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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192
  • Poll closed .

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
Prime
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159
"वैसे तो हमें ऐसा ज़रूरी नहीं लगता।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन अगर तुम दोनों को शेरा की काबिलियत पर भरोस नहीं है तो बेशक अपने मन की कर सकते हो।"
Dada Thakur ki baat kaatna mehenga padega dono ko :sigh:
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
Prime
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159
दोस्तो, कहानी का अगला अध्याय - 62 पोस्ट कर दिया है। आशा है आप सभी को पसंद आएगा। आप सबकी समीक्षा अथवा विचारों का इंतज़ार रहेगा... :love:
अध्याय - 62
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अब तक....

अनुराधा एक बार फिर से न चाहते हुए भी वैभव के ख़्यालों में खोती चली गई। एक बार फिर से उसके ज़हन में अपनी वो बातें गूंजने लगीं जो उसने वैभव से कहीं थी। वो सोचने लगी कि क्या सच में उसकी बातें इतनी कड़वी थीं कि वैभव को चोट पहुंचा गईं और वो उससे वो सब कह कर चला गया था? क्या सच में उसने बिना सोचे समझे ऐसा कुछ कह दिया है जिसके चलते अब वैभव कभी उसके घर नहीं आएगा? अनुराधा इस बारे में जितना सोचती उतना ही उसे अपने किए पर पछतावा हो रहा था। वो ये सोच कर दुखी हो रही थी कि अब वैभव उसके घर नहीं आएगा और ना ही वो कभी उसकी शक्ल देख सकेगी। अनुराधा के अंदर एक हूक सी उठी और उसकी आंखों से आंसू बह चले। आंखें बंद कर के उसने वैभव को याद किया और उससे माफ़ी मांगने लगी।

अब आगे....


दादा ठाकुर अपने कमरे में लकड़ी की आलमारी खोले उसमें कुछ कर रहे थे। उन्हें शेरा के वापस आने का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था। आलमारी के पल्ले बंद करने के बाद वो पलटे ही थे कि कमरे के दरवाज़े पर किसी की दस्तक से चौंके। निगाह दरवाज़े पर गई तो देखा उनकी धर्म पत्नी देवी और हवेली की ठकुराईन यानी कि श्रीमती सुगंधा देवी चेहरे पर अजीब से भाव लिए खड़ी थीं।

"क्या बात है?" दादा ठाकुर ने उनके चेहरे पर मौजूद भावों को समझने की कोशिश करते हुए पूछा____"सब ठीक तो है न?"
"दरबान ने बताया कि बैठक में शेरा आपका इंतज़ार कर रहा है।" ठकुराईन सुगंधा देवी ने भावहीन लहजे में कहा____"क्या मैं ठाकुर साहब से पूछ सकती हूं कि माजरा क्या है?"

"कोई ख़ास बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने बात को टालने की गरज से कहा____"आपको बेवजह चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।"
"हम हवेली की ऊंची ऊंची चार दीवारी के अंदर रहते हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि हमें बाहरी दुनियां का कुछ पता ही नहीं है।" ठकुराईन ने तल्खी से कहा____"आप भले ही हमसे कुछ भी नहीं बताते हैं लेकिन इतना तो हम भी समझते हैं कि आज कल किस तरह के हालातों में हमारा पूरा परिवार घिरा हुआ है।"

"फ़िक्र मत कीजिए।" दादा ठाकुर ने दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए कहा____"शेरा से मिलने के बाद हम आपको सब कुछ बता देंगे, तब शायद आपको हमसे शिकायत न रहे।"

ठकुराईन ने दरवाजे से हट कर उन्हें रास्ता दिया तो वो दरवाज़े से निकल कर बाहर बैठक की तरफ बढ़ गए। कुछ ही पलों में वो बैठक में पहुंच गए जहां शेरा पहले से ही सिर झुकाए मौजूद था। अपने ऊंचे सिंहासन पर बैठने के बाद दादा ठाकुर ने जैसे ही शेरा को देखा तो वो बुरी तरह चौंक पड़े। शेरा के चेहरे पर कई जगह चोटों के निशान थे और इतना ही नहीं दाएं तरफ माथे पर खून भी लगा हुआ था।

"तुम्हारी ऐसी हालत कैसे हो गई शेरा?" दादा ठाकुर ने संदेह पूर्ण भाव से पूछा____"और...और जो काम हमने तुम्हें सौंपा था उसका क्या हुआ?"
"माफ़ करना मालिक।" शेरा ने सिर झुकाए हुए ही कहा____"लेकिन बहुत बुरा हो गया है।"

शेरा का इतना कहना था कि दादा ठाकुर को ऐसा लगा जैसे उनकी धड़कनें ही थम गईं हों। कुछ कहते ना बन पड़ा था उनसे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने खुद को सम्हाला और फिर थोड़ा सख़्त भाव अख़्तियार करते हुए शेरा से कहा____"ये क्या कह रहे हो तुम? आख़िर क्या बुरा हो गया है? हमें सब कुछ साफ साफ बताओ।"

"म...मालिक।" शेरा ने सहसा दुखी हो कर कहा_____"आपके हुकुम के अनुसार मैं चंदनपुर गया था। वहां पर सच में कुछ लोग छोटे कुंवर को जान से मारने के लिए गए थे लेकिन मेरे और मेरे आदमियों के रहते वो छोटे कुंवर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सके। कुछ लोगों को पकड़ कर मैं वहां से आपके पास आ ही रहा था कि रास्ते में अचानक से कुछ ऐसा हो गया कि हमारे लाख सम्हालने पर भी हालात बिगड़ गए और फिर सब कुछ तबाह हो गया।"

"आख़िर हुआ क्या है शेरा?" दादा ठाकुर का मन बुरी तरह आशंकित हो उठा, बोले_____"पहेलियां बुझाने की बजाय सब कुछ साफ शब्दों में क्यों नहीं बता रहे तुम?"

"म..मालिक।" शेरा की आवाज़ बुरी तरह लड़खड़ाने लगी____"जब मैं और मेरे आदमी चंदनपुर से वापस आ रहे थे तब रास्ते में मैंने देखा कि काफी सारे लोग मझले ठाकुर और बड़े कुंवर पर हमला कर रहे थे। मैं और मेरे आदमियों ने बहुत कोशिश की कि मझले ठाकुर और बड़े कुंवर पर कोई खरोंच तक न आए लेकिन हम अपनी कोशिशों में नाकाम रहे मालिक।"

शेरा से आगे कुछ बोला ही न गया और वो वहीं घुटनों के बल फर्श पर गिर कर तथा अपने दोनों हाथ जोड़ कर रोने लगा। ये पहला अवसर था जब दादा ठाकुर ने अपने उस मुलाजिम को किसी बच्चे की तरह रोते देखा था जिसके चेहरे पर हमेशा पत्थर जैसी कठोरता विद्यमान रहती थी। किसी भारी अनिष्ट की आशंका ने दादा ठाकुर को सिंहासन से फौरन ही उठ जाने पर मजबूर कर दिया। दो ही क़दमों में वो शेरा के पास पहुंचे और झुक कर उसे कंधों से पकड़ कर उठाया।

"क्या हुआ है हमारे भाई और हमारे बेटे को?" फिर उन्होंने शेरा के चेहरे पर दृष्टि जमाते हुए भारी गले से पूछा_____"वो दोनों सकुशल तो हैं न?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए मालिक।" शेरा रोते हुए एकदम से दादा ठाकुर के पैरों में ही गिर पड़ा_____"मैं उन दोनों की रक्षा नहीं कर सका। दुश्मनों ने उन दोनों को.....।"

"शेरा.....।" दादा ठाकुर इतना जोर से दहाड़े कि बैठक की दीवारें तक हिल गईं_____"य...ये क्या कह रहे हो तुम? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता। कह दो कि ये सब झूठ है वरना, कसम भवानी की हम तुम्हारी खाल में भूसा भर देंगे।"

"मुझे मृत्यु दण्ड दे दीजिए मालिक।" शेरा उनके पैरों में मानों लोट ही गया_____"ऐसे गुलाम को जीने का कोई अधिकार नहीं है जो अपने मालिकों की रक्षा न कर सके।"

दादा ठाकुर को पहली बार ऐसा लगा जैसे उनके सिर पर एकाएक पूरा आसमान भरभरा कर गिर पड़ा है। दोनों टांगों में खड़े रहने की ताकत न रही। उनका भारी भरकम और हट्टा कट्टा शरीर किसी कटे हुए पेड़ की तरह लहराया और अभी वो गिरने ही वाले थे कि शेरा ने फौरन ही उठ कर उन्हें सम्हाल लिया। शेरा की हालत खुद भी बहुत ख़राब थी। दुख और संताप उसके चेहरे पर मानो कुंडली मार कर बैठ गए थे। चेहरा आंसुओं से तर था।

"हमें उनके पास ले चलो।" शेरा के कानों में दादा ठाकुर की बदहवास सी आवाज़ पड़ी____"जल्दी ले चलो शेरा। हम भी उन्हीं के साथ मर जाना चाहते हैं। हमारे दुश्मन अभी भी वहां मौजूद होंगे न? बिल्कुल होंगे, शायद हमारे आने की राह देख रहे होंगे। हम उन्हें ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराना चाहते शेरा। जल्दी ले चलो हमें।"

दादा ठाकुर की हालत पागलों जैसी नज़र आने लगी थी। शेरा ने आज से पहले कभी उन्हें इस तरह विचलित होते नहीं देखा था। रौबदार चेहरे पर हमेशा एक अलग ही तरह का तेज़ देखा था उसने लेकिन इस वक्त उनके चेहरे पर न तेज़ था और ना ही कोई रौब था। अगर कुछ था तो सिर्फ संताप और पागलपन। उनकी ऐसी दशा देख कर शेरा का हृदय मानो हाहाकार कर उठा। आंखों से बहने वाले आंसू मानों पूरे वेग में बहने लगे थे। अभी वो कुछ कहने ही वाला था कि तभी अंदर से भागते हुए ठकुराईन सुगंधा देवी और साथ ही जगताप की पत्नी मेनका और कुसुम भी आ गईं। दादा ठाकुर को ऐसी हालत में देख वो एकदम से बुत सी बन गईं। फिर जैसे एकाएक उनमें जान आई तो ठकुराईन लपक कर दादा ठाकुर के पास आईं।

"क्या हुआ है इन्हें?" ठकुराईन ने बुरी तरह घबरा कर शेरा से पूछा_____"ये इतना ज़ोर से क्यों चिल्लाए थे अभी? आख़िर ऐसा क्या हुआ है शेरा जिसके चलते इनकी ये हालत हो गई है?"

बेचारा शेरा, उसे समझ में ही न आया कि वो हवेली की ठकुराईन को क्या जवाब दे। वो दादा ठाकुर को सम्हाले बस रोए जा रहा था। उसके रोने से ठकुराइन के साथ साथ बाकी सब भी घबरा ग‌ईं। मन में तरह तरह के खयाल उभरने लगे।

"कुछ नहीं हुआ है हमें।" दादा ठाकुर ने शेरा से अलग हो कर सामान्य भाव से कहा____"आप सब अंदर जाएं। हम आते हैं कुछ देर में, चलो शेरा।"

इससे पहले कि ठकुराईन उनसे कुछ पूछतीं दादा ठाकुर तेज़ कदमों से बाहर निकल गए। उनके पीछे ठकुराईन, मेनका और कुसुम भौचक्की सी हालत में खड़ी रह गईं थी। बाहर आते ही दादा ठाकुर ने वहां मौजूद दरबानों को शख़्त आदेश दिया कि ना तो कोई हवेली से बाहर जाने पाए और ना ही कोई बाहरी हवेली में आने पाए।

इसके पहले जहां दादा ठाकुर के चेहरे पर विक्षिप्तता और पागलपन के भाव थे वहीं अब वो फिर से भाव हीन नज़र आने लगे थे। जीप में शेरा के बगल से बैठने के बाद उन्होंने आगे बढ़ने का हुकुम दिया तो शेरा ने जीप को आगे बढ़ा दिया। शेरा के इशारे पर जीप में दो चार आदमी भी बैठ गए थे जिनके हाथों में बंदूखें थीं।

अभी वो जीप में बैठे हाथी दरवाज़े के पास ही पहुंचे थे कि सामने से मुंशी चंद्रकांत अपने बेटे रघुवीर के साथ तेज़ क़दमों से आता नज़र आया। उन दोनों के पीछे गांव के कुछ लोग भी थे।

"मालिक, ये क्या गज़ब हो गया?" मुंशी दादा ठाकुर को देखते ही मानो हाहाकार कर उठा____"दुश्मनों ने मझले ठाकुर और हमारे होने वाले युवराज को.....।"
"जीप में बैठिए मुंशी जी।" दादा ठाकुर ने सपाट लहजे में कहा_____"और रघुवीर तुम इसी वक्त भिवाड़ी जाओ और वहां पर ठाकुर अर्जुन सिंह को हमारा संदेशा दो कि जितना जल्दी हो सके वो अपने आदमियों के साथ हमारे पास आएं।"

"जो हुकुम दादा ठाकुर।" रघुवीर ने अदब से हाथ जोड़ कर कहा और पलट कर चला गया। उसके जाते ही जीप आगे बढ़ चली।

पूरे गांव में ये ख़बर जंगल की आग की तरह फैलती चली गई कि हवेली के ठाकुरों के साथ किसी ने बहुत बुरा किया है। हवेली और दादा ठाकुर के चाहने वाले भागते हुए हवेली की तरफ ही आ रहे जिन्हें रास्ते में ही दादा ठाकुर ने रोक लिया। दादा ठाकुर को देख कर गांव के आए हुए लोग बुरी तरह बिलख बिलख कर रोने लगे थे। दादा ठाकुर ने उन्हें किसी तरह शांत किया और कहा कि सब अपने अपने घर जाएं। जिस किसी ने भी ये सब किया है उसे मौत से कम सज़ा हर्गिज़ नहीं दी जाएगी। दादा ठाकुर ने गांव के कुछ भरोसेमंद लोगों को हवेली जा कर वहां पर सुरक्षा करने के लिए कहा और बाकियों को घर जाने को कहा मगर वो लोग वापस घर जाने को तैयार ना हुए। सबका कहना था कि वो उनके साथ ही रहेंगे। असल में उन्हें डर था कि दुश्मन कहीं दादा ठाकुर पर हमला न करे इस लिए वो अपने देवता की रक्षा करना चाहते थे।


✮✮✮✮

चंदनपुर जाने वाले रास्ते के एक तरफ जंगल था तो दूसरी तरफ पथरीली ज़मीन। कच्ची सड़क के किनारे किनारे लगभग दो किलो मीटर तक नदी चल रही थी। ये नदी आस पास के कई गावों से हो कर गुज़रती थी और इसी नदी के द्वारा किसान लोग खेतों में सिंचाई भी करते थे। हालाकि गांव के जो थोड़ा बहुत संपन्न थे उन लोगों ने अपने खेतों पर ट्यूब बेल लगवा रखा था, ये अलग बात है कि बिजली के ज़्यादा न रहने पर उन्हें ट्यूब बेल से सिंचाई करने का ज़्यादा अवसर नहीं मिल पाता था।

दादा ठाकुर का काफ़िला इसी जगह पर आ कर रुका। एक तरफ जंगल और दूसरी तरफ नदी और नदी के उस पार पथरीली बंज़र ज़मीन। दूर दूर तक कोई गांव नज़र नहीं आता था। हालाकि नदी के उस पार की ज़मीन कुछ सरकार की थी और कुछ दूसरे गांव के ठाकुरों की किंतु ज़मीन से कोई उपज न होने के चलते इस तरफ आना जाना कम ही होता था। दुश्मनों ने अपने शिकार का शिकार करने के लिए बिल्कुल सही जगह का चुनाव किया था।

जीप के रुकते ही दादा ठाकुर नीचे उतरे। मन में आंधियां सी चल रहीं थी और दिल में अथाह पीड़ा भी हो रही थी किंतु किसी तरह खुद को सम्हाले वो उस तरफ चल पड़े जहां पर लाशें पड़ी हुईं थी। सड़क के किनारे जंगल की तरफ क़रीब दस लाशें पड़ी थीं। कुछ लाशें सड़क के दूसरी तरफ नदी के किनारे पर भी पड़ीं थी। कुछ दूरी पर सड़क पर ही दो जीपें खड़ी थीं। जीप के आस पास तीन लोग मरे पड़े थे जबकि जीप के पीछे तरफ जो दो लोग लहू लुहान हालत में अचेत से पड़े थे उन पर नज़र पड़ते ही दादा ठाकुर के क़दम लड़खड़ा गए। न चाहते हुए भी उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े।

दादा ठाकुर ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उन्हें एक दिन इतना बुरा और इतना भयानक दिन भी देखना पड़ जाएगा। बोझिल क़दमों के साथ वो उन दोनों लोगों के पास पहुंचे। जीप के दाहिने पहिए के पास जगताप लहू लुहान पड़ा था जबकि बाएं पहिए से क़रीब दो क़दम की दूरी पर अभिनव पड़ा था। अपने छोटे भाई और अपने बड़े बेटे को इस हालत में देख कर दादा ठाकुर चाह कर भी खुद को सम्हाला न सके। यूं लगा जैसे घुटनें टूट गए हों और वो ज़मीन पर घुटनों के बल जा गिरे। जी किया कि दोनों के लहू लुहान जिस्मों को अपने कलेजे से लगा कर इतना ज़ोर से रोएं कि उनके रुदन से आसमान का कलेजा भी दहल जाए।

"इसके लिए तो इजाज़त नहीं दी थी हमने।" जगताप के सिर को थाम कर दादा ठाकुर ने भारी गले से कहा_____"फिर क्यों हमारी इजाज़त के बिना हमें अकेला छोड़ गए तुम?"

दादा ठाकुर की आंखों से आंसू बह रहे थे और उन्हें ये सब कहते हुए रोता देख बाकी सब भी रोने लगे थे। पास ही खड़ा मुंशी चंद्रकांत भी रो रहा था। उससे जब न रहा गया तो उसने पीछे से दादा ठाकुर को सम्हाल लिया।

"खुद को सम्हालिए मालिक।" मुंशी दुखी भाव से बिलखते हुए बोला____"आप ही हिम्मत हार जाएंगे तो बाकी सबका क्या होगा?"

"सही कह रहे हो तुम।" दादा ठाकुर ने अजीब भाव से कहा____"हमें हिम्मत नहीं हारना चाहिए। हमें तो अपने दिल पर पत्थर रख कर आगे बढ़ना चाहिए। जिस किसी ने भी ये किया है उसे ऐसी मौत देनी चाहिए कि ऊपर बैठे फरिश्तों का भी कलेजा दहल जाए।"

वातावरण में कुछ लोगों की आवाज़ों का शोर हुआ तो सबका ध्यान शोर की तरफ गया। गांव के लोग भागते हुए इस तरफ ही आ रहे थे। कुछ जीपें और कुछ मोटर साईकिल भी आती हुई दिख रहीं थी। दादा ठाकुर ने खुद को किसी तरह सम्हाला और फिर जगताप को छोड़ अपने बेटे की तरफ बढ़े।

अभिनव के जिस्म के दो हिस्सों में गोली लगी थी। एक गोली सीने में तो दूसरी पेट के बाएं तरफ। ज़ाहिर था बचना मुश्किल था। जिस्म एकदम से ठंडा पड़ गया था उसका। अपने बेटे को बेजान पड़ा देख दादा ठाकुर की आंखों से एक बार फिर आंसू बह चले। आंखों के सामने अभिनव का हंसता मुस्कुराता हुआ चेहरा घूम गया और साथ ही वो सब भी जो अब तक हुआ था।

"ये कैसा दिन दिखा दिया बेटे?" फिर वो अभिनव के चेहरे पर हाथ फेरते हुए करुण भाव से बोल पड़े____"अच्छा होता कि तुम्हें इस हालत में देखने से पहले ऊपर वाला हमें मौत दे देता। अपने कंधे में अब तुम्हारा बोझ कैसे उठा सकेंगे हम? हवेली में तुम्हारी मां को क्या जवाब देंगे हम और......और उसे क्या जवाब देंगे जो हर बात से बेख़बर चंदनपुर में है? नहीं नहीं, हम में किसी को भी जवाब देने की हिम्मत नही है।"

दादा ठाकुर जाने क्या क्या कहते हुए रो पड़े। माहौल इतना भयावह और गमगीन हो गया था कि किसी में भी दादा ठाकुर को सम्हाले की कूवत नहीं रही। कुछ ही देर में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। वातावरण में चीखों पुकार मच गया। गांव से सिर्फ मर्द लोग ही नहीं आए थे बल्कि उनमें औरतें भी थीं जो ये सब देख कर बुरी तरह रो रहीं थी। दूसरे गांव से जीपों में दादा ठाकुर के चाहने वाले आए थे जो खुद भी ठाकुर थे और दादा ठाकुर की ही तरह संपन्न थे। उन लोगों ने दादा ठाकुर को सम्हाला और इस हादसे के लिए उनसे जो हो सकेगा करने का वादा किया।

"य....ये ज़िंदा हैं मालिक।" अचानक ही फिज़ा में कोई चिल्लाया तो सबके सब तेज़ी से पलटे। सबकी नज़रें मुंशी चंद्रकांत पर जा कर ठहर गईं जो जगताप के पास बैठा था। दादा ठाकुर के बेजान से जिस्म में मानों एकदम से नई शक्ति का संचार हुआ और वो भागते हुए उसके पास पहुंचे।

"क्या सच कह रहे हैं मुंशी जी?" दादा ठाकुर ने व्याकुल भाव से किंतु खुशी ज़ाहिर करते हुए पूछा।
"हां मालिक।" मुंशी ने बड़े जोशीले भाव से कहा_____"मझले ठोकर का शरीर वैसा ठंडा नहीं है जैसे बेजान जिस्म ठंडा पड़ जाता है। इनकी धड़कनें भी चल रही हैं।"

मुंशी की बात ने मानों सबके बीच एक अलग ही माहौल पैदा कर दिया। दादा ठाकुर ने झपट कर जगताप के दाहिने हाथ की नब्ज़ पकड़ ली और साथ ही अपना दूसरा हाथ उसके सीने पर रख दिया। कुछ देर वो चुप रहे और फिर एकदम से उनके चेहरे पर चमक आ गई।

"मुंशी जी ने सही कहा अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने पास ही खड़े एक व्यक्ति की तरफ देख कर खुशी से कहा_____"हमारा भाई जगताप ज़िंदा है। इसे गोली ज़रूर लगी हैं लेकिन हमारा जगताप जिंदा है।" कहने के साथ ही वो शेरा की तरफ पलटे_____"फ़ौरन जीप ले कर आओ शेरा। इसे फ़ौरन शहर ले जाना होगा।"

शेरा में भी जैसे नई जान आ गई थी। वो भाग कर गया और जीप को पास ले आया। दादा ठाकुर ने खुद जगताप को दोनों हाथों से उठाया और उसे जीप में बैठा दिया। जगताप को दो गोलियां लगीं थी। एक जांघ में तो दूसरी पेट के दाईं तरफ। खून काफी बह गया था लेकिन सांसें अभी भी बाकी थी उसमें जोकि किसी चमत्कार से कम नहीं था। ज़ख्मों से खून अभी भी बह रहा था इस लिए दादा ठाकुर ने अपना गमछा लगा दिया था ज़ख्म पर।

"ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह नाम के आदमी ने कहा_____"हम भी आपके साथ शहर चलेंगे। दुश्मन का कोई भरोसा नहीं है इस लिए हम आपको अकेले कहीं जाने नहीं दे सकते।"

दादा ठाकुर ने उसकी बात पर सहमति जताई। जैसे ही जीप आगे बढ़ी तभी वहां पर पुलिस की लाल बत्ती लगी हुई दो जीपें आ कर रुकीं। फ़ौरन ही जीपों से पुलिस के अधिकारी बाहर निकले। समय क्योंकि ज़्यादा नही था इस लिए दादा ठाकुर उन्हें मामले के बारे में थोड़ा बहुत बता कर शहर की तरफ निकल लिए। इधर बाकी की कार्यवाही पुलिस की निगरानी में होने लगी।


✮✮✮✮

दादा ठाकुर की जीप पूरे वेग से शहर की तरफ दौड़ी जा रही थी। जीप की कमान शेरा के हाथ में थी, जबकि अर्जुन सिंह उसके बगल में बंदूक लिए बैठा था। जीप की पिछली सीट पर दादा ठाकुर बैठे थे। अपने भाई जगताप को उन्होंने अपनी गोंद में ले रखा था और बार बार पुकार कर उसे होश में लाने का प्रयास कर रहे थे। एक तरफ जहां उन्हें अपने बेटे को खो देने का असहनीय दुख था तो वहीं दूसरी तरफ अपने भाई के ज़िंदा होने की खुशी भी थी। ये अलग बात है कि ये खुशी जगताप के होश में न आने से प्रतिपल फीकी पड़ती जा रही थी। वो बार बार शेरा को और तेज़ जीप चलाने को भी कहते जा रहे थे, जबकि उन्हें भी ये एहसास था कि कच्ची सड़क पर जीप पहले से ही ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ चल रही थी।

अर्जुन सिंह बार बार पलट कर दादा ठाकुर को धीरज दे रहा था। अचानक दादा ठाकुर पूरी शक्ति से चीख पड़े। ये उनकी चीख का ही असर था कि शेरा ने ज़ोर से जीप के ब्रेक पैडल पर अपना पांव जमा दिया जिससे जीप तेज़ आवाज़ करते हुए रुकती चली गई। दादा ठाकुर की इस भयानक चीख से अर्जुन सिंह भी बुरी तरह चौंक पड़ा था। जीप के रुकते ही उसने और शेरा ने एकसाथ पलट कर पीछे देखा। दादा ठाकुर अपने छोटे भाई जगताप को अपने सीने से लगाए रोए जा रहे थे।

"क्या हुआ ठाकुर साहब?" अर्जुन सिंह समझ तो गया लेकिन फिर भी पूछे बगैर न रह सका।
"हमारे बेटे की तरह ये भी हमें छोड़ कर चला गया अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने करुण भाव से आंसू बहाते हुए कहा____"इसे भी हमारे बेटे की तरह हम पर तरस नहीं आया कि अब हम कैसे इन दोनों के बिना जी पाएंगे?"

