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शाम के 6 बज रहे थे।
घर के गेट पर रवि की स्पोर्ट्स बाइक आकर रुकी।
घर्रर्रर्र....
इंजन बंद हुआ, लेकिन कामिनी के दिल की धड़कनें अभी भी रेस लगा रही थीं।
पीछे बैठी कामिनी ने रवि की कमर से अपनी पकड़ ढीली की और धीरे से नीचे उतरी। उतरते वक़्त जानबूझकर या अनजाने में, उसका भारी वक्षस्थल एक बार फिर रवि की पीठ से रगड़ खा गया।
"थैंक यू रवि बेटा..." कामिनी ने साड़ी ठीक करते हुए कहा। उसके चेहरे पर अभी भी हवा और उत्तेजना की लाली थी।
"अरे थैंक यू कैसा आंटी... सवारी में तो मुझे भी बड़ा मज़ा आया," रवि ने हेलमेट उतारते हुए, अपनी बालों में हाथ फेरते हुए कहाँ.
कामिनी समझ गई कि वह 'बाइक की सवारी' की बात नहीं कर रहा। वह शरमा कर मुस्कुरा दी। कामिनी का अंतर्मन ख़ुश था, उसे जवान महसूस करवा रहा था.
उसे गर्व हो रहा था की एक 20 साल का लड़का उसे भाव दे रहा है.
वरना उसका अब तक का जीवन अवहेलना मे ही बिता था.
कामिनी आगे बड़ी उसकी नजर स्टोर रूम की तरफ गई, वहाँ कोई खास साफ सफाई नहीं हुई थी, स्टोर रूम का दरवाज़ा बंद था।
कामिनी की नज़रें बंटी पर गईं जो बरामदे में खड़ा था।
"रघु कहाँ गया?" कामिनी ने हैरानी से पूछा।
"वो तो चला गया मम्मी," बंटी ने बताया, "मैंने उसे पैसे दे दिए थे। कह रहा था— आज मन ठीक नहीं है, कल आऊंगा
ना जाने क्यों कामिनी को एक शराबी, देहाती मजदूर की चिंता हुई "क्या हुआ रघु को?"
खेर कामिनी कपड़े बदलने और रात के खाने की तैयारी करने अपने कमरे और फिर रसोई में चली गई।
उधर रवि और बंटी अपने कमरे में आ गए।
रवि बिस्तर पर पसर गया। उसकी आँखों में अभी भी मार्किट वाला मंजर था—कामिनी की गांड पर अपना लंड रगड़ना।
"भाई बंटी..." रवि ने छत को घूरते हुए कहा, "तेरी मम्मी बहुत... बहुत अच्छी हैं। मतलब, घर भी संभालती हैं और खुद को इतना 'फिट' भी रखा है। आजकल ऐसी औरतें कम देखने को मिलती हैं।"
रवि की आवाज़ में तारीफ थी, लेकिन दिमाग में कुछ खुराफ़ात चल रही थी,
बंटी, जो अपनी माँ की मज़बूरी एयर उसका बदलता स्वभाव महसूस कर रहा था, सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। "हाँ भाई, मम्मी बहुत मेहनत करती हैं।"
****************
रात के 9 बजे:
घर के बाहर बुलेट की भारी आवाज़ गूंजी। डुग-डुग-डुग...
रमेश और शमशेर आ गए थे।
हॉल में शराब की महक और भारी जूतों की आवाज़ गूंज उठी।
बंटी और रवि अपने कमरे से बाहर आए।
उसने रवि का परिचय रमेश से करवाया, रमेश ने कोई खास रिस्पांस नहीं किया, उसे तो दारू पीने से मतलब था, घर मे कौन है कौन नहीं इस से कोई मतलब नहीं.
शमशेर ने भी बस औपचारिका ही की क्यूंकि उसकी नजर तो कामिनी को तलाश रही थी.
लेकिन वो आज रसोई से बहार नहीं आई,
रमेश ने माहौल भांप लिया। उसे लगा बच्चे सामने हैं, तो खुल के पी नहीं पाएंगे।
"कामिनी..." रमेश ने आर्डर दिया, "सुन, हम लोग छत वाले कमरे में बैठ रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं होनी चाहिए।"
उसने रवि और बंटी की तरफ देखकर एक फीकी मुस्कान दी।
"और सुन, कुछ चखना—काजू, चने और सलाद, और बर्फ... सब ट्रे में सजाकर ऊपर ले आ। जल्दी करना।"
रमेश और शमशेर सीढ़ियाँ चढ़कर छत की तरफ चले गए। जाते-जाते भी शमशेर ने मुड़कर एक बार पीछे देखा, उसे लगा शायद कामिनी बहार आई हो,
लेकिन कामिनी ने आज पूरी तरह से उसके मनसूबो पर पानी फेर दिया.
*************
छत पर बैठे रमेश ने आर्डर दिया था— "कामिनी, गिलास और चखना लेकर ऊपर आ जा।"
शमशेर की आँखें चमक उठी थीं। वह फिर से कामिनी को घूरने और उसे छेड़ने के लिए तैयार बैठा था।
लेकिन कामिनी रसोई में सब्जी छौंकने में व्यस्त थी, और हाथ सने हुए थे।
"बंटी बेटा... ज़रा यह ट्रे पापा को दे आ," कामिनी ने बंटी को आवाज़ दी।
बंटी ट्रे लेकर ऊपर चला गया।
जैसे ही शमशेर ने बंटी को ट्रे लाते देखा, उसका मुंह उतर गया। वह 'शिकार' का इंतज़ार कर रहा था, और सामने 'बेटा' आ गया। उसने बेमन से गिलास उठाया।
रसोई का दृश्य:
नीचे रसोई में गर्मी अपने चरम पर थी।
गैस पर चढ़ी कढ़ाई और बंद हवा की वजह से तापमान बढ़ा हुआ था। कामिनी पसीने में तर-बतर थी।
उसकी साड़ी का पल्लू पसीने से गीला होकर उसके वक्षस्थल से चिपक गया था। गर्दन से पसीने की बूंदें रेंगती हुई उसकी पीठ की गहराई में समा रही थीं।
वह पूरी शिद्दत से खाना बनाने में मशगूल थी कि तभी उसे अपने पीछे किसी की आहट महसूस हुई।
"आंटी... कुछ हेल्प कर दूँ?"
कामिनी पलटी। रवि खड़ा था।
कामिनी के चेहरे पे मुस्कान आ गई, जैसे वो जानती हो रवि यहाँ क्यों आया है.
वह रसोई के दरवाजे पर टेक लगाए, अपनी भूखी नज़रों से कामिनी की भीगी हुई हालत का मुआयना कर रहा था।
"अरे नहीं बेटा... तुम क्यों करोगे? तुम मेहमान हो, जाकर बैठो," कामिनी ने पल्लू से माथा पोंछते हुए कहा।
"अरे मुझे आता है आंटी... मैं घर पर अपनी मम्मी की हेल्प करता हूँ," रवि ने बहुत ही मासूमियत से झूठ बोला और सीधे अंदर आ गया।
रवि कामिनी के बिल्कुल पास आकर खड़ा हो गया।
किचन का स्लैब छोटा था। रवि ने धनिया उठाया और उसे काटने लगा।
दोनों के बीच मुश्किल से 2-3 इंच का फासला था।
रसोई की गर्मी में कामिनी के जिस्म से उठती पसीने की एक मादक गंध रवि की नाक से टकराई।
यह किसी इत्र की खुशबू नहीं थी, यह एक पकी हुई औरत के फेरोमोंस (Pheromones) की गंध थी—कच्ची, नमकीन और नशीली।
रवि ने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे वह किसी नशे में डूब रहा है।
वह कनखियों से कामिनी को देख रहा था—पसीने से भीगा ब्लाउज, चिपकी हुई लटें और सांस लेते हुए ऊपर-नीचे होता उसका सीना।
'उफ्फ्फ... क्या चीज़ है यार... पसीने में तो और भी नमकीन लग रही है,' रवि मन ही मन बड़बड़ाया।
सब्जी में नमक डालना था।
कामिनी ने इधर-उधर देखा। नमक का डब्बा ऊपर वाली शेल्फ (Shelf) पर रखा था।
कामिनी ने डब्बा उतारने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाया।
उसकी हाइट थोड़ी कम पड़ रही थी।
उसने अपने पंजों पर जोर दिया और अपनी एड़ियां उठा दीं।
जैसे ही कामिनी ने हाथ ऊपर खींचा, उसका ब्लाउज भी ऊपर खिंच गया।
उसकी साड़ी कमर से थोड़ी नीचे खिसक गई, जिससे उसकी गोरी, चिकनी कमर और गहरी नाभि का एक हिस्सा रवि की आँखों के सामने आ गया।
लेकिन रवि की नज़र कहीं और अटक गई।
कामिनी के हाथ ऊपर करने से, उसकी साड़ी का पल्लू हट गया था और उसकी कांख (Armpit) पूरी तरह रवि के सामने उजागर हो गई थी।
वह कांख एकदम साफ़-सुथरी, गोरी और पसीने से भीगी हुई थी। वहां पसीने की एक छोटी सी बूंद चमक रही थी।
रवि के बिल्कुल चेहरे के पास से एक कड़क और उत्तेजक गंध का झोंका आया।
उस गंध ने रवि के दिमाग के तार हिला दिए।
कामिनी का पूरा बदन तना हुआ था, वह डब्बे तक पहुँचने की कोशिश कर रही थी, उसका जिस्म एक धनुष की तरह मुड़ा हुआ था।
कामिनी की उंगलियां डब्बे को छू रही थीं, लेकिन पकड़ नहीं पा रही थीं। लेकिन इस प्रयास मे गांड बहार को निकल कर साड़ी मे और ज्यादा कस गई थी,
"उह्ह्ह..." कामिनी ने और जोर लगाया।
तभी रवि, जो ठीक उसके पीछे खड़ा था, अचानक आगे बढ़ा।
उसने कामिनी के पीछे से अपना हाथ बढ़ाया और आसानी से नमक का डब्बा उतार लिया।
लेकिन इस प्रक्रिया में...
