरह जगन भी देशी शराब का रसिया था किंतु जुएं के मामले में वो अपने बड़े भाई से आगे था। मुरारी जुवां नहीं खेलता था और शायद यही वजह काफी थी कि मुरारी अपने छोटे भाई की तरह इतना ज़्यादा कर्ज़े में नहीं डूबा था। बहरहाल, जगन जुएं के चलते ही अपना सब कुछ गंवाता चला गया था।
उसकी बीवी मालती यही जानती थी कि उसके मरद ने घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही मजबूरी में खेतों को गिरवी किया था जबकि असलियत ये थी कि जगन ने अपने खेत जुएं में गंवाए थे। आज स्थिति ये बन गई थी कि उसके मरने के बाद कर्ज़ा देने वालों ने उसकी बीवी और उसके बच्चों को उसके अपने ही घर से निकाल कर बेघर कर दिया था। उन्हीं से मालती को पता चला था कि उसके पति ने जुएं में ही अपने खेत गंवाए थे।
मालती ने रोते हुए सरोज को सारी कहानी बताई तो सरोज के पैरों तले से मानों ज़मीन खिसक गई थी। एकाएक ही उसे एहसास हुआ कि उसकी देवरानी और उसके बच्चे इस समय कितनी बड़ी मुसीबत में हैं। रहने के लिए कोई घर नहीं है और पेट भरने के लिए जिस अन्न की ज़रूरत होती है उसे उगाने के लिए ज़मीन नहीं है।
रूपा अब तक मालती और उसके बच्चों की हालत समझ गई थी और साथ ही उसे ये भी एहसास हुआ कि इस सबके चलते उन्होंने खाना भी नहीं खाया होगा। उसने चुपके से मालती की एक छोटी बेटी से खाना खाने के बारे में पूछा तो उसने सहमे से अंदाज़ में बताया कि उनमें से किसी ने भी कुछ नहीं खाया है।
रूपा चुपचाप रसोई की तरफ बढ़ गई। उसे पता था कि रसोई में खाना थोड़ा सा ही है जोकि अनूप के लिए बचा के रख दिया था उसने। रूपा ने फ़ौरन ही खाना बनाने के लिए चूल्हा सुलगाना शुरू कर दिया।
आंगन में मालती और सरोज एक दूसरे का दुख बांटने में लगी हुईं थी और इधर रूपा ने फटाफट उन सबके लिए खाना बना दिया था। क़रीब पौन घंटे बाद जब रूपा ने सबसे खाना खाने के लिए कहा तो सरोज ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसका तो इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था। सहसा उसकी नज़र खपरैल पर उठते धुएं पर पड़ी तो उसे समझते देर न लगी कि रूपा ने सबके लिए गरमा गरम खाना बना दिया है। ये देख उसे रूपा पर बहुत प्यार आया और साथ ही उसने रूपा को बड़ी कृतज्ञता से भी देखा।
बहरहाल सरोज के कहने पर मालती और उसके बच्चे खाना खाने को तैयार हुए। थोड़ी ही देर में रूपा ने अंदर बरामदे में सबको बैठाया और सबको खाना परोसा। ये सब देख सरोज को अपने अंदर बड़ा ही सुखद एहसास हो रहा था। वो सोचने लगी कि रूपा ने कितनी समझदारी और कुशलता से सब कुछ तैयार कर लिया था जिसके बारे में किसी को पता भी नहीं चला था।
जब मैं वापस मकान के पास पहुंचा तो देखा भुवन आ गया था। मुझे यहां पर आया देख वो थोड़ा खुश नज़र आया। कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैंने उससे कहा कि वो कुछ विश्वासपात्र आदमियों को सरोज काकी के घर की और मेरी ग़ैर मौजूदगी में मेरे उस मकान पर नज़र रखें। मैं नहीं चाहता था कि सरोज अथवा रूपा के साथ किसी भी तरह की अनहोनी हो जाए। भुवन ने मुझे फ़िक्र न करने के लिए कहा और फिर काम में लग गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली के लिए निकल गया।
अब आगे....
"अरे! तू आ गया बेटा।" मैं जैसे ही हवेली के अंदर पहुंचा तो मां मुझे देख खुश होते हुए बोलीं____"तुझे देख के मेरे कलेजे को कितनी ठंडक मिली है मैं बता नहीं सकती।"
कहने के साथ ही मां ने मुझे लपक कर अपने कलेजे से लगा लिया। मां की आवाज़ सुन बाकी लोग भी जहां कहीं मौजूद थे फ़ौरन ही बाहर आ गए। कुसुम की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी तो वो भागते हुए आई और भैया कहते हुए मेरे बगल से छुपक गई। मेनका चाची और रागिनी भाभी के चेहरे भी खिल उठे। वहीं निर्मला काकी के होठों पर भी मुस्कान उभर आई जबकि उनकी बेटी कजरी के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। ज़ाहिर है उस दिन की खातिरदारी के चलते उसके अरमानों के सारे दिए बुझ चुके थे।
"ये क्या बात हुई दीदी?" मेनका चाची ने मेरे क़रीब आ कर मां से कहा____"वैभव सिर्फ आपका ही नहीं मेरा भी बेटा है। मुझे भी तो इसे अपने कलेजे से लगाने दीजिए।"
चाची की बात सुन मां ने मुस्कुराते हुए मुझे खुद से अलग किया और फिर चाची से बोलीं____"हां हां क्यों नहीं मेनका। ये तेरा भी बेटा है।"
मां की बात सुन चाची ने मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में असीम स्नेह झलक रहा था। उन्होंने एक पल भी जाया नहीं किया मुझे अपने कलेजे से लगाने में। अपने लिए सबका ऐसा प्यार और स्नेह देख अंदर से मुझे खुशी तो हुई किंतु फिर तभी अनुराधा की याद आ गई जिसके चलते दिल में दर्द सा जाग उठा। उधर भाभी मुझे ही अपलक देखे जा रहीं थी। जैसे समझने की कोशिश कर रही हों कि रूपा के क़रीब रहने से मुझमें कोई परिवर्तन आया है कि नहीं?
"दीदी आपको नहीं लगता कि मेरा बेटा एक ही रात में कितना दुबला हो गया है?" मेनका चाची ने मुझे खुद से अलग करने के बाद सहसा मां से कहा____"लगता है मेरी होने वाली बहू ने मेरे बेटे का ठीक से ख़याल नहीं रखा है।"
चाची की बात का मतलब ज़रा देर से मां को समझ आया तो उन्होंने हल्के से कुहनी मारी चाची को जिस पर चाची खिलखिला कर हंसने लगीं लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी हंसी को रोक लिया। कदाचित ये सोच कर कि बाकी लोग क्या सोचेंगे और शायद मैं खुद भी? हालाकि मैंने उनकी बात को गहराई से सोचना गवारा ही नहीं किया था।
"जब देखो उल्टा सीधा बोलती रहती है।" मां ने चाची पर झूठा गुस्सा करते हुए कहा____"ये नहीं कि बेटा आया है तो उसके खाने पीने का बढ़िया से इंतज़ाम करे।"
"अरे! चिंता मत कीजिए दीदी।" चाची ने कहा____"अपने बेटे की सेहत का मुझे भी ख़याल है। मैंने तो पहले से ही वैभव के लिए उसकी पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाना शुरू कर दिया है।"
"खाना तो अभी बन रहा है इस लिए उससे पहले मैं अपने सबसे अच्छे वाले भैया को अदरक वाली बढ़िया सी चाय बना के पिलाऊंगी।" कुसुम ने झट से कहा____"देखना मेरे हाथ की बनी चाय पीते ही मेरे भैया खुश हो जाएंगे, है ना भैया?"
"हां सही कह रही है मेरी गुड़िया।" मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा_____"मेरी बहन का प्यार दुनिया में सबसे बढ़ कर है। जा बना के ले आ मेरे लिए चाय।"
मेरी बात सुनते ही कुसुम खुशी से झूमते हुए रसोई की तरफ दौड़ पड़ी। उसके जाने के बाद मैं भी पलटा और आंगन को पार कर के सीढ़ियों से होते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। मुझे इस तरह चला गया देख मां और चाची के चेहरे पर पीड़ा और निराशा के भाव उभर आए थे।
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नहा धो कर अपने कमरे में आने के बाद मैंने कपड़े पहने ही थे कि तभी खुले दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने पलट कर देखा तो मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी। वो दरवाज़े की दहलीज़ पर खड़ीं थी।
"क्या मैं अंदर आ सकती हूं?" मुझे अपनी तरफ देखता देख उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ पूछा।
"आपको मेरे कमरे में आने के लिए मुझसे इजाज़त लेने की कब से ज़रूरत महसूस होने लगी?" मैंने भावहीन स्वर में कहा____"ख़ैर अंदर आ जाइए।"
"क्या करें जनाब समय बदल रहा है।" भाभी ने अंदर आते हुए उसी मुस्कान के साथ कहा____"इजाज़त ले कर कमरे में आने की अभी से आदत डालनी होगी हमें। आख़िर कुछ समय बाद हमारे महान देवर जी एक से दो जो हो जाएंगे। उसके बाद तो बिना इजाज़त के कोई कमरे में आ भी नहीं सकेगा।"
"सबको भले ही मेरे कमरे में इजाज़त ले कर आना पड़े।" मैंने कहा____"लेकिन आपको मेरे कमरे में आने के लिए कभी इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।"
"ओहो! भला ऐसा क्यों जनाब?" भाभी की आंखें सिकुड़ गईं।
"बस ऐसे ही।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
"अरे! ऐसे कैसे बस ऐसे ही?" भाभी ने आंखें फैला कर कहा____"कोई तो ख़ास बात ज़रूर होगी जिसकी वजह से तुम ऐसा कह रहे हो।"
"बस यूं समझ लीजिए कि मैं अपनी भाभी पर अपनी तरफ से किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाना चाहता।" मैंने कहा____"और ना ही ये चाहता हूं कि मेरी वजह से आपको किसी तरह की असुविधा हो।"
"ऐसी बातें मत करो वैभव जिनके लिए बाद में तुम्हें पछताना पड़े?" भाभी ने कहा____"इंसान शादी हो जाने के बाद ज़्यादातर बीवी के ही कहने पर चलता है। इस लिए ऐसी बातें मत कहो जो बाद में तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी कर दें।"
"अगर मैंने पिता जी को रूपा से ब्याह करने के लिए हां नहीं कहा होता तो मैं शादी नहीं करता।" मैंने कहा____"अपनी अनुराधा को खो देने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे इस दुनिया में अब मेरे लिए कुछ है ही नहीं। जीवन बेरंग हो गया है। जी करता है जहां मेरी अनुराधा चली गई है वहीं मैं भी चला जाऊं।"
"ख़बरदार वैभव।" भाभी ने एकाएक कठोर भाव से कहा____"आज के बाद ऐसी बात सोचना भी मत। तुम्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि तुम्हारे मुख से ऐसा सुनने मात्र से इस घर के कितने लोगों को दिल का दौरा पड़ सकता है और उनकी जान जा सकती है।"
"मैं क्या करूं भाभी?" मैं हताश भाव से पलंग पर धम्म से बैठ गया____"उसकी बहुत याद आती है मुझे। एक पल के लिए भी उसे भूल नहीं पा रहा मैं। आंखों के सामने बार बार पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश चमक उठती है। उस भयानक मंज़र को देखते ही बस एक ही ख़याल ज़हन में आता है कि मेरी वजह से आज वो इस दुनिया में नहीं है। मुझसे प्रेम करने की कितनी भयंकर सज़ा मिली उसे।"
"शांत हो जाओ वैभव।" भाभी ने झट से मेरे पास आ कर मेरे सिर को बड़े प्यार से अपने हृदय से लगा लिया_____"किसी के इस तरह चले जाने का दोषी भले ही इंसान हो जाता है लेकिन सच तो ये है कि हर इंसान इस दुनिया में अपनी एक निश्चित आयु ले कर ही आता है। दुनिया का सबसे बड़ा सत्य यही है कि जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है उसे एक दिन वापस ऊपर वाले के पास जाना ही पड़ता है। उसके जाने पर तुम इस तरह ख़ुद को दुखी मत करो। क्या इतना जल्दी भूल गए कि आज जिस हालत में तुम हो कुछ समय पहले मैं भी ऐसी ही हालत में थी। उस समय तुम भी मुझे यही सब समझाते थे और मेरे अंदर जीने के लिए नई नई उम्मीदें जगाते थे। आज भी तुम मेरे चेहरे पर खुशी लाने के लिए जाने कैसे कैसे हथकंडे अपनाते हो। अगर अपने दिल का सच बयान करूं तो वो यही है कि आज मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी मेहरबानियों के चलते ही अपने उस असहनीय दुख से बाहर निकल सकी हूं। मुझे खुशी है कि मेरे देवर ने मेरे लिए इतना कुछ सोचा और मेरे दुखों को दूर करने की हर कोशिश की। ऊपर वाले से यही दुआ करती हूं ईश्वर मेरे जैसा देवर हर औरत को दे।"
"ऐसी दुआ मत कीजिए भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मेरे जैसा कुकर्मी इंसान किसी भी औरत का कुछ भी बनने के लायक नहीं हो सकता।"
"अगर तुमने दुबारा ऐसी ऊटपटांग बात कही तो सोच लेना।" भाभी ने जैसे मुझे धमकी देते हुए कहा____"मैं कभी तुमसे बात नहीं करूंगी और तुम्हारी तरह मैं भी वापस अपने उसी दुख में डूब जाऊंगी जिसमें से निकाल कर तुम मुझे यहां लाए हो।"
"नहीं भाभी नहीं।" मैंने भाभी को ज़ोर से पकड़ लिया____"भगवान के लिए ऐसा मत कीजिएगा।"
"हां तो तुम भी अपने मुख से ऐसी फ़िज़ूल की बातें नहीं बोलोगे।" भाभी ने कहा____"तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम एक अच्छा इंसान बन कर दिखाओगे और पूरी ईमानदारी से अपनी हर ज़िम्मेदारियां निभाओगे। क्या तुम अपना वचन तोड़ कर मुझे फिर से दुख में डुबा देना चाहते हो?"
