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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
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अध्याय - 71
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"ऐसा मत कहिए भाभी।" रागिनी की बातें सुन कर कुसुम के समूचे जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई, बोली____"आपकी ज़ुबान पर इतनी कठोर बातें ज़रा भी अच्छी नहीं लगती। यकीन कीजिए वैभव भैया के साथ कुछ भी बुरा नहीं होगा। अब चलिए आराम कीजिए आप।"

कुसुम ने ज़ोर दे कर रागिनी को बिस्तर पर लिटा दिया और खुद किनारे पर बैठी जाने किन ख़यालों में खो गई। पूरी हवेली में सन्नाटा छाया हुआ था लेकिन कमरे के अंदर मौजूद दो इंसानों के अंदर जैसे कोई आंधी सी चल रही थी।

अब आगे....


जगन हल्के अंधेरे में बढ़ता ही चला जा रहा था। आसमान में काले बादल न होते तो कदाचित इतना अंधेरा न होता क्योंकि थोड़ा सा ही सही मगर आसमान में चांद ज़रूर था जिसकी रोशनी अंधेरे को दूर कर देती थी। कुछ देर पहले उसने गोली चलने की आवाज़ सुनी थी। गोली चलने की आवाज़ से वो डर तो गया था लेकिन सफ़ेदपोश के हुकुम का पालन करना उसके लिए हर कीमत पर अनिवार्य था। जिस तरफ उसने गोली चलने की आवाज़ सुनी थी उसी तरफ वो बढ़ चला था। अभी कुछ ही देर पहले उसे ऐसा लगा था जैसे कुछ दूरी पर दो लोग बातें कर रहे हैं। रात के सन्नाटे में उसे आवाज़ें साफ सुनाई दी थीं इस लिए वो तेज़ी से उस तरफ बढ़ता चला गया था मगर फिर अचानक से आवाज़ें आनी बंद हो गईं।

आसमान में मौजूद चांद के वजूद से थोड़ी देर के लिए बादल हटे तो रोशनी में उसने दो सायों को देखा। इसके पहले वो क़दम दर क़दम चल रहा था किंतु अब उसने दौड़ लगा दी थी। उसके हाथ में पिस्तौल थी इस लिए उसे किसी का डर नहीं लग रहा था। जल्दी ही वो उन सायों के क़रीब पहुंच गया और अगले ही पल वो ये देख कर चौंका कि वो असल में एक ही साया था। जगन ने स्पष्ट देखा कि साया अपनी पीठ पर कोई भारी चीज़ को ले रखा था और बड़े तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता ही चला जा रहा था। ये देख जगन और भी तेज़ी से उसकी तरफ दौड़ने लगा। अचानक ही अंधेरा हो गया, जाहिर है काले बादलों ने फिर से थोड़े से चमकते चांद को ढंक लिया था।

जगन दौड़ते दौड़ते बुरी तरह हांफने लगा था। जैसे ही अंधेरा हुआ तो उसे वो साया दिखना बंद हो गया। इसके बावजूद वो आगे बढ़ता रहा। कुछ ही देर में उसे आस पास कई सारे पेड़ नज़र आने लगे। उसने एक जगह रुक कर इधर उधर निगाह दौड़ाई मगर वो साया उसे कहीं नज़र न आया। जगन एकदम से बेचैन और परेशान हो गया। हाथ में पिस्तौल लिए अभी वो परेशानी की हालत में इधर उधर देख ही रहा था कि अचानक वो एक तरफ हुई आहट से बुरी तरह चौंका। मारे घबराहट के उसने एकदम से उस तरफ हाथ कर के गोली चला दी। गोली चलने की तेज़ आवाज़ से फिज़ा गूंज उठी और खुद जगन भी बुरी तरह खौफ़जदा हो गया। उधर गोली चलने पर आवाज़ तो हुई मगर उसके अलावा कोई प्रतिक्रिया ना हुई। ये देख वो और भी परेशान हो गया।

जगन अपनी समझ में बेहद चौकन्ना था जबकि असल में वो घबराहट की वजह से घूम घूम कर इधर उधर नज़रें दौड़ा रहा था। इतना तो वो समझ गया था कि वो साया यहीं कहीं है। उसे डर भी था कि कहीं वो उसे कोई नुकसान न पहुंचा दे किंतु फिर वो ये सोच कर खुद को तसल्ली दे लेता था कि उसके पास पिस्तौल है। अभी वो ये सोच ही रहा था कि तभी एक तरफ से गोली चलने की तेज़ आवाज़ गूंजी और इसके साथ ही उसके हलक से दर्द भरी चीख वातावरण में गूंज उठी। गोली उसकी कलाई में लगी थी जिससे उसके हाथ से पिस्तौल छूट कर कच्ची ज़मीन पर ही कहीं छिटक कर गिर गई थी। वो दर्द से बुरी तरह चिल्लाने लगा था।

"मादरचोद कौन है जिसने मुझे गोली मार दी?" वो दर्द में गुस्सा हो कर चिल्लाया___"सामने आ हरामजादे।"

"ये तो कमाल ही हो गया जगन काका।" जगन की आवाज़ सुन कर मैं बड़ा हैरान हुआ था। मेरी समझ में तो वो हवेली के बाहर वाले एक कमरे में क़ैद था। बहरहाल मैं एक पेड़ से बाहर निकल कर उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला____"बल्कि कमाल ही नहीं, ये तो चमत्कार ही हो गया। तुम तो हवेली के एक कमरे में क़ैद थे न, फिर यहां कैसे टपक पड़े?"

मुझे एकदम से अपने सामने आ गया देख जगन की नानी ही नहीं बल्कि उसका पूरा का पूरा खानदान ही मर गया। वो अपनी कलाई को थामें दर्द से कराह रहा था। मैं एकदम से किसी जिन्न की तरह उसके सामने आ कर खड़ा हो गया।

"तुमने जवाब नहीं दिया काका?" मैंने क़रीब से उसकी आंखों में देखते हुए पूछा____"हवेली से बाहर कैसे निकले और यहां कैसे टपक पड़े?"

"व...व....वो मैं।" जगन बुरी तरह हकलाया, उससे आगे कुछ बोला ना गया।
"अभी तो बड़ा गला फाड़ कर गाली दे रहे थे तुम।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"अब क्या हुआ?"

मेरी बात सुन कर जगन मुझसे नज़रें चुराने लगा। उसका जिस्म जूड़ी के मरीज़ की तरह कांपने लगा था। उधर उसकी कलाई में जहां पर गोली लगी थी वहां से खून बहते हुए नीचे ज़मीन पर गिरता जा रहा था।

"मादरचोद बोल वरना इस बार तेरी गांड़ में गोली मारूंगा।" उसे कुछ न बोलता देख मैं गुस्से से दहाड़ उठा____"हवेली के कमरे से बाहर कैसे निकला तू और यहां कैसे पहुंचा?"

"म...म...माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन एकदम से मेरे पैरों में गिर पड़ा, फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला___"बहुत बड़ी ग़लती हो गई मुझसे।"

"मैंने जो पूछा उसका जवाब दे बेटीचोद।" मैंने गुस्से में उसको एक लात मारी तो वो पीछे उलट गया। फिर किसी तरह वो सम्हल कर उठा और बोला____"मुझको सफ़ेदपोश ने हवेली के कमरे से बाहर निकाला है छोटे ठाकुर और यहां भी मैं उसके ही कहने पर आया हूं।"

"स..सफ़ेदपोश???" मैं जगन के मुख से ये सुन कर बुरी तरह चकरा गया, फिर बोला____"वो वहां कैसे पहुंचा? सब कुछ बता मुझे।"

"म..मुझे कुछ नहीं पता छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"मैं तो उस कमरे में ही क़ैद था। अचानक ही दरवाज़ा खुला तो मैं ये देख कर घबरा गया कि हाथ में मशाल लिए सफ़ेदपोश कैसे आ गया? उसने अपनी अजीब सी आवाज़ में मुझे कमरे से बाहर निकल कर अपने साथ चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। आख़िर अपनी जान मुझे भी तो प्यारी थी छोटे ठाकुर। सुबह दादा ठाकुर मुझे मौत की सज़ा देने वाले थे। जब सफ़ेदपोश ने मुझे अपने साथ चलने को कहा तो मैं समझ गया कि वो मुझे बचाने आया है। बस, यही सोच कर मैं उसके साथ वहां से निकल आया।"

"तो यहां उसी ने भेजा है तुझे?" मैं अभी भी ये सोच कर हैरान था कि सफ़ेदपोश हवेली में इतने दरबानों की मौजूदगी में जगन को निकाल ले गया था, बोला____"तुझे कैसे पता कि मैं यहां मिलूंगा तुझे?"

"मुझे नहीं पता छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"वो तो सफ़ेदपोश ने मुझसे कहा कि आप मुझे यहीं कहीं मिल सकते हैं।"

कहने के साथ ही जगन ने सारी बात मुझे बता दी। मैं ये जान कर चौंका कि सफ़ेदपोश ने जगन को मुझे जान से मारने के लिए भेजा था। मेरे लिए ये बड़े ही हैरत की बात थी कि सफ़ेदपोश को इतना कुछ कैसे पता रहता है? आख़िर है कौन ये सफ़ेदपोश? क्या दुश्मनी है इसकी हमसे?

"उस दिन तो तुझे बड़ा अपने किए पर पछतावा हो रह था।" मैंने गुस्से से बोला____"और अब फिर से वही कर्म करने चल पड़ा है जिसके लिए तू दादा ठाकुर से रहम की भीख मांग रहा था। पर शायद तेरा कसूर नहीं है जगन काका। असल में तेरी किस्मत में मेरे हाथों मरना ही लिखा था। तभी तो घूम फिर कर तू इस तरीके से मेरे सामने आ गया। तुझ जैसे इंसान को अब जीने का कोई हक़ नहीं है।"

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन ने रोते हुए मेरे पैर पकड़ लिए, बोला____"सफ़ेदपोश ने मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया था। तुम कहो तो मैं उसे ही जान से मार दूं?"

"तेरे जैसे लतखोर जो बात बात पर नामर्दों की तरह पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगते हैं।" मैंने रिवॉल्वर को उसके माथे पर लगाते हुए कहा____"वो सफ़ेदपोश जैसे शातिर इंसान का क्या ही उखाड़ लेंगे। तूने निर्दोष मुरारी काका की हत्या कर के उसके परिवार को अनाथ कर दिया है इस लिए अब तू भी उन्हीं के पास जा। शायद वो ही तुझे माफ़ कर दें.....अलविदा।"

कहने के साथ ही मैंने ट्रिगर दबा दिया। फिज़ा में गोली चलने की आवाज़ गूंजी और साथ ही जगन की जीवन लीला समाप्त हो गई। उसकी लाश को वहीं छोड़ मैं पलटा और उस तरफ चल पड़ा जिधर मैंने रघुवीर को रखा था। कुछ ही पलों में मैं उस पेड़ के पीछे पहुंच गया मगर अगले ही पल मैं ये देख कर चौंका कि वहां से रघुवीर गायब है। मैंने तो उसे बेहोश कर दिया था, फिर वो होश में कैसे आया? मेरे ज़हन में बड़ी तेज़ी से ये सवाल तांडव सा करने लगा।

अंधेरे में मैं उसे खोजने लगा। रघुवीर का मिलना मेरे लिए बहुत ज़रूरी था। अगर वो हाथ से निकल गया तो बहुत बड़ी मुसीबत का सबब बन सकता था वो। इधर उधर खोजते हुए मैं सोचने लगा कि आख़िर कहां गया होगा वो? क्या सच में उसे होश आ गया रहा होगा या कोई और ही ले गया उसे? किसी और का सोचते ही मैं एकदम से परेशान हो गया। तभी बादलों ने चांद को आज़ाद किया तो थोड़ी रोशनी फैली जिससे दूर मुझे एक साया नज़र आया। उसे देख मैं तेज़ी से उस तरफ दौड़ पड़ा। कुछ ही देर में मैं उसके क़रीब पहुंच गया।

रघुवीर को मैंने उसकी जांघ पर गोली मारी थी इस लिए वो लंगड़ा कर चल रहा था। दर्द की वजह से वो ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा था। पीछे से किसी के आने की आहट सुन वो बुरी तरह उछल पड़ा और लड़खड़ा कर वहीं गिर गया।

"आज तो चमत्कार ही चमत्कार देखने को मिल रहे हैं भाई।" उसके सामने पहुंचते ही मैं बोला____"पहले जगन का हवेली के कमरे से बाहर आना ही नहीं बल्कि यहां मुझ तक पहुंच भी जाना और दूसरा तेरा होश में आ जाना। कमाल ही हो गया न? बहरहाल ये तो बता, तू इतना जल्दी होश में कैसे आया?"

"गोली चलने की आवाज़ से होश आया मुझे।" रघुवीर बोला____"जब मैंने देखा कि तुम जगन से बातें करने में व्यस्त हो तो मैं चुपके से खिसक गया।"

"बड़ा बेवफ़ा है यार तू।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अपने दुश्मन को अकेला ही छोड़ कर चला जा रहा था?"

रघुवीर मेरी बात सुन कर कुछ न बोला। बस कसमसा कर रह गया था। उसकी कसमसाहट पर मेरी मुस्कान और भी गहरी हो गई मगर फिर अचानक ही मुझे उसके किए गए कर्म याद आ गए जिसके चलते मेरे अंदर उसके प्रति गुस्सा उभर आया।

"आगे की कहानी सुनने के लिए ना तो अभी वक्त है और ना ही ये कोई माकूल जगह है।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"इस लिए तुझे एक बार फिर से बेहोशी की गहरी नींद में जाना होगा।"

इससे पहले कि रघुवीर मेरी बात सुन कर कुछ कर पाता मैंने बिजली की सी तेज़ी से रिवॉल्वर के दस्ते का वार उसकी कनपटी पर कर दिया। वातावरण में उसकी घुटी घुटी सी चीख गूंजी और इसके साथ ही वो बेहोशी की गर्त में डूबता चला गया।

✮✮✮✮

"छ...छोटे कुंवर आप यहां??" भुवन ने जैसे ही दरवाज़ा खोला तो बाहर अंधेरे में मुझे देख कर चौंकते हुए बोल पड़ा था____"ऐसे हालात में आपको इस तरह कहीं नहीं घूमना चाहिए।"

"हां मुझे पता है।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"अच्छा ये बताओ कि तुम अपने घर क्यों नहीं गए? बाकी लोग तो थे ही यहां पर।"

"आपने ही तो कहा था कि मैं मुरारी के घर वालों की सुरक्षा व्यवस्था का ख़याल रखूं।" भुवन ने कहा____"आज कल जिस तरह के हालात हैं उससे मैं नावाकिफ नहीं हूं। यही सोच कर मैं पिछले कुछ दिनों से रात में भी यहीं रुकता हूं और एक दो बार मुरारी के घर का चक्कर भी लगा आता हूं।"

"ये सब तो ठीक है भुवन।" मैं भुवन के इस काम से और उसकी ईमानदारी से मन ही मन बेहद प्रभावित हुआ, बोला____"लेकिन तुम्हें ख़ुद का भी तो ख़याल रखना चाहिए। आख़िर हालात तो तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं हैं। मेरे दुश्मनों को भी पता ही होगा कि तुम मेरे आदमी हो और मेरे कहने पर कुछ भी कर सकते हो। ऐसे में वो तुम्हारी जान के भी दुश्मन बन जाएंगे।"

"मैं किसी बात से नहीं डरता छोटे कुंवर।" भुवन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"ख़ास कर किसी होनी या अनहोनी से तो बिल्कुल भी नहीं। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जीवन में जिसके साथ जो भी होना लिखा है उसे कोई चाह कर भी मिटा नहीं सकता। ख़ैर आप बताइए इस वक्त मेरे लिए क्या हुकुम है?"

"कोई ख़ास बात नहीं है।" मैंने कहा____"बस एक दुश्मन मेरे हाथ लगा है तो मैं चाहता हूं कि आज रात भर के लिए उसे यहां पर रख दूं। कल दिन में मैं उसे ले जाऊंगा यहां से।"

"जैसी आपकी इच्छा।" भुवन ने कहा____"वैसे कौन है वो?"
"रघुवीर सिंह।" मैंने कहा____"मुंशी चंद्रकांत का बेटा।"

"क...क्या???" भुवन उछल ही पड़ा, बोला____"तो क्या वो भी इस सब में शामिल है? हे भगवान! ये सब क्या हो रहा है?"

