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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
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Sanju@

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अध्याय - 75
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"हाहाहाहा।" पिता जी के पूछने पर मुंशी पहले तो ज़ोर से हंसा फिर बोला____"वैसे तो मैं ऐसे किसी सफ़ेदपोश के बारे में नहीं जानता और ना ही मेरा उससे कोई संबंध है लेकिन इस बात से मैं खुश ज़रूर हूं कि हमारे बाद भी अभी कोई है जो हवेली में रहने वालों से इस क़दर नफ़रत करता है कि उनकी जान तक लेने का इरादा रखता है। ख़ास कर इस वैभव सिंह की। ये तो कमाल ही हो गया, हाहाहा।"

मुंशी चंद्रकांत जिस तरीके से हंस रहा था उसे देख मेरा खून खौल उठा। गुस्से से मेरी मुट्ठियां भिंच गईं। जी किया कि अभी जा के उसकी गर्दन मरोड़ दूं मगर फिर किसी तरह अपने गुस्से को पी कर रह गया।



अब आगे....


मुंशी चंद्रकांत और गौरी शंकर ने जिस तरह से सफ़ेदपोश के बारे में अपनी अनभिज्ञता जताई थी उससे दादा ठाकुर ही नहीं बल्कि मैं खुद भी सोच में पड़ गया था। ये तो स्पष्ट था कि सफ़ेदपोश के बारे में वो दोनों झूठ नहीं बोल रहे थे क्योंकि अब झूठ बोलने का ना तो कोई समय था और ना ही इससे उन्हें कोई फ़ायदा था। तो अब सवाल ये था कि अगर सच में उन दोनों का संबंध अथवा कोई ताल्लुक सफ़ेदपोश से नहीं है तो फिर कौन है सफ़ेदपोश? आख़िर वो कौन हो सकता है जो खुद को सफ़ेदपोश के रूप में हमारे सामने स्थापित कर चुका है और हमसे दुश्मनी रखता है?

सफ़ेदपोश एक ऐसा रहस्यमय किरदार है जो हमारे लिए गर्दन में लटकी तलवार की तरह साबित हो चुका है। अगर ये पता चल जाए कि वो कौन है तो ज़ाहिर है कि ये भी समझ में आ ही जाएगा कि वो हमें अपना दुश्मन क्यों समझता है? इतना कुछ होने के बाद लगा था कि अब सारी मुसीबतों से छुटकारा मिल गया है किंतु नहीं, ऐसा लगता है जैसे सबसे बड़ी मुसीबत और ख़तरा तो वो सफ़ेदपोश ही है। समझ में नहीं आ रहा कि वो अचानक कहां से आ टपकता है और फिर कैसे गायब हो जाता है?

"यहां किसी और को भी अगर कुछ कहना है तो कह सकता है।" मंच पर बैठे महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"अगर किसी को लगता है कि उसके साथ ठाकुर साहब ने अन्याय किया है अथवा उसके साथ किसी तरह का इंसाफ़ नहीं हुआ है तो बेझिझक वो अपनी बात इस पंचायत के सामने रख सकता है।"

ठाकुर महेंद्र सिंह की ये बात सुन कर भीड़ में खड़े लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे। कुछ देर बाद दो आदमी भीड़ से निकल कर बाहर आए। ये वही थे जिनकी बीवियां हवेली में काम करती थीं और कुछ दिन पहले जिनकी हत्या हो गई थी।

"प्रणाम ठाकुर साहब।" उनमें से एक ने कहा____"हम दोनों ये कहना चाहते हैं कि दादा ठाकुर की हवेली में हम दोनों की बीवियां काम करती थीं और कुछ दिनों पहले उनकी हत्या हो गई। हमारे छोटे छोटे बच्चे बिना मां के हो गए। क्या हमें ये जानने का हक़ नहीं है कि किसने उनकी हत्या की और क्यों की?"

"ठाकुर साहब आपका क्या कहना है इस बारे में?" ठाकुर महेंद्र सिंह ने पिता जी से पूछा।

"ये सच है कि इन दोनों की बीवियां हमारी हवेली में काम करती थीं।" पिता जी ने कहा____"कुछ समय पहले उन दोनों की आश्चर्यजनक रूप से हत्या कर दी गई थी। हमने उनकी हत्या की तहक़ीकात की तो जल्द ही हमें पता चल गया कि उनके साथ ऐसा क्यों हुआ? असल में वो दोनों औरतें किसी अज्ञात व्यक्ति के द्वारा मजबूर किए जाने पर हवेली में ग़लत काम को अंजाम दे रहीं थी। हमें तो इसका पता भी न चलता किंतु कहते हैं ना कि ग़लत करने वाले के साथ ही बुरा होता है फिर चाहे वो जैसे भी हो। उन दोनों को जिसने मजबूर किया हुआ था उसने उन्हें साफ तौर पर ये समझाया हुआ था कि अगर पकड़े जाने का ज़रा सा भी अंदेशा हो तो वो अपनी जान ले लें। एक ने तो हवेली में ही ज़हर खा कर अपनी जान ले ली थी जबकि दूसरी हवेली से भाग गई थी। शायद उस वक्त उसके पास ज़हर नहीं था इस लिए पकड़े जाने के डर से वो हवेली से भाग गई। हमारे बेटे ने उसका पीछा किया किंतु लाख कोशिश के बावजूद ये उसे बचा नहीं सका। ऐसा इस लिए क्योंकि दोनों औरतों को मजबूर करने वाला वहां पहले से ही मौजूद था और उसने इसकी बीवी की हत्या कर दी। ये सब बातें हमारे छोटे भाई जगताप ने इन दोनों को बताया भी थी। कहने का मतलब ये है ठाकुर साहब कि इन दोनों की बीवियों की हत्या से हमारा कोई संबंध नहीं है बल्कि सच ये है कि उन्हें खुद ही उनके ग़लत कर्म करने की सज़ा मिल गई। हमारे लिए ये जानना ज़रूरी था कि आख़िर उन दोनों को मजबूर करने वाला वो व्यक्ति कौन हो सकता है किंतु अब हम समझ चुके हैं कि वो कौन है?"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" ठाकुर महेंद्र सिंह ने चौंकते हुए पूछा। इधर पिता जी की बात सुन कर भीड़ में खड़े लोग भी हैरानी से देखने लगे थे। जबकि महेंद्र सिंह जी के पूछने पर पिता जी ने गौरी शंकर की तरफ देखा। गौरी शंकर ने झट से सिर झुका लिया।

"उन दोनों औरतों की जब हत्या हो गई थी तो हमारे गांव के साहूकार मणि शंकर जी हमारी हवेली पर हमसे मिलने आए थे।" पिता जी ने कहा____"उस समय जिस तरह से उन्होंने अपना पक्ष रख कर हमसे बातें की थी उससे हमें भी यही लगा था कि यकीनन किसी और ने ही उन औरतों की कुछ इस तरह से हत्या की है कि हमारे ज़हन में उनके हत्यारे के रूप में गांव के साहूकारों का ही ख़याल आए। हमने सोचा कि हो सकता है कि वो हम दोनों परिवारों के संबंध सुधर जाने से नाराज़ हो गया होगा और हर्गिज़ नहीं चाहता होगा कि हमारा आपस में ऐसा प्रेम संबंध हो। बहरहाल दिमाग़ भले ही नहीं मान रहा था लेकिन हमने दिमाग़ की जगह दिल की सुनना ज़्यादा बेहतर समझा। आख़िर हम भी तो नहीं चाहते थे कि दोनों परिवारों के बीच एक दिन में ही बैर भाव अथवा किसी तरह का संदेह भाव पैदा हो जाए। सच तो ये है कि हमें उस दिन दिल की नहीं बल्कि दिमाग़ की ही सुननी चाहिए थी और समझ जाना चाहिए था कि साहूकारों का हमसे अपने रिश्ते सुधार लेना सिर्फ और सिर्फ एक दिखावा था। बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि रिश्तों को सुधार लेना उनकी योजना का एक हिस्सा था। क्यों गौरी शंकर हमने सच कह न?"

"हां।" गौरी शंकर ने हताश भाव से कहा____"मगर अब समझे तो क्या समझे ठाकुर साहब? पर शायद सच यही है कि उस समय अगर आपने दिल की सुनी तो ये आपकी नेक नीयती और उदारता की ही बात थी। यानि आप सच में यही चाहते थे कि हमारे रिश्ते ऐसे ही बेहतर बने रहें मगर हम इतने नेक और उदार नहीं थे। हमारे अंदर तो वर्षों से बदले की भावना धधक रही थी जिसके चलते हमने कभी ये सोचना गवारा ही नही किया कि बदला लेने की जगह अगर हम दोनों परिवार मिल कर एक नई शुरुआत करें तो कदाचित दोनों ही परिवारों का भविष्य बेहद सुखद हो सकता है। ख़ैर ये सच है कि हमने ही इन लोगों की औरतों को मजबूर कर के हवेली में नौकरानी के रूप में स्थापित किया था। एक का काम था वैभव को चाय में थोड़ा थोड़ा मिला कर ऐसा ज़हर देना जिसकी वजह से वैभव की मर्दानगी हर रोज़ कम होती जाए और फिर एक दिन वो पूरी तरह से नामर्द ही बन जाए। दूसरी का काम था हवेली में गुप्त रूप से आपकी ज़मीनों के कागज़ात खोज कर उन्हें हासिल करना। उन दोनों को सख़्त आदेश था कि अगर उन्हें ज़रा सा भी लगे कि उनका भेद खुल गया है अथवा उनका पकड़े जाना निश्चित है तो वो हमारे द्वारा दिए गए ज़हर को खा कर अपनी जान ले लें।"

"बस कीजिए।" सुनैना देवी रोते हुए चीख ही पड़ी____"और कितने गुनाहों का बखान करेंगे आप? यकीन नहीं होता कि इतना सब कुछ मेरे घर के मर्दों ने किया है। काश! मुझे थोड़ा सा भी इल्म हो जाता तो मैं ये सब आपको करने ही नहीं देती। हे ईश्वर! किसी इंसान की बुद्धि इतनी भ्रष्ट कैसे हो सकती है? कोई खुशी खुशी इतने बड़े बड़े पाप कैसे कर सकता है?"

"चुप हो जाइए मां।" गौरी शंकर की बेटी राधा ने दुखी भाव से अपनी मां से कहा____"ये सब सोच कर इस तरह आंसू बहाने से अब क्या होगा? कितना गर्व करते थे हम कि हमारे अपने कितने अच्छे हैं लेकिन क्या पता था कि अच्छी सूरतों के पीछे कितने बड़े शैतान छुपे हुए हैं।"

कहने के साथ ही राधा अपने पिता गौरी शंकर से मुखातिब हुई और फिर बोली____"मैंने कभी भी आप में से किसी के भी सामने कुछ बोलने की हिमाकत नहीं की पिता जी। ऐसा सिर्फ इस लिए क्योंकि ये सब आप लोगों द्वारा दिए गए अच्छे संस्कार थे। मैं आपसे सिर्फ इतना जानना चाहती हूं कि आख़िर क्या हासिल कर लिया आपने बदला ले कर? क्या इस बदले से आप अपने उस परिवार को अपार खुशियां दे पाए जो अब तक सबके साथ हंसी खुशी जी रहे थे?"

"म...मुझे माफ़ कर दे बेटी।" गौरी शंकर अपनी बेटी से नज़रें नहीं मिला पा रहा था, बोला____"ऊपर बैठा विधाता हमसे यही करवाना चाहता था। कहते हैं कि वक्त से बड़ा कोई मरहम नहीं होता। वो बड़े से बड़े नासूर बन गए ज़ख्मों को भी भर देता है मगर कदाचित वो हमारे ज़ख्म नहीं भर सका। अगर भर दिया होता तो क्या आज हम सब ऐसी हालत में होते?"

"मैं ज़्यादा तो कुछ नहीं जानती पिता जी।" राधा ने कहा____"किंतु आप लोगों से ही सुना है कि इंसान के हाथ में सिर्फ कर्म करना ही होता है। तो अब आप ही बताइए अगर इंसान के बस में सिर्फ कर्म करना था तो आपने ऐसे कर्म क्यों किए जिसकी वजह से हमारा पूरा परिवार मिट्टी में मिल गया? अपने कर्म को विधाता अथवा किस्मत का लिखा मत बताइए। विधाता आपसे ये कहने नहीं आया कि आप बदले की आग में जलिए और किसी की हत्या कर दीजिए।"

गौरी शंकर अवाक सा देखता रह गया अपनी बेटी को। कुछ कहना तो चाहा उसने लेकिन जुबान ने साथ नहीं दिया। उसके बगल से रूपचंद्र किसी पुतले की तरह खड़ा था।

"अब हम सबका क्या होगा पिता जी?" राधा की आंखें छलक पड़ीं____"आप लोगों ने तो बदला लेने के चक्कर में खुद को ही मिटा दिया मगर हमारा क्या? आपके घर की ये औरतें और आपकी बहू बेटियां किसके सहारे जियेंगी अब?"

राधा की बातें सुन कर और उसका रोना देख भीड़ में खड़े जाने कितने ही लोगों की आंखें नम हो गईं। मुझे खुद भी बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था। तभी मैंने देखा रूपा आगे आई और उसने राधा को अपने से छुपका लिया। राधा उससे छुपक कर और भी ज़्यादा रोने लगी। गौरी शंकर अपनी बेटी और अपने घर की बाकी औरतों को नम आंखों से देखता रहा।

✮✮✮✮

"पंच के रूप में हमने आप सबकी बातें और साथ ही दुख तकलीफ़ों को बड़े ध्यान से सुना है।" मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने मैदान में खड़े समस्त जन समूह को देखते हुए ऊंचे स्वर में कहा____"ये एक ऐसा मामला है जिसका फ़ैसला करना बिल्कुल भी आसान नहीं हैं। अगर गहराई से सोचा जाए तो इस मामले का फ़ैसला किसी के लिए भी बेहतर नहीं हो सकता। माना कि कुछ लोगों को इसके फ़ैसले से आत्मिक शांति मिल सकती है लेकिन ये भी सच है कि महज आत्मिक शांति से किसी के भी परिवार के सदस्यों का जीवन बेहतर तरीके से नहीं चल सकता।"

"यहां ऐसे भी हैं जो हमारे फ़ैसले पर पक्षपात करने का आरोप भी लगा सकते हैं।" कुछ पल की ख़ामोशी के बाद महेंद्र सिंह ने पुनः कहा____"ऐसे व्यक्तियों से हमारा यही कहना है कि अगर वो चाहें तो इस मामले को हमारे देश के कानून के समक्ष रख सकते हैं और उसी कानून के द्वारा इंसाफ़ हासिल कर सकते हैं। लेकिन ऐसा करने से पहले ये भी अच्छी तरह सोच लें कि देश का कानून जो फ़ैसला सुनाएगा उससे किसी का भी भला नहीं हो सकेगा जबकि हमने इस मामले में ऐसा फ़ैसला करने का सोचा है जिससे सबका भला भी हो सके। क्या आप सब हमारी इस बात से सहमत हैं?"

