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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

Sanju@

Well-Known Member
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अध्याय - 70
━━━━━━༻♥༺━━━━━━



"शायद तुमने ठीक से हमारा शेर नहीं सुना।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"अगर सुना होता तो हमारी नज़रों से अपनी मोहिनी सूरत यूं नहीं छुपाते।"

कहने के साथ ही मैंने अपने पैर को फिर से उसके ज़ख्म पर दबाया तो वो एक बार फिर से दर्द से चिल्ला उठा। इस बार उसके चिल्लाने से मुझे उसकी आवाज़ जानी पहचानी सी लगी। उधर वो अभी भी अपना चेहरा दूसरी तरफ किए दर्द से छटपटाए जा रहा था और मैं सोचे जा रहा था कि ये जानी पहचानी आवाज़ किसकी हो सकती है? मुझे सोचने में ज़्यादा समय नहीं लगा। बिजली की तरह मेरे ज़हन में उसका नाम उभर आया और इसके साथ ही मैं चौंक भी पड़ा।



अब आगे....

गांव से बाहर एक बड़े से पेड़ के पास पहुंचते ही सफ़ेदपोश ने जगन को रुकने को कहा तो जगन रुक गया। वो बुरी तरह हांफ रहा था और उसी के जैसे सफ़ेदपोश भी हांफ रहा था। यूं तो हल्के अंधेरे में जगन को उसकी कोई प्रतिक्रिया ठीक से समझ नहीं आ रही थी किंतु उसने इतना ज़रूर महसूस किया था कि सफ़ेदपोश उससे तेज़ नहीं भाग पा रहा था। बहरहाल, वो इसी बात से बेहद खुश था कि उस सफ़ेदपोश ने उसे दादा ठाकुर की क़ैद से निकाल लिया है। एक तरह से उसने उसकी जान बचा ली थी वरना वो तो अब यही समझ चुका था कि कल का दिन उसकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन होगा।

"आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने मेरी जान बचा ली।" जगन ने हांफते हुए सफ़ेदपोश की तरफ देख कर कहा____"मैं जीवन भर अब आपकी गुलामी करूंगा।"

"अगर तुम ऐसा समझते हो।" सफ़ेदपोश ने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहा____"तो ये भी समझते होगे कि तुम्हें ये जो नई ज़िंदगी मिली है उस पर सबसे ज़्यादा अब हमारा अधिकार है।"

"बिल्कुल है मालिक।" जगन ने सफ़ेदपोश को मालिक शब्द से संबोधित करते हुए कहा____"आपने मेरी जान बचा कर मुझे नई ज़िंदगी दी है इस लिए मेरी इस ज़िंदगी में अब आपका ही हक़ है। अब से आप मेरे मालिक हैं और मैं आपका गुलाम जो आपके हर हुकुम का बिना सोचे समझे पालन करेगा।"

"बहुत बढ़िया।" सफ़ेदपोश ने कहा____"अगर तुम हमारे हर हुकुम का पालन करोगे तो यकीन करो आज के बाद तुम्हारे अपने बीवी बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी हम ख़ुद लेते हैं। उन्हें अब किसी भी चीज़ का अभाव नहीं होगा।"

"आपका बहुत बहुत शुक्रिया मालिक।" जगन इस बात से बेहद खुश और बेफ़िक्र सा हो गया, बोला____"आप सच में बहुत महान हैं। मुझे हुकुम दीजिए कि अब मुझे क्या करना है?"

"तुम्हें इसी वक्त माधोपुर की तरफ जाना है।" सफ़ेदपोश ने कहा____"हमारा ख़याल है कि माधोपुर के रास्ते में ही कहीं तुम्हें वैभव सिंह मिलेगा। तुम्हारा काम उसको जान से मार डालना है। क्या तुम ये कर सकोगे?"

"मैं आपके इस हुकुम को अपनी जान दे कर भी पूरा करुंगा मालिक।" जगन वैभव का नाम सुन कर अंदर ही अंदर कांप गया था किंतु अपनी घबराहट को छुपाते हुए बड़ी ही गर्मजोशी से बोला____"और अगर उसके साथ कोई और भी हुआ तो उसको भी जान से मार दूंगा।"

"बहुत बढ़िया।" सफ़ेदपोश ने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहा____"हम उम्मीद करते हैं कि कल का सूरज वैभव सिंह की मौत का पैग़ाम ले कर ही उदय होगा। अगर तुम सच में उसको मारने में कामयाब हुए तो तुम्हें उपहार के रूप में मुंह मांगी मुराद मिलेगी।"

"धन्यवाद मालिक।" जगन मन ही मन गदगद होते हुए बोला।
"इसे अपने पास रखो।" सफ़ेदपोश ने अपने लिबास के अंदर से एक पिस्तौल निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"इसके माध्यम से तुम्हें वैभव सिंह को जान से मारने में आसानी होगी। अब तुम जाओ।"

सफ़ेदपोश से पिस्तौल ले कर जगन ने अदब से सिर झुका कर सफ़ेदपोश को सलाम किया और पलट कर तेज़ी से एक तरफ को बढ़ता चला गया। कुछ ही पलों में वो अंधेरे में गायब हो गया। उसके जाने के बाद सफ़ेदपोश पलटा और वो भी उसी की तरह कुछ ही देर में अंधेरे में कहीं गायब हो गया।

✮✮✮✮

मैं चौंकने के बाद सोच में डूब ही गया था कि तभी अचानक मैं लड़खड़ा कर गिर गया। ज़मीन पर पड़े साए ने मेरा पैर पकड़ कर उछाल दिया था। मुझे उससे ऐसी हरकत की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी इस लिए मैं इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। कच्ची ज़मीन पर गिरते ही मैं बिजली की सी तेज़ी से उठ कर खड़ा हो गया। तभी मेरी नज़र साए पर पड़ी जो अपने दर्द को सहते हुए मुझे दबोचने के लिए मुझ पर झपट ही पड़ा था। इससे पहले कि वो मुझ तक पहुंचता मैंने दाएं घुटने का वार उसके जबड़े में किया तो वो दर्द से बिलबिलाते हुए एक तरफ को उलट गया।

"लगता है मरने की बहुत ही जल्दी है तुझे।" मैंने उसके पास पहुंचते ही उसकी ज़ख्म वाली जांघ पर पैर की ठोकर मारते हुए कहा तो वो एक बार फिर से दर्द से चिल्ला उठा। इधर झुक कर मैंने उसकी गर्दन को पीछे से अपने हाथ की कैंची बना कर दबोच लिया और फिर गुर्राते हुए बोला____"तेरे जैसे नामर्द ठाकुर वैभव सिंह को मारने के ख़्वाब कब से देखने लगे? वैसे मुझे शक तो था लेकिन यकीन नहीं कर पा रहा था कि तू ऐसा कुछ कर सकता है।"

"तेरे जैसे मंद बुद्धि वाले लोग सोच भी नहीं सकते वैभव सिंह।" साया दर्द में भी नफ़रत से गुर्राया____"तू तो बस दूसरो की बहू बेटियों की इज्ज़त लूटना ही जानता है। ये उसी का परिणाम है कि आज तुम सब इस हाल में पहुंच गए हो।"

"मान लिया कि मुझे सिर्फ दूसरो की बहू बेटियों की इज्ज़त लूटना ही आता है।" मैंने उसी लहजे में कहा___"मगर ठाकुर वैभव सिंह उस जियाले का नाम है जो अपना हर काम डंके की चोट पर करता है। तेरे जैसे नामर्द तो छुप कर ही वार करते हैं।"

मेरी बात सुन कर साया बुरी तरह कसमसा कर रह गया। इधर मैं उसकी बेबसी को देखते हुए बोला___"ख़ैर ये तो बता क्या तेरी बीवी भी इस खेल में शामिल है?"

"नहीं।" साया ढीला पड़ते हुए बोला____"होगी भी कैसे? उसे तो तेरा मोटा लंड मिल रहा था। बुरचोदी बड़े मज़े से तुझसे चुदवाती थी। मैंने और मेरे बापू ने लोगों से सुना तो था पर यकीन नहीं था कि दादा ठाकुर का पूत मेरे ही घर की इज्ज़त को इस तरह लूट सकता है। एक दिन जब मैंने अपनी आंखों से देख लिया तो यकीन करना ही पड़ा। रजनी पर गुस्सा तो बहुत आया था मुझे, जी किया कि जान से मार दूं उसे लेकिन फिर सोचा कि क्यों न उसी के हाथों उसके यार को मरवाया जाए। मैंने एक दिन धर लिया उसे और उससे खुल कर पूछा। पहले तो साली मुकर रही थी और कह रही थी कि मैं बेवजह ही अपनी बीवी पर ऐसा घटिया आरोप लगा रहा हूं। फिर जब मैंने तबीयत से उसको कूटना शुरू किया तो जल्दी ही क़बूल कर लिया उसने। तब मैंने कहा कि अब वो वही करे जो मैं कहूं, अगर उसने ऐसा नहीं किया तो मैं उसे बेइज्ज़त कर के घर से निकाल दूंगा। उसके मायके में भी सबको बता दूंगा कि वो पूरे गांव के मर्दों का बिस्तर गरम करती है। मेरी इस धमकी से वो डर गई थी इस लिए उसने वो सब कुछ करना मंज़ूर कर लिया जो करने के लिए मैं उसे बोल रहा था।"

"अपनी बीवी के हाथों।" मैंने बीच में ही उसे टोकते हुए कहा____"तू किस तरह मुझे मरवा देना चाहता था?"

"तू जब अपनी हवस मिटाने के लिए मेरे घर आता।" रघुवीर ने नफ़रत से कहा____"तो वो मेरे कहे अनुसार तेज़ धार वाले खंज़र से तेरा गला चीर देती। उसके बाद मैं तेरी लाश को सबकी नज़रों से छुपा कर कहीं दफ़ना देता।"

"वाह! बहुत खूब।" मैं उसकी बात सुन कर हल्के से मुस्कुराया, फिर बोला____"अगर तेरा यही मंसूबा था तो फिर तूने अपने इस मंसूबे को पूरा क्यों नहीं किया?"

"हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे कि ऐसा कुछ करने का मौका ही नहीं मिल सका मुझे।" रघुवीर ने जैसे अफ़सोस जताते हुए कहा____"दूसरी बात ये भी कि उसके बाद से तू भी मेरे घर नहीं आया। मैं तो हर रोज़ तेरे आने की राह देखता था। इधर हालात कुछ ऐसे हो गए कि तू अपने बाप चाचा और भाई के साथ किसी और ही काम में उलझ गया। इसी बीच मुझे और बापू को एक और बात पता चली।"

"कौन सी बात?" मेरे माथे पर शिकन उभरी।
"मेरा मंसूबा पूरा नहीं हो पा रहा था इस लिए मैं बेहद गुस्से में था।" रघुवीर ने कहा____"और इसी गुस्से में मैंने एक दिन रजनी को फिर से कूटना शुरू कर दिया तो उसके मुख से अंजाने में ही कुछ ऐसा निकल गया जो मेरी कल्पनाओं में भी नहीं था।"

"क्या मतलब??" मैं पूछे बग़ैर न रह सका____"ऐसा क्या निकल गया था तेरी बीवी के मुख से?"