"ज़्यादा मत सोचो।" मैंने कहा____"उसको यहां पर बाकी लोगों की नज़रों से छुपा कर ही रखना है। मैं नहीं चाहता कि बेवजह कोई तमाशा हो जाए और बाकी लोग घबरा जाएं।"

मेरी बात सुन कर भुवन ने सिर हिलाया और फिर मेरे कहने पर उसने रघुवीर को उठा कर मेरे नए बन रहे मकान के उस हिस्से में ले जा कर बंद कर दिया जिसे बाकी लोगों से छुपा कर बनवाया था मैंने। उसके बाद मैं और भुवन बाहर आ गए।

"क्या अब आप हवेली जा रहे हैं?" भुवन ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा तो मैंने कहा____"हां, हवेली जाना ज़रूरी है। वैसे भी पिता जी और बाकी लोग बाहर गए हुए हैं तो ऐसे में मेरा हवेली में रहना ज़रूरी है।"

"पर मैं रात के इस वक्त आपको अकेले नहीं जाने दूंगा।" भुवन ने चिंतित भाव से कहा____"मैं भी आपके साथ चलूंगा।"

"अरे! तुम मेरी फ़िक्र मत करो यार।" मैंने कहा____"मुझे किसी से कोई ख़तरा नहीं है और अगर है भी तो कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

"अगर बात दिन की होती तो कोई बात नहीं थी छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"मगर ये रात का वक्त है। आसमान में बादल छाए हुए हैं जिसकी वजह से अंधेरा भी है। ऐसे में दुश्मन कहीं भी घात लगाए बैठा हो सकता है। इस लिए मेरी बात मानिए इस वक्त अकेले मत जाइए।"

"यहां भी तुम्हारे लिए रहना ज़रूरी है।" मैंने कहा____"दुश्मन कहीं भी घात लगाए बैठा हो सकता है। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहता कि रघुवीर के साथ कोई अनहोनी हो जाए। उससे अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।"

"उसकी आप बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए छोटे कुंवर।" भुवन ने पूरे आत्म विश्वास के साथ कहा____"उस तक कोई नहीं पहुंच पाएगा। मैं जानता हूं कि आपका हवेली में जाना ज़रूरी है इस लिए मैं आपको रोकूंगा नहीं किंतु अकेले जाने भी नहीं दूंगा। भगवान के लिए मेरी बात मान जाइए।"

"अच्छा ठीक है।" भुवन के ज़ोर देने पर आख़िर मुझे मानना ही पड़ा____"तुम भी चलो मेरे साथ किंतु किसी और को भी साथ ले लो वरना वापसी में तुम अकेले हो जाओगे। मैं भी तो नहीं चाहता कि तुम्हें कुछ हो जाए।"

भुवन मेरी बात मान गया। वो अंदर गया और एक आदमी को जगा कर ले आया। भुवन के कहने पर उस आदमी ने पानी से अपना चेहरा धोया ताकि उसका आलस और नींद दूर हो जाए। उसके बाद भुवन मोटर साईकिल ले कर चल पड़ा। उसने मोटर साइकिल को स्टार्ट नहीं किया था बल्कि उसे पैदल ही ठेलते हुए ले चला। मेरे पूछने पर उसने बताया कि ऐसा वो सावधानी के तौर पर कर रहा है। मुझे उसकी समझदारी पर बड़ा फक्र हुआ। क़रीब आधा किलो मीटर पैदल आने के बाद उसने मुझे मोटर साइकिल पर बैठाया और फिर मेरे पीछे एक दूसरा आदमी बैठा। उसके बाद भुवन ने मोटर साइकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया।

भुवन मेरा सबसे वफ़ादार आदमी था। वो मेरे लिए खुशी से अपनी जान दे सकता था। एक साल पहले मैंने उस पर एक उपकार किया था। उसकी बीवी बहुत ज़्यादा बीमार थी और वो उस वक्त शहर में उसका इलाज़ करवा रहा था। डॉक्टर के अनुसार उसकी बीवी को कोई ऐसी बीमारी थी जिसके लिए ज़्यादा रूपये लगने थे। भुवन के पास जो भी पैसा था वो पहले ही उसकी बीवी के इलाज़ में ख़र्च हो गया था। ये एक इत्तेफ़ाक ही था कि उसी समय मैं अपने दोस्त सुनील के साथ उस अस्पताल में गया हुआ था। भुवन की नज़र जब मुझ पर पड़ी तो वो दौड़ते हुए मेरे पास आया और मुझसे अपनी बीवी के इलाज़ के लिए पैसे मांगने लगा। मैं भुवन को जानता था क्योंकि वो हमारी ही ज़मीनों पर काम किया करता था। वो जिस तरह से रो रो कर पैसे के लिए मुझसे मिन्नतें कर रहा था उसे देख मैंने फ़ौरन ही उसे नोटों की एक गड्डी थमा दी थी और कहा था कि अगर और पैसों की ज़रूरत पड़े तो वो बेझिझक मुझसे मांग ले। बस, इतना ही उपकार किया था मैंने उसके ऊपर और कमबख़्त उसी उपकार के लिए उसने ख़ुद को मेरा कर्ज़दार मान लिया था। बाद में मैंने उसको बोला भी था कि उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए पर वो नहीं माना और बोला कि अब से वो मेरे लिए कुछ भी करेगा।

कुछ ही देर में भुवन की मोटर साईकिल हवेली पहुंच गई। रास्ते में कहीं कोई परेशानी जैसी बात नहीं हुई थी। मैं जब नीचे उतर कर हवेली के मुख्य दरवाज़े की तरफ जाने लगा तो भुवन जल्दी से मेरे पीछे आया और मुझे रुकने को बोला।

"एक बात कहना चाहता हूं आपसे।" भुवन ने भारी झिझक के साथ कहा____"मैं जानता हूं कि उसके लिए ये समय सही नहीं है फिर भी कहना चाहता हूं।"

"कोई बात नहीं भुवन।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा___"तुम बेझिझक कहो, क्या कहना चाहते हो?"

"मुझे लगता है कि मुरारी की बेटी अनुराधा के मन में आपके लिए प्रेम जैसी भावना है।" भुवन ने झिझकते हुए कहा___"मैं जानता हूं कि वो अभी नादान और नासमझ है और आपसे उसका कोई मेल भी नहीं है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप उसे किसी भ्रम में मत रखिएगा। उस मासूम को मैंने दिल से अपनी छोटी बहन मान लिया है। अगर उसे किसी तरह की दुख तकलीफ़ हुई तो मुझे भी होगी। इस लिए....।"

"फ़िक्र मत करो भुवन।" मैंने उसकी बात को काटते हुए कहा____"तुमसे कहीं ज़्यादा मुझे उसके दुख तकलीफ़ की फ़िक्र है। अगर नहीं होती तो तुम्हें उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी न देता।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद छोटे कुंवर।" भुवन ने खुश हो कर कहा____"अच्छा अब मैं चलता हूं, नमस्कार।"

उसके जाने के बाद मैं भी आगे बढ़ चला। ज़हन में भुवन की ही बातें गूंज रहीं थी। ख़ैर, मुख्य द्वार पर मौजूद दरबानों ने मुझे देखते ही दरवाज़ा खोल दिया। मैं अंदर दाखिल हो कर जैसे ही बैठक के पास पहुंचा तो नाना जी और भैया के चाचा ससुर मुझे देखते ही खड़े हो गए।

"आ गया मेरा बच्चा।" नाना जी ने नम आंखों से देखते हुए मुझसे कहा____"बिना किसी को बताए कहां चले गए थे तुम? तुम्हें पता है हम सब यहां कितना घबरा गए थे?"

"चिंता मत कीजिए नाना जी।" मैंने कहा____"मैं ठीक हूं और जहां भी गया था कुछ न कुछ कर के ही आया हूं।"

"क...क्या मतलब??" नाना जी के साथ साथ बाकी लोग भी चौंके____"ऐसा क्या कर के आए हो तुम और तुम्हारे पिता जी लोग मिले क्या तुम्हें?"

उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?



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Continue.....
बहुत ही सुपर डुपर अपडेट हैं भाई मजा आ गया
 

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उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?


अब आगे....


पता नहीं रात का वो कौन सा पहर था किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैं अपने कमरे में बिस्तर पर विभोर के बगल से लेटा हुआ था। विभोर गहरी नींद में था। तभी गहन सन्नाटे में कहीं दूर से उठता शोर सुनाई दिया। मेरे कान एकदम से उस शोर को ध्यान से सुनने के लिए मानों खड़े हो गए। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि वो शोर असल में कुछ लोगों के रोने धोने का है। मुझे समझते देर न लगी कि पिता जी जिस काम से इतने लोगों के साथ गए थे वो काम कर आए हैं। ये उसी का नतीजा था कि इतने वक्त बाद ये रोने धोने का शोर ख़ामोश वातावरण में गूंजने लगा था। अचानक ही मेरे ज़हन में कुछ सवाल उभर आए और उनके साथ ही कुछ ख़याल भी जिन्होंने मुझे थोड़ा विचलित सा कर दिया।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। रात के इस वक्त किसी दस्तक से मैं एकदम से सतर्क हो गया। बिस्तर से मैं बहुत ही सावधानी से उतरा और दबे पांव दरवाज़े के पास पहुंचा। कुंडी खोल कर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर पिता जी को खड़े पाया।

"बैठक में आओ।" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"कुछ बात करनी है तुमसे।"
"जी ठीक है।" मैंने कहा तो वो पलट कर चल दिए।

कुछ ही देर में मैं बैठक में पहुंच गया जहां पर बाकी सब लोग भी बैठे हुए थे। हवेली में जो लोग सो रहे थे वो जाग चुके थे, सिवाय अजीत और विभोर के।

"हमारी इजाज़त के बिना।" पिता जी ने सख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और बिना किसी को बताए आख़िर तुम हवेली से बाहर क्यों गए थे?"

"आप यहां थे नहीं इस लिए आपसे इजाज़त ले नहीं सका।" मैंने बेख़ौफ भाव से कहा____"और यहां किसी को बताता तो कोई मुझे बाहर जाने ही नहीं देता। अब क्योंकि मेरे लिए बाहर जाना ज़रूरी था इस लिए चला गया।"

"वैभव।" नाना जी ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"ये क्या तरीका है अपने पिता से बात करने का?"
"आप ही बताइए नाना जी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"कि ये सब बताने के लिए मुझे कौन सा तरीका अपनाना चाहिए था?"

"हमें तो ख़बर मिली थी कि तुम पहले से काफी बदल गए हो।" नाना जी ने उसी नाराज़गी से कहा____"लेकिन तुम तो अभी भी वैसे ही हो। ख़ैर क्या कह सकते हैं हम।"

"आख़िर कब तुम अपनी मनमानियां करना बंद करोगे?" पिता जी ने गुस्से से कहा____"क्या चाहते हो तुम? हम सबको ज़िंदा मार देना चाहते हो?"

"शांत हो जाइए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"ये समय इन सब बातों का नहीं है।"
"अरे! कैसे नहीं है अर्जुन सिंह?" पिता जी ने कहा____"हम अपने दो जिगर के टुकड़ों को खो चुके हैं और ये जिस तरीके से यहां से बिना किसी को बताए चला गया था अगर इसे कुछ हो जाता तो? क्या फिर हम ज़िंदा रह पाते?"

"मैं समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने पिता जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"किंतु ये अच्छी बात है न कि वैभव के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। हम उम्मीद करते हैं कि अब से ये ऐसा नहीं करेगा।" कहने के साथ ही अर्जुन सिंह मुझसे मुखातिब हुए____"हम ठीक कह रहे हैं न वैभव बेटा?"

"जी चाचा जी।" मैंने सिर झुकाते हुए कहा____"और मैं माफ़ी चाहता हूं आप सबसे अपने बर्ताव के लिए। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए था किंतु उस वक्त मेरी भी मानसिक अवस्था ऐसी थी कि मुझे कुछ और सूझा ही नहीं। जब मुझे पता चला कि मेरे पिता जी रात के वक्त आप सबको ले कर चले गए हैं तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया था कि कहीं आप में से किसी के साथ कुछ हो न जाए। मैं अपने चाचा और बड़े भैया को खो चुका हूं चाचा जी, और अब मैं अपने पिता जी को नहीं खोना चाहता। मेरे अकेले चले जाने पर तो इन्होंने कह दिया कि मुझे कुछ हो जाता तो क्या होता लेकिन क्या आप में से किसी ने ये सोचा कि अगर मेरे पिता जी को कुछ हो जाता तो हम सबका क्या होता?"

मेरी ये बात सुन कर किसी के मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। बात छोटे मुंह से भले ही निकली थी लेकिन थी बड़ी।

"आप सब तो मुझसे बड़े हैं।" मैंने सबको ख़ामोश देख कहा____"फिर भी किसी ने ये नहीं सोचा कि रात के वक्त इस तरह से हुजूम ले कर निकल पड़ना भला कौन सी समझदारी की बात थी? हमारा समय बहुत ख़राब चल रहा है चाचा जी। हमें नहीं पता कि हमारा कौन कौन दुश्मन है और कहां कहां से हम पर घात लगाए बैठा है? जगताप चाचा और बड़े भैया तो दिन के समय ढेर सारे आदमियों के साथ निकले थे इसके बावजूद दुश्मनों ने उन सबकी हत्या कर दी। जब दिन के समय वो लोग अपना बचाव नहीं कर पाए तो क्या रात के वक्त आप लोग अपना बचाव कर पाते?"

"पर हमारे साथ कुछ हुआ तो नहीं वैभव।" अर्जुन सिंह ने ये कहा तो मैंने कहा____"कुछ हुआ नहीं तो इसका एक ही मतलब है चाचा जी कि आप सबकी किस्मत अच्छी थी। हालाकि अमर मामा जी को गोली तो लग ही गई न। अगर वही गोली पिता जी के सीने में लग जाती तो क्या होता? समय जब ख़राब होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। मैं आपसे पूछता हूं कि अगर आप सब यही काफ़िला दिन में ले कर जाते तो क्या बिगड़ जाता? क्या हमारा दुश्मन रात में ही कहीं भाग जाता और आप लोग उसे पकड़ नहीं पाते?"

"शायद तुम सही कह रहे हो वैभव।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा____"रात के वक्त हमारा यहां से जाना वाकई में सही फ़ैसला नहीं था। ख़ैर छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। अच्छी बात यही हुई कि हमने अपने दुश्मन को नेस्तनाबूत कर दिया है।"

"क...क्या सच में??" मैं उनकी बात सुनते ही हैरानी से बोल पड़ा____"कौंन लोग थे वो?"
"और कौन हो सकते हैं?" अर्जुन सिंह ने कहा____"वही थे तुम्हारे गांव के साले वो साहूकार लोग। सबके सब मारे गए, बस दो ही लोग बच गए।"

"बहुत जल्द उनको भी मौत नसीब हो जाएगी अर्जुन सिंह।" पिता जी ने सहसा सर्द लहजे में कहा____"बच कर जाएंगे कहां?"

"जो लोग मुझे मारने के लिए चंदनपुर गए थे।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"उनमें से एक को पकड़ा था मैंने। उसने मुझे बताया था कि उन लोगों को मुझे जान से मारने के लिए साहूकार गौरी शंकर ने भेजा था।"

"और ये तुम अब बता रहे हो हमें?" पिता जी ने मुझे घूरते हुए कहा____"इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो तुम?"

"बताने का समय ही कहां मिला था पिता जी।" मैंने कहा____"मैं तो चंदनपुर से तब आया जब जगताप चाचा और बड़े भैया की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी।"

"गौरी शंकर और वो हरि शंकर का बेटा रूपचंद्र बच गए हैं।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं, जल्द ही उनका भी किस्सा ख़त्म हो जाएगा।"

"क्या उन दोनों को भी जान से मार देना सही होगा?" नाना जी ने कहा____"हमारा ख़याल है कि उन्हें कोई दूसरी सज़ा दे कर जीवित ही छोड़ देना चाहिए। वैसे भी उनके घर की बहू बेटियों को सहारा देने के लिए उनके घर में किसी न किसी मर्द का होना आवश्यक है।"

"उनके घर की बहू बेटियों को शायद पता चल गया है कि उनके घर के मर्द अब नहीं रहे।" मामा जी ने कहा____"ये रोने धोने का शोर शायद वहीं से आ रहा है?"

"हां हो सकता है।" अर्जुन सिंह ने कहा।
"वैसे मुझे भी कुछ ऐसा पता चला है।" मैंने कहा____"जिसकी आप लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"क...क्या पता चला है तुम्हें?" पिता जी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।
"हमारे दुश्मनों की सूची में सिर्फ साहूकार लोग ही नहीं हैं पिता जी।" मैंने कहा____"बल्कि आपका मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर भी है।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" पिता जी के साथ साथ सभी के चेहरों पर आश्चर्य उभर आया।
"यही सच है पिता जी।" मैंने कहा____"मुंशी और उसका बेटा रघुवीर दोनों ही हमारे दुश्मन बने हुए हैं।"

"पर तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" अर्जुन सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"जब मैं यहां से आपके पीछे गया था।" मैंने कहा____"तो रास्ते में मुझे एक साया भागता हुआ अंधेरे में नज़र आया। मैंने उस पर रिवॉल्वर तान कर जब उसे रुकने को कहा तो उल्टा उसने मुझ पर ही गोली चला दी। वो तो अच्छा हुआ कि गोली मुझे नहीं लगी मगर फिर मैंने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया। आख़िर वो मेरी पकड़ में आ ही गया और तब मैंने जाना कि वो असल में मुंशी का बेटा रघुवीर है।"

"वो दोनो बाप बेटे।" अर्जुन सिंह ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला किस वजह से ऐसी दुश्मनी रखे हो सकते हैं?"
"बड़े दादा ठाकुर जी की वजह से।" मैंने कुछ सोचते हुए पिता जी की तरफ देखा____"शायद आप समझ गए होंगे पिता जी।"

"हैरत की बात है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"अगर वो दोनों हमारे स्वर्गीय पिता जी की वजह से हमसे दुश्मनी रखे हुए हैं तो उन्होंने अपनी दुश्मनी के चलते हमारे साथ कुछ भी बुरा करने के लिए इतना समय क्यों लिया? हमें आशंका तो थी लेकिन यकीन नहीं कर पा रहे थे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया कि चंद्रकांत के मन में हमारे प्रति कोई बैर भाव है।"

"कुछ लोग अपने अंदर के भावों को छुपाए रखने में बहुत ही कुशल होते हैं ठाकुर साहब।" मामा अवधराज जी ने कहा____"जब तक वो ख़ुद नहीं चाहते तब तक किसी को उनके अंदर की बातों का पता ही नहीं चल सकता।"

"हम्म सही कह रहे हैं आप।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ख़ैर रात काफी हो गई है। आप सभी को अब आराम से सो जाना चाहिए। इस बारे में बाकी बातें कल पंचायत में होंगी।"

पिता जी के कहने पर सभी ने सहमति में अपना अपना सिर हिलाया और फिर पिता जी के उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में बैठक कक्ष खाली हो गया। इधर मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