ठाकुर महेंद्र सिंह की इन बातों को सुन कर पूरे जन समूह में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे उनमें से किसी को भी महेंद्र सिंह जी की बातें समझ नहीं आईं थी।

"इसमें इतना सोच विचार करने की ज़रूरत नहीं है किसी को।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने किसी को कुछ न बोलता देख कहा____"बहुत ही सरल और साधारण सी बात है जिसे आप सबको समझने की ज़रूरत है। आप सब जानते हैं कि इस मामले से जुड़ा हर व्यक्ति गुनहगार है। इस मामले से जुड़े हर व्यक्ति ने एक दूसरे के अपनों की हत्याएं की हैं और हत्याएं करना सबसे बड़ा अपराध है जिसकी कोई माफ़ी नहीं हो सकती। अगर ये सोच कर हम फ़ैसला करें कि हर हत्यारे को मौत की सज़ा दी जाए तो क्या ये उचित होगा? एक तरफ इस गांव के साहूकार हैं जिन्होंने अपनी वर्षों पुरानी दुश्मनी के चलते ठाकुर साहब के छोटे भाई और बड़े बेटे की हत्या की और इतना ही नहीं उनके छोटे बेटे का भी जीवन बर्बदाद कर देना चाहा। बदले में ठाकुर साहब ने भी बदले के रूप में साहूकारों का संघार कर दिया। दोनों परिवारों में गुनहगार के रूप में एक तरफ गौरी शंकर और रूपचंद्र हैं तो दूसरी तरफ ठाकुर साहब। अब अगर इनके अपराधों के लिए इन्हें मौत की सज़ा सुना दी जाए तो क्या ये उचित होगा? सवाल है कि गौरी शंकर और रूपचंद्र की मौत हो जाने के बाद इनके घर परिवार की औरतों और बहू बेटियों का क्या होगा? वो सब किसके सहारे अपना जीवन बसर करेंगी? यही सवाल ठाकुर साहब के बारे में भी है कि अगर इन्हें मौत की सज़ा दी जाएगी तो हवेली में रहने वाले किसके सहारे जिएंगे? दूसरी तरफ मुंशी चंद्रकांत हैं जिन्होंने अपनी दुश्मनी ठाकुर साहब से निकाली और इन्होंने साहूकारों के साथ मिल कर मझले ठाकुर जगताप और बड़े कुंवर अभिनव की हत्या की। हालाकि बदले में ठाकुर साहब ने इनकी अथवा इनके बेटे की हत्या नहीं की। इस हिसाब से देखा जाए तो वास्तव में ये दोनो पिता पुत्र ठाकुर साहब के अपराधी हैं और इन्होंने जो किया है उसके लिए इन्हें यकीनन मौत की सज़ा ही मिलनी चाहिए लेकिन सवाल वही है कि क्या इन्हें भी ऐसी सज़ा देना उचित होगा? आखिर इनके बाद इनके घर की औरतों का क्या होगा?"

ठाकुर महेंद्र सिंह इतना सब कहने के बाद भीड़ में खड़े लोगों की तरफ देखने लगे। इतने बड़े जन समूह में आश्चर्यजनक रूप से सन्नाटा फैला हुआ था। किसी को भी महेंद्र सिंह से ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी।

"पंच के रूप में बिना कोई पक्षपात किए न्याय करना हमारा फर्ज़ है।" उन्होंने फिर से कहना शुरू किया____"किंतु हमारा ये देखना भी फ़र्ज़ है कि इस सबके बाद भी किसी के लिए क्या उचित है? देखिए, जो बीत गया अथवा जो कर दिया गया वो सिर्फ दुश्मनी या बदले की भावना से किया गया। हम अच्छी तरह जानते हैं कि इतना कुछ करने के बाद भी किसी को भी सुख चैन नहीं मिला होगा बल्कि सिर्फ दुख और ज़माने भर की निंदा ही मिली है। इस लिए हम व्यक्तिगत रूप से ये चाहते हैं कि सब कुछ भुला कर आप सब एक नए सिरे से शुरुआत कीजिए। किसी से बैर रख कर किसी की हत्या करने से कभी कोई खुशी हासिल नहीं हो सकती। हम ये हर्गिज़ नहीं चाहते कि आप लोगों की वजह से आपके घर परिवार के बाकी सदस्यों का जीवन नर्क के समान हो जाए। इस लिए अगर आप सबको हमारी ये बातें समझ आ रही हैं तो बेझिझक हो कर हमें बता दें। बाकी पंच के रूप में तो हमें फ़ैसला करना ही है लेकिन ये भी सच है कि उस फ़ैसले से यही होगा कि जो कुछ बचा है वो भी बर्बाद हो जाएगा।"

इस बार जन समूह में खुसुर फुसुर की आवाज़ें आनी शुरू हो गईं। साहूकार गौरी शंकर और रूपचंद्र के चेहरों पर अजीब तरह के भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे। यही हाल मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर का भी था।

"ठाकुर साहब।" सहसा गौरी शंकर ने कहा____"अगर ऐसा सच में हो सकता है तो ये हमारे लिए खुशी की ही बात होगी लेकिन इसका यकीन भला हम कैसे करें कि इसके बाद हम पर या हमारे परिवार के किसी सदस्य पर ठाकुर साहब का क़हर नहीं बरपेगा?"

"मेरा भी यही कहना है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने महेंद्र सिंह से कहा____"हम कैसे भरोसा करें कि हमारे द्वारा इतना कुछ किए जाने के बाद ठाकुर साहब द्वारा हम पर कभी कोई आंच नहीं आएगी? ठाकुर साहब का तो हम एक घड़ी के लिए यकीन भी कर सकते हैं किंतु हमें छोटे कुंवर पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है।"

"बेशक आप लोगों का ऐसा सोचना जायज़ है चंद्रकांत।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"किंतु यही बात आप लोगों पर भी तो लागू होती है। ये तो सभी जानते हैं कि जब से दादा ठाकुर की कुर्सी पर ठाकुर प्रताप सिंह बैठे हैं तब से इनके द्वारा कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं हुआ। इन्होंने हमेशा सबकी भलाई का ही काम किया है और हर ज़रूरतमंद की हर तरह से मदद की है। ज़ाहिर है इतना कुछ होने के बाद भी आम जनता को इन पर भरोसा होगा कि इसके बाद भी इनके द्वारा आप लोगों के साथ ही नहीं बल्कि किसी के साथ भी अनिष्ट नहीं होगा। हां, आम जनता को आप लोगों पर ही भरोसा नहीं हो सकेगा क्योंकि हत्या जैसे अपराध तो आप लोगों ने ही करने शुरू किए थे। इस बारे में क्या कहेंगे आप लोग?"

ठाकुर महेंद्र सिंह की ये बातें सुन कर गौरी शंकर और चंद्रकांत कुछ न बोले। कदाचित उन दोनों को ही इस बात का एहसास हो गया था कि उनके बारे में जो कुछ महेंद्र सिंह ने कहा है वो एक कड़वा सच है। तभी सहसा जन समूह में से कुछ लोग चिल्लाने लगे। एक साथ कई लोगों के स्वर वातावरण में गूंज उठे। सबका यही कहना था कि उन्हें साहूकार गौरी शंकर और मुंशी चंद्रकांत पर भरोसा नहीं है।

"कमाल है।" मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए बोल उठे____"हमने तो बस अपना अंदेशा ज़ाहिर किया था लेकिन हमारे अंदेशे की पुष्टि तो यहां मौजूद लोगों ने ही कर दी। क्या अब भी आप लोगों को लगता है कि इस तरह का सवाल आप लोगों को करना चाहिए था?"

गौरी शंकर और मुंशी चंद्रकांत ने सिर झुका लिया। इधर महेंद्र सिंह ने पिता जी से कहा____"आपका क्या कहना है ठाकुर साहब? हमारा मतलब है कि क्या आप हमारी व्यक्तिगत राय से सहमत हैं? क्या आप भी ये समझते हैं कि सब कुछ भुला कर एक नए सिरे से शुरुआत की जाए ताकि जो कुछ बचा है वो बर्बाद होने से बच जाए? अगर आप सहमत हैं और आपकी इजाज़त हो तो इस मामले का यही फ़ैसला हम सुना देते हैं।"

"हम आपकी बातों से सहमत हैं।" पिता जी ने कहा____"हम खुद भी नहीं चाहते कि किसी कठोर फ़ैसले की वजह से गौरी शंकर के परिवार की औरतें और उनकी बहू बेटियां अनाथ और बेसहारा हो जाएं। हम तो पहले भी यही चाहते थे कि दोनों परिवार प्रेम पूर्वक रहें और ऐसा हमेशा ही चाहेंगे। हां ये सच है कि हमने गुस्से में आ कर इनके भाइयों और बच्चों को मार डाला जिसका अब हमें बेहद अफ़सोस ही नहीं बल्कि बेहद दुख भी हो रहा है। हम चाहते हैं कि किसी और को उनके अपराधों की सज़ा मिले या न मिले लेकिन हमें ज़रूर मिलनी चाहिए। इतना बड़ा नर संघार करने के बाद हम कभी चैन से जी नहीं पाएंगे। अच्छा होगा कि हमें मौत की सज़ा सुना दी जाए।"

पिता जी की बात सुन कर मैं तो हैरान हुआ ही था किंतु गौरी शंकर और मुंशी चंद्रकांत भी आश्चर्य से देखने लगे थे उन्हें। कदाचित उन्हें मेरे पिता जी से ऐसा सुनने की सपने में भी उम्मीद नहीं थी।

"ऐसा नहीं हो सकता ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"अगर सज़ा मिलेगी तो फिर हर अपराधी को सज़ा मिलेगी अन्यथा किसी को भी नहीं। वैसे आपके लिए ये सज़ा जैसा ही होगा कि आप अपने गुनाहों का जीवन भर पश्चाताप करते रहें। एक और बात, आज के बाद अब आप कभी भी पंच अथवा मुखिया नहीं बन सकते।"

"हत्या जैसा अपराध करने के बाद तो हम खुद भी पंच अथवा मुखिया बने रहना पसंद नहीं करेंगे ठाकुर साहब।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा____"पंच अथवा मुखिया तो परमेश्वर का रूप होता है, हमारे जैसा हत्यारा नहीं हो सकता।"

उसके बाद जब सभी पक्ष राज़ी हो गए तो यही फ़ैसला किया गया कि सब कुछ भुला कर एक नए सिरे से शुरआत की जाए। ज़ाहिर है ये फ़ैसला इसी बिना पर किया गया कि इससे सभी के परिवारों का भला हो सके। पंच के रूप में ठाकुर महेन्द्र सिंह ने सभी पक्षों को ये सख़्त हिदायत दी कि अब से कोई भी एक दूसरे का बुरा नहीं करेगा अन्यथा कठोर दण्ड दिया जाएगा।

गौरी शंकर इस फ़ैसले से खुश तो हुआ लेकिन अपने भाइयों तथा बच्चों की मौत से बेहद दुखी भी था। दूसरी तरफ मुंशी चंद्रकांत सामान्य ही नज़र आया। सफ़ेदपोश के बारे में यही कहा गया कि उसे जल्द से जल्द तलाश कर के पंच के सामने हाज़िर किया जाए। हालाकि ये अब हमारा मामला था जिसे देखना हमारा ही काम था। ख़ैर इस फ़ैसले से मुझे भी खुशी हुई कि चलो एक बड़ी मुसीबत टल गई वरना इतना कुछ होने के बाद कुछ भी हो सकता था। सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि _____'इस तरह का फ़ैसला शायद ही किसी काल में किसी के द्वारा किया गया होगा।'

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बहुत ही शानदार और लाज़वाब अपडेट है साहूकारो की असलियत उनके घर की औरतों के सामने आ गई और उन्हें ये सुनकर बहुत ही दुःख हुआ है
साहूकारो ने ठाकुर के परिवार के लोगो को मारा इसके बदले में ठाकुर ने साहूकारो के परिवार के लोगो को मार दिया। सजा के तौर पर दोनो को ही सजा होनी चाहिए थी क्योंकि साहूकारो और ठाकुर ने संगीन जुर्म किया है लेकिन ठाकुर महेंद्र ने भविष्य में इनके परिवार के साथ क्या होगा ये सोचते हुए दोनो को ही सजा नही दी ये फैसला बहुत ही अच्छा था अब देखते हैं ये आगे शांति से रहेंगे ।सफेद नकाबपोश अभी तक एक रहस्य बना है
 

Sanju@

Well-Known Member
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अध्याय - 76
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गौरी शंकर इस फ़ैसले से खुश तो हुआ लेकिन अपने भाइयों तथा बच्चों की मौत से बेहद दुखी भी था। दूसरी तरफ मुंशी चंद्रकांत सामान्य ही नज़र आया। सफ़ेदपोश के बारे में यही कहा गया कि उसे जल्द से जल्द तलाश कर के पंच के सामने हाज़िर किया जाए। हालाकि ये अब हमारा मामला था जिसे देखना हमारा ही काम था। ख़ैर इस फ़ैसले से मुझे भी खुशी हुई कि चलो एक बड़ी मुसीबत टल गई वरना इतना कुछ होने के बाद कुछ भी हो सकता था। सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि _____'इस तरह का फ़ैसला शायद ही किसी काल में किसी के द्वारा किया गया होगा।'


अब आगे....


"मालिक, बाहर पुलिस वाले आए हैं।" एक दरबान ने बैठक में आ कर पिता जी से कहा____"अगर आपकी इजाज़त हो तो उन्हें अंदर भेज दूं"

"हां भेज दो।" पिता जी ने कहा तो दरबान अदब से सिर नवा कर चला गया।

"शायद कानून के नुमाइंदों को पता चल गया है कि यहां क्या हुआ है।" पास ही एक कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"ज़रूर इस मामले के बारे में किसी ने पुलिस तक ये ख़बर भेजवाई होगी। इसी लिए वो यहां आए हैं। ख़ैर सोचने वाली बात है कि अगर इस मामले में पुलिस ने कोई हस्ताक्षेप किया तो भारी समस्या हो सकती है ठाकुर साहब।"

"वर्षों से इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास के गावों के मामले भी हम ही देखते आए हैं महेंद्र सिंह जी।" पिता जी ने कहा____"ना तो इसके पहले कभी पुलिस या कानून का हमारे किसी मामले में कोई दखल हुआ था और ना ही कभी हो सकता है।"

पिता जी की बात सुन कर महेंद्र सिंह अभी कुछ कहने ही वाले थे कि तभी बैठक के बाहर किसी के आने की आहट हुई जिसके चलते वो चुप ही रहे। अगले ही पल पुलिस के दो अफ़सर खाकी वर्दी पहने बैठक में नमूदार हुए। दोनों ने बड़े अदब से पहले पिता जी को सिर नवाया और फिर बैठक में बैठे बाकी लोगों को। पिता जी ने इशारे से उन्हें खाली कुर्सियों में बैठ जाने को कहा तो वो दोनों धन्यवाद ठाकुर साहब कहते हुए बैठ गए।

"कहो एस पी।" पिता जी ने दोनों में से एक की तरफ देखते हुए कहा____"यहां आने का कैसे कष्ट किया और हां हमारे छोटे भाई तथा बेटे की लाशों का क्या हुआ? वो अभी तक हमें क्यों नहीं सौंपी गईं?"