"धीरज से काम लीजिए ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने अधीर भाव से कहा_____"आप जैसे इंसान को इस तरह विलाप करना शोभा नहीं देता।"
"क्यों? क्यों शोभा नहीं देता अर्जुन सिंह?" दादा ठाकुर जैसे चीख ही पड़े_____"क्या हम इंसान नहीं हैं या फिर हमारे सीने में धड़कता हुआ दिल नहीं है? क्या तुम्हें एहसास नहीं है कि इस वक्त हम किस हालत में हैं?"

"मुझे हर बात का बखूबी एहसास है ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"मैं अच्छी तरह समझता हूं कि इस वक्त आप बहुत ही ज़्यादा दुखी हैं और यकीन मानिए आपकी तरह मैं भी इस सबसे दुखी हूं लेकिन इसके बावजूद हमें इस असहनीय दुख को जज़्ब कर के बड़े धैर्य के साथ आगे के बारे में सोचना होगा। जो हो गया वो किसी के दुखी होने से या विलाप करने से ठीक नहीं हो जाएगा। इस लिए आपको धीरज से काम लेना होगा और बहुत ही समझदारी से इसके आगे क्या करना है सोचना होगा।"

"कहना आसान है अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने दुखी और हताश भाव से कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल है। एक झटके में हमने अपने जिगर के टुकड़ों को खो दिया है। आख़िर कैसे हम इस दुख को हजम कर जाएं? अब तो ये सोच कर ही हमारी रूह कांपी जा रही है कि हवेली में सबसे क्या कहेंगे और जब इस बारे में उन्हें पता चलेगा तो क्या होगा? नहीं नहीं अर्जुन सिंह, हम उस सबको ना तो देख सकेंगे और ना ही सह पाएंगे। जी करता है अभी इसी वक्त ये ज़मीन फट जाए और हम उसमें समा जाएं।"

"मैं आपकी मनोदशा को बखूबी समझता हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"लेकिन किसी न किसी तरह हर चीज़ का सामना तो करना ही पड़ेगा और सबको सम्हालना भी पड़ेगा। दूसरी सबसे ज़रूरी बात ये भी सोचनी होगी कि जिसने भी ये सब किया है उसके साथ क्या करना है।"

"अब तो नर संघार होगा अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर के हलक से एकाएक गुर्राहट निकली____"अभी तक हम चुप थे लेकिन अब हमारे दुश्मन हमारा वो रूप देखेंगे जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की होगी। एक एक को अपनी जान दे कर इस सबकी कीमत चुकानी होगी।"

कहने के साथ ही दादा ठाकुर ने शेरा को वापस चलने का हुकुम दिया। इस वक्त उनके चेहरे पर बड़े ही खूंखार भाव नज़र आ रहे थे। दादा ठाकुर को अपने जलाल पर आया देख अर्जुन सिंह पहले तो सहम सा गया लेकिन फिर राहत की सांस ली। जीप वापस हवेली की तरफ चल पड़ी थी। वातावरण में एक अजीब सी सनसनी जैसे माहौल का आभास होने लगा था। ऊपर वाला ही जाने कि आने वाले समय में अब क्या होने वाला था?


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Ye jo hua he na wo bohot jyada daravana he aur ab jo bhi hoga wo justified hoga ye baat aur jyada darati he
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
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अध्याय - 63
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अब तक....

"अब तो नर संघार होगा अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर के हलक से एकाएक गुर्राहट निकली____"अभी तक हम चुप थे लेकिन अब हमारे दुश्मन हमारा वो रूप देखेंगे जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की होगी। एक एक को अपनी जान दे कर इस सबकी कीमत चुकानी होगी।"

कहने के साथ ही दादा ठाकुर ने शेरा को वापस चलने का हुकुम दिया। इस वक्त उनके चेहरे पर बड़े ही खूंखार भाव नज़र आ रहे थे। दादा ठाकुर को अपने जलाल पर आया देख अर्जुन सिंह पहले तो सहम सा गया लेकिन फिर राहत की सांस ली। जीप वापस हवेली की तरफ चल पड़ी थी। वातावरण में एक अजीब सी सनसनी जैसे माहौल का आभास होने लगा था। ऊपर वाला ही जाने कि आने वाले समय में अब क्या होने वाला था?


अब आगे....


दादा ठाकुर के पहुंचने से पहले ही हवेली तक ये ख़बर जंगल में फैलती आग की तरह पहुंच गई थी कि जगताप और अभिनव को हवेली के दुश्मनों ने जान से मार डाला है। बस फिर क्या था, पलक झपकते ही हवेली में मानों कोहराम मच गया था। नारी कंठों से दुख-दर्द और करुणा से मिश्रित चीखें पूरी हवेली को मानों दहलाने लगीं थी। हवेली की ठकुराईन सुगंधा देवी, मझली ठकुराईन मेनका देवी, और हवेली की लाडली बेटी कुसुम इन सबका मानों बुरा हाल हो गया था। जगताप के दोनों बेटे विभोर और अजीत भी रो रहे थे और सबको सम्हालने की कोशिश कर रहे थे। हवेली में काम करने वाली नौकरानियां और नौकर सब के सब इस घटना के चलते दुखी हो कर रो रहे थे।

उस वक्त तो हवेली में और भी ज़्यादा हाहाकार सा मच गया जब दादा ठाकुर हवेली पहुंचे। उन्हें बखूबी एहसास था कि जब वो हवेली पहुंचेंगे तो उन्हें बद से बद्तर हालात का सामना करना पड़ेगा और साथ ही ऐसे ऐसे सवालों का भी जिनका जवाब दे पाना उनके लिए बेहद मुश्किल होगा। अंदर से तो अब भी उनका जी चाह रहा था कि औरतों की तरह दहाड़ें मार मार कर रोएं मगर बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने जज़्बातों को कुचल कर खुद को जैसे पत्थर का बना लिया था। पूरा नरसिंहपुर हवेली के बाहर जमा था, जिनमें मर्द और औरतें तो थीं ही साथ में बच्चे भी शामिल थे। सबके सब रो रहे थे। जैसे जैसे ये ख़बर फैलती हुई लोगों के कानों तक पहुंच रही थी वैसे वैसे हवेली के चाहने वाले हवेली की तरफ दौड़े चले आ रहे थे।

"कहां है हमारा बेटा जगताप और अभिनव?" दादा ठाकुर अभी बैठक में दाखिल ही हुए थे कि अचानक उनके सामने सुगंधा देवी किसी जिन्न की तरह आ गईं और रोते हुए उनसे मानों चीख पड़ीं____"आप उन दोनों को सही सलामत अपने साथ क्यों नहीं ले आए?"

दादा ठाकुर ने कोई जवाब नहीं दिया। असल में वो जवाब देने की मानसिकता में थे ही नहीं। उनके अंदर तो इस वक्त भयानक चक्रवात सा चल रहा था जिसे वो किसी तरह सम्हाले हुए थे। उनके साथ दूसरे गांव का उनका मित्र अर्जुन सिंह भी था और साथ ही कुछ और भी लोग जिनसे उनके घनिष्ट सम्बन्ध थे।

"आप चुप क्यों हैं?" जब दादा ठाकुर कुछ न बोले तो ठकुराईन सुगंधा देवी बिफरे हुए अंदाज़ में चीख पड़ीं_____"आप बोलते क्यों नहीं कि हमारे बेटे कहां हैं? क्या हमें इतना भी हक़ नहीं है कि अपने बेटों के मुर्दा जिस्मों से लिपट कर रो सकें? आप इतने पत्थर दिल कैसे हो सकते हैं दादा ठाकुर? क्या उनके लहू लुहान जिस्मों को देख कर भी आपका कलेजा नहीं फटा?"

"खुद को सम्हालिए ठकुराईन।" अर्जुन सिंह ने बड़े धैर्य से कहा_____"ठाकुर साहब पर ऐसे शब्दों के वार मत कीजिए। वो अंदर से बहुत दुखी हैं।"

"नहीं, हर्गिज़ नहीं।" सुगंधा देवी इस बार गुस्से से चीख ही पड़ीं_____"ये किसी बात से दुखी नहीं हो सकते क्योंकि इनके सीने में जज़्बातों से भरा दिल है ही नहीं। ये भी अपने बाप पर ग‌ए हैं जिन्हें लोगों को दुख और कष्ट देने में ही खुशी मिलती थी। हमने न जाने कितनी बार इनसे पूछा था कि हवेली के बाहर आख़िर ऐसा क्या चल रहा है जिसके चलते हमारे अपनों के साथ ऐसी घटनाएं हो रहीं हैं लेकिन ये हमेशा हमसे सच को छुपाते रहे। अगर हम कहें कि जगताप और अभिनव की मौत के सिर्फ और सिर्फ आपके ये ठाकुर साहब ही जिम्मेदार हैं तो ग़लत न होगा। इनकी चुप्पी और बुजदिली के चलते आज हमने अपने शेर जैसे दोनों बेटों को खो दिया है।"

कहने के साथ ही सुगंधा देवी फूट फूट कर रो पड़ीं। उनके जैसा ही हाल मेनका और कुसुम का भी था। दोनों के मन में कहने के लिए तो बहुत कुछ था मगर दादा ठाकुर से कभी जुबान नहीं लड़ाया था इस लिए ऐसे वक्त में भी कुछ न कह सकीं थी। बस अंदर ही अंदर घुटती रहीं। इधर सुगंधा देवी की बातों से दादा ठाकुर के अंदर जो पहले से ही भयंकर चक्रवात चल रहा था वो और भी भड़क उठा। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता वो तेज़ी से अंदर की तरफ बढ़ते चले गए। कुछ देर में जब वो लौटे तो उनके हाथ में बंदूक थी और आंखों में धधकते शोले। उनके तेवर देख सबके सब दहल से गए। अर्जुन सिंह फ़ौरन ही उनके पास गए।

"नहीं ठाकुर साहब, ऐसा मत कीजिए।" अर्जुन सिंह ने कहा_____"अभी ऐसा करना कतई उचित नहीं है। हमें सबसे पहले ये पता करना होगा कि मझले ठाकुर जगताप और बड़े कुंवर अभिनव पर किसने हमला किया था?"

"अब किसी बात का पता करने का वक्त नहीं रहा अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर गुस्से में गुर्राए____"अब तो सिर्फ एक ही बात होगी और वो है_____नर संघार। हमें अच्छी तरह पता है कि ये सब किसने किया है, इस लिए अब उनमें से किसी को भी इस दुनिया में जीने का हक नहीं रहा।"

"माना कि आपको सब पता है ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा_____"लेकिन इसके बावजूद इस वक्त आपको ऐसा रुख अख्तियार करना उचित नहीं है। इस वक्त हवेली में आपका रहना बेहद ज़रूरी है और इस सबकी वजह से जो दुखी हैं उनको सांत्वना देना आपका सबसे पहला कर्तव्य है। एक और बात, हवेली के बाहर इस वक्त सैकड़ों लोग जमा हैं, वो सब आपके चाहने वाले हैं और इस सबकी वजह से वो सब भी दुखी हैं। उन सबको शांत कीजिए, समझाइए और उन्हें वापस घर लौटने को कहिए। इसके बाद ही आपको कोई क़दम उठाने के बारे में सोचना चाहिए।"

अर्जुन सिंह की बातों ने दादा ठाकुर के अंदर मानों असर डाला। जिसके चलते उनके अंदर का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ और फिर वो बैठक से बाहर आ गए। हवेली के सामने विसाल मैदान पर लोगों की भीड़ को देखते हुए उन्होंने बड़े ही शांत भाव का परिचय देते हुए उन सबका पहले तो अभिवादन किया और फिर सबको लौट जाने का आग्रह किया। आख़िर दादा ठाकुर के ज़ोर देने पर सब एक एक कर के जाने लगे किंतु बहुत से ऐसे अपनी जगह पर ही मौजूद रहे जो दादा ठाकुर के कहने पर भी नहीं गए। उनका कहना था कि जब तक हवेली के दुश्मनों को ख़त्म नहीं कर दिया जाएगा तब तक वो कहीं नहीं जाएंगे और खुद भी दुश्मनों को ख़त्म करने के लिए दादा ठाकुर के साथ रहेंगे।

वक्त और हालात की गंभीरता को देखते हुए अर्जुन सिंह ने बहुत ही होशियारी से दादा ठाकुर को कोई भी ग़लत क़दम उठाने से रोक लिया था और साथ ही हवेली की सुरक्षा व्यवस्था के लिए आदमियों को लगा दिया था। अपने एक दो आदमियों को उन्होंने अपने गांव से और भी कुछ आदमियों को यहां लाने का आदेश दे दिया था।

गांव के जो लोग रह गए थे उन्हें ये कह कर वापस भेज दिया गया था कि जल्दी ही उन्हें दुश्मनों को ख़त्म करने का अवसर दिया जाएगा। सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद अर्जुन सिंह दादा ठाकुर को बैठक में ले आए। इस वक्त बैठक में कई लोग थे जो गंभीर सोच के साथ बैठे हुए थे। इधर दादा ठाकुर के चेहरे पर रह रह कर कई तरह के भाव उभरते और फिर लोप हो जाते। उनकी आंखों के सामने बार बार अपने छोटे भाई जगताप और उनके बेटे अभिनव का चेहरा उजागर हो जाता था जिसके चलते उनकी आंखें नम हो जाती थीं। ये वो ही जानते थे कि इस वक्त उनके दिल पर क्या बीत रही थी।

शहर से पुलिस विभाग के कुछ आला अधिकारी भी आए हुए थे जो ऐसे अवसर पर दादा ठाकुर को यही सलाह दे रहे थे कि खुद को नियंत्रित रखें। असल में कानून के इन नुमाइंदों को अंदेशा ही नहीं बल्कि पूरा यकीन था कि जो कुछ भी हुआ है उसके बाद बहुत कुछ अनिष्ट हो सकता है जोकि ज़ाहिर है दादा ठाकुर के द्वारा ही होगा इस लिए वो चाहते थे कि किसी भी तरह का अनिष्ट न हो। जगताप और अभिनव के मृत शरीरों की जांच करने के लिए उन्होंने अपने कुछ पुलिस वालों के साथ शहर भेज दिया था। हालाकि दादा ठाकुर ऐसा बिलकुल भी नहीं चाहते थे किंतु आला अधिकारियों के अनुनय विनय करने से उन्हें मानना ही पड़ा था।


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"नहीं, ये नहीं हो सकता।" शेरा के मुख से सारी बातें सुनते ही मैं हलक फाड़ कर चीख पड़ा था और साथ ही शेरा का गिरेबान पकड़ कर गुस्से से बोल पड़ा_____"कह दो कि ये सब झूठ है। कह दो कि मेरे चाचा जी और मेरे भैया को कुछ नहीं हुआ है।"

बेचारा शेरा, आंखों में आसूं लिए कुछ बोल ना सका। उसे यूं चुप देख मेरा खून खौल उठा। दिलो दिमाग़ में बुरी तरह भूचाल सा आ गया। मारे गुस्से के मैंने शेरा को ज़ोर का धक्का दिया तो वो फिसलते हुए पीछे जा गिरा। उसने उठने की कोई कोशिश नहीं की। इधर मैं उसी गुस्से में आगे बढ़ा और झुक कर उसे उसका गिरेबान पकड़ कर उठा लिया।

"तुम्हारी ज़ुबान ख़ामोश क्यों है?" मैं ज़ोर से चीखा____"बताते क्यों नहीं कि किसी को कुछ नहीं हुआ है?"

घर के बाहर इस तरह का शोर शराबा सुन कर अंदर से सब भागते हुए बाहर आ गए। मुझे किसी आदमी के साथ इस तरह पेश आते देख सबके सब बुरी तरह चौंक पड़े थे।

"रुक जाइए वैभव महाराज।" वीरेंद्र फौरन ही मेरे क़रीब आ कर बोला____"ये क्या कर रहे हैं आप और ये आदमी कौंन है? इसने ऐसा क्या कर दिया है जिसके लिए आप इसके साथ इस तरह से पेश आ रहे हैं?"

वीरेंद्र के सवालों से आश्चर्यजनक रूप से मुझ पर प्रतिक्रिया हुई। मेरी हरकतों में एकदम से विराम सा लग गया। आसमान से गिरी बिजली जो कहीं ऊपर ही अटक गई थी वो अब जा कर मेरे सिर पर पूरे वेग से गिर पड़ी थी। ऐसा लगा जैसे जिस जगह पर मैं खड़ा था उस जगह की ज़मीन अचानक से धंस गई है और मैं उसमें एकदम से समा गया हूं। आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया और इससे पहले कि चक्कर खा कर मैं वहीं गिर पड़ता वीरेंद्र ने जल्दी से मुझे सम्हाल लिया।

मेरी हालत देख कर सब के सब सन्नाटे में आ गए। हर कोई समझ चुका था कि कुछ तो ऐसा हुआ है जिसकी वजह से मेरी ऐसी हालत हो गई है। मुझे फ़ौरन ही बैठक में रखे लकड़ी के तख्त पर लेटा दिया गया और मुझ पर पंखा किया जाने लगा। मेरी हालत देख कर सब के सब चिंतित हो उठे थे। वहीं दूसरी तरफ घर के कुछ लोग शेरा से पूछ रहे थे कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसकी वजह से मेरी ये हालत हो गई है? उन लोगों के पूछने पर शेरा कुछ बोल नहीं रहा था। शायद वो समझता था कि सच जानने के बाद कोई भी इस सच को सहन नहीं कर पाएगा और यहां जिस चीज़ की वो सब खुशियां मना रहे थे उसमें विघ्न पड़ जाएगा।

जल्दी ही मेरी हालत में थोड़ा सुधार हुआ तो मुझे होश आया। मैं एकदम से उठ बैठा और बदहवास सा सबकी तरफ देखने लगा। हर चेहरे से होती हुई मेरी नज़र रागिनी भाभी पर जा कर ठहर गई। वो चिंतित और परेशान अवस्था में मुझे ही देखे जा रहीं थी। उन्हें देखते ही मेरे अंदर बुरी तरह मानों कोई मरोड़ सी उठी और मैं फफक फफक कर रो पड़ा। मुझे यूं रोते देख भाभी चौंकी और एकदम से घबरा ग‌ईं। वो फ़ौरन ही मेरे पास आईं और मुझे खुद से छुपका लिया।

"क्या हुआ वैभव?" वो मेरे चेहरे पर अपने कोमल हाथ फेरते हुए बड़े घबराए भाव से बोलीं_____"तुम इस तरह रो क्यों रहे हो? तुम तो मेरे बहादुर देवर हो, फिर इस तरह बच्चों की तरह क्यों रो रहे हो?"

भाभी की बातें सुनकर मैं और भी उनसे छुपक कर रोने लगा। मेरे अंदर के जज़्बात मेरे काबू में नहीं थे। सहसा मैं ये सोच कर कांप उठा कि भाभी को जब सच का पता चलेगा तो उन पर क्या गुज़रेगी? नहीं नहीं, उन्हें सच का पता नहीं चलना चाहिए वरना वो तो मर ही जाएंगी। एकाएक ही मेरे अंदर विचारों का और जज़्बातों का ऐसा तूफान उठा कि मैं उसे सम्हाल न सका। भाभी से लिपटा मैं बस रोए जा रहा था। मुझे रोता देख भाभी भी रोने लगीं। बाकी सबकी भी आंखें नम हो उठीं। किसी को भी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर ऐसा क्या हो गया है जिसके चलते मैं इस तरह रोए जा रहा हूं। सबको किसी भारी अनिष्ट के होने की आशंका होने लगी थी। सबके ज़हन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगे थे।

"तुम्हें मेरी क़सम है वैभव।" भाभी ने रूंधे हुए गले से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बताओ कि आख़िर क्या हुआ है? बाहर मौजूद शेरा ने तुमसे ऐसा क्या कहा है जिसे सुन कर तुम इस तरह रोने लगे हो?"

"सब कुछ ख़त्म हो गया भाभी।" भाभी की क़सम से मजबूर हो कर मैंने रोते हुए कहा तो भाभी को झटका सा लगा, बोली____"स..सब कुछ ख़त्म हो गया, क्या मतलब है तुम्हारा?"

"बस इससे आगे कुछ नहीं बता सकता भाभी।" मैंने उनसे अलग हो कर तथा खुद को सम्हालते हुए कहा____"क्योंकि ना तो मुझमें कुछ बताने की हिम्मत है और ना ही आप में से किसी में सुनने की।"

मेरी बात सुन कर जहां भाभी एकदम से अवाक सी रह गईं वहीं बाकी लोगों के चेहरे भी फक्क से पड़ गए। मैंने बड़ी मुस्किल से अपने जज़्बातों को काबू किया और तख्त से उठ कर खड़ा हो गया। मेरे लिए अब यहां पर रुकना मुश्किल पड़ रहा था। मैं जल्द से जल्द हवेली पहुंच जाना चाहता था। मैं अच्छी तरह समझ सकता था कि इस समय हवेली में मेरे अपनों का क्या हाल हो रहा होगा।

"मुझे सच जानना है वैभव।" भाभी ने कठोर भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आख़िर क्या छुपा रहे हो मुझसे?"
"बस इतना ही कहूंगा भाभी।" मैंने उनसे नज़रें चुराते हुए गंभीरता से कहा____"कि जितना जल्दी हो सके यहां से वापस हवेली चलिए। मैं बाहर आपके आने का इंतजार करूंगा।"

कहने के साथ ही मैं तेज़ क़दमों के साथ बाहर आ गया। मेरे पीछे बैठक में सब के सब भौचक्के से खड़े रह गए थे। उधर मेरी बात सुनते ही भाभी ने बाकी सबकी तरफ देखा और फिर बिना कुछ कहे अंदर की तरफ चली गईं। उन्हें भी समझ आ गया था कि बात जो भी है बहुत ही गंभीर है और अगर मैंने वापस हवेली चलने को कहा है तो यकीनन उनका जाना ज़रूरी है।

बाहर आया तो देखा भाभी के पिता और उनके भाई शेरा के पास ही अजीब हालत में खड़े थे। उनकी आंखों में आसूं देख मैं समझ गया कि शेरा ने उन्हें सच बता दिया है। मुझे देखते ही वीरेंद्र मेरी तरफ लपका और मुझसे लिपट कर रोने लगा।

"ये सब क्या हो गया वैभव जी?" वीरेंद्र रोते हुए बोला_____"एक झटके में मेरी बहन विधवा हो गई। इतना बड़ा झटका कैसे बर्दास्त कर सकेगी वो?"