"नहीं....हर्गिज़ नहीं।" मैंने पूरी दृढ़ता से इंकार में सिर हिला कर कहा____"मैं खुद को मिटा दूंगा लेकिन अपना वचन तोड़ कर आपको दुखी नहीं होने दूंगा।"
"सच कह रहे हो ना?" भाभी ने जैसे मुझे परखा____"मुझे झूठा दिलासा तो नहीं दे रहे हो ना?"
मैंने इंकार में सिर हिलाया तो भाभी ने कहा____"मेरे प्यारे देवर, मैं जानती हूं कि जब कोई अपना दिल अज़ीज़ इस तरह से रुख़सत हो जाता है तो बहुत पीड़ा होती है लेकिन हमें किसी न किसी तरह उस पीड़ा को सह कर अपनों के लिए आगे बढ़ना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारे समझाने के बाद अब मैं अपने अपनों के लिए आगे बढ़ने की कोशिश में लगी हुई हूं। मेरा तुमसे यही कहना है कि तुम इस दुख से बाहर निकलने की कोशिश करो। रूपा के बारे में सोचो, बेचारी कितना प्रेम करती है तुमसे। तुम्हारे दुख से वो भी दुखी है। उसके प्रेम की पराकाष्ठा देखो कि उसने अपने प्रियतम को दुख से बाहर निकालने के लिए एक ऐसा रास्ता अख़्तियार कर लिया जिसके बारे में दुनिया का कोई भी आम इंसान ना तो सोच सकता है और ना ही हिम्मत जुटा सकता है। दुनिया में भला कौन ऐसी लड़की होगी और ऐसे घर वाले होंगे जो ब्याह से पहले ही अपनी बेटी को अपने होने वाले दामाद के साथ अकेले रहने की इस तरह से खुशी खुशी अनुमति दे दें? ये दुनिया किसी एक पर ही बस नहीं सिमटी हुई है वैभव, बल्कि ये दुनिया अनगिनत लोगों के वजूद का हिस्सा है। हमें सिर्फ एक के बारे में नहीं बल्कि हर किसी के बारे में सोचना पड़ता है।"
भाभी की बातों से मेरे अंदर हलचल सी मच गई थी। मैं गंभीर मुद्रा में बैठा जाने किन ख़यालों में खोने लगा था?
"अच्छा अब छोड़ो ये सब।" मुझे ख़ामोश देख भाभी ने कहा____"और ये बताओ कि मेरी होने वाली देवरानी का निरादर तो नहीं किया न तुमने? उस बेचारी पर गुस्सा तो नहीं किया न तुमने?"
मैंने ना में सिर हिला दिया। उसके बाद उनके पूछने पर मैंने उन्हें अपने और रूपा के बीच का सारा किस्सा बता दिया। सब कुछ जानने के बाद भाभी के होठों पर मुस्कान उभर आई थी।
"वाह! मुझे अपनी होने वाली देवरानी से ऐसी ही समझदारी की उम्मीद थी।" फिर उन्होंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"तुम्हारे साथ साथ वो बेचारी अनुराधा की मां का भी दुख दूर करने की कोशिश कर रही है। इतना ही नहीं बेटी बन कर सच्चे दिल से वो अपनी नई मां की सेवा भी कर रही है। इतना कुछ इंसान तभी कर पाता है जब उसके दिल में किसी के प्रति अथाह प्रेम हो और हर इंसान के प्रति कोमल भावनाएं हों। तुम्हें ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने इतनी अच्छी लड़की को तुम्हारी जीवन संगिनी बनाने के लिए चुन रखा है।"
कुछ देर बाद भाभी कमरे से चली गईं। मैं पलंग पर लेटा काफी देर तक उनकी बातों के बारे में सोचता रहा। कुसुम जब मुझे भोजन करने के लिए बुलाने आई तो मैं उसके साथ ही नीचे आ गया।
मेरे पूछने पर मां ने बताया कि पिता जी गौरी शंकर के साथ सुबह नाश्ता कर के कहीं गए हुए हैं। ख़ैर खाना लग चुका था। सचमुच मेनका चाची ने मेरी पसंद का ही भोजन बनवाया था। वो अपने हाथों से मुझे खाना परोस रहीं थी। सबके चेहरों पर खुशी के भाव थे। ज़ाहिर है सब मुझे खुश करने के ही प्रयास में लगे हुए थे। मां मेरे बगल में बैठ कर अपने हाथों से खिलाने लगीं थी। मुझे ये सब पसंद तो नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए खाए जा रहा था कि मेरी वजह से उनकी भावनाएं आहत न हों।
भोजन के बाद मैं वापस अपने कमरे में आराम करने के लिए चला आया। मैं बहुत कोशिश कर रहा था कि खुद को सामान्य रखूं और सबके साथ सामान्य बर्ताव ही करूं लेकिन जाने क्यों मुझसे ऐसा हो नहीं पा रहा था।
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सरोज अब पहले से काफी बेहतर थी। रूपा के आने की वजह से काफी हद तक उसका अकेलापन दूर हो गया था। रूपा उसे उदास होने का मौका ही नहीं देती थी। सरोज के साथ रूपा का बर्ताव बिल्कुल वैसा ही था जैसे सच में ये उसी का घर है और सरोज उसकी असल मां है। इसके विपरीत सरोज उसके ऐसे बेबाक अंदाज़ पर अभी भी थोड़ा संकोच कर रही थी। शायद अभी वो पूरी तरह से सहज नहीं हो पाई थी।
दोपहर का खाना रूपा ने ही बनाया था। उसके बाद पहले उसने अनूप को खिलाया था और फिर सरोज के साथ बैठ कर उसने खाया था। खाना खाने के बाद उसने सारे जूठे बर्तन भी धो दिए थे। रूपा को किसी मशीन की तरह अपने घर में काम करते देख सरोज मन ही मन हैरान भी होती थी और ये सोच कर उसे थोड़ा खुशी भी महसूस होती थी कि उसके जीवन की नीरसता को दूर करने के लिए वो बेचारी कितना कुछ कर रही थी। अनायास ही उसके मन में सवाल उभरा कि क्या उसे इस तरह से किसी दूसरे की बेटी को अपने लिए यहां परेशान होते देखना चाहिए? अगर गहराई से सोचा जाए तो उससे उसका रिश्ता ही क्या है? आख़िर उसने ऐसा कौन सा गुनाह किया है जिसके लिए उसको ये सब करना पड़े?
सरोज सोचती कि किसी दूसरे की बेटी उसे मां कह रही थी और उसे वैसा ही स्नेह और सम्मान दे रही थी जैसे कोई अपनी सगी मां को देता है। सरोज ये सब सोचते हुए खुद से यही कहती कि ये सब उसकी अपनी बेटी की वजह से ही हो रहा है। अगर उसकी बेटी ने दादा ठाकुर के बेटे से प्रेम न किया होता तो यकीनन एक बड़े घर की लड़की उसे अपनी मां मानते हुए उसके यहां ऐसे काम ना करती। यानि ये सब कुछ उसकी अपनी बेटी के संबंधों के चलते ही हो रहा है।
सरोज को याद आया कि हवेली की ठकुराईन अपनी बहू के साथ खुद चल कर उसके घर आईं थी। इतना ही नहीं उसके दुख दर्द को समझते हुए उसे धीरज दिया था। उनकी बहू ने तो उसे अपनी मां तक बना लिया था। उसकी बेटी को उसने अपनी छोटी बहन बना लिया था। उनमें से किसी को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि उसकी बेटी ने इतने बड़े घर के बेटे से प्रेम संबंध बनाया और उसके साथ ब्याह भी करने का इरादा रखती थी। बल्कि हवेली का हर सदस्य उसकी बेटी को अपनी बहू बनाने के लिए खुशी से तैयार था। ये तो उसका और उसकी बेटी का दुर्भाग्य था जिसके चलते ऐसा हो ही न सका था।
सरोज को बड़ी शिद्दत से एहसास हुआ कि सच में किसी का कोई दोष नहीं था। उसकी बेटी का इस तरह से मरना तो नियति का लेख था। सरोज को याद आया कि उसके पति का हत्यारा तो उसका अपना ही देवर जगन था जो अपने ही भाई की संपत्ति हड़पना चाहता था। ज़ाहिर है उसके पति की मौत में भी दादा ठाकुर के लड़के वैभव का कोई हाथ नहीं था। बल्कि उसने तो एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगा कर उसके पति के हत्यारे को उसके सामने ला कर खड़ा कर दिया था।
अचानक ही सरोज की आंखों के सामने गुज़रे वक्त की तस्वीरें किसी चलचित्र की मानिंद चमकने लगीं। उसे नज़र आया वो मंज़र जब उसके पति की तेरहवीं करने के लिए वैभव ने क्या कुछ किया था। तेरहवीं के दिन सुबह से शाम तक वो किसी मजदूर की तरह पूरी ईमानदारी और सच्चे दिल से हर काम में लगा हुआ था। उसके घर के अंदर बाहर भीड़ जमा थी। हर व्यक्ति की ज़ुबान में बस यही बात थी कि मुरारी की तेरहवीं का ऐसा आयोजन आम इंसानों के बस की बात नहीं थी। सरोज को सहसा याद आया कि उसके बाद कैसे वैभव ने उसकी और उसके परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर रख ली थी। किसी भी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया था उसने। यहां तक कि उसके खेतों पर काम करने के लिए दो दो आदमियों को लगा दिया था। इतना कुछ तो वही कर सकता है जो उसे और उसके परिवार को दिल से अपना मानता हो और उसका हर तरह से भला चाहता हो।
घर के आंगन में चारपाई पर बैठी सरोज के ज़हन में यही सब बातें चल रहीं थी जिसके तहत उसका मन भारी हो गया था। उसे पता ही न चला कि कब उसकी आंखों ने आंसू के कतरे बहा दिए थे। इस वक्त वो अकेली ही थी। उसका बेटा अनूप अपनी नई दीदी के साथ पीछे कुएं पर गया हुआ था जहां रूपा उसके और अनूप के कपड़े धो रही थी।
"अरे! मां आप अभी तक वैसी ही बैठी हुई हैं?" तभी रूपा दूसरे वाले दरवाज़े से अंदर आंगन में आ कर उससे बोली____"ओह! अच्छा समझ गई मैं। आप फिर से बीती बातों को याद कर खुद को दुखी करने में लगी हुई हैं।"
"नहीं बेटी, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" सरोज ने झट से खुद को सम्हालते हुए कहा____"असल में बात ये है कि मैं तेरे आने का इंतज़ार कर रही थी। मैं चाहती थी कि जैसे कल तूने मेरे बालों को संवार कर जूड़ा बना दिया था वैसे ही आज भी बना दे।"
"वाह! आप तो बड़ा अच्छा बहाना बना लेती हैं।" रूपा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप बैठिए, मैं इन गीले कपड़ों को रस्सी में फैला दूं उसके बाद आपके बालों को संवारती हूं।"
कहने के साथ ही रूपा आंगन के दूसरे छोर पर लगी डोरी पर एक एक कर के गीले कपड़े फैलाने लगी। कुछ ही देर में जब सारे कपड़े टंग गए तो वो अंदर गई और फिर कंघा शीशा वाली छोटी सी डलिया ले कर आ गई।
सरोज बड़े ध्यान से उसकी एक एक कार्यविधि को देख रही थी। वैसे ये कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि जब से रूपा यहां आई थी तभी से वो उसकी हर कार्यविधि को देखती आ रही थी। उसके मन में बस एक ही ख़याल उभरता कि ये भी उसकी बेटी अनुराधा की ही तरह है। बस इतना ही फ़र्क है कि ये उसकी बेटी की तरह ज़रूरत से ज़्यादा शर्मीली और संकोच करने वाली नहीं है। बाकी जो भी करती है पूरे दिल से और पूरी ईमानदारी से करती है, जैसे उसकी बेटी करती थी।
"क्या हुआ मां?" सरोज को अपलक अपनी तरफ देखता देख रूपा ने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देख रही हैं मुझे? मुझसे कोई भूल हो गई है?"