रवि का पूरा शरीर कामिनी की पीठ से सट गया।
रवि की छाती कामिनी की पीठ से चिपकी थी, और उसका निचला हिस्सा (Groin) कामिनी के कूल्हों के बिल्कुल बीचो-बीच जाकर दब गया।
उस एक पल के लिए... रसोई में समय थम गया।
रवि की जींस का सख्त कपड़ा और उसके अंदर का तनाव कामिनी की साड़ी के पार उसकी कोमल त्वचा को चुभ गया।
"सीईईईईई............"
कामिनी के मुंह से एक दबी हुई सिसकी निकल गई।
नमक का डब्बा रवि के हाथ में था, लेकिन करंट कामिनी के पूरे बदन में दौड़ गया।
उसकी कमर रवि की कमर से चिपकी हुई थी। पीछे से मिल रही उस मर्दाना गर्माहट ने उसकी टांगों को कमजोर कर दिया।
वह चाहती तो हट सकती थी, लेकिन उसका जिस्म उत्तेजना से कसमसा गया।
पसीने से भीगे हुए दो जिस्म एक-दूसरे की गर्मी सोख रहे थे।
"ये लीजिये आंटी... नमक," रवि ने उसके कान के बिल्कुल पास फुसफुसाते हुए कहा। उसकी गर्म सांस कामिनी की गर्दन पर लगी।
कामिनी ने कांपते हाथों से डब्बा लिया।
"थ... थैंक यू..."
वह रवि से अलग हुई, लेकिन उस एक पल के रगड़ ने उसकी चूत में फिर से वही आग लगा दी थी जो सुबह से सुलग रही थी।
************
रात के 11 बज चुके थे।
"खाना ले आना ऊपर " रमेश के चिल्लाने की आवाज़ से कामिनी चौंक गई.
वो शांति से कमरे मे बैठी थी, आज उसका दिन शांति से बिता था और उम्मीद थी की रात भी शांति से ही गुजरेगी.
कामिनी ने जल्दी से दो थालियों में खाना लगाया और भारी कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ रही थी।
उसके दिल में धक-धक हो रही थी। उसे लगा था कि इतनी देर हो गई है, शायद दोनों सो गए होंगे या नशा चढ़ गया होगा।
उसने छत के कमरे का दरवाज़ा धीरे से धक्का देकर खोला।
अंदर का नज़ारा देखकर उसके कदम ठिठक गए।
उसका अंदाज़ा गलत था।
रमेश सोया नहीं था। वह बिस्तर पर बैठा था, लेकिन उसकी हालत बहुत खराब थी। आँखें एकदम चढ़ी हुई थीं, बाल बिखरे थे और वह नशे में झूल रहा था।
और उसके ठीक सामने कुर्सी पर शमशेर बैठा था।
शमशेर ने अपनी वर्दी उतार दी थी। वह सिर्फ़ अपनी एक छोटी सी, टाइट चड्डी में बैठा था। चौड़ी छाती पर बालो का झुरमुत चमक रहा रहा,
कामिनी को देखते ही रमेश का पारा चढ़ गया।
"साली अंदर आ..." रमेश गुर्राया।
"कहाँ गांड मरा रही थी इतनी देर से? खाना लाने में इतना टाइम लगता है?"
कामिनी को गहरा धक्का लगा। उसका पति एक पराये मर्द के सामने उसे इतनी गंदी गाली दे रहा है,
"वो... वो... गर्म कर रही थी..." कामिनी ने सफाई देनी चाही।
"चुप! बहस मत कर," रमेश चिल्लाया।
कामिनी की आँखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने डरते-डरते थाली टेबल पर रख दी।
तभी उसकी नज़र शमशेर पर गई।
शमशेर अपनी टांगें चौड़ी करके बैठा था।
उसकी उस छोटी सी चड्डी के अंदर एक विशाल उभार साफ़ दिख रहा था। उसका लंड पूरी तरह खड़ा था, मोटा और लंबा... नसों से भरा हुआ। वह चड्डी के कपड़े को फाड़कर बाहर आने को बेताब था।
कामिनी की नज़रें उस उभार पर चिपक गईं।
"कोई नहीं अब खाना आ ही गया है तो खा ही लेंगे " शमशेर ने कामिनी की भूखी नज़रों को भांप लिया। उसने जानबूझकर अपनी जांघों पर हाथ फेरा और एक कुटिल मुस्कान दी।
"चल बैठ मेरे पास," रमेश ने बिस्तर की तरफ इशारा किया।
"साला नशे में खूंखार हो जाता है," शमशेर ने हंसते हुए कहा, जैसे उसे मजा आ रहा था मियां बीवी के बीच.
कामिनी डरते-डरते बिस्तर के किनारे, रमेश के पास बैठ गई।
रमेश ने कामिनी को घूरा।
"साली आज बड़ी चमक रही है... किसके लिए सज के घूम रही है?"
बोलते-बोलते रमेश ने अपनी पैंट की जिप खोली।
उसने अपना हाथ अंदर डाला और अपना लंड बाहर निकाल लिया।
वह छोटा सा, सिकुड़ा हुआ और ढीला था। नशे की वजह से उसमें जान नहीं थी।
"हिला इसे..." रमेश ने हुक्म दिया।
"खड़ा कर इसे... साली इतनी सुंदर बनी फिरती है तु आजकल।
कामिनी सकपका गई। अचानक से ये क्या हुआ? उसे रमेश के इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी.
"क्या? यहाँ? इनके सामने?" उसने शमशेर की तरफ देखा।
शमशेर कुर्सी पर बैठा, यह सब देख रहा था।
कामिनी की बेबसी और रमेश की बेशर्मी देखकर शमशेर की उत्तेजना बढ़ गई। उसने अपना हाथ अपनी चड्डी के ऊपर रखा और अपने लोहे जैसे सख्त लंड को सहलाने लगा।
कामिनी ने देखा कि शमशेर का लंड रमेश के लंड से कितना बड़ा और ताकतवर लग रहा था।
"तू खड़ा कर मेरा लंड... उधर क्या देख रही है?" रमेश ने कामिनी की नज़र शमशेर की तरफ जाते देख ली।
चटाक!
एक जोरदार थप्पड़ कामिनी के गाल पर पड़ा।
"आह्ह्ह..." कामिनी का गाल सुन्न हो गया। आँखों से आंसू टपक पड़े। गाल पर रमेश की उंगलियों के निशान छप गए।
"जल्दी कर रंडी... वरना आज यही खाल उधेड़ दूंगा," रमेश ने धमकी दी।
कामिनी के पास कोई चारा नहीं था, पता नहीं कामिनी की ऐसी क्या मज़बूरी थी की वो रमेश से इतना ख़ौफ़ खाती थी.
उसने अपने कांपते हाथ रमेश के लंड की तरफ बढ़ाए।
उसने उस छोटे, ढीले मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में पकड़ा। वह इतना छोटा था कि कामिनी की एक मुट्ठी में ही गायब हो गया।
कामिनी उसे हिलाने लगी।
खन-खन-खन...
कमरे में सिर्फ़ कामिनी की चूड़ियों की आवाज़ गूंज रही थी।
जैसे-जैसे उसका हाथ चल रहा था, उसके ब्लाउज में कैद उसके भारी स्तन हिल रहे थे।
शमशेर की नज़रें उन हिलते हुए स्तनों पर गड़ी थीं। वह अपनी चड्डी के ऊपर से अपने लंड को ज़ोर-ज़ोर से रगड़ रहा था। उसका उभार और बड़ा होता जा रहा था।
कामिनी एक अजीब सी दुविधा में थी।
शर्म और अपमान से वह मरी जा रही थी—पति के दोस्त के सामने मुठ मारना?
लेकिन साथ ही... एक गंदी उत्तेजना भी उसे महसूस हो रही थी।
उसकी नज़र बार-बार शमशेर के विशाल 'उभार' पर जाती, और फिर अपने हाथ में पकड़े रमेश की 'लुल्ली ' पर।
तुलना साफ़ थी।
एक तरफ 'पहाड़' था, और दूसरी तरफ 'कंकड़'।
कामिनी मन ही मन सोच रही थी— 'हे भगवान... मेरे पति के पास कुछ नहीं है... और वो सामने बैठा आदमी... वो तो पूरा घोड़ा है।'
यह सोचकर उसकी चूत गीली होने लगी। उसे अपनी इस बेइज़्ज़ती में, इस बेहयाई मे एक अलग सा अहसास हो रहा था, उसे उत्तेजना के साथ साथ शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी,
रमेश नशे में गालियां बके जा रहा था।
"आअह्ह्ह.... हिला इसे.... जोर से..."
लेकिन उसका लंड खड़ा ही नहीं हो रहा था। वह बिल्कुल मरा हुआ था।
"उफ्फ्फ्फ़.... इसससस.... साली रंडी.... हिलाना भी नहीं आता तुझे? किस काम की है तू?"
रमेश ने कामिनी के बाल पकड़ लिए और उसे झकझोर दिया।
"देख शमशेर... देख इस कुलच्छनी को... अपने खसम का लंड खड़ा नहीं कर पा रही।"
******************
कामिनी की कलाई दुखने लगी थी।
वह पिछले दस मिनट से रमेश के उस छोटे, ढीले और बेजान मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में रगड़ रही थी। लेकिन नतीजा सिफर था। वह लंड खड़ा होना तो दूर, हिल भी नहीं रहा था।
रमेश की बर्दाश्त की हद पार हो गई।
"हट्ट साली..." रमेश ने कामिनी के हाथ को झटक दिया।
"बताओ साली... तू एक मर्द का लंड भी नहीं खड़ा कर सकती? कैसी औरत है तू? तेरे अंदर वो कशिश ही नहीं है जो मुर्दे में जान डाल दे।"
चटक.... चाटक..... रमेश ने कामिनी के स्तनों पर जोरदार चाटा मारा.....
कामिनी के स्तन लाल पड़ गए "आआआहहहह..... क्या कर रहे है आप?"
चुप साली.....
रमेश अपनी नामर्दी का सारा ठीकरा कामिनी पर फोड़ रहा था। वह उसे जलील कर रहा था, गालियां दे रहा था।
पास बैठे शमशेर ने यह तमाशा देखा और एक कुटिल मुस्कान दी।
उसने व्हिस्की की बोतल उठाई और एक और कड़क पेग बनाया।
"ले भाई... मूड ठीक कर," शमशेर ने गिलास रमेश को थमाया।
फिर उसने अपनी चड्डी के ऊपर से अपने उभरे हुए लंड को सहलाते हुए सुझाव दिया—
"यार रमेश... हाथ से तो यह खड़ा होने से रहा। इसे मुंह की गर्मी चाहिए। इसे चूसने को बोल... देख शायद खड़ा हो जाये।"
रमेश ने एक ही घूंट में आधा गिलास खाली किया और कामिनी को घूरा।
"सुना नहीं तूने? मुंह में ले इसे..."