"माफ़ कीजिए ठाकुर साहब।" एस पी ने खुद को संतुलित रखने का प्रयास करते हुए कहा____"ऐसे कामों में समय तो लगता ही है। हालाकि मैंने पूरी कोशिश की थी कि आपको इन्तज़ार न करना पड़े। ये मेरी कोशिश का ही नतीजा है कि मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की डेड बॉडी का जल्दी ही पोस्ट मॉर्टम हो गया। शाम होने से पहले ही वो आपको सुपुर्द कर दी जाएंगी।"

"तो आपको हमारे जिगर के टुकड़ों की डेड बॉडीज के साथ ही यहां आना चाहिए था।" पिता जी ने कहा____"इस तरह खाली हाथ यहां चले आने का सोचा भी कैसे आपने?"

"ज...जी वो बात दरअसल ये है कि हमें पता चला है कि यहां आपके द्वारा बहुत बड़ा नर संघार किया गया है।" एस पी ने भारी झिझक के साथ कहा____"बस उसी सिलसिले में हम यहां आए हैं। अगर आपकी इजाज़त हो तो हम इस मामले की छानबीन कर लें?"

"ख़ामोश।" पिता जी गुस्से से दहाड़ ही उठे____"तुम्हारे ज़हन में ये ख़याल भी कैसे आया कि तुम हमारे किसी मामले में दखल दोगे अथवा अपनी टांग अड़ाओगे? हमने अपने जिगर के टुकड़ों की डेड बॉडीज़ भी तुम्हें इस लिए ले जाने दिया था क्योंकि उस समय हमारी मानसिक अवस्था ठीक नहीं थी। किंतु इसका मतलब ये नहीं है कि हमने पुलिस को अपने किसी मामले में हस्ताक्षेप करने का अधिकार दे दिया है। ये मत भूलो कि वर्षों से हम खुद ही आस पास के सभी गांवों के मामलों का फ़ैसला करते आए हैं। न इसके पहले कभी पुलिस का कोई दखल हुआ था और ना ही कभी होगा।"

"म....माफ़ कीजिए ठाकुर साहब।" दूसरे पुलिस वाले ने झिझकते हुए कहा____"लेकिन ऐसा हमेशा तो नहीं हो सकता ना। इस देश के कानून को तो एक न एक दिन सबको मानना ही पड़ेगा।"

"लगता है तुम नए नए आए हो बर्खुरदार।" महेंद्र सिंह ने कहा____"इसी लिए ऐसा बोलने की हिमाकत कर रहे हो ठाकुर साहब से। ख़ैर तुम्हारे लिए बेहतर यही होगा कि तुम यहां पर कानून का पाठ मत पढ़ाओ किसी को।"

"अ...आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?" वो थोड़ा तैश में आ गया____"मैं इस देश के कानून का नुमाइंदा हूं और मेरा ये फर्ज़ है कि मैं ऐसे हर मामले की छानबीन करूं जिसे कानून को हाथ में ले कर अंजाम दिया गया हो।"

"अच्छा ऐसा है क्या?" अर्जुन सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा____"ज़रा हम भी तो देखें कि कानून के इस नुमाइंदे में कितना दम है? हमें दिखाओ कि हमारे मामले में कानून का नुमाइंदा बन कर तुम किस तरह से हस्ताक्षेप करते हो?"

"इन्हें माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" एस पी दूसरे पुलिस वाले के कुछ बोलने से पहले ही झट से बोल उठा____"इन्हें अभी आप सबके बारे में ठीक से पता नहीं है। यही वजह है कि ये आपसे ऐसे लहजे में बात कर रहे हैं।"

"य...ये आप क्या कह रहे हैं साहब?" दूसरा पुलिस वाला आश्चर्य से एस पी को देखते हुए बोला____"कानून के रक्षक हो कर आप ऐसी बात कैसे कह सकते हैं?"

"लाल सिंह।" एस पी ने थोड़े गुस्से में उसकी तरफ देखा और फिर कहा____"ये शहर नहीं है बल्कि वो जगह है जहां पर इस देश का कानून नहीं बल्कि यहां के ठाकुरों का कानून चलता है। अपने लहजे और तेवर को ठंडा ही रखो वरना जिस वर्दी के दम पर तुम ये सब बोलने की जुर्रत कर रहे हो उसे तुम्हारे जिस्म से उतरने में ज़रा भी समय नहीं लगेगा।"

अपने आला अफ़सर की ये डांट सुन कर लाल सिंह भौचक्का सा रह गया। हालाकि यहां आते समय रास्ते में एस पी ने उसे थोड़ा बहुत यहां के बारे में बताया भी था किंतु ये नहीं बताया था कि ऐसा बोलने पर उसके साथ ऐसा भी हो सकता है। बहरहाल एस पी के कहने पर उसने सभी से अपने बर्ताव के लिए हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगी। ये अलग बात है कि अंदर ही अंदर वो अपमानित सा महसूस करने लगा था।

"ठीक है ठाकुर साहब।" एस पी ने पिता जी की तरफ देखते हुए नम्रता से कहा____"अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो यही सही। वैसे भी मुझे ऊपर से ही ये हुकुम मिल गया था कि मैं आपके किसी मामले में कोई हस्ताक्षेप न करूं। मैं तो बस यहां यही बताने के लिए आया था कि मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की डेड बॉडीज को आज शाम होने से पहले ही आपके सुपुर्द कर दिया जाएगा। आपको हमारी वजह से जो तक़लीफ हुई है उसके लिए हम माफ़ी चाहते हैं।"

कहने के साथ ही एस पी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। उसके साथ ही उसका सहयोगी पुलिस वाला लाल सिंह भी जल्दी से उठ गया। उसके बाद वो दोनों सभी को नमस्कार कर के बैठक से बाहर निकल गए।

"एक वो वक्त था जब हमारे पिता जी के दौर में कोई पुलिस वाला गांव में घुसने की भी हिम्मत नहीं करता था।" पिता जी ने ठंडी सांस लेते हुए कहा____"और एक ये वक्त है जब कोई पुलिस का नुमाइंदा इस गांव में ही नहीं बल्कि हमारी हवेली की दहलीज़ को भी पार करने की जुर्रत कर गया। हमारी नर्मी का बेहद ही नाजायज़ फ़ायदा उठाया है सबने।"

"सब वक्त की बातें हैं ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। आज कम से कम अभी इतना तो है कि इतने बड़े संगीन मामले के बाद भी पुलिस अपना दखल देने से ख़ौफ खा गई है। ज़ाहिर है ये आपके पुरखों का बनाया हुआ कानून और ख़ौफ ही रहा है। सबसे ज़्यादा तो बड़े दादा ठाकुर का ख़ौफ रहा जिसके चलते कानून का कोई भी नुमाइंदा गांव की सरहद के इस पार क़दम भी नहीं रख सकता था। ख़ैर इसे आपकी नर्मी कहें अथवा समय का चक्र कि अब ऐसा नहीं रहा और यकीन मानिए आगे ऐसा भी समय आने वाला है जब यहां भी कानून का वैसा ही दखल होने लगेगा जैसा शहरों में होता है।"

"सही कहा आपने।" पिता जी ने सिर हिलाते हुए कहा____"यकीनन आने वाले समय में ऐसा ही होगा। ख़ैर ये तो बाद की बातें हैं किंतु ये जो कुछ हुआ है उसने हमें काफी ज़्यादा आहत और विचलित सा कर दिया है। हमें अब जा कर एहसास हो रहा है कि हमने साहूकारों का इस तरह से नर संघार कर के बिल्कुल भी ठीक नहीं किया है। माना कि वो सब अपराधी थे लेकिन उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। अपराधी तो मणि शंकर और उसके तीनों भाई थे जबकि उनके बच्चे तो निर्दोष ही थे। ऊपर वाला हमें इस जघन्य पाप के लिए नर्क में भी जगह नहीं देगा। काश! पंचायत में आपने हमें मौत की सज़ा सुना दी होती तो बेहतर होता। कम से कम हमें इस अजाब से तो मुक्ति मिल जाती। जीवन भर ऐसे भयानक पाप का बोझ ले कर हम कैसे जी सकेंगे?"

"अब तो आपको इस बोझ के साथ ही जीना होगा ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"अच्छा होगा कि अपने किए गए कृत्य के लिए आप कुछ इस तरह से प्रायश्चित करें जिससे आपकी आत्मा को शांति मिल सके।"

"ऐसा क्या करें हम?" पिता जी ने आहत भाव से कहा____"हमें तो अब कुछ समझ में ही नहीं आ रहा। मन करता है कि कहीं ऐसी जगह चले जाएं जहां इंसान तो क्या कोई परिंदा भी न रहता हो।"

"ऐसा सोचिए भी मत ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"क्योंकि ऐसी जगह पर जा कर भी आपको सुकून नहीं मिलेगा। शांति और सुकून प्रायश्चित करने से ही मिलेगा। अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप ऐसा क्या करें जिससे आपको ये प्रतीत हो कि उस कार्य से आपके अंदर का बोझ कम हो रहा है अथवा आपको सुकून मिल रहा है।"

✮✮✮✮

"मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी।" कमरे में भाभी के सामने पहुंचते ही मैंने सिर झुका कर कहा____"मैं आपसे किया हुआ वादा नहीं निभा सका। आपके सुहाग को छीनने वालों को मिट्टी में नहीं मिला सका।"

"कोई बात नहीं वैभव।" भाभी ने अधीरता से कहा____"शायद ऊपर वाला यही चाहता है कि मेरी आत्मा को कभी शांति ही न मिले। मुझे तुम शिकायत नहीं है क्योंकि तुमने उन हत्यारों का पता तो लगा ही लिया है जिन्होंने मेरे सुहाग को मुझसे छीन लिया है। पिछली रात जब तुम बिना किसी को कुछ बताए चले गए थे तो मैं बहुत घबरा गई थी। अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा था कि मैंने तुमसे अपने सुहाग के हत्यारे को मिट्टी में मिलाने की बात ही क्यों कही? अगर इसके चलते तुम्हें कुछ हो जाता तो कैसे मैं अपने आपको माफ़ कर पाती? सारी रात यही सोच सोच कर कुढ़ती रही। जान में जान तब आई जब मुझे पता चला कि तुम सही सलामत वापस आ गए हो। अब मैं तुमसे कहती हूं कि तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना है जिसकी वजह से तुम्हें कुछ हो जाए। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहती कि तुम्हें कुछ हो जाए। तुम इस हवेली का भविष्य हो वैभव। तुम्हें हम सबके लिए सही सलामत रहना है।"

"और आपका क्या?" मैंने भाभी की नम हो चुकी आंखों में देखते हुए कहा____"क्या आपको कभी उन हत्यारों के जीवित रहते आत्मिक शांति मिलेगी जिन्होंने आपके सुहाग को छीन कर आपकी ज़िंदगी को नर्क बना दिया है?"

"सच तो ये है वैभव कि उन ज़ालिमों के मर जाने पर भी मुझे आत्मिक शांति नहीं मिल सकती।" भाभी ने दुखी भाव से कहा____"क्योंकि उनके मर जाने से मेरा सुहाग मुझे वापस तो नहीं मिल जाएगा न। मेरे दिल को खुशी तो तभी मिलेगी ना जब मेरा सुहाग मुझे वापस मिल जाए किंतु इस जीवन में तो अब ऐसा संभव ही नहीं है। तुमने अपनी क़सम दे कर मुझे जीने के लिए मजबूर कर दिया है तो अब मुझे जीना ही पड़ेगा।"

"मैं आपसे वादा करता हूं भाभी कि चाहे मुझे जो भी करना पड़े।" मैंने भाभी की दोनों बाजुओं को थाम कर कहा____"लेकिन आपको खुशियां ज़रूर ला कर दूंगा। आपसे बस यही विनती है कि आप खुद को कभी भी अकेला महसूस नहीं होने देंगी और ना ही चेहरे पर उदासी के बादलों को मंडराने देंगी।"

"तुम्हारी खुशी के लिए ये मुश्किल काम ज़रूर करूंगी।" भाभी ने कहा____"ख़ैर ये बताओ कि वो लड़की कौन थी जिसने पंचायत में आते ही तुम्हारा नाम ले कर सुनहरा इतिहास बनाने की बातें कह रही थी?"

भाभी के इस सवाल पर मैं एकदम से गड़बड़ा गया। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि उन्होंने पंचायत में किसी ऐसी लड़की को देखा ही नहीं था बल्कि उसकी बातें भी सुनी थीं।

"इतना तो मैं जान चुकी हूं कि वो साहूकारों की बेटी है।" भाभी ने कहा____"किंतु अब ये जानना चाहती हूं कि वो तुम्हें कैसे जानती है? वो भी इस तरह कि इतने सारे लोगों के रहते हुए भी उसने तुम्हारी बात का समर्थन किया और तुम्हारा नाम ले कर वो सब कहा। तुम्हारी बात का समर्थन करते हुए वो अपने ही परिवार के खिलाफ़ बोले जा रही थी। क्या मैं ये समझूं कि साहूकारों की उस लड़की के साथ तुम्हारा पहले से ही कोई चक्कर रहा है?"

"आप ये सब मत पूछिए भाभी।" मैंने असहज भाव से कहा____"बस इतना समझ लीजिए कि मेरा नाम दूर दूर तक फैला हुआ है।"
"हे भगवान!" भाभी ने हैरत से आंखें फैला कर मुझे देखा____"तो मतलब ऐसी बात है, हां?"