"शायद वो मेरे द्वारा बेमतलब कूटे जाने से गुस्से में आ गई थी।" रघुवीर ने कहा____"इसी लिए उसने गुस्से में मुझसे कहा कि मैं सिर्फ उसे ही क्यों मार रहा हूं जबकि मेरी मां के भी तो तेरे साथ उसी के जैसे संबंध हैं। रजनी के मुख से ये सुन कर मैं एकदम से सुन्न सा पड़ गया था। मुझे लगा वो मेरी मां पर झूठा इल्ज़ाम लगा रही है इस लिए मैंने गुस्से में उसे फिर से कूटना शुरू कर दिया तो उसने कहा कि अगर मुझे यकीन नहीं है तो मैं खुद जा कर अपनी मां से इस बारे में पूछ लूं।"

"तो फिर तुमने अपनी मां से पूछा?" रघुवीर एकदम से चुप हो गया तो मैंने उत्सुकतावश उससे पूछ ही लिया।

"हिम्मत तो नहीं पड़ रही थी लेकिन मेरे अंदर गुस्सा भी था इस लिए जैसे ही मां गांव से आई तो मैंने उससे पूछ लिया।" रघुवीर ने कहा____"पहले तो मां मेरे मुख से ऐसी बातें सुन कर गुस्सा होते हुए मुझ पर खूब चिल्लाई मगर जब मैंने दहाड़ते हुए उसको मारने दौड़ा तो वो डर गई। ऊपर से रजनी भी आ गई और मेरे सामने ही मां को बताने लगी कि उसे सब पता है कि कैसे वो तेरे साथ अकेले में गुलछर्रे उड़ाती है। रजनी की बात सुन कर मां से कुछ कहते ना बन पड़ा था। मैं समझ गया कि रजनी मां के बारे में सच बोल रही है। मुझे इतना ज़्यादा गुस्सा आया कि मैं मां को मारने के लिए दौड़ पड़ा उसकी तरफ मगर तभी बापू की आवाज़ सुन कर रुक गया।"

"यानि इस सबकी वजह से तेरे बाप को भी सब पता चल गया?" मैंने पूछा तो उसने कहा____"उन्हें ये सब पहले से ही पता था किंतु ये बात उनके लिए भी हैरान कर देने वाली थी कि उनकी बूढ़ी बीवी ने अपने बेटे समान लड़के से यानि तुझसे ऐसा गंदा संबंध बनाया हुआ है। उस दिन बापू का गुस्सा भी सातवें आसमान पर पहुंच गया और फिर उनके अंदर वर्षों से जो कुछ दबा हुआ था वो सब गुस्से में निकल गया।"

"ऐसा क्या था तेरे बाप के अंदर?" मैंने भारी उत्सुकता के साथ पूछा____"जो वर्षों से दबा हुआ था?"

"उस दिन उन्हीं के मुख से मुझे पता चला कि मेरी मां का हवेली से बहुत पुराना संबंध रहा है।" रघुवीर ने कहा____"बड़े दादा ठाकुर अपने मुंशी यानि मेरे बाप की बीवी को अपनी रखैल बनाए हुए थे।"

रघुवीर के मुख से ये सुनते ही मेरे पिछवाड़े से धरती गायब हो गई। साला मुंशी की बीवी प्रभा तो छुपी रुस्तम थी। मेरे दादा जी यानी बड़े दादा ठाकुर की रखैल थी वो और उनके बाद उनके पोते यानि मेरे साथ मज़े कर रही थी। मेरा तो ये सोचते ही सिर चकराने लगा था। तभी मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि क्या प्रभा के ऐसे संबंध मेरे अपने पिता से भी हो सकते हैं? इस ख़याल ने मेरे जिस्म में झुरझरी सी पैदा कर दी। मुझे अपने पिता पर यकीन तो नहीं हुआ मगर ये सब सुन कर यही लगने लगा कि कुछ भी हो सकता है।

"ये तो बड़े ही आश्चर्य की बात है।" फिर मैंने रघुवीर से कहा____"लेकिन ये समझ नहीं आया कि जब तेरे बाप को अपनी बीवी के बारे में पहले से ही सब पता था तो वो इतने वर्षों से चुप क्यों था? क्या तेरे बाप का खून इतने वर्षों में कभी नहीं खौला?"

"उस दिन गुस्से में मैंने भी बापू से यही सब कहा था।" रघुवीर ने कहा____"जवाब में बापू ने यही कहा कि वो कुछ नहीं कर सकते थे। असल में बापू का ब्याह बड़े दादा ठाकुर ने ही मां से करवाया था। जब बापू को बड़े दादा ठाकुर के साथ अपनी बीवी के संबंधों का पता चला तो वो बहुत ख़फा हुए थे मां से। पूछने पर मां ने बताया था कि बड़े दादा ठाकुर से उनके संबंध तब से हैं जब उनका बापू से ब्याह भी नहीं हुआ था। मैंने भी लोगों से ही सुना था कि बड़े दादा ठाकुर ऐसे ही ठरकी आदमी थे। उन्हें जो भी लड़की या औरत पसंद आ जाती थी उसे वो फ़ौरन ही अपने हरम में पेश करवा लेते थे। दूर दूर तक के लोगों में उनका ख़ौफ था इस लिए कोई उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ जा भी नहीं सकता था। यही वजह थी कि मेरे बापू कभी इस बारे में कुछ नहीं कर सके थे। जब बड़े दादा ठाकुर की मृत्यु हुई तब मेरे बापू ये सोच कर खुश हुए थे कि ऊपर वाले ने उनकी सुन ली और बड़े दादा ठाकुर जैसे पापी को उसके अपराध के चलते मौत मिल गई। बड़े दादा ठाकुर के बाद तेरे पिता दादा ठाकुर बन कर गद्दी पर बैठे। दादा ठाकुर के बारे में बापू बचपन से जानते थे इस लिए उन्होंने ये सोच कर कभी बदला लेने का नहीं सोचा कि वो अपने पिता के जैसे नहीं हैं। बस उसके बाद वो हमेशा शांत ही रहे और दादा ठाकुर की सेवा करते रहे मगर उस दिन जब उन्हें पता चला कि बड़े दादा ठाकुर के बाद बड़े दादा ठाकुर के पोते ने उनकी बीवी को अपनी हवस का शिकार बना लिया है तो उनके पुराने ज़ख्म फिर से ताज़ा हो गए।"

"वाह! काफी दिलचस्प कहानी है।" मैंने कहा____"मगर इस कहानी से मैं बस यही समझा हूं कि तेरा बापू एक नंबर का चूतिया और डरपोक आदमी था। बड़ी हैरत की बात है कि उसे अपनी बीवी के बारे में शुरू से सब पता था इसके बावजूद कभी उसका खून नहीं खौला। बड़े दादा ठाकुर के ख़ौफ ने उसके खून को पानी बना के रख दिया था। चलो मान लिया कि वो बड़े दादा ठाकुर का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था मगर क्या वो अपनी बीवी का भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था? अरे! ऐसी बेवफ़ा बीवी को कभी भी वो ज़हर दे कर मार सकता था मगर नहीं उसने सब कुछ सह लिया और वर्षों तक कायरों का तमगा लिए घूमता रहा। ख़ैर, तो उस दिन तेरे बापू का पानी बना खून फिर से खून में तब्दील हुआ जिस दिन उसे ये पता चला कि उसकी बीवी ही नहीं बल्कि उसकी बहू भी मेरे साथ मज़े कर रही है?"

"हां।" रघुवीर ने जैसे क़बूल किया____"हम दोनों बाप बेटे इस सबसे बहुत दुखी थे। ये कैसी अजीब बात थी कि हम दोनों बाप बेटे की बीवियां तेरे साथ संबंध बनाए हुए थीं और हम नामर्द से बन गए थे। उसी दिन मैंने और बापू ने मिल कर ये फ़ैसला कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए इसका बदला हम ले कर रहेंगे।"

अभी मैं रघुवीर की बात सुन कर उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी एक तरफ से अजीब सी आवाज़ हुई जिसे सुन कर मैं चौंक पड़ा। पलट कर मैंने दूर दूर तक अंधेरे में नज़र दौड़ाई मगर अंधेरे में कुछ समझ नहीं आया। मैंने गौर किया कि आवाज़ स्वाभाविक रूप से नहीं हुई थी। मैं एकदम से सतर्क हो गया। वैसे भी इस समय हालात अच्छे नहीं थे। मैंने रघुवीर को छोड़ा और इससे पहले कि वो कुछ कर पाता मैंने तेज़ी से रिवॉल्वर के दस्ते का वार उसकी कनपटी के खास हिस्से पर कर दिया। रघुवीर के मुख से घुटी घुटी सी चीख निकली और अगले कुछ ही पलों में वो अपने होश खोता चला गया। उसके बेहोश होते ही मैंने उसके जिस्म को उठा कर अपने कंधे पर डाला और अंधेरे में एक तरफ को बढ़ता चला गया।

✮✮✮✮

कुसुम अपनी भाभी के बिस्तर पर गहरी नींद में सो ही रही थी कि तभी किसी के द्वारा ज़ोर ज़ोर से हिलाए जाने पर उसकी आंख खुल गई। वो हड़बड़ा कर उठी और फिर बदहवास हालत में उसने इधर उधर देखा तो जल्दी ही उसकी नज़र अपने एकदम पास झुकी रागिनी पर पड़ी।

"भ...भाभी आप?" कुसुम एकदम से चौंकते हुए बोली____"क्या हुआ, आप इस तरह खड़ी क्यों हैं? सोई नहीं आप?"

"नींद ही नहीं आ रही थी मुझे।" रागिनी ने बुझे मन से कहा____"इस लिए तुम्हें सोता देख मैं कमरे से बाहर चली गई थी। बाहर गई तो मेरे मन में वैभव का ख़याल आ गया। वो पहले भी बहुत देर तक मेरे पास ही सिरहाने पर बैठा हुआ था। उसे भी नींद नहीं आ रही थी। मैंने उसे आराम करने के लिए भेजा था तो सोचा देखूं वो आराम कर रहा है या अभी भी जाग रहा है? जब मैं उसके कमरे में पहुंची तो देखा वहां उसके कमरे में बिस्तर पर विभोर सो रहा था जबकि वैभव नहीं था?"

"क...क्या???" कुसुम अपनी भाभी की बात सुन कर बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रही हैं आप? वैभव भैया अपने कमरे में नहीं थे?"