कामिनी की रूह कांप गई। पति का लंड चूसना?
इस से पहले भी उसने ऐसी कोशिश की थी, उसे घिन आती थी।
वह चुपचाप बैठी रही, सिर झुकाए।
"अबे, इसे तो चूसना भी नहीं आता," रमेश ने हताशा में कहा, "साली गांव की गंवार है।"
"अरे यह क्या बात हुई?" शमशेर ने हैरानी जताई, "शादी के इतने साल हो गए और लंड चूसना भी नहीं आता?"
शमशेर ने अपनी जांघों को और चौड़ा किया।
"तू कहे तो मैं सीखा दूँ?" शमशेर ने बेशर्मी से ऑफर दिया।
रमेश, जो नशे और हताशा में अंधा हो चुका था, उसे इसमें कोई बुराई नहीं लगी। उसे बस अपना काम बनवाना था, चाहे तरीका कोई भी हो।
"सिखा यार... तू ही कुछ सिखा इसे। तेरे पास तो तजुर्बा भी बहुत है रंडियों का।"
रमेश की 'हाँ' मिलते ही शमशेर की आँखों में शैतान जाग उठा।
वह अपनी कुर्सी से खड़ा हुआ।
कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी थी, उसका चेहरा शमशेर के पेट के बराबर था।
शमशेर ने एक हाथ अपनी कमर पर रखा और दूसरे हाथ से अपनी चड्डी को पकड़ा।
सर्रर्र...
एक झटके में उसने अपनी चड्डी नीचे खींच दी।
धप्प...
जैसे कोई भारी-भरकम चीज़ हवा में आज़ाद हुई हो।
कामिनी को तो जैसे सांप ही सूंघ गया।
उसकी आँखों के ठीक सामने, मुश्किल से 4 इंच की दूरी पर...
शमशेर का विशाल, काला और खूंखार लंड हवा में लहरा रहा था।
करीब 9 इंच लंबा। कलाई जितनी मोटाई।
उस पर उभरी हुई हरी-नीली नसें किसी नक्शे की तरह दिख रही थीं। उसका मुंड किसी मशरूम की तरह फैला हुआ था और गहरा लाल था।
वह रमेश के लंड जैसा नहीं था। उसमें जीवन था, ताकत थी, और क्रूरता थी।
जैसे ही वह बाहर आया, कामिनी की नाक में एक अजीब सी गंध का भभका लगा।
यह गंध पसीने, वीर्य, मूत्र और एक मर्द की कामुक गंध का मिश्रण थी। वह गंध तीखी थी, कड़वी थी... लेकिन कामिनी के नथुनों से होते हुए सीधे उसके दिमाग और फिर उसकी चूत तक पहुँच गई।
कमरे में हवा भारी हो गई थी, सिर्फ कामिनी की भरी साँसो की आवाज़ गूंज रही थी, उसे लगा जैसे उसका बलात्कार ही हो जायेगा.
कुछ भी हो एक औरत ऐसी स्थति मे फसना कभी नहीं चाहती.
उसके पति का ये extrim रूप था, वो इतना नीचे भी गिर सकता है उसे ये अहसास आज हुआ.
रमेश ने कामिनी की कलाई को लोहे की तरह जकड़ लिया, "साली रंडी... नखरे मत कर," रमेश गुर्राया, उसकी आँखों में नशा और हैवानियत थी।
"वो मेरा दोस्त है... उसके बहुत अहसान हैं मेरे ऊपर। अगर वो खुश नहीं हुआ तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा। पकड़ उसका लंड!"
रमेश ने पूरी ताकत लगाकर कामिनी का हाथ खींचा और शमशेर के तने हुए, विशाल लंड पर रख दिया।
कामिनी के बदन में 440 वोल्ट का झटका लगा।
उसकी स्थिति किसी भी विवाहित स्त्री के लिए नरक से बदतर थी।
उसके एक हाथ में उसके पति का छोटा, ढीला और बेजान लंड था।
और दूसरे हाथ के नीचे... शमशेर का फौलादी, गरम और धड़कता हुआ लंड।
उसकी हथेली शमशेर के लंड की नसों पर फिसली। वह इतना गरम था कि कामिनी की उंगलियां जलने लगीं।
उस स्पर्श से उसकी चूत एक पल के लिए कुलबुला उठी—यह उसके जिस्म की गद्दारी थी।
लेकिन अगले ही पल... उसके दिमाग में एक विस्फोट हुआ।
"नहीं!"
कामिनी की अंतरात्मा चीख पड़ी।
'मैं क्या कर रही हूँ? मैं रंडी नहीं हूँ... मैं एक पत्नी हूँ, एक माँ हूँ। मैं अपने पति के सामने किसी और मर्द का लंड नहीं पकड़ सकती।'
आत्मग्लानि के एक भारी पहाड़ ने उसे कुचल दिया।
उसे अपने पति पर, शमशेर पर और सबसे ज्यादा खुद पर घिन आई।
उसका दम घुटने लगा। उसे लगा कि अगर वह एक पल भी और इस कमरे में रही, तो वह मर जाएगी या पागल हो जाएगी।
उसने झटके से अपने दोनों हाथ खींचे।
रमेश और शमशेर कुछ समझ पाते, इससे पहले ही कामिनी किसी घायल हिरनी की तरह उछलकर खड़ी हो गई।
उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली।
"छिः... छिः..." उसके मुंह से बस यही निकला।
वह मुड़ी और दरवाजे की तरफ भागी।
"अरे रुक साली... कहाँ जा रही है?" रमेश पीछे से चिल्लाया, लेकिन वह उठ नहीं पाया।
शमशेर भी हड़बड़ा गया, "अरे भाभी..."
लेकिन कामिनी रुकी नहीं।
वह नंगे पाँव सीढ़ियों से नीचे भागी।
उसका पल्लू गिर रहा था, बाल बिखर गए थे, लेकिन उसे किसी चीज़ की होश नहीं थी।
वह बदहवास होकर हॉल में आई, फिर आंगन में...
घर की दीवारे जैसे उसे काटने को दौड़ रही थीं। उसे खुली हवा चाहिए थी। उसे सांस लेनी थी।
उसने पीछे का दरवाज़ा खोला और सीधे गार्डन की तरफ भागी।
अंधेरे में ठोकर खाते हुए वह उसी जामुन के पेड़ के पास पहुंची।
वही जगह... जहाँ अक्सर रघु बैठा करता था।
कामिनी वहां पहुँचकर हांफते हुए रुक गई।
उसने चारों तरफ देखा। उसकी आँखें अंधेरे में रघु को तलाश रही थीं।
शायद उसे लगा था कि वह यहाँ होगा... शायद वह उसे बचा लेगा... या कम से कम उसकी बात सुन लेगा।
लेकिन आज... वहाँ कोई नहीं था।
गार्डन वीरान था। सन्नाटा पसरा हुआ था।
सिर्फ़ झींगुरों की आवाज़ थी और कामिनी की सिसकियाँ।
कामिनी उसी पेड़ के नीचे, सूखी घास पर घुटनों के बल गिर पड़ी।
उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
"ये... ये क्या हो गया?" वह हिचकियों के बीच बुदबुदाई।
"मेरा पति... मेरा सुहाग... वो मुझे दूसरे मर्द के हवाले कर रहा था? वो मुझे उसके सामने 'रंडी' बोल रहा था.
कैसा इंसान है ये? अकेले कमरे मे की गई हरकत अलग बात थी.... लेकिन... लेकिन.... ये...
सुबुक.... सुबुक.... कामिनी बर्दाश्त ना कर सकी उसका दिल रो पड़ा.
*************
कामिनी गार्डन में पागलों की तरह टहल रही थी।
उसके नंगे पैर गीली घास और कंकड़ों पर पड़ रहे थे, लेकिन उसे कोई होश नहीं था। उसका दिमाग अभी भी उसी छत वाले कमरे में अटका था।
“साली रंडी... मर्द का लंड भी खड़ा नहीं कर सकती... गांव की गंवार है, चूसना भी नहीं आता।”
रमेश के वो शब्द, उसकी वो घिनौनी हंसी, और शमशेर का वो नंगापन... सब कुछ उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था।
वह वापस अंदर नहीं जा सकती थी। वहां वो दो दरिंदे थे।
चलते-चलते उसके कदम अनजाने में ही घर के पीछे बने स्टोर रूम की तरफ मुड़ गए। शायद उसका अवचेतन मन उसे वहीं ले आया था जहाँ उसे सुकून (या शायद एक अलग तरह की आग) मिलती थी।
स्टोर रूम का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर एक मद्धम, पीली रौशनी जल रही थी।
कामिनी ने दरवाज़ा धकेला और अंदर दाखिल हुई।
अंदर का दृश्य देखकर उसके होश उड़ गए। पैर ज़मीन पर जम गए।
सामने एक पुरानी खटिया पर, रघु पड़ा हुआ था।
वह पूरी तरह नंगा था।
शायद गर्मी की वजह से या नशे की वजह से उसने अपनी लुंगी उतार फेंक दी थी।
वह चित लेटा था, टांगें थोड़ी फैली हुई थीं। उसका सांवला, गठीला और पसीने से चमकता बदन उस पीली रौशनी में किसी सोये हुए योद्धा जैसा लग रहा था।
उसका साँवला, गठीला बदन पसीने की एक पतली परत से चमक रहा था। छाती धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हो रही थी।
लेकिन कामिनी की नज़रें उसके चेहरे पर नहीं रुकीं।
वे सीधे नीचे फिसल गईं... रघु की दोनों फैली हुई, मांसल जांघों के बीच।
वहाँ... काले, घुंघराले बालों के जंगल के बीच... उसका विशाल पौरुष निढाल होकर पड़ा था।
वह अभी सोया हुआ था, लेकिन फिर भी वह इतना बड़ा और भारी लग रहा था कि कामिनी की सांसें अटक गईं।
वह एक तरफ लुढ़का हुआ था, उसका मुंड जांघ से सटा हुआ था।
कामिनी वहीं, दरवाजे पर जमी रह गई।
उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रही है।
ऊपर उसका पति उसे 'नामर्द' साबित करने पर तुला था, और यहाँ नीचे कुदरत का एक 'विशाल नमूना' बेहोश पड़ा था।
कामिनी की चूत, जो अपमान से गीली थी, इस नज़ारे को देखकर बाढ़ की तरह बह निकली।
एक अजीब सी सम्मोहन शक्ति उसे खटिया की तरफ खींचने लगी।
वह दबे पाँव, किसी बिल्ली की तरह आगे बढ़ी।
खटिया के पास जाकर वह घुटनों के बल बैठ गई। उसकी रेशमी साड़ी स्टोर रूम की धूल भरी ज़मीन पर फ़ैल गई, लेकिन उसे होश नहीं था। वो क्या कर रही है, क्यों कर रही उसे होश ही नहीं था.