✮✮✮✮

अगले दिन।
हवेली के विशाल मैदान में लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी। वातावरण में लोगों का शोर गूंज रहा था।। भीड़ में साहूकारों के घरों की बहू बेटियां भी मौजूद थीं जो दुख में डूबी आंसू बहा रहीं थी। लगभग पूरा गांव ही हवेली के उस बड़े से मैदान में इकट्ठा हो गया था। एक तरफ ऊंचा मंच बना हुआ था जिसमें कई सारी कुर्सियां रखी हुई थीं और उन सबके बीच में एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसमें दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मंच में रखी बाकी कुर्सियों में नाना जी, मामा जी, भैया के साले, और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे। मंच के सामने लोगों की भीड़ थी और भीड़ के आगे साहूकारों के घरों की बहू बेटियां खड़ी हुई थीं। मंच के सामने ही एक तरफ मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा खड़ा हुआ था। दोनों ही बाप बेटों के सिर झुके हुए थे। उनके दूसरी तरफ मैं खड़ा हुआ था। सुरक्षा का ख़याल रखते हुए हर जगह क‌ई संख्या में हमारे आदमी हाथों में बंदूक लिए खड़े थे और साथ ही पूरी तरह सतर्क भी थे।

भीड़ में ही आगे तरफ मुरारी और जगन के घरों से उनकी बीवियां और बच्चे थे। अपनी मां और छोटे भाई अनूप के साथ अनुराधा भी आई हुई थी जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भुवन के कंधों पर थी। वो ख़ुद भी उनके पास ही खड़ा था। ऐसे संवेदनशील वक्त में ना चाहते हुए भी मेरी नज़र अनुराधा की तरफ बारहा चली जाती थी और हर बार मैं ये देख कर विचलित सा हो जाता था कि उसकी नज़रें मुझ पर ही जमी होती थीं। मेरा ख़याल था कि वो पहली बार ही हवेली आई थी। बहरहाल, सरोज के बगल से जगन की बीवी गोमती और उसके सभी बच्चे खड़े हुए थे। गोमती और उसकी बेटियों की आंखों में आसूं थे।

वातावरण में एक अजीब सी सनसनी फैली हुई थी। तभी हवेली के हाथी दरवाज़े से दो जीपें अंदर आईं और एक तरफ आ कर रुक गईं। उन दो जीपों से कुछ लोग नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए मंच की तरफ आ गए। उन्हें देखते ही मंच पर अपनी कुर्सी में बैठे मेरे पिता जी उठ कर खड़े हो गए।

"नमस्कार ठाकुर साहब।" आए हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा तो पिता जी ने भी जवाब में उनका अभिवादन किया। कुछ मुलाजिमों ने फ़ौरन ही पिता जी के इशारे पर कुछ और कुर्सियां ला कर मंच पर रख दी। मेरे पिता जी के आग्रह पर वो सब बैठ गए।

"पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है।" दादा ठाकुर ने अपनी कुर्सी से खड़े हो कर अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और पिछली रात जो कुछ हुआ है उससे दूर दूर तक के गांव वालों को पता चल चुका है कि वो सब कुछ हमसे ताल्लुक रखता है। यूं तो आस पास के कई सारे गावों के मामलों के फ़ैसले हम ही करते आए हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उसका फ़ैसला आज हम ख़ुद नहीं करेंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति हमारे फ़ैसले को ग़लत माने या उस पर अपनी ग़लत धारणा बना ले, या फिर ये समझ ले कि हमने अपनी ताक़त और पहुंच का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है। इस लिए हमने सुंदरगढ़ से ठाकुर महेंद्र सिंह जी को यहां आमंत्रित किया है। हम यहां पर मौजूद हर ब्यक्ति से यही कहना चाहते हैं कि ठाकुर महेंद्र सिंह जी हर पक्ष के लोगों की बातें सुनेंगे और फिर उसके बारे में अपना निष्पक्ष फ़ैसला सुनाएंगे। हम लोगों के सामने ये वचन देते हैं कि अगर इस मामले में हम गुनहगार अथवा अपराधी क़रार दिए गए तो फ़ैसले के अनुसार जो भी सज़ा हमें दी जाएगी उसे हम तहे दिल से स्वीकार करेंगे। अब हम आप सभी से जानना चाहते हैं कि क्या आप सब हमारी इस सोच और बातों से सहमत हैं?"

दादा ठाकुर के ऐसा कहते ही विशाल मैदान में मौजूद जनसमूह ने एक साथ चिल्ला कर कहा कि हां हां हमें मंज़ूर है। जनसमूह में से ज़्यादातर ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं जिनमें ये कहा गया कि दादा ठाकुर हमें आपकी सत्यता और निष्ठा पर पूरा भरोसा है इस लिए आप ख़ुद ही इस मामले का फ़ैसला कीजिए। ख़ैर दादा ठाकुर ने ऐसी आवाज़ों को सुन कर इतना ही कहा कि फिलहाल वो ख़ुद एक मुजरिम की श्रेणी में हैं इस लिए इस मामले में फ़ैसला करने का हक़ वो ख़ुद नहीं रखते।

इतना कह कर पिता जी ने ठाकुर महेन्द्र सिंह जी को अपनी कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया तो वो थोड़े संकोच के साथ आए और बैठ ग‌ए। उनके बैठने के बाद पिता जी मंच से नीचे उतर आए। ये देख कर लोग हाय तौबा करने लगे जिन्हें देख पिता जी ने सबको शांत रहने को कहा।

"इस मामले से जुड़े सभी लोग सामने आ जाएं।" पिता जी की कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और एक एक कर के अपना पक्ष रखें।"

महेंद्र सिंह जी की बात सुन कर साहूकारों के घरों की औरतें थोड़ा आगे आ गईं। उनको देख जहां सरोज और गोमती भी आगे आ गईं वहीं मुंशी और उसका बेटा भी दो क़दम आगे आ गया।

"ठाकुर साहब।" मणि शंकर की बीवी फूलवती देवी ने दुखी भाव से कहा____"सबसे ज़्यादा बुरा हमारे साथ हुआ है। हमारे घर के मर्दों और बच्चों को रात के अंधेरे में गोलियों से भून दिया दादा ठाकुर ने। अब आप ही बताइए कि हमारा क्या होगा? हम सब तो विधवा हुईं ही हमारे साथ हमारी जो बहुएं थी वो भी विधवा हो गईं। इतना ही नहीं हमारी बेटियां अनाथ हो गईं। हम अकेली औरतें भला इस दुख से कैसे उबर सकेंगी और कैसे अपने साथ साथ अपनी अविवाहित बेटियों के जीवन का फ़ैसला कर पाएंगी?"

"ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, इनके घरों के मर्द और बच्चों की इस तरह से हुई हत्या के लिए क्या आप खुद को कसूरवार मानते हैं?"

"बेशक कसूरवार मानते हैं।" पिता जी ने बेबाक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन ये भी सच है कि वो सब अपनी मौत के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। उन्हें अपने किए गए कर्मों का फल मिला है।"

"कैसे?" महेंद्र सिंह ने सवालिया भाव से उन्हें देखते हुए पूछा____"इस मामले में क्या आप सबको खुल कर तथा विस्तार से बताएंगे कि उन्हें उनके कौन से कर्मों का फल दिया है आपने?"

"उन्होंने हमारे छोटे भाई जगताप और हमारे बड़े बेटे अभिनव सिंह के साथ जाने कितने ही लोगों की हत्या की थी।" पिता जी ने कहा____"इतना ही नहीं उन्होंने हमारे छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने की कोशिश की थी जिसके लिए वो चंदनपुर तक पहुंच गए थे।"

"क्या आपके पास।" महेंद्र सिंह ने पूछा____"इन बातों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिल्कुल है।" पिता जी ने मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये दोनों पिता पुत्र खुद हमारी बात का प्रमाण देंगे। ये दोनों खुद इस बात को साबित करेंगे। अगर ये कहा जाए तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा कि ये दोनों खुद भी साहूकारों के साथ मिले हुए थे और गहरी साज़िश रच कर हमारे जिगर के टुकड़ों की हत्या की।"

पिता जी की इस बात को सुनते ही जहां भीड़ में खड़े लोगों में खुसुर फुसुर होने लगी वहीं फूलवती और उसके घरों की बाकी बहू बेटियां हैरत से उन्हें देखने लगीं थी।

"ठाकुर साहब ने जो कुछ कहा।" महेंद्र सिंह ने मुंशी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या वो सच है? क्या आप दोनों क़बूल करते हैं कि आप दोनों साहूकारों से मिले हुए थे और उनके साथ मिल कर ही मझले ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की थी?"

"हां हां यही सच है ठाकुर साहब।" मुंशी हताश भाव से जैसे चीख ही पड़ा____"हम दोनों बाप बेटों ने साहूकारों के साथ मिल कर ही वो सब किया है लेकिन यकीन मानिए मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। अगर मेरा बस चले तो मैं इस हवेली में रहने वाले हर व्यक्ति को जान से मार डालूं। ख़ास कर इस लड़के को जिसका नाम वैभव सिंह है?"

"हम तुम्हारा इशारा अच्छी तरह समझ रहे हैं चंद्रकांत।" पिता जी ने कहा____"लेकिन तुम्हें भी ये अच्छी तरह पता है कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है। कसूर सिर्फ एक हाथ का नहीं होता।"

"कहना बहुत आसान होता है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"और सुनने में भी बड़ा अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िंदगी में जब किसी के साथ ऐसी कोई बात होती है तो यकीन मानिए बहुत तकलीफ़ होती है। धीरे धीरे वो तकलीफ़ ऐसी हो जाती है कि नासूर ही बन जाती है। एक पल के लिए भी वो इंसान को चैन से जीने नहीं देती।"

"चलो मान लिया हमने।" पिता जी ने कहा____"मान लिया हमने कि बेहद तकलीफ़ होती है लेकिन जिसने तुम्हें तकलीफ़ दी थी सज़ा भी सिर्फ उसी को देनी चाहिए थी ना। हमारे भाई जगताप और बेटे अभिनव का क्या कसूर था जिसके लिए तुमने साहूकारों के साथ मिल कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया?"

"आपने भी सुना ही होगा ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने कहा____"कि गेंहू के साथ हमेशा घुन भी पिस जाता है। मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की मौत घुन की तरह पिस जाने जैसी ही थी।"

"हम इस मामले से संबंधित सारी बातें विस्तार से जानना चाहते हैं।" महेंद्र सिंह जी ने ऊंची आवाज़ में मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"इस लिए सबके सामने थोड़ा ऊंची आवाज़ में बताओ कि जो कुछ भी आप दोनों पिता पुत्र ने किया है उसे कैसे और किस किस के सहयोग से अंजाम दिया है?"

"असल में ये रंजिश और ये दुश्मनी बहुत पुरानी है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"बड़े दादा ठाकुर के समय की रंजिश है ये। उन्होंने जो कुछ किया था उसका बदला उनके ज़िंदा रहते कोई भी होता तो लेने का सोच ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं सोच सका, बस अंदर ही अंदर घुटता रहा। कुछ सालों बाद वो अचानक से बीमार पड़ गए और फिर ऐसा बीमार पड़े कि शहर के बड़े से बड़े चिकित्सक भी उनका इलाज़ नहीं कर पाए। अंततः बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई। उनकी ऐसी मृत्यु हो जाने के बारे में कोई कुछ भी सोचे लेकिन मैं तो यही समझता आया हूं कि उन्हें अपने पाप कर्मों की ही सज़ा इस तरह से मिल गई थी। बहरहाल, जिनसे मैं बदला लेना चाहता था वो ईश्वर के घर पहुंच गया था। मैंने भी ये सोच कर खुद को समझा लिया था कि चलो कोई बात नहीं। उसके बाद ठाकुर प्रताप सिंह जी ने दादा ठाकुर की गद्दी सम्हाल ली। शुकर था कि ये अपने पिता के जैसे नहीं थे। मैं खुद भी इन्हें बचपन से जानता था। ख़ैर उसके बाद आगे चल कर इनके द्वारा कभी कुछ भी बुरा अथवा ग़लत नहीं हुआ तो मैंने सोचा काश! इस दुनिया का हर इंसान इनके जैसा ही हो जाए। कहने का मतलब ये कि जब इनके द्वारा किसी के साथ बुरा नहीं हुआ तो मैं भी सब कुछ भुला कर पूरी ईमानदारी से हवेली की सेवा में लग गया था। वक्त गुज़रता रहा, फिर एक दिन मुझे पता चला कि वर्षों पुराना किस्सा फिर से दोहराया जा रहा है और वो किस्सा पुराने वाले किस्से से भी कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर दोहराया जा रहा है। जिन ज़ख्मों को मैंने किसी तरह मरहम लगा कर दिल में ही कहीं दफ़न कर दिया था वो ज़ख्म गड़े हुए मुर्दे की मानिंद दिल की कब्र से निकल आए। पहले बड़े दादा ठाकुर थे इस लिए उनके ख़ौफ के चलते मैं कुछ न कर सका था लेकिन इस बार मैं ख़ुद ही किसी तरह से ख़ुद को समझाना नहीं चाहता था। सोच लिया कि अब चाहे जो हो जाए लेकिन उस इंसान का नामो निशान मिटा कर ही रहूंगा जिसने बड़े दादा ठाकुर का किस्सा दोहराने की हिमाकत ही नहीं की बल्कि पाप किया है।"

"गुस्से में इंसान बहुत कुछ सोच लेता है लेकिन जब दिमाग़ थोड़ा शांत होता है तो वैसा कर लेना आसान नहीं लगता।" सांस लेने के बाद मुंशी ने फिर से बोलना शुरू किया____"यही हाल हम दोनों बाप बेटे का था। वैभव सिंह दादा ठाकुर का बेटा था जोकि पूरा का पूरा अपने दादा पर गया था। वही ग़ुस्सा, वही अंदाज़ और वही हवसीपन। छोटी सी उमर में ही दूर दूर तक उसके नाम का डंका ही नहीं बज रहा था बल्कि उसका ख़ौफ भी फैल रहा था। मैंने गुप्त रूप से पता किया तो पाया कि इसकी पहुंच भी कम नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं। हम दोनों चिंता में पड़ गए कि आख़िर अब करें तो करें क्या? अचानक ही मुझे साहूकारों का ख़याल आया और बस मैंने उनसे मिल जाने का मन बना लिया।"

"उनसे कैसे मिल ग‌ए तुम?" पिता जी ने पूछा____"क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो हमारे खिलाफ़ ग़लत करने का इरादा रखते हैं?"

"बिल्कुल पता था ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"सच तो ये है कि वो बहुत पहले से मुझे अपनी तरफ मिलाने की पहल कर रहे थे। वो तो मैं ही उनकी बात नहीं मान रहा था क्योंकि मैं आपसे गद्दारी करने का ख़याल भी ज़हन में नहीं लाता था। यही वजह थी कि साहूकारों से मेरी हमेशा अनबन ही रहती थी मगर मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन मुझे उन्हीं साहूकारों से मदद लेनी पड़ जाएगी। बहरहाल, ये तो जग ज़ाहिर बात है कि इंसान किसी के सामने तभी झुकता है जब या तो वो झुकने के लिए मजबूर हो या फिर उसे उसकी कोई ज़रूरत हो। मैं भी खुशी से झुक गया लेकिन इसके लिए पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता था। असल में मैं चाहता था कि हमेशा की तरह साहूकार एक बार फिर से मेरे पास अपना इरादा ले कर आएं। मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझने लगें कि मैं उनके बिना कुछ कर ही नहीं सकता। ख़ैर, काफी लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा मुझे। एक दिन मणि शंकर से अचानक ही मुलाक़ात हो गई। पहले तो हमेशा की तरह औपचारिक बातें ही हुईं। उसके बाद उसने फिर से अपना इरादा मेरे सामने ज़ाहिर कर दिया और साथ ही प्रलोभन भी दिया कि इस सबके बाद वो और मैं मिल कर एक नए युग की शुरुआत करेंगे। थोड़ी ना नुकुर के बाद आख़िर मैं मान ही गया।"

"साहूकार लोग तुमसे क्या चाहते थे?" चंद्रकांत सांस लेने के लिए रुका तो पिता जी ने पूछा।

"सबसे पहले तो यही कि आपके और उनके बीच के संबंध बेहतर हो जाएं और दोनों परिवार पूरी सहजता के साथ एक दूसरे के यहां आने जाने लगें।" चंद्रकांत ने कहा____"संबंध सुधार लेने का एक कारण ये भी था कि मणि शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के लिए आपकी भतीजी कुसुम का हाथ मांगना चाहता था। उसने मुझे बताया था कि कुसुम के साथ रूपचंद्र का ब्याह कर के वो इससे बहुत कुछ लाभ लेना चाहता था।"

"किस तरह का लाभ?" पिता जी पूछे बगैर न रह सके।
"इस मामले में ठीक से कुछ नहीं बताया था उसने।" चंद्रकांत ने कहा____"दूसरी वजह थी आपके दोनों बेटों को बदनाम कर देना। ज़ाहिर है इसके लिए वो कोई भी हथकंडा अपना सकता था। तीसरी वजह थी ज़मीनों के कागज़ात जोकि मेरे द्वारा चाहता था वो।"

"ज़मीनों के कागज़ात क्यों चाहिए थे उसे?" पिता जी के चेहरे पर हैरानी उभर आई थी।
"ज़ाहिर है आपकी ज़मीनों को हथिया लेना चाहते थे वो।" मुंशी ने कहा____"हालाकि ये इतना आसान नहीं था लेकिन उसके अपने तरीके थे शायद। वैसे भी उसका असल मकसद तो यही था आपके पूरे खानदान को मिटाना। जब आपके खानदान में कोई बचता ही नहीं तो लावारिश ज़मीन को कब्ज़ा लेने में ज़्यादा समस्या नहीं हो सकती थी।"

"ख़ैर।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"उसके बाद तुम दोनों ने मिल कर क्या क्या किया?"
"उसका और मेरा क्योंकि एक ही मकसद था इस लिए मैंने उसे ये बताया ही नहीं कि असल में मेरी आपसे या आपके परिवार के किसी सदस्य से क्या दुश्मनी है?" मुंशी ने कहा____"सिर्फ़ इतना ही कहा कि बदले में ज़मीन का कुछ हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए।"


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बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत रमणिय शानदार अपडेट है भाई मजा आ गया
आखिर मुंशी और उसका बेटा रघुवीर का राज वैभव के कारण दादा ठाकूर के सामने आ गया
पंचायत में ठाकूर महेंद्रसिगं के सामने मुंशी के मुह से सावकार और उसका एक ही मकसद था की ठाकूर परिवार का सर्वनाश ये सामने आ गया
ये साजीश बहुत गहरी हैं और उसके असली मोहरे परदे के पिछे हैं जो सामने आना बाकी है खैर
देखते हैं आगे क्या होता है
अगले रोमांचकारी धमाकेदार अपडेट की प्रतिक्षा रहेगी जल्दी से दिजिएगा
 

Yamraaj

Put your Attitude on my Dick......
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Bs isi tezi se update milta rahe is baar ye story the end hi ho jani chahiye bahut intazaar karwaya h .....aapne..
 