"क...क्या मतलब??" मैं उनकी बात सुन कर बुरी तरह चौंका।
"जाओ यहां से।" भाभी ने एकदम से नाराज़गी अख़्तियार करते हुए कहा____"मुझे अब तुमसे कोई बात नहीं करना।"

"म...मेरी बात तो सुनिए भाभी।" मैं उनकी नाराज़गी देख अंदर ही अंदर घबरा उठा।

"क्या सुनूं मैं?" भाभी ने इस बार गुस्से से देखा मुझे____"क्या ये कि तुमने अपने नाम का झंडा कहां कहां गाड़ रखा है? कुछ तो शर्म करो वैभव। किसी को तो बक्स दो। मुझे तो अब ऐसा लग रहा है कि ये सब जो कुछ भी हुआ है उसमें तुम्हारी इन्हीं करतूतों का सबसे बड़ा हाथ है।"

"मानता हूं भाभी।" मैंने शर्मिंदा हो कर कहा____"मगर यकीन मानिए अब मैं वैसा नहीं रहा। चार महीने के वनवास ने मुझे मुकम्मल रूप से बदल दिया है। पहले ज़रूर मैं ऐसा था लेकिन अब नहीं हूं, यकीन कीजिए।"

"कैसे यकीन करूं वैभव?" भाभी ने उसी नाराज़गी से कहा____"क्या तुम्हें लगता है कि तुम पर कोई इन बातों के लिए यकीन कर सकता है?"

"जानता हूं कि कोई यकीन नहीं कर सकता।" मैंने सिर झुका कर कहा____"मगर फिर भी आप यकीन कीजिए। अब मैं वैसा नहीं रहा।"

"अच्छा।" भाभी ने मेरी आंखों में देखा____"क्या यही बात तुम मेरे सिर पर हाथ रख कर कह सकते हो?"

भाभी की ये बात सुन कर मैं कुछ न बोल सका। बस बेबसी से देखता रहा उन्हें। मुझे कुछ न बोलता देख उनके होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई।

"देखा।" फिर उन्होंने कहा____"मेरे सिर पर हाथ रखने की बात सुनते ही तुम्हारी बोलती बंद हो गई। मतलब साफ है कि तुम अभी भी वैसे ही हो जैसे हमेशा से थे। भगवान के लिए ये सब बंद कर दो वैभव। एक अच्छा इंसान बनो। ऐसे काम मत करो जिससे लोगों की बद्दुआ लगे तुम्हें। यकीन मानो, तुम में सिर्फ़ यही एक ख़राबी है वरना तुमसे अच्छा कोई नहीं है।"

"अब से आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने की पूरी कोशिश करूंगा भाभी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"अब से आपको कभी भी मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी।"

"अगर ऐसा सच में हो गया।" भाभी ने कहा____"तो यकीन मानो, भले ही ईश्वर ने मुझे इतना बड़ा दुख दे दिया है लेकिन इसके बावजूद मुझे तुम्हारे इस काम से खुशी होगी।"

उसके बाद मैं अपने कमरे में चला आया। जाने क्यों अब मुझे ये सोच कर अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसा क्यों हूं मैं? आज से पहले क्यों मैंने ऐसे घिनौने कर्म किए थे जिसके चलते मेरी छवि हर किसी के मन में ख़राब बनी हुई है? मेरी इसी ख़राब छवि के चलते अनुराधा ने उस दिन मुझे वो सब कह दिया था। हालाकि ये सच है कि उसके बारे में मैं सपने में भी ग़लत नहीं सोच सकता था इसके बावजूद उसने मुझ पर भरोसा नहीं किया और मुझे वो सब कह दिया था। अचानक ही मुझे भुवन की बातें याद आ गईं। उसने कहा था कि अनुराधा मुझसे प्रेम करती है। मैं सोचने लगा कि क्या ये सच है या उसने अनुराधा के बारे में ग़लत अनुमान लगा लिया है? मुझे याद आया कि आज पंचायत में अनुराधा मुझे ही देखे जा रही थी। मैंने हर बार उससे अपनी नज़रें हटा ली थीं इस लिए मुझे उसके हाल का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं हो पाया था किंतु इतना ज़रूर समझ सकता हूं कि उसमें कुछ तो बदलाव यकीनन आया है। ऐसा इस लिए क्योंकि अगर वो मुझसे नफ़रत कर रही होती तो यूं मुझे ही न देखती रहती। कोई इंसान जब किसी को पसंद नहीं करता अथवा उससे घृणा करता है तो वो उस इंसान की शकल तक नहीं देखना चाहता किंतु यहां तो अनुराधा को मैंने जब भी देखा था तो उसे मैंने अपनी तरफ ही देखते पाया था। मतलब साफ है कि या तो भुवन की बात सच थी या फिर उसमें थोड़ा बहुत बदलाव ज़रूर आया है। एकाएक ही मैंने महसूस किया कि इस बारे में मैं सच जानने के लिए काफी उत्सुक और बेचैन हो उठा हूं।

रूपा, इस नाम को कैसे भूल सकता था मैं?
आज पंचायत में जिस तरह से उसने मेरी बात का समर्थन करते हुए मेरा नाम ले कर वो सब कहा था उसे देख सुन कर मैं हैरत में ही पड़ गया था। उसकी बातों से साफ पता चल रहा था कि उसे हमारे इस मामले के बारे में पहले से कुछ न कुछ पता था और इस बात का ज़िक्र भी उसने किया था।

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मैं चौंक पड़ा। किसी बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभरा कि कहीं ये रूपा ही तो नहीं थी जिसका ज़िक्र पिता जी ने इस बात पर किया था कि चंदनपुर में मुझे जान से मारने की जब साहूकारों ने मुंशी के साथ मिल कर योजना बनाई थी तो उसी समय हवेली में दो औरतें इस बात की सूचना देने आईं थी?

ज़हन में इस ख़याल के आते ही मैं आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा। एकदम से मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि कैसे?? मतलब कि अगर उन दो औरतों में से एक रूपा ही थी तो उसे ये कैसे पता चला था कि कुछ लोग मुझे जान से मारने के लिए अगली सुबह चंदनपुर जाने वाले हैं? ये एक ऐसा सवाल था जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था।



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अब सोचने वाली बात ये है कि पुलिस को सूचना किसने दी ?????और दादा ठाकुर ने पुलिस वाले को जवाब तो दे दिया लेकिन अब वे नाम के ही ठाकुर रह गए हैं सच में ठाकुर को अपनी गलती पर पछतावा है लेकिन अब पछताने से क्या फायदा इसलिए कोई भी काम सोच समझ कर करना चाहिए जल्दबाजी और गुस्से में कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए ।
 
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ज़हन में इस ख़याल के आते ही मैं आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा। एकदम से मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि कैसे?? मतलब कि अगर उन दो औरतों में से एक रूपा ही थी तो उसे ये कैसे पता चला था कि कुछ लोग मुझे जान से मारने के लिए अगली सुबह चंदनपुर जाने वाले हैं? ये एक ऐसा सवाल था जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था।


अब आगे....


हवेली में एक बार फिर से कोहराम सा मच गया था। असल में पुलिस वाले जगताप चाचा और बड़े भैया की लाशों को पोस्ट मॉर्टम करने के बाद हवेली ले आए थे। हवेली के विशाल मैदान में लकड़ी के तख्ते पर दोनों लाशें लिटा कर रख दी गईं थी। मां, मेनका चाची, कुसुम और रागिनी भाभी दहाड़ें मार मार कर रोए जा रहीं थी। यूं तो अर्जुन सिंह का सुझाव था कि लाशों को सीधा शमशान भूमि में ही ले जाएं और पिता जी मान भी गए थे किंतु मां के आग्रह पर उन्हें घर ही लाया गया था। मां का कहना था कि कम से कम आख़िरी बार तो वो सब उन्हें अपनी आंखों से देख लें।

गांव की औरतें और चाची के ससुराल से आई उनकी एक भाभी सबको सम्हालने में लगी हुईं थी। पिता जी एक तरफ खड़े थे। उनकी आंखों में नमी थी। विभोर और अजीत भी सिसक रहे थे। दूसरी तरफ मैं भी खुद को अपने जज़्बातों के भंवर से निकालने की नाकाम कोशिश करते हुए खड़ा था। आख़िर सभी बड़े बुजुर्गों के समझाने बुझाने के बाद किसी तरह घर की औरतों का रुदन बंद हुआ। उसके बाद सब अंतिम संस्कार करने की तैयारी में लग गए।

क़रीब एक घंटे बाद दोनों लाशों को अर्थी पर रख कर तथा फिर उन्हें कंधों में ले कर शमशान की तरफ चल दिया गया। लोगों का हुजूम ही इतना इकट्ठा हो गया था कि एक बहुत लंबी कतार सी बन गई थी। पिता जी उस वक्त खुद को बिल्कुल भी सम्हाल नहीं पाए थे जब उन्हें अपने ही बड़े बेटे की अर्थी को कंधा देने को कहा गया। उन्होंने साफ इंकार कर दिया कि ये उनसे नहीं हो सकेगा। उसके बाद उन्होंने जगताप चाचा की अर्थी को कंधे पर ज़रूर रख लिया था। उनके साथ अर्जुन सिंह, चाचा का साला और खुद जगताप चाचा का बड़ा बेटा विभोर था। इधर बड़े भैया की अर्थी को मैं अपने कंधे पर रखे हुए था। मेरे साथ भैया का साला, शेरा और भुवन थे।

शमशान भूमि जो कि हमारी ज़मीनों का ही एक हिस्सा थी वहां पर पहले से ही दो चिताएं बना दी गईं थी। पूरा गांव ही नहीं बल्कि आस पास के गावों के भी बहुत से लोग आ कर जमा हो गए थे।

पंडित जी द्वारा क्रियाएं शुरू कर दी गईं। जगताप चाचा को चिताग्नि देने के लिए उनका बड़ा बेटा विभोर था जबकि भैया का अंतिम संस्कार करने के लिए मैं था। शमशान में खड़े हर व्यक्ति की आंखें नम थी। इतनी भीड़ के बाद भी गहन ख़ामोशी विद्यमान थी। कुछ ही देर में क्रिया संपन्न हुई तो मैंने और विभोर ने एक एक कर के चिता में आग लगा दी। भैया का चेहरा देख बार बार मेरा दिल करता था कि उनसे लिपट जाऊं और खूब रोऊं मगर बड़ी मुश्किल से मैं खुद को रोके हुए था।

दूसरी तरफ साहूकारों की अपनी ज़मीन पर जो शमशान भूमि थी वहां भी जमघट लगा हुआ था। साहूकारों के चाहने वाले तथा उनके सभी रिश्तेदार आ गए थे। सभी ने मिल कर मृत लोगों के लिए चिता तैयार कर दी थी और फिर सारी क्रियाएं करने के बाद रूपचंद्र ने एक एक कर के आठों चिताओं पर आग लगा दी। आज का दिन दोनों ही परिवारों के लिए बेहद ही दुखदाई था। खास कर साहूकारों के लिए क्योंकि उनके घर के एक साथ आठ सदस्यों का मरण हुआ था और ज़ाहिर है जाने वाले अब कभी वापस नहीं आने वाले थे।

अंतिम संस्कार के बाद बहुत से लोग शमशान से ही अपने अपने घर वापस चले गए और कुछ हमारे साथ ही खेत में बने एक बड़े से कुएं में नहाने के लिए आ गए। सबसे पहले मैं और विभोर नहाए और फिर मृतात्माओं को तिलांजलि दी। उसके बाद सभी एक एक कर के नहाने के बाद यही क्रिया दोहराने लगे। उसके बाद हम सब वापस हवेली की तरफ चल पड़े।

✮✮✮✮

रात बड़ी मुश्किल से गुज़री और फिर नया सवेरा हुआ। हमारे जो भी रिश्तेदार आए हुए थे वो जाने को तैयार थे। नाना जी सबसे बुजुर्ग थे इस लिए उन्होंने सबको समझाया बुझाया और अच्छे से रहने को कहा। उसके बाद सभी चले गए। सबके जाने के बाद हवेली में जैसे सन्नाटा सा छा गया।

मैंने और विभोर ने क्योंकि दाग़ लिया था इस लिए हम दोनों के लिए बैठक के पास ही एक अलग कमरा दे दिया गया था। हम दोनों तब तक हवेली के अंदर की तरफ नहीं जा सकते थे जब तक कि हम शुद्ध नहीं हो जाते अथवा तेरहवीं नहीं हो जाती। ऐसे मामलों में कुछ नियम थे जिनका हमें पालन करना अनिवार्य था।

ख़ैर दिन ऐसे ही गुज़रने लगे और फिर ठीक नौवें दिन शुद्ध हुआ जिसमें हवेली के सभी मर्द और लड़कों ने सिर का मुंडन करवाया। इस बीच शेरा को और अपने कुछ खास आदमियों को इस बात की ख़ास हिदायत दी गई थी कि वो साहूकारों और मुंशी चंद्रकांत पर नज़र रखे रहें। कोई भी संदिग्ध बात समझ में आए तो फ़ौरन ही उसकी सूचना दादा ठाकुर को दें। सफ़ेदपोश की तलाश भी गुप्त रूप से हो रही थी। हालाकि इन नौ दिनों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। ख़ैर ऐसे ही तीन दिन और गुज़र गए और तेरहवीं का दिन आ गया।

तेरहवीं का कार्यक्रम बड़े ही विशाल तरीके से हुआ। जिसमें आस पास के गांव वालों को भोजन ही नहीं बल्कि उन्हें यथोचित दान भी दिया गया। साहूकारों के यहां भी तेरहवीं थी इस लिए वहां भी उनकी क्षमता के अनुसार सब कुछ किया गया। इस सबमें पूरा दिन ही निकल गया। तेरहवीं के दिन मेरे मामा मामी लोग और विभोर के मामा मामी भी आए हुए थे और साथ ही भैया के ससुराल वाले भी। सारा कार्यक्रम बहुत ही बेहतर तरीके से संपन्न हो गया था। सारा दिन हम सब कामों में लगे हुए थे इस लिए थक कर चूर हो गए थे। रात में जब बिस्तर मिला तो पता ही न चला कब नींद ने हमें अपनी आगोश में ले लिया।

अगले दिन एक नई सुबह हुई। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सब कुछ बदला बदला सा है। इतने सारे लोगों के बीच भी एक अकेलापन सा है। सुबह नित्य क्रिया से फुर्सत होने के बाद और कपड़े वगैरह पहन कर जब मैं अपने कमरे से निकल कर सीढ़ियों की तरफ आया तो सहसा मेरी नज़र भाभी पर पड़ गई।

सफ़ेद साड़ी पहने तथा हाथ में पूजा की थाली लिए वो सीढ़ियों से ऊपर आ रहीं थी। यूं तो वो पहले भी ज़्यादा सजती संवरती नहीं थी क्योंकि उन्हें सादगी में रहना पसंद था और यही उनकी सबसे बड़ी खूबसूरती होती थी किंतु अब ऐसा कुछ नहीं था। उनके चेहरे पर एक वीरानी सी थी जिसमें न कोई आभा थी और न ही कोई भाव। जैसे ही वो ऊपर आईं तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ गई।

"प्रणाम भाभी।" वो जैसे ही मेरे समीप आईं तो मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया। उनके चेहरे पर मौजूद भावों में कोई परिवर्तन नहीं आया, बोलीं____"हमेशा खुश रहो, ये लो प्रसाद।"

"अब भी आप भगवान की पूजा कर रही हैं?" मैंने उनके बेनूर से चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा___"बड़े हैरत की बात है कि जिस भगवान ने आपकी पूजा आराधना के बदले सिर्फ और सिर्फ दुख दिया उसकी अब भी पूजा कर रही हैं आप?"