"चुप हो जाइए वीरेंद्र भैया।" मैंने उन्हें खुद से अलग करते हुए कहा____"भाभी को अभी इस बात का पता नहीं चलना चाहिए, वरना वो ये सदमा बर्दास्त नहीं कर पाएंगी। मैं इसी वक्त उन्हें ले कर गांव जा रहा हूं।"

"मैं भी आपके साथ चलूंगा।" वीरेंद्र अपने आंसू पोंछते हुए बोला____"ऐसे वक्त में हम आपको अकेला यूं नहीं जाने दे सकते।"

"सही कहा तुमने बेटे।" भाभी के पिता जी ने दुखी भाव से कहा_____"इस दुख की घड़ी में हम सबका वहां जाना आवश्यक है। एक काम करो तुम अपने भाइयों को ले कर जल्द ही इनके साथ यहां से निकलो।"

"नहीं बाबू जी।" मैंने कहा____"इन्हें मेरे साथ मत भेजिए। ऐसे में भाभी को शक हो जाएगा कि कोई बात ज़रूर है इस लिए आप इन्हें हमारे जाने के बाद आने को कहिए।"

मेरी बात सुन कर उन्होंने सिर हिलाया। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी भाभी अपना थैला लिए हमारी तरफ ही आती दिखीं। उन्हें देख कर एक बार फिर से मेरे दिल पर मानों बरछियां चल गईं। मैं सोचने लगा कि इस मासूम सी औरत के साथ ऊपर वाले ने ऐसा ज़ुल्म क्यों कर दिया? बड़ी मुश्किल से तो उनकी जिंदगी में खुशियों के पल आए थे और अब तो ऐसा हो गया है कि चाह कर भी कोई उनके दामन में खुशियां नहीं डाल सकता था। मुझे समझ न आया कि मैं ऐसा क्या करूं जिससे मेरी भाभी को कोई दुख तकलीफ छू भी न सके। अपनी बेबसी और लाचारी के चलते मेरी आंखें छलक पड़ीं जिन्हें फ़ौरन ही पलट कर मैंने उनसे छुपा लिया।

कुछ ही देर में मैं जीप में भाभी को बैठा कर शेरा और अपने कुछ आदमियों के साथ अपने गांव नरसिंहपुर की तरफ चल पड़ा। मेरे बगल से भाभी बैठी हुईं थी। वो गुमसुम सी नज़र आ रहीं थी, ये देख मेरा हृदय ये सोच कर हाहाकार कर उठा कि क्या होगा उस वक्त जब उन्हें सच का पता चलेगा? आख़िर कैसे उस अहसहनीय दुख को सह पाएंगी वो? मैंने मन ही मन ऊपर वाले से उन्हें हिम्मत देने की फरियाद की।

गांव से निकल कर जब हम काफी दूर आ गए तो भाभी ने मुझसे फिर से पूछना शुरू कर दिया कि आख़िर क्या बात हो गई है? उनके पूछने पर मैंने बस यही कहा कि हवेली पहुंचने पर उन्हें खुद ही पता चल जाएगा। मैं भला कैसे उन्हें सच बता देता और उन्हें उस सच के बाद मिलने वाले दुख से दुखी होते देखता? जीवन में कभी ऐसा भी वक्त आएगा इसकी कल्पना भी नहीं की थी मैंने। आंखों के सामने बार बार अभिनव भैया का चेहरा दिखने लगता था और न चाहते हुए भी मेरी आंखें भर आती थीं। अपने आंसुओं को भाभी से छुपाने के लिए मैं जल्दी से दूसरी तरफ देखने लगता था। मेरा बस चलता तो किसी जादू की तरह सब कुछ ठीक कर देता और अपनी मासूम सी भाभी के पास किसी तरह की तकलीफ़ न आने देता मगर मेरे बस में अब कुछ भी नहीं रह गया था।

मुझे याद आया कि जो लोग मुझे चंदनपुर में जान से मारने के इरादे से आए थे उनमें से एक ने मुझे बताया था कि वो लोग किसके कहने पर मेरी जान लेने आए थे? साहूकारों पर तो मुझे पहले से ही कोई भरोसा नहीं था लेकिन वो इस हद तक भी जा सकते हैं इसकी उम्मीद नहीं की थी मैंने। मुझ पर उनका कोई बस नहीं चल पाया तो उन्होंने मेरे चाचा और मेरे बड़े भाई को मार दिया। मुझे समझ में नहीं आया कि ये सब कैसे संभव हुआ होगा उनके लिए? मेरे चाचा और भैया उन लोगों को कहीं अकेले तो नहीं मिल गए होंगे जिसके चलते वो उन्हें मार देने में सफल हो गए होंगे। ज़ाहिर है वो लोग पहले से ही इस सबकी तैयारी कर चुके थे और मौका देख कर वो लोग उन पर झपट पड़े होंगे।

सोचते सोचते मेरे अंदर दुख तकलीफ़ के साथ साथ अब भयंकर गुस्सा भी भरता जा रहा था। मैं तो पहले ही ऐसे हरामखोरों को ख़ाक में मिला देना चाहता था मगर पिता जी के चलते मुझे रुकना पड़ गया था मगर अब, अब मैं किसी के भी रोके रुकने वाला नहीं था। जिन लोगों ने चाचा जगताप और मेरे भाई की जान ली है उन्हें ऐसी मौत मारुंगा कि किसी भी जन्म में वो ऐसा करने की हिमाकत न कर सकेंगे।

क़रीब सवा घंटे बाद मैं हवेली पहुंचा। इस एहसास ने ही मुझे थर्रा कर रख दिया कि अब क्या होगा? मेरी भाभी कैसे इतने भयानक और इतने असहनीय झटके को बर्दास्त कर पाएंगी? मेरी नज़रें हवेली के विशाल मैदान के चारो तरफ घूमने लगीं जहां पर कई हथियारबंद लोग मुस्तैदी से खड़े थे। ज़ाहिर है वो किसी भी खतरे का सामना करने के लिए तैयार थे। वातावरण में बड़ी अजीब सी शान्ति छाई हुई थी किंतु हवेली के अंदर किस तरह का हड़कंप मचा हुआ है इसका एहसास और आभास मुझे बाहर से ही हो रहा था।

हवेली के मुख्य दरवाज़े के क़रीब जीप को मैंने रोका और फिर उतर कर मैं दूसरी तरफ आया। मैंने देखा भाभी मुख्य दरवाज़े की तरफ ही देखे जा रहीं थी। उनके मासूम से चेहरे पर अजीब से भाव थे। उन्हें देख कर एक बार फिर से मेरा हृदय हाहाकार कर उठा। मैंने बड़ी मुश्किल से अपने अंदर उठे तूफान को काबू किया और भाभी की तरफ का दरवाज़ा खोल दिया जिससे भाभी ने एक नज़र मुझे देखा और फिर सावधानी से नीचे उतर आईं।

अपने सिर पर साड़ी का पल्लू डाले वो अंदर की तरफ बढ़ गईं तो मैंने जीप से उनका थैला लिया और शेरा को जीप ले जाने का इशारा कर के भाभी के पीछे हो लिया। जैसे जैसे भाभी अंदर की तरफ बढ़ती जा रहीं थी वैसे वैसे मेरी सांसें मानों रुकती जा रहीं थी। जल्दी ही भाभी बैठक को पार करते हुए अंदर की तरफ बढ़ गईं जबकि मैं बैठक में ही रुक गया। मेरी नज़र जब कुछ लोगों से घिरे पिता जी पर पड़ी तो मैं खुद को सम्हाल न सका। बैठक में बैठे लोगों को भी पता चल चुका था कि मैं आ गया हूं और साथ ही मेरे साथ भाभी भी आ गईं हैं। मैं बिजली की सी तेज़ी से पिता जी के पास पहुंचा और रोते हुए उनसे लिपट गया। मुझे यूं अपने से लिपट कर रोता देख पिता जी भी खुद को सम्हाल न सके। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे और उनके अंदर का गुबार मानों एक ही झटके में फूट गया। मुझे अपने सीने से यूं जकड़ लिया उन्होंने जैसे उन्हें डर हो कि मैं भी उनसे वैसे ही दूर चला जाऊंगा जैसे चाचा जगताप और बड़े भैया चले गए हैं।

जाने कितनी ही देर तक मैं उनसे लिपटा रोता रहा और पिता जी मुझे खुद से छुपकाए रहे। उसके बाद मैं अलग हुआ तो अर्जुन सिंह ने मुझे एक कुर्सी पर बैठा दिया। तभी मेरे कानों में अंदर से आता रूदन सुनाई दिया। हवेली के अंदर एक बार फिर से चीखो पुकार मच गया था। मां, चाची, कुसुम के साथ अब भाभी का भी रूदन शुरू हो गया था। ये सब सुनते ही मेरा कलेजा फटने को आ गया। मेरी आंखें एक बार फिर से बरस पड़ीं थी।


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अध्याय - 64
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अब तक....


जाने कितनी ही देर तक मैं उनसे लिपटा रोता रहा और पिता जी मुझे खुद से छुपकाए रहे। उसके बाद मैं अलग हुआ तो अर्जुन सिंह ने मुझे एक कुर्सी पर बैठा दिया। तभी मेरे कानों में अंदर से आता रूदन सुनाई दिया। हवेली के अंदर एक बार फिर से चीखो पुकार मच गया था। मां, चाची, कुसुम के साथ अब भाभी का भी रूदन शुरू हो गया था। ये सब सुनते ही मेरा कलेजा फटने को आ गया। मेरी आंखें एक बार फिर से बरस पड़ीं थी।

अब आगे....


सारा दिन ऐसे ही मातम छाया रहा। समय के गुज़रने के साथ हवेली के अंदर मौजूद औरतों का रोना चिल्लाना तो बंद हो गया था लेकिन रह रह कर सिसकने की आवाज़ें आ ही जाती थीं। चंदनपुर से बड़े भैया अभिनव के ससुराल वाले भी आ गए थे। जिनमें वीरेंद्र के साथ चाचा ससुर बलभद्र सिंह और उनका बड़ा बेटा वीर सिंह था। ससुर जी यानी वीरभद्र सिंह को चलने फिरने में परेशानी होती थी इस लिए वो नहीं आए थे। हालाकि वो आने की ज़िद कर रहे थे लेकिन उनके छोटे भाई ने समझाया कि घर के बड़े होने के नाते उनका घर में भी रहना ज़रूरी है।

दूसरे गांव से पिता जी के जो कुछ मित्र आए थे वो बाद में आने का बोल कर चले गए थे किंतु अर्जुन सिंह पिता जी के साथ अब भी मौजूद थे। अर्जुन सिंह से पिता जी का गहरा नाता था इस लिए ऐसी परिस्थिति में वो मेरे पिता जी को अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। पुलिस के आला अधिकारी कुछ समय बैठने के बाद जा चुके थे लेकिन ये भी कह गए थे कि जो कुछ भी हुआ है उसकी जांच पड़ताल करना अब पुलिस का काम है इस लिए हम में से कोई भी कानून को अपने हाथ में लेने का न सोचे।

"मालिक।" अभी हम सब सोचो में ही गुम थे कि तभी एक दरबान बैठक में आ कर अदब से बोला____"शेरा के साथ कुछ लोग आपसे मिलना चाहते हैं।"

दरबान की बात सुन कर पिता जी ने उन्हें अंदर भेजने को कहा तो दरबान सिर नवा कर चला गया। थोड़ी ही देर में शेरा और उसके साथ दो आदमी बैठक में दाखिल हुए जिनमें से एक मुंशी चंद्रकांत का बेटा रघुवीर भी था।

"क्या ख़बर है?" पिता जी ने सपाट लहजे में शेरा की तरफ देखते हुए पूछा।
"मालिक हमने हर जगह पता किया।" शेरा ने दबी हुई आवाज़ में कहा____"लेकिन साहूकारों में से किसी का भी कहीं कोई सुराग़ तक नहीं मिला।"

"उनके घरों में पता किया?" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"हो सकता है वो सब अपने घरों में ही चूहे की तरह बिल में घुसे बैठे हों।"

"उनके घरों में सिर्फ़ उनकी औरतें और लड़कियां ही हैं दादा ठाकुर।" रघुवीर ने कहा____"ना तो साहूकारों में से कोई है और ना ही उनके लड़के लोग। ऐसा लगता है जैसे वो जान बूझ कर कहीं चले गए हैं। ज़ाहिर है उन्हें इस बात का डर है कि वो सब आपके क़हर का शिकार हो जाएंगे।"

"सबके सब नामर्द हैं साले।" अर्जुन सिंह ने खीझते हुए कहा____"पीछे से वार करने वाले कायर हैं वो। अब जब सामने से भिड़ने का वक्त आया तो कुत्ते की तरह दुम दबा कर कहीं भाग गए हैं।"

"भाग कर जाएंगे कहां?" पिता जी ने गुस्से में कहते हुए शेरा की तरफ देखा____"आस पास के सभी गांवों में जा जा कर ये घोषणा कर दो कि जो कोई भी साहूकारों के बारे में हमें ख़बर देगा उसे हमारे द्वारा मुंह मांगा इनाम दिया जाएगा और साथ ही ये ऐलान भी कर दो कि अगर किसी ने साहूकारों को पनाह दे कर उन्हें अपने यहां छुपाने की कोशिश की तो उसके पूरे खानदान को नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा।"

"मैं कुछ कहना चाहता हूं पिता जी।" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"अगर आपकी इजाज़त हो तो कहूं?"
"क्या कहना चाहते हो?" पिता जी ने मेरी तरफ देखा।

"अगर साहूकारों को जल्द से जल्द पकड़ना है तो उसके लिए हमें ये सब ऐलान कराने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने संतुलित लहजे में कहा____"बल्कि हर तरफ सिर्फ इतना ही ऐलान कर देना काफी है कि अगर चौबीस घंटे के अंदर साहूकारों ने खुद को हमारे हवाले नहीं किया तो उनके घर की औरतों, लड़कियों और बच्चों के साथ बहुत ही बुरा सुलूक किया जाएगा।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" सब मेरी बातों से हैरानी पूर्वक मेरी तरफ देखने लगे थे जबकि पिता जी ने कहा____"नहीं नहीं, हम उन लोगों की बहू बेटियों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे।"

"आप ग़लत समझ रहे हैं पिता जी।" मैंने जैसे समझाने वाले अंदाज़ में कहा____"मेरा इरादा ये हर्गिज़ नहीं है कि हम सच में उनके घर की औरतों या लड़कियों के साथ ग़लत ही कर देंगे। इस तरह का ऐलान करना तो बस एक बहाना होगा ताकि चूहे की तरह कहीं छुपे बैठे साहूकार लोग इस बात के डर से फ़ौरन ही बिलों से निकल कर हमारे सामने आ जाएं। इस बात का एहसास तो उन्हें भी होगा कि जो कुछ उन्होंने किया है उससे हम बेहद ही गुस्से में होंगे। उस गुस्से में पगलाए हुए हम उनके साथ या उनके घर वालों के साथ कुछ भी कर गुज़रने से पीछे नहीं हटेंगे और ना ही सही ग़लत के बारे में सोचेंगे। ये सब सोच कर यकीनन वो अपनी बहू बेटियों के लिए चिंतित हो जाएंगे और फिर वही करने पर मजबूर हो जाएंगे जो हम चाहते हैं।"

"मैं छोटे कुंवर की बातों से सहमत हूं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"उन कायरों को जल्द से जल्द बिलों से बाहर निकालने का यही एक तरीका बेहतर लगता है।"

"हम भी वैभव बेटा की इन बातों से सहमत हैं ठाकुर साहब।" बलभद्र सिंह ने कहा____"लेकिन एक बात और भी है, और वो ये कि क्या ज़रूरी है कि आपसे खौफ़ खा कर आपके गांव के ये साहूकार आस पास के किसी गांव में ही छुपे हुए होंगे? हमारा ख़याल है बिल्कुल नहीं। अगर उन्हें सच में ही आपसे अपनी ज़िंदगियों को सलामत रखना है तो वो कहीं छुपने से बेहतर पुलिस या कानून के संरक्षण में रहना ही ज़्यादा बेहतर समझेंगे।"

"यकीनन आपकी बातों में वजन है ठाकुर साहब।" पिता जी ने सिर हिलाते हुए कहा____"हमें भी ऐसा ही लगता है कि वो सब के सब इस वक्त कानून के संरक्षण में ही होंगे।"

"तो क्या हुआ पिता जी।" मैंने फिर से हस्ताक्षेप किया____"वो भले ही कानून के संरक्षण में होंगे लेकिन जब वो जानेंगे कि उनकी वजह से उनके घर की बहू बेटियां हमारे निशाने पर हैं तो वो सब मुंह के बल भागते हुए यहां आएंगे और हमसे अपने घर की औरतों को बक्श देने की भीख मांगेंगे।"

"बात तो ठीक है छोटे कुंवर।" अर्जुन सिंह ने कहा____"लेकिन यकीनन ऐसा ही होगा ये ज़रूरी नहीं है क्योंकि तब वो कानून के संरक्षण के साथ साथ कानून का सहारा भी मागेंगे और मौजूदा हालात को देखते हुए कानून हर तरह से उनकी मदद भी करेगा।"

"तो आप ये कहना चाहते हैं कि हम ये सब सोच कर कुछ करें ही नहीं?" मैं एकदम आवेश में आ कर बोल पड़ा____"नहीं चाचा जी, ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता। उन लोगों ने मेरे चाचा और मेरे बड़े भाई की बेरहमी से हत्या की है इस लिए अब अगर उन्हें बचाने के लिए स्वयं यमराज भी आएंगे तो उन्हें मेरे क़हर से बचा नहीं पाएंगे।"

"गुस्से में होश गंवा कर कोई भी काम नहीं करना चाहिए छोटे कुंवर।" अर्जुन सिंह ने कहा____"मैं ये नहीं कह रहा कि तुम अपनों की हत्या का बदला न लो बल्कि वो तो हम सब लेंगे और ज़रूर लेंगे लेकिन उसी तरह जिस तरह उन लोगों ने पूरी तैयारी के साथ हमारे अपनों की हत्या की है।"

"मैं ये सब कुछ नहीं जानता चाचा जी।" मैंने उसी आवेश के साथ कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं उन सबको बद से बद्तर मौत दूंगा, फिर चाहे इसके लिए मुझे किसी भी हद से क्यों न गुज़र जाना पड़े।" कहने के साथ ही मैं शेरा और रघुवीर से मुखातिब हुआ_____"तुम दोनों इसी वक्त जाओ और इस गांव में ही नहीं बल्कि आस पास के सभी गांवों में ये ऐलान कर दो कि अगर चौबीस घंटे के अंदर साहूकारों ने दादा ठाकुर के सामने खुद को समर्पण नहीं किया तो उनके घर की बहू बेटियों के साथ बहुत ही बुरा सुलूक किया जाएगा।"

मेरी बात सुन कर शेरा और रघुवीर ने पिता जी की तरफ देखा। पिता जी ने फ़ौरन ही सिर हिला कर उन्हें हुकुम का पालन करने का इशारा कर दिया। शायद पिता जी भी अब वही चाहते थे जो कुछ करने की मैं सोच बैठा था। ख़ैर, इशारा मिलते ही दोनों बैठक से सिर नवा कर चले गए। मेरे अंदर इस वक्त ऐसी आंधी चल रही थी जो हर चीज़ को तबाह कर देने के लिए आतुर थी।


✮✮✮✮

सारा दिन मैं बैठक में ही बैठा रहा था। हवेली के अंदर जाने की मुझमें हिम्मत नहीं हो रही थी लेकिन भला कब तक मैं किसी चीज़ से बचता? शेरा और रघुवीर के जाने के बाद मैं उठ कर अंदर की तरफ बढ़ चला था। अंदर की तरफ बढ़ते हुए मेरे क़दम एकदम से भारी होते जा रहे थे। मां अथवा मेनका चाची से सामना होने का मुझे उतना भय नहीं था जितना भाभी से सामना होने का भय था। मुझे शिद्दत से एहसास था कि उनके दिल पर इस वक्त क्या गुज़र रही होगी और सच तो ये था कि इस वक्त उनकी जो हालत होगी उसे देखने की मुझमें ज़रा सी भी हिम्मत नहीं थी।

अंदर आया तो देखा कई सारी औरतें बरामदे वाले बड़े से हाल में बैठी हुईं थी। वो सब मां चाची और भाभी को घेरे हुए थीं और साथ ही उन्हें धीरज बंधा रहीं थी। वो सब गांव की ही औरतें थी जिनमें मुंशी की बीवी प्रभा और बहू रजनी भी थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही मां, चाची, कुसुम और भाभी का रोना फिर से शुरू हो गया। कुछ समय के लिए हवेली में जो सन्नाटा छा गया था वो उनके रोने और चिल्लाने से एकदम से दहल सा उठा। कुसुम दौड़ते हुए आई और मुझसे लिपट कर रोने लगी। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन अपनी आंखों को छलक पड़ने से रोक न सका। अपनी लाडली बहन का रोता हुआ चेहरा देखा तो मेरा कलेजा फट गया। रो रो कर कितनी बुरी हालत बना ली थी उसने। ज़ाहिर है उसके जैसा हाल सबका ही था। मैंने किसी तरह उसे शांत किया और भारी क़दमों से आगे बढ़ चला। मां, चाची और भाभी की तरफ जाने की हिम्मत ही न हुई मुझमें।

बड़े से आंगन से होते हुए जब मैं दूसरी तरफ के बरामदे में आया तो देखा विभोर और अजीत अजीब अवस्था में अकेले ही बैठे थे। दोनों की आंखें किसी अनंत शून्य को घूरे जा रहीं थी। आंखों से बहे आंसू उनके गालों पर सूख गए थे और अपनी परत छोड़ चुके थे। मेरे आने की आहट से उनका ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने मेरी तरफ देखा। फिर एकाएक ही ऐसा लगा जैसे उन दोनों पर एक बार फिर से बिजली सी गिर पड़ी हो। वो तेज़ी से उठे और भैया कहते हुए मुझसे लिपट गए। मेरा हृदय ये सोच कर हाहाकार कर उठा कि ऊपर वाले ने किस बेदर्दी से उनके सिर से पिता का साया छीन लिया है। मुझसे लिपट कर वो दोनों बच्चों की तरह रोए जा रहे थे। मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें सम्हाला और उन्हें शांत करने की कोशिश की। मुझे समझ में नहीं आया कि आख़िर किन शब्दों से उन दोनों को धीरज बंधाऊं और उन्हें समझाने का प्रयास करुं?

"हम अनाथ हो गए भैया।" अजीत ने रोते हुए कहा____"अब किसके सहारे जिएंगे हम?"
"ऐसा मत कह छोटे।" मैंने लरजते स्वर में उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा____"धीरज रख। हम सब तेरे ही तो हैं। वैसे सच कहूं तो ऐसा लगता है जैसे कि आज मैं खुद भी अनाथ हो गया हूं। जगताप चाचा मुझे तुम लोगों से भी ज़्यादा प्यार करते थे। जब वो मुझे 'मेरा शेर' कहते थे तो मेरे अंदर अपार खुशी भर जाती थी। अब कौन मुझे 'मेरा शेर' कहेगा छोटे?"

कहां मैं उन दोनों को शांत करने की कोशिश कर रहा था और कहां अब मैं खुद ही फफक कर रो पड़ा था। मुझे रोता देख वो दोनों और भी जोरों से रोने लगे। हम तीनों का रोना सुन कर उधर बरामदे में बैठी मां, चाची, कुसुम और भाभी फिर से रोने लगीं। बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को सम्हाला, फिर विभोर और अजीत को भी शांत किया। दोनों को अपने साथ ही ले कर ऊपर अपने कमरे में आ गया। वो दोनों अब मेरी ज़िम्मेदारी बन चुके थे। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहता था कि वो अब खुद को दीन हीन समझें।

दोनों को कमरे में ला कर मैंने उन्हें पलंग पर लेटा दिया और खुद किनारे पर बैठ कर दोनों के सिर पर बारी बारी से हाथ फेरने लगा। इस वक्त वो दोनों मुझे छोटे से बच्चे प्रतीत हो रहे थे। दिलो दिमाग़ में तो हलचल मची हुई थी लेकिन इस वक्त उस हलचल को काबू में रखना ज़रूरी था। काफी देर तक मैं उन्हें प्यार से दुलारता रहा। कुछ ही देर में वो सो गए। उन्हें गहरी नींद सो गया देख मैं आहिस्ता से उठा और कमरे से बाहर आ गया। दरवाज़े को ढुलका कर मैं नीचे जाने के लिए आगे बढ़ चला। अभी मैं थोड़ी ही दूर आया था कि मेरी नज़र भाभी और कुसुम पर पड़ी। वो दोनों सीढ़ियों से ऊपर आ कर अपने कमरों की तरफ मुड़ गईं थी। भाभी को देखते ही मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि कहीं मेरा उनसे सामना न हो जाए। हालाकि मैं जानता था कि इस वक्त उन्हें थोड़ा सा ही सही लेकिन मेरा सहारा चाहिए था किंतु मुझमें हिम्मत नहीं थी उनका सामना करने की।

मैं तेज़ी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और जैसे ही बाएं तरफ जाने वाले गलियारे के पास पहुंचा तो अनायास ही मेरी नज़र उस तरफ चली गई। भाभी अपने कमरे के दरवाज़े के पास ही खड़ीं थी। शायद उन्होंने पहले ही मुझे देख लिया था और मेरे आने का इंतज़ार कर रहीं थी। जैसे ही मेरी नज़र उनसे मिली तो मेरा पूरा वजूद कांप गया।

चांद की मानिंद चमकने वाला चेहरा इस वक्त किसी उजड़े हुए गुलशन का पर्याय बना दिखाई दे रहा था। आंखें रो रो कर लाल सुर्ख पड़ गईं थी। चेहरा आंसुओं से तर बतर था। मांग का सिंदूर उनके पूरे माथे पर फैला हुआ था। कमान की तरह दिखने वाली भौंहों के बीच चमकने वाली बिंदी अपनी जगह से ग़ायब थी। बाल बिखरे हुए और गले का मंगलसूत्र नदारद। मेरी नज़र फिसलती हुई उनकी गोरी गोरी कलाईयों पर पड़ी तो देखा कांच की एक भी चूड़ियां नहीं थी उनमें। कलाईयों में जगह जगह ज़ख़्म थे जहां से खून रिसा हुआ नज़र आया। ये सब देख कर मेरी रूह कांप गई। अपनी भाभी का ये रूप देख कर मुझसे बर्दास्त न हुआ। मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गईं और आंखों से आंसू बह चले।

"तुमने तो कहा था कि अब कभी मेरी जिंदगी में कोई दुख नहीं आएगा।" भाभी ने रूंधे हुए गले से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और ये भी कि मेरी आंखें अब कभी आंसू नहीं बहाएंगी तो फिर ये सब क्या है वैभव? आख़िर क्यों तुम्हारा कहा गया सब कुछ झूठ में बदल गया?"

इसके आगे भाभी से कुछ भी न बोला गया और वो फूट फूट कर रो पड़ीं। मुझसे अपनी जगह पर खड़े ना रहा गया तो मैं भाग कर उनके पास पहुंचा और उन्हें पकड़ कर अपने सीने से छुपका लिया। उनकी पीड़ा और उनके दर्द का मुझे बखूबी एहसास था। मुझे अच्छी तरह समझ आ रहा था कि इस वक्त उनके दिल पर किस बेदर्दी के साथ वज्रपात हो रहा था।

मैंने उन्हें अपने सीने से क्या छुपकाया वो तो और भी जोरों से रोने लगीं। काश! मेरे अख़्तियार में होता तो पलक झपकते ही उनके हर दुख दर्द को दूर कर देता मगर हाय रे नसीब, कुछ भी तो नहीं था मेरे बस में। पहली बार मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे इस दुनिया में सबसे ज़्यादा बेबस और लाचार सिर्फ मैं ही हूं।

"मत रोइए भाभी।" मैंने दुखी भाव से उन्हें चुप कराने की कोशिश की____"मुझे आपकी तकलीफ़ का बखूबी एहसास है। मैं जानता हूं कि ऊपर वाले ने आपको ऐसा दुख दे दिया है जो ताउम्र आपको चैन से जीने नहीं देगा।"

"अब जीने की ख़्वाहिश ही कहां है वैभव?" भाभी ने रोते हुए कहा____"ऐसी ज़िंदगी जीने से बेहतर है कि अब मौत आ जाए मुझे।"

"ऐसा मत कहिए भाभी।" मैंने उन्हें और ज़ोर से छुपका लिया, फिर बोला____"जीने मरने की बातें मत कीजिए। मैं जानता हूं कि ऐसे दुख के साथ ज़िंदगी जीना बहुत मुश्किल होता है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि खुद की जान ही ले ली जाए। आप कभी भी ऐसे ख़याल अपने ज़हन में मत लाइएगा, आपको मेरी क़सम है।"

"ऊपर वाले की तरह तुम भी बहुत ज़ालिम हो वैभव।" भाभी ने सिसकते हुए कहा____"अपनी क़सम में बांध कर मुझे ऐसी ज़िंदगी जीने पर मजबूर कर रहे हो जिसमें दुख और तकलीफ़ के सिवा कुछ भी नहीं है।"

"मैं आपकी ज़िंदगी में दुख और तकलीफ़ को कभी आने नहीं दूंगा भाभी।" मैंने उन्हें खुद से अलग करते हुए कहा____"आपकी तरफ आने वाले हर दुख दर्द को पहले मेरा सामना करना पड़ेगा। मैं दुनिया के कोने कोने से ढूंढ कर आपके लिए खुशियां लाऊंगा भाभी।"

"पहले भी तुमने ऐसे ही झूठे दिलासे दिए थे मुझे।" भाभी की आंखें छलक पड़ीं, मेरी तरफ देखते हुए करुण भाव से बोलीं____"और अब फिर से वैसा ही झूठा दिलासा दे रहे हो। मैं कोई बच्ची नहीं हूं वैभव जिसे तुम ऐसी बातों से बहला देना चाहते हो। सच तो ये है कि अब दुनिया में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं रहा जिससे मुझे खुशी मिल सकेगी। एक औरत के जीवन में उसके पति के बिना कहीं कोई खुशी नहीं होती। पति के बिना दुनिया की अपार दौलत, बेपनाह ऐशो आराम कुछ भी मायने नहीं रखता। औरत का पति चाहे कितना ही ग़रीब और लाचार क्यों न हो लेकिन औरत को कहीं न कहीं इस बात की खुशी तो रहती है कि वो सुहागन है। वो ऐसी अभागन और विधवा तो नहीं है जिसके लिए उसे हर रोज़ दुनिया वालों की ऐसी बातें सुनने को मिलेंगी जो बातें किसी नश्तर की तरह उसके दिल को ही नहीं बल्कि उसकी अंतरात्मा तक को छलनी कर देंगी।"

भाभी की बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। उन्होंने एक ऐसा सच कहा था जिसे कोई झुठला नहीं सकता था। सच ही तो था कि एक औरत अपने पति के रहने पर ही सच्चे दिल से खुश रह सकती है।

"मैं ये सब समझता हूं भाभी।" मैंने गंभीरता से कहा____"लेकिन इस सबके बावजूद इंसान को अपने दुख दर्द को जज़्ब कर के आगे बढ़ना ही होता है और अपनों की खुशी के लिए खुश रहने का दिखावा करना ही पड़ता है।"

"नहीं, अब मुझमें ऐसी हिम्मत नहीं है।" भाभी एक बार फिर से रो पड़ीं____"और ना ही ऐसी कोई ख़्वाइश है। अब तो बस यही मन करता है कि मौत आ जाए और मैं जल्दी से तुम्हारे भैया के पास पहुंच जाऊं।"

"भगवान के लिए भाभी ऐसा मत कहिए।" मैंने घबरा कर उनके हाथ थाम लिए, फिर कहा____"आपको मेरी क़सम है, आप मरने वाली बातें मत कीजिएगा कभी। क्या भैया ही आपके लिए सब कुछ थे? क्या आपके लिए हम में से कोई मायने नहीं रखता? क्या आपके दिल में हमारे लिए कुछ नहीं है?"