उसका चेहरा अब रघु के लंड के बिल्कुल समानांतर था।
उसने गौर से देखा।
वह लंड शांत था, सोया हुआ था। उसकी खाल थोड़ी ढीली थी, लेकिन उसके नीचे की नसें साफ़ दिखाई दे रही थीं।
कामिनी के मन में एक ज़िद्द जागी।
'रमेश कहता है मैं खड़ा नहीं कर सकती? मैं दिखाती हूँ कि मैं क्या कर सकती हूँ।'
कामिनी के मन मे बदले का भाव पनपने लगा था,
उसने अपना कांपता हुआ हाथ आगे बढ़ाया।
उसकी कोमल, गोरी हथेली ने रघु के उस साँवले, भारी लंड को छुआ।
वह गरम था... बहुत गरम।
और भारी।
जैसे ही कामिनी ने अपने काँपते हाथो से उसे अपनी मुट्ठी में भरा, उसे वजन महसूस हुआ। रमेश का लंड तो रुई जैसा हल्का था, लेकिन यह... यह तो ठोस मांस का टुकड़ा था।
कामिनी की मुट्ठी पूरी नहीं पड़ रही थी, लंड का सुपारी और निचला हिस्सा अभी भी बाहर था।
कामिनी ने धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी को कसना शुरू किया।
उसके हाथ खुद ही रघु के सोये लंड पर आगे पीछे फिसलने लगे,
उसने उसे हिलाना शुरू किया—ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर।
वह उसके सोये हुए मुंड को अपने अंगूठे के पोर से सहलाने लगी।
"उठो..." वह मन ही मन फुसफुसाई, "जागो... मै ुए कर सकती हूँ, मुझे आता है"
रघु के लंड ने कामिनी के अंतर्मन का जवाब तुरंत दिया।
कामिनी के हाथ की गर्मी पाते ही, उस बेजान मांस में खून दौड़ने लगा।
वह कामिनी की मुट्ठी के अंदर फैलने लगा, सख्त होने लगा।
कामिनी की आँखों में चमक आ गई। यह कामिनी के छुवन की ताकत थी। वह जादू कर रही थी।
जो लंड अभी मरा हुआ था, वह उसके छूने भर से ज़िंदा हो रहा था।
'झूठा है रमेश... मैं ठंडी नहीं हूँ। मैं आग हूँ।'
लेकिन अभी परीक्षा बाकी थी।
“चूसना नहीं आता...” रमेश के कातिल शब्द कामिनी के मन मे चोट करने लगे.
कामिनी ने एक गहरी सांस ली।
रघु के लंड से एक तीखी, मर्दाना गंध उठ रही थी—पसीने, मूत्र और वीर्य की मिली-जुली गंध। यह गंध किसी इत्र से ज्यादा नशीली थी।
कामिनी ने अपना चेहरा झुकाया।
उसकी सांसें रघु के लंड पर टकराईं, जिससे वह लंड हल्का सा फड़फड़ाया।
कामिनी ने अपनी जुबान बाहर निकाली।
लाल, गीली जुबान।
उसने रघु के लंड के सुपारी पर, जो अब सख्त होकर चमक रहा था, एक लंबी चाट मारी।
स्लर्रर्रप...
उसका स्वाद नमकीन था। कसैला था।
कामिनी को घिन आनी चाहिए थी। आती भी थी, लेकिन आज.... आना उसे कोई घिन्न नहीं आई, उसकी आँखों मे आंसू थे, एक जज्बा था, वो खुद को औरत साबित कर देना चाहती थी, उसने ये भी नहीं देखा की सामने वाला आदमी नौकर है, एक शराबी, मजदूर है, जिसका लंड वो चाट रही है,
उसे घिन नहीं आई। उसे एक अजीब सा विजयी नशा चढ़ गया।
उसने अपनी जुबान की नोक से उस लंड के छेद को कुरेदा।
और फिर...
उसने अपना मुंह पूरा खोला।
उसने अपने होंठों को गोल किया और उस मोटे मुसल्ल को अपने मुंह के अंदर ले लिया। सुर्ख लाल होंठो के बीच काला गन्दा लंड घुसने को तैयार था,
ग्ल्लप...
गर्म, सख्त मांस उसके गीले मुंह के अंदर घुस गया।
कामिनी का मुंह भर गया था, लेकिन वह रुकी नहीं।
वह उसे चूसने लगी।
अपने गालों को पिचकाकर उसने वैक्यूम बनाया।
चप... चप... चप...
कमरे में सिर्फ़ उसके चूसने की गीली आवाज़ें गूंज रही थीं।
वह अपनी जीभ को लंड के नीचे वाली नसों पर फिरा रही थी, और अपने होंठों से सुपारी को चूम रही थी।
उसका सिर लय में ऊपर-नीचे हो रहा था।
उसके कानों में जो झुमके थे, वो हिल रहे थे। मांग का सिंदूर चमक रहा था।
एक सुहागन औरत, माथे पर बिंदी, गले में मंगलसूत्र... और मुंह में नौकर, शराबी मजदूर का लंड।
यह दृश्य जितना पापपूर्ण था, उतना ही कामुक।
रघु नींद में ही कसमसाया।
"उह्ह्ह..." उसके मुंह से एक भारी आवाज़ निकली।
कामिनी के मुंह का जादू चल गया था।
रघु का लंड अब अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो चुका था। वह कामिनी के गले तक जाने की कोशिश कर रहा था।
वह लोहे की रॉड बन चुका था।
कामिनी की आंखों से पानी बहने लगा (गले में लंड जाने की वजह से), लेकिन उसने छोड़ने से मना कर दिया।
वह उसे और जोर से चूसने लगी।
उसे परवाह ही नहीं थी की रघु जग गया तो क्या होगा? वो क्या सोचेगा? वो अपनी धुन, अपने गुस्से मे थी.
वह अपने पति को, शमशेर को, और पूरी दुनिया को दिखा रही थी—
'देखो... यह खड़ा है। लोहे जैसा खड़ा है। और यह मैंने किया है। मैं रंडी नहीं हूँ, मैं जादूगरनी हूँ। मैं किसी को भी पिघला सकती हूँ। मुझमे वो अप्सरा जैसा आकर्षण है.
स्टोर रूम में सिर्फ़ चूसने की आवाज़ें गूंज रही थीं। चप... चप... ग्लप...
कामिनी पूरी शिद्दत से रघु के लंड को अपने मुंह में लिए हुए थी। वह अपनी जीभ और गालों का ऐसा इस्तेमाल कर रही थी जैसा उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसे एक जूनून सवार था—अपने पति को गलत साबित करने का। उसने कभी ऐसा नहीं किया था, बस आज किस आवेश मे कर गई पता नहीं.
सम्भोग कला इंसान स्वम सीखता है, उसे कोई सिखाता नहीं, इसका ताज़ा उदाहरण थी कामिनी.
रघु का लंड उसके मुंह में किसी पत्थर की तरह सख्त हो चुका था।
तभी, रघु का शरीर कसमसाने लगा।
नशे और गहरी नींद के बीच, उसे अपनी जांघों के बीच हो रही उस हलचल का एहसास होने लगा था। उसे लगा जैसे वह कोई हसीन सपना देख रहा है।
अचानक, रघु ने अपना भारी, खुरदरा हाथ उठाया और कामिनी के सिर के पीछे रख दिया।
उसने अपनी उंगलियां कामिनी के रेशमी बालों में फंसा दीं।
और फिर... एक झटके में उसने कामिनी के सिर को नीचे दबा दिया।
ग्लक...
रघु का लंबा लंड कामिनी के हलक तक उतर गया।
कामिनी की सांस रुकने को हो गई। उसकी आँखों से पानी निकल आया। वह सिर पीछे खींचना चाहती थी, लेकिन रघु की पकड़ लोहे जैसी मजबूत थी।
रघु नींद में ही बड़बड़ाया—
"चूस सुगना... चूस मेरी जान... क्या चूसती है तू... आह्ह्ह..."
उसकी आवाज़ में एक तड़प थी, एक पुराना प्यार था। वह कामिनी को अपनी मरी हुई बीवी 'सुगना' समझ रहा था।
"मज़ा आ गया... पूरा मुंह में ले... छोड़ना मत..."
रघु अपनी कमर को ऊपर उठाने लगा, जिससे उसका लंड कामिनी के मुंह में और गहराई तक जाने लगा.
कामिनी एक पल को डर गई। उसे लगा रघु जाग गया है।
लेकिन उसकी बंद आँखें और 'सुगना' का नाम सुनकर वह समझ गई कि वह अभी भी नशे और नींद के आगोश में है।
इस अहसास ने कामिनी के डर को कम किया और उसकी उत्तेजना को बढ़ा दिया।
उसने विरोध करना छोड़ दिया।
उसने अपनी जीभ को और तेज़ कर दिया। उसके मुंह से थूक और लार की धार रघु के लंड और अंडकोषों पर बहने लगी।
करीब 5 मिनट की उस जंगली चुदाई के बाद...
रघु का बदन अकड़ गया। उसके पैरों की उंगलियां मुड़ गईं।
उसने कामिनी के बालों को जड़ से पकड़ लिया और उसे हिलने नहीं दिया।
"आअह्ह्ह.... सुगना... तूने मार डाला.... मैं गया..."
रघु के लंड में एक भयानक विस्फोट हुआ।
पिच... पिच... पिच...