"खुद को बहलाने के लिए मेरे पास और कुछ है भी तो नहीं।" भाभी ने सपाट लहजे में कहा____"जिसके लिए हवेली की चार दीवारों के अंदर ही अपना सारा जीवन गुज़ार देना मुकद्दर बन गया हो वो और करे भी तो क्या? ख़ैर, अब मैं ये पूजा अपने लिए नहीं कर रही हूं वैभव बल्कि अपनों के लिए कर रही हूं। मेरे अंदर अब किसी चीज़ की ख़्वाइश नहीं है किंतु हां इतना ज़रूर चाहती हूं कि दूसरों की ख़्वाइशें पूरी हों और वो सब खुश रहें।"

"और जिन्हें आपको खुश देख कर ही खुशी मिलती हो वो कैसे खुश रहें?" मैंने उनकी सूनी आंखों में देखते हुए पूछा।

"दुनिया में सब कुछ तो नहीं मिल जाया करता न वैभव?" भाभी ने कहा____"और ना ही किसी की हर इच्छा पूरी होती है। किसी न किसी चीज़ का दुख अथवा मलाल तो रहता ही है। इंसान को यही सोच कर समझौता कर लेना पड़ता है।"

"मैं किसी और का नहीं जानता।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप खुश रहें। आप मुझे बताइए भाभी कि आपके लिए मैं ऐसा क्या करूं जिससे आपके चेहरे का नूर लौट आए और आपके होठों पर खुशी की मुस्कान उभर आए?"

"तुम्हें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है।" भाभी ने सहसा अपने दाहिने हाथ से मेरे बाएं गाल को सहला कर कहा____"किंतु हां, अगर तुम चाहते हो कि मुझे किसी बात से खुशी मिले तो सिर्फ इतना ही करो कि एक अच्छे इंसान बन जाओ।"

"मैंने आपसे कहा था ना कि अब मैं वैसा नहीं हूं?" मैंने कहा____"क्या अभी भी आपको मुझ पर यकीन नहीं है?"

"ये सवाल अपने आपसे करो वैभव।" भाभी ने कहा____"और फिर सोचो कि क्या सच में तुम पर इतना जल्दी कोई यकीन कर सकता है?"

मैं भाभी की बात सुन कर ख़ामोश रह गया। मुझे कुछ न बोलता देख उनके होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई। फिर वो बिना कुछ कहे अपने कमरे की तरफ चली गईं और मैं बुत बना देखता रह गया उन्हें। बहरहाल मैंने खुद को सम्हाला और नीचे जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला।

रास्ते में मैं भाभी की बातों के बारे में ही सोचता जा रहा था। इस बात को तो अब मैं खुद भी समझता था कि आज से पहले तक किए गए मेरे कर्म बहुत ही ख़राब थे और ये उन्हीं कर्मों का नतीजा है कि कोई मेरे अच्छा होने पर यकीन नहीं कर रहा था। मैंने मन ही मन फ़ैसला कर लिया कि अब से चाहे जो हो जाए एक अच्छा इंसान ही बनूंगा। वो काम हर्गिज़ नहीं करूंगा जिसके लिए मैं ज़माने में बदनाम हूं और ये भी कि जिसकी वजह से कोई मुझ पर भरोसा करने से कतराता है।

आंगन से होते हुए मैं दूसरी तरफ के बरामदे में आया तो देखा मां और चाची गुमसुम सी बैठी हुईं थी। कुसुम नज़र नहीं आई, शायद वो रसोई में थी। मेनका चाची को सफ़ेद साड़ी में और बिना कोई श्रृंगार किए देख मेरे दिल में एक टीस सी उभरी। मुझे समझ में न आया कि अपनी प्यारी चाची के मुरझाए चेहरे पर कैसे खुशी लाऊं?

"अरे! आ गया तू?" मुझ पर नज़र पड़ते ही मां ने कहा____"अब तू ही समझा अपनी चाची को।"
"क...क्या मतलब?" मैं चौंका____"क्या हुआ चाची को?"

"तेरी चाची मुझे अकेला छोड़ कर अपने मायके जा रही है।" मां ने दुखी भाव से कहा____"और अपने साथ कुसुम तथा दोनों बच्चों को भी लिए जा रही है। अब तू ही बता बेटा मैं इसके और कुसुम के बिना यहां अकेली कैसे रह पाऊंगी?"

"बस कुछ ही दिनों के लिए जाना चाहती हूं दीदी।" मेनका चाची ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा___"पिता जी और भैया भाभी से तो मिल चुकी हूं लेकिन मां को देखे बहुत समय हो गया है। बहुत याद आ रही है मां की। कुछ दिन मां के पास रहूंगी तो शायद मन को थोड़ा सुकून मिल जाए और ये दुख भी कम हो जाए।"

"चाची सही कह रहीं हैं मां।" मैं चाची की मनोदशा को समझते हुए बोल पड़ा____"आप तो अच्छी तरह समझती हैं कि जो सुकून और सुख एक मां के पास मिल सकता है वो किसी और के पास नहीं मिल सकता। इस लिए इन्हें जाने दीजिए। कुछ दिनों बाद मैं खुद जा कर चाची और कुसुम को ले आऊंगा।"

"तू भी इसी का पक्ष ले रहा है?" मां ने दुखी हो के कहा____"मेरे बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा है यहां।"

"ये आप कैसी बात कर रही हैं मां?" मैंने कहा____"मुझे पता है कि इस समय हम सब किस मनोदशा से गुज़र रहे हैं। इस लिए यहां सिर्फ एक के बारे में सोचने का सवाल ही नहीं है बल्कि सबके बारे में सोचने की ज़रूरत है। आप इस हवेली में पिता जी के बाद सबसे बड़ी हैं इस लिए सबके बारे में सोचना आपका पहला कर्तव्य है। चाची को जाने दीजिए और ये मत समझिए कि आपके बारे में कोई सोच नहीं रहा है।"

आख़िर मां मान गईं। मुझे याद आया कि चाची के साथ कुसुम भी जा रही है। मैंने चाची से कुसुम के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अपने कमरे में जाने की तैयारी कर रही है। मैं फ़ौरन ही कुसुम के पास ऊपर उसके कमरे में पहुंच गया। दरवाज़ा खटखटाया तो अंदर से कुसुम की आवाज़ आई____'दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं है, आ जाइए।'

मैं जैसे ही दरवाज़ा खोल कर अंदर दाखिल हुआ तो कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी। वो मुझे देखते ही उदास सी हो कर खड़ी हो गई। मैं उसके क़रीब पहुंचा।

"माफ़ कर दे मुझे।" मैंने उसके बाजुओं को थाम कर कहा____"हालात ही ऐसे बने कि मुझे अपनी लाडली बहन से मिलने का समय ही नहीं मिल सका।"

"कोई बात नहीं भैया।" कुसुम ने कहा____"हमेशा सब कुछ अच्छा थोड़े ना होता रहता है। कभी कभी ऐसा बुरा भी हो जाता है कि फिर उसके बाद कभी अच्छा होने की इंसान कल्पना भी नहीं कर सकता।"

"इतनी बड़ी बड़ी बातें मत बोला कर तू।" मैंने उसे खुद से छुपका लिया____"तेरे मुख से ऐसी बातें बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। मैं जानता हूं कि हमारे साथ बहुत बुरा हो चुका है लेकिन इसके बावजूद हमें इस दुख से उबर कर आगे बढ़ना होगा। मैं चाहता हूं कि मेरी बहन पहले जैसी शोख और चंचल हो जाए। पूरी हवेली पहले की तरह तेरे चहकने से गूंजने लगे।"

"बहुत मुश्किल है भैया।" कुसुम सिसक उठी____"अब तो ऐसा लगता है कि जिस्म के अंदर जान बची रहे यही बहुत बड़ी बात है।"

"सब ठीक हो जाएगा, तू किसी चीज़ के बारे में इतना मत सोचा कर।" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए कहा____"ख़ैर ये बता मामा के यहां जा रही है तो वापस कब आएगी? तुझे पता है ना कि मैं अपनी लाडली बहन को देखे बिना नहीं रह सकता।"

"मैं तो जाना ही नहीं चाहती थी।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"मां के कहने पर जा रही हूं। सच कहूं तो मेरा कहीं भी जाने का मन नहीं करता। हर पल बस पिता जी और बड़े भैया की ही याद आती है। आंखों के सामने से वो दृश्य जाता ही नहीं जब उनको तख्त में निर्जीव पड़े देखा था। भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया भैया?"

कहने के साथ ही कुसुम सिसक सिसक कर रोने लगी। उसकी आंखों से बहते आसूं देख मेरा कलेजा हिल गया। मैंने फिर से उसे खींच कर खुद से छुपका लिया और फिर उसे शांत करने की कोशिश करने लगा। आख़िर कुछ देर में वो शांत हुई तो मैंने उसे जल्दी से तैयार हो जाने को कहा और फिर बाहर चला आया।

जगताप चाचा और बड़े भैया की मौत हम सबके के लिए एक गहरा आघात थी जिसका दुख सहन करना अथवा हजम कर लेना हम में से किसी के लिए भी आसान नहीं था। हवेली में रहने वाला हर व्यक्ति जैसे इस अघात से टूट सा गया था। मैंने इस बात का तसव्वुर भी नहीं किया था कि ऐसा भी कुछ हो जाएगा।

नीचे आया तो देखा सब जाने के लिए तैयार थे। मैं सबसे मिला और फिर चाची का झोला ले जा कर बाहर मामा जी की जीप में रख दिया। जीप में विभोर और अजीत पहले से ही जा कर बैठ गए थे। कुछ देर में कुसुम और चाची भी आ गईं। पिता जी के चेहरे पर अजीब से भाव थे, शायद अपने अंदर उमड़ रहे जज़्बात रूपी बवंडर को काबू करने का प्रयास कर रहे थे। सब एक दूसरे से मिले और फिर पिता जी से इजाज़त ले कर जीप में बैठ गए। अगले ही पल जीप चल पड़ी। पिता जी ने सुरक्षा का ख़याल रखते हुए शेरा के साथ कुछ आदमियों को उनके पीछे जीप में भेज दिया था। शेरा को आदेश था कि गांव की सरहद से ही नहीं बल्कि उससे भी आगे तक उन्हें सही सलामत भेज कर आए।

✮✮✮✮

"कहां जा रहे हो?" मैं मोटर साईकिल की चाभी लिए जैसे ही बैठक के सामने से निकला तो पिता जी की आवाज़ सुन कर एकदम से रुक गया। फिर पलट कर बैठक में पिता जी के सामने आ गया।

"बैठो यहां पर।" उन्होंने अपने पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं बैठ गया। इस वक्त बैठक में मां भी बैठी हुईं थी, बाकी कोई नहीं था।

"ये तो तुम्हें भी पता है कि जो कुछ हमारे साथ हुआ है उससे हम सब कितना दुखी हैं।" पिता जी ने जैसे भूमिका बनाते हुए कहा____"एक तरह से ये समझ लो कि सब कुछ बिखर सा गया है। दिल तो यही करता है कि सब कुछ त्याग कर कहीं चले जाएं मगर जानते हैं कि जीवन ऐसे नहीं चलता। इसे मजबूरी कहो या बेबसी कि हमें इतना कुछ होने के बाद भी अपने लिए न सही मगर अपनों के लिए जीना ही पड़ता है और इसके साथ साथ वो सब कुछ भी करना पड़ता है जो जीवन में अपनों के लिए ज़रूरी होता है। इस लिए हम उम्मीद करते हैं कि ऐसे हालात में तुम हवेली में रहने वालों के लिए एक मजबूत सहारा बनोगे। अपने छोटे भाई और बेटे को खोने के बाद हम ऐसा महसूस कर रहें हैं जैसे हम एकदम से ही असहाय हो गए हैं। क्या तुम अपने पिता को सहारा नहीं दोगे?"

"य...ये आप कैसी बातें कर रहे हैं पिता जी?" मैंने अपने अंदर अजीब सी हलचल होती महसूस की____"मैं आपको सहारा न दूं अथवा अपनों के बारे में न सोचूं ऐसा तो सपने में भी नहीं हो सकता। ईश्वर करे कि आप क़यामत तक हमारे पास रहें। आप हमारे लिए सब कुछ हैं पिता जी, आपके बिना हम जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"किसी के जीवन का कोई भरोसा नहीं है बेटे।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा____"ऊपर वाला इंसान को कब अपने पास बुला ले इस बारे में कोई नहीं जानता। वैसे भी इस संसार सागर से हर किसी को एक दिन तो जाना ही होता है। ख़ैर हमें तुमसे ये सुन कर अच्छा तो लगा ही किन्तु इसके साथ बेहद संतोष भी हुआ कि तुम अपनों के लिए ऐसा सोचते हो। हम चाहते हैं कि तुम अब पूरी ईमानदारी के साथ अपनी हर ज़िम्मेदारी को निभाओ और हर उस व्यक्ति को खुश रखो जो तुम्हारा अपना है।"

"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"अब से मैं अपनी हर ज़िम्मेदारी को निभाऊंगा और सबको खुश रखने की हर संभव कोशिश करूंगा।"

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"हमारा छोटा भाई था तो हमें कभी किसी चीज़ की चिंता नहीं रहती थी। हमारी ज़मीनों में होने वाली खेती बाड़ी को वही देखता था। हमारी ज़मीनों पर कौन सी फ़सल किस जगह पर लगवानी है ये सब वही देखता और करवाता था किन्तु अब ये सब तुम्हें देखना होगा।"

"आप बेफिक्र रहें पिता जी।" मैंने कहा____"मैं सब कुछ सम्हाल लूंगा।"

"चंद्रकांत हमारा मुंशी था।" पिता जी ने आगे कहा____"वो हमारे सभी बही खातों का हिसाब किताब रखता था। किससे कितना लेन देन है और किसने कितना हमसे कर्ज़ ले रखा है ये सब वही हिसाब किताब रखता था। अब क्योंकि वो हमारा मुंशी नहीं रहा इस लिए हमें इन सब कामों के लिए एक ऐसा व्यक्ति चाहिए जो ईमानदार हो, सच्चा हो और साथ ही वो हमारे इन सभी कामों को कुशलता पूर्वक कर सके।"

"तो क्या आपकी नज़र में है कोई ऐसा व्यक्ति?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"ऐसे कुछ लोग हमारी जानकारी में तो हैं।" पिता जी ने कहा____"लेकिन उनके बारे में भी बस सुना ही है हमने। दुनिया में इंसान जिस तरह नज़र आते हैं वो असल में वैसे होते नहीं हैं इस लिए जब तक हमें उनके अंदर का सच नज़र नहीं आएगा तब तक हम ऐसे कामों के लिए किसी को नहीं रख सकते।"