"हां कुसुम।" रागिनी ने सहसा चिंतित भाव से कहा____"वो अपने कमरे में नहीं था। अब तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे वो हवेली से चला गया है, शायद मेरी शर्त पूरी करने।"

"श...शर्त...पूरी करने???" कुसुम का जैसे दिमाग़ ही चकरा गया____"ये सब आप क्या कह रही हैं भाभी? मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।"

रागिनी ने संक्षेप में कुसुम को वो बातें बता दी जो उसकी और वैभव के बीच हुईं थी। सारी बातें सुन का कुसुम के चेहरे पर भी चिंता की लकीरें उभर आईं।

"अब क्या होगा भाभी?" कुसुम घबराए हुए भाव से बोली____"कहीं वैभव भैया सच में ही न आपकी शर्त पूरी करने चले गए हों मगर उन्हें रात के इस वक्त हवेली से बाहर नहीं जाना चाहिए था।"

"यही तो मैं भी सोच रही हूं कुसुम।" रागिनी ने चिंतित और परेशान भाव से कहा____"उसे मेरी शर्त को पूरा करने के लिए इस तरह का पागलपन नहीं दिखाना चाहिए था। अगर उसे कुछ हो गया तो उसकी ज़िम्मेदार मैं ही तो होऊंगी। अगर हवेली में किसी को इस बारे में पता चला तो कोई भी मुझे माफ़ नहीं करेगा। कोई क्या मैं ख़ुद अपने आपको कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगी।"

कहने के साथ ही रागिनी की आंखें छलक पड़ीं। ये देख कुसुम झट से उठी और रागिनी को बिस्तर पर बैठा कर उसे दिलासा देने लगी।

"शांत हो जाइए भाभी।" फिर उसने कहा____"वैभव भैया को कुछ नहीं होगा। भगवान इतना भी बेरहम नहीं हो सकता कि वो हम सबको एक ही दिन में इतना सारा दुख दे दे।"

"कौन भगवान? कैसा भगवान कुसुम?" रागिनी ने हताश भाव से कहा____"नहीं, कहीं कोई भगवान नहीं है। सब झूठ है। ये सब लोगों का फैलाया हुआ अंधविश्वास है। अगर सच में कहीं भगवान होता तो अपने होने का कोई तो सबूत देता। जब से मैंने होश सम्हाला है तब से उसकी पूजा आराधना करती आई हूं मगर क्या किया भगवान ने? नहीं कुसुम, सच तो यही है कि इस दुनिया में भगवान जैसा कुछ है ही नहीं। आज मैं भी एक वादा करती हूं कि अगर इस भगवान ने वैभव के साथ कुछ भी बुरा किया तो मैं अपने हाथों से हवेली में मौजूद भगवान की हर मूर्ति को उठा कर हवेली से बाहर फेंक दूंगी।"

"ऐसा मत कहिए भाभी।" रागिनी की बातें सुन कर कुसुम के समूचे जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई, बोली____"आपकी ज़ुबान पर इतनी कठोर बातें ज़रा भी अच्छी नहीं लगती। यकीन कीजिए वैभव भैया के साथ कुछ भी बुरा नहीं होगा। अब चलिए आराम कीजिए आप।"

कुसुम ने ज़ोर दे कर रागिनी को बिस्तर पर लिटा दिया और खुद किनारे पर बैठी जाने किन ख़यालों में खो गई। पूरी हवेली में सन्नाटा छाया हुआ था लेकिन कमरे के अंदर मौजूद दो इंसानों के अंदर जैसे कोई आंधी सी चल रही थी।



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Awesome update
तो ये मुंशी का बेटा रघुवीर था जो वैभव के हत्थे चढ़ गया और वह वैभव को क्यों मरना चाहता है ये भी बता दिया लेकिन एक नई बात पता चली कि प्रभा के संबंध बड़े ठाकुर से थे तो सफेद नकाबपोश की दुश्मनी भी बड़े ठाकुर की वजह से ही है वैभव को रजनी और रूपचंद के संबंधो के बारे में भी रघुवीर को बता देना चाहिए था खैर रघुवीर का काम तमाम हो गया है लेकिन सफेद नकाबपोश के बारे में कुछ भी नही मिला है भाभी और कुसुम की चिंता वैभव के लिए सही है देखते हैं आगे क्या होता है
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,634
117,553
354
अध्याय - 72
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उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?


अब आगे....


पता नहीं रात का वो कौन सा पहर था किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैं अपने कमरे में बिस्तर पर विभोर के बगल से लेटा हुआ था। विभोर गहरी नींद में था। तभी गहन सन्नाटे में कहीं दूर से उठता शोर सुनाई दिया। मेरे कान एकदम से उस शोर को ध्यान से सुनने के लिए मानों खड़े हो गए। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि वो शोर असल में कुछ लोगों के रोने धोने का है। मुझे समझते देर न लगी कि पिता जी जिस काम से इतने लोगों के साथ गए थे वो काम कर आए हैं। ये उसी का नतीजा था कि इतने वक्त बाद ये रोने धोने का शोर ख़ामोश वातावरण में गूंजने लगा था। अचानक ही मेरे ज़हन में कुछ सवाल उभर आए और उनके साथ ही कुछ ख़याल भी जिन्होंने मुझे थोड़ा विचलित सा कर दिया।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। रात के इस वक्त किसी दस्तक से मैं एकदम से सतर्क हो गया। बिस्तर से मैं बहुत ही सावधानी से उतरा और दबे पांव दरवाज़े के पास पहुंचा। कुंडी खोल कर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर पिता जी को खड़े पाया।

"बैठक में आओ।" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"कुछ बात करनी है तुमसे।"
"जी ठीक है।" मैंने कहा तो वो पलट कर चल दिए।

कुछ ही देर में मैं बैठक में पहुंच गया जहां पर बाकी सब लोग भी बैठे हुए थे। हवेली में जो लोग सो रहे थे वो जाग चुके थे, सिवाय अजीत और विभोर के।

"हमारी इजाज़त के बिना।" पिता जी ने सख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और बिना किसी को बताए आख़िर तुम हवेली से बाहर क्यों गए थे?"

"आप यहां थे नहीं इस लिए आपसे इजाज़त ले नहीं सका।" मैंने बेख़ौफ भाव से कहा____"और यहां किसी को बताता तो कोई मुझे बाहर जाने ही नहीं देता। अब क्योंकि मेरे लिए बाहर जाना ज़रूरी था इस लिए चला गया।"

"वैभव।" नाना जी ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"ये क्या तरीका है अपने पिता से बात करने का?"
"आप ही बताइए नाना जी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"कि ये सब बताने के लिए मुझे कौन सा तरीका अपनाना चाहिए था?"

"हमें तो ख़बर मिली थी कि तुम पहले से काफी बदल गए हो।" नाना जी ने उसी नाराज़गी से कहा____"लेकिन तुम तो अभी भी वैसे ही हो। ख़ैर क्या कह सकते हैं हम।"

"आख़िर कब तुम अपनी मनमानियां करना बंद करोगे?" पिता जी ने गुस्से से कहा____"क्या चाहते हो तुम? हम सबको ज़िंदा मार देना चाहते हो?"

"शांत हो जाइए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"ये समय इन सब बातों का नहीं है।"
"अरे! कैसे नहीं है अर्जुन सिंह?" पिता जी ने कहा____"हम अपने दो जिगर के टुकड़ों को खो चुके हैं और ये जिस तरीके से यहां से बिना किसी को बताए चला गया था अगर इसे कुछ हो जाता तो? क्या फिर हम ज़िंदा रह पाते?"

"मैं समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने पिता जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"किंतु ये अच्छी बात है न कि वैभव के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। हम उम्मीद करते हैं कि अब से ये ऐसा नहीं करेगा।" कहने के साथ ही अर्जुन सिंह मुझसे मुखातिब हुए____"हम ठीक कह रहे हैं न वैभव बेटा?"

"जी चाचा जी।" मैंने सिर झुकाते हुए कहा____"और मैं माफ़ी चाहता हूं आप सबसे अपने बर्ताव के लिए। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए था किंतु उस वक्त मेरी भी मानसिक अवस्था ऐसी थी कि मुझे कुछ और सूझा ही नहीं। जब मुझे पता चला कि मेरे पिता जी रात के वक्त आप सबको ले कर चले गए हैं तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया था कि कहीं आप में से किसी के साथ कुछ हो न जाए। मैं अपने चाचा और बड़े भैया को खो चुका हूं चाचा जी, और अब मैं अपने पिता जी को नहीं खोना चाहता। मेरे अकेले चले जाने पर तो इन्होंने कह दिया कि मुझे कुछ हो जाता तो क्या होता लेकिन क्या आप में से किसी ने ये सोचा कि अगर मेरे पिता जी को कुछ हो जाता तो हम सबका क्या होता?"

मेरी ये बात सुन कर किसी के मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। बात छोटे मुंह से भले ही निकली थी लेकिन थी बड़ी।

"आप सब तो मुझसे बड़े हैं।" मैंने सबको ख़ामोश देख कहा____"फिर भी किसी ने ये नहीं सोचा कि रात के वक्त इस तरह से हुजूम ले कर निकल पड़ना भला कौन सी समझदारी की बात थी? हमारा समय बहुत ख़राब चल रहा है चाचा जी। हमें नहीं पता कि हमारा कौन कौन दुश्मन है और कहां कहां से हम पर घात लगाए बैठा है? जगताप चाचा और बड़े भैया तो दिन के समय ढेर सारे आदमियों के साथ निकले थे इसके बावजूद दुश्मनों ने उन सबकी हत्या कर दी। जब दिन के समय वो लोग अपना बचाव नहीं कर पाए तो क्या रात के वक्त आप लोग अपना बचाव कर पाते?"

"पर हमारे साथ कुछ हुआ तो नहीं वैभव।" अर्जुन सिंह ने ये कहा तो मैंने कहा____"कुछ हुआ नहीं तो इसका एक ही मतलब है चाचा जी कि आप सबकी किस्मत अच्छी थी। हालाकि अमर मामा जी को गोली तो लग ही गई न। अगर वही गोली पिता जी के सीने में लग जाती तो क्या होता? समय जब ख़राब होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। मैं आपसे पूछता हूं कि अगर आप सब यही काफ़िला दिन में ले कर जाते तो क्या बिगड़ जाता? क्या हमारा दुश्मन रात में ही कहीं भाग जाता और आप लोग उसे पकड़ नहीं पाते?"

"शायद तुम सही कह रहे हो वैभव।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा____"रात के वक्त हमारा यहां से जाना वाकई में सही फ़ैसला नहीं था। ख़ैर छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। अच्छी बात यही हुई कि हमने अपने दुश्मन को नेस्तनाबूत कर दिया है।"

"क...क्या सच में??" मैं उनकी बात सुनते ही हैरानी से बोल पड़ा____"कौंन लोग थे वो?"
"और कौन हो सकते हैं?" अर्जुन सिंह ने कहा____"वही थे तुम्हारे गांव के साले वो साहूकार लोग। सबके सब मारे गए, बस दो ही लोग बच गए।"

"बहुत जल्द उनको भी मौत नसीब हो जाएगी अर्जुन सिंह।" पिता जी ने सहसा सर्द लहजे में कहा____"बच कर जाएंगे कहां?"