गाढ़ा, गर्म और कसैला वीर्य की एक बाढ़ कामिनी के मुंह के अंदर छूट पड़ी।
वह फव्वारे की तरह उसके गले में, उसकी जीभ पर और उसके दांतों पर गिर रहा था।
जैसे ही वीर्य छूटा, कामिनी को होश आया।
घिन और यथार्थ का एक झटका लगा। वह मुंह हटाना चाहती थी, थूकना चाहती थी।
लेकिन रघु ने कस के उसका पूरा मुंह अपने लंड पर दबाया हुआ था। वह उसे हिलने नहीं दे रहा था।
कामिनी न चाहते हुए भी मजबूर थी।
रघु का सारा वीर्य, बूंद-बूंद करके कामिनी के मुंह में समा गया। उसका मुंह पूरी तरह भर गया था। उसे सांस लेने के लिए कुछ हिस्सा निगलना भी पड़ा।
थोड़ी देर बाद, रघु का शरीर ढीला पड़ गया। उसकी पकड़ ढीली हुई।
कामिनी ने झटके से अपना सिर पीछे खींचा।
पॉप...
एक आवाज़ के साथ लंड बाहर निकला। उसके होंठों से एक तार लार और वीर्य का जुड़ा हुआ था जो टूट कर रघु की जांघ पर गिर गया।
कामिनी हांफ रही थी।
वह जैसे-तैसे लड़खड़ाते हुए उठी। उसने एक बार रघु को देखा जो अब शांत होकर सो गया था।
वह वहां से भागी।
गार्डन पार किया, पिछला दरवाज़ा खोला और बदहवास होकर अपने बेडरूम में घुसी।
उसकी सांसें फूली हुई थीं। उसका पूरा मुंह, जीभ और गला उस कसैले, नमकीन स्वाद से भरा हुआ था।
रघु का 'बीज' उसके अंदर था।
उसमें कुल्ला करने या बाथरूम जाने की भी हिम्मत नहीं थी। उसका जिस्म जल रहा था—शर्म से, थकान से और उस अजीब से नशे से।
वह धम्म से बिस्तर पर गिर गई,
उसकी जाँघे बुरी तरह से गीली थी, लग रहा था जैसे किसी ने जलता कोयला अंदर राख दिया हो.
कामिनी से रहा नहीं गया, उसने हाथ अपनी जांघो के बीच डाल बहार निकाल लिया, उसकी आँखों के सामने सफ़ेद चासनी सी लकीर उसकी उंगलियों मे फसी हुई थी.
आआआहहहहह...... कामिनी कांप उठी, उसकी चुत ने इतना पानी आजतक नहीं छोड़ा था.
वो खुद नहीं जानती थी वो क्या कर रही है, क्यों कर रही है. बस अपने जिस्म की गुलाम होती जा रही थी.
उसकी नजरें अपनी ऊँगली के बीच रिसती चासनी पर थी. उसे समझ जाना चाहिए था की वो बेइज़्ज़त हो कर भी उत्तेजित हो जाती है, लेकिन ये सामन्य घटना नहीं थी,.
भला कौन औरत अपने अपमान मे उत्तेजित होती है.
या फिर कामिनी को आदत हो गई थी रमेश की मार पिट की उसकी बेइज़्ज़ती की.
कामिनी दुविधा मे थी, भयंकर दुविधा मे.
वो कभी खुद को 18 साल की महसूस करती, जिसे भावनात्मक प्यार चाहिए होता है तो कभी खुद को प्यासी औरत महसूस करती जिसे सिर्फ लंड चाहिए भले वो किसी का भी हो, ऐसा ना होता तो वो रघु जैसे मेले कुचले शराबी आदमी का लंड चूसने की हिम्मत कर पति.
वो खुद सकते मे थी की उसने ऐसा कर कैसे लिया, उसकी अंतरात्मा इसे धिक्कार रही थी.
"साली रंडी......"
कामिनी की आंखे भर आई.
थकान इतनी ज्यादा थी कि न जाने कब उसकी आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला।
कुछ देर बाद (स्टोर रूम में):
स्टोर रूम में सन्नाटा था।
रघु की आंखें धीरे-धीरे खुलीं। नशा थोड़ा कम हुआ था।
उसने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे उसने एक बहुत ही प्यारा सपना देखा है—सुगना उसके पास थी, उसे प्यार कर रही थी।
लेकिन फिर उसे अपनी जांघों के बीच एक अजीब सा गीलापन और ठंडक महसूस हुई।
रघु ने उठकर देखा।
उसका लंड अभी भी आधा खड़ा था।
लेकिन वह गीला था।
वह थूक, लार और वीर्य से लथपथ था। उसकी जांघों पर सफ़ेद, चिपचिपा द्रव बिखरा हुआ था।
रघु सन्न रह गया।
उसने अपनी उंगली से उस गीलेपन को छुआ और सूंघा।
"यह क्या?" रघु का दिमाग चकरा गया।
"यह सपना था... या हकीकत?"
अगर यह सपना था, तो इतना गीलापन कहाँ से आया?
और अगर यह हकीकत थी... तो....
उसकी नजर ज़मीन पर पड़ी उसने देखा।
वहां धूल में कांच की चूड़ी का एक छोटा सा, चमकीला टुकड़ा पड़ा था।
रघु के चेहरे पर एक अजीब सी हैरानी ने जगह ले ली....
"मेमसाब..." वह बुदबुदाया।
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शाम के 6 बज रहे थे।
घर के गेट पर रवि की स्पोर्ट्स बाइक आकर रुकी।
घर्रर्रर्र....
इंजन बंद हुआ, लेकिन कामिनी के दिल की धड़कनें अभी भी रेस लगा रही थीं।
पीछे बैठी कामिनी ने रवि की कमर से अपनी पकड़ ढीली की और धीरे से नीचे उतरी। उतरते वक़्त जानबूझकर या अनजाने में, उसका भारी वक्षस्थल एक बार फिर रवि की पीठ से रगड़ खा गया।
"थैंक यू रवि बेटा..." कामिनी ने साड़ी ठीक करते हुए कहा। उसके चेहरे पर अभी भी हवा और उत्तेजना की लाली थी।
"अरे थैंक यू कैसा आंटी... सवारी में तो मुझे भी बड़ा मज़ा आया," रवि ने हेलमेट उतारते हुए, अपनी बालों में हाथ फेरते हुए कहाँ.
कामिनी समझ गई कि वह 'बाइक की सवारी' की बात नहीं कर रहा। वह शरमा कर मुस्कुरा दी। कामिनी का अंतर्मन ख़ुश था, उसे जवान महसूस करवा रहा था.
उसे गर्व हो रहा था की एक 20 साल का लड़का उसे भाव दे रहा है.
वरना उसका अब तक का जीवन अवहेलना मे ही बिता था.
कामिनी आगे बड़ी उसकी नजर स्टोर रूम की तरफ गई, वहाँ कोई खास साफ सफाई नहीं हुई थी, स्टोर रूम का दरवाज़ा बंद था।
कामिनी की नज़रें बंटी पर गईं जो बरामदे में खड़ा था।
"रघु कहाँ गया?" कामिनी ने हैरानी से पूछा।
"वो तो चला गया मम्मी," बंटी ने बताया, "मैंने उसे पैसे दे दिए थे। कह रहा था— आज मन ठीक नहीं है, कल आऊंगा
ना जाने क्यों कामिनी को एक शराबी, देहाती मजदूर की चिंता हुई "क्या हुआ रघु को?"
खेर कामिनी कपड़े बदलने और रात के खाने की तैयारी करने अपने कमरे और फिर रसोई में चली गई।
उधर रवि और बंटी अपने कमरे में आ गए।
रवि बिस्तर पर पसर गया। उसकी आँखों में अभी भी मार्किट वाला मंजर था—कामिनी की गांड पर अपना लंड रगड़ना।
"भाई बंटी..." रवि ने छत को घूरते हुए कहा, "तेरी मम्मी बहुत... बहुत अच्छी हैं। मतलब, घर भी संभालती हैं और खुद को इतना 'फिट' भी रखा है। आजकल ऐसी औरतें कम देखने को मिलती हैं।"
रवि की आवाज़ में तारीफ थी, लेकिन दिमाग में कुछ खुराफ़ात चल रही थी,
बंटी, जो अपनी माँ की मज़बूरी एयर उसका बदलता स्वभाव महसूस कर रहा था, सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। "हाँ भाई, मम्मी बहुत मेहनत करती हैं।"
****************
रात के 9 बजे:
घर के बाहर बुलेट की भारी आवाज़ गूंजी। डुग-डुग-डुग...
रमेश और शमशेर आ गए थे।
हॉल में शराब की महक और भारी जूतों की आवाज़ गूंज उठी।
बंटी और रवि अपने कमरे से बाहर आए।
उसने रवि का परिचय रमेश से करवाया, रमेश ने कोई खास रिस्पांस नहीं किया, उसे तो दारू पीने से मतलब था, घर मे कौन है कौन नहीं इस से कोई मतलब नहीं.
शमशेर ने भी बस औपचारिका ही की क्यूंकि उसकी नजर तो कामिनी को तलाश रही थी.
लेकिन वो आज रसोई से बहार नहीं आई,
रमेश ने माहौल भांप लिया। उसे लगा बच्चे सामने हैं, तो खुल के पी नहीं पाएंगे।
"कामिनी..." रमेश ने आर्डर दिया, "सुन, हम लोग छत वाले कमरे में बैठ रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं होनी चाहिए।"
उसने रवि और बंटी की तरफ देखकर एक फीकी मुस्कान दी।
"और सुन, कुछ चखना—काजू, चने और सलाद, और बर्फ... सब ट्रे में सजाकर ऊपर ले आ। जल्दी करना।"
रमेश और शमशेर सीढ़ियाँ चढ़कर छत की तरफ चले गए। जाते-जाते भी शमशेर ने मुड़कर एक बार पीछे देखा, उसे लगा शायद कामिनी बहार आई हो,
लेकिन कामिनी ने आज पूरी तरह से उसके मनसूबो पर पानी फेर दिया.