"मैं क्या करूं वैभव?" भाभी फफक कर रो पड़ीं____"मैंने कभी अपनी ज़िंदगी में किसी का बुरा नहीं चाहा। सच्चे मन से हमेशा ऊपर वाले की पूजा आराधना की है इसके बावजूद उस विधाता ने मुझसे मेरा सब कुछ छीन लिया। क्या उस विधाता को मुझ पर ज़रा भी तरस नहीं आया?"

भाभी कहने के साथ ही फूट फूट कर रो पड़ीं। मुझसे उनका यूं रोना देखा नहीं जा रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें कैसे शांत करूं और किस तरह से उन्हें समझाऊं? उनके मुख से मरने की बातें सुन कर मैं अंदर से बुरी तरह घबरा भी गया था। मैं समझ सकता था कि जो दुख तकलीफ़ उन्हें मिली थी उससे उनकी अंतरात्मा तक दुखी हो चुकी है जिसके चलते वो अब जीने मरने की बातें करने लगीं हैं। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर सच में उन्होंने ऐसा कोई क़दम उठा लिया तो क्या होगा? ये सोच कर ही मेरी रूह कांप उठी।

मैंने भाभी को किसी तरह शांत किया और उन्हें उनके कमरे में ले आया। पलंग पर मैंने उन्हें बैठाया और फिर दरवाज़े के पास आ कर कुसुम को आवाज़ लगाई। मेरे आवाज़ देने पर कुसुम अपने कमरे से निकल कर भागती हुई मेरे पास आई। मैंने उसे भाभी के पास रहने को कहा और साथ ही ये भी कहा कि वो भाभी को किसी भी हाल में अकेला न छोड़े। कुसुम ने हां में सिर हिलाया और भाभी के कमरे में दाखिल हो गई। मैंने भाभी को ज़बरदस्ती आराम करने को कहा और बाहर निकल कर नीचे की तरफ चल पड़ा।


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कहानी का ये अपडेट मैंने लिख लिया था इस लिए पोस्ट कर दिया है मगर अब इस कहानी में कोई अपडेट नहीं आएगा। ये कहानी भी अब ठंडे बस्ते में चली जाएगी और इसका जिम्मेदार लेखक नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ रीडर्स हैं।:declare:

अलविदा :ciao:
Vaibhav ke parivar pe jo gujri he wo behad dukhi ghatna he par use aage badhane ke alawa aur koi option nshi he. Yahi niyam he yahi Satya he.
 

Thakur

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Samajh me nahi aa raha ki kya kahu kyoki mera kuch bhi kahna logo ko bahana hi lagega. :dazed:

Sanju bhaiya, pichhle mahine ek aur dukhad ghatna ho gayi. Jis ladki se meri shadi honi thi uska swargwas ho gaya. Usne suicide kar liya. Ram nauvmi ke din usne apni jeewan lila samaapt kar li. Yu to usse mujhe koi ghanisht prem nahi hua tha lekin pichhle do dhaayi mahine se daily baat cheet hoti thi to zaahir hai ek judaav aur ek lagaav ho gaya tha. Sab kahte the ki uske jaisi sanskaari, padi likhi aur shaant swabhaav wali ladki aas paas ke kisi bhi gaav me nahi thi. Do dhaayi mahine ki baat cheet me main khud bhi is baat ko samajh chuka tha aur sach kahu to sirf isi baat ka sabse zyada dukh aur malaal hai. Khair wo apne naseeb me hi nahi thi to chali gayi :dazed:

Is abhaasi duniya me koi bhi ye sochna nahi chahta ki jis tarah unki life hoti hai aur unki life me pareshaniya hoti hain usi tarah hamari bhi zindagi dukh dard aur pareshaniyo se ghiri hoti hai. Pichhle kuch saalo me hamare ghar pariwar me aur khud meri life me aisi aisi baate huyi hain ki agar koi aur hota to jane kya kar chuka hota magar main is sabke baad bhi zinda hu aur apne dard aur apne aansuo ko kisi ko bhi na dikhate huye zabardasti muskurata rahta hu. Khair chhodiye main to ab yahi dekhna chahta hu ki upar baitha vidhata mere naseeb me aur kya kya likhe baitha hai :sigh:

Logo ne kaha ki jo hota hai achhe ke liye hota hai is liye kisi cheez ke bare me itna mat socho aur aage badho to bas ab badhte ja rahe hain....Ab apne paas kaam ke siva koi kaam nahi hai. Samay nikaal kar der se hi sahi par kahaniyo me update deta rahuga. Apne dost bhaiyo se itna hi kahuga ki kahani ka aghaaz hua hai to uska der se hi sahi lekin anjaam bhi zarur hoga. Mujhe zara bhi is baat se khushi nahi milti hai ki log mere bare me galat dhardaaye bana le. Mujhe mere wakt aur halaato ne bebas kar rakha hai warna aise ruswa na hota. Bas dhairya rakhe aur viswaas rakhe.....Dhanyawad 🙏🙏
Be strong and move on bhai :sad: ye kahani mere Dil se kaafi judi aur jab November me jagtap chacha aur Abhinav ke maut ka update aya to mene padhna band kiya jo galti thi. Jo abhi aap ke sath hua he wo kisi ke sath na ho aur aapke aane wale jivan me khushiya ho aur aapko har dukh se ladne ki takat mile .
:pray:
 

Thakur

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अध्याय - 65
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अब तक....

मैंने भाभी को किसी तरह शांत किया और उन्हें उनके कमरे में ले आया। पलंग पर मैंने उन्हें बैठाया और फिर दरवाज़े के पास आ कर कुसुम को आवाज़ लगाई। मेरे आवाज़ देने पर कुसुम अपने कमरे से निकल कर भागती हुई मेरे पास आई। मैंने उसे भाभी के पास रहने को कहा और साथ ही ये भी कहा कि वो भाभी को किसी भी हाल में अकेला न छोड़े। कुसुम ने हां में सिर हिलाया और भाभी के कमरे में दाखिल हो गई। मैंने भाभी को ज़बरदस्ती आराम करने को कहा और बाहर निकल कर नीचे की तरफ चल पड़ा।

अब आगे....


शाम हो रही थी।
जगन बहुत परेशान था और साथ ही अंदर से बेहद घबराया हुआ भी था। उसे भी पता चल चुका था कि हवेली में बहुत बड़ी घटना हो गई है जिसमें मझले ठाकुर जगताप और दादा ठाकुर के बड़े बेटे अभिनव ठाकुर की हत्या कर दी गई है। दोनों चाचा भतीजे की इस तरह हत्या हो जाएगी इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। वो अच्छी तरह जानता था कि अब जो होगा वो बहुत ही भयानक होगा जिसके चलते उसकी अपनी ज़िंदगी भी ख़तरे में ही पड़ गई है। वो पिछले कई दिनों से सबसे छुपता फिर रहा था। उसे इस बात का अंदेशा ही नहीं बल्कि पूरा यकीन था कि उसकी असलियत का पता दादा ठाकुर अथवा ठाकुर वैभव सिंह को चल चुका है इस लिए अब वो उनके ख़ौफ से छुपता फिर रहा था। घर में उसकी बीवी और बच्चे बिना किसी सहारे के ही थे जिनकी अब उसे बेहद चिंता होने लगी थी।

सूरज पश्चिम दिशा में अस्त हो चुका था और हर तरफ शाम का धुंधलका छाने लगा था। जगन सबकी नज़रों से खुद को बचाते हुए उस तरफ तेज़ी से बढ़ता चला जा रहा था जिस तरफ दादा ठाकुर के आमों के बाग थे। यूं तो वहां पर जाने के लिए साफ सुथरा रास्ता था लेकिन क्योंकि उसे सबकी नज़रों से खुद को छुपाए रखना था इस लिए वो लंबा चक्कर लगाते हुए बाग़ की तरफ बढ़ रहा था। वो उस सफ़ेदपोश आदमी से मिलना चाहता था जिसके इशारों पर आज कल वो काम कर रहा था।

जगन ने उस वक्त थोड़ी राहत की सांस ली जब वो आमों के बाग़ में आ गया। यहां पर घने पेड़ पौधे थे और शाम घिर जाने की वजह से अंधेरा भी नज़र आ रहा था। ऐसे में किसी के द्वारा उसको देख लिया जाना इतना आसान नहीं था और यही उसके लिए राहत वाली बात थी। ख़ैर बाग़ में दाखिल होते ही वो सावधानी से उस तरफ बढ़ चला जिस तरफ अक्सर उसे सफ़ेदपोश मिला करता था। जल्दी ही वो उस जगह पर आ गया और हल्के अंधेरे में वो इस उम्मीद में चारो तरफ नज़रें घुमाने लगा कि शायद उसे कहीं पर वो सफ़ेदपोश व्यक्ति नज़र आ जाए लेकिन ऐसा न हुआ। जैसे जैसे समय गुज़र रहा था उसके चेहरे पर बेचैनी के साथ साथ चिंता और परेशानी भी बढ़ती जा रही थी।

काफी देर हो जाने पर भी जब जगन को वो सफ़ेदपोश कहीं नज़र ना आया तो वो हताश सा हो कर वापस चल पड़ा। इतना तो उसे भी पता था कि सफ़ेदपोश बाग़ में हर वक्त बैठा नहीं रहता था और जब भी उसे मिलना होता था तो वो अपने काले नकाबपोश व्यक्ति द्वारा उस तक ख़बर भेजवा देता था। ख़ैर निराश और परेशान हालत में जगन बाग़ से निकल कर वापस उसी रास्ते की तरफ बढ़ चला था जिस तरफ से वो आया था। अभी वो कुछ ही दूर चला था कि तभी उसे अजीब तरह की हलचल महसूस हुई जिसके चलते वो बुरी तरह डर गया। उसके दिल की धड़कनें मानों रुक ही गईं। अभी वो अपनी धड़कनों को नियंत्रित करने का प्रयास ही कर रहा था कि तभी दो तरफ से तीन आदमी लट्ठ लिए एकदम से उसके क़रीब आ गए।

तीन आदमियों को यूं किसी जिन्न की तरह अपने क़रीब प्रगट हो गया देख जगन की गांड़ फट के हाथ में आ गई। एक तो वैसे ही वो डरा हुआ था दूसरे तीन तीन लट्ठधारियों को देखते ही उसे ऐसा लगा जैसे न चाहते हुए भी उसका मूत निकल जाएगा।

"क..कौन हो तुम लोग???" फिर उसने अपनी हालत को काबू करने का प्रयास करते हुए उन तीनों को बारी बारी से देखते हुए घबरा कर पूछा।

"तुम्हारे सिर पर मंडराती हुई तुम्हारी मौत।" एक लट्ठधारी ने अजीब भाव से कहा____"आख़िर पकड़ में आ ही गया आज।"

"क..क्या मतलब??" जगन की सिट्टी पिट्टी गुम, सूखे गले को उसने अपने थूक से तर करने का प्रयास किया फिर बड़ी मुश्किल से उसके गले से आवाज़ निकली____"अ...आख़िर क..कौन हो तुम लोग, अ...और ऐसा क्यों कह रहे हो??"

जगन की बात का उनमें से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि तीनों ने पहले एक दूसरे की तरफ देखा और फिर बिजली की तरह झपट पड़े उस पर। जगन को ऐसा लगा जैसे एकदम से उसके सिर पर गाज गिर गई है। वो मारे डर के हलक फाड़ कर चिल्ला उठा था मगर तभी उनमें से एक ने उसके मुख को अपने हाथों से भींच लिया। जगन को तीनों ने पकड़ लिया था और वो उनसे छूटने के लिए जी तोड़ कोशिश करने लगा था मगर छूट नहीं पाया। उसका बुरी तरह से छटपटाना उस वक्त एकदम से शांत पड़ गया जब उनमें से एक ने उसकी आंखों के सामने तेज़ धार वाला खंज़र दिखाते हुए ये कहा था कि अब अगर चीखा चिल्लाया तो ये खंज़र हलक में घुसेड़ दूंगा।

✮✮✮✮

मैं जानता था कि ऐसे माहौल में मेरा हवेली से अकेले निकालना कहीं से भी उचित नहीं था मगर अब मैं इसका क्या करता कि मुझसे सब्र ही नहीं हो रहा था। मेरे अंदर आक्रोश, गुस्सा और बदले की आग इस क़दर तांडव सा कर रही थी जिसे काबू में रख पाना अब मेरे बस में नहीं था। पिता जी ने जो पिस्तौल मुझे दिया था उसे ले कर मैं हवेली से निकल आया था और इस बात का ख़ास ध्यान रखा था कि किसी की नज़र मुझ पर न पड़े। शाम का अंधेरा मेरे लिए बेहद उपयोगी साबित हुआ था जिसके चलते हवेली से बाहर निकल आने में मुझे कोई समस्या नहीं हुई थी।

मैं एक गमछा ले रखा था जिससे मैंने अपना चेहरा ढंक लिया था और पैदल ही चलते हुए उस तरफ आ गया था जहां से एक रास्ता नदी की तरफ जाता था। यहां पर रुक कर अभी मैं इधर उधर देखने ही लगा था कि तभी मेरी नज़र एक साए पर पड़ी। साए को देख कर मेरे जबड़े भिंच गए और साथ ही मेरे अंदर गुस्से में इज़ाफा होने लगा। मैं अपनी जगह पर बेख़ौफ खड़ा उस साए को देख ही रहा था कि तभी मैं हल्के से चौंका। ऐसा इस लिए क्योंकि साया मुझे देखने के बाद भी नहीं रुका था और मेरी ही तरफ बढ़ा चला आ रहा था। अंधेरा इतना भी नहीं था कि कुछ दूरी का दिखे ही नहीं। जल्दी ही वो साया मेरे क़रीब आ गया।

"नमस्ते छोटे कुंवर।" वो साया मेरे पास आते ही अदब से बोला तो मैं उसे पहचान गया। वो मेरा ही ख़बरी था। उसके नमस्ते कहने पर मैंने हल्के से सिर हिलाया और फिर कहा____"इस तरह कहां घूमते फिर रहे हो तुम?"

"आपके ही काम में लगा हुआ था कुंवर।" उस व्यक्ति ने कहा जिसका नाम मंगू था____"और एक अच्छी ख़बर देने के लिए आपके ही पास हवेली आ रहा था कि आप यहीं मिल गए मुझे।"

"कैसी ख़बर की बात कर रहे हो तुम?" मैंने सपाट लहजे में उससे पूछा तो उसने कहा____"आपके कहने पर हम लोग मुरारी के छोटे भाई जगन की खोजबीन में लगे हुए थे।"

"तो क्या मिल गया वो?" मैं उत्सुकता और उत्तेजना के चलते पूछ बैठा।
"हां कुंवर।" मंगू ने गर्मजोशी से कहा____"अभी कुछ देर पहले ही हमने उसे पकड़ा है। हालाकि ये बड़े ही इत्तेफ़ाक से हुआ है लेकिन आख़िर वो मिल ही गया हमें।"

"तो कहां हैं वो?" जगन मिल ही नहीं गया है बल्कि पकड़ में भी आ गया है इस बात ने मेरे अंदर एक अलग ही जोश भर दिया था और गुस्सा भी। मैं अपनी मुट्ठी में उसकी गर्दन दबोचने के लिए जैसे मचल ही उठा।

"आपके आमों वाले बाग़ में जो मकान है न।" मंगू ने जवाब दिया____"हमने उसे वहीं पर पकड़ कर रखा है। संपत और दयाल उसके पास वहीं पर हैं जबकि मैं इस बात की सूचना देने के लिए हवेली जा रहा था कि आप यहीं मिल गए मुझे।"

मंगू की बात सुन कर मेरे होठों पर ज़हरीली मुस्कान उभर आई। मैंने उसे चलने का इशारा किया तो वो मुझे रास्ता दे कर मेरे पीछे पीछे चलने लगा। जल्दी ही मैं मंगू के साथ अपने बाग़ वाले मकान में पहुंच गया। मैंने मंगू को रोक कर उसे एक काम सौंपा और जल्द से जल्द आने को कहा तो वो फ़ौरन ही पलट कर चला गया। उसके जाने के बाद मैं मकान के अंदर दाखिल हो गया। अंदर मुझे हल्का उजाला नज़र आया। मैं समझ गया कि संपत और दयाल ने शायद चिमनी जला रखी है।

कुछ ही पलों में मैं उस कमरे में दाखिल हुआ जिसमें संपत और दयाल जगन को कैद किए मौजूद थे। जगन की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी तो भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। मारे ख़ौफ के वो जूड़ी के मरीज़ की तरह कांपने लगा। संपत और दयाल ने उसे रस्सियों में बांध दिया था जिसके चलते वो कहीं भाग नहीं सकता था। उसे देखते ही मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी सा धधक उठा जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से शांत करने की कोशिश की।

"म..मुझे म..माफ़ कर दो वैभव।" मैं जैसे ही उसके क़रीब पहुंचा तो जगन ने भयभीत हो कर ये कहा। उसके मुख से जैसे ही मैंने ये सुना तो मुझे एकदम से गुस्सा आ गया और मैंने खींच के एक थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया जिससे वो वहीं उलट गया।

"वैभव नहीं।" मैंने उसको गिरेबान से पकड़ कर उठाते हुए गुस्से में कहा____"छोटे ठाकुर बोल, छोटे ठाकुर। वैभव कहने का अधिकार खो दिया है तूने।"

मेरे ख़तरनाक तेवर देख जगन की हालत और भी ख़राब हो गई। उसके मुख से कोई आवाज़ न निकली। तभी मैंने देखा कि मारे दहशत के उसका पेशाब छूट गया। कमरे के फर्श पर उसका पेशाब फैलता जा रहा था। ये देख मुझे उसके ऊपर और भी गुस्सा आ गया।

"अभी तो पेशाब ही निकला है तेरा।" मैं उसे छोड़ कर उससे दूर हटते हुए बोला____"जल्दी ही तेरी गांड़ से टट्टी भी इसी तरह निकलेगी। मन तो करता है कि इसी वक्त तेरी जान ले लूं मगर नहीं उससे पहले तू किसी रट्टू तोते की तरह वो सब बताएगा जो जो तूने कुकर्म किए हैं।"

इससे पहले कि वो कुछ बोलता मैं पलटा और संपत तथा दयाल की तरफ देखते हुए कहा___"मंगू के आने के बाद इसे घसीटते हुए इसके गांव ले चलना और हां इस बात की ज़रा भी परवाह मत करना कि घसीटने की वजह से इसकी क्या दुर्गति हो जाएगी।"

ये कह कर मैं बाहर आ गया। असल में मुझे इतना गुस्सा आया हुआ था कि मैं जगन के साथ कुछ भी बुरा कर सकता था जबकि फिलहाल उसका ज़िंदा रहना ज़रूरी था। बाहर आ कर मैं लकड़ी के एक छोटे से तख्त पर बैठ गया और मंगू के आने का इंतजार करने लगा। क़रीब बीस मिनट बाद मंगू आया जोकि भुवन के साथ उसकी मोटर साईकिल पर ही था। भुवन ने मुझे अदब से सलाम किया तो मैंने उसे चलने का इशारा किया और मंगू को पीछे आने को कहा।

✮✮✮✮

सरोज काकी गुमसुम सी बैठी हुई थी। उसके मन मस्तिष्क में हवेली में हुई घटना से संबंधित ही बातें चल रहीं थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि हवेली में इतनी बड़ी घटना घट गई है। जब से उसने इस घटना के बारे में सुना था तब से उसके मन में सोच विचार चालू था। यही हाल उसकी बेटी अनुराधा का भी था, बल्कि अगर ये कहा जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा कि उसका तो बुरा ही हाल था। ये अलग बात है कि वो अपने हाल को दिल के हाल की ही तरह अपनी मां को ज़ाहिर नहीं होने दे रही थी।

"ऐसे कब तक बैठी रहेगी मां?" अनुराधा ने उदास भाव से अपनी मां की तरफ देखते हुए पूछा____"खाना नहीं बनाएगी क्या? अनूप कई बार कह चुका है कि उसे भूख लगी है।"

"उसके लिए तू ही कुछ बना दे अनु।" सरोज ने बुझे बन से कहा____"और अपने लिए भी। मुझे तो बिल्कुल ही भूख नहीं है।"

अपनी मां की बात सुन कर अनुराधा ने मन ही मन कहा____'भूख तो मुझे भी नहीं है मां।' और फिर वो अनमने भाव से रसोई की तरफ बढ़ गई। एक चिमनी आंगन में उजाला करने के लिए जल रही थी जबकि दूसरी चिमनी ले कर अनुराधा रसोई में चली गई। उसका छोटा भाई अनूप अपनी मां के पास ही एक खिलौना लिए बैठा था।

सरोज के ज़हन से हवेली की घटना जा ही नहीं रही थी। बार बार उसके ख़्यालों में वैभव भी आ जाता था जिसके बारे में सोच कर उसे बड़ा दुख हो रह था। अभी वो ये सब सोच ही रही थी कि तभी घर के बाहर किसी वाहन की आवाज़ उसे सुनाई दी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई वाहन उसके घर के बाहर ही आ कर रुक गया है। शाम के वक्त किसी वाहन के बारे में सोच सरोज को थोड़ा अजीब सा लगा क्योंकि उसके मन में हवेली की घटना भी चल रही थी। सरोज के अंदर एक भय सा पैदा हो गया। एक तो वैसे भी उसका घर गांव से बाहर एकांत में बना हुआ था इस लिए अगर कोई ऐसी वैसी बात हो जाती तो उसकी मदद के लिए कोई आ भी नहीं सकता था।

सरोज फ़ौरन ही उठ कर खड़ी हो गई और बाहर वाले किवाड़ को देखने लगी। उसके मन में तरह तरह के ख़याल आने लगे थे। तभी किसी ने बाहर वाला किवाड़ बजाया तो सरोज एकदम से घबरा गई। उसे समझ न आया कि शाम के इस वक्त कौन आया होगा? किवाड़ बजाने की आवाज़ रसोई तक भी गई थी जिसे अनुराधा ने भी सुन लिया था।

"बाहर कोई आया है क्या मां?" अनुराधा ने रसोई के अंदर से ही पूछा।
"लगता तो ऐसा ही है अनु।" सरोज ने अपनी घबराहट को छुपाते हुए कहा____"रुक देखती हूं कौन है बाहर। तू रसोई में ही रह।"

कहने के साथ ही सरोज दरवाज़े की तरफ बढ़ चली। धड़कते दिल के साथ अभी वो कुछ ही क़दम चली थी कि किवाड़ फिर से बजाया गया और साथ ही एक मर्दाना आवाज़ भी आई। सरोज ने महसूस किया कि आवाज़ जानी पहचानी है लेकिन किसकी है ये उसे ध्यान में नहीं आ रहा था। ख़ैर कुछ ही देर में उसने जा कर दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर भुवन खड़ा था और साथ ही उसके पीछे कुछ और भी लोग थे।

"तुम भुवन हो ना?" सरोज ने भुवन को देखते हुए पूछा तो भुवन ने हां में सिर हिलाते हुए कहा____"हां काकी मैं भुवन ही हूं। वो बात ये है कि छोटे ठाकुर आए हैं।"

"क..क्या तुम वैभव की बात कर रहे हो बेटा?" सरोज को जैसे यकीन ही न हुआ था। उसके पूछने पर भुवन ने एक बार फिर से हां में सिर हिलाया और एक तरफ हट गया। वो जैसे ही हटा तो सरोज की नज़र कुछ ही दूरी पर खड़ी मोटर साईकिल पर पड़ी जिसमें मैं बैठा हुआ था।

"तुम वहां क्यों बैठे हो वैभव बेटा?" सरोज ने व्याकुल भाव से कहा____"अंदर आओ न।"
"नहीं काकी।" मैंने कहा____"मैं यहीं पर ठीक हूं। असल में इस वक्त मेरे यहां आने की एक ख़ास वजह है।"

"कोई भी वजह हो।" सरोज ने कहा____"मुझे इससे मतलब नहीं है। तुम बस अंदर आओ।"
"ज़िद मत करो काकी।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मैंने कहा न कि मैं यहीं पर ठीक हूं। ख़ैर मैं तुम्हें ये बताने आया हूं कि जिसने मुरारी काका की हत्या की थी उसे पकड़ लिया है मैंने और उसको ले कर आया हूं।"

मेरी बात सुनते ही सरोज काकी एकदम बुत सी बनी खड़ी रह गई। मैं समझ सकता था कि ये बात सुनते ही उसके अंदर भीषण हलचल सी मच गई होगी। अभी मैं उसके मुख से कुछ सुनने का इंतज़ार ही कर रहा था कि तभी मेरी नज़र उसके पीछे अभी अभी आई अनुराधा पर पड़ी। अपनी मां के पीछे खड़ी वो एकटक मुझे ही देखने लगी थी। इधर उसको देखते ही मेरे दिल की धड़कनें एकाएक ही तेज़ हो गईं। मैंने महसूस किया कि वो मुझसे अपनी नज़रें नहीं हटा रही है। आम तौर पर पहले ऐसा नहीं होता था। यानि इसके पहले जब भी हमारी नज़रें आपस में मिलती थीं तो वो अपनी नज़रें झुका लेती थी जबकि इस वक्त वो बिना पलकें झपकाए मुझे ही देखे जा रही थी। उसके चेहरे पर ज़माने भर की उदासी और दुख संताप नज़र आया मुझे।

"य..ये तुम क्या कह रहे हो बेटा?" तभी सरोज ने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा____"क्या सच में तुम मेरे मरद के हत्यारे को पकड़ कर साथ ले आए हो?"