"जो लोग मुझे मारने के लिए चंदनपुर गए थे।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"उनमें से एक को पकड़ा था मैंने। उसने मुझे बताया था कि उन लोगों को मुझे जान से मारने के लिए साहूकार गौरी शंकर ने भेजा था।"

"और ये तुम अब बता रहे हो हमें?" पिता जी ने मुझे घूरते हुए कहा____"इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो तुम?"

"बताने का समय ही कहां मिला था पिता जी।" मैंने कहा____"मैं तो चंदनपुर से तब आया जब जगताप चाचा और बड़े भैया की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी।"

"गौरी शंकर और वो हरि शंकर का बेटा रूपचंद्र बच गए हैं।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं, जल्द ही उनका भी किस्सा ख़त्म हो जाएगा।"

"क्या उन दोनों को भी जान से मार देना सही होगा?" नाना जी ने कहा____"हमारा ख़याल है कि उन्हें कोई दूसरी सज़ा दे कर जीवित ही छोड़ देना चाहिए। वैसे भी उनके घर की बहू बेटियों को सहारा देने के लिए उनके घर में किसी न किसी मर्द का होना आवश्यक है।"

"उनके घर की बहू बेटियों को शायद पता चल गया है कि उनके घर के मर्द अब नहीं रहे।" मामा जी ने कहा____"ये रोने धोने का शोर शायद वहीं से आ रहा है?"

"हां हो सकता है।" अर्जुन सिंह ने कहा।
"वैसे मुझे भी कुछ ऐसा पता चला है।" मैंने कहा____"जिसकी आप लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"क...क्या पता चला है तुम्हें?" पिता जी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।
"हमारे दुश्मनों की सूची में सिर्फ साहूकार लोग ही नहीं हैं पिता जी।" मैंने कहा____"बल्कि आपका मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर भी है।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" पिता जी के साथ साथ सभी के चेहरों पर आश्चर्य उभर आया।
"यही सच है पिता जी।" मैंने कहा____"मुंशी और उसका बेटा रघुवीर दोनों ही हमारे दुश्मन बने हुए हैं।"

"पर तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" अर्जुन सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"जब मैं यहां से आपके पीछे गया था।" मैंने कहा____"तो रास्ते में मुझे एक साया भागता हुआ अंधेरे में नज़र आया। मैंने उस पर रिवॉल्वर तान कर जब उसे रुकने को कहा तो उल्टा उसने मुझ पर ही गोली चला दी। वो तो अच्छा हुआ कि गोली मुझे नहीं लगी मगर फिर मैंने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया। आख़िर वो मेरी पकड़ में आ ही गया और तब मैंने जाना कि वो असल में मुंशी का बेटा रघुवीर है।"

"वो दोनो बाप बेटे।" अर्जुन सिंह ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला किस वजह से ऐसी दुश्मनी रखे हो सकते हैं?"
"बड़े दादा ठाकुर जी की वजह से।" मैंने कुछ सोचते हुए पिता जी की तरफ देखा____"शायद आप समझ गए होंगे पिता जी।"

"हैरत की बात है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"अगर वो दोनों हमारे स्वर्गीय पिता जी की वजह से हमसे दुश्मनी रखे हुए हैं तो उन्होंने अपनी दुश्मनी के चलते हमारे साथ कुछ भी बुरा करने के लिए इतना समय क्यों लिया? हमें आशंका तो थी लेकिन यकीन नहीं कर पा रहे थे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया कि चंद्रकांत के मन में हमारे प्रति कोई बैर भाव है।"

"कुछ लोग अपने अंदर के भावों को छुपाए रखने में बहुत ही कुशल होते हैं ठाकुर साहब।" मामा अवधराज जी ने कहा____"जब तक वो ख़ुद नहीं चाहते तब तक किसी को उनके अंदर की बातों का पता ही नहीं चल सकता।"

"हम्म सही कह रहे हैं आप।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ख़ैर रात काफी हो गई है। आप सभी को अब आराम से सो जाना चाहिए। इस बारे में बाकी बातें कल पंचायत में होंगी।"

पिता जी के कहने पर सभी ने सहमति में अपना अपना सिर हिलाया और फिर पिता जी के उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में बैठक कक्ष खाली हो गया। इधर मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

✮✮✮✮

अगले दिन।
हवेली के विशाल मैदान में लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी। वातावरण में लोगों का शोर गूंज रहा था।। भीड़ में साहूकारों के घरों की बहू बेटियां भी मौजूद थीं जो दुख में डूबी आंसू बहा रहीं थी। लगभग पूरा गांव ही हवेली के उस बड़े से मैदान में इकट्ठा हो गया था। एक तरफ ऊंचा मंच बना हुआ था जिसमें कई सारी कुर्सियां रखी हुई थीं और उन सबके बीच में एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसमें दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मंच में रखी बाकी कुर्सियों में नाना जी, मामा जी, भैया के साले, और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे। मंच के सामने लोगों की भीड़ थी और भीड़ के आगे साहूकारों के घरों की बहू बेटियां खड़ी हुई थीं। मंच के सामने ही एक तरफ मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा खड़ा हुआ था। दोनों ही बाप बेटों के सिर झुके हुए थे। उनके दूसरी तरफ मैं खड़ा हुआ था। सुरक्षा का ख़याल रखते हुए हर जगह क‌ई संख्या में हमारे आदमी हाथों में बंदूक लिए खड़े थे और साथ ही पूरी तरह सतर्क भी थे।

भीड़ में ही आगे तरफ मुरारी और जगन के घरों से उनकी बीवियां और बच्चे थे। अपनी मां और छोटे भाई अनूप के साथ अनुराधा भी आई हुई थी जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भुवन के कंधों पर थी। वो ख़ुद भी उनके पास ही खड़ा था। ऐसे संवेदनशील वक्त में ना चाहते हुए भी मेरी नज़र अनुराधा की तरफ बारहा चली जाती थी और हर बार मैं ये देख कर विचलित सा हो जाता था कि उसकी नज़रें मुझ पर ही जमी होती थीं। मेरा ख़याल था कि वो पहली बार ही हवेली आई थी। बहरहाल, सरोज के बगल से जगन की बीवी गोमती और उसके सभी बच्चे खड़े हुए थे। गोमती और उसकी बेटियों की आंखों में आसूं थे।

वातावरण में एक अजीब सी सनसनी फैली हुई थी। तभी हवेली के हाथी दरवाज़े से दो जीपें अंदर आईं और एक तरफ आ कर रुक गईं। उन दो जीपों से कुछ लोग नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए मंच की तरफ आ गए। उन्हें देखते ही मंच पर अपनी कुर्सी में बैठे मेरे पिता जी उठ कर खड़े हो गए।

"नमस्कार ठाकुर साहब।" आए हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा तो पिता जी ने भी जवाब में उनका अभिवादन किया। कुछ मुलाजिमों ने फ़ौरन ही पिता जी के इशारे पर कुछ और कुर्सियां ला कर मंच पर रख दी। मेरे पिता जी के आग्रह पर वो सब बैठ गए।

"पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है।" दादा ठाकुर ने अपनी कुर्सी से खड़े हो कर अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और पिछली रात जो कुछ हुआ है उससे दूर दूर तक के गांव वालों को पता चल चुका है कि वो सब कुछ हमसे ताल्लुक रखता है। यूं तो आस पास के कई सारे गावों के मामलों के फ़ैसले हम ही करते आए हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उसका फ़ैसला आज हम ख़ुद नहीं करेंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति हमारे फ़ैसले को ग़लत माने या उस पर अपनी ग़लत धारणा बना ले, या फिर ये समझ ले कि हमने अपनी ताक़त और पहुंच का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है। इस लिए हमने सुंदरगढ़ से ठाकुर महेंद्र सिंह जी को यहां आमंत्रित किया है। हम यहां पर मौजूद हर ब्यक्ति से यही कहना चाहते हैं कि ठाकुर महेंद्र सिंह जी हर पक्ष के लोगों की बातें सुनेंगे और फिर उसके बारे में अपना निष्पक्ष फ़ैसला सुनाएंगे। हम लोगों के सामने ये वचन देते हैं कि अगर इस मामले में हम गुनहगार अथवा अपराधी क़रार दिए गए तो फ़ैसले के अनुसार जो भी सज़ा हमें दी जाएगी उसे हम तहे दिल से स्वीकार करेंगे। अब हम आप सभी से जानना चाहते हैं कि क्या आप सब हमारी इस सोच और बातों से सहमत हैं?"

दादा ठाकुर के ऐसा कहते ही विशाल मैदान में मौजूद जनसमूह ने एक साथ चिल्ला कर कहा कि हां हां हमें मंज़ूर है। जनसमूह में से ज़्यादातर ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं जिनमें ये कहा गया कि दादा ठाकुर हमें आपकी सत्यता और निष्ठा पर पूरा भरोसा है इस लिए आप ख़ुद ही इस मामले का फ़ैसला कीजिए। ख़ैर दादा ठाकुर ने ऐसी आवाज़ों को सुन कर इतना ही कहा कि फिलहाल वो ख़ुद एक मुजरिम की श्रेणी में हैं इस लिए इस मामले में फ़ैसला करने का हक़ वो ख़ुद नहीं रखते।

इतना कह कर पिता जी ने ठाकुर महेन्द्र सिंह जी को अपनी कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया तो वो थोड़े संकोच के साथ आए और बैठ ग‌ए। उनके बैठने के बाद पिता जी मंच से नीचे उतर आए। ये देख कर लोग हाय तौबा करने लगे जिन्हें देख पिता जी ने सबको शांत रहने को कहा।

"इस मामले से जुड़े सभी लोग सामने आ जाएं।" पिता जी की कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और एक एक कर के अपना पक्ष रखें।"

महेंद्र सिंह जी की बात सुन कर साहूकारों के घरों की औरतें थोड़ा आगे आ गईं। उनको देख जहां सरोज और गोमती भी आगे आ गईं वहीं मुंशी और उसका बेटा भी दो क़दम आगे आ गया।

"ठाकुर साहब।" मणि शंकर की बीवी फूलवती देवी ने दुखी भाव से कहा____"सबसे ज़्यादा बुरा हमारे साथ हुआ है। हमारे घर के मर्दों और बच्चों को रात के अंधेरे में गोलियों से भून दिया दादा ठाकुर ने। अब आप ही बताइए कि हमारा क्या होगा? हम सब तो विधवा हुईं ही हमारे साथ हमारी जो बहुएं थी वो भी विधवा हो गईं। इतना ही नहीं हमारी बेटियां अनाथ हो गईं। हम अकेली औरतें भला इस दुख से कैसे उबर सकेंगी और कैसे अपने साथ साथ अपनी अविवाहित बेटियों के जीवन का फ़ैसला कर पाएंगी?"

"ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, इनके घरों के मर्द और बच्चों की इस तरह से हुई हत्या के लिए क्या आप खुद को कसूरवार मानते हैं?"

"बेशक कसूरवार मानते हैं।" पिता जी ने बेबाक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन ये भी सच है कि वो सब अपनी मौत के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। उन्हें अपने किए गए कर्मों का फल मिला है।"

"कैसे?" महेंद्र सिंह ने सवालिया भाव से उन्हें देखते हुए पूछा____"इस मामले में क्या आप सबको खुल कर तथा विस्तार से बताएंगे कि उन्हें उनके कौन से कर्मों का फल दिया है आपने?"

"उन्होंने हमारे छोटे भाई जगताप और हमारे बड़े बेटे अभिनव सिंह के साथ जाने कितने ही लोगों की हत्या की थी।" पिता जी ने कहा____"इतना ही नहीं उन्होंने हमारे छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने की कोशिश की थी जिसके लिए वो चंदनपुर तक पहुंच गए थे।"

"क्या आपके पास।" महेंद्र सिंह ने पूछा____"इन बातों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिल्कुल है।" पिता जी ने मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये दोनों पिता पुत्र खुद हमारी बात का प्रमाण देंगे। ये दोनों खुद इस बात को साबित करेंगे। अगर ये कहा जाए तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा कि ये दोनों खुद भी साहूकारों के साथ मिले हुए थे और गहरी साज़िश रच कर हमारे जिगर के टुकड़ों की हत्या की।"

पिता जी की इस बात को सुनते ही जहां भीड़ में खड़े लोगों में खुसुर फुसुर होने लगी वहीं फूलवती और उसके घरों की बाकी बहू बेटियां हैरत से उन्हें देखने लगीं थी।

"ठाकुर साहब ने जो कुछ कहा।" महेंद्र सिंह ने मुंशी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या वो सच है? क्या आप दोनों क़बूल करते हैं कि आप दोनों साहूकारों से मिले हुए थे और उनके साथ मिल कर ही मझले ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की थी?"

"हां हां यही सच है ठाकुर साहब।" मुंशी हताश भाव से जैसे चीख ही पड़ा____"हम दोनों बाप बेटों ने साहूकारों के साथ मिल कर ही वो सब किया है लेकिन यकीन मानिए मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। अगर मेरा बस चले तो मैं इस हवेली में रहने वाले हर व्यक्ति को जान से मार डालूं। ख़ास कर इस लड़के को जिसका नाम वैभव सिंह है?"

"हम तुम्हारा इशारा अच्छी तरह समझ रहे हैं चंद्रकांत।" पिता जी ने कहा____"लेकिन तुम्हें भी ये अच्छी तरह पता है कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है। कसूर सिर्फ एक हाथ का नहीं होता।"

"कहना बहुत आसान होता है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"और सुनने में भी बड़ा अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िंदगी में जब किसी के साथ ऐसी कोई बात होती है तो यकीन मानिए बहुत तकलीफ़ होती है। धीरे धीरे वो तकलीफ़ ऐसी हो जाती है कि नासूर ही बन जाती है। एक पल के लिए भी वो इंसान को चैन से जीने नहीं देती।"

"चलो मान लिया हमने।" पिता जी ने कहा____"मान लिया हमने कि बेहद तकलीफ़ होती है लेकिन जिसने तुम्हें तकलीफ़ दी थी सज़ा भी सिर्फ उसी को देनी चाहिए थी ना। हमारे भाई जगताप और बेटे अभिनव का क्या कसूर था जिसके लिए तुमने साहूकारों के साथ मिल कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया?"

"आपने भी सुना ही होगा ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने कहा____"कि गेंहू के साथ हमेशा घुन भी पिस जाता है। मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की मौत घुन की तरह पिस जाने जैसी ही थी।"

"हम इस मामले से संबंधित सारी बातें विस्तार से जानना चाहते हैं।" महेंद्र सिंह जी ने ऊंची आवाज़ में मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"इस लिए सबके सामने थोड़ा ऊंची आवाज़ में बताओ कि जो कुछ भी आप दोनों पिता पुत्र ने किया है उसे कैसे और किस किस के सहयोग से अंजाम दिया है?"

"असल में ये रंजिश और ये दुश्मनी बहुत पुरानी है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"बड़े दादा ठाकुर के समय की रंजिश है ये। उन्होंने जो कुछ किया था उसका बदला उनके ज़िंदा रहते कोई भी होता तो लेने का सोच ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं सोच सका, बस अंदर ही अंदर घुटता रहा। कुछ सालों बाद वो अचानक से बीमार पड़ गए और फिर ऐसा बीमार पड़े कि शहर के बड़े से बड़े चिकित्सक भी उनका इलाज़ नहीं कर पाए। अंततः बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई। उनकी ऐसी मृत्यु हो जाने के बारे में कोई कुछ भी सोचे लेकिन मैं तो यही समझता आया हूं कि उन्हें अपने पाप कर्मों की ही सज़ा इस तरह से मिल गई थी। बहरहाल, जिनसे मैं बदला लेना चाहता था वो ईश्वर के घर पहुंच गया था। मैंने भी ये सोच कर खुद को समझा लिया था कि चलो कोई बात नहीं। उसके बाद ठाकुर प्रताप सिंह जी ने दादा ठाकुर की गद्दी सम्हाल ली। शुकर था कि ये अपने पिता के जैसे नहीं थे। मैं खुद भी इन्हें बचपन से जानता था। ख़ैर उसके बाद आगे चल कर इनके द्वारा कभी कुछ भी बुरा अथवा ग़लत नहीं हुआ तो मैंने सोचा काश! इस दुनिया का हर इंसान इनके जैसा ही हो जाए। कहने का मतलब ये कि जब इनके द्वारा किसी के साथ बुरा नहीं हुआ तो मैं भी सब कुछ भुला कर पूरी ईमानदारी से हवेली की सेवा में लग गया था। वक्त गुज़रता रहा, फिर एक दिन मुझे पता चला कि वर्षों पुराना किस्सा फिर से दोहराया जा रहा है और वो किस्सा पुराने वाले किस्से से भी कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर दोहराया जा रहा है। जिन ज़ख्मों को मैंने किसी तरह मरहम लगा कर दिल में ही कहीं दफ़न कर दिया था वो ज़ख्म गड़े हुए मुर्दे की मानिंद दिल की कब्र से निकल आए। पहले बड़े दादा ठाकुर थे इस लिए उनके ख़ौफ के चलते मैं कुछ न कर सका था लेकिन इस बार मैं ख़ुद ही किसी तरह से ख़ुद को समझाना नहीं चाहता था। सोच लिया कि अब चाहे जो हो जाए लेकिन उस इंसान का नामो निशान मिटा कर ही रहूंगा जिसने बड़े दादा ठाकुर का किस्सा दोहराने की हिमाकत ही नहीं की बल्कि पाप किया है।"

"गुस्से में इंसान बहुत कुछ सोच लेता है लेकिन जब दिमाग़ थोड़ा शांत होता है तो वैसा कर लेना आसान नहीं लगता।" सांस लेने के बाद मुंशी ने फिर से बोलना शुरू किया____"यही हाल हम दोनों बाप बेटे का था। वैभव सिंह दादा ठाकुर का बेटा था जोकि पूरा का पूरा अपने दादा पर गया था। वही ग़ुस्सा, वही अंदाज़ और वही हवसीपन। छोटी सी उमर में ही दूर दूर तक उसके नाम का डंका ही नहीं बज रहा था बल्कि उसका ख़ौफ भी फैल रहा था। मैंने गुप्त रूप से पता किया तो पाया कि इसकी पहुंच भी कम नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं। हम दोनों चिंता में पड़ गए कि आख़िर अब करें तो करें क्या? अचानक ही मुझे साहूकारों का ख़याल आया और बस मैंने उनसे मिल जाने का मन बना लिया।"

"उनसे कैसे मिल ग‌ए तुम?" पिता जी ने पूछा____"क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो हमारे खिलाफ़ ग़लत करने का इरादा रखते हैं?"

"बिल्कुल पता था ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"सच तो ये है कि वो बहुत पहले से मुझे अपनी तरफ मिलाने की पहल कर रहे थे। वो तो मैं ही उनकी बात नहीं मान रहा था क्योंकि मैं आपसे गद्दारी करने का ख़याल भी ज़हन में नहीं लाता था। यही वजह थी कि साहूकारों से मेरी हमेशा अनबन ही रहती थी मगर मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन मुझे उन्हीं साहूकारों से मदद लेनी पड़ जाएगी। बहरहाल, ये तो जग ज़ाहिर बात है कि इंसान किसी के सामने तभी झुकता है जब या तो वो झुकने के लिए मजबूर हो या फिर उसे उसकी कोई ज़रूरत हो। मैं भी खुशी से झुक गया लेकिन इसके लिए पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता था। असल में मैं चाहता था कि हमेशा की तरह साहूकार एक बार फिर से मेरे पास अपना इरादा ले कर आएं। मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझने लगें कि मैं उनके बिना कुछ कर ही नहीं सकता। ख़ैर, काफी लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा मुझे। एक दिन मणि शंकर से अचानक ही मुलाक़ात हो गई। पहले तो हमेशा की तरह औपचारिक बातें ही हुईं। उसके बाद उसने फिर से अपना इरादा मेरे सामने ज़ाहिर कर दिया और साथ ही प्रलोभन भी दिया कि इस सबके बाद वो और मैं मिल कर एक नए युग की शुरुआत करेंगे। थोड़ी ना नुकुर के बाद आख़िर मैं मान ही गया।"

"साहूकार लोग तुमसे क्या चाहते थे?" चंद्रकांत सांस लेने के लिए रुका तो पिता जी ने पूछा।

"सबसे पहले तो यही कि आपके और उनके बीच के संबंध बेहतर हो जाएं और दोनों परिवार पूरी सहजता के साथ एक दूसरे के यहां आने जाने लगें।" चंद्रकांत ने कहा____"संबंध सुधार लेने का एक कारण ये भी था कि मणि शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के लिए आपकी भतीजी कुसुम का हाथ मांगना चाहता था। उसने मुझे बताया था कि कुसुम के साथ रूपचंद्र का ब्याह कर के वो इससे बहुत कुछ लाभ लेना चाहता था।"

"किस तरह का लाभ?" पिता जी पूछे बगैर न रह सके।
"इस मामले में ठीक से कुछ नहीं बताया था उसने।" चंद्रकांत ने कहा____"दूसरी वजह थी आपके दोनों बेटों को बदनाम कर देना। ज़ाहिर है इसके लिए वो कोई भी हथकंडा अपना सकता था। तीसरी वजह थी ज़मीनों के कागज़ात जोकि मेरे द्वारा चाहता था वो।"