"नहीं बेटी।" सरोज ने हल्के से हड़बड़ा कर कहा____"तुझसे कोई भूल नहीं हुई है। मैं तो बस ये सोच रही हूं कि कब तक तू मेरे लिए यहां परेशान होती रहेगी? एक दिन तो तुझे अपने घर जाना ही होगा। उसके बाद मैं फिर से इस घर में अकेली हो जाऊंगी।"
"आप तो जानती हैं न मां कि बेटियां पराई होती हैं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा____"अपने मां बाप के घर में कुछ ही समय की मेहमान होती हैं उसके बाद तो वो किसी दूसरे का घर आबाद करने चली जाती हैं। ख़ैर आप फ़िक्र मत कीजिए, जब तक आपके पास हूं आपकी देख भाल करूंगी।"
"और फिर मुझे अपने मोह के बंधन में बांध कर चली जाएगी?" सरोज ने अधीरता से कहा____"उसके बाद तो मैं फिर से उसी तरह दुख में डूब जाऊंगी जैसे अनू के चले जाने से डूब गई थी, है ना?"
"अगर आप कहेंगी तो आपको छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाऊंगी।" रूपा ने सरोज के दोनों कन्धों को पकड़ कर कहा____"हमेशा आपके पास रहूंगी और आपको कभी दुखी नहीं होने दूंगी।"
"ऐसा मत कह मेरी बच्ची।" सरोज के जज़्बात मचल उठे तो उसने तड़प कर रूपा को अपने सीने से लगा लिया, फिर रुंधे गले से बोली____"तुझे मेरे लिए अपना जीवन बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं भी तेरा जीवन बर्बाद कर के पाप की भागीदार नहीं बनना चाहती।"
"ऐसा कुछ नहीं है मां।" रूपा ने कहा____"माता पिता की सेवा में अपना जीवन कुर्बान कर देना तो औलाद के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है। मैंने आपको मां कहा है तो अब ये मेरी ज़िम्मेदारी है कि आपको किसी भी तरह का कोई कष्ट अथवा दुख न हो।"
"मुझे अब कोई कष्ट या दुख नहीं रहा बेटी।" सरोज ने रूपा को खुद से अलग कर उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में ले कर कहा____"तेरे इस स्नेह ने मुझे हर दुख से उबार दिया है। अब मैं ये चाहती हूं मेरी ये बेटी अपने बारे में भी सोचे।"
रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी किसी ने बाहर वाला दरवाज़ा खटखटाया जिससे दोनों का ध्यान उस तरफ गया।
"शायद वो (वैभव) आए होंगे मां।" रूपा ने थोड़ा शरमाते हुए कहा और फिर चारपाई से उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चली।
रूपा ने जब दरवाज़ा खोला तो उसकी उम्मीद के विपरीत दरवाज़े के बाहर एक औरत और कुछ लड़कियां खड़ी नज़र आईं। रूपा उनमें से किसी को भी नहीं पहचानती थी इस लिए उन्हें देख उसकी आंखों में सवालिया भाव उभर आए। यही हाल उन लोगों का भी था किंतु रूपा ने महसूस किया कि औरत के चेहरे पर दुख और तकलीफ़ के भाव थे। बहरहाल, रूपा ने एक तरफ हट कर उन्हें अंदर आने का रास्ता दिया तो वो सब अंदर आ गईं।
"अरे! मालती तू?" सरोज की नज़र जैसे ही औरत और लड़कियों पर पड़ी तो उसने कहा____"अपनी बेटियों के साथ इस वक्त यहां कैसे? सब ठीक तो है ना?"
सरोज का ये पूछना था कि मालती नाम की औरत झट से आगे बढ़ी और फिर लपक कर सरोज से लिपट कर रोने लगी। ये देख सरोज के साथ साथ रूपा भी चौंकी। मालती को यूं रोते देख उसके साथ आई लड़कियां भी सुबकने लगीं।
"अरे! तू रो क्यों रही है मालती?" सरोज ने एकाएक चिंतित हो कर पूछा____"आख़िर हुआ क्या है?"
"सब कुछ बर्बाद हो गया दीदी।" मालती ने रोते हुए कहा____"मैं और मेरे बच्चे कहीं के नहीं रहे।"
"य...ये क्या कह रही है तू?" सरोज चौंकी____"साफ साफ बता हुआ क्या है?"
"आपके देवर ने जिन लोगों से कर्ज़ा लिया था उन लोगों ने आज हमें हमारे ही घर से निकाल दिया है।" मालती ने सुबकते हुए कहा____"अभी थोड़ी देर पहले ही वो लोग घर आए थे और अपना कर्ज़ा मांग रहे थे मुझसे। मेरे पास तो कुछ था ही नहीं तो कहां से उनका कर्ज़ा देती? एक हफ़्ता पहले भी वो लोग आए थे और ये कह कर चले गए थे कि अगर मैंने एक हफ़्ते के अंदर उन लोगों का उधार वापस नहीं किया तो वो मुझे और मेरे बच्चों को मेरे ही घर से निकाल देंगे और मेरे घर पर कब्ज़ा कर लेंगे।"
मालती की बातें सुन कर सरोज सन्न रह गई। रूपा भी हैरान रह गई थी। उधर मालती थी कि चुप ही नहीं हो रही थी। उसके साथ साथ उसकी बेटियां और छोटा सा उसका बेटा भी रो रहा था।
मालती, मरहूम जगन की बीवी और सरोज की देवरानी थी। जगन को चार बेटियां थी और आख़िर में एक बेटा जोकि उमर में अनूप से बहुत छोटा था।
(यहां पर जगन के परिवार का छोटा सा परिचय देना मैं ज़रूरी समझता हूं।)
✮ जगन सिंह (मर चुका है)
मालती सिंह (जगन की बीवी/विधवा)
जगन और मालती को पांच संताने हुईं थी जो इस प्रकार हैं:-
बटवारे में मुरारी और जगन को अपने पिता की संपत्ति से बराबर का हिस्सा मिला था। जगन अपने बड़े भाई की अपेक्षा थोड़ा लालची और जुआरी था। अपने बड़े भाई मुरारी की तरह जगन भी देशी शराब का रसिया था किंतु जुएं के मामले में वो अपने बड़े भाई से आगे था। मुरारी जुवां नहीं खेलता था और शायद यही वजह काफी थी कि मुरारी अपने छोटे भाई की तरह इतना ज़्यादा कर्ज़े में नहीं डूबा था। बहरहाल, जगन जुएं के चलते ही अपना सब कुछ गंवाता चला गया था।
उसकी बीवी मालती यही जानती थी कि उसके मरद ने घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही मजबूरी में खेतों को गिरवी किया था जबकि असलियत ये थी कि जगन ने अपने खेत जुएं में गंवाए थे। आज स्थिति ये बन गई थी कि उसके मरने के बाद कर्ज़ा देने वालों ने उसकी बीवी और उसके बच्चों को उसके अपने ही घर से निकाल कर बेघर कर दिया था। उन्हीं से मालती को पता चला था कि उसके पति ने जुएं में ही अपने खेत गंवाए थे।
मालती ने रोते हुए सरोज को सारी कहानी बताई तो सरोज के पैरों तले से मानों ज़मीन खिसक गई थी। एकाएक ही उसे एहसास हुआ कि उसकी देवरानी और उसके बच्चे इस समय कितनी बड़ी मुसीबत में हैं। रहने के लिए कोई घर नहीं है और पेट भरने के लिए जिस अन्न की ज़रूरत होती है उसे उगाने के लिए ज़मीन नहीं है।
रूपा अब तक मालती और उसके बच्चों की हालत समझ गई थी और साथ ही उसे ये भी एहसास हुआ कि इस सबके चलते उन्होंने खाना भी नहीं खाया होगा। उसने चुपके से मालती की एक छोटी बेटी से खाना खाने के बारे में पूछा तो उसने सहमे से अंदाज़ में बताया कि उनमें से किसी ने भी कुछ नहीं खाया है।
रूपा चुपचाप रसोई की तरफ बढ़ गई। उसे पता था कि रसोई में खाना थोड़ा सा ही है जोकि अनूप के लिए बचा के रख दिया था उसने। रूपा ने फ़ौरन ही खाना बनाने के लिए चूल्हा सुलगाना शुरू कर दिया।
आंगन में मालती और सरोज एक दूसरे का दुख बांटने में लगी हुईं थी और इधर रूपा ने फटाफट उन सबके लिए खाना बना दिया था। क़रीब पौन घंटे बाद जब रूपा ने सबसे खाना खाने के लिए कहा तो सरोज ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसका तो इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था। सहसा उसकी नज़र खपरैल पर उठते धुएं पर पड़ी तो उसे समझते देर न लगी कि रूपा ने सबके लिए गरमा गरम खाना बना दिया है। ये देख उसे रूपा पर बहुत प्यार आया और साथ ही उसने रूपा को बड़ी कृतज्ञता से भी देखा।
बहरहाल सरोज के कहने पर मालती और उसके बच्चे खाना खाने को तैयार हुए। थोड़ी ही देर में रूपा ने अंदर बरामदे में सबको बैठाया और सबको खाना परोसा। ये सब देख सरोज को अपने अंदर बड़ा ही सुखद एहसास हो रहा था। वो सोचने लगी कि रूपा ने कितनी समझदारी और कुशलता से सब कुछ तैयार कर लिया था जिसके बारे में किसी को पता भी नहीं चला था।
मैं हवेली से मोटर साईकिल में निकला। रूपचंद्र के घर के सामने जैसे ही आया तो मेरी नज़र अंदर से सड़क पर आते रूपचंद्र पर पड़ी। इससे पहले कि मैं निकल पाता उसने मुझे आवाज़ दी जिससे मुझे ना चाहते हुए भी रुकना पड़ा।
"तुम हवेली से आ रहे हो क्या?" रूपचंद्र ने मेरे क़रीब आ कर थोड़ी हैरानी से पूछा।
"हां क्यों?" मैंने निर्विकार भाव से उसकी तरफ देखा।
"वो...वो मुझे लगा तुम मेरी बहन के पास होगे।" रूपचंद्र झिझकते हुए बोला____"लेकिन अगर तुम यहां थे तो उसके पास कौन था? क्या वो वहां पर अकेली है? हे भगवान! वैभव तुम उसे वहां पर अकेला कैसे छोड़ सकते हो? क्या तुम्हें मेरी बहन की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है?"