"मैंने तुमसे वादा किया था न काकी कि मुरारी काका के हत्यारे को एक दिन ज़रूर तुम्हारे सामने ले कर आऊंगा।" मैंने अनुराधा से नज़र हटा कर कहा____"इस लिए आज मैं उसे ले कर आया हूं। मुझे यकीन है कि हत्यारे की शकल देखने के बाद तुम्हें उसके द्वारा की गई जघन्य हत्या पर भरोसा नहीं होगा लेकिन सच तो सच ही होता है न। एक और बात, ये वो हत्यारा है जिसने मुरारी काका की हत्या तो की ही साथ में इसने हवेली के साथ भी गद्दारी की है। ऐसे व्यक्ति को ज़िंदा रहने का अब कोई हक़ नहीं है।"

मेरी बातें सुन कर सरोज काकी हैरत से देखती रह गई मेरी तरफ। मेरी नज़र एक बार फिर से उसके पीछे खड़ी अनुराधा पर पड़ी। वो अब भी मुझे ही देखे जा रही थी। ऐसा लग रहा था मानों उसने मुझे कभी देखा ही न रहा हो।

तभी वातावरण में कुछ आवाज़ें सुनाई दी तो हम सबका ध्यान उस तरफ गया। संपत, दयाल और मंगू घसीटते हुए जगन को लाते नज़र आए। जब वो क़रीब आ गए तो मैने देखा जगन के कपड़े जगह जगह से फट गए थे। मैं समझ गया कि उसकी हालत ख़राब है।

"रहम छोटे ठाकुर रहम।" जगन की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी तो वो हांफते हुए और दर्द से कराहते हुए बोल पड़ा।

"क्या तुम्हें लगता है कि तुम रहम के क़ाबिल हो?" मैंने कहने के साथ ही सरोज की तरफ देखा और फिर कहा____"काकी, मिलो अपने पति के हत्यारे से। इसी ने अपने बड़े भाई की हत्या की थी, और जानती हो क्यों? क्योंकि इसे अपने भाई की ज़मीन जायदाद को हड़पना था।"

मेरी बात सुनते ही सरोज काकी को मानो होश आया। अनुराधा भी बुरी तरह सन्नाटे में आ गई थी। दोनों मां बेटी जगन को ऐसे देखने लगीं थी मानो वो कोई भूत हो। तभी अचानक सरोज काकी को जाने क्या हुआ कि वो तेज़ी से बाहर निकली और जगन के क़रीब आ कर उसे मारते हुए चीख पड़ी_____"तुमने मेरे मरद की जान ली कमीने? अपने भाई की हत्या करते हुए क्या तेरे हाथ नही कांपे? हत्यारे पापी, मेरी मांग का सिंदूर मिटाने वाले मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगी।"

सरोज काकी जाने क्या क्या कहते हुए जगन को मारे जा रही थी। उधर जगन जो पहले से ही बुरी हालत में था वो और भी दर्द से कराहने लगा था। अनुराधा अपनी जगह पर खड़ी आंसू बहा रही थी। मैंने भुवन को इशारा किया तो भुवन ने आगे बढ़ कर सरोज काकी को जगन से दूर कर दिया। भुवन के दूर कर देने पर भी सरोज काकी मचलती रही।

"मुझे छोड़ दो भुवन।" काकी रोते हुए चीखी____"मैं इस हत्यारे की जान लेना चाहती हूं। इसने मेरे मासूम से बच्चों को अनाथ कर दिया है। मैं भी इसकी हत्या कर के इसके बच्चों को अनाथ कर देना चाहती हूं। फिर देखूंगी कि इसकी बीवी पर क्या गुज़रती है?"

"शांत हो जाओ काकी।" मैंने कहा____"इसने जो किया है उसकी सज़ा तो इसे ज़रूर मिलेगी लेकिन यहां नहीं बल्कि हवेली में। इसने हमारे दुश्मनों के साथ मिल कर हमारे साथ भी खेल खेला है। इस लिए इसके कुकर्मों का हिसाब हवेली में ही होगा।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भौजी।" जगन ने रोते हुए कहा____"मैं वो सब करने के लिए मजबूर हो गया था। कर्ज़ के चलते मेरी सारी ज़मीनें गिरवी हो गईं थी। एक एक पाई के लिए मोहताज हो गया था मैं। चार चार बच्चों के साथ अपना पेट भरना बहुत मुश्किल हो गया था। भैया को बता भी नहीं सकता था कि कर्ज़ के चलते सारी ज़मीनें मैंने गिरवी रख दी हैं। अगर भैया को पता चलता तो वो बहुत गुस्सा होते। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? फिर एक दिन एक अजीब सा आदमी मिला जिसने मुझे इन सारी परेशानियों से मुक्त होने का उपाय बताया। मैं अपनी परेशानियों से मुक्त तो होना चाहता था लेकिन अपने भाई की जान की कीमत पर नहीं। मैंने बहुत सोचा लेकिन इसके अलावा दूसरा कोई चारा नज़र नहीं आया। कहीं और से कोई कर्ज़ भी नहीं मिल रहा था। गांव के बड़े लोग कर्ज़ देने से मना कर चुके थे, देते भी कैसे? मेरे पास तो अब ज़मीनें भी नहीं बची थीं जिससे वो अपनी वसूली कर लेते। मजबूर हो कर मुझे उस अजीब आदमी की बात माननी ही पड़ी। उसने बताया कि ऐसा करने से मेरे सारे दुख दूर हो जाएंगे और साथ ही अपने भाई की हत्या करने से भी मुझे कुछ नहीं होगा। क्योंकि भैया की हत्या का इल्ज़ाम छोटे ठाकुर पर लगा दिया जाता।"

"नीच इंसान।" सरोज काकी जगन को मारने के लिए झपटी ही थी कि भुवन ने उसे पकड़ लिया, जबकि वो मचलते हुए बोली____"मुझे छोड़ो भुवन, मैं इस हत्यारे की जान ले लेना चाहती हूं। इसने अपने भले के लिए मेरा सब कुछ बर्बाद कर दिया है।"

"इसके गंदे खून से अपने हाथ मैले मत करो काकी।" मैंने कठोरता से कहा____"इसने जो किया है उसकी सज़ा इसे हवेली में मिलेगी। ख़ैर, मैंने अपना वादा पूरा कर दिया है काकी। तुमसे बस इतना ही कहूंगा कि आज कल हालात बहुत ख़राब हैं इस लिए बेवक्त घर से बाहर मत निकलना। बाकी तुम्हारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भुवन है। ये तुम सबका ध्यान रखेगा। अच्छा अब चलता हूं, अपना ख़याल रखना।"

कहने के साथ ही मैंने अनुराधा की तरफ देखा तो पाया कि वो मुझे ही देख रही थी। उसकी आंखों में आसूं थे और चेहरे पर ज़माने भर का दर्द। ऐसा लगा जैसे वो मुझसे बहुत कुछ कहना चाहती है मगर अपनी बेबसी के चलते वो चुप थी। मैंने उससे नज़रें हटा ली और भुवन को चलने का इशारा किया।

कुछ ही पलों में हमारा काफ़िला फिर से चल पड़ा लेकिन इस बार ये काफ़िला हवेली की तरफ चल पड़ा था। संपत, दयाल और मंगू जगन को घसीटते हुए फिर से ले चले थे। जगन की हालत बेहद ख़राब थी। उसके पैरों में अब मानों जान ही नहीं थी। वो लड़खड़ाते हुए चल रहा था। कभी कभी वो गिर भी जाता था जिससे तीनों उसे घसीटने लगते थे। कच्ची मिट्टी पर जब शरीर रगड़ खाता तो वो दर्द से चिल्लाने लगता था और फिर जल्दी ही उठने की कोशिश करता। मैंने मंगू से कह दिया था कि अब उसे ज़्यादा मत घसीटे क्योंकि ऐसे में उसकी जान भी जा सकती थी। फिलहाल उसका ज़िंदा रहना ज़रूरी था। उससे बहुत कुछ जानना शेष था।


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Jagan ka pakda jana ek shuruaat he aur ant ho hoga sahukaron ka wo dardnak he hoga
 

Thakur

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अध्याय - 66
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अब तक....

कुछ ही पलों में हमारा काफ़िला फिर से चल पड़ा लेकिन इस बार ये काफ़िला हवेली की तरफ चल पड़ा था। संपत, दयाल और मंगू जगन को घसीटते हुए फिर से ले चले थे। जगन की हालत बेहद ख़राब थी। उसके पैरों में अब मानों जान ही नहीं थी। वो लड़खड़ाते हुए चल रहा था। कभी कभी वो गिर भी जाता था जिससे तीनों उसे घसीटने लगते थे। कच्ची मिट्टी पर जब शरीर रगड़ खाता तो वो दर्द से चिल्लाने लगता था और फिर जल्दी ही उठने की कोशिश करता। मैंने मंगू से कह दिया था कि अब उसे ज़्यादा मत घसीटे क्योंकि ऐसे में उसकी जान भी जा सकती थी। फिलहाल उसका ज़िंदा रहना ज़रूरी था। उससे बहुत कुछ जानना शेष था।

अब आगे....

हवेली में उस वक्त सन्नाटा सा गया जब पता चला कि वैभव अपने कमरे में नहीं है। सब के सब बदहवास से हो कर पूरी हवेली में वैभव को खोजने लगे। जब वो कहीं न मिला तो सबके सब सन्नाटे में आ गए। एक तो वैसे ही घर के दो दो अज़ीज़ व्यक्तियों की दुश्मनों ने हत्या कर दी थी जिसका दुख और ज़ख्म अभी पूरी तरह ताज़ा ही था दूसरे अब वैभव का इस तरह से ग़ायब हो जाना मानों सबकी जान हलक में अटका देने के लिए काफी था।

बात दादा ठाकुर के संज्ञान में आई तो वो भी सदमे जैसी हालत में आ गए। उनका मित्र अर्जुन सिंह और समधी बलभद्र सिंह उनके साथ ही बैठक में बैठे हुए थे। वो तीनों भी वैभव के इस तरह हवेली से ग़ायब होने की बात सुन कर सकते में आ गए थे। हवेली की औरतों का एक बार फिर से रोना धोना शुरू हो गया था। हवेली की ठकुराईन सुगंधा देवी रोते बिलखते हुए बैठक में आईं और दादा ठाकुर के सामने आ कर उन्हें इस तरह से देखने लगीं जैसे पल भर वो उन्हें भस्म कर देंगी।

"आप यहां अपने ऊंचे सिंहासन पर बैठे हुए हैं और मेरा बेटा हवेली से ग़ायब है।" सुगंधा देवी गुस्से में चीख ही पड़ीं____"एक बात कान खोल कर सुन लीजिए ठाकुर साहब अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। आपकी इस हवेली को आग लगा दूंगी मैं और उसी आग में खुद भी जल कर ख़ाक हो जाऊंगी। उसके बाद आप शान से जीते रहना।"

"शांत हो जाएं ठकुराईन।" अर्जुन सिंह ने बड़ी नम्रता से कहा____"आपके बेटे को कुछ नहीं होगा। दुनिया का कोई भी माई का लाल आपके बेटे को हानि नहीं पहुंचा सकता। अरे! आपका बेटा शेर है शेर। वो ज़रूर यहीं कहीं आस पास ही होगा। थोड़ी देर में आ जाएगा। बस आप धीरज से काम लीजिए और ठाकुर साहब को कुछ मत कहिए। ये वैसे ही बहुत दुखी हैं।"

"अगर ये सच में दुखी होते।" सुगंधा देवी ने उसी तरह चीखते हुए कहा____"तो इस वक्त ये अपने बेटे की ग़ायब होने वाली बात सुन कर यूं चुप चाप बैठे न होते। दुश्मनों ने इनके भाई और इनके बेटे को मार डाला और ये ख़ामोशी से अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। मैं हमेशा ये सोच कर खुश हुआ करती थी कि ये अपने पिता की तरह गुस्सैल और खूंखार स्वभाव के नहीं हैं लेकिन आज प्रतीत होता है कि इन्हें अपने पिता की तरह ही होना चाहिए था। आज मुझे महसूस हो रहा है कि ठाकुर खानदान का खून इनकी तरह ठंडा नहीं होना चाहिए जो अपने घर के दो दो सदस्यों की हत्या होने के बाद भी न खौले और अपने दुश्मनों का नामो निशान मिटा देने की क्षमता भी न रखे।"

"ये आप क्या कह रही हैं ठकुराईन?" अर्जुन सिंह सुगंधा देवी के तेवर देख पहले ही हैरान परेशान था और अब ऐसी बातें सुन कर आश्चर्य में भी पड़ गया था, बोला____"कृपया शांत हो जाइए और भगवान के लिए ऐसी बातें मत कीजिए।"

"कैसे मित्र हैं आप?" सुगंधा देवी अर्जुन सिंह से मुखातिब हुईं_____"कि इतना कुछ होने के बाद भी आप शांति की बातें कर रहे हैं। शायद आपका खून भी इनकी तरह ही ठंडा पड़ चुका है। अपने आपको दादा ठाकुर और ठाकुर साहब कहलवाने वाले दो ऐसे कायरों को देख रही हूं जो दुश्मनों के ख़ौफ से औरतों की तरह घर में दुबके हुए बैठे हैं। धिक्कार है ठाकुरों के ऐसे ठंडे खून पर।"

"समधन जी।" बलभद्र सिंह ने हिचकिचाते हुए कहा____"हम आपकी मनोदशा को अच्छी तरह समझते हैं किंतु ठाकुर साहब के लिए आपका ये सब कहना बिल्कुल भी उचित नहीं है। आवेश और गुस्से में आप क्या क्या बोले जा रही हैं इसका आपको ख़ुद ही अंदाज़ा नहीं है। देखिए, हम आपकी बेहद इज्ज़त करते हैं और यही चाहते हैं कि ऐसे अवसर पर आप संयम से काम लें। एक बात आप अच्छी तरह जान लीजिए कि ये जो कुछ भी हुआ है उसका बदला ज़रूर लिया जाएगा। हत्यारे ज़्यादा दिनों तक इस दुनिया में जी नहीं पाएंगे।"

"क्या कर लेंगे ये?" सुगंधा देवी का गुस्सा मानों अभी भी शांत नहीं हुआ था, बोलीं____"सच तो ये है कि ये हत्यारों का कुछ बिगाड़ ही नहीं पाएंगे समधी जी। अरे! इन्हें तो ये तक पता नहीं है कि इनके अपनों की हत्या करने वाले आख़िर हैं कौन? आपको अभी यहां के हालातों के बारे में पता नहीं है। ये जो आस पास के गावों का फ़ैसला करते हैं न इन्हें खुद नहीं पता कि हवेली और हवेली में रहने वालों पर इस तरह का संकट पैदा करने वाला कौन है? आप खुद सोचिए कि जब इन्हें कुछ पता ही नहीं है तो ये आख़िर क्या कर लेंगे किसी का? अभी दो लोगों की हत्या की है हत्यारों ने आगे बाकियों की भी ऐसे ही हत्या कर देंगे और ये कुछ नहीं कर सकेंगे। क्या इनके पास इस बात का कोई जवाब है कि इनके यहां बैठे रहने के बाद भी मेरा बेटा हवेली से कैसे ग़ायब हो गया? और इनके पास ही क्यों बल्कि आप दोनों के पास भी इस बात का कोई जवाब नहीं है।"

सुगंधा देवी की इन बातों को सुन कर बलभद्र सिंह को समझ ही न आया कि अब वो क्या कहें? ये सच था कि उन्हें यहां के हालातों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी किंतु जितनी भी अभी हुई थी और जो कुछ ठकुराईन द्वारा अभी उन्होंने सुना था उससे वो अवाक से रह गए थे।

"अर्जुन सिंह।" एकदम से छा गए सन्नाटे को चीरते हुए दादा ठाकुर ने अजीब भाव से कहा____"अब हम और सहन नहीं कर सकते। हम इसी वक्त अपने दुश्मनों को मिट्टी में मिलाने के लिए यहां से जाना चाहते हैं।"

"य...ये आप क्या कह रहे हैं ठाकुर साहब?" दादा ठाकुर को सिघासन से उठ गया देख अर्जुन सिंह चौंके, फिर बोले____"देखिए आवेश में आ कर आप ऐसा कोई भी क़दम उठाने के बारे में मत सोचिए। ठकुराईन की बातों से आहत हो कर आप बिना सोचे समझे कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जिससे कि बाद में आपको खुद ही पछताना पड़े।"

"हमें पछताना मंज़ूर है अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने सख़्त भाव से कहा____"लेकिन अब दुश्मनों को ज़िंदा रखना मंज़ूर नहीं है। आपकी ठकुराईन ने सच ही तो कहा है कि इतना कुछ होने के बाद भी हमारा खून नहीं खौला बल्कि बर्फ़ की मानिंद ठंडा ही पड़ा हुआ है। ऊपर से हमारे छोटे भाई और बेटे की आत्मा भी ये देख कर दुखी ही होंगी कि हम उनकी हत्या का बदला नहीं ले रहे। वो दोनों हमें माफ़ नहीं करेंगे। हमें अब मर जाना मंज़ूर है लेकिन कायरों की तरह यहां बैठे रहना हर्गिज़ मंज़ूर नहीं है।"

दादा ठाकुर की बातें सुन कर अर्जुन सिंह अभी कुछ बोलने ही वाले थे कि तभी बाहर से किसी के आने की आहट हुई और फिर चंद ही पलों में मैं बैठक के सामने आ कर खड़ा हो गया। मुझ पर नज़र पड़ते ही मां भागते हुए मेरे पास आईं और मुझे अपने सीने से छुपका कर रो पड़ीं।

"कहां चला गया था तू?" मुझे अपने कलेजे से लगाए वो रोते हुए कह रहीं थी____"तुझे हवेली में न पर कर मेरी तो जान ही निकल गई थी। तू इस तरह अपनी मां को छोड़ कर क्यों चला गया था? तुझे कुछ हुआ तो नहीं न?"

कहने के साथ ही मां ने मुझे खुद से अलग किया और फिर पागलों की तरह मेरे जिस्म के हर हिस्से को छू छू कर देखने लगीं। मां की इस हालत को देख कर मेरे दिल में बेहद पीड़ा हुई लेकिन फिर मैंने किसी तरह खुद को सम्हाला और मां से कहा____"मुझे कुछ नहीं हुआ है मां। मैं एकदम ठीक हूं, और मुझे माफ़ कर दीजिए जो मैं बिना किसी को कुछ बताए हवेली से यूं चला गया था।"

"अपने दो बेटों को खो चुकी हूं मैं।" मां की आंखें छलक पड़ीं, मेरे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों के बीच ले कर करुण स्वर में बोलीं____"अब तुझे नहीं खोना चाहती। मुझे वचन दे कि आज के बाद तू कभी भी इस तरह कहीं नहीं जाएगा।"

"ठीक है मां।" मैंने कहा____"मैं आपको वचन देता हूं। अब शांत हो जाइए और अंदर जाइए।"
"पर तू इस तरह कहां चला गया था?" मां ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"और किसी को बताया क्यों नहीं?"

मैंने मां को किसी तरह बहलाया और उन्हें अंदर भेज दिया। असल में मैं उन्हें सच नहीं बताना चाहता था वरना वो परेशान भी हो जातीं और मुझ पर गुस्सा भी करतीं।

"वैभव बेटा आख़िर ये सब क्या है?" मां के जाने के बाद अर्जुन सिंह ने मुझसे कहा____"तुम बिना किसी को कुछ बताए इस तरह कहां चले गए थे? क्या तुम्हें मौजूदा हालातों की गंभीरता का ज़रा भी एहसास नहीं है? अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो जानते हो कितना गज़ब हो जाता?"

"माफ़ कीजिए चाचा जी।" मैंने शांत भाव से कहा और फिर पिता जी से मुखातिब हुआ____"आप भी मुझे माफ़ कर दीजिए पिता जी। मैं जानता हूं कि मुझे इस तरह हवेली से बाहर नहीं जाना चाहिए था लेकिन मैं ऐसी मानसिक अवस्था में था कि खुद को रोक ही नहीं पाया। हालाकि एक तरह से ये अच्छा ही हुआ क्योंकि मेरा इस तरह से बाहर जाना बेकार नहीं गया।"

"क्या मतलब है तुम्हारा?" पिता जी ने नाराज़गी से मेरी तरफ देखा।
"असल में बात ये है कि मेरे आदमियों ने मुरारी के भाई जगन को पकड़ लिया है।" मैंने कहा____"और इस वक्त वो बाहर ही है। मेरे आदमियों के कब्जे में।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर हैरत के भाव उभर आए। उधर पिता जी ने कहा____"उसे फ़ौरन हमारे सामने ले कर आओ।"

पिता जी के कहने पर मैंने एक दरबान को भेज कर जगन को बुला लिया। जगन बुरी तरह डरा हुआ था और साथ ही उसकी हालत भी बेहद खस्ता थी। जैसे ही वो दादा ठाकुर के सामने आया तो वो और भी ज़्यादा खौफ़जदा हो गया। पिता जी ने क़हर भरी नज़रों से उसकी तरफ देखा।

"मुझे माफ़ कर दीजिए दादा ठाकुर।" जगन आगे बढ़ कर पिता जी के पैरों में ही लोट गया, फिर बोला____"मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है, मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं हर तरह से मजबूर हो गया था ये सब करने के लिए।"

"तुमने जो किया है उसके लिए तुम्हें कोई माफ़ी नहीं मिल सकती।" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"तुम्हें सज़ा तो यकीनन मिलेगी लेकिन उससे पहले हम तुमसे ये जानना चाहते हैं कि तुमने ये सब क्यों किया? किसके कहने पर किया और कैसे किया? हम सब कुछ विस्तार से जानना चाहते हैं।"

"सब मेरी बदकिस्मती का ही नतीजा है दादा ठाकुर।" जगन ने दुखी हो कर कहा____"कर्ज़ में ऐसा डूबा कि फिर कभी उबर ही नहीं सका उससे। खेत पात सब गिरवी हो गए इसके बावजूद क़र्ज़ न चुका। हालात इतने ख़राब हो गए कि परिवार का भरण पोषण करना भी मुश्किल पड़ गया। अपनी ख़राब हालत के बारे में मुरारी भैया को बता भी नहीं सकता था क्योंकि वो नाराज़ हो जाते। उनसे न जाने कितनी ही बार मदद ले चुका था मैं, इस लिए अब उनसे सहायता लेने में बेहद शर्म आ रही थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह से अपने सिर पर से कर्ज़ का बोझ हटाऊं और किस तरह से अपने परिवार का भरण पोषण करूं? दूसरी तरफ मेरा बड़ा भाई था जिसके सिर पर कर्ज़ का बोझ तो था लेकिन मेरी तरह उसकी हालत ख़राब नहीं थी। उसके पास खेत पात थे जिनसे वो अपना परिवार अच्छे से चला रहा था। सच कहूं तो ये देख कर अब मैं अपने ही भाई से ईर्ष्या के साथ साथ घृणा भी करने लगा था।"

"तो क्या इसी ईर्ष्या और घृणा की वजह से तुमने अपने भाई की हत्या कर दी थी?" पिता जी बीच में ही उसकी तरफ गुस्से से देखते हुए बोल पड़े थे।

"नहीं दादा ठाकुर।" जगन ने इंकार में सिर हिलाते हुए कहा____"ये सच है कि मैं अपने भाई से ईर्ष्या और घृणा करने लगा था लेकिन उसे जान से मार डालने के बारे में कभी नहीं सोचा था, बल्कि यही दुआ करता रहता था कि किसी वजह से उसे कुछ हो जाए ताकि उसका सब कुछ मेरा हो जाए। पर भला चमार के मनाए पड़वा थोड़ी ना मरता है, बस वही हाल था।"

"अगर ऐसी बात है।" अर्जुन सिंह ने कहा____"तो फिर अचानक से तुम्हारे मन में अपने भाई की हत्या करने का ख़याल कैसे आ गया था?"