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इतना सबकुछ हो गया पर साहूकारों का ठाकुरों के प्रति बेइंतहा नफरत का कारण समझ नही आया।
क्या ये सब साहूकारों ने नरसिंहपुर गांव पर अपनी बादशाहत स्थापित करने के लिए किया ? अगर इसीलिए किया तो यह उनकी गलती ही कही जायेगी और अगर कोई दूसरा कारण था तब वो कारण अब तक सामने नही आया।

और जहां तक बात है मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे की तो मै इन्हे सरासर दोषी मानता हूं। चंद्रकांत की पत्नी का अवैध संबंध वैभव के मरहूम दादाजी के साथ था और फिर बाद मे वैभव के साथ ऐसा ही सम्बन्ध बना । और मुझे लगता है यह दोनो सम्बन्ध उसकी पत्नी के रजामंदी से ही बना । कोई जोर जबरदस्ती नही की गई , कोई बलात्कार नही हुआ ।
और जब ऐसे नाजायज सम्बन्ध बनते है तो दोषी दोनो को ही माना जाता है , किसी एक को नही ।
ऐसा ही रघुवीर की पत्नी के साथ भी हुआ था। गलती रघुवीर के पत्नी की भी थी। ऐसे मे सारा दोष सिर्फ वैभव पर मढ़ देना कहां का न्यायसंगत है !
इन दोनो की पत्नी कोई सती सावित्री नही थी जिनकी वजह से तलवारें चलनी शुरू हो जाए ।
मेरी नजर मे गलत दोनो तरफ से हुआ है। दादा ठाकुर को भी इस तरह से कत्लेआम नही मचाना चाहिए था।
खैर देखते है इस पंचायत मे क्या और कुछ निकल कर सामने आता है !
बहुत खुबसूरत अपडेट शुभम भाई।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट।
 

blackdevilnmnm

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अध्याय - 72
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उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?


अब आगे....


पता नहीं रात का वो कौन सा पहर था किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैं अपने कमरे में बिस्तर पर विभोर के बगल से लेटा हुआ था। विभोर गहरी नींद में था। तभी गहन सन्नाटे में कहीं दूर से उठता शोर सुनाई दिया। मेरे कान एकदम से उस शोर को ध्यान से सुनने के लिए मानों खड़े हो गए। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि वो शोर असल में कुछ लोगों के रोने धोने का है। मुझे समझते देर न लगी कि पिता जी जिस काम से इतने लोगों के साथ गए थे वो काम कर आए हैं। ये उसी का नतीजा था कि इतने वक्त बाद ये रोने धोने का शोर ख़ामोश वातावरण में गूंजने लगा था। अचानक ही मेरे ज़हन में कुछ सवाल उभर आए और उनके साथ ही कुछ ख़याल भी जिन्होंने मुझे थोड़ा विचलित सा कर दिया।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। रात के इस वक्त किसी दस्तक से मैं एकदम से सतर्क हो गया। बिस्तर से मैं बहुत ही सावधानी से उतरा और दबे पांव दरवाज़े के पास पहुंचा। कुंडी खोल कर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर पिता जी को खड़े पाया।

"बैठक में आओ।" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"कुछ बात करनी है तुमसे।"
"जी ठीक है।" मैंने कहा तो वो पलट कर चल दिए।

कुछ ही देर में मैं बैठक में पहुंच गया जहां पर बाकी सब लोग भी बैठे हुए थे। हवेली में जो लोग सो रहे थे वो जाग चुके थे, सिवाय अजीत और विभोर के।

"हमारी इजाज़त के बिना।" पिता जी ने सख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और बिना किसी को बताए आख़िर तुम हवेली से बाहर क्यों गए थे?"

"आप यहां थे नहीं इस लिए आपसे इजाज़त ले नहीं सका।" मैंने बेख़ौफ भाव से कहा____"और यहां किसी को बताता तो कोई मुझे बाहर जाने ही नहीं देता। अब क्योंकि मेरे लिए बाहर जाना ज़रूरी था इस लिए चला गया।"

"वैभव।" नाना जी ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"ये क्या तरीका है अपने पिता से बात करने का?"
"आप ही बताइए नाना जी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"कि ये सब बताने के लिए मुझे कौन सा तरीका अपनाना चाहिए था?"

"हमें तो ख़बर मिली थी कि तुम पहले से काफी बदल गए हो।" नाना जी ने उसी नाराज़गी से कहा____"लेकिन तुम तो अभी भी वैसे ही हो। ख़ैर क्या कह सकते हैं हम।"

"आख़िर कब तुम अपनी मनमानियां करना बंद करोगे?" पिता जी ने गुस्से से कहा____"क्या चाहते हो तुम? हम सबको ज़िंदा मार देना चाहते हो?"

"शांत हो जाइए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"ये समय इन सब बातों का नहीं है।"
"अरे! कैसे नहीं है अर्जुन सिंह?" पिता जी ने कहा____"हम अपने दो जिगर के टुकड़ों को खो चुके हैं और ये जिस तरीके से यहां से बिना किसी को बताए चला गया था अगर इसे कुछ हो जाता तो? क्या फिर हम ज़िंदा रह पाते?"

"मैं समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने पिता जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"किंतु ये अच्छी बात है न कि वैभव के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। हम उम्मीद करते हैं कि अब से ये ऐसा नहीं करेगा।" कहने के साथ ही अर्जुन सिंह मुझसे मुखातिब हुए____"हम ठीक कह रहे हैं न वैभव बेटा?"

"जी चाचा जी।" मैंने सिर झुकाते हुए कहा____"और मैं माफ़ी चाहता हूं आप सबसे अपने बर्ताव के लिए। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए था किंतु उस वक्त मेरी भी मानसिक अवस्था ऐसी थी कि मुझे कुछ और सूझा ही नहीं। जब मुझे पता चला कि मेरे पिता जी रात के वक्त आप सबको ले कर चले गए हैं तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया था कि कहीं आप में से किसी के साथ कुछ हो न जाए। मैं अपने चाचा और बड़े भैया को खो चुका हूं चाचा जी, और अब मैं अपने पिता जी को नहीं खोना चाहता। मेरे अकेले चले जाने पर तो इन्होंने कह दिया कि मुझे कुछ हो जाता तो क्या होता लेकिन क्या आप में से किसी ने ये सोचा कि अगर मेरे पिता जी को कुछ हो जाता तो हम सबका क्या होता?"

मेरी ये बात सुन कर किसी के मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। बात छोटे मुंह से भले ही निकली थी लेकिन थी बड़ी।

"आप सब तो मुझसे बड़े हैं।" मैंने सबको ख़ामोश देख कहा____"फिर भी किसी ने ये नहीं सोचा कि रात के वक्त इस तरह से हुजूम ले कर निकल पड़ना भला कौन सी समझदारी की बात थी? हमारा समय बहुत ख़राब चल रहा है चाचा जी। हमें नहीं पता कि हमारा कौन कौन दुश्मन है और कहां कहां से हम पर घात लगाए बैठा है? जगताप चाचा और बड़े भैया तो दिन के समय ढेर सारे आदमियों के साथ निकले थे इसके बावजूद दुश्मनों ने उन सबकी हत्या कर दी। जब दिन के समय वो लोग अपना बचाव नहीं कर पाए तो क्या रात के वक्त आप लोग अपना बचाव कर पाते?"

"पर हमारे साथ कुछ हुआ तो नहीं वैभव।" अर्जुन सिंह ने ये कहा तो मैंने कहा____"कुछ हुआ नहीं तो इसका एक ही मतलब है चाचा जी कि आप सबकी किस्मत अच्छी थी। हालाकि अमर मामा जी को गोली तो लग ही गई न। अगर वही गोली पिता जी के सीने में लग जाती तो क्या होता? समय जब ख़राब होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। मैं आपसे पूछता हूं कि अगर आप सब यही काफ़िला दिन में ले कर जाते तो क्या बिगड़ जाता? क्या हमारा दुश्मन रात में ही कहीं भाग जाता और आप लोग उसे पकड़ नहीं पाते?"

"शायद तुम सही कह रहे हो वैभव।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा____"रात के वक्त हमारा यहां से जाना वाकई में सही फ़ैसला नहीं था। ख़ैर छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। अच्छी बात यही हुई कि हमने अपने दुश्मन को नेस्तनाबूत कर दिया है।"

"क...क्या सच में??" मैं उनकी बात सुनते ही हैरानी से बोल पड़ा____"कौंन लोग थे वो?"
"और कौन हो सकते हैं?" अर्जुन सिंह ने कहा____"वही थे तुम्हारे गांव के साले वो साहूकार लोग। सबके सब मारे गए, बस दो ही लोग बच गए।"

"बहुत जल्द उनको भी मौत नसीब हो जाएगी अर्जुन सिंह।" पिता जी ने सहसा सर्द लहजे में कहा____"बच कर जाएंगे कहां?"

"जो लोग मुझे मारने के लिए चंदनपुर गए थे।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"उनमें से एक को पकड़ा था मैंने। उसने मुझे बताया था कि उन लोगों को मुझे जान से मारने के लिए साहूकार गौरी शंकर ने भेजा था।"

"और ये तुम अब बता रहे हो हमें?" पिता जी ने मुझे घूरते हुए कहा____"इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो तुम?"

"बताने का समय ही कहां मिला था पिता जी।" मैंने कहा____"मैं तो चंदनपुर से तब आया जब जगताप चाचा और बड़े भैया की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी।"

"गौरी शंकर और वो हरि शंकर का बेटा रूपचंद्र बच गए हैं।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं, जल्द ही उनका भी किस्सा ख़त्म हो जाएगा।"

"क्या उन दोनों को भी जान से मार देना सही होगा?" नाना जी ने कहा____"हमारा ख़याल है कि उन्हें कोई दूसरी सज़ा दे कर जीवित ही छोड़ देना चाहिए। वैसे भी उनके घर की बहू बेटियों को सहारा देने के लिए उनके घर में किसी न किसी मर्द का होना आवश्यक है।"

"उनके घर की बहू बेटियों को शायद पता चल गया है कि उनके घर के मर्द अब नहीं रहे।" मामा जी ने कहा____"ये रोने धोने का शोर शायद वहीं से आ रहा है?"

"हां हो सकता है।" अर्जुन सिंह ने कहा।
"वैसे मुझे भी कुछ ऐसा पता चला है।" मैंने कहा____"जिसकी आप लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"क...क्या पता चला है तुम्हें?" पिता जी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।
"हमारे दुश्मनों की सूची में सिर्फ साहूकार लोग ही नहीं हैं पिता जी।" मैंने कहा____"बल्कि आपका मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर भी है।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" पिता जी के साथ साथ सभी के चेहरों पर आश्चर्य उभर आया।
"यही सच है पिता जी।" मैंने कहा____"मुंशी और उसका बेटा रघुवीर दोनों ही हमारे दुश्मन बने हुए हैं।"

"पर तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" अर्जुन सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"जब मैं यहां से आपके पीछे गया था।" मैंने कहा____"तो रास्ते में मुझे एक साया भागता हुआ अंधेरे में नज़र आया। मैंने उस पर रिवॉल्वर तान कर जब उसे रुकने को कहा तो उल्टा उसने मुझ पर ही गोली चला दी। वो तो अच्छा हुआ कि गोली मुझे नहीं लगी मगर फिर मैंने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया। आख़िर वो मेरी पकड़ में आ ही गया और तब मैंने जाना कि वो असल में मुंशी का बेटा रघुवीर है।"

"वो दोनो बाप बेटे।" अर्जुन सिंह ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला किस वजह से ऐसी दुश्मनी रखे हो सकते हैं?"
"बड़े दादा ठाकुर जी की वजह से।" मैंने कुछ सोचते हुए पिता जी की तरफ देखा____"शायद आप समझ गए होंगे पिता जी।"

"हैरत की बात है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"अगर वो दोनों हमारे स्वर्गीय पिता जी की वजह से हमसे दुश्मनी रखे हुए हैं तो उन्होंने अपनी दुश्मनी के चलते हमारे साथ कुछ भी बुरा करने के लिए इतना समय क्यों लिया? हमें आशंका तो थी लेकिन यकीन नहीं कर पा रहे थे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया कि चंद्रकांत के मन में हमारे प्रति कोई बैर भाव है।"

"कुछ लोग अपने अंदर के भावों को छुपाए रखने में बहुत ही कुशल होते हैं ठाकुर साहब।" मामा अवधराज जी ने कहा____"जब तक वो ख़ुद नहीं चाहते तब तक किसी को उनके अंदर की बातों का पता ही नहीं चल सकता।"

"हम्म सही कह रहे हैं आप।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ख़ैर रात काफी हो गई है। आप सभी को अब आराम से सो जाना चाहिए। इस बारे में बाकी बातें कल पंचायत में होंगी।"

पिता जी के कहने पर सभी ने सहमति में अपना अपना सिर हिलाया और फिर पिता जी के उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में बैठक कक्ष खाली हो गया। इधर मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

✮✮✮✮

अगले दिन।
हवेली के विशाल मैदान में लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी। वातावरण में लोगों का शोर गूंज रहा था।। भीड़ में साहूकारों के घरों की बहू बेटियां भी मौजूद थीं जो दुख में डूबी आंसू बहा रहीं थी। लगभग पूरा गांव ही हवेली के उस बड़े से मैदान में इकट्ठा हो गया था। एक तरफ ऊंचा मंच बना हुआ था जिसमें कई सारी कुर्सियां रखी हुई थीं और उन सबके बीच में एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसमें दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मंच में रखी बाकी कुर्सियों में नाना जी, मामा जी, भैया के साले, और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे। मंच के सामने लोगों की भीड़ थी और भीड़ के आगे साहूकारों के घरों की बहू बेटियां खड़ी हुई थीं। मंच के सामने ही एक तरफ मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा खड़ा हुआ था। दोनों ही बाप बेटों के सिर झुके हुए थे। उनके दूसरी तरफ मैं खड़ा हुआ था। सुरक्षा का ख़याल रखते हुए हर जगह क‌ई संख्या में हमारे आदमी हाथों में बंदूक लिए खड़े थे और साथ ही पूरी तरह सतर्क भी थे।

भीड़ में ही आगे तरफ मुरारी और जगन के घरों से उनकी बीवियां और बच्चे थे। अपनी मां और छोटे भाई अनूप के साथ अनुराधा भी आई हुई थी जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भुवन के कंधों पर थी। वो ख़ुद भी उनके पास ही खड़ा था। ऐसे संवेदनशील वक्त में ना चाहते हुए भी मेरी नज़र अनुराधा की तरफ बारहा चली जाती थी और हर बार मैं ये देख कर विचलित सा हो जाता था कि उसकी नज़रें मुझ पर ही जमी होती थीं। मेरा ख़याल था कि वो पहली बार ही हवेली आई थी। बहरहाल, सरोज के बगल से जगन की बीवी गोमती और उसके सभी बच्चे खड़े हुए थे। गोमती और उसकी बेटियों की आंखों में आसूं थे।

वातावरण में एक अजीब सी सनसनी फैली हुई थी। तभी हवेली के हाथी दरवाज़े से दो जीपें अंदर आईं और एक तरफ आ कर रुक गईं। उन दो जीपों से कुछ लोग नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए मंच की तरफ आ गए। उन्हें देखते ही मंच पर अपनी कुर्सी में बैठे मेरे पिता जी उठ कर खड़े हो गए।

"नमस्कार ठाकुर साहब।" आए हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा तो पिता जी ने भी जवाब में उनका अभिवादन किया। कुछ मुलाजिमों ने फ़ौरन ही पिता जी के इशारे पर कुछ और कुर्सियां ला कर मंच पर रख दी। मेरे पिता जी के आग्रह पर वो सब बैठ गए।

"पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है।" दादा ठाकुर ने अपनी कुर्सी से खड़े हो कर अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और पिछली रात जो कुछ हुआ है उससे दूर दूर तक के गांव वालों को पता चल चुका है कि वो सब कुछ हमसे ताल्लुक रखता है। यूं तो आस पास के कई सारे गावों के मामलों के फ़ैसले हम ही करते आए हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उसका फ़ैसला आज हम ख़ुद नहीं करेंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति हमारे फ़ैसले को ग़लत माने या उस पर अपनी ग़लत धारणा बना ले, या फिर ये समझ ले कि हमने अपनी ताक़त और पहुंच का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है। इस लिए हमने सुंदरगढ़ से ठाकुर महेंद्र सिंह जी को यहां आमंत्रित किया है। हम यहां पर मौजूद हर ब्यक्ति से यही कहना चाहते हैं कि ठाकुर महेंद्र सिंह जी हर पक्ष के लोगों की बातें सुनेंगे और फिर उसके बारे में अपना निष्पक्ष फ़ैसला सुनाएंगे। हम लोगों के सामने ये वचन देते हैं कि अगर इस मामले में हम गुनहगार अथवा अपराधी क़रार दिए गए तो फ़ैसले के अनुसार जो भी सज़ा हमें दी जाएगी उसे हम तहे दिल से स्वीकार करेंगे। अब हम आप सभी से जानना चाहते हैं कि क्या आप सब हमारी इस सोच और बातों से सहमत हैं?"