"इस बारे में अपनी बहन से पूछ लेना।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"चलता हूं अब।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया। पीछे रूपचंद्र हकबकाया सा खड़ा रह गया। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव नुमायां हो रहे थे और साथ ही चिंता के भाव भी। वो फ़ौरन ही पलटा और भागते हुए अंदर गया। कुछ ही देर में जब वो बाहर आया तो उसके हाथ में मोटर साईकिल की चाभी थी। उसने एक तरफ खड़ी मोटर साईकिल पर सवार हो कर झट से उसे स्टार्ट किया और फिर मेरा पीछा करने लगा।
रूपचंद्र उस वक्त चौंका जब मेरी मोटर साईकिल मेरे मकान की तरफ न जा कर मुरारी काका के घर की तरफ जाने लगी। मोटर साईकिल रोक कर वो कुछ देर मुझे जाता हुआ देखता रहा। चेहरे पर दुविधा के भाव लिए जाने वो क्या सोचता रहा और फिर अपनी मोटर साईकिल को मेरे मकान की तरफ बढ़ा दिया। अचानक ही उसके चेहरे पर थोड़े दुख के साथ नाराज़गी के भाव भी उभर आए थे।
मकान में पहुंच कर जब रूपचंद्र ने मकान के दरवाज़े को बाहर से कुंडी के द्वारा बंद पाया तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। इधर उधर निगाह घुमाई तो उसे कोई नज़र ना आया। ये देख वो एकदम से चिंतित हो उठा। तभी उसे मकान के बगल से ठक ठक की आवाज़ आती सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही मोटर साईकिल से उतरा और आवाज़ की तरफ तेज़ी से बढ़ता चला गया।
जल्दी ही वो उस जगह पहुंचा जहां से उसे आवाज़ आ रही थी। उसने देखा दो व्यक्ति मकान के बगल में लकड़ियों द्वारा कुछ बनाने में लगे हुए थे। लकड़ियों पर कुल्हाड़ी से ठोकने से ही आवाज़ आ रही थी। रूपचंद्र को समझ ना आया कि वो लोग ये क्या कर रहे हैं। वो झट से आगे बढ़ा और उनसे पूछने लगा कि ये सब क्या कर रहे हैं वो लोग और साथ ही उसकी बहन कहां है? जवाब में उन्होंने जो बताया उसे सुन कर जहां एक तरफ रूपचंद्र ने राहत की सांस ली तो वहीं दूसरी तरफ उसे थोड़ी हैरानी भी हुई।
वापस आ कर रूपचंद्र मकान के बाहर छोटे से बरामदे में रखे तखत पर बैठ गया। उसे अब ये सोच कर थोड़ी ग्लानि सी हो रही थी कि उसने थोड़ी देर पहले वैभव के बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। जबकि असल में तो ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मौजूदा समय में वैभव जिस मानसिक हालत में था उसके चलते उसका इस तरह रूखा ब्यौहार करना स्वाभाविक ही था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद रूपचंद्र के कानों में जब किसी मोटर साईकिल की आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो वैभव को मोटर साईकिल से इस तरफ ही आता देखा। उसके पीछे अपनी बहन को बैठा देख उसका चेहरा बरबस ही खिल उठा। ये देख कर उसे खुशी हुई कि वैभव उसकी बहन के साथ कोई भी ग़लत बर्ताव नहीं कर रहा है।
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लकड़ी की चारदीवारी के अंदर आ कर जैसे ही मोटर साईकिल रुकी तो अचानक ही रूपा की नज़र तखत पर बैठे अपने भाई रूपचंद्र पर पड़ी। ये देख वो बुरी तरह बौखला गई और झट मोटर साईकिल से उतर कर शरमाते हुए मकान के अंदर की तरफ भाग गई। रूपचंद्र अपनी बहन को इस तरह शर्माते देख मन ही मन हंस पड़ा। यूं तो रूपा उससे डेढ़ साल ही छोटी थी और दोनों साथ ही खेल कूद कर बड़े हुए थे इसके बाद भी वो अपने बड़े भाई का पूरा सम्मान करती थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र को अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। सहसा उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वो तखत से उठ कर मेरी तरफ बढ़ा।
"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने खेद भरे भाव से कहा____"मैं कुछ देर पहले तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच बैठा था।"
"कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इसी लिए तुमने ऐसा सोचा। ख़ैर अपनी बहन से मिल लो और उसका हाल चाल जान लो। मुझे एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है। शाम होने से पहले ही वापस आ जाऊंगा।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को घुमाया और उसकी किसी बात का इंतज़ार किए बिना ही मोटर साईकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। रूपचंद्र कुछ देर तक मुझे देखता रहा।
रूपचंद्र जब वापस आ कर तखत पर बैठ गया तो रूपा अंदर से बाहर आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी लाज की हल्की सुर्खी छाई हुई थी।
"घर में सब लोग कैसे हैं भैया?" फिर उसने हिम्मत कर के रूपचंद्र की तरफ देखते हुए पूछा।
"वैसे तो सब लोग ठीक ही हैं रूपा।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन सब तेरे लिए फिक्रमंद भी हैं। ख़ैर उनकी छोड़ और अपनी बता। तू यहां कैसी है? तुझे कोई परेशानी तो नहीं है ना यहां और....और तू अनुराधा के घर में क्यों थी?"
रूपा ने संक्षेप में सब कुछ बता दिया जिसे सुन कर रूपचंद्र आश्चर्यचकित रह गया। उसे अपनी बहन से ख़्वाब में भी इस सबकी उम्मीद नहीं थी किंतु फिर सहसा उसे एक अलग ही एहसास हुआ। एक ऐसा एहसास जिसने उसे खुशी से भर दिया और साथ ही उसे अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। एक बार फिर उसकी बहन ने साबित कर दिया था कि वो कितने विसाल हृदय वाली लड़की थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र की आंखें भर आईं।
"मुझे गर्व है कि तू मेरी बहन है।" फिर उसने रूपा से कहा____"और मैं ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने तेरे जैसी नेकदिल लड़की को मेरी बहन बना कर हमारे घर में जन्म दिया। मैं ईश्वर से दुआ करता हूं कि वो जीवन में तुझे हर ख़ुशी दे और हर दुख तकलीफ़ से दूर रखे।"
"जिसके पास इतना प्यार और स्नेह करने वाले भैया हों।" रूपा ने नम आंखों से रूपचंद्र को देखते हुए कहा____"उसे भला कैसे कभी कोई दुख तकलीफ़ हो सकती है?"
"ईश्वर से बस यही प्रार्थना करता हूं कि तुझे कभी किसी की नज़र ना लगे।" रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से कहा____"अच्छा ये बता यहां ज़रूरत का सब समान तो है ना? देख, अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बेझिझक बता दे।"
"बाकी तो सब है भैया।" रूपा ने कहा____"किंतु चाय बनाने के लिए यहां दूध नहीं है। कल मां ने जो दिया था उसमें से मैंने थोड़ा बचा लिया था जिससे सुबह उनके (वैभव) लिए चाय बना दी थी।"
"ओह! हां।" रूपचंद्र ने सिर हिलाया____"मुझे भी इसका ध्यान नहीं रहा था। ख़ैर तू फ़िक्र मत कर। मैं सुबह शाम के लिए हर रोज़ घर से दूध ले आया करूंगा और आज शाम के लिए मैं शाम होने से पहले ही ले आऊंगा।"
दोनों भाई बहन इधर उधर की बातें करते रहे। इस बीच रूपचंद्र को रूपा के द्वारा और भी दो तीन चीज़ों की कमी का पता चल गया था जिसे उसने ला देने को कह दिया था। क़रीब डेढ़ घंटे बाद रूपचंद्र को वैभव आता नज़र आया तो उसने अपनी बहन से जाने की बात कही। जाते समय ये भी कहा कि वो थोड़ी ही देर में दूध और बाकी का समान यहां ले कर आ जाएगा।
मैं जैसे ही मकान में पहुंचा तो रूपचंद्र को बाहर निकलते देखा। वो मुझे देख हल्के से मुस्कुराया और फिर चला गया।
"छोटे कुंवर।" मैं जैसे ही चारदीवारी के अंदर दाख़िल हुआ तो मकान के बगल में काम कर रहे दोनों मजदूरों में से एक ने आ कर कहा____"हमने गुसलखाना तैयार कर दिया है। आप चल कर एक बार देख लीजिए कैसा बना है?"
"ठीक है।" कहने के साथ ही मैं चल पड़ा।
कुछ ही पलों में मैं मकान के बगल में बनाए गए गुसलखाने के पास पहुंच गया। मैंने देखा दोनों ने मिल कर लकड़ी का एक बढ़िया सा गुसलखाना बना दिया था। ज़मीन पर पत्थर के चौड़े चौड़े दासा बिछाए गए थे जिससे गुसलखाने का फर्श ज़मीन से थोड़ा ऊंचा हो गया था। उसके बाद दो तरफ से लकड़ी की क़रीब छः या सात फीट ऊंची दीवार बनाई गई थी। लकड़ी की दीवारों के बाहरी तरफ तांत की पन्नी इस तरह से चिपका कर बांध दी गई थी कि बाहर से अंदर का एक ज़र्रा भी किसी को नज़र ना आए। गुसलखाने का दरवाज़ा भी लकड़ी का था जिसके बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी गई थी। कुल मिला कर दोनों ने बहुत सोच समझ कर गुसलखाने को बनाया था।
"हम्म्म्म अच्छा बनाया है।" मैंने गुसलखाने का मुआयना करने के बाद कहा____"अब एक काम करो, मकान के अंदर जो छोटा सा ड्रम रखा है उसे ले जा कर पानी से अच्छी तरह साफ कर दो। उसके बाद उस ड्रम को ला कर यहां रख देना।"
"जी ठीक है छोटे कुंवर।" दोनों ने सिर हिलाया और फिर उनमें से एक ड्रम लाने के लिए चला गया।
मैं भी पलट घर उस तरफ चल पड़ा जिधर अनुराधा के होने का मुझे भ्रम था। मुझे जाते देख रूपा भी मेरे पीछे पीछे आने लगी।
सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था। आसमान में उसका प्रकाश सिंदूरी सा हो गया था। जल्दी ही मैं उस जगह पर पहुंच गया और फिर कुछ पलों तक उस ज़मीन को देखने के बाद वहीं पर बैठ गया। मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गईं और बंद पलकों में अनुराधा का मासूम चेहरा चमक उठा जिसे देख मेरे अंदर एक टीस सी उभरी।
"क्या तुमने अनूप को विद्यालय में दाखिला दिलाने के लिए बात की है किसी से?" सहसा रूपा की आवाज़ मेरे बगल से आई तो मैं हल्के से चौंका और फिर आंखें खोल कर उसकी तरफ देखा। वो सामने की तरफ देख रही थी। चेहरे पर गंभीरता के भाव थे।
"हां उसी के लिए पास के गांव गया था।" मैंने वापस सामने की तरफ देखते हुए कहा____"वहां पर मैं प्रधान शिक्षक से मिला और उससे इस बारे में बात की। उसने बताया कि दाखिला तो हो जाएगा लेकिन बच्चे का दाखिला अगर उस समय करवाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा जब छुट्टियों के बाद विद्यालय नए सिरे से खुलते हैं।"
"हां ये भी सही कहा उन्होंने।" रूपा ने सिर हिला कर कहा____"अनूप के लिए यही बेहतर रहेगा। तुम्हारी क्या राय है इस बारे में?"