*************
छत पर बैठे रमेश ने आर्डर दिया था— "कामिनी, गिलास और चखना लेकर ऊपर आ जा।"
शमशेर की आँखें चमक उठी थीं। वह फिर से कामिनी को घूरने और उसे छेड़ने के लिए तैयार बैठा था।
लेकिन कामिनी रसोई में सब्जी छौंकने में व्यस्त थी, और हाथ सने हुए थे।
"बंटी बेटा... ज़रा यह ट्रे पापा को दे आ," कामिनी ने बंटी को आवाज़ दी।
बंटी ट्रे लेकर ऊपर चला गया।
जैसे ही शमशेर ने बंटी को ट्रे लाते देखा, उसका मुंह उतर गया। वह 'शिकार' का इंतज़ार कर रहा था, और सामने 'बेटा' आ गया। उसने बेमन से गिलास उठाया।
रसोई का दृश्य:
नीचे रसोई में गर्मी अपने चरम पर थी।
गैस पर चढ़ी कढ़ाई और बंद हवा की वजह से तापमान बढ़ा हुआ था। कामिनी पसीने में तर-बतर थी।
उसकी साड़ी का पल्लू पसीने से गीला होकर उसके वक्षस्थल से चिपक गया था। गर्दन से पसीने की बूंदें रेंगती हुई उसकी पीठ की गहराई में समा रही थीं।
वह पूरी शिद्दत से खाना बनाने में मशगूल थी कि तभी उसे अपने पीछे किसी की आहट महसूस हुई।
"आंटी... कुछ हेल्प कर दूँ?"
कामिनी पलटी। रवि खड़ा था।
कामिनी के चेहरे पे मुस्कान आ गई, जैसे वो जानती हो रवि यहाँ क्यों आया है.
वह रसोई के दरवाजे पर टेक लगाए, अपनी भूखी नज़रों से कामिनी की भीगी हुई हालत का मुआयना कर रहा था।
"अरे नहीं बेटा... तुम क्यों करोगे? तुम मेहमान हो, जाकर बैठो," कामिनी ने पल्लू से माथा पोंछते हुए कहा।
"अरे मुझे आता है आंटी... मैं घर पर अपनी मम्मी की हेल्प करता हूँ," रवि ने बहुत ही मासूमियत से झूठ बोला और सीधे अंदर आ गया।
रवि कामिनी के बिल्कुल पास आकर खड़ा हो गया।
किचन का स्लैब छोटा था। रवि ने धनिया उठाया और उसे काटने लगा।
दोनों के बीच मुश्किल से 2-3 इंच का फासला था।
रसोई की गर्मी में कामिनी के जिस्म से उठती पसीने की एक मादक गंध रवि की नाक से टकराई।
यह किसी इत्र की खुशबू नहीं थी, यह एक पकी हुई औरत के फेरोमोंस (Pheromones) की गंध थी—कच्ची, नमकीन और नशीली।
रवि ने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे वह किसी नशे में डूब रहा है।
वह कनखियों से कामिनी को देख रहा था—पसीने से भीगा ब्लाउज, चिपकी हुई लटें और सांस लेते हुए ऊपर-नीचे होता उसका सीना।
'उफ्फ्फ... क्या चीज़ है यार... पसीने में तो और भी नमकीन लग रही है,' रवि मन ही मन बड़बड़ाया।
सब्जी में नमक डालना था।
कामिनी ने इधर-उधर देखा। नमक का डब्बा ऊपर वाली शेल्फ (Shelf) पर रखा था।
कामिनी ने डब्बा उतारने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाया।
उसकी हाइट थोड़ी कम पड़ रही थी।
उसने अपने पंजों पर जोर दिया और अपनी एड़ियां उठा दीं।
जैसे ही कामिनी ने हाथ ऊपर खींचा, उसका ब्लाउज भी ऊपर खिंच गया।
उसकी साड़ी कमर से थोड़ी नीचे खिसक गई, जिससे उसकी गोरी, चिकनी कमर और गहरी नाभि का एक हिस्सा रवि की आँखों के सामने आ गया।
लेकिन रवि की नज़र कहीं और अटक गई।
कामिनी के हाथ ऊपर करने से, उसकी साड़ी का पल्लू हट गया था और उसकी कांख (Armpit) पूरी तरह रवि के सामने उजागर हो गई थी।
वह कांख एकदम साफ़-सुथरी, गोरी और पसीने से भीगी हुई थी। वहां पसीने की एक छोटी सी बूंद चमक रही थी।
रवि के बिल्कुल चेहरे के पास से एक कड़क और उत्तेजक गंध का झोंका आया।
उस गंध ने रवि के दिमाग के तार हिला दिए।
कामिनी का पूरा बदन तना हुआ था, वह डब्बे तक पहुँचने की कोशिश कर रही थी, उसका जिस्म एक धनुष की तरह मुड़ा हुआ था।
कामिनी की उंगलियां डब्बे को छू रही थीं, लेकिन पकड़ नहीं पा रही थीं। लेकिन इस प्रयास मे गांड बहार को निकल कर साड़ी मे और ज्यादा कस गई थी,
"उह्ह्ह..." कामिनी ने और जोर लगाया।
तभी रवि, जो ठीक उसके पीछे खड़ा था, अचानक आगे बढ़ा।
उसने कामिनी के पीछे से अपना हाथ बढ़ाया और आसानी से नमक का डब्बा उतार लिया।
लेकिन इस प्रक्रिया में...
रवि का पूरा शरीर कामिनी की पीठ से सट गया।
रवि की छाती कामिनी की पीठ से चिपकी थी, और उसका निचला हिस्सा (Groin) कामिनी के कूल्हों के बिल्कुल बीचो-बीच जाकर दब गया।
उस एक पल के लिए... रसोई में समय थम गया।
रवि की जींस का सख्त कपड़ा और उसके अंदर का तनाव कामिनी की साड़ी के पार उसकी कोमल त्वचा को चुभ गया।
"सीईईईईई............"
कामिनी के मुंह से एक दबी हुई सिसकी निकल गई।
नमक का डब्बा रवि के हाथ में था, लेकिन करंट कामिनी के पूरे बदन में दौड़ गया।
उसकी कमर रवि की कमर से चिपकी हुई थी। पीछे से मिल रही उस मर्दाना गर्माहट ने उसकी टांगों को कमजोर कर दिया।
वह चाहती तो हट सकती थी, लेकिन उसका जिस्म उत्तेजना से कसमसा गया।
पसीने से भीगे हुए दो जिस्म एक-दूसरे की गर्मी सोख रहे थे।
"ये लीजिये आंटी... नमक," रवि ने उसके कान के बिल्कुल पास फुसफुसाते हुए कहा। उसकी गर्म सांस कामिनी की गर्दन पर लगी।
कामिनी ने कांपते हाथों से डब्बा लिया।
"थ... थैंक यू..."
वह रवि से अलग हुई, लेकिन उस एक पल के रगड़ ने उसकी चूत में फिर से वही आग लगा दी थी जो सुबह से सुलग रही थी।
************
रात के 11 बज चुके थे।
"खाना ले आना ऊपर " रमेश के चिल्लाने की आवाज़ से कामिनी चौंक गई.
वो शांति से कमरे मे बैठी थी, आज उसका दिन शांति से बिता था और उम्मीद थी की रात भी शांति से ही गुजरेगी.
कामिनी ने जल्दी से दो थालियों में खाना लगाया और भारी कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ रही थी।
उसके दिल में धक-धक हो रही थी। उसे लगा था कि इतनी देर हो गई है, शायद दोनों सो गए होंगे या नशा चढ़ गया होगा।
उसने छत के कमरे का दरवाज़ा धीरे से धक्का देकर खोला।
अंदर का नज़ारा देखकर उसके कदम ठिठक गए।
उसका अंदाज़ा गलत था।
रमेश सोया नहीं था। वह बिस्तर पर बैठा था, लेकिन उसकी हालत बहुत खराब थी। आँखें एकदम चढ़ी हुई थीं, बाल बिखरे थे और वह नशे में झूल रहा था।
और उसके ठीक सामने कुर्सी पर शमशेर बैठा था।
शमशेर ने अपनी वर्दी उतार दी थी। वह सिर्फ़ अपनी एक छोटी सी, टाइट चड्डी में बैठा था। चौड़ी छाती पर बालो का झुरमुत चमक रहा रहा,
कामिनी को देखते ही रमेश का पारा चढ़ गया।
"साली अंदर आ..." रमेश गुर्राया।
"कहाँ गांड मरा रही थी इतनी देर से? खाना लाने में इतना टाइम लगता है?"
कामिनी को गहरा धक्का लगा। उसका पति एक पराये मर्द के सामने उसे इतनी गंदी गाली दे रहा है,
"वो... वो... गर्म कर रही थी..." कामिनी ने सफाई देनी चाही।
"चुप! बहस मत कर," रमेश चिल्लाया।
कामिनी की आँखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने डरते-डरते थाली टेबल पर रख दी।
तभी उसकी नज़र शमशेर पर गई।
शमशेर अपनी टांगें चौड़ी करके बैठा था।
उसकी उस छोटी सी चड्डी के अंदर एक विशाल उभार साफ़ दिख रहा था। उसका लंड पूरी तरह खड़ा था, मोटा और लंबा... नसों से भरा हुआ। वह चड्डी के कपड़े को फाड़कर बाहर आने को बेताब था।
कामिनी की नज़रें उस उभार पर चिपक गईं।
"कोई नहीं अब खाना आ ही गया है तो खा ही लेंगे " शमशेर ने कामिनी की भूखी नज़रों को भांप लिया। उसने जानबूझकर अपनी जांघों पर हाथ फेरा और एक कुटिल मुस्कान दी।
"चल बैठ मेरे पास," रमेश ने बिस्तर की तरफ इशारा किया।
"साला नशे में खूंखार हो जाता है," शमशेर ने हंसते हुए कहा, जैसे उसे मजा आ रहा था मियां बीवी के बीच.
कामिनी डरते-डरते बिस्तर के किनारे, रमेश के पास बैठ गई।
रमेश ने कामिनी को घूरा।
"साली आज बड़ी चमक रही है... किसके लिए सज के घूम रही है?"
बोलते-बोलते रमेश ने अपनी पैंट की जिप खोली।
उसने अपना हाथ अंदर डाला और अपना लंड बाहर निकाल लिया।
वह छोटा सा, सिकुड़ा हुआ और ढीला था। नशे की वजह से उसमें जान नहीं थी।
"हिला इसे..." रमेश ने हुक्म दिया।
"खड़ा कर इसे... साली इतनी सुंदर बनी फिरती है तु आजकल।
कामिनी सकपका गई। अचानक से ये क्या हुआ? उसे रमेश के इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी.