"ठीक है जैसा आपको ठीक लगे कीजिए।" मैंने शालीनता से कहा।

"अब हमारी सबसे महत्वपूर्ण बात सुनो।" पिता जी ने कहा____"और वो ये कि अब से तुम अपने गुस्से और ब्यौहार पर नियंत्रण रखोगे। अब हम मुखिया नहीं रहे इस लिए अपना हर काम तुम्हें सोच समझ कर ही करना होगा। हम ये हर्गिज़ नहीं चाहते कि तुम अपनी किसी ग़लत हरकत की वजह से किसी गहरी मुसीबत में फंस जाओ।"

"जी मैं इस बात का ख़याल रखूंगा।" मैंने कहा।

"साहूकारों के अथवा मुंशी के परिवार के किसी भी सदस्य से तुम कोई मतलब नहीं रखोगे।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए ठोस लहजे में कहा____"ये संभव है कि तुम्हारे उग्र स्वभाव के आधार पर वो तुम्हें उकसाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके द्वारा उकसाए जाने पर अगर तुम गुस्से में आ कर कोई ग़लत क़दम उठा लोगे तो ज़ाहिर है किसी न किसी मुसीबत में फंस जाओगे और तब वो पंचायत के फ़ैसले पर सवाल खड़ा करने लगेंगे। इस लिए हम चाहते हैं कि अगर इत्तेफ़ाक से तुम्हारा उन लोगों से सामना हो जाए और वो तुम्हें किसी तरह से उकसाने की कोशिश करें तो तुम उन्हें नज़रअंदाज़ कर के निकल जाओगे।"

"जी मैं समझ गया।" मैंने सिर हिलाया।
"अभी कहां जा रहे थे तुम?" पिता जी ने पूछा।
"बस यूं ही मन बहलाने के लिए बाहर जाना चाहता था।" मैंने कहा।

"मत भूलो कि ख़तरा अभी टला नहीं है।" पिता जी ने कहा____"हमारी जान का एक ऐसा दुश्मन बाहर कहीं भटक रहा है जो खुद को हर किसी से छिपा के रखता है। हमारा मतलब उस रहस्यमय सफ़ेदपोश से है जो कई बार तुम्हें जान से मारने अथवा मरवाने की कोशिश कर चुका है।"

"हे भगवान! ये सब क्या हो रहा है?" सहसा मां बोल पड़ीं____"हमने तो कभी किसी के साथ कुछ बुरा नहीं किया फिर क्यों ऐसे लोग हमारी जान के दुश्मन बने हुए हैं?"

"इस दुनिया में बेवजह कुछ नहीं होता सुगंधा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"हर चीज़ के होने के पीछे कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। साहूकार और चंद्रकांत क्यों हमारी जान के दुश्मन थे इसकी वजह उस दिन पंचायत में उन दोनों ने सबको बताई थी। इसी तरह उस सफ़ेदपोश के पास भी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी जिसके चलते वो हमारे बेटे को जान से मारने पर आमादा है। हमने तो यही सोचा था कि सफ़ेदपोश जैसा रहस्यमय व्यक्ति साहूकारों में से या फिर मुंशी के घर वालों में से ही कोई होगा मगर उस दिन उन लोगों ने जब सफ़ेदपोश के बारे में अपनी अनभिज्ञता तथा किसी ताल्लुक से इंकार किया तो हमें बड़ी हैरानी हुई। हम सोच में पड़ गए थे कि अगर वो सफ़ेदपोश इन लोगों में से कोई नहीं है तो फिर आख़िर वो है कौन?"

"सच में ये बहुत ही बड़ी हैरानी की बात है पिता जी।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"आपकी तरह मैं भी यही समझता था कि वो उन लोगों में से ही कोई होगा मगर उन लोगों के इंकार ने मुझे भी हैरत में डाल दिया था। सोचने वाली बात है कि एक तरफ जहां साहूकार और मुंशी हमारे दुश्मन बने हुए थे और हमें ख़ाक में मिला देना चाहते थे वहीं दूसरी तरफ वो सफ़ेदपोश है जो सिर्फ मुझे जान से मारना चाहता है। हां पिता जी, उसने अब तक सिर्फ मुझे ही मारने अथवा मरवाने की कोशिश की है, जबकि मेरे अलावा उसने हवेली में किसी के भी साथ कुछ बुरा नहीं किया है। क्या आपको कुछ समझ में आ रहा है कि इसका क्या मतलब हो सकता है?"

"सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि वो सिर्फ तुम्हें ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझता है।" पिता जी ने कुछ सोचते हुए कहा____"और कदाचित इस हद तक नफ़रत भी करता है कि वो तुम्हें जान से ही मार देना चाहता है। सबसे पहले उसने तुम्हें बदनाम करने के लिए जगन को अपना हथियार बना कर उसके द्वारा उसके ही भाई की हत्या करवाई और उस हत्या का इल्ज़ाम तुम पर लगवाया। जब वो उसमें नाकाम रहा तो उसने अपने दो काले नकाबपोश आदमियों के द्वारा तुम पर जानलेवा हमला करवाया। इसे उसकी बदकिस्मती कहें या तुम्हारी अच्छी किस्मत कि उसकी इतनी कोशिशों के बाद भी वो तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया अथवा ये कहें कि वो तुम्हें जान से मारने में सफल नहीं हो पाया। हैरत की बात है कि जगन के अलावा उसने तुम्हारे दोस्तों यानि सुनील और चेतन को भी अपना मोहरा बना लिया। "

"आप सही कह रहे हैं।" मैं एकदम से ही चौंकते हुए बोल पड़ा____"सुनील और चेतन के बारे में तो मैं भूल ही गया था। माना कि वो दोनों सफ़ेदपोश के मोहरे बन गए हैं लेकिन हैं तो वो दोनों मेरे दोस्त ही। हमारे साथ इतना कुछ हो गया लेकिन वो दोनों एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए। क्या मुझसे मिलने से उन्हें उस सफ़ेदपोश ने ही रोका होगा? वैसे मुझे ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि ऐसे में वो खुद ही ये ज़ाहिर कर देगा कि वो दोनों उसके लिए काम करते हैं। यानि एक तरह से वो उन दोनों के साथ अपने संबंधों की ही पोल खोल देगा जोकि वो यकीनन किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहेगा। मतलब साफ है कि मेरे उन दोनों दोस्तों के मन में भी कुछ है जिसके चलते वो दोनों मुझसे मिलने नहीं आए।"

"अब तुम खुद सोचो कि उनके मन में ऐसा क्या हो सकता है?" पिता जी ने मेरी तरफ देखा____"क्या तुमने उनके साथ कुछ उल्टा सीधा किया है जिसके चलते वो इस हद तक तुम्हारे खिलाफ़ चले गए कि तुम्हें जान से मारने का प्रयास करने वाले उस सफ़ेदपोश का मोहरा ही बन गए?"

"जहां तक मुझे याद है।" मैंने सोचते हुए कहा___"मैंने उन दोनों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं किया है। हां ये ज़रूर है कि जब आपने मुझे निष्कासित कर दिया था और मैं चार महीने उस बंज़र जगह पर रहा था तो वो दोनों आख़िर में मुझसे मिलने आए थे। चार महीने में वो तब मुझसे मिलने आए थे जबकि मुझे आपके द्वारा वापस बुलाया जा रहा था। मुझे उन दोनों पर उस समय ये सोच कर बहुत गुस्सा आया था कि खुद को मेरा जिगरी दोस्त कहने वाले वो दोनों दोस्त मेरे मुश्किल वक्त में किसी दिन मुझसे मिलने नहीं आए थे और अब जबकि मैं हवेली लौट रहा हूं तो वो झट से मेरे पास आ गए। बस इसी गुस्से में मैंने उन दोनों को बहुत खरी खोटी सुनाई थी। इसके अलावा तो मैंने उनके साथ कुछ किया ही नहीं है।"

"कोई तो वजह ज़रूर है।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"जिसके चलते वो तुम्हारे खिलाफ़ हो कर उस सफ़ेदपोश व्यक्ति का मोहरा बन गए। ख़ैर सच का पता तो अब उनसे रूबरू होने के बाद ही चलेगा। हमें जल्द ही इस बारे में कोई क़दम उठाना होगा।"




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बहुत ही दर्दनाक और दुःख भरा अपडेट है वैभव के बदलने पर किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा है लेकिन अब वैभव ने भाभी को वादा कर दिया है कि वह अब बिल्कुल बदल जायेगा
वैभव ने कुछ तो गलत किया है जिसकी वजह से सफेद नकाबपोश उसकी जान का दुश्मन बन बैठा है देखते हैं ऐशा क्या किया है वैभव ने ???
 

kamdev99008

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दोस्तो, कहानी के दो अध्याय एक साथ पोस्ट कर दिए हैं मैने... :declare:


यहां से स्टोरी अपने अगले पड़ाव की तरफ बढ़ेगी। उम्मीद है अगला पड़ाव रोचक लगे आप सबके लिए... :D

अगर कहीं कुछ रह गया हो जिसे मैंने ध्यान न दिया हो तो आप लोग उसे यहां पर अपने विचारों के साथ बता सकते हैं। बाद में कहानी में मैं कोई सुधार नहीं करूंगा। इस लिए अपनी शंकाओं को अथवा दुविधाओं को अभी बता दें। बाद में मत कहना कि मैंने ऐसा कर दिया या वैसा कर दिया... :roll:
अपडेट दोनों बढ़िया थे
लेकिन रूपचन्द की कहानी अभी तक सामने नहीं आयी और दादा ठाकुर साहूकारों को अपनी चल चलने का फिर से मौका दे रहे हैं............

देखते हैं.........अभी तो पत्ते वैभव के हाथ में छुपे हुये हैं
इधर अनुराधा की कहानी भी आगे बढ़ते-बढ़ते एक नए मोड पर आकर ठहर गयी........... वैभव को ही आगे बढ्न होगा अब तो
 
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KEKIUS MAXIMUS

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Asal me pyar ki asli vajah yahi hai :lol:
Budhaape me hero bana kar usne feeling se hi kaam tamaam karwa diya tha :D

Kamdev bhai sahab ko villain bana kar zarur usne apni koi khunnas nikaali hai, pata karna padega :D
koi dosti dushmani nahi thi 4 logo se ..
bas naya naya writer bana tha to apne pehchan ke logo ka naam likh daala ..

shayad hurt ho gayi thi vampire q 😔 baaki koi bhi hurt hua ho aisa nahi laga .
kahani thi jisme koi sex nahi ...

maine bhi likhne ka socha tha ek do kahaniya par waqt nahi mil raha ..
naa hi kahaniya padhne ka waqt raha apne paas ..
 

KEKIUS MAXIMUS

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अध्याय - 78
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"कोई तो वजह ज़रूर है।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"जिसके चलते वो तुम्हारे खिलाफ़ हो कर उस सफ़ेदपोश व्यक्ति का मोहरा बन गए। ख़ैर सच का पता तो अब उनसे रूबरू होने के बाद ही चलेगा। हमें जल्द ही इस बारे में कोई क़दम उठाना होगा।"


अब आगे....


आसमान में काले बादल मंडरा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे आज बारिश ज़रूर होगी। आज कल काफी गर्मी होती थी। जिसकी वजह से अक्सर लोग बीमार भी पड़ रहे थे। मैं अपनी मोटर साईकिल द्वारा भुवन से मिलने अपने नए बन रहे मकान में आया था। मकान लगभग तैयार ही हो गया था, बस कुछ चीजें शेष थीं जोकि कुछ दिनों में पूरी हो जाएंगी। भुवन किसी काम से कहीं गया हुआ था और मैं उसी का इंतज़ार कर रहा था।

मेरे ज़हन में मकान को देखते हुए कई सारे विचार उभर रहे थे। जिसमें सबसे पहला विचार यही था कि मैंने क्या सोच कर यहां पर ये मकान बनवाया था और अब क्या हो चुका था। ऐसा क्यों होता है कि हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है? मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं अपने चाचा और बड़े भाई को इस तरह से खो दूंगा। यूं तो मुझे दोनों के ही इस तरह चले जाने का बेहद दुख था लेकिन सबसे ज़्यादा दुख अपने भाई के चले जाने का हो रहा था। क्योंकि उनके चले जाने से भाभी का जैसे संसार ही उजड़ गया था।

सुहागन के रूप में कितनी खूबसूरत लगती थीं वो। मैं हमेशा उनके रूप सौंदर्य पर मोहित हो जाता था। अपनी ग़लत आदतों की वजह से मैं हमेशा उनसे दूर ही रहता था। मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि उनके रूप सौंदर्य को देख कर मेरे मन में ग़लती से भी उनके प्रति ग़लत ख़याल आ जाए। हालाकि मेरे ना चाहने पर भी ग़लत ख़याल आ ही जाते थे मगर फिर भी मैं अब तक अपनी कोशिशों में कामयाब ही रहा था और अपनी भाभी के दामन पर दाग़ लगाने से खुद को रोके रखा था। मगर ये जो कुछ हुआ है वो हर तरह से असहनीय है।

जिस भाभी के चेहरे पर हमेशा नूर रहता था उनका वही चेहरा आज विधवा हो जाने के चलते किसी उजड़े हुए चमन का हिस्सा नज़र आने लगा था। मेरा हर सच जानने के बावजूद वो मेरी परवाह करती थीं और हवेली में सबसे बड़ा मेरा मुकाम बना हुआ देखना चाहती थीं। अपने जीवन में मैंने उनके जैसी सभ्य, सुशील, संस्कारी और सबके बारे में अच्छा सोचने वाली नारी नहीं देखी थी। बार बार मेरे मन में एक ही सवाल उभरता था कि इतनी अच्छी औरत को ऊपर वाला इतना बड़ा दुख कैसे दे सकता है? मैंने उन्हें हमेशा खुश रखने का उनसे वादा तो किया था लेकिन मैं खुद नहीं जानता था कि उनके इतने बड़े दुख को मैं कैसे दूर कर सकूंगा और कैसे उन्हें खुशियां दे पाऊंगा? सच तो ये था कि मेरे लिए ऐसा कर पाना बिल्कुल भी आसान नहीं था।

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक ही आसमान में बिजली चमकी और अगले कुछ ही पलों में तेज़ गर्जना हुई। मेरे देखते ही देखते कुछ ही पलों में बूंदा बांदी होने लगी। मकान में काम कर रहे मजबूर बूंदा बांदी होते देख बड़ा खुश हुए। फ़सल काटने के बाद की ये पहली बारिश थी जो होने लगी थी। पहले बूंदा बांदी और फिर एकदम से तेज़ बारिश होने लगी। चारो तरफ एकदम से अंधेरा सा हो गया। मैं मकान के दरवाज़े के बाहर ही बरामदे में बैठा हुआ था। बाहर जो मज़दूर मौजूद थे वो भीगने से बचने के लिए भागते हुए जल्दी ही बरामदे में आ गए। मैं दरवाज़े के पास ही एक लकड़ी के स्टूल पर बैठा हुआ था। तेज़ हवा भी चल रही थी जो बारिश में घुल कर ठंडक का एहसास कराने लगी थी। दरवाज़े के बाहर बरामदे जैसा था इस लिए बारिश के छींटे मुझ तक नहीं पहुंच सकते थे। देखते ही देखते तपती हुई ज़मीन में छलछलाता हुआ पानी नज़र आने लगा। ज़मीन से एक अलग ही सोंधी सोंधी महक आने लगी थी।

बारिश इतनी तेज़ होने लगी थी कि दूर वाले पेड़ पौधे धुंधले से नज़र आने लगे थे। एकाएक मेरी घूमती हुई निगाह एक जगह पर ठहर गई और इसके साथ ही मेरे माथे पर सिलवटें भी उभर आईं। जल्दी ही मेरी नज़र ने उस जगह पर भागते व्यक्ति को पहचान लिया। वो अनुराधा थी जो तेज़ बारिश में दौड़ते हुए इस तरफ ही आ रही थी। अनुराधा को इस तरह यहां आते देख मेरी धड़कनें बढ़ गईं। ज़हन में ख़याल उभरा कि ये यहां क्यों आ रही है?