"ज़मीनों के कागज़ात क्यों चाहिए थे उसे?" पिता जी के चेहरे पर हैरानी उभर आई थी।
"ज़ाहिर है आपकी ज़मीनों को हथिया लेना चाहते थे वो।" मुंशी ने कहा____"हालाकि ये इतना आसान नहीं था लेकिन उसके अपने तरीके थे शायद। वैसे भी उसका असल मकसद तो यही था आपके पूरे खानदान को मिटाना। जब आपके खानदान में कोई बचता ही नहीं तो लावारिश ज़मीन को कब्ज़ा लेने में ज़्यादा समस्या नहीं हो सकती थी।"

"ख़ैर।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"उसके बाद तुम दोनों ने मिल कर क्या क्या किया?"
"उसका और मेरा क्योंकि एक ही मकसद था इस लिए मैंने उसे ये बताया ही नहीं कि असल में मेरी आपसे या आपके परिवार के किसी सदस्य से क्या दुश्मनी है?" मुंशी ने कहा____"सिर्फ़ इतना ही कहा कि बदले में ज़मीन का कुछ हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए।"

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तो ये मुंशी का बेटा रघुवीर था जो वैभव के हत्थे चढ़ गया और वह वैभव को क्यों मरना चाहता है ये भी बता दिया लेकिन एक नई बात पता चली कि प्रभा के संबंध बड़े ठाकुर से थे तो सफेद नकाबपोश की दुश्मनी भी बड़े ठाकुर की वजह से ही है वैभव को रजनी और रूपचंद के संबंधो के बारे में भी रघुवीर को बता देना चाहिए था खैर रघुवीर का काम तमाम हो गया है लेकिन सफेद नकाबपोश के बारे में कुछ भी नही मिला है भाभी और कुसुम की चिंता वैभव के लिए सही है देखते हैं आगे क्या होता है
Thanks

Next 2 update post kar diya hai aaj... :declare:
 

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उनके पूछने पर मैंने उन्हें आराम करने को कहा और इस बारे में कल बात करने का बोल कर अंदर चला गया। असल में मैं किसी को इस वक्त परेशान नहीं करना चाहता था। ये अलग बात है कि वो फिर भी परेशान ही नज़र आए थे। इधर मैं दो बातें सोचते हुए अंदर की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। एक ये कि कल का दिन नरसिंहपुर के लिए कैसा होगा और दूसरी ये कि भुवन ने अनुराधा के संबंध में जो कुछ कहा था क्या वो सच था?


अब आगे....


पता नहीं रात का वो कौन सा पहर था किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैं अपने कमरे में बिस्तर पर विभोर के बगल से लेटा हुआ था। विभोर गहरी नींद में था। तभी गहन सन्नाटे में कहीं दूर से उठता शोर सुनाई दिया। मेरे कान एकदम से उस शोर को ध्यान से सुनने के लिए मानों खड़े हो गए। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि वो शोर असल में कुछ लोगों के रोने धोने का है। मुझे समझते देर न लगी कि पिता जी जिस काम से इतने लोगों के साथ गए थे वो काम कर आए हैं। ये उसी का नतीजा था कि इतने वक्त बाद ये रोने धोने का शोर ख़ामोश वातावरण में गूंजने लगा था। अचानक ही मेरे ज़हन में कुछ सवाल उभर आए और उनके साथ ही कुछ ख़याल भी जिन्होंने मुझे थोड़ा विचलित सा कर दिया।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। रात के इस वक्त किसी दस्तक से मैं एकदम से सतर्क हो गया। बिस्तर से मैं बहुत ही सावधानी से उतरा और दबे पांव दरवाज़े के पास पहुंचा। कुंडी खोल कर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर पिता जी को खड़े पाया।

"बैठक में आओ।" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"कुछ बात करनी है तुमसे।"
"जी ठीक है।" मैंने कहा तो वो पलट कर चल दिए।

कुछ ही देर में मैं बैठक में पहुंच गया जहां पर बाकी सब लोग भी बैठे हुए थे। हवेली में जो लोग सो रहे थे वो जाग चुके थे, सिवाय अजीत और विभोर के।

"हमारी इजाज़त के बिना।" पिता जी ने सख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और बिना किसी को बताए आख़िर तुम हवेली से बाहर क्यों गए थे?"

"आप यहां थे नहीं इस लिए आपसे इजाज़त ले नहीं सका।" मैंने बेख़ौफ भाव से कहा____"और यहां किसी को बताता तो कोई मुझे बाहर जाने ही नहीं देता। अब क्योंकि मेरे लिए बाहर जाना ज़रूरी था इस लिए चला गया।"

"वैभव।" नाना जी ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"ये क्या तरीका है अपने पिता से बात करने का?"
"आप ही बताइए नाना जी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"कि ये सब बताने के लिए मुझे कौन सा तरीका अपनाना चाहिए था?"

"हमें तो ख़बर मिली थी कि तुम पहले से काफी बदल गए हो।" नाना जी ने उसी नाराज़गी से कहा____"लेकिन तुम तो अभी भी वैसे ही हो। ख़ैर क्या कह सकते हैं हम।"

"आख़िर कब तुम अपनी मनमानियां करना बंद करोगे?" पिता जी ने गुस्से से कहा____"क्या चाहते हो तुम? हम सबको ज़िंदा मार देना चाहते हो?"

"शांत हो जाइए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"ये समय इन सब बातों का नहीं है।"
"अरे! कैसे नहीं है अर्जुन सिंह?" पिता जी ने कहा____"हम अपने दो जिगर के टुकड़ों को खो चुके हैं और ये जिस तरीके से यहां से बिना किसी को बताए चला गया था अगर इसे कुछ हो जाता तो? क्या फिर हम ज़िंदा रह पाते?"

"मैं समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने पिता जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"किंतु ये अच्छी बात है न कि वैभव के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। हम उम्मीद करते हैं कि अब से ये ऐसा नहीं करेगा।" कहने के साथ ही अर्जुन सिंह मुझसे मुखातिब हुए____"हम ठीक कह रहे हैं न वैभव बेटा?"

"जी चाचा जी।" मैंने सिर झुकाते हुए कहा____"और मैं माफ़ी चाहता हूं आप सबसे अपने बर्ताव के लिए। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए था किंतु उस वक्त मेरी भी मानसिक अवस्था ऐसी थी कि मुझे कुछ और सूझा ही नहीं। जब मुझे पता चला कि मेरे पिता जी रात के वक्त आप सबको ले कर चले गए हैं तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया था कि कहीं आप में से किसी के साथ कुछ हो न जाए। मैं अपने चाचा और बड़े भैया को खो चुका हूं चाचा जी, और अब मैं अपने पिता जी को नहीं खोना चाहता। मेरे अकेले चले जाने पर तो इन्होंने कह दिया कि मुझे कुछ हो जाता तो क्या होता लेकिन क्या आप में से किसी ने ये सोचा कि अगर मेरे पिता जी को कुछ हो जाता तो हम सबका क्या होता?"

मेरी ये बात सुन कर किसी के मुख से कोई अल्फाज़ न निकला। बात छोटे मुंह से भले ही निकली थी लेकिन थी बड़ी।

"आप सब तो मुझसे बड़े हैं।" मैंने सबको ख़ामोश देख कहा____"फिर भी किसी ने ये नहीं सोचा कि रात के वक्त इस तरह से हुजूम ले कर निकल पड़ना भला कौन सी समझदारी की बात थी? हमारा समय बहुत ख़राब चल रहा है चाचा जी। हमें नहीं पता कि हमारा कौन कौन दुश्मन है और कहां कहां से हम पर घात लगाए बैठा है? जगताप चाचा और बड़े भैया तो दिन के समय ढेर सारे आदमियों के साथ निकले थे इसके बावजूद दुश्मनों ने उन सबकी हत्या कर दी। जब दिन के समय वो लोग अपना बचाव नहीं कर पाए तो क्या रात के वक्त आप लोग अपना बचाव कर पाते?"

"पर हमारे साथ कुछ हुआ तो नहीं वैभव।" अर्जुन सिंह ने ये कहा तो मैंने कहा____"कुछ हुआ नहीं तो इसका एक ही मतलब है चाचा जी कि आप सबकी किस्मत अच्छी थी। हालाकि अमर मामा जी को गोली तो लग ही गई न। अगर वही गोली पिता जी के सीने में लग जाती तो क्या होता? समय जब ख़राब होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। मैं आपसे पूछता हूं कि अगर आप सब यही काफ़िला दिन में ले कर जाते तो क्या बिगड़ जाता? क्या हमारा दुश्मन रात में ही कहीं भाग जाता और आप लोग उसे पकड़ नहीं पाते?"

"शायद तुम सही कह रहे हो वैभव।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा____"रात के वक्त हमारा यहां से जाना वाकई में सही फ़ैसला नहीं था। ख़ैर छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। अच्छी बात यही हुई कि हमने अपने दुश्मन को नेस्तनाबूत कर दिया है।"

"क...क्या सच में??" मैं उनकी बात सुनते ही हैरानी से बोल पड़ा____"कौंन लोग थे वो?"
"और कौन हो सकते हैं?" अर्जुन सिंह ने कहा____"वही थे तुम्हारे गांव के साले वो साहूकार लोग। सबके सब मारे गए, बस दो ही लोग बच गए।"

"बहुत जल्द उनको भी मौत नसीब हो जाएगी अर्जुन सिंह।" पिता जी ने सहसा सर्द लहजे में कहा____"बच कर जाएंगे कहां?"

"जो लोग मुझे मारने के लिए चंदनपुर गए थे।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"उनमें से एक को पकड़ा था मैंने। उसने मुझे बताया था कि उन लोगों को मुझे जान से मारने के लिए साहूकार गौरी शंकर ने भेजा था।"

"और ये तुम अब बता रहे हो हमें?" पिता जी ने मुझे घूरते हुए कहा____"इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो तुम?"

"बताने का समय ही कहां मिला था पिता जी।" मैंने कहा____"मैं तो चंदनपुर से तब आया जब जगताप चाचा और बड़े भैया की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी।"

"गौरी शंकर और वो हरि शंकर का बेटा रूपचंद्र बच गए हैं।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं, जल्द ही उनका भी किस्सा ख़त्म हो जाएगा।"

"क्या उन दोनों को भी जान से मार देना सही होगा?" नाना जी ने कहा____"हमारा ख़याल है कि उन्हें कोई दूसरी सज़ा दे कर जीवित ही छोड़ देना चाहिए। वैसे भी उनके घर की बहू बेटियों को सहारा देने के लिए उनके घर में किसी न किसी मर्द का होना आवश्यक है।"

"उनके घर की बहू बेटियों को शायद पता चल गया है कि उनके घर के मर्द अब नहीं रहे।" मामा जी ने कहा____"ये रोने धोने का शोर शायद वहीं से आ रहा है?"