"ये तब की बात है जब छोटे ठाकुर दादा ठाकुर के द्वारा गांव से निष्कासित किए जाने पर हमारे गांव के पास अपनी बंज़र पड़ी ज़मीन में रहते थे।" जगन ने गंभीर भाव से कहा____"इन्हें वहां पर रहते हुए काफी समय हो गया था। मैं ये भी जानता था कि मेरा भाई इनकी मदद करता था और मेरे भाई से इनके बेहतर संबंध थे जिसके चलते ये मेरे भाई के घर भी जाते रहते थे। मुझे ये देख कर भी अपने भाई से जलन होती थी कि उसके संबंध दादा ठाकुर के लड़के से थे। मैं जानता था कि उस समय भले ही छोटे ठाकुर निष्कासित किए जाने पर अपने घर से बेघर थे लेकिन एक न एक दिन तो वापस हवेली लौटेंगे ही और तब वो मेरे भाई के एहसानों का क़र्ज़ भी बेहतर तरीके से चुकाएंगे। ज़ाहिर है ऐसे में मेरे भाई की स्थिति पहले से और भी बेहतर हो जाती और मैं और भी बदतर हालत में पहुंच जाता। ये सब ऐसी बातें थी जिसके चलते मेरे मन में अपने भाई के प्रति और भी ज़्यादा जलन और नफ़रत पैदा होने लगी थी लेकिन इसके लिए मैं कुछ कर नहीं सकता था। बस अंदर ही अंदर घुट रहा था। फिर एक दिन वो हुआ जिसकी मैंने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी।"

"ऐसा क्या हुआ था?" जगन एकदम से चुप हो गया तो अर्जुन सिंह ने पूछ ही लिया____"जिसकी तुमने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी?"

"मैं बहुत ज़्यादा परेशान था।" जगन ने फिर से कहना शुरू किया____"अपने बच्चों को भूखा देख मैं उनके लिए बहुत चिंतित हो गया था। एक शाम मैं इसी परेशानी और चिंता में अपने उन खेतों में बैठा था जो गिरवी रखे हुए थे। शाम पूरी तरह से घिर चुकी थी और चारो तरफ अंधेरा फैल गया था। मैं सोचो में इतना खोया हुआ था कि मुझे इस बात का आभास ही नहीं हुआ कि एक रहस्यमय साया मेरे क़रीब जाने कहां से आ कर खड़ा हो गया था? जब उसने अपनी अजीब सी आवाज़ में मुझे पुकारा तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया और जब उस पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं बुरी तरह डर गया। मुझे समझ न आया कि आख़िर उसके जैसा व्यक्ति कौन हो सकता है और मेरे पास किस लिए आया है? मुझे लगा वो ज़रूर कोई ऐसा व्यक्ति है जिससे मैंने कर्ज़ ले रखा है और कर्ज़ न चुकाने की वजह से अब वो मेरी जान लेने आया है। ये सोच कर मैं बेहद खौफ़जदा हो गया और फ़ौरन ही उसके पैरों में पड़ कर उससे रहम की भीख मांगने लगा। तब उसने जो कहा उसे सुन कर मैं एकदम से हैरान रह गया। उसने कहा कि मुझे उससे न तो डरने की ज़रूरत है और ना ही इस तरह रहम की भीख मांगने की। बल्कि वो तो मेरे पास इस लिए आया है ताकि मेरी परेशानियों के साथ साथ मेरे हर दुख का निवारण भी कर सके। मैं सच कहता हूं दादा ठाकुर, सफ़ेद कपड़ों में ढंके उस रहस्यमय व्यक्ति की बातें सुन कर मैं बुत सा बन गया था। फिर मैंने खुद को सम्हाला और उससे पूछा कि क्या सच में वो मेरी समस्याओं का निवारण कर देगा तो जवाब में उसने कहा कि वो एक पल में मेरी हर समस्या को दूर कर देगा लेकिन बदले में मुझे भी कुछ करना पड़ेगा। इतना तो मैं भी समझ गया था कि अगर कोई व्यक्ति इस रूप में आ कर मेरी समस्याओं को दूर करने को बोल रहा है तो वो ये सब मुफ्त में तो करेगा नहीं। यानि बदले में उसे भी मुझसे कुछ न कुछ चाहिए ही था। मैं अब यही जानना चाहता था उससे कि बदले में आख़िर मुझे क्या करना होगा? तब उसने मुझसे कहा कि बदले में मुझे अपने भाई मुरारी की हत्या करनी होगी और उस हत्या का इल्ज़ाम छोटे ठाकुर पर लगाना होगा।"

जगन सांस लेने के लिए रुका तो बैठक में सन्नाटा सा छा गया। पिता जी, अर्जुन सिंह और भैया के चाचा ससुर यानि बलभद्र सिंह उसी की तरफ अपलक देखे जा रहे थे। पिता जी और अर्जुन सिंह के चेहरे पर तो सामान्य भाव ही थे किंतु बलभद्र सिंह के चेहरे कर आश्चर्य के भाव गर्दिश करते नज़र आ रहे थे। ज़ाहिर है ये सब उनके लिए नई और हैरतअंगेज बात थी।

"उस सफ़ेदपोश आदमी के मुख से ये सुन कर तो मैं सकते में ही आ गया था।" इधर जगन ने फिर से बोलना शुरू किया____"मेरी धड़कनें धाड़ धाड़ कर के मेरी कनपटियों में बजती महसूस हो रहीं थी। मेरे मुंह से कोई लफ्ज़ नहीं निकल रहे थे। फिर जैसे मुझे होश आया तो मैंने उससे कहा कि ये क्या कह रहे हैं आप? आप होश में तो हैं? तो उसने कहा कि होश में तो मुझे रहना चाहिए। सच तो ये था कि उसकी बातों से मेरे मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगे थे। उसने मुझे समझाया कि ऐसा करने से मुझ पर कभी कोई बात नहीं आएगी। जब मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है तो उसने मुझे कुछ ऐसा बताया जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसने कहा कि छोटे ठाकुर के नाजायज संबंध मेरे भाई की बीवी से हैं।"


जगन, मादरचोद ने सबके सामने मेरी इज्ज़त का जनाजा निकाल दिया था। चाचा ससुर ने जब उसके मुख से ये सुन कर मेरी तरफ हैरानी से देखा तो मेरा सिर शर्म से झुकता चला गया। ख़ैर, अब क्या ही हो सकता था।

"उस रहस्यमय व्यक्ति ने कहा कि छोटे ठाकुर के ऐसे नाजायज़ संबंध के आधार पर मुरारी की हत्या का इल्ज़ाम इन पर आसानी से लगाया जा सकता है।" उधर जगन मानों अभी भी मेरी इज्ज़त उतारने पर अमादा था, बोला____"यानि सबको ये कहानी बताई जाएगी कि छोटे ठाकुर ने मेरे भाई की हत्या इस लिए की है क्योंकि मेरे भाई को इनकी काली करतूत का पता चल गया था और वो दादा ठाकुर के पास जा कर इनकी करतूत बता कर उनसे इंसाफ़ मांगने की बात कहने लगा था। छोटे ठाकुर इस बात से डर गए और फिर इन्होंने ये सोच कर मेरे भाई की हत्या कर दी कि जब मुरारी ही नहीं रहेगा तो किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा। अपने मरद की हत्या होने के बाद सरोज भौजी को अगर ये पता भी हो जाता कि छोटे ठाकुर ने ही उसके मरद की हत्या की है तो वो इनसे कुछ कह ही नहीं सकती थी। ऐसा इस लिए क्योंकि उसके मरद की हत्या हो जाने के लिए वो खुद भी ज़िम्मेदारी ही होती और बदनामी के डर से किसी से कुछ कहती ही नहीं। सफ़ेदपोश आदमी ने जब मुझे ये सब समझाया तो मेरे कुंद पड़े ज़हन के मानों सारे कपाट एकदम से खुल गए और मुझे अच्छी तरह ये एहसास हो गया कि अगर सच में मैं अपने भाई की हत्या कर के हत्या का इल्ज़ाम छोटे ठाकुर पर लगा दूं तो यकीनन मुझ पर कभी कोई बात ही नहीं आएगी। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा करने से मेरी हर समस्या भी दूर हो जाएगी। ख़ैर, समझ तो मुझे उसी वक्त आ गया था लेकिन तभी मुझे ये भी आभास हुआ कि ऐसा करना कहीं मुझ पर ही न भारी पड़ जाए क्योंकि जिसके कहने पर मैं अपने भाई की हत्या करूंगा वो बाद में मुझे ही फंसा सकता था। मुझे तो पता भी नहीं है कि सफ़ेद कपड़ों में लिपटा वो व्यक्ति आख़िर है कौन और ये सब करवा कर वो छोटे ठाकुर को क्यों फंसाना चाहता है? मैंने उससे सोचने के लिए कुछ दिन का समय मांगा तो उसने कहा ठीक है। फिर वो ये कह कर चला गया कि मेरे पास सोचने के लिए दो दिन का वक्त है। दो दिन बाद मैं दादा ठाकुर के आमों वाले बाग में आ जाऊं क्योंकि वो मुझे वहीं मिलेगा। उसके जाने के बाद मैं घर आया और खा पी कर बिस्तर में लेट गया। बिस्तर में लेटे हुए मैं उसी के बारे में सोचे जा रहा था। रात भर मुझे नींद नहीं आई। मैंने बहुत सोचा कि वो रहस्यमय आदमी मुझसे ऐसा क्यों करवाना चाहता है लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। ऐसे ही दो दिन गुज़र गए।"

"मेरे भाई की हत्या में छोटे ठाकुर को फंसाने का मुझे एक ही मतलब समझ आया था।" कुछ पल रुकने के बाद जगन ने फिर से कहा____"मतलब कि वो रहस्यमय आदमी छोटे ठाकुर से या तो नफ़रत करता था या फिर वो इन्हें अपना दुश्मन समझता था। मुझे उस पर यकीन नहीं था इस लिए दो दिन बाद जब मैं आपके आमों वाले बाग़ में उस व्यक्ति से मिला तो मैंने उससे साफ कह दिया कि पहले वो मेरी समस्याएं दूर करे, उसके बाद ही मैं उसका काम करूंगा। हालाकि मेरे पास उसका काम करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि मैं ये भी समझ रहा था कि उसका काम अगर मैं नहीं करूंगा तो वो किसी और से करवा लेगा। यानि मेरे भाई का मरना तो अब निश्चित ही हो चुका था और यदि कोई दूसरा मेरे भाई की हत्या करेगा तो इससे मेरा ही सबसे बड़ा नुकसान होना था। मैंने यही सब सोच कर फ़ैसला कर लिया था कि जब मेरे भाई की मौत निश्चित ही हो चुकी है तो मैं ये काम करने से क्यों मना करूं? अगर मेरे ऐसा करने से मेरी सारी समस्याओं का अंत हो जाना है तो शायद यही बेहतर है मेरे और मेरे परिवार की भलाई के लिए। मेरी उम्मीद के विपरीत दूसरे ही दिन उस रहस्यमय व्यक्ति ने मेरे हाथ में नोटों की एक गड्डी थमा दी। मैं समझ गया कि नोटों की उस गड्डी से मेरा सारा कर्ज़ चुकता हो जाना था और साथ ही गिरवी पड़े मेरे खेत भी मुक्त हो जाने थे। इस बात से मैं बड़ा खुश हुआ और फिर मैंने एक बार भी ये नहीं सोचना चाहा कि अपने ही भाई की हत्या करना कितना बड़ा गुनाह होगा, पाप होगा।"

"मुरारी काका की हत्या कैसे की थी तुमने?" जगन के चुप होते ही मैंने उससे पूछा____"वो तो उस रात आंगन में सो रहे थे न फिर तुमने कैसे उनकी हत्या की और उनकी लाश को बाहर पेड़ के पास छोड़ दिया?"

"सब कुछ बड़ा आसान सा हो गया था छोटे ठाकुर।" जगन ने फीकी मुस्कान के साथ कहा____"मैं जानता था कि मेरा भाई लगभग रोज़ ही देशी पीता था और इतनी पी लेता था कि फिर उसे किसी चीज़ का होश ही नहीं रहता था। उस रात मैं आप दोनों पर नज़र रखे हुए था। मेरा भाई देशी पी कर आंगन में चारपाई पर लेटा हुआ था। इधर मैं सोचने लगा कि उसे बाहर कैसे लाऊं? हालाकि मैं घर के अंदर दीवार फांद कर आसानी से जा सकता था और फिर आंगन में ही उसकी हत्या कर सकता था लेकिन मुझे इस बात का भी एहसास था कि अगर थोड़ी सी भी आहट या आवाज़ हुई तो भौजी या फिर अनुराधा की नींद खुल सकती थी और तब मैं पकड़ा जा सकता था। इस लिए मैंने यही सोचा था कि मुरारी को बाहर बुला कर ही उसकी हत्या की जाए। उसे बाहर बुलाने का मेरे पास फिलहाल कोई उपाय नहीं था। इधर धीरे धीरे रात भी गुज़रती जा रही थी। वक्त के गुज़रने से मेरी परेशानी भी बढ़ती जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करूं जिससे मेरा भाई बाहर आ जाए? उस वक्त शायद भोर का समय था जब मैंने अचानक ही किवाड़ खुलने की आवाज़ सुनी। मैं फ़ौरन ही छुप गया और देखने लगा कि बाहर कौन आता है? कुछ ही देर में मैं ये देख कर खुश हो गया कि किवाड़ खोल कर मेरा भाई बाहर आ गया है और पेड़ की तरफ जा रहा है। मैं समझ गया कि उसे पेशाब लगा था इसी लिए उसकी नींद खुली थी उस वक्त। सच कहूं तो ये मेरे लिए जैसे ऊपर वाले ने ही सुनहरा मौका प्रदान कर दिया था और मैं इस मौके को किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहता था। मैंने देखा मेरा भाई पेड़ के पास खड़ा पेशाब कर रहा है तो मैं बहुत ही सावधानी से उसकी तरफ बढ़ा। मेरे हाथ में कुल्हाड़ी थी और मैंने उसी कुल्हाड़ी से अपने भाई की जीवन लीला को समाप्त कर देने का सोच लिया था। मेरा समूचा जिस्म ये सोच कर बुरी तरह कांपने लगा था कि मैं अपने भाई को जान से मार देने वाला हूं। इससे पहले कि मैं उसके पास पहुंच कर कुछ करता मेरा भाई पेशाब कर के फारिग़ हो गया और मेरी तरफ पलटा। अंधेरे में मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बुरी तरह चौंका और साथ ही डर भी गया। होश तो मेरे भी उड़ गए थे लेकिन फिर मैंने खुद को सम्हाला और फिर तेज़ी से उसकी तरफ झपटा। मैंने तेज़ी से कुल्हाड़ी का वार उस पर किया तो वो ऐन मौके पर झुक गया जिससे मेरा वार खाली चला गया। उधर मैं सम्हल भी न पाया था कि मुरारी ने मुझे दबोच लिया। उसके मुख से अभी भी देशी की दुर्गंध आ रही थी। जब उसने मुझे दबोच लिया तो मैं ये सोच कर बुरी तरह घबरा गया कि शायद उसने मुझे और मेरी नीयत को पहचान लिया है और अब वो मुझे छोड़ने वाला नहीं है। मरता क्या न करता वाली हालत हो गई थी मेरी। मेरा भाई शरीर से और ताक़त से मुझसे ज़्यादा ही था इस लिए मुझे लगा कि कहीं मैं खुद ही न मारा जाऊं। ज़हन में इस ख़याल के आते ही मैंने पूरा जोर लगा कर उसे धक्का दे दिया जिससे वो धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया। मैं अवसर देख कर फ़ौरन ही उसके ऊपर सवार हो गया और कुल्हाड़ी को उसके गले में लगा कर उसके गले को चीर दिया। खून का फव्वारा सा निकला जो उछल कर मेरे ऊपर ही आ गिरा। उधर मेरा भाई जल बिन मछली की तरह तड़पने लगा था और इससे पहले की वो दर्द से तड़पते हुए चीखता मैंने जल्दी से उसे दबोच कर उसके मुख को बंद कर दिया। कुछ ही देर में उसका तड़पना बंद हो गया और मेरा भाई मर गया। कुछ देर तक मैं अपनी तेज़ चलती सांसों को नियंत्रित करता रहा और फिर उठ कर खड़ा हो गया। नज़र भाई के मृत शरीर पर पड़ी तो मैं ये सोच कर एकदम से घबरा गया कि ये क्या कर डाला मैंने किंतु फिर जल्दी ही मुझे समझ में आया कि अब इस बारे में कुछ भी सोचने का कोई मतलब नहीं है। बस, ये सोच कर मैं कुल्हाड़ी लेकर वहां से भाग गया।"

"और फिर जब सुबह हुई।" जगन के चुप होते ही मैंने कहा____"तो तुम अपने गांव के लोगों को ले कर मेरे झोपड़े में आ गए। मकसद था सबके सामने मुझे अपने भाई का हत्यारा साबित करना। मेरे चरित्र के बारे में सभी जानते थे इस लिए हर कोई इस बात को मान ही लेता कि अपने आपको बचाने के लिए मैंने ही मुरारी काका की हत्या की है।"

जगन ने मेरी बात सुन कर सिर झुका लिया। बैठक में एक बार फिर से ख़ामोशी छा गई थी। सभी के चेहरों पर कई तरह के भावों का आवा गमन चालू था।


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"अगर ये सच में दुखी होते।" सुगंधा देवी ने उसी तरह चीखते हुए कहा____"तो इस वक्त ये अपने बेटे की ग़ायब होने वाली बात सुन कर यूं चुप चाप बैठे न होते। दुश्मनों ने इनके भाई और इनके बेटे को मार डाला और ये ख़ामोशी से अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। मैं हमेशा ये सोच कर खुश हुआ करती थी कि ये अपने पिता की तरह गुस्सैल और खूंखार स्वभाव के नहीं हैं लेकिन आज प्रतीत होता है कि इन्हें अपने पिता की तरह ही होना चाहिए था। आज मुझे महसूस हो रहा है कि ठाकुर खानदान का खून इनकी तरह ठंडा नहीं होना चाहिए जो अपने घर के दो दो सदस्यों की हत्या होने के बाद भी न खौले और अपने दुश्मनों का नामो निशान मिटा देने की क्षमता भी न रखे।"
Badi thakurain ki baat kaan me pighalne lohe ki jaisi gai par wo sahi bhi he, par dushman bhi lomdi aur bhediye ki jaat ka he to aise khul ke war karna jagtap chacha ki gslti doharana hoga.
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
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अध्याय - 67
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अब तक....

"और फिर जब सुबह हुई।" जगन के चुप होते ही मैंने कहा____"तो तुम अपने गांव के लोगों को ले कर मेरे झोपड़े में आ गए। मकसद था सबके सामने मुझे अपने भाई का हत्यारा साबित करना। मेरे चरित्र के बारे में सभी जानते थे इस लिए हर कोई इस बात को मान ही लेता कि अपने आपको बचाने के लिए मैंने ही मुरारी काका की हत्या की है।"

जगन ने मेरी बात सुन कर सिर झुका लिया। बैठक में एक बार फिर से ख़ामोशी छा गई थी। सभी के चेहरों पर कई तरह के भावों का आवा गमन चालू था।


अब आगे....


"उसके बाद तुमने क्या किया?" पिता जी ने ख़ामोशी को चीरते हुए जगन से पूछा____"हमारा मतलब है कि अपने भाई की हत्या करने के बाद उस सफ़ेदपोश के कहने पर और क्या क्या किया तुमने?"

"मैं तो यही समझता था कि अपने भाई की हत्या कर के और छोटे ठाकुर को उसकी हत्या में फंसा कर मैं इस सबसे मुक्त हो गया हूं।" जगन ने गहरी सांस लेने के बाद कहा____"और ये भी कि कुछ समय बाद अपने भाई की ज़मीनों को ज़बरदस्ती हथिया कर अपने परिवार के साथ आराम से जीवन गुज़ारने लगूंगा लेकिन ये मेरी ग़लतफहमी थी क्योंकि ऐसा हुआ ही नहीं।"

"क्या मतलब?" अर्जुन सिंह के माथे पर सिलवटें उभर आईं।

"मतलब ये कि ये सब होने के बाद एक दिन शाम को काले कपड़ों में लिपटा एक दूसरा रहस्यमय व्यक्ति मेरे पास आया।" जगन ने कहा____"उसने मुझसे कहा कि उसका मालिक यानि कि वो सफ़ेदपोश मुझसे मिलना चाहता है। काले कपड़े वाले उस आदमी की ये बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था लेकिन ये भी समझता था कि मुझे उससे मिलना ही पड़ेगा, अन्यथा वो कुछ भी मेरे या मेरे परिवार के साथ कर सकता है। ख़ैर दूसरे दिन शाम को मैं आपके आमों वाले बाग़ में उस सफ़ेदपोश व्यक्ति से मिला तो उसने मुझसे कहा कि मुझे उसके कहने पर कुछ और भी काम करने होंगे जिसके लिए वो मुझे मोटी रकम भी देगा। मैं अपने भाई की हत्या भले ही कर चुका था लेकिन अब किसी और की हत्या नहीं करना चाहता था। मैंने जब उससे ये कहा तो उसने पहली बार मुझसे सख़्त लहजे में बात की और कहा कि अगर मैंने उसका कहना नहीं माना तो इसके लिए मुझे मेरी सोच से कहीं ज़्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। एक बार फिर से मेरे हालत मरता क्या न करता वाले हो ग‌ए थे। इस लिए मैंने उसका कहना मान लिया। उसने मुझे काम दिया कि मैं गुप्त रूप से हवेली की गतिविधियों पर नज़र रखूं। मतलब ये कि आप, मझले ठाकुर, बड़े कुंवर और छोटे कुंवर आदि लोग कहां जाते हैं, किससे मिलते हैं और क्या क्या करते हैं ये सब देखूं और फिर उस सफ़ेदपोश आदमी को बताऊं। इतना तो मैं शुरू में ही समझ गया था कि वो सफ़ेदपोश हवेली वालों से बैर रखता है। ख़ैर ये क्योंकि ऐसा काम नहीं था जिसमें मुझे किसी की हत्या करनी पड़ती इस लिए मैंने मन ही मन राहत की सांस ली और उसके काम पर लग गया। कुछ समय ऐसे ही गुज़रा और फिर एक दिन उसने मुझे फिर से किसी की हत्या करने को कहा तो मेरे होश ही उड़ गए।"

"उसने तुम्हें तांत्रिक की हत्या करने को कहा था ना?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा।

"हां।" जगन ने बेबसी से सिर झुका कर कहा____"मुझे भी पता चल गया था कि बड़े कुंवर पर किसी तंत्र मंत्र का प्रभाव डाला गया था जिससे उनके प्राण संकट में थे। उस सफ़ेदपोश को जब मैंने ये बताया कि आप लोग उस तांत्रिक के पास गए थे तो उसने मुझे फ़ौरन ही उस तांत्रिक को मार डालने का आदेश दे दिया। मेरे पास ऐसा करने के अलावा कोई चारा नहीं था। मुझे इस बात का भी ख़ौफ था कि मैं तांत्रिक की हत्या कर भी पाऊंगा या नहीं? आख़िर मुझे ये काम करना ही पड़ा। ये तो मेरी किस्मत ही अच्छी थी कि मैं तांत्रिक को मार डालने में सफल हो गया था अन्यथा मेरे अपने प्राण ही संकट में पड़ सकते थे।"

"अच्छा एक बात बताओ।" पिता जी ने कुछ सोचते हुए कहा____"जैसा कि उस सफ़ेदपोश का मक़सद तुम्हारे द्वारा की गई मुरारी की हत्या में वैभव को फंसाना था तो जब ऐसा नहीं हुआ तो क्या इस बारे में तुम्हारे या उस सफ़ेदपोश के ज़हन में कोई सवाल अथवा विचार नहीं पैदा हुआ? हमारा मतलब है कि जब सफ़ेदपोश के द्वारा इतना कुछ करने के बाद भी वैभव मुरारी का हत्यारा साबित नहीं हो पाया तो क्या उसने तुमसे दुबारा इसे फंसाने को नहीं कहा?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं।" जगन ने कहा___"हलाकि मैं ज़रूर ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि जिस मकसद से उसने मेरे द्वारा मेरे भाई की हत्या करवा कर छोटे ठाकुर को हत्या के इल्ज़ाम में फंसाना चाहा था वैसा कुछ तो हुआ नहीं तो फिर उसने फिर से छोटे ठाकुर को किसी दूसरे तरीके से फंसाने को मुझसे क्यों नहीं कहा? वैसे ये तो सिर्फ़ मेरा सोचना था, संभव है उसने खुद ही ऐसा कुछ किया रहा हो लेकिन ये सच है कि उसने मुझसे दुबारा ऐसा कुछ करने के लिए नहीं कहा था।"

"सुनील और चेतन से क्या करवाता था वो सफ़ेदपोश?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने कुछ पल सोचने के बाद कहा____"मुझे ज़्यादा तो नहीं पता लेकिन एक बार मैंने ये ज़रूर सुना था कि वो उन दोनों को आपकी गतिविधियों पर नज़र रखने को कह रहा था और साथ ही ये भी कि इस गांव में आपके किस किस से ऐसे संबंध हैं जो आपके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हो जाएं?"

"क्या तुमने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि वो सफ़ेदपोश कौन है?" पिता जी ने जगन से पूछा____"कभी न कभी तो तुमने भी सोचा ही होगा कि तुम्हें एक ऐसे रहस्यमय व्यक्ति के बारे में जानना ही चाहिए जिसके कहने पर तुम कुछ भी करने के लिए मजबूर हो जाते हो?"