"मुझे भी यही ठीक लगता है।" मैंने कहा____"बाकी तुम्हें जो ठीक लगे करो।"
"काश! हमारे गांव में भी एक विद्यालय होता।" रूपा ने एक गहरी सांस ली____"जिससे हमारे गांव के बच्चे उसमें पढ़ते तो उनका एक अलग ही व्यक्तित्व बनता। वैसे हैरानी की बात है कि बाकी गावों से ज़्यादा हमारा गांव बेहतर रहा है और तो और आस पास के सभी गांवों के मामलों का फ़ैसला भी तुम्हारे पूर्वज और फिर तुम्हारे पिता जी ही करते आए हैं किंतु किसी ने भी इस बारे में नहीं सोचा कि हमारे गांव में एक विद्यालय होना चाहिए।"
"इस बारे में मेरी बात हो चुकी थी पिता जी से।" मैंने कहा____"और सिर्फ इस बारे में ही नहीं बल्कि इस बारे में भी कि हमारे गांव में एक अस्पताल भी होना चाहिए ताकि आम इंसानों को इलाज़ के लिए शहर जाने का कष्ट न उठाना पड़े।"
"हां ये भी सही कहा तुमने।" रूपा ने कहा____"इस गांव में ही क्या बल्कि किसी भी गांव में अस्पताल नहीं है। लोग वैद्यों से ही उनकी जड़ी बूटियों द्वारा अपना उपचार करवाते हैं और अगर बड़ी बीमारी हुई तो शहर भागते हैं। ग़रीब आदमी को सबसे ज़्यादा परेशानी होती है। कई तो इतने बदनसीब होते हैं कि पैसों की तंगी के चलते इलाज़ भी नहीं करवा पाते और फिर उन्हें अपने अथवा अपने किसी चाहने वाले के जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है।"
"अनुराधा के गुज़रने से पहले मैंने अपने इस गांव के विकास के लिए बहुत कुछ सोचा था।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"पिता जी से मेरी कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी और फिर ये निर्णय लिया गया था कि जल्द से जल्द इस बारे में प्रदेश के मंत्री विधायकों से बात करेंगे मगर....कुछ अच्छा करने से पहले ही चंद्रकांत ने मेरे जीवन में विष घोल दिया। उसकी दुश्मनी मुझसे थी तो उसको मेरी हत्या करनी चाहिए थी। फिर क्यों उसने एक निर्दोष की इतनी निर्दयता से जान ले ली?"
"वो पागल हो गया था वैभव।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"इसी लिए उसे अच्छे बुरे का ख़याल ही नहीं रह गया था लेकिन उसे भी तो अपनी करनी की सज़ा मिली। सबसे अच्छी बात यही हुई कि तुमने अपने हाथों से उस नीच को सज़ा दी।"
"लेकिन ऐसा कर के मुझे मेरी अनुराधा तो वापस नहीं मिली न।" मैंने एकाएक दुखी हो कर कहा____"मैंने तो उसे हमेशा हमेशा के लिए खो दिया रूपा। तुम्हें पता है, मैंने तो अभी जी भर के उसे देखा भी नहीं था और ना ही जी भर के उससे दिल की बातें की थी। मैं ये भी जानता हूं कि उसे भी मुझसे अपने दिल की ढेर सारी बातें करनी थी। देखो ना, ऊपर वाला कितना पत्थर दिल बन गया कि हम दोनों को एक दूसरे से अपने दिल की बातें कहने का अवसर ही नहीं दिया उसने। उधर वो अपनी तड़प और तृष्णा लिए चली गई और इधर मैं भी यहां उसी तड़प और तृष्णा में डूबा हुआ मर रहा हूं।"
"ख़ुद को सम्हालों वैभव।" रूपा ने मेरे कंधे को हल्के से दबाया____"तुम भी जानते हो कि इस संसार में किसी को भी सब कुछ नहीं मिला करता। इस धरती पर जन्म लेने वाले हर व्यक्ति की कोई न कोई ख़्वाईश अधूरी रह ही जाती है। इंसान अपने जीवन में चाह कर भी सब कुछ हासिल नहीं कर पाता और फिर एक दिन उसी अधूरी चाहत को लिए इस दुनिया से रुख़सत हो जाता है। अपनी भाभी को ही देख लो, इतनी कम उमर में उन्हें विधवा हो जाना पड़ा। क्या तुम बता सकते हो कि उनके जैसी औरत ने किसी के साथ ऐसा क्या बुरा किया था जिसके चलते उन्हें इतनी कम उमर में ऐसा असहनीय दुख मिला? उन्हीं की तरह मेरी भाभियों के बारे में भी सोचो। मेरे पिता अथवा चाचाओं की बात छोड़ो क्योंकि मुझे भी पता है कि उनके कर्म अच्छे नहीं थे और इसी लिए उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा लेकिन जो निर्दोष थे उनका क्या? उन्हें क्यों ऐसा दुख सहना पड़ा? वैभव, यही जीवन की सच्चाई है और यही नियति का खेल है। इस लिए यही कहूंगी कि खुद को सम्हालो और आगे बढ़ते हुए उनके बारे में सोचो जिनकी खुशियां सिर्फ और सिर्फ तुमसे हैं।"
"कहना आसान होता है।" मैंने कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल होता है।"
"हां जानती हूं।" रूपा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इसके बावजूद लोगों को अमल करना ही पड़ता है। जानती हूं आसान नहीं होता लेकिन किसी न किसी तरह आगे बढ़ कर अमल करना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारी भाभी ने अमल किया, जैसे मेरी भाभियों ने अमल किया, जैसे तुम्हारे माता पिता ने अपने बड़े बेटे के दुख से निकलने के लिए अमल किया और जैसे तुम्हारी चाची ने अमल किया। ज़रा सोचो, क्या उन सबके लिए अमल करना आसान रहा होगा? फिर भी उन्होंने अमल किया, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए।"
"कैसे कर लेती हो इतनी गहरी गहरी बातें?" मैंने सहसा चकित सा हो कर उसे देखा।
"वक्त और हालात इंसान को बहुत कुछ सिखा देते हैं मेरे साजन।" रूपा ने फीकी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"कुछ तुम्हारे विरह ने और कुछ मेरे अपनों की बेरुखी ने मुझे बहुत सी ऐसी बातों से रूबरू कराया जिन्हें सोच कर अब भी समूचे जिस्म में सर्द लहर दौड़ जाती है। ख़ैर छोड़ो इन बातों को। चलो मैं तुम्हारे लिए बढ़िया सी चाय बनाती हूं। या अभी और यहां बैठने का इरादा है तुम्हारा?"
रूपा जब गहरी नज़रों से मुझे देखने लगी तो मैं उसके साथ जाने से इंकार ना कर सका। उठ कर एक नज़र अपनी अनुराधा के विदाई स्थल पर डाली और फिर पलट कर मकान की तरफ बढ़ चला। रास्ते में रूपा की बातें मेरे मन में गूंज रहीं थी जो रफ़्ता रफ़्ता गहन विचारों का रूप लेती जा रहीं थी।
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हम दोनों को मकान में आए अभी कुछ ही समय हुआ था कि तभी रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से आ गया। उसे देख मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। मैं सोचने लगा कि अभी कुछ समय पहले ही तो वो यहां से गया था तो फिर अब किस लिए आया है? मैंने रूपा की तरफ देखा तो उसने जाने क्या सोच कर अपनी नज़रें झुका ली।
रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से उतर कर हमारे पास आया। उसके हाथ में स्टील का एक डल्लू था। मुझे समझ न आया कि आख़िर माजरा क्या है?
"ये लो रूपा।" उधर रूपचंद्र ने रूपा की तरफ उस डल्लू को बढ़ाते हुए कहा____"इसमें तुम दोनों के लिए ताज़ा दूध लाया हूं।"
रूपचंद्र की ये बात सुन कर मेरी समझ में आ गया कि वो क्यों यहां दुबारा आया था। उधर जैसे ही रूपा ने उसके हाथ से दूध का डल्लू पकड़ा तो रूपचंद्र ने पलट कर मुझसे कहा____"अच्छा अब चलता हूं वैभव। तुम दोनों अपना ख़याल रखना।"
उसकी इस बात पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया और शायद वो मेरा कोई जवाब सुनने का इच्छुक भी नहीं था। तभी तो अपनी बात कह कर वो सीधा बाहर खड़ी अपनी मोटर साईकिल की तरफ बढ़ गया था। कुछ ही पलों में वो चला गया।
"तो तुमने अपने भाई से दूध मंगवाया था?" मैंने पलट कर रूपा से कहा।
"हां लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए।" रूपा ने थोड़ा झेंपते हुए कहा____"मैं नहीं चाहती थी कि तुम काली चाय पियो। इस लिए जब भैया ने मुझसे पूछा कि यहां मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है तो मैंने उनसे चाय के लिए दूध न होने की बात कह दी थी।"
"हम्म्म्म।" मैंने धीमें से हुंकार भरी____"ख़ैर मज़दूरों ने आज तुम्हारे नहाने के लिए गुसलखाना बना दिया है। अब तुम्हें खुले में नहीं नहाना पड़ेगा।"
"अच्छा, देखूं तो सही कैसा गुसलखाना बनाया है उन लोगों ने?" रूपा थोड़ा उत्साहित सी हो कर बोली और फिर दूध के डल्लू को मेरे पास तखत में रख कर गुसलखाने की तरफ बढ़ गई।
"काफी बेहतर बनाया है।" कुछ देर में जब वो आई तो मुस्कुराते हुए बोली___"और बहुत सोच समझ कर बनाया है। लकड़ी की दीवार के बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी है जिससे ना तो अंदर से बाहर देखा जा सके और ना ही बाहर से अंदर। वैसे उन्हें इस तरह से बनाने के लिए क्या तुमने कहा था?"
"नहीं, उन लोगों ने खुद ही अपने से सोच कर ऐसा बनाया है।" मैंने कहा____"मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा था।"
"अच्छा, फिर तो बड़ी समझदारी दिखाई उन लोगों ने।" रूपा ने कहा____"ख़ैर, तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं।"
"पानी है या ले आऊं?" मैंने पूछा।
"थोड़ा है अभी।" उसने बताया____"वैसे लाना ही पड़ेगा क्योंकि रात का खाना भी बनाना होगा इस लिए पानी की ज़रूरत तो पड़ेगी ही।"
"ठीक है।" मैंने तखत से उतरते हुए कहा____"लाओ मटका, मैं कुएं से ले आता हूं पानी।"
रूपा अंदर गई और मटका ला कर मुझे पकड़ा दिया। मैं मटका ले कर कुएं की तरफ बढ़ चला। थोड़ी ही देर में मैं पानी ले आया और अंदर रसोई के पास रख दिया। मेरी नज़र चूल्हा जलाती रूपा पर पड़ी। वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी। पता नहीं क्या सोच के मुस्कुरा रही थी वो? मुझे अजीब लगा मगर मैं चुपचाप बाहर आ कर फिर से तखत पर बैठ गया और उसके बारे में सोचने लगा।
नियति का खेल बड़ा ही अजब ग़ज़ब होता है जिसके बारे में हम इंसान कल्पना भी नहीं कर पाते। एक वक्त था जब साहूकारों से हमारे रिश्ते नदी के दो किनारों की तरह थे। बिल्कुल भी यकीन नहीं था कि एक दिन वो किनारे आपस में मिल जाएंगे। किंतु हर उम्मीद के विपरीत वो मिले। ये अलग बात है कि इसके पहले दोनों किनारों का मिलना एक गहरी साज़िश का हिस्सा था जिसका कहीं न कहीं हम सबको अंदेशा भी था। नहीं जानते थे कि उस साज़िश के चलते जो परिणाम सामने आएगा वो इतना दर्दनाक होगा। ख़ैर इस सबके बाद वो दोनों किनारे फिर से अलग हो गए लेकिन नियति अब भी हमारे लिए कोई योजना बनाए हुए थी जिसका परिणाम आज इस सूरत में मेरे सामने था। दोनों किनारे एक बार फिर से मिले लेकिन इस कायाकल्प के बीच मैंने हमेशा के लिए उसे खो दिया जिसे मैं बेपनाह प्रेम करता था। नियति ने एक ऐसी लड़की का जीवन छीन लिया जो बेहद मासूम थी और गंगा की तरह निर्दोष एवं पाक थी।
मेरे मन में विचारों का बवंडर शुरू हुआ तो एकाएक फिर उस ख़याल पर जा ठहरा जिस ख़याल से मुझे बेहद पीड़ा होती थी और मेरी आंखें छलक पड़तीं थी। वो ख़याल था____'मेरी अनुराधा का असल हत्यारा कोई और नहीं बल्कि मैं ख़ुद ही हूं। वो मेरे कुकर्मों की वजह से ही आज इस दुनिया में नहीं है।' बस, इस ख़याल के उभरते ही दिलो दिमाग़ में भयंकर रूप से ज्वारभाटा सा उठ जाता और मैं अत्यधिक पीड़ा में डूब जाता था।
"ये लो।" मैं अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी रूपा की आवाज़ से चौंक कर वास्तविकता के धरातल पर आ गया।
मैंने देखा, रूपा मेरे पास खड़ी थी। उसके हाथ में चाय का प्याला था जिसे उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मैंने उसके चेहरे से नज़र हटा कर उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया।
"एक बात पूछूं?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा।
"हां पूछो।" उसने भी उसी अंदाज़ में मेरी तरफ देखा।
"क्या तुम्हें अपने घर वालों की याद नहीं आती?" मैंने पूछा____"मेरा मतलब है कि कल सुबह से तुम अपने घर परिवार से दूर यहां पर हो, तो क्या उनकी याद नहीं आती तुम्हें? क्या उन्हें देखने का मन नहीं करता तुम्हारा?"