दादा ठाकुर के ऐसा कहते ही विशाल मैदान में मौजूद जनसमूह ने एक साथ चिल्ला कर कहा कि हां हां हमें मंज़ूर है। जनसमूह में से ज़्यादातर ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं जिनमें ये कहा गया कि दादा ठाकुर हमें आपकी सत्यता और निष्ठा पर पूरा भरोसा है इस लिए आप ख़ुद ही इस मामले का फ़ैसला कीजिए। ख़ैर दादा ठाकुर ने ऐसी आवाज़ों को सुन कर इतना ही कहा कि फिलहाल वो ख़ुद एक मुजरिम की श्रेणी में हैं इस लिए इस मामले में फ़ैसला करने का हक़ वो ख़ुद नहीं रखते।

इतना कह कर पिता जी ने ठाकुर महेन्द्र सिंह जी को अपनी कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया तो वो थोड़े संकोच के साथ आए और बैठ ग‌ए। उनके बैठने के बाद पिता जी मंच से नीचे उतर आए। ये देख कर लोग हाय तौबा करने लगे जिन्हें देख पिता जी ने सबको शांत रहने को कहा।

"इस मामले से जुड़े सभी लोग सामने आ जाएं।" पिता जी की कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और एक एक कर के अपना पक्ष रखें।"

महेंद्र सिंह जी की बात सुन कर साहूकारों के घरों की औरतें थोड़ा आगे आ गईं। उनको देख जहां सरोज और गोमती भी आगे आ गईं वहीं मुंशी और उसका बेटा भी दो क़दम आगे आ गया।

"ठाकुर साहब।" मणि शंकर की बीवी फूलवती देवी ने दुखी भाव से कहा____"सबसे ज़्यादा बुरा हमारे साथ हुआ है। हमारे घर के मर्दों और बच्चों को रात के अंधेरे में गोलियों से भून दिया दादा ठाकुर ने। अब आप ही बताइए कि हमारा क्या होगा? हम सब तो विधवा हुईं ही हमारे साथ हमारी जो बहुएं थी वो भी विधवा हो गईं। इतना ही नहीं हमारी बेटियां अनाथ हो गईं। हम अकेली औरतें भला इस दुख से कैसे उबर सकेंगी और कैसे अपने साथ साथ अपनी अविवाहित बेटियों के जीवन का फ़ैसला कर पाएंगी?"

"ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, इनके घरों के मर्द और बच्चों की इस तरह से हुई हत्या के लिए क्या आप खुद को कसूरवार मानते हैं?"

"बेशक कसूरवार मानते हैं।" पिता जी ने बेबाक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन ये भी सच है कि वो सब अपनी मौत के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। उन्हें अपने किए गए कर्मों का फल मिला है।"

"कैसे?" महेंद्र सिंह ने सवालिया भाव से उन्हें देखते हुए पूछा____"इस मामले में क्या आप सबको खुल कर तथा विस्तार से बताएंगे कि उन्हें उनके कौन से कर्मों का फल दिया है आपने?"

"उन्होंने हमारे छोटे भाई जगताप और हमारे बड़े बेटे अभिनव सिंह के साथ जाने कितने ही लोगों की हत्या की थी।" पिता जी ने कहा____"इतना ही नहीं उन्होंने हमारे छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने की कोशिश की थी जिसके लिए वो चंदनपुर तक पहुंच गए थे।"

"क्या आपके पास।" महेंद्र सिंह ने पूछा____"इन बातों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिल्कुल है।" पिता जी ने मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये दोनों पिता पुत्र खुद हमारी बात का प्रमाण देंगे। ये दोनों खुद इस बात को साबित करेंगे। अगर ये कहा जाए तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा कि ये दोनों खुद भी साहूकारों के साथ मिले हुए थे और गहरी साज़िश रच कर हमारे जिगर के टुकड़ों की हत्या की।"

पिता जी की इस बात को सुनते ही जहां भीड़ में खड़े लोगों में खुसुर फुसुर होने लगी वहीं फूलवती और उसके घरों की बाकी बहू बेटियां हैरत से उन्हें देखने लगीं थी।

"ठाकुर साहब ने जो कुछ कहा।" महेंद्र सिंह ने मुंशी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या वो सच है? क्या आप दोनों क़बूल करते हैं कि आप दोनों साहूकारों से मिले हुए थे और उनके साथ मिल कर ही मझले ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की थी?"

"हां हां यही सच है ठाकुर साहब।" मुंशी हताश भाव से जैसे चीख ही पड़ा____"हम दोनों बाप बेटों ने साहूकारों के साथ मिल कर ही वो सब किया है लेकिन यकीन मानिए मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। अगर मेरा बस चले तो मैं इस हवेली में रहने वाले हर व्यक्ति को जान से मार डालूं। ख़ास कर इस लड़के को जिसका नाम वैभव सिंह है?"

"हम तुम्हारा इशारा अच्छी तरह समझ रहे हैं चंद्रकांत।" पिता जी ने कहा____"लेकिन तुम्हें भी ये अच्छी तरह पता है कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है। कसूर सिर्फ एक हाथ का नहीं होता।"

"कहना बहुत आसान होता है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"और सुनने में भी बड़ा अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िंदगी में जब किसी के साथ ऐसी कोई बात होती है तो यकीन मानिए बहुत तकलीफ़ होती है। धीरे धीरे वो तकलीफ़ ऐसी हो जाती है कि नासूर ही बन जाती है। एक पल के लिए भी वो इंसान को चैन से जीने नहीं देती।"

"चलो मान लिया हमने।" पिता जी ने कहा____"मान लिया हमने कि बेहद तकलीफ़ होती है लेकिन जिसने तुम्हें तकलीफ़ दी थी सज़ा भी सिर्फ उसी को देनी चाहिए थी ना। हमारे भाई जगताप और बेटे अभिनव का क्या कसूर था जिसके लिए तुमने साहूकारों के साथ मिल कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया?"

"आपने भी सुना ही होगा ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने कहा____"कि गेंहू के साथ हमेशा घुन भी पिस जाता है। मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की मौत घुन की तरह पिस जाने जैसी ही थी।"

"हम इस मामले से संबंधित सारी बातें विस्तार से जानना चाहते हैं।" महेंद्र सिंह जी ने ऊंची आवाज़ में मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"इस लिए सबके सामने थोड़ा ऊंची आवाज़ में बताओ कि जो कुछ भी आप दोनों पिता पुत्र ने किया है उसे कैसे और किस किस के सहयोग से अंजाम दिया है?"

"असल में ये रंजिश और ये दुश्मनी बहुत पुरानी है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"बड़े दादा ठाकुर के समय की रंजिश है ये। उन्होंने जो कुछ किया था उसका बदला उनके ज़िंदा रहते कोई भी होता तो लेने का सोच ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं सोच सका, बस अंदर ही अंदर घुटता रहा। कुछ सालों बाद वो अचानक से बीमार पड़ गए और फिर ऐसा बीमार पड़े कि शहर के बड़े से बड़े चिकित्सक भी उनका इलाज़ नहीं कर पाए। अंततः बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई। उनकी ऐसी मृत्यु हो जाने के बारे में कोई कुछ भी सोचे लेकिन मैं तो यही समझता आया हूं कि उन्हें अपने पाप कर्मों की ही सज़ा इस तरह से मिल गई थी। बहरहाल, जिनसे मैं बदला लेना चाहता था वो ईश्वर के घर पहुंच गया था। मैंने भी ये सोच कर खुद को समझा लिया था कि चलो कोई बात नहीं। उसके बाद ठाकुर प्रताप सिंह जी ने दादा ठाकुर की गद्दी सम्हाल ली। शुकर था कि ये अपने पिता के जैसे नहीं थे। मैं खुद भी इन्हें बचपन से जानता था। ख़ैर उसके बाद आगे चल कर इनके द्वारा कभी कुछ भी बुरा अथवा ग़लत नहीं हुआ तो मैंने सोचा काश! इस दुनिया का हर इंसान इनके जैसा ही हो जाए। कहने का मतलब ये कि जब इनके द्वारा किसी के साथ बुरा नहीं हुआ तो मैं भी सब कुछ भुला कर पूरी ईमानदारी से हवेली की सेवा में लग गया था। वक्त गुज़रता रहा, फिर एक दिन मुझे पता चला कि वर्षों पुराना किस्सा फिर से दोहराया जा रहा है और वो किस्सा पुराने वाले किस्से से भी कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर दोहराया जा रहा है। जिन ज़ख्मों को मैंने किसी तरह मरहम लगा कर दिल में ही कहीं दफ़न कर दिया था वो ज़ख्म गड़े हुए मुर्दे की मानिंद दिल की कब्र से निकल आए। पहले बड़े दादा ठाकुर थे इस लिए उनके ख़ौफ के चलते मैं कुछ न कर सका था लेकिन इस बार मैं ख़ुद ही किसी तरह से ख़ुद को समझाना नहीं चाहता था। सोच लिया कि अब चाहे जो हो जाए लेकिन उस इंसान का नामो निशान मिटा कर ही रहूंगा जिसने बड़े दादा ठाकुर का किस्सा दोहराने की हिमाकत ही नहीं की बल्कि पाप किया है।"

"गुस्से में इंसान बहुत कुछ सोच लेता है लेकिन जब दिमाग़ थोड़ा शांत होता है तो वैसा कर लेना आसान नहीं लगता।" सांस लेने के बाद मुंशी ने फिर से बोलना शुरू किया____"यही हाल हम दोनों बाप बेटे का था। वैभव सिंह दादा ठाकुर का बेटा था जोकि पूरा का पूरा अपने दादा पर गया था। वही ग़ुस्सा, वही अंदाज़ और वही हवसीपन। छोटी सी उमर में ही दूर दूर तक उसके नाम का डंका ही नहीं बज रहा था बल्कि उसका ख़ौफ भी फैल रहा था। मैंने गुप्त रूप से पता किया तो पाया कि इसकी पहुंच भी कम नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं। हम दोनों चिंता में पड़ गए कि आख़िर अब करें तो करें क्या? अचानक ही मुझे साहूकारों का ख़याल आया और बस मैंने उनसे मिल जाने का मन बना लिया।"

"उनसे कैसे मिल ग‌ए तुम?" पिता जी ने पूछा____"क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो हमारे खिलाफ़ ग़लत करने का इरादा रखते हैं?"

"बिल्कुल पता था ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"सच तो ये है कि वो बहुत पहले से मुझे अपनी तरफ मिलाने की पहल कर रहे थे। वो तो मैं ही उनकी बात नहीं मान रहा था क्योंकि मैं आपसे गद्दारी करने का ख़याल भी ज़हन में नहीं लाता था। यही वजह थी कि साहूकारों से मेरी हमेशा अनबन ही रहती थी मगर मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन मुझे उन्हीं साहूकारों से मदद लेनी पड़ जाएगी। बहरहाल, ये तो जग ज़ाहिर बात है कि इंसान किसी के सामने तभी झुकता है जब या तो वो झुकने के लिए मजबूर हो या फिर उसे उसकी कोई ज़रूरत हो। मैं भी खुशी से झुक गया लेकिन इसके लिए पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता था। असल में मैं चाहता था कि हमेशा की तरह साहूकार एक बार फिर से मेरे पास अपना इरादा ले कर आएं। मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझने लगें कि मैं उनके बिना कुछ कर ही नहीं सकता। ख़ैर, काफी लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा मुझे। एक दिन मणि शंकर से अचानक ही मुलाक़ात हो गई। पहले तो हमेशा की तरह औपचारिक बातें ही हुईं। उसके बाद उसने फिर से अपना इरादा मेरे सामने ज़ाहिर कर दिया और साथ ही प्रलोभन भी दिया कि इस सबके बाद वो और मैं मिल कर एक नए युग की शुरुआत करेंगे। थोड़ी ना नुकुर के बाद आख़िर मैं मान ही गया।"

"साहूकार लोग तुमसे क्या चाहते थे?" चंद्रकांत सांस लेने के लिए रुका तो पिता जी ने पूछा।

"सबसे पहले तो यही कि आपके और उनके बीच के संबंध बेहतर हो जाएं और दोनों परिवार पूरी सहजता के साथ एक दूसरे के यहां आने जाने लगें।" चंद्रकांत ने कहा____"संबंध सुधार लेने का एक कारण ये भी था कि मणि शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के लिए आपकी भतीजी कुसुम का हाथ मांगना चाहता था। उसने मुझे बताया था कि कुसुम के साथ रूपचंद्र का ब्याह कर के वो इससे बहुत कुछ लाभ लेना चाहता था।"

"किस तरह का लाभ?" पिता जी पूछे बगैर न रह सके।
"इस मामले में ठीक से कुछ नहीं बताया था उसने।" चंद्रकांत ने कहा____"दूसरी वजह थी आपके दोनों बेटों को बदनाम कर देना। ज़ाहिर है इसके लिए वो कोई भी हथकंडा अपना सकता था। तीसरी वजह थी ज़मीनों के कागज़ात जोकि मेरे द्वारा चाहता था वो।"

"ज़मीनों के कागज़ात क्यों चाहिए थे उसे?" पिता जी के चेहरे पर हैरानी उभर आई थी।
"ज़ाहिर है आपकी ज़मीनों को हथिया लेना चाहते थे वो।" मुंशी ने कहा____"हालाकि ये इतना आसान नहीं था लेकिन उसके अपने तरीके थे शायद। वैसे भी उसका असल मकसद तो यही था आपके पूरे खानदान को मिटाना। जब आपके खानदान में कोई बचता ही नहीं तो लावारिश ज़मीन को कब्ज़ा लेने में ज़्यादा समस्या नहीं हो सकती थी।"

"ख़ैर।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"उसके बाद तुम दोनों ने मिल कर क्या क्या किया?"
"उसका और मेरा क्योंकि एक ही मकसद था इस लिए मैंने उसे ये बताया ही नहीं कि असल में मेरी आपसे या आपके परिवार के किसी सदस्य से क्या दुश्मनी है?" मुंशी ने कहा____"सिर्फ़ इतना ही कहा कि बदले में ज़मीन का कुछ हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए।"


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Bohut khub
 

Sanju@

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188
अध्याय - 71
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"ऐसा मत कहिए भाभी।" रागिनी की बातें सुन कर कुसुम के समूचे जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई, बोली____"आपकी ज़ुबान पर इतनी कठोर बातें ज़रा भी अच्छी नहीं लगती। यकीन कीजिए वैभव भैया के साथ कुछ भी बुरा नहीं होगा। अब चलिए आराम कीजिए आप।"

कुसुम ने ज़ोर दे कर रागिनी को बिस्तर पर लिटा दिया और खुद किनारे पर बैठी जाने किन ख़यालों में खो गई। पूरी हवेली में सन्नाटा छाया हुआ था लेकिन कमरे के अंदर मौजूद दो इंसानों के अंदर जैसे कोई आंधी सी चल रही थी।

अब आगे....bbbbbbbb


जगन हल्के अंधेरे में बढ़ता ही चला जा रहा था। आसमान में काले बादल न होते तो कदाचित इतना अंधेरा न होता क्योंकि थोड़ा सा ही सही मगर आसमान में चांद ज़रूर था जिसकी रोशनी अंधेरे को दूर कर देती थी। कुछ देर पहले उसने गोली चलने की आवाज़ सुनी थी। गोली चलने की आवाज़ से वो डर तो गया था लेकिन सफ़ेदपोश के हुकुम का पालन करना उसके लिए हर कीमत पर अनिवार्य था। जिस तरफ उसने गोली चलने की आवाज़ सुनी थी उसी तरफ वो बढ़ चला था। अभी कुछ ही देर पहले उसे ऐसा लगा था जैसे कुछ दूरी पर दो लोग बातें कर रहे हैं। रात के सन्नाटे में उसे आवाज़ें साफ सुनाई दी थीं इस लिए वो तेज़ी से उस तरफ बढ़ता चला गया था मगर फिर अचानक से आवाज़ें आनी बंद हो गईं।

आसमान में मौजूद चांद के वजूद से थोड़ी देर के लिए बादल हटे तो रोशनी में उसने दो सायों को देखा। इसके पहले वो क़दम दर क़दम चल रहा था किंतु अब उसने दौड़ लगा दी थी। उसके हाथ में पिस्तौल थी इस लिए उसे किसी का डर नहीं लग रहा था। जल्दी ही वो उन सायों के क़रीब पहुंच गया और अगले ही पल वो ये देख कर चौंका कि वो असल में एक ही साया था। जगन ने स्पष्ट देखा कि साया अपनी पीठ पर कोई भारी चीज़ को ले रखा था और बड़े तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता ही चला जा रहा था। ये देख जगन और भी तेज़ी से उसकी तरफ दौड़ने लगा। अचानक ही अंधेरा हो गया, जाहिर है काले बादलों ने फिर से थोड़े से चमकते चांद को ढंक लिया था।

जगन दौड़ते दौड़ते बुरी तरह हांफने लगा था। जैसे ही अंधेरा हुआ तो उसे वो साया दिखना बंद हो गया। इसके बावजूद वो आगे बढ़ता रहा। कुछ ही देर में उसे आस पास कई सारे पेड़ नज़र आने लगे। उसने एक जगह रुक कर इधर उधर निगाह दौड़ाई मगर वो साया उसे कहीं नज़र न आया। जगन एकदम से बेचैन और परेशान हो गया। हाथ में पिस्तौल लिए अभी वो परेशानी की हालत में इधर उधर देख ही रहा था कि अचानक वो एक तरफ हुई आहट से बुरी तरह चौंका। मारे घबराहट के उसने एकदम से उस तरफ हाथ कर के गोली चला दी। गोली चलने की तेज़ आवाज़ से फिज़ा गूंज उठी और खुद जगन भी बुरी तरह खौफ़जदा हो गया। उधर गोली चलने पर आवाज़ तो हुई मगर उसके अलावा कोई प्रतिक्रिया ना हुई। ये देख वो और भी परेशान हो गया।

जगन अपनी समझ में बेहद चौकन्ना था जबकि असल में वो घबराहट की वजह से घूम घूम कर इधर उधर नज़रें दौड़ा रहा था। इतना तो वो समझ गया था कि वो साया यहीं कहीं है। उसे डर भी था कि कहीं वो उसे कोई नुकसान न पहुंचा दे किंतु फिर वो ये सोच कर खुद को तसल्ली दे लेता था कि उसके पास पिस्तौल है। अभी वो ये सोच ही रहा था कि तभी एक तरफ से गोली चलने की तेज़ आवाज़ गूंजी और इसके साथ ही उसके हलक से दर्द भरी चीख वातावरण में गूंज उठी। गोली उसकी कलाई में लगी थी जिससे उसके हाथ से पिस्तौल छूट कर कच्ची ज़मीन पर ही कहीं छिटक कर गिर गई थी। वो दर्द से बुरी तरह चिल्लाने लगा था।

"मादरचोद कौन है जिसने मुझे गोली मार दी?" वो दर्द में गुस्सा हो कर चिल्लाया___"सामने आ हरामजादे।"

"ये तो कमाल ही हो गया जगन काका।" जगन की आवाज़ सुन कर मैं बड़ा हैरान हुआ था। मेरी समझ में तो वो हवेली के बाहर वाले एक कमरे में क़ैद था। बहरहाल मैं एक पेड़ से बाहर निकल कर उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला____"बल्कि कमाल ही नहीं, ये तो चमत्कार ही हो गया। तुम तो हवेली के एक कमरे में क़ैद थे न, फिर यहां कैसे टपक पड़े?"