"अरे! वो तो अनुराधा बिटिया है न रे भीखू?" बरामदे के एक तरफ खड़े एक अधेड़ मज़दूर ने दूसरे आदमी से पूछा____"ये बारिश में यहां कहां भींगते हुए आ रही हैं?"

"अपने भाई भुवन से मिलने आ रही होगी।" दूसरे मज़दूर ने कहा____"लेकिन बारिश में नहीं आना चाहिए था उसे। देखो तो पूरा भीग गई है ये।"

मज़दूरों की बात सुन कर मैं ख़ामोश ही रहा। असल में मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? मैं तो खुद सोच में पड़ गया था कि वो यहां क्यों आ रही है, वो भी बारिश में भींगते हुए। मेरे देखते ही देखते वो जल्दी ही हमारे पास आ गई। गीली और पानी से लबरेज़ मिट्टी पर थल्ल थल्ल पैर जमाते हुए वो बरामदे में आ गई। उसकी नज़र अभी मुझ पर नहीं पड़ी थी। शायद तेज़ बारिश के चलते वो ठीक से सामने का नहीं देख रही थी। मैंने देखा सुर्ख रंग का उसका कुर्ता सलवार पूरी तरह भीग गया था। दुपट्टे को उसने सिर पर ओढ़ा हुआ था जिसे उसने बरामदे में आते ही जल्दी से सीने पर डाल लिया। भीगे होने की वजह से उसके सीने के उभार साफ नज़र आ रहे थे।

"अरे! इतनी तेज़ बारिश में तुम यहां क्यों आई हो अनुराधा?" भीखू ने उससे पूछा____"देखो तो सारे कपड़े गीले हो गए हैं तुम्हारे और ये क्या, तुम्हारा एक चप्पल टूट गया है क्या?"

"हां काका।" अनुराधा ने मासूमियत से कहा____"शायद दौड़ने की वजह से टूट गया है। वैसे उसे टूटना ही था। पुराना जो हो गया था।"

"पर तेज़ बारिश में तुम्हें यहां भींगते हुए आने की क्या ज़रूरत थी?" भीखू ने कहा____"भींगने से बीमार पड़ गई तो?"

"मुझे क्या पता था काका कि इतना जल्दी बारिश होने लगेगी।" अनुराधा ने अपने चप्पल को पैर से निकालते हुए कहा____"जब घर से चली थी तब तो बूंदा बांदी भी नहीं हो रही थी।"

"हां लगता है तुम्हारे घर से निकलने का ही ये बारिश इंतज़ार कर रही थी।" भीखू ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"ख़ैर भुवन तो यहां है ही नहीं। हमारे छोटे कुंवर भी उसी का इंतज़ार कर रहे हैं यहां।"

अनुराधा भीखू के मुख से छोटे कुंवर सुन बुरी तरह चौंकी। उसने फिरकिनी की तरह घूम कर पीछे देखा तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ गई। उफ्फ! भीगने की वजह से कितनी प्यारी लग रही थी वो। मेरे पूरे जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई। मैंने देखा वो अपलक मुझे ही देखने लगी थी। बारिश में भीग जाने की वजह से उसके गीले हो चुके गुलाबी होंठ हल्के हल्के कांप रहे थे। अचानक ही मुझे वस्तिस्थित का एहसास हुआ तो मैंने उससे नज़रें हटा लीं और बाहर बारिश की तरफ देखने लगा। मैंने महसूस किया कि जो लड़की इसके पहले मुझसे नज़रें नहीं मिला पाती थी वो अपलक मुझे ही देखे जा रही थी। एक अलग ही तरह के भाव उसके चेहरे पर उभरे दिखाई दिए थे मुझे।

"अरे! तुम्हें क्या हुआ बिटिया?" भीखू की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी मगर मैंने उसकी तरफ नहीं देखा। उधर वो अनुराधा से बोला____"तुम एकदम से बुत सी क्यों खड़ी हो? हमारे छोटे कुंवर को देखा नहीं था क्या कभी तुमने?"

भीखू की बात सुन कर अनुराधा जैसे आसमान से गिरी। उसने हड़बड़ा कर भीखू की तरफ देखा और फिर खुद को सम्हालते हुए बोली____"देखा था काका। पहले ठीक से पहचानती नहीं थी लेकिन अब पहचान गई हूं। पहले यकीन नहीं होता था पर अब हो चुका है।"

"ये तुम क्या कह रही हो बिटिया?" भीखू को जैसे अनुराधा की बात समझ नहीं आई, अतः बोला____"मैं समझा नहीं तुम्हारी बात को।"

"हर बात इतना जल्दी कहां समझ आती है काका?" अनुराधा ने अजीब भाव से कहा____"समझने में तो वक्त लगता है ना? ख़ैर छोड़िए, मुझे लगता है कि बारिश के चलते भुवन भैया नहीं आएंगे। मुझे भी घर जाना होगा, नहीं तो मां परेशान हो जाएगी। बारिश देख के डांटेगी भी मुझे।"

"हां पर इतनी तेज़ बारिश में कैसे जाओगी तुम?" भीखू ने हैरान नज़रों से अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"ज़्यादा भींगने से बीमार हो जाओगी। कुछ देर रुक जाओ। बारिश रुक जाए तो चली जाना।"

"अरे! मैं तो पहले से ही बीमार हूं काका।" अनुराधा ने कहा____"ये बारिश मुझे भला और क्या बीमार करेगी? अच्छा अब चलती हूं। भैया आएं तो बता देना कि मैं आई थी।"

भीखू ने ही नहीं बल्कि और भी कई लोगों ने अनुराधा को रोका मगर वो न रुकी। तेज़ बारिश में जैसे वो कूद ही पड़ी और पूरी निडरता से ख़राब मौसम में वो बड़े आराम से आगे बढ़ती चली गई। इधर मैं पहले ही उसकी बातों से हैरान परेशान था और अब उसे यूं भींगते हुए जाता देखा तो और भी चिंतित हो उठा। एकाएक ही मेरे मस्तिष्क में जैसे भूचाल सा आ गया। उस दिन भुवन द्वारा कही गई बातें मेरे ज़हन में गूंज उठीं। मतलब अनुराधा ने भीखू से अभी जो बातें की थी उसमें उसका संदेश था। शायद वो ऐसी बातें मुझे ही सुना रही थी और चाहती थी कि मैं समझ जाऊं। मेरे लिए ये बड़े ही आश्चर्य की बात थी कि एक भोली भाली और मासूम सी लड़की में कुछ ही दिनों में इतना ज़्यादा परिवर्तन कैसे आ गया?

"पता नहीं आज क्या हो गया है इस लड़की को?" एक अन्य मज़दूर ने भीखू से कहा____"एकदम पगला ही गई है। देखो तो कैसे भींगते हुए चली जा रही है। देखना पक्का बीमार पड़ेगी ये। भुवन को पता चलेगा तो वो भी परेशान हो जाएगा इसके लिए।"

"अरे! हमारे पास एक छाता था न?" किसी दूसरे मज़दूर ने अचनाक से कहा____"तेज़ धूप से बचने के लिए भुवन लाया था। रुको अभी देखता हूं।"

"हां हां जल्दी ले आ।" भीखू बोल पड़ा____"वो ज़्यादा दूर नहीं गई है अभी। दौड़ कर जल्दी से उसको छाता पकड़ा के आ जाना।"

कुछ ही देर में वो मज़दूर छाता ले आया। इधर मेरे अंदर मानों खलबली सी मच गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं क्या न करूं? सहसा मेरी नज़र एक मज़दूर को छाता ले कर बरामदे से बाहर की तरफ जाते देखा तो मैं हड़बड़ा कर स्टूल से उठ कर खड़ा हो गया।

"रुको।" मैंने उसे पुकारा तो वो एकदम से रुक गया और मेरी तरफ पलट कर देखने लगा।
"इधर लाओ छाता।" मैं उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला____"मैं इसे ले कर जा रहा हूं उसके पास।"

"छ...छोटे कुंवर आप?" उसके साथ बाकी मज़दूर भी हैरानी से मेरी तरफ देखने लगे जबकि मैं उसके क़रीब पहुंचते ही बोला____"हां तो क्या हो गया? काफी दिन हो गए मुरारी काका के घर नहीं गया। इसी बहाने काकी से घर का हाल चाल भी पूछ लूंगा। भुवन आए तो कहना मैं मुरारी काका के घर गया हूं और जल्दी ही वापस आऊंगा।"

अब क्योंकि किसी में भी हिम्मत नहीं थी जो मुझसे कोई और सवाल जवाब करता था इस लिए उस मज़दूर ने फ़ौरन ही मुझे छाता पकड़ा दिया। मैंने जल्दी से छाते को खोला और बाहर हो रही बारिश में जंग का मैदान समझ कर कूद पड़ा। सच कहूं तो मेरे दिल की धड़कनें असमान्य गति से चल रहीं थी। अनुराधा मुझसे क़रीब चालीस पचास क़दम की दूरी पर पहुंच चुकी थी। मैं छाता लिए तेज़ी से उसकी तरफ बढ़ने लगा। बाहर बारिश तो तेज़ हो ही रही थी लेकिन उसके साथ हवा भी चल रही थी जिसके चलते बारिश की बौछारें चारो तरफ अपना रुख बदल लेती थीं। जल्दी ही मेरे घुटने से ऊपर का भी हिस्सा बारिश की बूंदों से भीगता नज़र आया। उधर अनुराधा बिना इधर उधर देखे बड़े आराम से चली जा रही थी। मैं हैरान था कि आते समय वो भींगने से बचने के लिए दौड़ते हुए आई थी जबकि अब वो बड़े आराम से जा रही थी। ज़ाहिर था उसे बारिश से ना तो भीग जाने की परवाह थी और ना ही भीग जाने के चलते बीमार पड़ने की। सही कहा था उस मज़दूर ने कि एकदम पगला गई थी वो।

जब मैं उसके क़रीब पहुंच गया तो मैंने झिझकते हुए उसे आवाज़ दी और अगले ही पल मेरी आवाज़ का उस पर जैसे किसी चमत्कार की तरह असर हुआ। वो अपनी जगह पर इस तरह रुक गई थी जैसे किसी ने जादू से उसको एक जगह पर टिका दिया हो। मुझे समझते देर न लगी कि वो मेरे ही आने का इंतज़ार कर रही थी। तभी तो वो इतना आराम से चल रही थी वरना भला ऐसा कौन मूर्ख होगा जो तेज़ बारिश में इतना आराम से चले?

यूं तो मैंने अनुराधा को वचन दिया था कि अब कभी उसके घर की दहलीज़ पर नहीं आऊंगा और कदाचित ये भी कि उससे बातें भी नहीं करूंगा मगर इस वक्त मुझे अपना ही वचन तोड़ना पड़ रहा था। ऐसा सिर्फ इस लिए क्योंकि मैं किसी भी कीमत पर ये नहीं चाहता था कि उसे कुछ हो जाए।

मैं जल्दी ही उसके क़रीब पहुंच गया और उसको छाते के अंदर ले लिया। मैंने देखा वो थर थर कांप रही थी। ज़ाहिर है बारिश में भीग जाने का असर था और उसके साथ ही शायद इसका भी कि इस वक्त वो मेरे इतने क़रीब थी। मेरी नज़दीकियों में पहले भी उसकी हालत ठीक नहीं रहती थी।

"बारिश के रुकने तक अगर वहां रुक जाती तो काकी खा नहीं जाती तुम्हें।" मैंने सामने की तरफ देखते हुए कहा____"इस तरह भींगने से अगर बीमार पड़ जाओगी तो उन्हें बहुत परेशानी होगी।"

"अ...आपको मां की परेशानी की चिंता है मेरी नहीं?" अनुराधा ने तिरछी नज़रों से मेरी तरफ देखते हुए धीमें से मानों शिकायत की।

"अगर तुम्हारी चिंता न होती तो छाता ले कर तुम्हारे पास नहीं आता।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"वैसे माफ़ करना, आज एक बार फिर से मैंने तुम्हें दिया हुआ अपना वादा तोड़ दिया। मैंने तुमसे वादा किया था कि अब से कभी भी ना तो मैं तुम्हारे घर की दहलीज़ पर क़दम रखूंगा और ना ही तुम्हारे सामने आऊंगा। कितना बुरा इंसान हूं ना जो अपना वादा भी नहीं निभा सकता।"

"न...नहीं, ऐसा मत कहिए।" अनुराधा का गला सहसा भारी हो गया____"सब मेरी ग़लती है। मैं ही बहुत बुरी हूं। मेरी ही ग़लती की वजह से आपने ऐसा वादा किया था मुझसे।"

"नहीं, तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।" मैं सहसा आगे बढ़ा तो वो भी मेरे साथ बढ़ चली। इधर मैंने आगे कहा____"तुमने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। तुमने तो वही कहा था जो सच था और जो मेरी वास्तविकता थी। शायद मैं वाकई में किसी के भरोसे के लायक नहीं हूं। ख़ैर छोड़ो, ये छाता ले लो और घर जाओ।"

"क...क्या मतलब??" अनुराधा ने चौंक कर मेरी तरफ देखा____"क...क्या आप नहीं चलेंगे घर?"