"हां हो सकता है।" अर्जुन सिंह ने कहा।
"वैसे मुझे भी कुछ ऐसा पता चला है।" मैंने कहा____"जिसकी आप लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।"

"क...क्या पता चला है तुम्हें?" पिता जी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।
"हमारे दुश्मनों की सूची में सिर्फ साहूकार लोग ही नहीं हैं पिता जी।" मैंने कहा____"बल्कि आपका मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर भी है।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" पिता जी के साथ साथ सभी के चेहरों पर आश्चर्य उभर आया।
"यही सच है पिता जी।" मैंने कहा____"मुंशी और उसका बेटा रघुवीर दोनों ही हमारे दुश्मन बने हुए हैं।"

"पर तुम्हें ये सब कैसे पता चला?" अर्जुन सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"जब मैं यहां से आपके पीछे गया था।" मैंने कहा____"तो रास्ते में मुझे एक साया भागता हुआ अंधेरे में नज़र आया। मैंने उस पर रिवॉल्वर तान कर जब उसे रुकने को कहा तो उल्टा उसने मुझ पर ही गोली चला दी। वो तो अच्छा हुआ कि गोली मुझे नहीं लगी मगर फिर मैंने उसे सम्हलने का मौका नहीं दिया। आख़िर वो मेरी पकड़ में आ ही गया और तब मैंने जाना कि वो असल में मुंशी का बेटा रघुवीर है।"

"वो दोनो बाप बेटे।" अर्जुन सिंह ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला किस वजह से ऐसी दुश्मनी रखे हो सकते हैं?"
"बड़े दादा ठाकुर जी की वजह से।" मैंने कुछ सोचते हुए पिता जी की तरफ देखा____"शायद आप समझ गए होंगे पिता जी।"

"हैरत की बात है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"अगर वो दोनों हमारे स्वर्गीय पिता जी की वजह से हमसे दुश्मनी रखे हुए हैं तो उन्होंने अपनी दुश्मनी के चलते हमारे साथ कुछ भी बुरा करने के लिए इतना समय क्यों लिया? हमें आशंका तो थी लेकिन यकीन नहीं कर पा रहे थे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया कि चंद्रकांत के मन में हमारे प्रति कोई बैर भाव है।"

"कुछ लोग अपने अंदर के भावों को छुपाए रखने में बहुत ही कुशल होते हैं ठाकुर साहब।" मामा अवधराज जी ने कहा____"जब तक वो ख़ुद नहीं चाहते तब तक किसी को उनके अंदर की बातों का पता ही नहीं चल सकता।"

"हम्म सही कह रहे हैं आप।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ख़ैर रात काफी हो गई है। आप सभी को अब आराम से सो जाना चाहिए। इस बारे में बाकी बातें कल पंचायत में होंगी।"

पिता जी के कहने पर सभी ने सहमति में अपना अपना सिर हिलाया और फिर पिता जी के उठते ही बाकी सब भी उठ गए। कुछ ही देर में बैठक कक्ष खाली हो गया। इधर मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

✮✮✮✮

अगले दिन।
हवेली के विशाल मैदान में लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी। वातावरण में लोगों का शोर गूंज रहा था।। भीड़ में साहूकारों के घरों की बहू बेटियां भी मौजूद थीं जो दुख में डूबी आंसू बहा रहीं थी। लगभग पूरा गांव ही हवेली के उस बड़े से मैदान में इकट्ठा हो गया था। एक तरफ ऊंचा मंच बना हुआ था जिसमें कई सारी कुर्सियां रखी हुई थीं और उन सबके बीच में एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसमें दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मंच में रखी बाकी कुर्सियों में नाना जी, मामा जी, भैया के साले, और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे। मंच के सामने लोगों की भीड़ थी और भीड़ के आगे साहूकारों के घरों की बहू बेटियां खड़ी हुई थीं। मंच के सामने ही एक तरफ मुंशी चंद्रकांत और उसका बेटा खड़ा हुआ था। दोनों ही बाप बेटों के सिर झुके हुए थे। उनके दूसरी तरफ मैं खड़ा हुआ था। सुरक्षा का ख़याल रखते हुए हर जगह क‌ई संख्या में हमारे आदमी हाथों में बंदूक लिए खड़े थे और साथ ही पूरी तरह सतर्क भी थे।

भीड़ में ही आगे तरफ मुरारी और जगन के घरों से उनकी बीवियां और बच्चे थे। अपनी मां और छोटे भाई अनूप के साथ अनुराधा भी आई हुई थी जिनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भुवन के कंधों पर थी। वो ख़ुद भी उनके पास ही खड़ा था। ऐसे संवेदनशील वक्त में ना चाहते हुए भी मेरी नज़र अनुराधा की तरफ बारहा चली जाती थी और हर बार मैं ये देख कर विचलित सा हो जाता था कि उसकी नज़रें मुझ पर ही जमी होती थीं। मेरा ख़याल था कि वो पहली बार ही हवेली आई थी। बहरहाल, सरोज के बगल से जगन की बीवी गोमती और उसके सभी बच्चे खड़े हुए थे। गोमती और उसकी बेटियों की आंखों में आसूं थे।

वातावरण में एक अजीब सी सनसनी फैली हुई थी। तभी हवेली के हाथी दरवाज़े से दो जीपें अंदर आईं और एक तरफ आ कर रुक गईं। उन दो जीपों से कुछ लोग नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए मंच की तरफ आ गए। उन्हें देखते ही मंच पर अपनी कुर्सी में बैठे मेरे पिता जी उठ कर खड़े हो गए।

"नमस्कार ठाकुर साहब।" आए हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा तो पिता जी ने भी जवाब में उनका अभिवादन किया। कुछ मुलाजिमों ने फ़ौरन ही पिता जी के इशारे पर कुछ और कुर्सियां ला कर मंच पर रख दी। मेरे पिता जी के आग्रह पर वो सब बैठ गए।

"पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है।" दादा ठाकुर ने अपनी कुर्सी से खड़े हो कर अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और पिछली रात जो कुछ हुआ है उससे दूर दूर तक के गांव वालों को पता चल चुका है कि वो सब कुछ हमसे ताल्लुक रखता है। यूं तो आस पास के कई सारे गावों के मामलों के फ़ैसले हम ही करते आए हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ है उसका फ़ैसला आज हम ख़ुद नहीं करेंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति हमारे फ़ैसले को ग़लत माने या उस पर अपनी ग़लत धारणा बना ले, या फिर ये समझ ले कि हमने अपनी ताक़त और पहुंच का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है। इस लिए हमने सुंदरगढ़ से ठाकुर महेंद्र सिंह जी को यहां आमंत्रित किया है। हम यहां पर मौजूद हर ब्यक्ति से यही कहना चाहते हैं कि ठाकुर महेंद्र सिंह जी हर पक्ष के लोगों की बातें सुनेंगे और फिर उसके बारे में अपना निष्पक्ष फ़ैसला सुनाएंगे। हम लोगों के सामने ये वचन देते हैं कि अगर इस मामले में हम गुनहगार अथवा अपराधी क़रार दिए गए तो फ़ैसले के अनुसार जो भी सज़ा हमें दी जाएगी उसे हम तहे दिल से स्वीकार करेंगे। अब हम आप सभी से जानना चाहते हैं कि क्या आप सब हमारी इस सोच और बातों से सहमत हैं?"

दादा ठाकुर के ऐसा कहते ही विशाल मैदान में मौजूद जनसमूह ने एक साथ चिल्ला कर कहा कि हां हां हमें मंज़ूर है। जनसमूह में से ज़्यादातर ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं जिनमें ये कहा गया कि दादा ठाकुर हमें आपकी सत्यता और निष्ठा पर पूरा भरोसा है इस लिए आप ख़ुद ही इस मामले का फ़ैसला कीजिए। ख़ैर दादा ठाकुर ने ऐसी आवाज़ों को सुन कर इतना ही कहा कि फिलहाल वो ख़ुद एक मुजरिम की श्रेणी में हैं इस लिए इस मामले में फ़ैसला करने का हक़ वो ख़ुद नहीं रखते।

इतना कह कर पिता जी ने ठाकुर महेन्द्र सिंह जी को अपनी कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया तो वो थोड़े संकोच के साथ आए और बैठ ग‌ए। उनके बैठने के बाद पिता जी मंच से नीचे उतर आए। ये देख कर लोग हाय तौबा करने लगे जिन्हें देख पिता जी ने सबको शांत रहने को कहा।

"इस मामले से जुड़े सभी लोग सामने आ जाएं।" पिता जी की कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में कहा____"और एक एक कर के अपना पक्ष रखें।"

महेंद्र सिंह जी की बात सुन कर साहूकारों के घरों की औरतें थोड़ा आगे आ गईं। उनको देख जहां सरोज और गोमती भी आगे आ गईं वहीं मुंशी और उसका बेटा भी दो क़दम आगे आ गया।

"ठाकुर साहब।" मणि शंकर की बीवी फूलवती देवी ने दुखी भाव से कहा____"सबसे ज़्यादा बुरा हमारे साथ हुआ है। हमारे घर के मर्दों और बच्चों को रात के अंधेरे में गोलियों से भून दिया दादा ठाकुर ने। अब आप ही बताइए कि हमारा क्या होगा? हम सब तो विधवा हुईं ही हमारे साथ हमारी जो बहुएं थी वो भी विधवा हो गईं। इतना ही नहीं हमारी बेटियां अनाथ हो गईं। हम अकेली औरतें भला इस दुख से कैसे उबर सकेंगी और कैसे अपने साथ साथ अपनी अविवाहित बेटियों के जीवन का फ़ैसला कर पाएंगी?"

"ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, इनके घरों के मर्द और बच्चों की इस तरह से हुई हत्या के लिए क्या आप खुद को कसूरवार मानते हैं?"

"बेशक कसूरवार मानते हैं।" पिता जी ने बेबाक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन ये भी सच है कि वो सब अपनी मौत के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। उन्हें अपने किए गए कर्मों का फल मिला है।"

"कैसे?" महेंद्र सिंह ने सवालिया भाव से उन्हें देखते हुए पूछा____"इस मामले में क्या आप सबको खुल कर तथा विस्तार से बताएंगे कि उन्हें उनके कौन से कर्मों का फल दिया है आपने?"

"उन्होंने हमारे छोटे भाई जगताप और हमारे बड़े बेटे अभिनव सिंह के साथ जाने कितने ही लोगों की हत्या की थी।" पिता जी ने कहा____"इतना ही नहीं उन्होंने हमारे छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने की कोशिश की थी जिसके लिए वो चंदनपुर तक पहुंच गए थे।"

"क्या आपके पास।" महेंद्र सिंह ने पूछा____"इन बातों को साबित करने के लिए कोई ठोस प्रमाण है?"