"सच कहूं तो ऐसा मेरे मन में बहुतों बार ख़याल आया था।" जगन ने कहा____"और फिर एक बार मैंने अपने मन का किया भी लेकिन जल्दी ही पकड़ा गया। मुझे नहीं पता कि उसको ये कैसे पता चल गया था कि मैं उसके बारे में जानने के लिए चोरी छुपे उसका पीछा कर रहा हूं? जब मैं पकड़ा गया तो उसने मुझे सख़्त लहजे में यही कहा कि अब अगर फिर कभी मैंने उसका पीछा किया तो मुझे अपने जीवन से हाथ धो लेना पड़ेगा। उसकी इस बात से मैं बहुत ज़्यादा डर गया था। उसके बाद फिर मैंने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की।"

"माना कि तुम कई तरह की परेशानियों से घिरे हुए थे और साथ ही उस सफ़ेदपोश के द्वारा मजबूर कर दिए गए थे।" पिता जी ने कठोरता से कहा____"लेकिन इसके बावजूद अगर तुम ईमानदारी और नेक नीयती से काम लेते तो आज तुम इतने बड़े अपराधी नहीं बन गए होते। तुमने अपने हित के लिए अपने भाई की हत्या की। उसकी ज़मीन जायदाद हड़पने की कोशिश की और साथ ही उस हत्या में हमारे बेटे को भी फंसाया। अगर तुम ये सब हमें बताते तो आज तुम्हारे हालात कुछ और ही होते और साथ ही मुरारी भी ज़िंदा होता। तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है जगन और इसके लिए तुम्हें कतई माफ़ नहीं किया जा सकता। हम कल ही गांव में पंचायत बैठाएंगे और उसमें तुम्हें मौत की सज़ा सुनाएंगे।"

"रहम दादा ठाकुर रहम।" पिता जी के मुख से ये सुनते ही जगन बुरी तरह रोते हुए उनके पैरों में गिर पड़ा____"मुझ पर रहम कीजिए दादा ठाकुर। मुझ पर न सही तो कम से कम मेरे बीवी बच्चों पर रहम कीजिए। वो सब अनाथ और असहाय हो जाएंगे, बेसहारा हो जाएंगे।"

"अगर सच में तुम्हें अपने बीवी बच्चों की फ़िक्र होती तो इतना बड़ा गुनाह नहीं करते।" पिता जी ने गुस्से से कहा____"तुम्हें कम से कम एक बार तो सोचना ही चाहिए था कि बुरे कर्म का फल बुरा ही मिलता है। अब अगर तुम्हें सज़ा न दी गई तो मुरारी की आत्मा को और उसके बीवी बच्चों के साथ इंसाफ़ कैसे हो सकेगा?"

"मैं मानता हूं दादा ठाकुर कि मेरा अपराध माफ़ी के लायक नहीं है।" जगन ने कहा____"लेकिन ज़रा सोचिए कि अगर मैं भी मर गया तो मेरे बीवी बच्चों के साथ साथ मेरे भाई के बीवी बच्चे भी बेसहारा हो जाएंगे।"

"उनकी फ़िक्र करने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है।" पिता जी ने सख़्त भाव से कहा____"मुरारी के परिवार की ज़िम्मेदारी अब हमारे कंधों पर है। रही तुम्हारे बीवी बच्चों की बात तो उन्हें भी हवेली से यथोचित सहायता मिलती रहेगी। तुम्हारे बुरे कर्मों की वजह से अब उन्हें भी जीवन भर दुख सहना ही पड़ेगा।" कहने के साथ ही पिता जी ने मेरी तरफ देखा और फिर कहा____"संपत से कहो कि इसे यहां से ले जाए और हवेली के बाहर वाले हिस्से में बने किसी कमरे में बंद कर दे। कल पंचायत में ही इसका फ़ैसला करेंगे हम।"

जगन रोता बिलखता और रहम की भीख ही मांगता रह गया जबकि मेरे बुलाने पर संपत उसे घसीटते हुए बैठक से ले गया। मैंने देखा पिता जी के चेहरे पर बेहद ही सख़्त भाव थे। शायद उन्होंने फ़ैसला कर लिया था कि अब किसी भी अपराधी पर कोई भी रहम नहीं करेंगे।


✮✮✮✮

रूपा अपने कमरे में पलंग पर लेटी हुई थी। हवेली में जो कुछ हुआ था उससे उसे बहुत बड़ा झटका लगा था। उसे अच्छी तरह इस बात का एहसास था कि इस सबके बाद हवेली में रहने वालों पर क्या गुज़र रही होगी। हवेली से रिश्ते सुधरने के बाद वो जाने कैसे कैसे सपने सजाने में लग गई थी किंतु जब उस शाम उसने अपने बाग़ में उन लोगों की बातें सुनी थी तो उसके सभी अरमानों पर मानों गाज सी गिर गई थी। अगर बात सिर्फ़ इतनी ही होती तो शायद किसी तरह से कोई संभावना बन भी जाती लेकिन हवेली में इतना बड़ा हादसा होने के बाद तो जैसे उसे यकीन हो गया था कि अब कुछ नहीं हो सकता। वैभव के साथ जीवन जीने के उसने जो भी सपने सजाए थे वो शायद अब पूरी तरह से ख़ाक में मिल चुके थे। ये सब सोचते हुए उसकी आंखें जाने कितनी ही बार आंसू बहा चुकीं थी। उसका जी कर रहा था कि वो सारी लोक लाज को ताक में रख कर अपने घर से भाग जाए और वैभव के सामने जा कर उससे इस सबके लिए माफ़ी मांगे। हालाकि इसमें उसका कोई दोष नहीं था लेकिन वो ये भी जानती थी कि ये सब उसी के ताऊ की वजह से हुआ है।

"कब तक ऐसे पड़ी रहोगी रूपा?" उसके कमरे में आते ही उसकी भाभी कुमुद ने गंभीर भाव से कहा____"सुबह से तुमने कुछ भी नहीं खाया है। ऐसे में तो तुम बीमार हो जाओगी।"

"सब कुछ ख़त्म हो गया भाभी।" रूपा ने कहीं खोए हुए कहा_____"मेरे अपनों ने वैभव के चाचा और उसके बड़े भाई को मार डाला। उसे तो पहले से ही इन लोगों की नीयत पर शक था और देख लो उसका शक यकीन में बदल गया। अब तो उसके अंदर हम सबके लिए सिर्फ़ नफ़रत ही होगी। मुझे पूरा यकीन है कि वो बदला लेने ज़रूर आएगा और हर उस व्यक्ति की जान ले लेगा जिनका थोड़ा सा भी हाथ उसके अपनों की जान लेने में रहा होगा।" कहने के साथ ही सहसा रूपा एक झटके से उठ बैठी और फिर कुमुद की तरफ देखते हुए बोली_____"अब तो वो मुझसे भी नफ़रत करने लगा होगा न भाभी? उसे मुझसे वफ़ा की पूरी उम्मीद थी लेकिन मैंने क्या किया? मैं तो ज़रा भी उसकी उम्मीदों पर खरी न उतर सकी। इसका तो यही मतलब हुआ ना भाभी कि उसके प्रति मेरा प्रेम सिर्फ़ और सिर्फ़ एक दिखावा मात्र ही था। अगर मेरा प्रेम ज़रा भी सच्चा होता तो शायद आज ऐसे हालात न होते।"

"तुम पागल हो गई हो रूपा।" कुमुद ने झपट कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसे रूपा की ऐसी हालत देख कर बहुत दुख हो रहा था, बोली____"जाने क्या क्या सोचे जा रही हो तुम, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। तुम्हारा प्रेम हमेशा से सच्चा रहा है। वो सच्चा प्रेम ही तो था जिसके चलते तुम अपने वैभव की जान बचाने के लिए मुझे ले कर उस रात हवेली चली गई थी। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुमसे जो हो सकता था वो तुमने किया है और यही तुम्हारा सच्चा प्रेम है। मुझे पूरा यकीन है कि वैभव के दिल में तुम्हारे लिए ज़रा सी भी नफ़रत नहीं होगी।"

"मुझे छोटी बच्ची समझ कर मत बहलाओ भाभी।" रूपा की आंखें फिर से छलक पड़ीं____"सच तो ये है कि अब सब कुछ ख़त्म हो चुका है। मेरे अपनों ने जो किया है उससे हर रास्ता और हर उम्मीद ख़त्म हो चुकी है। कोई इतना ज़ालिम कैसे हो सकता है भाभी? जब से होश सम्हाला है तब से देखती आई हूं कि दादा ठाकुर ने या हवेली के किसी भी व्यक्ति ने हमारे साथ कभी कुछ ग़लत नहीं किया है फिर क्यों मेरे अपने उनके साथ इतना बड़ा छल और इतना बड़ा घात कर गए?"

"मैं क्या बताऊं रूपा? मुझे तो ख़ुद इस बारे में कुछ पता नहीं है।" कुमुद ने मानों अपनी बेबसी ज़ाहिर करते हुए कहा____"काश! मुझे पता होता कि आख़िर ऐसी कौन सी बात है जिसके चलते हमारे बड़े बुजुर्ग हवेली में रहने वालों से इस हद तक नफ़रत करते हैं कि उनकी जान लेने से भी नहीं चूके। वैसे कहीं न कहीं मैं भी इस बात को मानती हूं कि कोई तो बात ज़रूर है रूपा, और शायद बहुत ही बड़ी बात है वरना ये लोग इतना बड़ा क़दम न उठाते।"

कुमुद की बात सुन कर रूपा कुछ न बोली। उसकी तो ऐसी हालत थी जैसे उसका सब कुछ लुट गया हो और अब वो खुद को सबसे ज़्यादा बेबस, लाचार और असहाय समझती हो। वैभव के साथ अपने जीवन के जाने कितने ही हसीन सपने सजा लिए थे उसने, पर किस्मत को तो जैसे उसके हर सपने को चकनाचूर कर देना ही मंज़ूर था।

"मुझे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा कि इन लोगों ने वैभव के चाचा और भाई की हत्या की होगी।" रूपा को चुप देख कुमुद ने ही जाने क्या सोचते हुए कहा____"इतना तो ये लोग भी समझते ही रहे होंगे कि दादा ठाकुर से हमारे रिश्ते भले ही सुधर गए थे लेकिन उनके अंदर हमारे प्रति पूरी तरह विश्वास नहीं रहा होगा। यानि अंदर से वो तब भी यही यकीन किए रहे होंगे कि हम लोगों ने भले ही उनसे संबंध सुधार लिए हैं लेकिन इसके बावजूद हम उनके प्रति नफ़रत के भाव ही रखे होंगे। तो सवाल ये है कि अगर हमारे अपने ये समझते रहे होंगे तो क्या इसके बावजूद वो दादा ठाकुर के परिवार में से किसी की हत्या करने का सोच सकते हैं? क्या उन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं रहा होगा कि ऐसे में दादा ठाकुर ही नहीं बल्कि गांव के लोग भी हमें ही हत्यारा समझेंगे और फिर बदले में वो हमारे साथ भी वैसा ही सुलूक कर सकते हैं?"

"उस रात बाग़ में मैंने स्पष्ट रूप से ताऊ जी की आवाज़ सुनी थी भाभी।" रूपा ने कहा____"और मैंने अच्छी तरह सुना था कि वो बाकी लोगों से वैभव को चंदनपुर जा कर जान से मारने को कह रहे थे। अगर ऐसा होता कि मैंने सिर्फ़ एक ही बार उनकी आवाज़ सुनी थी तो मैं भी ये सोचती कि शायद मुझे सुनने में धोखा हुआ होगा लेकिन मैंने तो एक बार नहीं बल्कि कई बार उनके मुख से कई सारी बातें सुनी थी। अब आप ही बताइए क्या ये सब झूठ हो सकता है? क्या मैंने जो सुना वो सब मेरा भ्रम हो सकता है? नहीं भाभी, ना तो ये सब झूठ है और ना ही ये मेरा कोई भ्रम है बल्कि ये तो एक ऐसी सच्चाई है जिसे दिल भले ही नहीं मान रहा मगर दिमाग़ उसे झुठलाने से साफ़ इंकार कर रह है। इन लोगों ने ही साज़िश रची और पूरी तैयारी के साथ वैभव के चाचा तथा उसके बड़े भाई की हत्या की या फिर करवाई।"

"मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा रूपा।" कुमुद ने गहरी सांस ले कर कहा___"पर इतना जानती हूं कि ये जो कुछ हुआ है बहुत ही बुरा हुआ है और इसके परिणाम बहुत ही भयानक होंगे। शायद परिणामों की कल्पना कर के ही हमारे घर के सारे मर्द लोग कहीं चले गए हैं और अब इस घर में सिर्फ हम औरतें और लड़कियां ही हैं। हैरत की बात है कि ऐसे हाल में वो लोग हमें यहां अकेला और बेसहारा छोड़ कर कैसे कहीं जा सके हैं?"

"शायद वो ये सोच कर हमें यहां अकेला छोड़ गए हैं कि उनके किए की सज़ा दादा ठाकुर हम औरतों को नहीं दे सकते।" रूपा ने कहा____"अगर सच यही है भाभी तो मैं यही कहूंगी कि बहुत ही गिरी हुई सोच है इन लोगों की। अपनी जान बचाने के चक्कर में उन्होंने अपने घर की बहू बेटियों को यहां बेसहारा छोड़ दिया है।"

"तुम सही कह रही हो रूपा।" कुमुद ने कहा____"पर हम कर ही क्या सकते हैं? अगर सच में बदले के रूप में दादा ठाकुर का क़हर हम पर टूटा तो क्या कर लेंगे हम? वो सब तो कायरों की तरह अपनी जान बचा कर चले ही गए हैं। ख़ैर छोड़ो ये सब, जो होगा देखा जाएगा। तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए यहीं पर खाना ले आती हूं। भूखे रहने से सब कुछ ठीक थोड़ी ना हो जाएगा।"

कहने के साथ ही कुमुद उठी और कमरे से बाहर निकल गई। इधर रूपा एक बार फिर से जाने किन सोचो में खो गई। कुछ ही देर में कुमुद खाने की थाली ले कर आई और पलंग पर रूपा के सामने रख दिया। कुमुद के ज़ोर देने पर आख़िर रूपा को खाना ही पड़ा।


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हवेली में एक बार फिर से उस वक्त रोना धोना शुरू हो गया जब शाम के क़रीब साढ़े आठ बजे मेरी ननिहाल वाले तथा मेनका चाची के मायके वाले आ गए। जहां एक तरफ मेरी मां अपने पिता से लिपटी रो रहीं थी वहीं मेनका चाची भी अपने पिता और भाईयों से लिपटी रो रहीं थी। कुसुम और भाभी का भी बुरा हाल था। आख़िर बहुत समझाने बुझाने के बाद कुछ देर में रोना धोना बंद हुआ। उसके बाद औरतें अंदर ही रहीं जबकि मेरे दोनों ननिहाल वाले लोग बाहर बैठक में आ गए जहां पहले से ही पिता जी के साथ भैया के चाचा ससुर और अर्जुन सिंह बैठे हुए थे।

वैसे तो कहानी में ना तो मेरे ननिहाल वालों का कोई रोल है और ना ही मेनका चाची के मायके वालों का फिर भी दोनों जगह के किरदारों की जानकारी देना बेहतर समझता हूं इस लिए प्रस्तुत है।

मेरे ननिहाल वालों का संक्षिप्त पात्र परिचय:-

✮ बलवीर सिंह राणा (नाना जी)
वैदेही सिंह राणा (नानी जी)
मेरे नाना नानी को कुल चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।
(01) संगवीर सिंह राणा (बड़े मामा जी)
सुलोचना सिंह राणा (बड़ी मामी)
मेरे मामा मामी को तीन संतानें हैं, जिनमें से दो बेटियां हैं और एक बेटा। तीनों का ब्याह हो चुका है।
(02) सुगंधा देवी (ठकुराईन यानि मेरी मां)
(03) अवधेश सिंह राणा (मझले मामा जी)
शालिनी सिंह राणा (मझली मामी)
मझले मामा मामी को दो संतानें हैं जिनमें से एक बेटा है और दूसरी बेटी। इन दोनों का भी ब्याह हो चुका है।
(04) अमर सिंह राणा (छोटे मामा जी)
रोहिणी सिंह राणा ( छोटी मामी)
छोटे मामा मामी को तीन संतानें हैं जिनमें से दो बेटियां हैं और एक बेटा। ये तीनों अभी अविवाहित हैं।

माधवगढ़ नाम के गांव में मेरा ननिहाल है जहां के जमींदार मेरे नाना जी के पिता जी और उनके पूर्वज हुआ करते थे। अब जमींदारी जैसी बात रही नहीं फिर भी उनका रुतबा और मान सम्मान वैसा का वैसा ही बना हुआ है। ज़ाहिर है ये सब मेरे नाना जी और उनके बच्चों के अच्छे आचरण और ब्यौहार की वजह से ही है। ख़ैर बलवीर सिंह राणा यानि मेरे नाना जी की इकलौती बेटी सुगंधा काफी सुंदर और सुशील थीं। बड़े दादा ठाकुर किसी काम से माधवगढ़ गए हुए थे जहां पर वो मेरे नाना जी के आग्रह पर उनके यहां ठहरे थे। वहीं उन्होंने मेरी मां सुगंधा देवी को देखा था। बड़े दादा ठाकुर को वो बेहद पसंद आईं तो उन्होंने फ़ौरन ही नाना जी से रिश्ते की बात कह दी। नाना जी बड़े दादा ठाकुर को भला कैसे इंकार कर सकते थे? इतने बड़े घर से और इतने बड़े व्यक्ति ने खुद ही उनकी बेटी का हाथ मांगा था। इसे वो अपना सौभाग्य ही समझे थे। बस फिर क्या था, जल्दी ही मेरी मां हवेली में बड़ी बहू बन कर आ गईं।

मेनका चाची के मायके वालों का संक्षिप्त परिचय:-

✮ धर्मराज सिंह चौहान (चाची के पिता जी)
सुमित्रा सिंह चौहान (चाची की मां)
चाची के माता पिता को कुल तीन संतानें हैं।

(01) हेमराज सिंह चौहान (चाची के बड़े भाई)
सुजाता सिंह चौहान (चाची की बड़ी भाभी)
इनको दो संतानें हैं जिनमें से एक बेटा है और दूसरी बेटी। दोनों का ही ब्याह हो चुका है।

(02) अवधराज सिंह चौहान ( चाची के छोटे भाई)
अल्का सिंह चौहान (चाची की छोटी भाभी)
इनको तीन संतानें हैं, जिनमें से दो बेटे और एक बेटी है। दोनों बेटों का ब्याह हो चुका है जबकि बेटी पद्मिनी अभी अविवाहित है।

(03) मेनका सिंह (छोटी ठकुराईन यानि मेरी चाची)

कुंदनपुर नाम के गांव में चाची के पिता धर्मराज सिंह चौहान के पूर्वज भी ज़मींदार हुआ करते थे। आज के समय में जमींदारी तो नहीं है किंतु उनके विशाल भू भाग पर आज भी गांव के लोग मजदूरी कर के अपना जीवन यापन करते हैं। कुंदनपुर में एक प्राचीन देवी मंदिर है जहां पर हर साल नवरात्र के महीने में विशाल मेला लगता है। आस पास के गावों में जितने भी संपन्न ज़मींदार थे वो सब बड़े बड़े अवसरों पर बड़े दादा ठाकुर को आमंत्रित करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर धर्मराज सिंह चौहान ने बड़े दादा ठाकुर को आमंत्रित किया था। बड़े दादा ठाकुर ने वहीं पर मेनका चाची को देखा था। मेनका चाची अपने नाम की तरह ही बेहद सुंदर थीं। बड़े दादा ठाकुर ने देर न करते हुए फ़ौरन ही धर्मराज से उनकी बेटी का हाथ अपने छोटे बेटे जगताप के लिए मांग लिया था। अब क्योंकि ऊपर वाला भी यही चाहता था इस लिए जल्दी ही मेनका चाची हवेली में छोटी बहू बन कर आ गईं।

तो दोस्तो ये था मेरे दोनों ननिहाल वालों का संक्षिप्त परिचय।


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Rupa ki ek galti ne story ka rukh badal diye, use sirf ek nam batana tha aur kshani kuchh aur hoti
 

Thakur

असला हम भी रखते है पहलवान 😼
Prime
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अध्याय - 68
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अब तक....

कुंदनपुर नाम के गांव में चाची के पिता धर्मराज सिंह चौहान के पूर्वज भी ज़मींदार हुआ करते थे। आज के समय में जमींदारी तो नहीं है किंतु उनके विशाल भू भाग पर आज भी गांव के लोग मजदूरी कर के अपना जीवन यापन करते हैं। कुंदनपुर में एक प्राचीन देवी मंदिर है जहां पर हर साल नवरात्र के महीने में विशाल मेला लगता है। आस पास के गावों में जितने भी संपन्न ज़मींदार थे वो सब बड़े बड़े अवसरों पर बड़े दादा ठाकुर को आमंत्रित करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर धर्मराज सिंह चौहान ने बड़े दादा ठाकुर को आमंत्रित किया था। बड़े दादा ठाकुर ने वहीं पर मेनका चाची को देखा था। मेनका चाची अपने नाम की तरह ही बेहद सुंदर थीं। बड़े दादा ठाकुर ने देर न करते हुए फ़ौरन ही धर्मराज से उनकी बेटी का हाथ अपने छोटे बेटे जगताप के लिए मांग लिया था। अब क्योंकि ऊपर वाला भी यही चाहता था इस लिए जल्दी ही मेनका चाची हवेली में छोटी बहू बन कर आ गईं।

तो दोस्तो ये था मेरे दोनों ननिहाल वालों का संक्षिप्त परिचय।


अब आगे....


"हालात बेहद ही ख़राब हो गए हैं बड़े भैया।" चिमनी के प्रकाश में नज़र आ रहे मणि शंकर के चेहरे की तरफ देखते हुए हरि शंकर ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"दादा ठाकुर ने तो आस पास के सभी गांवों में ये ऐलान भी करवा दिया है कि अगर चौबीस घंटे के अंदर हमने खुद को उनके सामने समर्पण नहीं किया तो वो हमारे घर की बहू बेटियों के साथ बहुत बुरा सुलूक करेंगे।"

"हरि चाचा सही कह रहे हैं पिता जी।" चंद्रभान ने गंभीर भाव से कहा____"अगर हम अब भी इसी तरह छुपे बैठे रहे तो यकीनन बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा। हमें दादा ठाकुर के पास जा कर उन्हें ये बताना ही होगा कि उनके छोटे भाई और बड़े बेटे के साथ जो हुआ है उसके ज़िम्मेदार हम नहीं हैं।"

"हां बड़े भैया।" हरि शंकर ने कहा____"हमें अपनी सच्चाई तो बतानी ही चाहिए। ऐसे में तो वो यही समझते रहेंगे कि वो सब हमने किया है। अपनों को खोने का दुख जब बर्दास्त से बाहर हो जाता है तो परिणाम बहुत ही भयानक होता हैं। इस तरह से खुद को छुपा कर हम खुद ही अपने आपको उनकी नज़र में गुनहगार साबित कर रहे हैं। ये जो ऐलान उन्होंने करवाया है उसे हल्के में मत लीजिए। अगर हम सब फ़ौरन ही उनके सामने नहीं गए तो फिर कुछ भी सम्हाले नहीं सम्हलेगा।"

"मुझे तो आपका ये फ़ैसला और आपका ये कहना पहले ही ठीक नहीं लगा था पिता जी कि हम सब कहीं छुप जाएं।" चंद्रभान ने जैसे खीझते हुए कहा____"मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा कि ऐसा करने के लिए आपने क्यों कहा और फिर हम सब आपके कहे अनुसार यहां क्यों आ कर छुप गए? अगर हरि चाचा जी का ये कहना सही है कि हमने कुछ नहीं किया है तो हमें किसी से डर कर यूं एक साथ कहीं छुपने की ज़रूरत ही नहीं थी।"

"हम मानते हैं कि हमारा उस समय ऐसा करने का फ़ैसला कहीं से भी उचित नहीं था।" मणि शंकर ने गहरी सांस ले कर कहा____"लेकिन मौजूदा हालात को देख कर हमें यही करना सही लगा था और ऐसा करने का कारण भी था।"

"भला ऐसा क्या कारण हो सकता है पिता जी?" चंद्रभान के चेहरे पर हैरत के भाव उभर आए, बोला____"मैं ये बिल्कुल भी मानने को तैयार नहीं हूं कि बिना किसी वजह के दादा ठाकुर हमारे साथ कुछ भी ग़लत कर देते।"

"यही तो तुम में ख़राबी है बेटे।" मणि शंकर ने सिर उठा कर चंद्रभान की तरफ देखा, फिर कहा____"तुम सिर्फ वर्तमान की बातों को देख कर कोई नतीजा निकाल रहे हो जबकि हम वर्तमान के साथ साथ अतीत की बातों को मद्दे नज़र रख कर भी सोच रहे हैं। हमारा गांव ही नहीं बल्कि आस पास के सभी गांव वाले भी जानते हैं कि हवेली वालों से हमारे संबंध कभी भी बेहतर नहीं रहे थे। अब अगर हमने अपने संबंधों को बेहतर बना लिया है तो ज़रूर इसके पीछे कोई न कोई ऐसी वजह ज़रूर हो सकती है जिसके बारे में बड़ी आसानी से हर कोई अंदाज़ा लगा सकता है। भले ही वो लोग अंदाज़ा ग़लत ही क्यों न लगाएं पर हम दोनों परिवारों की स्थिति के मद्दे नज़र हर किसी का ऐसा सोचना जायज़ भी है। यानि हर कोई यही सोचेगा कि हमने हवेली वालों से अपने संबंध इसी लिए बेहतर बनाए होंगे ताकि कभी मौका देख कर हम पीठ पर छूरा घोंप सकें। अब ज़रा सोचो कि अगर हर कोई हमारे बारे में ऐसी ही सोच रखता है तो ज़ाहिर है कि ऐसी ही सोच दादा ठाकुर और उसके परिवार वाले भी तो रखते ही होंगे। दादा ठाकुर के छोटे भाई और बड़े बेटे के साथ जो हुआ है उसे भले ही हमने नहीं किया है लेकिन हर व्यक्ति के साथ साथ हवेली वाले भी यही सोच बैठेंगे होंगे कि ऐसा हमने ही किया है। इंसान जब किसी चीज़ को सच मान लेता है तो फिर वो कोई दूसरा सच सुनने या जानने का इरादा नहीं रखता बल्कि ऐसे हालात में तो उसे बस बदला लेना ही दिखता है। अब सोचो कि अगर ऐसे में हम सब अपनी सफाई देने के लिए उनके सामने जाते तो क्या वो हमारी सच्चाई सुनने को तैयार होते? हमारा ख़याल है हर्गिज़ नहीं, बल्कि वो तो आव देखते ना ताव सीधा हम सबकी गर्दनें ही उड़ाना शुरू कर देते। यही सब सोच कर हमने ये फैसला लिया था कि ऐसे ख़तरनाक हालात में ऐसे व्यक्ति के सामने जाना बिल्कुल भी ठीक नहीं है जो हमारे द्वारा कुछ भी सुनने को तैयार ही न हो। हम जानते हैं कि इस वक्त वो इस सबकी वजह से बेहद दुखी हैं और बदले की आग में जल भी रहे हैं किंतु हम तभी उनके सामने जा सकते हैं जब उनके अंदर का आक्रोश या गुस्सा थोड़ा ठंडा हो जाए। कम से कम इतना तो हो ही जाए कि वो हमारी बातें सुनने की जहमत उठाएं।"