मुझे एकदम से अपने सामने आ गया देख जगन की नानी ही नहीं बल्कि उसका पूरा का पूरा खानदान ही मर गया। वो अपनी कलाई को थामें दर्द से कराह रहा था। मैं एकदम से किसी जिन्न की तरह उसके सामने आ कर खड़ा हो गया।

"तुमने जवाब नहीं दिया काका?" मैंने क़रीब से उसकी आंखों में देखते हुए पूछा____"हवेली से बाहर कैसे निकले और यहां कैसे टपक पड़े?"

"व...व....वो मैं।" जगन बुरी तरह हकलाया, उससे आगे कुछ बोला ना गया।
"अभी तो बड़ा गला फाड़ कर गाली दे रहे थे तुम।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"अब क्या हुआ?"

मेरी बात सुन कर जगन मुझसे नज़रें चुराने लगा। उसका जिस्म जूड़ी के मरीज़ की तरह कांपने लगा था। उधर उसकी कलाई में जहां पर गोली लगी थी वहां से खून बहते हुए नीचे ज़मीन पर गिरता जा रहा था।

"मादरचोद बोल वरना इस बार तेरी गांड़ में गोली मारूंगा।" उसे कुछ न बोलता देख मैं गुस्से से दहाड़ उठा____"हवेली के कमरे से बाहर कैसे निकला तू और यहां कैसे पहुंचा?"

"म...म...माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन एकदम से मेरे पैरों में गिर पड़ा, फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला___"बहुत बड़ी ग़लती हो गई मुझसे।"

"मैंने जो पूछा उसका जवाब दे बेटीचोद।" मैंने गुस्से में उसको एक लात मारी तो वो पीछे उलट गया। फिर किसी तरह वो सम्हल कर उठा और बोला____"मुझको सफ़ेदपोश ने हवेली के कमरे से बाहर निकाला है छोटे ठाकुर और यहां भी मैं उसके ही कहने पर आया हूं।"

"स..सफ़ेदपोश???" मैं जगन के मुख से ये सुन कर बुरी तरह चकरा गया, फिर बोला____"वो वहां कैसे पहुंचा? सब कुछ बता मुझे।"

"म..मुझे कुछ नहीं पता छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"मैं तो उस कमरे में ही क़ैद था। अचानक ही दरवाज़ा खुला तो मैं ये देख कर घबरा गया कि हाथ में मशाल लिए सफ़ेदपोश कैसे आ गया? उसने अपनी अजीब सी आवाज़ में मुझे कमरे से बाहर निकल कर अपने साथ चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। आख़िर अपनी जान मुझे भी तो प्यारी थी छोटे ठाकुर। सुबह दादा ठाकुर मुझे मौत की सज़ा देने वाले थे। जब सफ़ेदपोश ने मुझे अपने साथ चलने को कहा तो मैं समझ गया कि वो मुझे बचाने आया है। बस, यही सोच कर मैं उसके साथ वहां से निकल आया।"

"तो यहां उसी ने भेजा है तुझे?" मैं अभी भी ये सोच कर हैरान था कि सफ़ेदपोश हवेली में इतने दरबानों की मौजूदगी में जगन को निकाल ले गया था, बोला____"तुझे कैसे पता कि मैं यहां मिलूंगा तुझे?"

"मुझे नहीं पता छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"वो तो सफ़ेदपोश ने मुझसे कहा कि आप मुझे यहीं कहीं मिल सकते हैं।"

कहने के साथ ही जगन ने सारी बात मुझे बता दी। मैं ये जान कर चौंका कि सफ़ेदपोश ने जगन को मुझे जान से मारने के लिए भेजा था। मेरे लिए ये बड़े ही हैरत की बात थी कि सफ़ेदपोश को इतना कुछ कैसे पता रहता है? आख़िर है कौन ये सफ़ेदपोश? क्या दुश्मनी है इसकी हमसे?

"उस दिन तो तुझे बड़ा अपने किए पर पछतावा हो रह था।" मैंने गुस्से से बोला____"और अब फिर से वही कर्म करने चल पड़ा है जिसके लिए तू दादा ठाकुर से रहम की भीख मांग रहा था। पर शायद तेरा कसूर नहीं है जगन काका। असल में तेरी किस्मत में मेरे हाथों मरना ही लिखा था। तभी तो घूम फिर कर तू इस तरीके से मेरे सामने आ गया। तुझ जैसे इंसान को अब जीने का कोई हक़ नहीं है।"

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन ने रोते हुए मेरे पैर पकड़ लिए, बोला____"सफ़ेदपोश ने मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया था। तुम कहो तो मैं उसे ही जान से मार दूं?"

"तेरे जैसे लतखोर जो बात बात पर नामर्दों की तरह पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगते हैं।" मैंने रिवॉल्वर को उसके माथे पर लगाते हुए कहा____"वो सफ़ेदपोश जैसे शातिर इंसान का क्या ही उखाड़ लेंगे। तूने निर्दोष मुरारी काका की हत्या कर के उसके परिवार को अनाथ कर दिया है इस लिए अब तू भी उन्हीं के पास जा। शायद वो ही तुझे माफ़ कर दें.....अलविदा।"

कहने के साथ ही मैंने ट्रिगर दबा दिया। फिज़ा में गोली चलने की आवाज़ गूंजी और साथ ही जगन की जीवन लीला समाप्त हो गई। उसकी लाश को वहीं छोड़ मैं पलटा और उस तरफ चल पड़ा जिधर मैंने रघुवीर को रखा था। कुछ ही पलों में मैं उस पेड़ के पीछे पहुंच गया मगर अगले ही पल मैं ये देख कर चौंका कि वहां से रघुवीर गायब है। मैंने तो उसे बेहोश कर दिया था, फिर वो होश में कैसे आया? मेरे ज़हन में बड़ी तेज़ी से ये सवाल तांडव सा करने लगा।

अंधेरे में मैं उसे खोजने लगा। रघुवीर का मिलना मेरे लिए बहुत ज़रूरी था। अगर वो हाथ से निकल गया तो बहुत बड़ी मुसीबत का सबब बन सकता था वो। इधर उधर खोजते हुए मैं सोचने लगा कि आख़िर कहां गया होगा वो? क्या सच में उसे होश आ गया रहा होगा या कोई और ही ले गया उसे? किसी और का सोचते ही मैं एकदम से परेशान हो गया। तभी बादलों ने चांद को आज़ाद किया तो थोड़ी रोशनी फैली जिससे दूर मुझे एक साया नज़र आया। उसे देख मैं तेज़ी से उस तरफ दौड़ पड़ा। कुछ ही देर में मैं उसके क़रीब पहुंच गया।

रघुवीर को मैंने उसकी जांघ पर गोली मारी थी इस लिए वो लंगड़ा कर चल रहा था। दर्द की वजह से वो ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा था। पीछे से किसी के आने की आहट सुन वो बुरी तरह उछल पड़ा और लड़खड़ा कर वहीं गिर गया।

"आज तो चमत्कार ही चमत्कार देखने को मिल रहे हैं भाई।" उसके सामने पहुंचते ही मैं बोला____"पहले जगन का हवेली के कमरे से बाहर आना ही नहीं बल्कि यहां मुझ तक पहुंच भी जाना और दूसरा तेरा होश में आ जाना। कमाल ही हो गया न? बहरहाल ये तो बता, तू इतना जल्दी होश में कैसे आया?"

"गोली चलने की आवाज़ से होश आया मुझे।" रघुवीर बोला____"जब मैंने देखा कि तुम जगन से बातें करने में व्यस्त हो तो मैं चुपके से खिसक गया।"

"बड़ा बेवफ़ा है यार तू।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अपने दुश्मन को अकेला ही छोड़ कर चला जा रहा था?"

रघुवीर मेरी बात सुन कर कुछ न बोला। बस कसमसा कर रह गया था। उसकी कसमसाहट पर मेरी मुस्कान और भी गहरी हो गई मगर फिर अचानक ही मुझे उसके किए गए कर्म याद आ गए जिसके चलते मेरे अंदर उसके प्रति गुस्सा उभर आया।

"आगे की कहानी सुनने के लिए ना तो अभी वक्त है और ना ही ये कोई माकूल जगह है।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"इस लिए तुझे एक बार फिर से बेहोशी की गहरी नींद में जाना होगा।"

इससे पहले कि रघुवीर मेरी बात सुन कर कुछ कर पाता मैंने बिजली की सी तेज़ी से रिवॉल्वर के दस्ते का वार उसकी कनपटी पर कर दिया। वातावरण में उसकी घुटी घुटी सी चीख गूंजी और इसके साथ ही वो बेहोशी की गर्त में डूबता चला गया।

✮✮✮✮

"छ...छोटे कुंवर आप यहां??" भुवन ने जैसे ही दरवाज़ा खोला तो बाहर अंधेरे में मुझे देख कर चौंकते हुए बोल पड़ा था____"ऐसे हालात में आपको इस तरह कहीं नहीं घूमना चाहिए।"

"हां मुझे पता है।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"अच्छा ये बताओ कि तुम अपने घर क्यों नहीं गए? बाकी लोग तो थे ही यहां पर।"

"आपने ही तो कहा था कि मैं मुरारी के घर वालों की सुरक्षा व्यवस्था का ख़याल रखूं।" भुवन ने कहा____"आज कल जिस तरह के हालात हैं उससे मैं नावाकिफ नहीं हूं। यही सोच कर मैं पिछले कुछ दिनों से रात में भी यहीं रुकता हूं और एक दो बार मुरारी के घर का चक्कर भी लगा आता हूं।"

"ये सब तो ठीक है भुवन।" मैं भुवन के इस काम से और उसकी ईमानदारी से मन ही मन बेहद प्रभावित हुआ, बोला____"लेकिन तुम्हें ख़ुद का भी तो ख़याल रखना चाहिए। आख़िर हालात तो तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं हैं। मेरे दुश्मनों को भी पता ही होगा कि तुम मेरे आदमी हो और मेरे कहने पर कुछ भी कर सकते हो। ऐसे में वो तुम्हारी जान के भी दुश्मन बन जाएंगे।"

"मैं किसी बात से नहीं डरता छोटे कुंवर।" भुवन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"ख़ास कर किसी होनी या अनहोनी से तो बिल्कुल भी नहीं। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जीवन में जिसके साथ जो भी होना लिखा है उसे कोई चाह कर भी मिटा नहीं सकता। ख़ैर आप बताइए इस वक्त मेरे लिए क्या हुकुम है?"

"कोई ख़ास बात नहीं है।" मैंने कहा____"बस एक दुश्मन मेरे हाथ लगा है तो मैं चाहता हूं कि आज रात भर के लिए उसे यहां पर रख दूं। कल दिन में मैं उसे ले जाऊंगा यहां से।"

"जैसी आपकी इच्छा।" भुवन ने कहा____"वैसे कौन है वो?"
"रघुवीर सिंह।" मैंने कहा____"मुंशी चंद्रकांत का बेटा।"

"क...क्या???" भुवन उछल ही पड़ा, बोला____"तो क्या वो भी इस सब में शामिल है? हे भगवान! ये सब क्या हो रहा है?"

"ज़्यादा मत सोचो।" मैंने कहा____"उसको यहां पर बाकी लोगों की नज़रों से छुपा कर ही रखना है। मैं नहीं चाहता कि बेवजह कोई तमाशा हो जाए और बाकी लोग घबरा जाएं।"

मेरी बात सुन कर भुवन ने सिर हिलाया और फिर मेरे कहने पर उसने रघुवीर को उठा कर मेरे नए बन रहे मकान के उस हिस्से में ले जा कर बंद कर दिया जिसे बाकी लोगों से छुपा कर बनवाया था मैंने। उसके बाद मैं और भुवन बाहर आ गए।

"क्या अब आप हवेली जा रहे हैं?" भुवन ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा तो मैंने कहा____"हां, हवेली जाना ज़रूरी है। वैसे भी पिता जी और बाकी लोग बाहर गए हुए हैं तो ऐसे में मेरा हवेली में रहना ज़रूरी है।"

"पर मैं रात के इस वक्त आपको अकेले नहीं जाने दूंगा।" भुवन ने चिंतित भाव से कहा____"मैं भी आपके साथ चलूंगा।"

"अरे! तुम मेरी फ़िक्र मत करो यार।" मैंने कहा____"मुझे किसी से कोई ख़तरा नहीं है और अगर है भी तो कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

"अगर बात दिन की होती तो कोई बात नहीं थी छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"मगर ये रात का वक्त है। आसमान में बादल छाए हुए हैं जिसकी वजह से अंधेरा भी है। ऐसे में दुश्मन कहीं भी घात लगाए बैठा हो सकता है। इस लिए मेरी बात मानिए इस वक्त अकेले मत जाइए।"

"यहां भी तुम्हारे लिए रहना ज़रूरी है।" मैंने कहा____"दुश्मन कहीं भी घात लगाए बैठा हो सकता है। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहता कि रघुवीर के साथ कोई अनहोनी हो जाए। उससे अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।"

"उसकी आप बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए छोटे कुंवर।" भुवन ने पूरे आत्म विश्वास के साथ कहा____"उस तक कोई नहीं पहुंच पाएगा। मैं जानता हूं कि आपका हवेली में जाना ज़रूरी है इस लिए मैं आपको रोकूंगा नहीं किंतु अकेले जाने भी नहीं दूंगा। भगवान के लिए मेरी बात मान जाइए।"

"अच्छा ठीक है।" भुवन के ज़ोर देने पर आख़िर मुझे मानना ही पड़ा____"तुम भी चलो मेरे साथ किंतु किसी और को भी साथ ले लो वरना वापसी में तुम अकेले हो जाओगे। मैं भी तो नहीं चाहता कि तुम्हें कुछ हो जाए।"

भुवन मेरी बात मान गया। वो अंदर गया और एक आदमी को जगा कर ले आया। भुवन के कहने पर उस आदमी ने पानी से अपना चेहरा धोया ताकि उसका आलस और नींद दूर हो जाए। उसके बाद भुवन मोटर साईकिल ले कर चल पड़ा। उसने मोटर साइकिल को स्टार्ट नहीं किया था बल्कि उसे पैदल ही ठेलते हुए ले चला। मेरे पूछने पर उसने बताया कि ऐसा वो सावधानी के तौर पर कर रहा है। मुझे उसकी समझदारी पर बड़ा फक्र हुआ। क़रीब आधा किलो मीटर पैदल आने के बाद उसने मुझे मोटर साइकिल पर बैठाया और फिर मेरे पीछे एक दूसरा आदमी बैठा। उसके बाद भुवन ने मोटर साइकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया।

भुवन मेरा सबसे वफ़ादार आदमी था। वो मेरे लिए खुशी से अपनी जान दे सकता था। एक साल पहले मैंने उस पर एक उपकार किया था। उसकी बीवी बहुत ज़्यादा बीमार थी और वो उस वक्त शहर में उसका इलाज़ करवा रहा था। डॉक्टर के अनुसार उसकी बीवी को कोई ऐसी बीमारी थी जिसके लिए ज़्यादा रूपये लगने थे। भुवन के पास जो भी पैसा था वो पहले ही उसकी बीवी के इलाज़ में ख़र्च हो गया था। ये एक इत्तेफ़ाक ही था कि उसी समय मैं अपने दोस्त सुनील के साथ उस अस्पताल में गया हुआ था। भुवन की नज़र जब मुझ पर पड़ी तो वो दौड़ते हुए मेरे पास आया और मुझसे अपनी बीवी के इलाज़ के लिए पैसे मांगने लगा। मैं भुवन को जानता था क्योंकि वो हमारी ही ज़मीनों पर काम किया करता था। वो जिस तरह से रो रो कर पैसे के लिए मुझसे मिन्नतें कर रहा था उसे देख मैंने फ़ौरन ही उसे नोटों की एक गड्डी थमा दी थी और कहा था कि अगर और पैसों की ज़रूरत पड़े तो वो बेझिझक मुझसे मांग ले। बस, इतना ही उपकार किया था मैंने उसके ऊपर और कमबख़्त उसी उपकार के लिए उसने ख़ुद को मेरा कर्ज़दार मान लिया था। बाद में मैंने उसको बोला भी था कि उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए पर वो नहीं माना और बोला कि अब से वो मेरे लिए कुछ भी करेगा।

कुछ ही देर में भुवन की मोटर साईकिल हवेली पहुंच गई। रास्ते में कहीं कोई परेशानी जैसी बात नहीं हुई थी। मैं जब नीचे उतर कर हवेली के मुख्य दरवाज़े की तरफ जाने लगा तो भुवन जल्दी से मेरे पीछे आया और मुझे रुकने को बोला।

"एक बात कहना चाहता हूं आपसे।" भुवन ने भारी झिझक के साथ कहा____"मैं जानता हूं कि उसके लिए ये समय सही नहीं है फिर भी कहना चाहता हूं।"

"कोई बात नहीं भुवन।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा___"तुम बेझिझक कहो, क्या कहना चाहते हो?"