"बिल्कुल है।" पिता जी ने मुंशी चंद्रकांत और उसके बेटे रघुवीर की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये दोनों पिता पुत्र खुद हमारी बात का प्रमाण देंगे। ये दोनों खुद इस बात को साबित करेंगे। अगर ये कहा जाए तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा कि ये दोनों खुद भी साहूकारों के साथ मिले हुए थे और गहरी साज़िश रच कर हमारे जिगर के टुकड़ों की हत्या की।"

पिता जी की इस बात को सुनते ही जहां भीड़ में खड़े लोगों में खुसुर फुसुर होने लगी वहीं फूलवती और उसके घरों की बाकी बहू बेटियां हैरत से उन्हें देखने लगीं थी।

"ठाकुर साहब ने जो कुछ कहा।" महेंद्र सिंह ने मुंशी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या वो सच है? क्या आप दोनों क़बूल करते हैं कि आप दोनों साहूकारों से मिले हुए थे और उनके साथ मिल कर ही मझले ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की थी?"

"हां हां यही सच है ठाकुर साहब।" मुंशी हताश भाव से जैसे चीख ही पड़ा____"हम दोनों बाप बेटों ने साहूकारों के साथ मिल कर ही वो सब किया है लेकिन यकीन मानिए मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। अगर मेरा बस चले तो मैं इस हवेली में रहने वाले हर व्यक्ति को जान से मार डालूं। ख़ास कर इस लड़के को जिसका नाम वैभव सिंह है?"

"हम तुम्हारा इशारा अच्छी तरह समझ रहे हैं चंद्रकांत।" पिता जी ने कहा____"लेकिन तुम्हें भी ये अच्छी तरह पता है कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है। कसूर सिर्फ एक हाथ का नहीं होता।"

"कहना बहुत आसान होता है ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"और सुनने में भी बड़ा अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िंदगी में जब किसी के साथ ऐसी कोई बात होती है तो यकीन मानिए बहुत तकलीफ़ होती है। धीरे धीरे वो तकलीफ़ ऐसी हो जाती है कि नासूर ही बन जाती है। एक पल के लिए भी वो इंसान को चैन से जीने नहीं देती।"

"चलो मान लिया हमने।" पिता जी ने कहा____"मान लिया हमने कि बेहद तकलीफ़ होती है लेकिन जिसने तुम्हें तकलीफ़ दी थी सज़ा भी सिर्फ उसी को देनी चाहिए थी ना। हमारे भाई जगताप और बेटे अभिनव का क्या कसूर था जिसके लिए तुमने साहूकारों के साथ मिल कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया?"

"आपने भी सुना ही होगा ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने कहा____"कि गेंहू के साथ हमेशा घुन भी पिस जाता है। मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की मौत घुन की तरह पिस जाने जैसी ही थी।"

"हम इस मामले से संबंधित सारी बातें विस्तार से जानना चाहते हैं।" महेंद्र सिंह जी ने ऊंची आवाज़ में मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"इस लिए सबके सामने थोड़ा ऊंची आवाज़ में बताओ कि जो कुछ भी आप दोनों पिता पुत्र ने किया है उसे कैसे और किस किस के सहयोग से अंजाम दिया है?"

"असल में ये रंजिश और ये दुश्मनी बहुत पुरानी है ठाकुर साहब।" चंद्रकांत ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"बड़े दादा ठाकुर के समय की रंजिश है ये। उन्होंने जो कुछ किया था उसका बदला उनके ज़िंदा रहते कोई भी होता तो लेने का सोच ही नहीं सकता था। मैं भी नहीं सोच सका, बस अंदर ही अंदर घुटता रहा। कुछ सालों बाद वो अचानक से बीमार पड़ गए और फिर ऐसा बीमार पड़े कि शहर के बड़े से बड़े चिकित्सक भी उनका इलाज़ नहीं कर पाए। अंततः बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई। उनकी ऐसी मृत्यु हो जाने के बारे में कोई कुछ भी सोचे लेकिन मैं तो यही समझता आया हूं कि उन्हें अपने पाप कर्मों की ही सज़ा इस तरह से मिल गई थी। बहरहाल, जिनसे मैं बदला लेना चाहता था वो ईश्वर के घर पहुंच गया था। मैंने भी ये सोच कर खुद को समझा लिया था कि चलो कोई बात नहीं। उसके बाद ठाकुर प्रताप सिंह जी ने दादा ठाकुर की गद्दी सम्हाल ली। शुकर था कि ये अपने पिता के जैसे नहीं थे। मैं खुद भी इन्हें बचपन से जानता था। ख़ैर उसके बाद आगे चल कर इनके द्वारा कभी कुछ भी बुरा अथवा ग़लत नहीं हुआ तो मैंने सोचा काश! इस दुनिया का हर इंसान इनके जैसा ही हो जाए। कहने का मतलब ये कि जब इनके द्वारा किसी के साथ बुरा नहीं हुआ तो मैं भी सब कुछ भुला कर पूरी ईमानदारी से हवेली की सेवा में लग गया था। वक्त गुज़रता रहा, फिर एक दिन मुझे पता चला कि वर्षों पुराना किस्सा फिर से दोहराया जा रहा है और वो किस्सा पुराने वाले किस्से से भी कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर दोहराया जा रहा है। जिन ज़ख्मों को मैंने किसी तरह मरहम लगा कर दिल में ही कहीं दफ़न कर दिया था वो ज़ख्म गड़े हुए मुर्दे की मानिंद दिल की कब्र से निकल आए। पहले बड़े दादा ठाकुर थे इस लिए उनके ख़ौफ के चलते मैं कुछ न कर सका था लेकिन इस बार मैं ख़ुद ही किसी तरह से ख़ुद को समझाना नहीं चाहता था। सोच लिया कि अब चाहे जो हो जाए लेकिन उस इंसान का नामो निशान मिटा कर ही रहूंगा जिसने बड़े दादा ठाकुर का किस्सा दोहराने की हिमाकत ही नहीं की बल्कि पाप किया है।"

"गुस्से में इंसान बहुत कुछ सोच लेता है लेकिन जब दिमाग़ थोड़ा शांत होता है तो वैसा कर लेना आसान नहीं लगता।" सांस लेने के बाद मुंशी ने फिर से बोलना शुरू किया____"यही हाल हम दोनों बाप बेटे का था। वैभव सिंह दादा ठाकुर का बेटा था जोकि पूरा का पूरा अपने दादा पर गया था। वही ग़ुस्सा, वही अंदाज़ और वही हवसीपन। छोटी सी उमर में ही दूर दूर तक उसके नाम का डंका ही नहीं बज रहा था बल्कि उसका ख़ौफ भी फैल रहा था। मैंने गुप्त रूप से पता किया तो पाया कि इसकी पहुंच भी कम नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं। हम दोनों चिंता में पड़ गए कि आख़िर अब करें तो करें क्या? अचानक ही मुझे साहूकारों का ख़याल आया और बस मैंने उनसे मिल जाने का मन बना लिया।"

"उनसे कैसे मिल ग‌ए तुम?" पिता जी ने पूछा____"क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो हमारे खिलाफ़ ग़लत करने का इरादा रखते हैं?"

"बिल्कुल पता था ठाकुर साहब।" मुंशी चंद्रकांत ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"सच तो ये है कि वो बहुत पहले से मुझे अपनी तरफ मिलाने की पहल कर रहे थे। वो तो मैं ही उनकी बात नहीं मान रहा था क्योंकि मैं आपसे गद्दारी करने का ख़याल भी ज़हन में नहीं लाता था। यही वजह थी कि साहूकारों से मेरी हमेशा अनबन ही रहती थी मगर मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन मुझे उन्हीं साहूकारों से मदद लेनी पड़ जाएगी। बहरहाल, ये तो जग ज़ाहिर बात है कि इंसान किसी के सामने तभी झुकता है जब या तो वो झुकने के लिए मजबूर हो या फिर उसे उसकी कोई ज़रूरत हो। मैं भी खुशी से झुक गया लेकिन इसके लिए पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता था। असल में मैं चाहता था कि हमेशा की तरह साहूकार एक बार फिर से मेरे पास अपना इरादा ले कर आएं। मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझने लगें कि मैं उनके बिना कुछ कर ही नहीं सकता। ख़ैर, काफी लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा मुझे। एक दिन मणि शंकर से अचानक ही मुलाक़ात हो गई। पहले तो हमेशा की तरह औपचारिक बातें ही हुईं। उसके बाद उसने फिर से अपना इरादा मेरे सामने ज़ाहिर कर दिया और साथ ही प्रलोभन भी दिया कि इस सबके बाद वो और मैं मिल कर एक नए युग की शुरुआत करेंगे। थोड़ी ना नुकुर के बाद आख़िर मैं मान ही गया।"

"साहूकार लोग तुमसे क्या चाहते थे?" चंद्रकांत सांस लेने के लिए रुका तो पिता जी ने पूछा।

"सबसे पहले तो यही कि आपके और उनके बीच के संबंध बेहतर हो जाएं और दोनों परिवार पूरी सहजता के साथ एक दूसरे के यहां आने जाने लगें।" चंद्रकांत ने कहा____"संबंध सुधार लेने का एक कारण ये भी था कि मणि शंकर अपने भतीजे रूपचंद्र के लिए आपकी भतीजी कुसुम का हाथ मांगना चाहता था। उसने मुझे बताया था कि कुसुम के साथ रूपचंद्र का ब्याह कर के वो इससे बहुत कुछ लाभ लेना चाहता था।"

"किस तरह का लाभ?" पिता जी पूछे बगैर न रह सके।
"इस मामले में ठीक से कुछ नहीं बताया था उसने।" चंद्रकांत ने कहा____"दूसरी वजह थी आपके दोनों बेटों को बदनाम कर देना। ज़ाहिर है इसके लिए वो कोई भी हथकंडा अपना सकता था। तीसरी वजह थी ज़मीनों के कागज़ात जोकि मेरे द्वारा चाहता था वो।"

"ज़मीनों के कागज़ात क्यों चाहिए थे उसे?" पिता जी के चेहरे पर हैरानी उभर आई थी।
"ज़ाहिर है आपकी ज़मीनों को हथिया लेना चाहते थे वो।" मुंशी ने कहा____"हालाकि ये इतना आसान नहीं था लेकिन उसके अपने तरीके थे शायद। वैसे भी उसका असल मकसद तो यही था आपके पूरे खानदान को मिटाना। जब आपके खानदान में कोई बचता ही नहीं तो लावारिश ज़मीन को कब्ज़ा लेने में ज़्यादा समस्या नहीं हो सकती थी।"

"ख़ैर।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"उसके बाद तुम दोनों ने मिल कर क्या क्या किया?"
"उसका और मेरा क्योंकि एक ही मकसद था इस लिए मैंने उसे ये बताया ही नहीं कि असल में मेरी आपसे या आपके परिवार के किसी सदस्य से क्या दुश्मनी है?" मुंशी ने कहा____"सिर्फ़ इतना ही कहा कि बदले में ज़मीन का कुछ हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए।"


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Bhut hi badia update tha Bhai mazahi aagya story bhut interesting h aur jese aap likhte hein usse aur chaar Chand lagta jata h
 
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