kamdev99008
FoX - Federation of Xossipians
- 10,173
- 38,512
- 259
avsji बन्धु आपका तर्क स्वीकारणीय है लेकिन अकाट्य नहीं।राज भाई, यह समुद्र मंथन वाला एपिसोड मेरे ख़्याल से अनावश्यक है/था। एक्चुअली यह #106 पूरा ही अनावश्यक लग रहा है - सच कहूँ तो।
माया सभ्यता और भारतीय सभ्यता के बीच में जो समानताएँ दिखती हैं, उनको महज़ एक संयोग ही माना जाना चाहिए। अनेकों बार ऐसा हुआ है कि इंडेपेंडेंटली दो लोगों को एक ही विचार आ जाएँ - विज्ञान में यह अनेकों बार हो चुका है। प्रकृति पूजन कोई ऐसी अनोखी परंपरा नहीं है कि केवल भारतीय परंपरा की बपौती रहे उस पर। सभी प्राचीन परम्पराएँ प्रकृति पूजन करती रही हैं और उनको देवताओं का रूप देती रही हैं। यह कि दिन/ऋतुएँ/वर्ष चक्रीय पैटर्न पर चलते हैं, कोई भी बुद्धिमान मानव देख और समझ सकता है और हमेशा से समझा भी है। हर प्राचीन सभ्यता में इस बात का उल्लेख है। हाँ - गणना की सटीकता में अंतर हो सकता है। तो उपर्युक्त संयोग प्रत्येक सभ्यता में मिलते हैं, लेकिन एक दो चिन्हों के कारण यह कह देना कि दोनों समान हैं (जैसा आपने ‘लगभग’ कर दिया है) - अतिशयोक्ति, कपोल-कल्पना, और jingoism ही है। इससे बचना चाहिए था। आवश्यकता ही नहीं थी इस बात की इस कहानी में - इतना तो तय है!
ऐसे तो कई मूर्खों के हिसाब से ऑस्ट्रेलिआ भी भगवान रा…म का अस्त्रालय है और Russia (रूस) ‘राक्षसों’ का गढ़ - ऐसी मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद बातों का कोई अंत ही नहीं! कल्पनाओं में रची गढ़ी दुनिया हमेशा ही सत्य नहीं होती। ऐसी बातें वैचारिक रूप से न केवल शर्मनाक हैं, बल्कि जिन सभ्यताओं पर हम अपनी सभ्यता का जबरदस्ती मुलम्मा चढ़ा देते हैं, उन सभ्यताओं के लिए भी हमारा यह अशिष्ट व्यवहार है।
अंत में : नीलाभ के उत्पत्ति की कहानी किसी भी तरह से सुनाई जा सकती थी। लेकिन अभी आपने लिख लिया है, तो उसको बदलें नहीं। और मानता हूँ कि आपको मेरी बातें बुरी लगेंगी, लेकिन मैं भी अपनी खुजली को रोक न सका। बहुत चाहा कि यह सब न लिखूँ, लेकिन नियंत्रण न कर सका। वैसे, बहुसंख्य पाठक आपकी लिखी बातों को सही भी मानेंगे। लेकिन मेरा इन बातों से कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है।
वास्तव में किसी भी
उपलब्ध इतिहास, प्रसिद्ध व्यक्ति और सामाजिक व्यवस्था से पहले भी संस्कृति, परम्परा और समाज होता था।
Raj_sharma भाई अपनी संस्कृति दूसरे पर थोप रहे हैं ऐसा आपको लगा, लेकिन मुझे इसका दूसरा पहलू जो समझ आया, आपके सामने रख रहा हूं, पढ़कर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें
सम्पूर्ण पृथ्वी पर समान संस्कृति या सभ्यता थी, समय के साथ नये सामाजिक, सांस्कृतिक व साम्प्रदायिक समूह बनने पर उन समूहों ने सभ्यता या संस्कृति को अपने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर अलग-अलग रुप में परिभाषित किया जिससे अलग-अलग शब्दों में एक ही बात को कहा जाने लगा और साधारण मनुष्यों ने उनको अलग-अलग ही सभ्यता मान लिया।
विदेशी सभ्यताओं के ऊपर कुछ साम्प्रदायिक समूह इतने हावी हो गये कि वहां के आमजन उन सम्प्रदायों के संस्थापकों और पुस्तकों को ही सभ्यता और संस्कृति का सृजन मानने लगे और उनके पूर्व की सभ्यता-संस्कृति का अस्तित्व ही मानने को तैयार नहीं।
जबकि भारतीय सनातन संस्कृति से जुड़े ज्यादातर लोग आज भी संस्कृति, परम्परा, सभ्यता को अपने आराध्य व्यक्ति और पुस्तकों से प्राचीन मानते हैं
इसीलिए उनकी सभ्यता की कहानी 1500-2000 साल पहले जन्मे व्यक्ति और उसकी लिखी पुस्तक पर समाप्त हो जाती है जबकि हम सांस्कृतिक इतिहास को किसी विशेष क्षेत्र, व्यक्ति या पुस्तक से भी पहले सम्पूर्ण पृथ्वी ही नहीं सम्पूर्ण विश्व तक गणना करते हैं सृष्टि काल से....
जो शर्मा जी यहां कर रहे हैं।
शब्दों का फेर है पोसाइडन कहो या वरुण, जैसे ऑसन कहो या समुद्र....मूल में तत्व तो एक ही है