"मुझे लगता है कि मुरारी की बेटी अनुराधा के मन में आपके लिए प्रेम जैसी भावना है।" भुवन ने झिझकते हुए कहा___"मैं जानता हूं कि वो अभी नादान और नासमझ है और आपसे उसका कोई मेल भी नहीं है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप उसे किसी भ्रम में मत रखिएगा। उस मासूम को मैंने दिल से अपनी छोटी बहन मान लिया है। अगर उसे किसी तरह की दुख तकलीफ़ हुई तो मुझे भी होगी। इस लिए....।"

"फ़िक्र मत करो भुवन।" मैंने उसकी बात को काटते हुए कहा____"तुमसे कहीं ज़्यादा मुझे उसके दुख तकलीफ़ की फ़िक्र है। अगर नहीं होती तो तुम्हें उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी न देता।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद छोटे कुंवर।" भुवन ने खुश हो कर कहा____"अच्छा अब मैं चलता हूं, नमस्कार।"

उसके जाने के बाद मैं भी आगे बढ़ चला। ज़हन में भुवन की ही बातें गूंज रहीं थी। ख़ैर, मुख्य द्वार पर मौजूद दरबानों ने मुझे देखते ही दरवाज़ा खोल दिया। मैं अंदर दाखिल हो कर जैसे ही बैठक के पास पहुंचा तो नाना जी और भैया के चाचा ससुर मुझे देखते ही खड़े हो गए।

"आ गया मेरा बच्चा।" नाना जी ने नम आंखों से देखते हुए मुझसे कहा____"बिना किसी को बताए कहां चले गए थे तुम? तुम्हें पता है हम सब यहां कितना घबरा गए थे?"

"चिंता मत कीजिए नाना जी।" मैंने कहा____"मैं ठीक हूं और जहां भी गया था कुछ न कुछ कर के ही आया हूं।"

"क...क्या मतलब??" नाना जी के साथ साथ बाकी लोग भी चौंके____"ऐसा क्या कर के आए हो तुम और तुम्हारे पिता जी लोग मिले क्या तुम्हें?"

उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?



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Continue.....
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जगन को हवेली से तो बचाकर निकाल लिया लेकिन वह फिर से वैभव के हत्थे चढ़ गया और मारा भी गया रघुवीर को भी वैभव ने धर लिया है भुवन वैभव के प्रति वफादार रहकर अपना कर्ज उतार रहा है
 

Sanju@

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अध्याय - 72
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उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?


अब आगे....


पता नहीं रात का वो कौन सा पहर था किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैं अपने कमरे में बिस्तर पर विभोर के बगल से लेटा हुआ था। विभोर गहरी नींद में था। तभी गहन सन्नाटे में कहीं दूर से उठता शोर सुनाई दिया। मेरे कान एकदम से उस शोर को ध्यान से सुनने के लिए मानों खड़े हो गए। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि वो शोर असल में कुछ लोगों के रोने धोने का है। मुझे समझते देर न लगी कि पिता जी जिस काम से इतने लोगों के साथ गए थे वो काम कर आए हैं। ये उसी का नतीजा था कि इतने वक्त बाद ये रोने धोने का शोर ख़ामोश वातावरण में गूंजने लगा था। अचानक ही मेरे ज़हन में कुछ सवाल उभर आए और उनके साथ ही कुछ ख़याल भी जिन्होंने मुझे थोड़ा विचलित सा कर दिया।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। रात के इस वक्त किसी दस्तक से मैं एकदम से सतर्क हो गया। बिस्तर से मैं बहुत ही सावधानी से उतरा और दबे पांव दरवाज़े के पास पहुंचा। कुंडी खोल कर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर पिता जी को खड़े पाया।

"बैठक में आओ।" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"कुछ बात करनी है तुमसे।"
"जी ठीक है।" मैंने कहा तो वो पलट कर चल दिए।

कुछ ही देर में मैं बैठक में पहुंच गया जहां पर बाकी सब लोग भी बैठे हुए थे। हवेली में जो लोग सो रहे थे वो जाग चुके थे, सिवाय अजीत और विभोर के।

"हमारी इजाज़त के बिना।" पिता जी ने सख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और बिना किसी को बताए आख़िर तुम हवेली से बाहर क्यों गए थे?"

"आप यहां थे नहीं इस लिए आपसे इजाज़त ले नहीं सका।" मैंने बेख़ौफ भाव से कहा____"और यहां किसी को बताता तो कोई मुझे बाहर जाने ही नहीं देता। अब क्योंकि मेरे लिए बाहर जाना ज़रूरी था इस लिए चला गया।"

"वैभव।" नाना जी ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"ये क्या तरीका है अपने पिता से बात करने का?"
"आप ही बताइए नाना जी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"कि ये सब बताने के लिए मुझे कौन सा तरीका अपनाना चाहिए था?"

"हमें तो ख़बर मिली थी कि तुम पहले से काफी बदल गए हो।" नाना जी ने उसी नाराज़गी से कहा____"लेकिन तुम तो अभी भी वैसे ही हो। ख़ैर क्या कह सकते हैं हम।"

"आख़िर कब तुम अपनी मनमानियां करना बंद करोगे?" पिता जी ने गुस्से से कहा____"क्या चाहते हो तुम? हम सबको ज़िंदा मार देना चाहते हो?"

"शांत हो जाइए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"ये समय इन सब बातों का नहीं है।"
"अरे! कैसे नहीं है अर्जुन सिंह?" पिता जी ने कहा____"हम अपने दो जिगर के टुकड़ों को खो चुके हैं और ये जिस तरीके से यहां से बिना किसी को बताए चला गया था अगर इसे कुछ हो जाता तो? क्या फिर हम ज़िंदा रह पाते?"

"मैं समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने पिता जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"किंतु ये अच्छी बात है न कि वैभव के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। हम उम्मीद करते हैं कि अब से ये ऐसा नहीं करेगा।" कहने के साथ ही अर्जुन सिंह मुझसे मुखातिब हुए____"हम ठीक कह रहे हैं न वैभव बेटा?"

"जी चाचा जी।" मैंने सिर झुकाते हुए कहा____"और मैं माफ़ी चाहता हूं आप सबसे अपने बर्ताव के लिए। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए था किंतु उस वक्त मेरी भी मानसिक अवस्था ऐसी थी कि मुझे कुछ और सूझा ही नहीं। जब मुझे पता चला कि मेरे पिता जी रात के वक्त आप सबको ले कर चले गए हैं तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया था कि कहीं आप में से किसी के साथ कुछ हो न जाए। मैं अपने चाचा और बड़े भैया को खो चुका हूं चाचा जी, और अब मैं अपने पिता जी को नहीं खोना चाहता। मेरे अकेले चले जाने पर तो इन्होंने कह दिया कि मुझे कुछ हो जाता तो क्या होता लेकिन क्या आप में से किसी ने ये सोचा कि अगर मेरे पिता जी को कुछ हो जाता तो हम सबका क्या होता?"

मेरी ये बात सुन कर किसी के मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। बात छोटे मुंह से भले ही निकली थी लेकिन थी बड़ी।

"आप सब तो मुझसे बड़े हैं।" मैंने सबको ख़ामोश देख कहा____"फिर भी किसी ने ये नहीं सोचा कि रात के वक्त इस तरह से हुजूम ले कर निकल पड़ना भला कौन सी समझदारी की बात थी? हमारा समय बहुत ख़राब चल रहा है चाचा जी। हमें नहीं पता कि हमारा कौन कौन दुश्मन है और कहां कहां से हम पर घात लगाए बैठा है? जगताप चाचा और बड़े भैया तो दिन के समय ढेर सारे आदमियों के साथ निकले थे इसके बावजूद दुश्मनों ने उन सबकी हत्या कर दी। जब दिन के समय वो लोग अपना बचाव नहीं कर पाए तो क्या रात के वक्त आप लोग अपना बचाव कर पाते?"

"पर हमारे साथ कुछ हुआ तो नहीं वैभव।" अर्जुन सिंह ने ये कहा तो मैंने कहा____"कुछ हुआ नहीं तो इसका एक ही मतलब है चाचा जी कि आप सबकी किस्मत अच्छी थी। हालाकि अमर मामा जी को गोली तो लग ही गई न। अगर वही गोली पिता जी के सीने में लग जाती तो क्या होता? समय जब ख़राब होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। मैं आपसे पूछता हूं कि अगर आप सब यही काफ़िला दिन में ले कर जाते तो क्या बिगड़ जाता? क्या हमारा दुश्मन रात में ही कहीं भाग जाता और आप लोग उसे पकड़ नहीं पाते?"

"शायद तुम सही कह रहे हो वैभव।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा____"रात के वक्त हमारा यहां से जाना वाकई में सही फ़ैसला नहीं था। ख़ैर छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। अच्छी बात यही हुई कि हमने अपने दुश्मन को नेस्तनाबूत कर दिया है।"

"क...क्या सच में??" मैं उनकी बात सुनते ही हैरानी से बोल पड़ा____"कौंन लोग थे वो?"
"और कौन हो सकते हैं?" अर्जुन सिंह ने कहा____"वही थे तुम्हारे गांव के साले वो साहूकार लोग। सबके सब मारे गए, बस दो ही लोग बच गए।"

"बहुत जल्द उनको भी मौत नसीब हो जाएगी अर्जुन सिंह।" पिता जी ने सहसा सर्द लहजे में कहा____"बच कर जाएंगे कहां?"

"जो लोग मुझे मारने के लिए चंदनपुर गए थे।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"उनमें से एक को पकड़ा था मैंने। उसने मुझे बताया था कि उन लोगों को मुझे जान से मारने के लिए साहूकार गौरी शंकर ने भेजा था।"

"और ये तुम अब बता रहे हो हमें?" पिता जी ने मुझे घूरते हुए कहा____"इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो तुम?"

"बताने का समय ही कहां मिला था पिता जी।" मैंने कहा____"मैं तो चंदनपुर से तब आया जब जगताप चाचा और बड़े भैया की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी।"

"गौरी शंकर और वो हरि शंकर का बेटा रूपचंद्र बच गए हैं।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं, जल्द ही उनका भी किस्सा ख़त्म हो जाएगा।"

"क्या उन दोनों को भी जान से मार देना सही होगा?" नाना जी ने कहा____"हमारा ख़याल है कि उन्हें कोई दूसरी सज़ा दे कर जीवित ही छोड़ देना चाहिए। वैसे भी उनके घर की बहू बेटियों को सहारा देने के लिए उनके घर में किसी न किसी मर्द का होना आवश्यक है।"

"उनके घर की बहू बेटियों को शायद पता चल गया है कि उनके घर के मर्द अब नहीं रहे।" मामा जी ने कहा____"ये रोने धोने का शोर शायद वहीं से आ रहा है?"

"हां हो सकता है।" अर्जुन सिंह ने कहा।
"वैसे मुझे भी कुछ ऐसा पता चला है।" मैंने कहा____"जिसकी आप लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"क...क्या पता चला है तुम्हें?" पिता जी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।
"हमारे दुश्मनों की सूची में सिर्फ साहूकार लोग ही नहीं हैं पिता जी।" मैंने कहा____"बल्कि आपका मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर भी है।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" पिता जी के साथ साथ सभी के चेहरों पर आश्चर्य उभर आया।
"यही सच है पिता जी।" मैंने कहा____"मुंशी और उसका बेटा रघुवीर दोनों ही हमारे दुश्मन बने हुए हैं।"

"पर तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" अर्जुन सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"जब मैं यहां से आपके पीछे गया था।" मैंने कहा____"तो रास्ते में मुझे एक साया भागता हुआ अंधेरे में नज़र आया। मैंने उस पर रिवॉल्वर तान कर जब उसे रुकने को कहा तो उल्टा उसने मुझ पर ही गोली चला दी। वो तो अच्छा हुआ कि गोली मुझे नहीं लगी मगर फिर मैंने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया। आख़िर वो मेरी पकड़ में आ ही गया और तब मैंने जाना कि वो असल में मुंशी का बेटा रघुवीर है।"

"वो दोनो बाप बेटे।" अर्जुन सिंह ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला किस वजह से ऐसी दुश्मनी रखे हो सकते हैं?"
"बड़े दादा ठाकुर जी की वजह से।" मैंने कुछ सोचते हुए पिता जी की तरफ देखा____"शायद आप समझ गए होंगे पिता जी।"

"हैरत की बात है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"अगर वो दोनों हमारे स्वर्गीय पिता जी की वजह से हमसे दुश्मनी रखे हुए हैं तो उन्होंने अपनी दुश्मनी के चलते हमारे साथ कुछ भी बुरा करने के लिए इतना समय क्यों लिया? हमें आशंका तो थी लेकिन यकीन नहीं कर पा रहे थे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया कि चंद्रकांत के मन में हमारे प्रति कोई बैर भाव है।"

"कुछ लोग अपने अंदर के भावों को छुपाए रखने में बहुत ही कुशल होते हैं ठाकुर साहब।" मामा अवधराज जी ने कहा____"जब तक वो ख़ुद नहीं चाहते तब तक किसी को उनके अंदर की बातों का पता ही नहीं चल सकता।"

"हम्म सही कह रहे हैं आप।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ख़ैर रात काफी हो गई है। आप सभी को अब आराम से सो जाना चाहिए। इस बारे में बाकी बातें कल पंचायत में होंगी।"

पिता जी के कहने पर सभी ने सहमति में अपना अपना सिर हिलाया और फिर पिता जी के उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में बैठक कक्ष खाली हो गया। इधर मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

✮✮✮✮

अगले दिन।
हवेली के विशाल मैदान में लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी। वातावरण में लोगों का शोर गूंज रहा था।। भीड़ में साहूकारों के घरों की बहू बेटियां भी मौजूद थीं जो दुख में डूबी आंसू बहा रहीं थी। लगभग पूरा गांव ही हवेली के उस बड़े से मैदान में इकट्ठा हो गया था। एक तरफ ऊंचा मंच बना हुआ था जिसमें कई सारी कुर्सियां रखी हुई थीं और उन सबके बीच में एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसमें दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मंच में रखी बाकी कुर्सियों में नाना जी, मामा जी, भैया के साले, और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे। मंच के सामने लोगों की भीड़ थी और भीड़ के आगे साहूकारों के घरों की बहू बेटियां खड़ी हुई थीं। मंच के सामने ही एक तरफ मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा खड़ा हुआ था। दोनों ही बाप बेटों के सिर झुके हुए थे। उनके दूसरी तरफ मैं खड़ा हुआ था। सुरक्षा का ख़याल रखते हुए हर जगह क‌ई संख्या में हमारे आदमी हाथों में बंदूक लिए खड़े थे और साथ ही पूरी तरह सतर्क भी थे।

भीड़ में ही आगे तरफ मुरारी और जगन के घरों से उनकी बीवियां और बच्चे थे। अपनी मां और छोटे भाई अनूप के साथ अनुराधा भी आई हुई थी जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भुवन के कंधों पर थी। वो ख़ुद भी उनके पास ही खड़ा था। ऐसे संवेदनशील वक्त में ना चाहते हुए भी मेरी नज़र अनुराधा की तरफ बारहा चली जाती थी और हर बार मैं ये देख कर विचलित सा हो जाता था कि उसकी नज़रें मुझ पर ही जमी होती थीं। मेरा ख़याल था कि वो पहली बार ही हवेली आई थी। बहरहाल, सरोज के बगल से जगन की बीवी गोमती और उसके सभी बच्चे खड़े हुए थे। गोमती और उसकी बेटियों की आंखों में आसूं थे।

वातावरण में एक अजीब सी सनसनी फैली हुई थी। तभी हवेली के हाथी दरवाज़े से दो जीपें अंदर आईं और एक तरफ आ कर रुक गईं। उन दो जीपों से कुछ लोग नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए मंच की तरफ आ गए। उन्हें देखते ही मंच पर अपनी कुर्सी में बैठे मेरे पिता जी उठ कर खड़े हो गए।

"नमस्कार ठाकुर साहब।" आए हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा तो पिता जी ने भी जवाब में उनका अभिवादन किया। कुछ मुलाजिमों ने फ़ौरन ही पिता जी के इशारे पर कुछ और कुर्सियां ला कर मंच पर रख दी। मेरे पिता जी के आग्रह पर वो सब बैठ गए।

"पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है।" दादा ठाकुर ने अपनी कुर्सी से खड़े हो कर अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और पिछली रात जो कुछ हुआ है उससे दूर दूर तक के गांव वालों को पता चल चुका है कि वो सब कुछ हमसे ताल्लुक रखता है। यूं तो आस पास के कई सारे गावों के मामलों के फ़ैसले हम ही करते आए हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उसका फ़ैसला आज हम ख़ुद नहीं करेंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति हमारे फ़ैसले को ग़लत माने या उस पर अपनी ग़लत धारणा बना ले, या फिर ये समझ ले कि हमने अपनी ताक़त और पहुंच का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है। इस लिए हमने सुंदरगढ़ से ठाकुर महेंद्र सिंह जी को यहां आमंत्रित किया है। हम यहां पर मौजूद हर ब्यक्ति से यही कहना चाहते हैं कि ठाकुर महेंद्र सिंह जी हर पक्ष के लोगों की बातें सुनेंगे और फिर उसके बारे में अपना निष्पक्ष फ़ैसला सुनाएंगे। हम लोगों के सामने ये वचन देते हैं कि अगर इस मामले में हम गुनहगार अथवा अपराधी क़रार दिए गए तो फ़ैसले के अनुसार जो भी सज़ा हमें दी जाएगी उसे हम तहे दिल से स्वीकार करेंगे। अब हम आप सभी से जानना चाहते हैं कि क्या आप सब हमारी इस सोच और बातों से सहमत हैं?"