"रूप भैया को देख लेती हूं तो फिर किसी से मिलने का मन नहीं करता।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे भी मेरे लिए मेरे परिवार वालों से ज़्यादा तुम मायने रखते हो। मेरी ज़िंदगी का हर सुख दुख तुमसे जुड़ा हुआ है। अगर मेरा महबूब किसी तकलीफ़ से ग्रसित होगा तो उसे देख कर मेरा हाल भी उसके जैसा ही हो जाएगा। इस वक्त यहां मैं अपनी जान के पास हूं। मेरे लिए यही सबसे बड़ी बात है। इसके अलावा मुझे किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है।"
"मुझे समझ नहीं आता कि मेरे जैसे इंसान से तुम इतना प्रेम कैसे कर सकती हो?" मैंने सहसा आहत हो कर कहा____"बाकी लड़कियों की तरह मैंने तुम्हारी इज्ज़त को भी तो दाग़दार किया था। मैंने कभी तुम्हारी भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया बल्कि हर बार तुम्हारे द्वारा दी गई प्रेम की दलीलों पर तुम्हारा मनोबल ही तोड़ा था। इस सब के बाद भी तुम्हें मुझसे घृणा नहीं हुई, आख़िर क्यों?"
"सच्चे प्रेम में घृणा का कहीं कोई वजूद नहीं होता साजन।" रूपा ने बड़े प्रेम से कहा____"प्रेम में तो सिर्फ प्रेम ही होता है। प्रेम में अपने प्रियतम की जुदाई का दर्द भले ही असहनीय की सूरत में मिल जाता है लेकिन इसके बावजूद प्रेम अपने प्रेम से लेश मात्र भी घृणा नहीं करता। शायद इसी लिए प्रेम की भावना सबसे पवित्र होती है जिसे ऊपर वाला भी सर्वोपरि मानता है।"
"काश! मुझे प्रेम का ये पाठ वक्त से पहले समझ आ गया होता ।" मैंने गहरी सांस ली____"तो आज मेरी वजह से ना तो किसी को चोट पहुंचती और ना ही किसी की जान जाती।"
"गुज़र गई बातों को बार बार याद करने से सिवाय दुख और तकलीफ़ के कुछ नहीं मिलता जान।" रूपा ने कहा____"इस लिए उस सब को मत याद करो। अपनों की ख़ुशी और भलाई के लिए आगे बढ़ो।"
"मैं चाह कर भी ऐसी बातें भुला नहीं पा रहा।" मैं एकदम से दुखी हो गया____"बार बार मुझे अपने द्वारा किए गए कुकर्म याद आ जाते हैं। ये सब जो हुआ है मेरे ही कुकर्मों की वजह से ही हुआ है। ऊपर वाले ने सभी निर्दोष लोगों की जान ले ली लेकिन मुझ गुनहगार को ज़िंदा रखा है। शायद वो भी अपनी दुनिया में मेरे जैसे इंसान को रखना पसंद नहीं करता है।"
"ईश्वर के लिए ऐसी बातें मत करो वैभव।" रूपा ने तड़प कर कहा____"क्यों खुद को निराशा और हताशा के दलदल में इस तरह डुबाने पर तुले हुए हो? तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम खुद को शांत रखोगे और अपनी अनुराधा की आत्मा की शांति के लिए अच्छे काम करोगे। क्या तुम अपना किया वादा इतना जल्दी भूल गए? क्या तुम सच में नहीं चाहते कि अनुराधा की आत्मा को शांति मिले?"
"म...मैं चाहता हूं रूपा।" हताशा के भंवर में फंसा मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"मैं अपनी अनुराधा को कोई तकलीफ़ नहीं देना चाहता लेकिन.....लेकिन मैं क्या करूं? बार बार मेरे दिलो दिमाग़ में वही सब उभर आता है जो मैंने किया है और जो मेरी वजह से हुआ है।"
रूपा ने चाय के प्याले को झट से एक तरफ रखा और फिर झपट कर मुझे खुद से छुपका लिया। मुझे इस तरह दुखी होते देख उसकी आंखें भर आईं थी। उसका हृदय तड़प उठा था। ये सोच कर उसकी आंखें छलक पड़ीं कि जिसे वो इतना प्रेम करती है उसकी तकलीफ़ों को वो इतनी कोशिश के बाद भी दूर नहीं कर पा रही है। मन ही मन उसने अपनी देवी मां को याद किया और उनसे मेरी तकलीफ़ों को दूर करने की मिन्नतें करने लगी।
मैं हवेली से मोटर साईकिल में निकला। रूपचंद्र के घर के सामने जैसे ही आया तो मेरी नज़र अंदर से सड़क पर आते रूपचंद्र पर पड़ी। इससे पहले कि मैं निकल पाता उसने मुझे आवाज़ दी जिससे मुझे ना चाहते हुए भी रुकना पड़ा।
"तुम हवेली से आ रहे हो क्या?" रूपचंद्र ने मेरे क़रीब आ कर थोड़ी हैरानी से पूछा।
"हां क्यों?" मैंने निर्विकार भाव से उसकी तरफ देखा।
"वो...वो मुझे लगा तुम मेरी बहन के पास होगे।" रूपचंद्र झिझकते हुए बोला____"लेकिन अगर तुम यहां थे तो उसके पास कौन था? क्या वो वहां पर अकेली है? हे भगवान! वैभव तुम उसे वहां पर अकेला कैसे छोड़ सकते हो? क्या तुम्हें मेरी बहन की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है?"
"इस बारे में अपनी बहन से पूछ लेना।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"चलता हूं अब।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया। पीछे रूपचंद्र हकबकाया सा खड़ा रह गया। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव नुमायां हो रहे थे और साथ ही चिंता के भाव भी। वो फ़ौरन ही पलटा और भागते हुए अंदर गया। कुछ ही देर में जब वो बाहर आया तो उसके हाथ में मोटर साईकिल की चाभी थी। उसने एक तरफ खड़ी मोटर साईकिल पर सवार हो कर झट से उसे स्टार्ट किया और फिर मेरा पीछा करने लगा।
रूपचंद्र उस वक्त चौंका जब मेरी मोटर साईकिल मेरे मकान की तरफ न जा कर मुरारी काका के घर की तरफ जाने लगी। मोटर साईकिल रोक कर वो कुछ देर मुझे जाता हुआ देखता रहा। चेहरे पर दुविधा के भाव लिए जाने वो क्या सोचता रहा और फिर अपनी मोटर साईकिल को मेरे मकान की तरफ बढ़ा दिया। अचानक ही उसके चेहरे पर थोड़े दुख के साथ नाराज़गी के भाव भी उभर आए थे।
मकान में पहुंच कर जब रूपचंद्र ने मकान के दरवाज़े को बाहर से कुंडी के द्वारा बंद पाया तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। इधर उधर निगाह घुमाई तो उसे कोई नज़र ना आया। ये देख वो एकदम से चिंतित हो उठा। तभी उसे मकान के बगल से ठक ठक की आवाज़ आती सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही मोटर साईकिल से उतरा और आवाज़ की तरफ तेज़ी से बढ़ता चला गया।
जल्दी ही वो उस जगह पहुंचा जहां से उसे आवाज़ आ रही थी। उसने देखा दो व्यक्ति मकान के बगल में लकड़ियों द्वारा कुछ बनाने में लगे हुए थे। लकड़ियों पर कुल्हाड़ी से ठोकने से ही आवाज़ आ रही थी। रूपचंद्र को समझ ना आया कि वो लोग ये क्या कर रहे हैं। वो झट से आगे बढ़ा और उनसे पूछने लगा कि ये सब क्या कर रहे हैं वो लोग और साथ ही उसकी बहन कहां है? जवाब में उन्होंने जो बताया उसे सुन कर जहां एक तरफ रूपचंद्र ने राहत की सांस ली तो वहीं दूसरी तरफ उसे थोड़ी हैरानी भी हुई।
वापस आ कर रूपचंद्र मकान के बाहर छोटे से बरामदे में रखे तखत पर बैठ गया। उसे अब ये सोच कर थोड़ी ग्लानि सी हो रही थी कि उसने थोड़ी देर पहले वैभव के बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। जबकि असल में तो ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मौजूदा समय में वैभव जिस मानसिक हालत में था उसके चलते उसका इस तरह रूखा ब्यौहार करना स्वाभाविक ही था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद रूपचंद्र के कानों में जब किसी मोटर साईकिल की आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो वैभव को मोटर साईकिल से इस तरफ ही आता देखा। उसके पीछे अपनी बहन को बैठा देख उसका चेहरा बरबस ही खिल उठा। ये देख कर उसे खुशी हुई कि वैभव उसकी बहन के साथ कोई भी ग़लत बर्ताव नहीं कर रहा है।
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लकड़ी की चारदीवारी के अंदर आ कर जैसे ही मोटर साईकिल रुकी तो अचानक ही रूपा की नज़र तखत पर बैठे अपने भाई रूपचंद्र पर पड़ी। ये देख वो बुरी तरह बौखला गई और झट मोटर साईकिल से उतर कर शरमाते हुए मकान के अंदर की तरफ भाग गई। रूपचंद्र अपनी बहन को इस तरह शर्माते देख मन ही मन हंस पड़ा। यूं तो रूपा उससे डेढ़ साल ही छोटी थी और दोनों साथ ही खेल कूद कर बड़े हुए थे इसके बाद भी वो अपने बड़े भाई का पूरा सम्मान करती थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र को अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। सहसा उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वो तखत से उठ कर मेरी तरफ बढ़ा।
"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने खेद भरे भाव से कहा____"मैं कुछ देर पहले तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच बैठा था।"
"कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इसी लिए तुमने ऐसा सोचा। ख़ैर अपनी बहन से मिल लो और उसका हाल चाल जान लो। मुझे एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है। शाम होने से पहले ही वापस आ जाऊंगा।"
कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को घुमाया और उसकी किसी बात का इंतज़ार किए बिना ही मोटर साईकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। रूपचंद्र कुछ देर तक मुझे देखता रहा।
रूपचंद्र जब वापस आ कर तखत पर बैठ गया तो रूपा अंदर से बाहर आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी लाज की हल्की सुर्खी छाई हुई थी।
"घर में सब लोग कैसे हैं भैया?" फिर उसने हिम्मत कर के रूपचंद्र की तरफ देखते हुए पूछा।
"वैसे तो सब लोग ठीक ही हैं रूपा।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन सब तेरे लिए फिक्रमंद भी हैं। ख़ैर उनकी छोड़ और अपनी बता। तू यहां कैसी है? तुझे कोई परेशानी तो नहीं है ना यहां और....और तू अनुराधा के घर में क्यों थी?"