"तुमसे मिलने का और बात करने का वादा तोड़ दिया है मैंने।" मैंने अजीब भाव से कहा____"पर तुम्हारे घर की दहलीज़ पर क़दम न रखने का वादा नहीं तोड़ना चाहता। आख़िर अपने किसी वादे को तो निभाऊं मैं। शायद तब किसी के भरोसे के लायक हो जाऊं।"

मैंने ये कहा और अनुराधा को छाता पकड़ा कर उससे दूर हट कर खड़ा हो गया। मैंने देखा उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े थे। मुझे तकलीफ़ तो बहुत हुई मगर शायद मैं इसी तकलीफ़ के लायक था।

"तुम्हारी आंखों में आसूं अच्छे नहीं लगते।" मैंने तेज़ बारिश में भींगते हुए उससे कहा____"इन आंसुओं को तो मेरा मुकद्दर बनना चाहिए और यकीन मानो ऐसे मुकद्दर से कोई शिकवा नहीं होगा मुझे।"

"न...नहीं रुक जाइए।" मुझे पलट कर जाता देख अनुराधा जल्दी से मानों चीख पड़ी____"भगवान के लिए रुक जाइए।"

"किस लिए?" मैं ठिठक कर उसकी तरफ पलटा।
"म...मुझे आपसे ढेर सारी बातें करनी हैं।" अनुराधा बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हालते हुए बोली____"और, और मुझे आपसे कुछ सुनना भी है।"

"मतलब??" मैं सहसा उलझ सा गया___"मुझसे भला क्या सुनना है तुम्हें?"

"ठ...ठकुराईन।" अनुराधा ने अपनी नज़रें झुका कर भारी झिझक के साथ कहा____"हां मुझे आपसे यही सुनना है। एक बार बोल दीजिए न।"

"क्यों?" मैं अंदर ही अंदर चकित हो उठा था किंतु अपने भावों को ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"ब...बस सुनना है मुझे।" अनुराधा ने पहले की भांति ही नज़रें झुकाए हुए कहा।

"पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं बोल सकता।" मैंने खुद को जैसे पत्थर बना लिया____"अब दिल में चाहत जैसी चीज़ को फिर से नहीं पालना चाहता। तुम्हारी यादें बहुत हैं मेरे लिए।"

कहने के साथ ही मैं पलट गया और फिर बिना उसके कुछ बोलने का इंतज़ार किए बारिश में भींगते हुए अपने मकान की तरफ बढ़ता चला गया। मैं जानता था कि ऐसा कर के मैंने बिल्कुल भी ठीक नहीं किया था क्योंकि अनुराधा को इससे बहुत तकलीफ़ होनी थी मगर मेरा भी तो कोई वजूद था। मेरे अंदर भी तो तूफ़ान चल पड़ा था जिसकी वजह से मैं उसके सामने कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था।

मुझे जल्दी ही वापस आ गया देख बरामदे में खड़े सारे मज़दूर हैरानी से मुझे देखने लगे। शायद ऐसा उनकी कल्पनाओं में भी नहीं था मगर उन्हें भला क्या पता था कि दुनिया में अक्सर ही ऐसा होता है जो किसी की कल्पनाओं में नहीं होता।

"छोटे कुंवर आप तो बड़ा जल्दी वापस आ गए?" एक अधेड़ उम्र का मज़दूर मुझे देखते हुए बोल पड़ा____"आपने तो कहा था कि आप मुरारी के घर जा रहे हैं उस लड़की के साथ? फिर वापस क्यों आ गए और तो और भीग भी गए?"

"हां छोटे कुंवर।" भीखू बोल पड़ा____"अगर आपको अनुराधा बिटिया को छाता ही दे के आ जाना था तो ये काम तो फुलवा भी कर देता। नाहक में ही भीग गए आप।"

"अरे! मैं तो मुरारी काका के घर ही जा रहा था काका।" मैंने कहा____"मगर फिर अचानक से मुझे एक ज़रूरी काम याद आ गया इस लिए वापस आ गया। रही बात भीग जाने की तो कोई बात नहीं।"

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मेरे इस तरह चले जाने पर अनुराधा जैसे टूट सी गई थी। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि मैं उससे इस तरह मुंह फेर कर और उसकी कोई बात बिना माने अथवा सुने चला जाऊंगा। हाथ में छाता पकड़े वो बस रोए जा रही थी। आज से पहले भी वो अकेले में रोती थी मगर उसके दुख में आज की तरह पहले इज़ाफ़ा नहीं हुआ था। मेरे चले जाने पर उसे ऐसा लगा था जैसे उसके अंदर से एक झटके में कुछ निकल गया था। उसका कोमल हृदय तड़प उठा था जिसके चलते उसके आंसू रोके नहीं रुक रहे थे। तभी आसमान में तेज़ बिजली कड़की तो वो एकदम से घबरा गई। उसके हाथ से छाता छूटते छूटते बचा। उसने एक नज़र उस तरफ देखा जिधर मैं गया था और फिर वो अपने आंसू पोंछते हुए पलट कर अपने घर की तरफ चल दी।

अनुराधा एक हाथ से छाता पकड़े बढ़ी चली जा रही थी। दिलो दिमाग़ में बवंडर सा चल रहा था। शून्य में खोई वो कब अपने घर पहुंच गई उसे पता ही नहीं चला। चौंकी तब जब एक बार फिर से तेज़ बिजली कड़की। उसने हड़बड़ा कर इधर उधर देखा तो उसकी नज़र सहसा अपने घर के दरवाज़े पर पड़ी।

दरवाज़ा खोल कर अनुराधा जैसे ही अंदर आई तो आंगन के पार बरामदे में बैठी उसकी मां की नज़र उस पर पड़ी। सरोज उसी की चिंता में बैठी हुई थी। अनुराधा को वापस आया देख वो एकदम से उठ कर खड़ी हो गई।

"हाय राम! ये क्या तू भीग कर आई है?" सरोज हैरत से आंखें फाड़ कर बोल पड़ी____"मना किया था न कि मौसम ख़राब है और बारिश कभी भी हो सकती है फिर भी चली गई अपने भाई से मिलने? ऐसा क्या ज़रूरी काम था तुझे उससे जिसके लिए तूने मेरी बात भी नहीं मानी?"

अनुराधा अपनी मां की बातें सुन कर कुछ न बोली। आंगन से चलते हुए वो बरामदे में आई और फिर छाते को बंद कर के अंदर कमरे की तरफ चली गई। उसके जाते ही सरोज जाने क्या क्या बड़बड़ाने लगी।

इधर कमरे में आते ही अनुराधा ने दरवाज़ा बंद किया और फिर दरवाज़े से ही पीठ टिका कर सिसक उठी। अपने अंदर का गुबार उससे सम्हाला न गया। आवाज़ बाहर उसकी मां के कानों तक ना पहुंचे इस लिए उसने अपने मुंह को हथेली से सख़्ती पूर्वक दबा लिया। जाने कितनी ही देर तक वो रोती रही। रोने से जब उसे थोड़ा राहत हुई तो वो आगे बढ़ी और फिर अपने गीले कपड़े उतारने लगी। उसे बेहद ठंड लगने लगी थी। कमरे में चिमनी जल रही थी इस लिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई। जल्दी ही उसने दूसरे कपड़े पहन लिए और अपने गीले बालों को खोल कर उन्हें सुखाने का प्रयास करने लगी।

"अगर बीमार पड़ी तो देख लेना फिर।" वो जैसे ही बाहर आई तो सरोज उसे डांटते हुए बोली____"दवा भी नहीं कराऊंगी। रोज़ रोज़ तेरी बीमारी का इलाज़ करवाने के लिए पैसे नहीं हैं मेरे पास।"

"हां ठीक है मां।" अनुराधा ने संजीदगी से कहा____"मत करवाना मेरी दवा। मैं खुद चाहती हूं कि इस बार मैं ऐसी बीमार पड़ जाऊं कि कोई वैद्य मेरा इलाज़ ही न कर पाए। मर जाऊंगी तो अच्छा ही होगा। कम से कम अपने बापू के पास जल्दी से तो पहुंच जाऊंगी।"

अनुराधा की बातें सुन कर सरोज चौंकी। उसने बड़े ध्यान से अपनी बेटी के चेहरे की तरफ देखा। आज से पहले उसने कभी भी उससे ऐसी बातें नहीं की थी। अगर ये कहा जाए तो ग़लत न होगा कि उसने कभी अपनी मां से ज़ुबान ही नहीं लड़ाया था। उसके चेहरे पर मौजूद संजीदगी को देख कर सरोज के मन में कई तरह के ख़याल उभरे। वो चलते हुए उसके पास आई और उसके दोनो बाजुओं को पकड़ कर अपनी तरफ घुमाया उसे।

"हाय राम! तू रो रही थी?" अनुराधा की सुर्ख और नम आंखों को देख सरोज ने किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा कर पूछा____"क्या बात है अनू? क्या हुआ है तुझे? तू भुवन से मिलने गई थी न? उसने कुछ कहा है क्या तुझे?"

सरोज एक ही सांस में जाने कितने ही सवाल उससे कर बैठी। अपनी बेटी को उसने ऐसी हालत में कभी नहीं देखा था। वो बीमार ज़रूर हो जाती थी लेकिन ऐसी हालत में कभी नज़र नहीं आई थी वो। उधर मां के इतने सारे सवाल सुन कर अनुराधा एकदम से घबरा गई। उसे लगा कहीं मां को सच न पता चल जाए। उसे कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा था।

"क्या हुआ तू चुप क्यों है अनू?" बेटी को कुछ न बोलता देख सरोज और भी घबरा गई, उसने उसे हिलाते हुए पूछा____"बताती क्यों नहीं कि क्या हुआ है? देख मेरा मन बहुत घबरा रहा है। तुझे इस हालत में देख कर मेरे मन में बहुत ही बुरे बुरे ख़याल आ रहे हैं। बता क्या हुआ है तुझे? भुवन ने कुछ कहा है क्या तुझे?"

"न...नहीं मां।" अनुराधा ने खुद को किसी हद तक सम्हालते हुए कहा____"मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा है।"

"तो फिर तू रोई क्यों है?" सरोज का अंजानी आशंका के चलते मानो बुरा हाल हो गया____"तेरी आंखें बता रही हैं कि तू रोई है। ज़रूर कुछ हुआ है तेरे साथ। बता मेरी बच्ची।"

"तुम बेकार में चिंता कर रही हो मां।" अनुराधा ने अब तक खुद को सहज कर लिया था, अतः बोली____"मैं रोई ज़रूर हूं लेकिन उसकी वजह ये नहीं है कि किसी ने मुझे कुछ कहा है। असल में बारिश होने लगी थी तो भींगने से बचने के लिए मैं दौड़ने लगी थी। पता नहीं मेरे पैर को क्या हुआ कि मैं रास्ते में एक जगह गिर गई। बहुत तेज़ दर्द हो रहा था इस लिए रोने लगी थी।"

"तू सच कह रही है ना?" सरोज की जैसे जान में जान आई, फिर एकदम से बैठ कर अनुराधा का पैर देखते हुए बोली____"दिखा मुझे कहां चोट लगी है तुझे?"

अनुराधा ये सुन कर बौखला ही गई। उसने तो अपनी समझ में बढ़िया बहाना बनाया था मगर उसे क्या पता था कि उसकी मां उसको चोट दिखाने को बोलने लगेगी।

"क्या हुआ?" अनुराधा को ख़ामोश देख सरोज ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा____"दिखा क्यों नहीं रही कि कहां चोट लगी है तुझे?"

"चोट नहीं लगी है मां।" अनुराधा ने हड़बड़ा कर जल्दी से कहा____"शायद पैर में मोच आई है। उस समय मैंने भी यही सोच कर देखा था कि शायद चोट लग गई है मुझे मगर चोट नहीं लगी थी।"

"ऊपर वाले का लाख लाख शुक्र है कि तुझे चोट नहीं आई।" सरोज ने कहा____"अच्छा बता कौन से पैर में मोच आई है। जल्दी दिखा मुझे, मोच भी बहुत ख़राब होती है। दर्द के मारे चलते नहीं बनता आदमी से।"

अनुराधा को मजबूरन अपना एक पैर दिखाना ही पड़ा। चिमनी की रोशनी में सरोज ने बड़े ध्यान से अपनी बेटी की बताई हुई जगह पर देखा मगर उसे कुछ समझ न आया। उसने एक बार सिर उठा कर अनुराधा को देखा और फिर उसकी बताई हुई जगह पर अपनी दो उंगलियों से दबा कर पूछा____"कहां दर्द हो रहा है तुझे?"

अनुराधा ने मुसीबत से बचने के लिए झूठ मूठ का ही दर्द का नाटक करते हुए बता दिया कि हां यहीं पर दर्द हो रहा है। सरोज ने उठ कर उसे चारपाई पर बैठाया और फिर तेज़ क़दमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। उसके जाते ही अनुराधा ने राहत की सांस ली। कुछ देर में जब सरोज आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी।

"ये शहद हल्दी और चूना है।" फिर वो अनुराधा के पैर के पास बैठते हुए बोली____"इसे लगा देती हूं जिससे तुझे जल्दी ही आराम मिल जाएगा।"

सरोज कटोरी से निकाल कर शहद हल्दी और चूने के मिश्रण को अनुराधा के पैर में लगाने लगी। उधर अनुराधा को ये सोच कर रोना आने लगा कि उसे अपनी मां से झूठ बोलना पड़ा जिसके चलते उसकी मां उसके लिए कितना चिंतित हो गई है। उसका जी चाहा कि अपनी मां से लिपट कर खूब रोए मगर फिर उसने सख़्ती से अपने जज़्बातों को अंदर ही दबा लिया।



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lovely update ..vaibhav aur anuradha ki prem kahani ki nayi shuruwat huyi hai aisa lagta hai .aaj jab apne aap ko thakurain sunna chahti hai anu to wahi vaibhav chupchap nikal liya .
apne maa se jhooth bolne ki bharkas koshish jaari hai anu ki 🤣🤣..
vaibhav apne vachan ka palan kar raha hai ki wo anu ke ghar pe kadam nahi rakhega .
aur bechari anu pyar me pagal ho gayi hai. .
maa kitni chinta kar rahi hai anu ki 😍😍.
 

KEKIUS MAXIMUS

Supreme
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259
nice update ..bhuwan ki wafadari kabile taarif hai jo apne pariwar ki chinta bhi nahi kar raha .vaibhav ab sab kaam sambhalne ki soch raha hai aur bhuwan ko uski jimmedari saunp di hai .

dada thakur sathiya gaye hai jo sahukaro ke ghar maut maangne chale gaye 🤣.
prayaschit karne ke dusre bhi raaste hai par kya keh sakte hai .

gauri shankar ki baate aur fulwati ki chaal bhari baato me aa gaye dada thakur 😔..

kahi kusum ki jindagi tabah na ho jaaye dada thakur ke faisle se .
 
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