"तो क्या आपको लगता है कि आपके ऐसा करने से दादा ठाकुर का गुस्सा ठंडा हो जाएगा?" चंद्रभान ने मानों तंज करते हुए कहा____"जबकि मुझे तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता पिता जी। मैं ये मानता हूं कि हर किसी की तरह हवेली वाले भी हमारे संबंधों को सुधार लेने के बारे में ऐसा ही सब कुछ सोचते होंगे लेकिन माजूदा हालात में आपके ऐसा करने से उनकी वो सोच तो यकीन में ही बदल जाएगी। बदले की आग में झुलसता इंसान ऐसे में और भी ज़्यादा भयानक रूप ले लेता है। अगर उसी समय हम सब उनके पास जाते और उनसे अपनी सफाई देते तो ऐसा बिल्कुल नहीं हो जाता कि वो हम में से किसी की कोई बात सुने बिना ही हम सबको मार डालते। देर से ही सही लेकिन वो भी ये सोचते कि अगर हमने ही चाचा भतीजे की हत्या की होती तो अपनी जान को ख़तरे में डाल कर उनके पास नहीं आते।"

"चंद्र बिल्कुल सही कह रहा है बड़े भैया।" हरि शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा____"उस समय हमें दादा ठाकुर के पास ही जाना चाहिए था। ऐसे में सिर्फ हवेली वाले ही नहीं बल्कि आस पास के सभी गांव वाले भी हमारे बारे में यही सोचते कि अगर हम ग़लत होते तो मरने के लिए दादा ठाकुर के पास नहीं आते बल्कि अपनी जान बचा कर कहीं भाग जाते। पर अब, अब तो हमने खुद ही ऐसा कर दिया है कि उन्हें हमें ही हत्यारा समझना है और ग़लत क़रार देना है। सच तो ये है बड़े भैया कि पहले से कहीं ज़्यादा बद्तर हालातों में घिर गए हैं हम सब और इससे भी ज़्यादा बुरा तब हो जाएगा जब हम में से कोई भी उनके द्वारा ऐसा ऐलान करवाने पर भी उनके सामने खुद को समर्पण नहीं करेगा।"

"वैसे देखा जाए तो बड़े शर्म की बात हो गई है हरि भैया।" शिव शंकर ने कुछ सोचते हुए कहा____"हम सभी मर्द लोग अपनी अपनी जान बचाने के चक्कर में यहां आ कर छुप के बैठ गए और वहां घर में अपनी बहू बेटियों को हम दादा ठाकुर के क़हर का शिकार बनने के लिए छोड़ आए। वो भी सोचती होंगी कि कैसे कायर और नपुंसक लोग हैं हमारे घर के सभी मर्द। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे में तो उन लोगों ने भी यही मान लिया होगा कि हमने ही जगताप और अभिनव की हत्या की है और अब अपनी जान जाने के डर से कहीं छुप गए हैं। जीवन में पहली बार मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं सच में ही कायर और नपुंसक हूं।"

"अगर तुमसे ये सब नहीं सहा जा रहा।" मणि शंकर ने नाराज़गी वाले लहजे में कहा____"तो चले जाओ यहां से और दादा ठाकुर के सामने खुद को समर्पण कर दो।"

"अकेला तो कोई भी खुद को समर्पण करने नहीं जाएगा बड़े भैया।" शिव शंकर ने कहा____"बल्कि हम सभी को जाना पड़ेगा। दादा ठाकुर का ऐलान तो हम सबने सुन ही लिया है। अब अगर हमें अपने घर की बहू बेटियों को सही सलामत रखना है तो वही करना पड़ेगा जो वो चाहते हैं।"

"बिल्कुल।" गौरी शंकर ने जैसे सहमति जताते हुए कहा____"हम सबको कल सुबह ही अपने गांव जा कर दादा ठाकुर के सामने खुद को समर्पण करना होगा। मेरा ख़याल है दादा ठाकुर के अंदर का आक्रोश अब तक थोड़ा बहुत तो शांत हो ही गया होगा। उनके जान पहचान वालों ने यकीनन उन्हें ऐसे वक्त में धैर्य और संयम से काम लेने की सलाह दी होगी। वैसे, बड़े भैया ने इस तरह का फ़ैसला ले कर भी ग़लत नहीं किया था। उस वक्त यकीनन यही करना बेहतर था और यही बातें हम दादा ठाकुर से भी कह सकते हैं। मुझे पूरा यकीन है कि अब वो सबके सामने हमारी बातें पूरे धैर्य के साथ सुनेंगे और उन पर विचार भी करेंगे।"

"और तो सब ठीक है।" पास में ही खड़े रूपचंद्र ने झिझकते हुए कहा____"लेकिन उस वैभव का क्या? मान लिया कि दादा ठाकुर आप सबकी बातों को धैर्य से सुनने के बाद आपकी बातों पर यकीन कर लेंगे मगर क्या वैभव भी यकीन कर लेगा? आप सब तो जानते ही हैं कि वो किस तरह का इंसान है। अगर उसने हमारे साथ कुछ उल्टा सीधा किया तब क्या होगा?"

"मुझे लगता है कि तुम बेवजह ही उसके लिए चिंतित हो रहे हो।" हरि शंकर ने कहा____"जबकि हम सबने ये भली भांति देखा है कि पिछले कुछ समय से उसका बर्ताव पहले की अपेक्षा आश्चर्यजनक रूप से बेहतर नज़र आया है। वैसे भी अब वो दादा ठाकुर के किसी भी फ़ैसले के खिलाफ़ जाने की हिमाकत नहीं करेगा।"

"अगर ऐसा ही हो तो इससे बेहतर कुछ है ही नहीं।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उसने जान बूझ कर तथा कुछ सोच कर ही अपने बर्ताव को ऐसा बना रखा हो। अब क्योंकि उसके चाचा और बड़े भाई की हत्या हुई है तो वो पूरी तरह पहले जैसा बन कर हम पर क़हर बन कर टूट पड़े।"

"जो भी हो।" हरि शंकर ने कहा____"पर इसका मतलब ये तो नहीं हो सकता ना कि ये सब सोच कर हम सब खुद को दादा ठाकुर के सामने समर्पण करने का अपना इरादा ही बदल दें। आने वाले समय में क्या होगा ये बाद की बात है लेकिन इस वक्त सबसे ज़्यादा ज़रूरी यही है कि हम सब दादा ठाकुर के सामने अपनी स्थिति को साफ कर लें अन्यथा इसके बहुत ही बुरे परिणामों से हमें रूबरू होना होगा।"


✮✮✮✮

उस समय रात के क़रीब ग्यारह बजने वाले थे। बैठक में अभी भी सब लोग बैठे हुए थे। खाना पीना खाने से सभी ने इंकार कर दिया था इस लिए बनाया भी नहीं गया था। मैं भाभी के लिए कुछ ज़्यादा ही फिक्रमंद था इस लिए उन्हीं के कमरे में उनके पास ही बैठा हुआ था। कमरे में लालटेन का मध्यम प्रकाश था। हमेशा की तरह बिजली इस वक्त भी नहीं थी। ख़ैर लालटेन की रोशनी में मैं साफ देख सकता था कि भाभी का चेहरा एकदम से बेनूर सा हो गया था। अपने पलंग पर वो मेरे ही ज़ोर देने पर लेटी हुई थीं और मैं उनके सिरहाने पर बैठा उनके माथे को हल्के हल्के दबा रहा था। ऐसा पहली बार ही हो रहा था कि मैं रात के इस वक्त उनके कमरे में उनके इतने क़रीब बैठा हुआ था। इस वक्त मेरे ज़हन में उनके प्रति कोई भी ग़लत ख़याल आने का सवाल ही नहीं था। मुझे तो बस ये सोच कर दुख हो रहा था कि उनके जैसी सभ्य सुशील संस्कारी और पूजा आराधना करने वाली औरत के साथ ऊपर वाले ने ऐसा क्यों कर दिया था? इस हवेली के अंदर एक मैं ही ऐसा इंसान था जिसने जाने कैसे कैसे कुकर्म किए थे इसके बाद भी मैं सही सलामत ज़िंदा था जबकि मुझ जैसे इंसान के साथ ही बहुत बुरा होना चाहिए था।

"व...वैभव??" अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि सहसा तभी गहरे सन्नाटे में भाभी के मुख से धीमी सी आवाज़ निकली तो मैं एकदम से सम्हल गया और जल्दी ही बोला____"जी भाभी, मैं यहीं हूं। आपको कुछ चाहिए क्या?"

"तु...तुम कब तक ऐसे बैठे रहोगे?" भाभी ने उठने की कोशिश की तो मैंने उन्हें लेटे ही रहने को कहा तो वो फिर से लेट गईं और फिर बोलीं____"अपने कमरे में जा कर तुम भी सो जाओ।"

"मुझे नींद नहीं आ रही भाभी।" मैंने कहा____"वैसे भी मैं आपको अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा। आप आराम से सो जाइए। मैं आपके पास यहीं बैठा रहूंगा।"

"क्..क्या तुम्हें इस बात का डर है कि मैं अपने इस दुख के चलते कहीं कुछ कर न बैठू?" भाभी ने लेटे लेटे ही अपनी गर्दन को हल्का सा ऊपर की तरफ कर के मेरी तरफ देखते हुए कहा।

"मैं भैया को खो चुका हूं भाभी।" मेरी आवाज़ एकदम से भारी हो गई____"लेकिन आपको नहीं खोना चाहता। अगर आपने कुछ भी उल्टा सीधा किया तो जान लीजिए आपका ये देवर सारी दुनिया को आग लगा देगा। किसी को भी ज़िंदा नहीं छोडूंगा मैं। इस गांव में लाशें ही लाशें पड़ी दिखेंगी।"

"इस दुनिया से तो सबको एक दिन चले जाना है वैभव।" भाभी ने उसी तरह मुझे देखते हुए अपनी मुर्दा सी आवाज़ में कहा____"तुम्हारे भैया चले गए, किसी दिन मैं भी चली जाऊंगी।"

"ऐसा मत कहिए न भाभी।" मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा ले कर अपनी नम आंखों से उन्हें देखते हुए कहा____"आप मुझे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी। अगर आपके दिल में मेरे लिए ज़रा सा भी स्नेह और प्यार है तो उस स्नेह और प्यार के खातिर आप मुझे छोड़ कर कहीं जाने का सोचिएगा भी मत। आपको क़सम है मेरी।"

"ठीक है।" भाभी ने अपना एक हाथ पीछे की तरफ ला कर मेरा दायां गाल सहला कर कहा____"लेकिन मेरी भी एक शर्त है।"

"आप बस बोलिए भाभी।" मैंने एक हाथ से उनके उस हाथ को थाम लिया____"वैभव ठाकुर अपनी जान दे कर भी आपकी शर्त पूरी करेगा।"

"नहीं।" भाभी ने झट से मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर मेरे मुख पर रख दिया, फिर बोलीं___"ख़बरदार,अपनी जान देने वाली बातें कभी मत करना। इस हवेली और हवेली में रहने वालों के लिए तुम्हें हमेशा सही सलामत रहना है वैभव।"

"तो आप भी कभी कहीं जाने की बातें मत कहिएगा मुझसे।" मैंने कहा____"मैं हमेशा अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी भाभी को अपने पास सही सलामत देखना चाहता हूं। आप इस हवेली की आन बान शान हैं भाभी। ये तो मेरे बस में ही नहीं है कि मैं उस ऊपर वाले के फ़ैसलों को बदल दूं वरना मैं तो कभी भी अपनी भाभी के चांद जैसे चेहरे पर दाग़ न लगने दूं।"

"इतनी बड़ी बड़ी बातें मत किया करो वैभव।" भाभी ने फिर से मेरे दाएं गाल को सहलाया, बोलीं____"ख़ैर मेरी शर्त तो सुन लो।"

"ओह! हां, माफ़ कीजिए।" मैंने जल्दी से कहा____"जी बताइए क्या शर्त है आपकी?"

"अगर तुम मुझे सही सलामत देखना चाहते हो।" भाभी ने मेरी आंखों में देखते हुए इस बार थोड़े सख़्त भाव से कहा____"तो उन लोगों की सांसें छीन लो जिन लोगों ने मेरे सुहाग को मुझसे छीना है। जब तक उन हत्यारों को मुर्दा बना कर मिट्टी में नहीं मिला दिया जाएगा तब तक तुम्हारी भाभी के दिल को सुकून नहीं मिलेगा।"

"ऐसा ही होगा भाभी।" मैंने फिर से उनके उस हाथ को थाम लिया, बोला____"मैं आपको वचन देता हूं कि जिन लोगों ने आपके सुहाग की हत्या कर के उन्हें आपसे छीना है उन लोगों को मैं बहुत जल्द भयानक मौत दे कर मिट्टी में मिला दूंगा।"

"एक शर्त और भी है।" भाभी ने कहा____"और वो ये है कि इस सबके चलते तुम खुद को खरोंच भी नहीं आने दोगे।"
"मैं पूरी कोशिश करूंगा भाभी।" मैंने कहा तो भाभी कुछ पलों तक मुझे देखती रहीं और फिर बोलीं____"अब जाओ अपने कमरे में और आराम करो।"

मैं अब आश्वस्त हो चुका था इस लिए उनके सिरहाने से उठा और उन्हें भी सो जाने को बोल कर कमरे से बाहर आ गया। दरवाज़े को आपस में भिड़ा कर मैं कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गया। बाहर से ही मैंने उसे आवाज़ दी तो जल्दी ही कुसुम ने दरवाज़ा खोला। उसकी हालत देख कर मेरा कलेजा कांप गया। वो मेरी लाडली बहन थी और इतना कुछ हो जाने के बाद भी मैं उसे समय नहीं दे पाया था। मैंने उसे पकड़ कर अपने सीने से छुपका लिया। मेरा ऐसा करना था कि उसकी सिसकियां छूट पड़ीं। मैंने किसी तरह उसे शांत किया और फिर भाभी के साथ रहने को बोल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।

अभी मैं गलियारे से मुड़ा ही था कि तभी विभोर ने मुझे पीछे से आवाज़ दी तो मैं ठिठक गया और फिर पलट कर उसकी तरफ देखा।

"क्या बात है?" मैंने उसके क़रीब आ कर पूछा____"तू अपने कमरे में सोने नहीं गया?"
"वो भैया मैं नीचे पेशाब करने गया था।" विभोर ने बुझे स्वर में कहा____"वहां मैंने ताऊ जी को बंदूक ले कर बाहर जाते देखा तो मैं यही बताने के लिए आपके कमरे की तरफ आ रहा था।"

"क्या सच कह रहा है तू?" मैं उसकी बात सुन कर चौंक पड़ा था____"और क्या देखा तूने?"
"बस इतना ही देखा भैया।" उसने कहा____"पर मुझे लगता है कि कुछ तो बात ज़रूर है वरना ताऊ जी रात के इस वक्त बंदूक ले कर बाहर क्यों जाएंगे?"

विभोर की बात बिलकुल सही थी। रात के इस वक्त पिता जी का बंदूक ले कर बाहर जाना यकीनन कोई बड़ी बात थी।

"ठीक है।" मैंने कहा____"तू अपने कमरे में जा। मैं देखता हूं क्या माजरा है।"
"मैं भी आपके साथ चलूंगा भैया।" विभोर ने इस बार आवेश युक्त भाव से कहा____"मुझे भी पिता जी और बड़े भैया के हत्यारों से बदला लेना है।"

"मैं तेरी भावनाओं को समझता हूं विभोर।" मैंने उसके चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा___"यकीन रख, चाचा और भैया के क़ातिल ज़्यादा देर तक जिन्दा नहीं रह सकेंगे। बहुत जल्द उनकी लाशें भी पड़ी नज़र आएंगी। तुझे और अजीत को हवेली में रह कर यहां सबका ख़याल भी रखना है और सबकी सुरक्षा भी करनी है।"

"पर भ...??" अभी वो कुछ कहने ही वाला था कि मैंने उसे चुप कराया और कमरे में जाने को कहा तो वो बेमन से चला गया। उसके जाते ही मैं तेज़ी से अपने कमरे में आया और अलमारी से पिता जी द्वारा दिया हुआ रिवॉल्वर ले कर उसी तेज़ी के साथ कमरे से निकल कर नीचे की तरफ बढ़ता चला गया।

मुझे नीचे आने में ज़्यादा देर नहीं हुई थी लेकिन बैठक में मुझे ना तो पिता जी नज़र आए और ना ही उनके मित्र अर्जुन सिंह। बैठक में सिर्फ भैया के चाचा ससुर, और मेरी दोनों ननिहाल के नाना लोग ही बैठे दिखे। दोनों जगह के मामा लोग भी नहीं थे वहां। मैं समझ गया कि सब के सब पिता जी के साथ कहीं निकल गए हैं। इससे पहले कि बैठक में बैठे उन लोगों की मुझ पर नज़र पड़ती मैं झट से बाहर निकल गया। बाहर आया तो एक दरबान के पास मैं ठिठक गया। उससे मैंने जब सख़्त भाव से पूछा तो उसने बताया कि कुछ देर पहले दो व्यक्ति आए थे। उन्होंने दादा ठाकुर को पता नहीं ऐसा क्या बताया था कि दादा ठाकुर जल्दी ही अर्जुन सिंह और मामा लोगों के साथ निकल गए।


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हवेली के बाहर वाले हिस्से में बने जिस कमरे में जगन को बंद किया गया था उस कमरे के बाहर दो व्यक्ति बैठे पहरा दे रहे थे। आज कल हवेली में जिस तरह के हालात बने हुए थे उसकी जानकारी हवेली के सभी नौकरों को थी इस लिए सुरक्षा और निगरानी के लिए वो सब पूरी तरह से चौकस और सतर्क थे।

"अबे ऊंघ क्यों रहा है?" लकड़ी की एक पुरानी सी स्टूल पर बैठे एक व्यक्ति ने अपने दूसरे साथी को ऊंघते देखा तो उसे हल्के से आवाज़ दी। उसकी आवाज़ सुन कर उसका दूसरा साथी एकदम से हड़बड़ा गया और फिर इधर उधर देखने के बाद उसकी तरफ देखने लगा।

"दिन में सोया नहीं था क्या तू?" पहले वाले ने उसकी तरफ देखते हुए पूछा_____"जो इस वक्त इस तरह से ऊंघ रहा है।"

"हां यार।" दूसरे ने सिर हिला कर अलसाए हुए भाव से कहा____"असल में तेरी भौजी की तबियत ठीक नहीं थी इस लिए दिन में उसे ले कर वैद्य के पास गया था। उसे कुछ आराम तो मिला लेकिन उसकी देख भाल के चक्कर में दिन में सोया ही नहीं। मां दो दिन पहले अपने मायके चली गई है जिसके चलते मुझे ही सब देखना पड़ रहा है।"

"हम्म्म्म मैं समझता हूं भाई।" पहले वाले ने कहा____"पर इस वक्त तो तुझे जागना ही पड़ेगा न भाई।"

"मुझे कुछ देर सो लेने दे यार।" दूसरे ने जैसे उससे विनती की_____"वैसे भी बंद कमरे से वो ना तो निकल सकता है और ना ही निकल कर कहीं जा सकता है। फिर तू तो है ही यहां पर तो थोड़ी देर सम्हाल ले न यार।"

"साले मरवाएगा मुझे।" पहले वाले ने उसे घूरते हुए कहा____"तुझे तो पता ही है कि आज कल हालात बहुत ख़राब हैं। ऐसे में अगर कुछ भी उल्टा सीधा हो गया तो समझ ले दादा ठाकुर हमारे जिस्मों से खाल उतरवा देंगे।"

"हां मैं जानता हूं भाई।" दूसरे ने सिर हिलाया____"पर भाई तू तो है ही यहां पर। थोड़ी देर सम्हाल ले ना। मुझे सच में ज़ोरों की नींद आ रही है। अगर कुछ हो तो मुझे जगा देना।"

पहले वाला कुछ देर तक उसकी तरफ देखता रहा फिर बोला____"ठीक है कुछ देर सो ले तू।"
"तेरा बहुत बहुत शुक्रिया मेरे यार।" दूसरा खुश होते हुए बोला।

"हां ठीक है।" पहला वाला स्टूल से उठा और फिर अपनी कमर में एक काले धागे में फंसी चाभी को निकाल कर उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला_____"इसे पकड़ ज़रा। मैं मूत के आता हूं और हां सो मत जाना वरना गांड़ मार लूंगा तेरी।"

पहले वाले की बात सुन कर दूसरे ने हंसते हुए उसे गाली दी और हाथ बढ़ा कर उससे चाभी ले ली। उधर चाभी दे कर पहला वाला व्यक्ति मूतने के लिए उधर ही एक तरफ बढ़ता चला गया। उसके जाने के बाद उसने आस पास एक नज़र डाली और फिर एक नज़र बंद कमरे की तरफ डाल कर वो थोड़ा ढंग से स्टूल पर बैठ गया।

रात के इस वक्त काफी अंधेरा था। हवेली के बाहर कई जगहों पर मशालें जल रही थी जिनकी रोशनी से आस पास का थोड़ा बहुत दिख रहा था। जिस जगह पर ये दोनों लोग बैठे हुए थे उससे क़रीब पांच क़दम की दूरी पर एक मशाल जल रही थी।

पहले वाला व्यक्ति अभी मुश्किल से कुछ ही दूर गया रहा होगा कि तभी एक तरफ अंधेरे में से एक साया हल्की रोशनी में प्रगट सा हुआ और दूसरे वाले आदमी की तरफ बढ़ चला। दूसरा वाला हाथ में धागे से बंधी चाभी लिए बैठा हुआ था। उसका सिर हल्का सा झुका हुआ था। ऐसा लगा जैसे वो फिर से ऊंघने लगा था। इधर हल्की रोशनी में आते ही साया थोड़ा स्पष्ट नज़र आया।

जिस्म पर काले रंग की शाल ओढ़ रखी थी उसने किंतु फिर भी शाल के खुले हिस्से से उसके अंदर मौजूद सफ़ेद लिबास नज़र आ रहा था। सिर पर भी उसने शाल को डाल रख था और शाल के सिरे को आगे की तरफ कर के वो अपने चेहरे को छुपाए रखने का प्रयास कर रहा था। जैसे ही वो स्टूल में बैठे दूसरे वाले ब्यक्ति के क़रीब पहुंचा तो रोशनी में इस बार शाल के अंदर छुपा उसका चेहरा दिखा। सफ़ेद कपड़े से उसका चेहरा ढंका हुआ था। आंखों वाले हिस्से से उसकी आंखें चमक रहीं थी और साथ ही नाक और मुंह के पास छोटे छोटे छिद्र रोशनी में नज़र आए। ज़ाहिर है वो छिद्र सांस लेने के लिए थे।

रहस्यमय साए ने पलट कर एक बार आस पास का जायजा लिया और फिर तेज़ी से आगे बढ़ कर उसने दूसरे वाले व्यक्ति की कनपटी पर किसी चीज़ से वार किया। नतीज़ा, दूसरा व्यक्ति हल्की सिसकी के साथ ही स्टूल पर लुढ़कता नज़र आया। साए ने फ़ौरन ही उसे पकड़ कर आहिस्ता से स्टूल पर लेटा दिया। उसके बाद उसने उसके हाथ से चाभी ली और बंद कमरे की तरफ बढ़ चला।

पहले वाला व्यक्ति अच्छी तरह मूत लेने के बाद जब वापस आया तो वो ये देख कर बुरी तरह चौंका कि उसका दूसरा साथी स्टूल पर बड़े आराम से लुढ़का पड़ा सो रहा है और जिस कमरे में जगन को बंद किया गया था उस कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ है। ये देखते ही मानों उसके होश उड़ गए। वो मशाल ले कर भागते हुए कमरे की तरफ गया और जब कमरे के अंदर उसे कोई नज़र ना आया तो जैसे इस बार उसके सिर पर गाज ही गिर गई। पैरों के नीचे की ज़मीन रसातल तक धंसती चली गई। शायद यही वजह थी कि वो अपनी जगह पर खड़ा अचानक से लड़खड़ा गया था किंतु फिर उसने खुद को सम्हाला और तेज़ी से बाहर आ कर वो अपने साथी को ज़ोर ज़ोर से हिला कर जगाने लगा। उसका अपना चेहरा डर और ख़ौफ की वजह से फक्क् पड़ा हुआ था।

उसका दूसरा साथी जब उसके ज़ोर ज़ोर से हिला कर जगाने पर भी न जागा तो वो और भी ज़्यादा घबरा गया। उसका अपना जिस्म ये सोच कर ठंडा सा पड़ गया कि कहीं उसका साथी मर तो नहीं गया? हकबका कर वो एक तरफ को भागा और जल्दी ही हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास पहुंच गया। मुख्य द्वार पर खड़े दरबान को उसने हांफते हुए सारी बात बताई तो उस दरबान के भी होश उड़ गए। उसने फ़ौरन ही अंदर जा कर बैठक में बैठे भैया के चाचा ससुर को सारी बात बताई तो बैठक में बैठे बाकी सब भी बुरी तरह उछल पड़े।



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Safed libas wala Mani he ya ushka daya hath jo har kam ko anjam de raha he ? Kher bhi ho kahani ab speed pakad chuki he.
 
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Game888

Hum hai rahi pyar ke
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Eagerly waiting for next update
 
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