रूपा ने संक्षेप में सब कुछ बता दिया जिसे सुन कर रूपचंद्र आश्चर्यचकित रह गया। उसे अपनी बहन से ख़्वाब में भी इस सबकी उम्मीद नहीं थी किंतु फिर सहसा उसे एक अलग ही एहसास हुआ। एक ऐसा एहसास जिसने उसे खुशी से भर दिया और साथ ही उसे अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। एक बार फिर उसकी बहन ने साबित कर दिया था कि वो कितने विसाल हृदय वाली लड़की थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र की आंखें भर आईं।
"मुझे गर्व है कि तू मेरी बहन है।" फिर उसने रूपा से कहा____"और मैं ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने तेरे जैसी नेकदिल लड़की को मेरी बहन बना कर हमारे घर में जन्म दिया। मैं ईश्वर से दुआ करता हूं कि वो जीवन में तुझे हर ख़ुशी दे और हर दुख तकलीफ़ से दूर रखे।"
"जिसके पास इतना प्यार और स्नेह करने वाले भैया हों।" रूपा ने नम आंखों से रूपचंद्र को देखते हुए कहा____"उसे भला कैसे कभी कोई दुख तकलीफ़ हो सकती है?"
"ईश्वर से बस यही प्रार्थना करता हूं कि तुझे कभी किसी की नज़र ना लगे।" रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से कहा____"अच्छा ये बता यहां ज़रूरत का सब समान तो है ना? देख, अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बेझिझक बता दे।"
"बाकी तो सब है भैया।" रूपा ने कहा____"किंतु चाय बनाने के लिए यहां दूध नहीं है। कल मां ने जो दिया था उसमें से मैंने थोड़ा बचा लिया था जिससे सुबह उनके (वैभव) लिए चाय बना दी थी।"
"ओह! हां।" रूपचंद्र ने सिर हिलाया____"मुझे भी इसका ध्यान नहीं रहा था। ख़ैर तू फ़िक्र मत कर। मैं सुबह शाम के लिए हर रोज़ घर से दूध ले आया करूंगा और आज शाम के लिए मैं शाम होने से पहले ही ले आऊंगा।"
दोनों भाई बहन इधर उधर की बातें करते रहे। इस बीच रूपचंद्र को रूपा के द्वारा और भी दो तीन चीज़ों की कमी का पता चल गया था जिसे उसने ला देने को कह दिया था। क़रीब डेढ़ घंटे बाद रूपचंद्र को वैभव आता नज़र आया तो उसने अपनी बहन से जाने की बात कही। जाते समय ये भी कहा कि वो थोड़ी ही देर में दूध और बाकी का समान यहां ले कर आ जाएगा।
मैं जैसे ही मकान में पहुंचा तो रूपचंद्र को बाहर निकलते देखा। वो मुझे देख हल्के से मुस्कुराया और फिर चला गया।
"छोटे कुंवर।" मैं जैसे ही चारदीवारी के अंदर दाख़िल हुआ तो मकान के बगल में काम कर रहे दोनों मजदूरों में से एक ने आ कर कहा____"हमने गुसलखाना तैयार कर दिया है। आप चल कर एक बार देख लीजिए कैसा बना है?"
"ठीक है।" कहने के साथ ही मैं चल पड़ा।
कुछ ही पलों में मैं मकान के बगल में बनाए गए गुसलखाने के पास पहुंच गया। मैंने देखा दोनों ने मिल कर लकड़ी का एक बढ़िया सा गुसलखाना बना दिया था। ज़मीन पर पत्थर के चौड़े चौड़े दासा बिछाए गए थे जिससे गुसलखाने का फर्श ज़मीन से थोड़ा ऊंचा हो गया था। उसके बाद दो तरफ से लकड़ी की क़रीब छः या सात फीट ऊंची दीवार बनाई गई थी। लकड़ी की दीवारों के बाहरी तरफ तांत की पन्नी इस तरह से चिपका कर बांध दी गई थी कि बाहर से अंदर का एक ज़र्रा भी किसी को नज़र ना आए। गुसलखाने का दरवाज़ा भी लकड़ी का था जिसके बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी गई थी। कुल मिला कर दोनों ने बहुत सोच समझ कर गुसलखाने को बनाया था।
"हम्म्म्म अच्छा बनाया है।" मैंने गुसलखाने का मुआयना करने के बाद कहा____"अब एक काम करो, मकान के अंदर जो छोटा सा ड्रम रखा है उसे ले जा कर पानी से अच्छी तरह साफ कर दो। उसके बाद उस ड्रम को ला कर यहां रख देना।"
"जी ठीक है छोटे कुंवर।" दोनों ने सिर हिलाया और फिर उनमें से एक ड्रम लाने के लिए चला गया।
मैं भी पलट घर उस तरफ चल पड़ा जिधर अनुराधा के होने का मुझे भ्रम था। मुझे जाते देख रूपा भी मेरे पीछे पीछे आने लगी।
सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था। आसमान में उसका प्रकाश सिंदूरी सा हो गया था। जल्दी ही मैं उस जगह पर पहुंच गया और फिर कुछ पलों तक उस ज़मीन को देखने के बाद वहीं पर बैठ गया। मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गईं और बंद पलकों में अनुराधा का मासूम चेहरा चमक उठा जिसे देख मेरे अंदर एक टीस सी उभरी।
"क्या तुमने अनूप को विद्यालय में दाखिला दिलाने के लिए बात की है किसी से?" सहसा रूपा की आवाज़ मेरे बगल से आई तो मैं हल्के से चौंका और फिर आंखें खोल कर उसकी तरफ देखा। वो सामने की तरफ देख रही थी। चेहरे पर गंभीरता के भाव थे।
"हां उसी के लिए पास के गांव गया था।" मैंने वापस सामने की तरफ देखते हुए कहा____"वहां पर मैं प्रधान शिक्षक से मिला और उससे इस बारे में बात की। उसने बताया कि दाखिला तो हो जाएगा लेकिन बच्चे का दाखिला अगर उस समय करवाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा जब छुट्टियों के बाद विद्यालय नए सिरे से खुलते हैं।"
"हां ये भी सही कहा उन्होंने।" रूपा ने सिर हिला कर कहा____"अनूप के लिए यही बेहतर रहेगा। तुम्हारी क्या राय है इस बारे में?"
"मुझे भी यही ठीक लगता है।" मैंने कहा____"बाकी तुम्हें जो ठीक लगे करो।"
"काश! हमारे गांव में भी एक विद्यालय होता।" रूपा ने एक गहरी सांस ली____"जिससे हमारे गांव के बच्चे उसमें पढ़ते तो उनका एक अलग ही व्यक्तित्व बनता। वैसे हैरानी की बात है कि बाकी गावों से ज़्यादा हमारा गांव बेहतर रहा है और तो और आस पास के सभी गांवों के मामलों का फ़ैसला भी तुम्हारे पूर्वज और फिर तुम्हारे पिता जी ही करते आए हैं किंतु किसी ने भी इस बारे में नहीं सोचा कि हमारे गांव में एक विद्यालय होना चाहिए।"
"इस बारे में मेरी बात हो चुकी थी पिता जी से।" मैंने कहा____"और सिर्फ इस बारे में ही नहीं बल्कि इस बारे में भी कि हमारे गांव में एक अस्पताल भी होना चाहिए ताकि आम इंसानों को इलाज़ के लिए शहर जाने का कष्ट न उठाना पड़े।"
"हां ये भी सही कहा तुमने।" रूपा ने कहा____"इस गांव में ही क्या बल्कि किसी भी गांव में अस्पताल नहीं है। लोग वैद्यों से ही उनकी जड़ी बूटियों द्वारा अपना उपचार करवाते हैं और अगर बड़ी बीमारी हुई तो शहर भागते हैं। ग़रीब आदमी को सबसे ज़्यादा परेशानी होती है। कई तो इतने बदनसीब होते हैं कि पैसों की तंगी के चलते इलाज़ भी नहीं करवा पाते और फिर उन्हें अपने अथवा अपने किसी चाहने वाले के जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है।"
"अनुराधा के गुज़रने से पहले मैंने अपने इस गांव के विकास के लिए बहुत कुछ सोचा था।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"पिता जी से मेरी कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी और फिर ये निर्णय लिया गया था कि जल्द से जल्द इस बारे में प्रदेश के मंत्री विधायकों से बात करेंगे मगर....कुछ अच्छा करने से पहले ही चंद्रकांत ने मेरे जीवन में विष घोल दिया। उसकी दुश्मनी मुझसे थी तो उसको मेरी हत्या करनी चाहिए थी। फिर क्यों उसने एक निर्दोष की इतनी निर्दयता से जान ले ली?"
"वो पागल हो गया था वैभव।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"इसी लिए उसे अच्छे बुरे का ख़याल ही नहीं रह गया था लेकिन उसे भी तो अपनी करनी की सज़ा मिली। सबसे अच्छी बात यही हुई कि तुमने अपने हाथों से उस नीच को सज़ा दी।"
"लेकिन ऐसा कर के मुझे मेरी अनुराधा तो वापस नहीं मिली न।" मैंने एकाएक दुखी हो कर कहा____"मैंने तो उसे हमेशा हमेशा के लिए खो दिया रूपा। तुम्हें पता है, मैंने तो अभी जी भर के उसे देखा भी नहीं था और ना ही जी भर के उससे दिल की बातें की थी। मैं ये भी जानता हूं कि उसे भी मुझसे अपने दिल की ढेर सारी बातें करनी थी। देखो ना, ऊपर वाला कितना पत्थर दिल बन गया कि हम दोनों को एक दूसरे से अपने दिल की बातें कहने का अवसर ही नहीं दिया उसने। उधर वो अपनी तड़प और तृष्णा लिए चली गई और इधर मैं भी यहां उसी तड़प और तृष्णा में डूबा हुआ मर रहा हूं।"
"ख़ुद को सम्हालों वैभव।" रूपा ने मेरे कंधे को हल्के से दबाया____"तुम भी जानते हो कि इस संसार में किसी को भी सब कुछ नहीं मिला करता। इस धरती पर जन्म लेने वाले हर व्यक्ति की कोई न कोई ख़्वाईश अधूरी रह ही जाती है। इंसान अपने जीवन में चाह कर भी सब कुछ हासिल नहीं कर पाता और फिर एक दिन उसी अधूरी चाहत को लिए इस दुनिया से रुख़सत हो जाता है। अपनी भाभी को ही देख लो, इतनी कम उमर में उन्हें विधवा हो जाना पड़ा। क्या तुम बता सकते हो कि उनके जैसी औरत ने किसी के साथ ऐसा क्या बुरा किया था जिसके चलते उन्हें इतनी कम उमर में ऐसा असहनीय दुख मिला? उन्हीं की तरह मेरी भाभियों के बारे में भी सोचो। मेरे पिता अथवा चाचाओं की बात छोड़ो क्योंकि मुझे भी पता है कि उनके कर्म अच्छे नहीं थे और इसी लिए उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा लेकिन जो निर्दोष थे उनका क्या? उन्हें क्यों ऐसा दुख सहना पड़ा? वैभव, यही जीवन की सच्चाई है और यही नियति का खेल है। इस लिए यही कहूंगी कि खुद को सम्हालो और आगे बढ़ते हुए उनके बारे में सोचो जिनकी खुशियां सिर्फ और सिर्फ तुमसे हैं।"
"कहना आसान होता है।" मैंने कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल होता है।"
"हां जानती हूं।" रूपा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इसके बावजूद लोगों को अमल करना ही पड़ता है। जानती हूं आसान नहीं होता लेकिन किसी न किसी तरह आगे बढ़ कर अमल करना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारी भाभी ने अमल किया, जैसे मेरी भाभियों ने अमल किया, जैसे तुम्हारे माता पिता ने अपने बड़े बेटे के दुख से निकलने के लिए अमल किया और जैसे तुम्हारी चाची ने अमल किया। ज़रा सोचो, क्या उन सबके लिए अमल करना आसान रहा होगा? फिर भी उन्होंने अमल किया, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए।"
"कैसे कर लेती हो इतनी गहरी गहरी बातें?" मैंने सहसा चकित सा हो कर उसे देखा।
"वक्त और हालात इंसान को बहुत कुछ सिखा देते हैं मेरे साजन।" रूपा ने फीकी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"कुछ तुम्हारे विरह ने और कुछ मेरे अपनों की बेरुखी ने मुझे बहुत सी ऐसी बातों से रूबरू कराया जिन्हें सोच कर अब भी समूचे जिस्म में सर्द लहर दौड़ जाती है। ख़ैर छोड़ो इन बातों को। चलो मैं तुम्हारे लिए बढ़िया सी चाय बनाती हूं। या अभी और यहां बैठने का इरादा है तुम्हारा?"