"क्या? यहाँ? इनके सामने?" उसने शमशेर की तरफ देखा।
शमशेर कुर्सी पर बैठा, यह सब देख रहा था।
कामिनी की बेबसी और रमेश की बेशर्मी देखकर शमशेर की उत्तेजना बढ़ गई। उसने अपना हाथ अपनी चड्डी के ऊपर रखा और अपने लोहे जैसे सख्त लंड को सहलाने लगा।
कामिनी ने देखा कि शमशेर का लंड रमेश के लंड से कितना बड़ा और ताकतवर लग रहा था।
"तू खड़ा कर मेरा लंड... उधर क्या देख रही है?" रमेश ने कामिनी की नज़र शमशेर की तरफ जाते देख ली।
चटाक!
एक जोरदार थप्पड़ कामिनी के गाल पर पड़ा।
"आह्ह्ह..." कामिनी का गाल सुन्न हो गया। आँखों से आंसू टपक पड़े। गाल पर रमेश की उंगलियों के निशान छप गए।
"जल्दी कर रंडी... वरना आज यही खाल उधेड़ दूंगा," रमेश ने धमकी दी।
कामिनी के पास कोई चारा नहीं था, पता नहीं कामिनी की ऐसी क्या मज़बूरी थी की वो रमेश से इतना ख़ौफ़ खाती थी.
उसने अपने कांपते हाथ रमेश के लंड की तरफ बढ़ाए।
उसने उस छोटे, ढीले मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में पकड़ा। वह इतना छोटा था कि कामिनी की एक मुट्ठी में ही गायब हो गया।
कामिनी उसे हिलाने लगी।
खन-खन-खन...
कमरे में सिर्फ़ कामिनी की चूड़ियों की आवाज़ गूंज रही थी।
जैसे-जैसे उसका हाथ चल रहा था, उसके ब्लाउज में कैद उसके भारी स्तन हिल रहे थे।
शमशेर की नज़रें उन हिलते हुए स्तनों पर गड़ी थीं। वह अपनी चड्डी के ऊपर से अपने लंड को ज़ोर-ज़ोर से रगड़ रहा था। उसका उभार और बड़ा होता जा रहा था।
कामिनी एक अजीब सी दुविधा में थी।
शर्म और अपमान से वह मरी जा रही थी—पति के दोस्त के सामने मुठ मारना?
लेकिन साथ ही... एक गंदी उत्तेजना भी उसे महसूस हो रही थी।
उसकी नज़र बार-बार शमशेर के विशाल 'उभार' पर जाती, और फिर अपने हाथ में पकड़े रमेश की 'लुल्ली ' पर।
तुलना साफ़ थी।
एक तरफ 'पहाड़' था, और दूसरी तरफ 'कंकड़'।
कामिनी मन ही मन सोच रही थी— 'हे भगवान... मेरे पति के पास कुछ नहीं है... और वो सामने बैठा आदमी... वो तो पूरा घोड़ा है।'
यह सोचकर उसकी चूत गीली होने लगी। उसे अपनी इस बेइज़्ज़ती में, इस बेहयाई मे एक अलग सा अहसास हो रहा था, उसे उत्तेजना के साथ साथ शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी,
रमेश नशे में गालियां बके जा रहा था।
"आअह्ह्ह.... हिला इसे.... जोर से..."
लेकिन उसका लंड खड़ा ही नहीं हो रहा था। वह बिल्कुल मरा हुआ था।
"उफ्फ्फ्फ़.... इसससस.... साली रंडी.... हिलाना भी नहीं आता तुझे? किस काम की है तू?"
रमेश ने कामिनी के बाल पकड़ लिए और उसे झकझोर दिया।
"देख शमशेर... देख इस कुलच्छनी को... अपने खसम का लंड खड़ा नहीं कर पा रही।"
******************
कामिनी की कलाई दुखने लगी थी।
वह पिछले दस मिनट से रमेश के उस छोटे, ढीले और बेजान मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में रगड़ रही थी। लेकिन नतीजा सिफर था। वह लंड खड़ा होना तो दूर, हिल भी नहीं रहा था।
रमेश की बर्दाश्त की हद पार हो गई।
"हट्ट साली..." रमेश ने कामिनी के हाथ को झटक दिया।
"बताओ साली... तू एक मर्द का लंड भी नहीं खड़ा कर सकती? कैसी औरत है तू? तेरे अंदर वो कशिश ही नहीं है जो मुर्दे में जान डाल दे।"
चटक.... चाटक..... रमेश ने कामिनी के स्तनों पर जोरदार चाटा मारा.....
कामिनी के स्तन लाल पड़ गए "आआआहहहह..... क्या कर रहे है आप?"
चुप साली.....
रमेश अपनी नामर्दी का सारा ठीकरा कामिनी पर फोड़ रहा था। वह उसे जलील कर रहा था, गालियां दे रहा था।
पास बैठे शमशेर ने यह तमाशा देखा और एक कुटिल मुस्कान दी।
उसने व्हिस्की की बोतल उठाई और एक और कड़क पेग बनाया।
"ले भाई... मूड ठीक कर," शमशेर ने गिलास रमेश को थमाया।
फिर उसने अपनी चड्डी के ऊपर से अपने उभरे हुए लंड को सहलाते हुए सुझाव दिया—
"यार रमेश... हाथ से तो यह खड़ा होने से रहा। इसे मुंह की गर्मी चाहिए। इसे चूसने को बोल... देख शायद खड़ा हो जाये।"
रमेश ने एक ही घूंट में आधा गिलास खाली किया और कामिनी को घूरा।
"सुना नहीं तूने? मुंह में ले इसे..."
कामिनी की रूह कांप गई। पति का लंड चूसना?
इस से पहले भी उसने ऐसी कोशिश की थी, उसे घिन आती थी।
वह चुपचाप बैठी रही, सिर झुकाए।
"अबे, इसे तो चूसना भी नहीं आता," रमेश ने हताशा में कहा, "साली गांव की गंवार है।"
"अरे यह क्या बात हुई?" शमशेर ने हैरानी जताई, "शादी के इतने साल हो गए और लंड चूसना भी नहीं आता?"
शमशेर ने अपनी जांघों को और चौड़ा किया।
"तू कहे तो मैं सीखा दूँ?" शमशेर ने बेशर्मी से ऑफर दिया।
रमेश, जो नशे और हताशा में अंधा हो चुका था, उसे इसमें कोई बुराई नहीं लगी। उसे बस अपना काम बनवाना था, चाहे तरीका कोई भी हो।
"सिखा यार... तू ही कुछ सिखा इसे। तेरे पास तो तजुर्बा भी बहुत है रंडियों का।"
रमेश की 'हाँ' मिलते ही शमशेर की आँखों में शैतान जाग उठा।
वह अपनी कुर्सी से खड़ा हुआ।
कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी थी, उसका चेहरा शमशेर के पेट के बराबर था।
शमशेर ने एक हाथ अपनी कमर पर रखा और दूसरे हाथ से अपनी चड्डी को पकड़ा।
सर्रर्र...
एक झटके में उसने अपनी चड्डी नीचे खींच दी।
धप्प...
जैसे कोई भारी-भरकम चीज़ हवा में आज़ाद हुई हो।
कामिनी को तो जैसे सांप ही सूंघ गया।
उसकी आँखों के ठीक सामने, मुश्किल से 4 इंच की दूरी पर...
शमशेर का विशाल, काला और खूंखार लंड हवा में लहरा रहा था।
करीब 9 इंच लंबा। कलाई जितनी मोटाई।
उस पर उभरी हुई हरी-नीली नसें किसी नक्शे की तरह दिख रही थीं। उसका मुंड किसी मशरूम की तरह फैला हुआ था और गहरा लाल था।
वह रमेश के लंड जैसा नहीं था। उसमें जीवन था, ताकत थी, और क्रूरता थी।
जैसे ही वह बाहर आया, कामिनी की नाक में एक अजीब सी गंध का भभका लगा।
यह गंध पसीने, वीर्य, मूत्र और एक मर्द की कामुक गंध का मिश्रण थी। वह गंध तीखी थी, कड़वी थी... लेकिन कामिनी के नथुनों से होते हुए सीधे उसके दिमाग और फिर उसकी चूत तक पहुँच गई।
कमरे में हवा भारी हो गई थी, सिर्फ कामिनी की भरी साँसो की आवाज़ गूंज रही थी, उसे लगा जैसे उसका बलात्कार ही हो जायेगा.
कुछ भी हो एक औरत ऐसी स्थति मे फसना कभी नहीं चाहती.
उसके पति का ये extrim रूप था, वो इतना नीचे भी गिर सकता है उसे ये अहसास आज हुआ.
रमेश ने कामिनी की कलाई को लोहे की तरह जकड़ लिया, "साली रंडी... नखरे मत कर," रमेश गुर्राया, उसकी आँखों में नशा और हैवानियत थी।
"वो मेरा दोस्त है... उसके बहुत अहसान हैं मेरे ऊपर। अगर वो खुश नहीं हुआ तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा। पकड़ उसका लंड!"
रमेश ने पूरी ताकत लगाकर कामिनी का हाथ खींचा और शमशेर के तने हुए, विशाल लंड पर रख दिया।
कामिनी के बदन में 440 वोल्ट का झटका लगा।
उसकी स्थिति किसी भी विवाहित स्त्री के लिए नरक से बदतर थी।
उसके एक हाथ में उसके पति का छोटा, ढीला और बेजान लंड था।
और दूसरे हाथ के नीचे... शमशेर का फौलादी, गरम और धड़कता हुआ लंड।
उसकी हथेली शमशेर के लंड की नसों पर फिसली। वह इतना गरम था कि कामिनी की उंगलियां जलने लगीं।
उस स्पर्श से उसकी चूत एक पल के लिए कुलबुला उठी—यह उसके जिस्म की गद्दारी थी।
लेकिन अगले ही पल... उसके दिमाग में एक विस्फोट हुआ।
"नहीं!"