दादा ठाकुर के ऐसा कहते ही विशाल मैदान में मौजूद जनसमूह ने एक साथ चिल्ला कर कहा कि हां हां हमें मंज़ूर है। जनसमूह में से ज़्यादातर ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं जिनमें ये कहा गया कि दादा ठाकुर हमें आपकी सत्यता और निष्ठा पर पूरा भरोसा है इस लिए आप ख़ुद ही इस मामले का फ़ैसला कीजिए। ख़ैर दादा ठाकुर ने ऐसी आवाज़ों को सुन कर इतना ही कहा कि फिलहाल वो ख़ुद एक मुजरिम की श्रेणी में हैं इस लिए इस मामले में फ़ैसला करने का हक़ वो ख़ुद नहीं रखते।

इतना कह कर पिता जी ने ठाकुर महेन्द्र सिंह जी को अपनी कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया तो वो थोड़े संकोच के साथ आए और बैठ ग‌ए। उनके बैठने के बाद पिता जी मंच से नीचे उतर आए। ये देख कर लोग हाय तौबा करने लगे जिन्हें देख पिता जी ने सबको शांत रहने को कहा।

"इस मामले से जुड़े सभी लोग सामने आ जाएं।" पिता जी की कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और एक एक कर के अपना पक्ष रखें।"

महेंद्र सिंह जी की बात सुन कर साहूकारों के घरों की औरतें थोड़ा आगे आ गईं। उनको देख जहां सरोज और गोमती भी आगे आ गईं वहीं मुंशी और उसका बेटा भी दो क़दम आगे आ गया।

"ठाकुर साहब।" मणि शंकर की बीवी फूलवती देवी ने दुखी भाव से कहा____"सबसे ज़्यादा बुरा हमारे साथ हुआ है। हमारे घर के मर्दों और बच्चों को रात के अंधेरे में गोलियों से भून दिया दादा ठाकुर ने। अब आप ही बताइए कि हमारा क्या होगा? हम सब तो विधवा हुईं ही हमारे साथ हमारी जो बहुएं थी वो भी विधवा हो गईं। इतना ही नहीं हमारी बेटियां अनाथ हो गईं। हम अकेली औरतें भला इस दुख से कैसे उबर सकेंगी और कैसे अपने साथ साथ अपनी अविवाहित बेटियों के जीवन का फ़ैसला कर पाएंगी?"

"ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, इनके घरों के मर्द और बच्चों की इस तरह से हुई हत्या के लिए क्या आप खुद को कसूरवार मानते हैं?"

"बेशक कसूरवार मानते हैं।" पिता जी ने बेबाक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन ये भी सच है कि वो सब अपनी मौत के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। उन्हें अपने किए गए कर्मों का फल मिला है।"

"कैसे?" महेंद्र सिंह ने सवालिया भाव से उन्हें देखते हुए पूछा____"इस मामले में क्या आप सबको खुल कर तथा विस्तार से बताएंगे कि उन्हें उनके कौन से कर्मों का फल दिया है आपने?"

"उन्होंने हमारे छोटे भाई जगताप और हमारे बड़े बेटे अभिनव सिंह के साथ जाने कितने ही लोगों की हत्या की थी।" पिता जी ने कहा____"इतना ही नहीं उन्होंने हमारे छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने की कोशिश की थी जिसके लिए वो चंदनपुर तक पहुंच गए थे।"

"क्या आपके पास।" महेंद्र सिंह ने पूछा____"इन बातों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिल्कुल है।" पिता जी ने मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये दोनों पिता पुत्र खुद हमारी बात का प्रमाण देंगे। ये दोनों खुद इस बात को साबित करेंगे। अगर ये कहा जाए तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा कि ये दोनों खुद भी साहूकारों के साथ मिले हुए थे और गहरी साज़िश रच कर हमारे जिगर के टुकड़ों की हत्या की।"

पिता जी की इस बात को सुनते ही जहां भीड़ में खड़े लोगों में खुसुर फुसुर होने लगी वहीं फूलवती और उसके घरों की बाकी बहू बेटियां हैरत से उन्हें देखने लगीं थी।

"ठाकुर साहब ने जो कुछ कहा।" महेंद्र सिंह ने मुंशी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या वो सच है? क्या आप दोनों क़बूल करते हैं कि आप दोनों साहूकारों से मिले हुए थे और उनके साथ मिल कर ही मझले ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की थी?"

"हां हां यही सच है ठाकुर साहब।" मुंशी हताश भाव से जैसे चीख ही पड़ा____"हम दोनों बाप बेटों ने साहूकारों के साथ मिल कर ही वो सब किया है लेकिन यकीन मानिए मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। अगर मेरा बस चले तो मैं इस हवेली में रहने वाले हर व्यक्ति को जान से मार डालूं। ख़ास कर इस लड़के को जिसका नाम वैभव सिंह है?"

"हम तुम्हारा इशारा अच्छी तरह समझ रहे हैं चंद्रकांत।" पिता जी ने कहा____"लेकिन तुम्हें भी ये अच्छी तरह पता है कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है। कसूर सिर्फ एक हाथ का नहीं होता।"

"कहना बहुत आसान होता है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"और सुनने में भी बड़ा अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िंदगी में जब किसी के साथ ऐसी कोई बात होती है तो यकीन मानिए बहुत तकलीफ़ होती है। धीरे धीरे वो तकलीफ़ ऐसी हो जाती है कि नासूर ही बन जाती है। एक पल के लिए भी वो इंसान को चैन से जीने नहीं देती।"

"चलो मान लिया हमने।" पिता जी ने कहा____"मान लिया हमने कि बेहद तकलीफ़ होती है लेकिन जिसने तुम्हें तकलीफ़ दी थी सज़ा भी सिर्फ उसी को देनी चाहिए थी ना। हमारे भाई जगताप और बेटे अभिनव का क्या कसूर था जिसके लिए तुमने साहूकारों के साथ मिल कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया?"

"आपने भी सुना ही होगा ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने कहा____"कि गेंहू के साथ हमेशा घुन भी पिस जाता है। मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की मौत घुन की तरह पिस जाने जैसी ही थी।"

"हम इस मामले से संबंधित सारी बातें विस्तार से जानना चाहते हैं।" महेंद्र सिंह जी ने ऊंची आवाज़ में मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"इस लिए सबके सामने थोड़ा ऊंची आवाज़ में बताओ कि जो कुछ भी आप दोनों पिता पुत्र ने किया है उसे कैसे और किस किस के सहयोग से अंजाम दिया है?"

"असल में ये रंजिश और ये दुश्मनी बहुत पुरानी है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"बड़े दादा ठाकुर के समय की रंजिश है ये। उन्होंने जो कुछ किया था उसका बदला उनके ज़िंदा रहते कोई भी होता तो लेने का सोच ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं सोच सका, बस अंदर ही अंदर घुटता रहा। कुछ सालों बाद वो अचानक से बीमार पड़ गए और फिर ऐसा बीमार पड़े कि शहर के बड़े से बड़े चिकित्सक भी उनका इलाज़ नहीं कर पाए। अंततः बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई। उनकी ऐसी मृत्यु हो जाने के बारे में कोई कुछ भी सोचे लेकिन मैं तो यही समझता आया हूं कि उन्हें अपने पाप कर्मों की ही सज़ा इस तरह से मिल गई थी। बहरहाल, जिनसे मैं बदला लेना चाहता था वो ईश्वर के घर पहुंच गया था। मैंने भी ये सोच कर खुद को समझा लिया था कि चलो कोई बात नहीं। उसके बाद ठाकुर प्रताप सिंह जी ने दादा ठाकुर की गद्दी सम्हाल ली। शुकर था कि ये अपने पिता के जैसे नहीं थे। मैं खुद भी इन्हें बचपन से जानता था। ख़ैर उसके बाद आगे चल कर इनके द्वारा कभी कुछ भी बुरा अथवा ग़लत नहीं हुआ तो मैंने सोचा काश! इस दुनिया का हर इंसान इनके जैसा ही हो जाए। कहने का मतलब ये कि जब इनके द्वारा किसी के साथ बुरा नहीं हुआ तो मैं भी सब कुछ भुला कर पूरी ईमानदारी से हवेली की सेवा में लग गया था। वक्त गुज़रता रहा, फिर एक दिन मुझे पता चला कि वर्षों पुराना किस्सा फिर से दोहराया जा रहा है और वो किस्सा पुराने वाले किस्से से भी कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर दोहराया जा रहा है। जिन ज़ख्मों को मैंने किसी तरह मरहम लगा कर दिल में ही कहीं दफ़न कर दिया था वो ज़ख्म गड़े हुए मुर्दे की मानिंद दिल की कब्र से निकल आए। पहले बड़े दादा ठाकुर थे इस लिए उनके ख़ौफ के चलते मैं कुछ न कर सका था लेकिन इस बार मैं ख़ुद ही किसी तरह से ख़ुद को समझाना नहीं चाहता था। सोच लिया कि अब चाहे जो हो जाए लेकिन उस इंसान का नामो निशान मिटा कर ही रहूंगा जिसने बड़े दादा ठाकुर का किस्सा दोहराने की हिमाकत ही नहीं की बल्कि पाप किया है।"

"गुस्से में इंसान बहुत कुछ सोच लेता है लेकिन जब दिमाग़ थोड़ा शांत होता है तो वैसा कर लेना आसान नहीं लगता।" सांस लेने के बाद मुंशी ने फिर से बोलना शुरू किया____"यही हाल हम दोनों बाप बेटे का था। वैभव सिंह दादा ठाकुर का बेटा था जोकि पूरा का पूरा अपने दादा पर गया था। वही ग़ुस्सा, वही अंदाज़ और वही हवसीपन। छोटी सी उमर में ही दूर दूर तक उसके नाम का डंका ही नहीं बज रहा था बल्कि उसका ख़ौफ भी फैल रहा था। मैंने गुप्त रूप से पता किया तो पाया कि इसकी पहुंच भी कम नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं। हम दोनों चिंता में पड़ गए कि आख़िर अब करें तो करें क्या? अचानक ही मुझे साहूकारों का ख़याल आया और बस मैंने उनसे मिल जाने का मन बना लिया।"

"उनसे कैसे मिल ग‌ए तुम?" पिता जी ने पूछा____"क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो हमारे खिलाफ़ ग़लत करने का इरादा रखते हैं?"

"बिल्कुल पता था ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"सच तो ये है कि वो बहुत पहले से मुझे अपनी तरफ मिलाने की पहल कर रहे थे। वो तो मैं ही उनकी बात नहीं मान रहा था क्योंकि मैं आपसे गद्दारी करने का ख़याल भी ज़हन में नहीं लाता था। यही वजह थी कि साहूकारों से मेरी हमेशा अनबन ही रहती थी मगर मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन मुझे उन्हीं साहूकारों से मदद लेनी पड़ जाएगी। बहरहाल, ये तो जग ज़ाहिर बात है कि इंसान किसी के सामने तभी झुकता है जब या तो वो झुकने के लिए मजबूर हो या फिर उसे उसकी कोई ज़रूरत हो। मैं भी खुशी से झुक गया लेकिन इसके लिए पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता था। असल में मैं चाहता था कि हमेशा की तरह साहूकार एक बार फिर से मेरे पास अपना इरादा ले कर आएं। मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझने लगें कि मैं उनके बिना कुछ कर ही नहीं सकता। ख़ैर, काफी लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा मुझे। एक दिन मणि शंकर से अचानक ही मुलाक़ात हो गई। पहले तो हमेशा की तरह औपचारिक बातें ही हुईं। उसके बाद उसने फिर से अपना इरादा मेरे सामने ज़ाहिर कर दिया और साथ ही प्रलोभन भी दिया कि इस सबके बाद वो और मैं मिल कर एक नए युग की शुरुआत करेंगे। थोड़ी ना नुकुर के बाद आख़िर मैं मान ही गया।"

"साहूकार लोग तुमसे क्या चाहते थे?" चंद्रकांत सांस लेने के लिए रुका तो पिता जी ने पूछा।

"सबसे पहले तो यही कि आपके और उनके बीच के संबंध बेहतर हो जाएं और दोनों परिवार पूरी सहजता के साथ एक दूसरे के यहां आने जाने लगें।" चंद्रकांत ने कहा____"संबंध सुधार लेने का एक कारण ये भी था कि मणि शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के लिए आपकी भतीजी कुसुम का हाथ मांगना चाहता था। उसने मुझे बताया था कि कुसुम के साथ रूपचंद्र का ब्याह कर के वो इससे बहुत कुछ लाभ लेना चाहता था।"

"किस तरह का लाभ?" पिता जी पूछे बगैर न रह सके।
"इस मामले में ठीक से कुछ नहीं बताया था उसने।" चंद्रकांत ने कहा____"दूसरी वजह थी आपके दोनों बेटों को बदनाम कर देना। ज़ाहिर है इसके लिए वो कोई भी हथकंडा अपना सकता था। तीसरी वजह थी ज़मीनों के कागज़ात जोकि मेरे द्वारा चाहता था वो।"

"ज़मीनों के कागज़ात क्यों चाहिए थे उसे?" पिता जी के चेहरे पर हैरानी उभर आई थी।
"ज़ाहिर है आपकी ज़मीनों को हथिया लेना चाहते थे वो।" मुंशी ने कहा____"हालाकि ये इतना आसान नहीं था लेकिन उसके अपने तरीके थे शायद। वैसे भी उसका असल मकसद तो यही था आपके पूरे खानदान को मिटाना। जब आपके खानदान में कोई बचता ही नहीं तो लावारिश ज़मीन को कब्ज़ा लेने में ज़्यादा समस्या नहीं हो सकती थी।"

"ख़ैर।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"उसके बाद तुम दोनों ने मिल कर क्या क्या किया?"
"उसका और मेरा क्योंकि एक ही मकसद था इस लिए मैंने उसे ये बताया ही नहीं कि असल में मेरी आपसे या आपके परिवार के किसी सदस्य से क्या दुश्मनी है?" मुंशी ने कहा____"सिर्फ़ इतना ही कहा कि बदले में ज़मीन का कुछ हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए।"


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मुंशी और उसके बेटे रघुवीर का राज दादा ठाकुर के सामने वैभव द्वारा लाया गया और मुंशी और रघुवीर के द्वारा पता चला कि साहूकार ठाकुर के पूरे परिवार को मारना चाहते हैं लेकिन अभी तक साहूकारो की दुश्मनी की वजह समझ में नहीं आई है मुंशी ने जो वैभव को दोषी ठहराया है वो पूरी तरह दोषी नही है क्योंकि ताली दोनों हाथो से बजती है इसमें मुंशी की पत्नी और बहु की भी गलती है ये जो भी हुआ है दोनो की रजामंदी से हुआ है वैभव ने उनके साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं कि थी।रजनी के संबंध रूपचंद से भी थे तो मुंशी को साहूकारो से भी बदला लेना चाहिए था मुंशी और रघुवीर ने जो किया वह गलत है
 

KEKIUS MAXIMUS

Supreme
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32,678
259
romanchak update .jagan apne paas banduk hone se thoda saahas juta ke aage badh raha tha par usko pata nahi tha ki aaj uski maut likhi hai vaibhav ke haatho .
kamjor padne par gidgidana namardo ki nishani hai ,jab haath me gun thi to gaaliya bak raha tha par goli lagne se aur vaibhav ko saamne dekhkar dobara gidgidana chalu kar diya ,,ye achcha kiya vaibhav ne ki usko jaan se maar diya .
waise ye sochnewali baat to hai hi ki nakabposh haweli me kaise pahucha aur bina pareshani ke jagan ko aazad kara diya .

raghuveer hosh me aa gaya tha par jyada dur bhag nahi paya aur pakda gaya ,... ab usko bhuvan ke paas chipa diya ,shayad aaj hi sab puchh leta to sahi hota kyunki kal shayad wo jinda hi na rahe 🤔.
bhuvan ki wafadari wakai bemisaal hai jo apne jaan ki parwah na karte huye vaibhav ke baare me jyada sochta hai 😍.
 
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