रूपा जब गहरी नज़रों से मुझे देखने लगी तो मैं उसके साथ जाने से इंकार ना कर सका। उठ कर एक नज़र अपनी अनुराधा के विदाई स्थल पर डाली और फिर पलट कर मकान की तरफ बढ़ चला। रास्ते में रूपा की बातें मेरे मन में गूंज रहीं थी जो रफ़्ता रफ़्ता गहन विचारों का रूप लेती जा रहीं थी।
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हम दोनों को मकान में आए अभी कुछ ही समय हुआ था कि तभी रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से आ गया। उसे देख मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। मैं सोचने लगा कि अभी कुछ समय पहले ही तो वो यहां से गया था तो फिर अब किस लिए आया है? मैंने रूपा की तरफ देखा तो उसने जाने क्या सोच कर अपनी नज़रें झुका ली।
रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से उतर कर हमारे पास आया। उसके हाथ में स्टील का एक डल्लू था। मुझे समझ न आया कि आख़िर माजरा क्या है?
"ये लो रूपा।" उधर रूपचंद्र ने रूपा की तरफ उस डल्लू को बढ़ाते हुए कहा____"इसमें तुम दोनों के लिए ताज़ा दूध लाया हूं।"
रूपचंद्र की ये बात सुन कर मेरी समझ में आ गया कि वो क्यों यहां दुबारा आया था। उधर जैसे ही रूपा ने उसके हाथ से दूध का डल्लू पकड़ा तो रूपचंद्र ने पलट कर मुझसे कहा____"अच्छा अब चलता हूं वैभव। तुम दोनों अपना ख़याल रखना।"
उसकी इस बात पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया और शायद वो मेरा कोई जवाब सुनने का इच्छुक भी नहीं था। तभी तो अपनी बात कह कर वो सीधा बाहर खड़ी अपनी मोटर साईकिल की तरफ बढ़ गया था। कुछ ही पलों में वो चला गया।
"तो तुमने अपने भाई से दूध मंगवाया था?" मैंने पलट कर रूपा से कहा।
"हां लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए।" रूपा ने थोड़ा झेंपते हुए कहा____"मैं नहीं चाहती थी कि तुम काली चाय पियो। इस लिए जब भैया ने मुझसे पूछा कि यहां मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है तो मैंने उनसे चाय के लिए दूध न होने की बात कह दी थी।"
"हम्म्म्म।" मैंने धीमें से हुंकार भरी____"ख़ैर मज़दूरों ने आज तुम्हारे नहाने के लिए गुसलखाना बना दिया है। अब तुम्हें खुले में नहीं नहाना पड़ेगा।"
"अच्छा, देखूं तो सही कैसा गुसलखाना बनाया है उन लोगों ने?" रूपा थोड़ा उत्साहित सी हो कर बोली और फिर दूध के डल्लू को मेरे पास तखत में रख कर गुसलखाने की तरफ बढ़ गई।
"काफी बेहतर बनाया है।" कुछ देर में जब वो आई तो मुस्कुराते हुए बोली___"और बहुत सोच समझ कर बनाया है। लकड़ी की दीवार के बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी है जिससे ना तो अंदर से बाहर देखा जा सके और ना ही बाहर से अंदर। वैसे उन्हें इस तरह से बनाने के लिए क्या तुमने कहा था?"
"नहीं, उन लोगों ने खुद ही अपने से सोच कर ऐसा बनाया है।" मैंने कहा____"मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा था।"
"अच्छा, फिर तो बड़ी समझदारी दिखाई उन लोगों ने।" रूपा ने कहा____"ख़ैर, तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं।"
"पानी है या ले आऊं?" मैंने पूछा।
"थोड़ा है अभी।" उसने बताया____"वैसे लाना ही पड़ेगा क्योंकि रात का खाना भी बनाना होगा इस लिए पानी की ज़रूरत तो पड़ेगी ही।"
"ठीक है।" मैंने तखत से उतरते हुए कहा____"लाओ मटका, मैं कुएं से ले आता हूं पानी।"
रूपा अंदर गई और मटका ला कर मुझे पकड़ा दिया। मैं मटका ले कर कुएं की तरफ बढ़ चला। थोड़ी ही देर में मैं पानी ले आया और अंदर रसोई के पास रख दिया। मेरी नज़र चूल्हा जलाती रूपा पर पड़ी। वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी। पता नहीं क्या सोच के मुस्कुरा रही थी वो? मुझे अजीब लगा मगर मैं चुपचाप बाहर आ कर फिर से तखत पर बैठ गया और उसके बारे में सोचने लगा।
नियति का खेल बड़ा ही अजब ग़ज़ब होता है जिसके बारे में हम इंसान कल्पना भी नहीं कर पाते। एक वक्त था जब साहूकारों से हमारे रिश्ते नदी के दो किनारों की तरह थे। बिल्कुल भी यकीन नहीं था कि एक दिन वो किनारे आपस में मिल जाएंगे। किंतु हर उम्मीद के विपरीत वो मिले। ये अलग बात है कि इसके पहले दोनों किनारों का मिलना एक गहरी साज़िश का हिस्सा था जिसका कहीं न कहीं हम सबको अंदेशा भी था। नहीं जानते थे कि उस साज़िश के चलते जो परिणाम सामने आएगा वो इतना दर्दनाक होगा। ख़ैर इस सबके बाद वो दोनों किनारे फिर से अलग हो गए लेकिन नियति अब भी हमारे लिए कोई योजना बनाए हुए थी जिसका परिणाम आज इस सूरत में मेरे सामने था। दोनों किनारे एक बार फिर से मिले लेकिन इस कायाकल्प के बीच मैंने हमेशा के लिए उसे खो दिया जिसे मैं बेपनाह प्रेम करता था। नियति ने एक ऐसी लड़की का जीवन छीन लिया जो बेहद मासूम थी और गंगा की तरह निर्दोष एवं पाक थी।
मेरे मन में विचारों का बवंडर शुरू हुआ तो एकाएक फिर उस ख़याल पर जा ठहरा जिस ख़याल से मुझे बेहद पीड़ा होती थी और मेरी आंखें छलक पड़तीं थी। वो ख़याल था____'मेरी अनुराधा का असल हत्यारा कोई और नहीं बल्कि मैं ख़ुद ही हूं। वो मेरे कुकर्मों की वजह से ही आज इस दुनिया में नहीं है।' बस, इस ख़याल के उभरते ही दिलो दिमाग़ में भयंकर रूप से ज्वारभाटा सा उठ जाता और मैं अत्यधिक पीड़ा में डूब जाता था।
"ये लो।" मैं अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी रूपा की आवाज़ से चौंक कर वास्तविकता के धरातल पर आ गया।
मैंने देखा, रूपा मेरे पास खड़ी थी। उसके हाथ में चाय का प्याला था जिसे उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मैंने उसके चेहरे से नज़र हटा कर उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया।
"एक बात पूछूं?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा।
"हां पूछो।" उसने भी उसी अंदाज़ में मेरी तरफ देखा।
"क्या तुम्हें अपने घर वालों की याद नहीं आती?" मैंने पूछा____"मेरा मतलब है कि कल सुबह से तुम अपने घर परिवार से दूर यहां पर हो, तो क्या उनकी याद नहीं आती तुम्हें? क्या उन्हें देखने का मन नहीं करता तुम्हारा?"
"रूप भैया को देख लेती हूं तो फिर किसी से मिलने का मन नहीं करता।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे भी मेरे लिए मेरे परिवार वालों से ज़्यादा तुम मायने रखते हो। मेरी ज़िंदगी का हर सुख दुख तुमसे जुड़ा हुआ है। अगर मेरा महबूब किसी तकलीफ़ से ग्रसित होगा तो उसे देख कर मेरा हाल भी उसके जैसा ही हो जाएगा। इस वक्त यहां मैं अपनी जान के पास हूं। मेरे लिए यही सबसे बड़ी बात है। इसके अलावा मुझे किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है।"
"मुझे समझ नहीं आता कि मेरे जैसे इंसान से तुम इतना प्रेम कैसे कर सकती हो?" मैंने सहसा आहत हो कर कहा____"बाकी लड़कियों की तरह मैंने तुम्हारी इज्ज़त को भी तो दाग़दार किया था। मैंने कभी तुम्हारी भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया बल्कि हर बार तुम्हारे द्वारा दी गई प्रेम की दलीलों पर तुम्हारा मनोबल ही तोड़ा था। इस सब के बाद भी तुम्हें मुझसे घृणा नहीं हुई, आख़िर क्यों?"
"सच्चे प्रेम में घृणा का कहीं कोई वजूद नहीं होता साजन।" रूपा ने बड़े प्रेम से कहा____"प्रेम में तो सिर्फ प्रेम ही होता है। प्रेम में अपने प्रियतम की जुदाई का दर्द भले ही असहनीय की सूरत में मिल जाता है लेकिन इसके बावजूद प्रेम अपने प्रेम से लेश मात्र भी घृणा नहीं करता। शायद इसी लिए प्रेम की भावना सबसे पवित्र होती है जिसे ऊपर वाला भी सर्वोपरि मानता है।"
"काश! मुझे प्रेम का ये पाठ वक्त से पहले समझ आ गया होता ।" मैंने गहरी सांस ली____"तो आज मेरी वजह से ना तो किसी को चोट पहुंचती और ना ही किसी की जान जाती।"
"गुज़र गई बातों को बार बार याद करने से सिवाय दुख और तकलीफ़ के कुछ नहीं मिलता जान।" रूपा ने कहा____"इस लिए उस सब को मत याद करो। अपनों की ख़ुशी और भलाई के लिए आगे बढ़ो।"
"मैं चाह कर भी ऐसी बातें भुला नहीं पा रहा।" मैं एकदम से दुखी हो गया____"बार बार मुझे अपने द्वारा किए गए कुकर्म याद आ जाते हैं। ये सब जो हुआ है मेरे ही कुकर्मों की वजह से ही हुआ है। ऊपर वाले ने सभी निर्दोष लोगों की जान ले ली लेकिन मुझ गुनहगार को ज़िंदा रखा है। शायद वो भी अपनी दुनिया में मेरे जैसे इंसान को रखना पसंद नहीं करता है।"
"ईश्वर के लिए ऐसी बातें मत करो वैभव।" रूपा ने तड़प कर कहा____"क्यों खुद को निराशा और हताशा के दलदल में इस तरह डुबाने पर तुले हुए हो? तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम खुद को शांत रखोगे और अपनी अनुराधा की आत्मा की शांति के लिए अच्छे काम करोगे। क्या तुम अपना किया वादा इतना जल्दी भूल गए? क्या तुम सच में नहीं चाहते कि अनुराधा की आत्मा को शांति मिले?"
"म...मैं चाहता हूं रूपा।" हताशा के भंवर में फंसा मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"मैं अपनी अनुराधा को कोई तकलीफ़ नहीं देना चाहता लेकिन.....लेकिन मैं क्या करूं? बार बार मेरे दिलो दिमाग़ में वही सब उभर आता है जो मैंने किया है और जो मेरी वजह से हुआ है।"
रूपा ने चाय के प्याले को झट से एक तरफ रखा और फिर झपट कर मुझे खुद से छुपका लिया। मुझे इस तरह दुखी होते देख उसकी आंखें भर आईं थी। उसका हृदय तड़प उठा था। ये सोच कर उसकी आंखें छलक पड़ीं कि जिसे वो इतना प्रेम करती है उसकी तकलीफ़ों को वो इतनी कोशिश के बाद भी दूर नहीं कर पा रही है। मन ही मन उसने अपनी देवी मां को याद किया और उनसे मेरी तकलीफ़ों को दूर करने की मिन्नतें करने लगी।