कामिनी की अंतरात्मा चीख पड़ी।
'मैं क्या कर रही हूँ? मैं रंडी नहीं हूँ... मैं एक पत्नी हूँ, एक माँ हूँ। मैं अपने पति के सामने किसी और मर्द का लंड नहीं पकड़ सकती।'
आत्मग्लानि के एक भारी पहाड़ ने उसे कुचल दिया।
उसे अपने पति पर, शमशेर पर और सबसे ज्यादा खुद पर घिन आई।
उसका दम घुटने लगा। उसे लगा कि अगर वह एक पल भी और इस कमरे में रही, तो वह मर जाएगी या पागल हो जाएगी।
उसने झटके से अपने दोनों हाथ खींचे।
रमेश और शमशेर कुछ समझ पाते, इससे पहले ही कामिनी किसी घायल हिरनी की तरह उछलकर खड़ी हो गई।
उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली।
"छिः... छिः..." उसके मुंह से बस यही निकला।
वह मुड़ी और दरवाजे की तरफ भागी।
"अरे रुक साली... कहाँ जा रही है?" रमेश पीछे से चिल्लाया, लेकिन वह उठ नहीं पाया।
शमशेर भी हड़बड़ा गया, "अरे भाभी..."
लेकिन कामिनी रुकी नहीं।
वह नंगे पाँव सीढ़ियों से नीचे भागी।
उसका पल्लू गिर रहा था, बाल बिखर गए थे, लेकिन उसे किसी चीज़ की होश नहीं थी।
वह बदहवास होकर हॉल में आई, फिर आंगन में...
घर की दीवारे जैसे उसे काटने को दौड़ रही थीं। उसे खुली हवा चाहिए थी। उसे सांस लेनी थी।
उसने पीछे का दरवाज़ा खोला और सीधे गार्डन की तरफ भागी।
अंधेरे में ठोकर खाते हुए वह उसी जामुन के पेड़ के पास पहुंची।
वही जगह... जहाँ अक्सर रघु बैठा करता था।
कामिनी वहां पहुँचकर हांफते हुए रुक गई।
उसने चारों तरफ देखा। उसकी आँखें अंधेरे में रघु को तलाश रही थीं।
शायद उसे लगा था कि वह यहाँ होगा... शायद वह उसे बचा लेगा... या कम से कम उसकी बात सुन लेगा।
लेकिन आज... वहाँ कोई नहीं था।
गार्डन वीरान था। सन्नाटा पसरा हुआ था।
सिर्फ़ झींगुरों की आवाज़ थी और कामिनी की सिसकियाँ।
कामिनी उसी पेड़ के नीचे, सूखी घास पर घुटनों के बल गिर पड़ी।
उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
"ये... ये क्या हो गया?" वह हिचकियों के बीच बुदबुदाई।
"मेरा पति... मेरा सुहाग... वो मुझे दूसरे मर्द के हवाले कर रहा था? वो मुझे उसके सामने 'रंडी' बोल रहा था.
कैसा इंसान है ये? अकेले कमरे मे की गई हरकत अलग बात थी.... लेकिन... लेकिन.... ये...
सुबुक.... सुबुक.... कामिनी बर्दाश्त ना कर सकी उसका दिल रो पड़ा.
*************
कामिनी गार्डन में पागलों की तरह टहल रही थी।
उसके नंगे पैर गीली घास और कंकड़ों पर पड़ रहे थे, लेकिन उसे कोई होश नहीं था। उसका दिमाग अभी भी उसी छत वाले कमरे में अटका था।
“साली रंडी... मर्द का लंड भी खड़ा नहीं कर सकती... गांव की गंवार है, चूसना भी नहीं आता।”
रमेश के वो शब्द, उसकी वो घिनौनी हंसी, और शमशेर का वो नंगापन... सब कुछ उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था।
वह वापस अंदर नहीं जा सकती थी। वहां वो दो दरिंदे थे।
चलते-चलते उसके कदम अनजाने में ही घर के पीछे बने स्टोर रूम की तरफ मुड़ गए। शायद उसका अवचेतन मन उसे वहीं ले आया था जहाँ उसे सुकून (या शायद एक अलग तरह की आग) मिलती थी।
स्टोर रूम का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर एक मद्धम, पीली रौशनी जल रही थी।
कामिनी ने दरवाज़ा धकेला और अंदर दाखिल हुई।
अंदर का दृश्य देखकर उसके होश उड़ गए। पैर ज़मीन पर जम गए।
सामने एक पुरानी खटिया पर, रघु पड़ा हुआ था।
वह पूरी तरह नंगा था।
शायद गर्मी की वजह से या नशे की वजह से उसने अपनी लुंगी उतार फेंक दी थी।
वह चित लेटा था, टांगें थोड़ी फैली हुई थीं। उसका सांवला, गठीला और पसीने से चमकता बदन उस पीली रौशनी में किसी सोये हुए योद्धा जैसा लग रहा था।
उसका साँवला, गठीला बदन पसीने की एक पतली परत से चमक रहा था। छाती धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हो रही थी।
लेकिन कामिनी की नज़रें उसके चेहरे पर नहीं रुकीं।
वे सीधे नीचे फिसल गईं... रघु की दोनों फैली हुई, मांसल जांघों के बीच।
वहाँ... काले, घुंघराले बालों के जंगल के बीच... उसका विशाल पौरुष निढाल होकर पड़ा था।
वह अभी सोया हुआ था, लेकिन फिर भी वह इतना बड़ा और भारी लग रहा था कि कामिनी की सांसें अटक गईं।
वह एक तरफ लुढ़का हुआ था, उसका मुंड जांघ से सटा हुआ था।
कामिनी वहीं, दरवाजे पर जमी रह गई।
उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रही है।
ऊपर उसका पति उसे 'नामर्द' साबित करने पर तुला था, और यहाँ नीचे कुदरत का एक 'विशाल नमूना' बेहोश पड़ा था।
कामिनी की चूत, जो अपमान से गीली थी, इस नज़ारे को देखकर बाढ़ की तरह बह निकली।
एक अजीब सी सम्मोहन शक्ति उसे खटिया की तरफ खींचने लगी।
वह दबे पाँव, किसी बिल्ली की तरह आगे बढ़ी।
खटिया के पास जाकर वह घुटनों के बल बैठ गई। उसकी रेशमी साड़ी स्टोर रूम की धूल भरी ज़मीन पर फ़ैल गई, लेकिन उसे होश नहीं था। वो क्या कर रही है, क्यों कर रही उसे होश ही नहीं था.
उसका चेहरा अब रघु के लंड के बिल्कुल समानांतर था।
उसने गौर से देखा।
वह लंड शांत था, सोया हुआ था। उसकी खाल थोड़ी ढीली थी, लेकिन उसके नीचे की नसें साफ़ दिखाई दे रही थीं।
कामिनी के मन में एक ज़िद्द जागी।
'रमेश कहता है मैं खड़ा नहीं कर सकती? मैं दिखाती हूँ कि मैं क्या कर सकती हूँ।'
कामिनी के मन मे बदले का भाव पनपने लगा था,
उसने अपना कांपता हुआ हाथ आगे बढ़ाया।
उसकी कोमल, गोरी हथेली ने रघु के उस साँवले, भारी लंड को छुआ।
वह गरम था... बहुत गरम।
और भारी।
जैसे ही कामिनी ने अपने काँपते हाथो से उसे अपनी मुट्ठी में भरा, उसे वजन महसूस हुआ। रमेश का लंड तो रुई जैसा हल्का था, लेकिन यह... यह तो ठोस मांस का टुकड़ा था।
कामिनी की मुट्ठी पूरी नहीं पड़ रही थी, लंड का सुपारी और निचला हिस्सा अभी भी बाहर था।
कामिनी ने धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी को कसना शुरू किया।
उसके हाथ खुद ही रघु के सोये लंड पर आगे पीछे फिसलने लगे,
उसने उसे हिलाना शुरू किया—ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर।
वह उसके सोये हुए मुंड को अपने अंगूठे के पोर से सहलाने लगी।
"उठो..." वह मन ही मन फुसफुसाई, "जागो... मै ुए कर सकती हूँ, मुझे आता है"
रघु के लंड ने कामिनी के अंतर्मन का जवाब तुरंत दिया।
कामिनी के हाथ की गर्मी पाते ही, उस बेजान मांस में खून दौड़ने लगा।
वह कामिनी की मुट्ठी के अंदर फैलने लगा, सख्त होने लगा।
कामिनी की आँखों में चमक आ गई। यह कामिनी के छुवन की ताकत थी। वह जादू कर रही थी।
जो लंड अभी मरा हुआ था, वह उसके छूने भर से ज़िंदा हो रहा था।
'झूठा है रमेश... मैं ठंडी नहीं हूँ। मैं आग हूँ।'
लेकिन अभी परीक्षा बाकी थी।
“चूसना नहीं आता...” रमेश के कातिल शब्द कामिनी के मन मे चोट करने लगे.
कामिनी ने एक गहरी सांस ली।
रघु के लंड से एक तीखी, मर्दाना गंध उठ रही थी—पसीने, मूत्र और वीर्य की मिली-जुली गंध। यह गंध किसी इत्र से ज्यादा नशीली थी।
कामिनी ने अपना चेहरा झुकाया।
उसकी सांसें रघु के लंड पर टकराईं, जिससे वह लंड हल्का सा फड़फड़ाया।
कामिनी ने अपनी जुबान बाहर निकाली।
लाल, गीली जुबान।
उसने रघु के लंड के सुपारी पर, जो अब सख्त होकर चमक रहा था, एक लंबी चाट मारी।
स्लर्रर्रप...
उसका स्वाद नमकीन था। कसैला था।
कामिनी को घिन आनी चाहिए थी। आती भी थी, लेकिन आज.... आना उसे कोई घिन्न नहीं आई, उसकी आँखों मे आंसू थे, एक जज्बा था, वो खुद को औरत साबित कर देना चाहती थी, उसने ये भी नहीं देखा की सामने वाला आदमी नौकर है, एक शराबी, मजदूर है, जिसका लंड वो चाट रही है,
उसे घिन नहीं आई। उसे एक अजीब सा विजयी नशा चढ़ गया।
उसने अपनी जुबान की नोक से उस लंड के छेद को कुरेदा।
और फिर...
उसने अपना मुंह पूरा खोला।
उसने अपने होंठों को गोल किया और उस मोटे मुसल्ल को अपने मुंह के अंदर ले लिया। सुर्ख लाल होंठो के बीच काला गन्दा लंड घुसने को तैयार था,
ग्ल्लप...
गर्म, सख्त मांस उसके गीले मुंह के अंदर घुस गया।
कामिनी का मुंह भर गया था, लेकिन वह रुकी नहीं।
वह उसे चूसने लगी।
अपने गालों को पिचकाकर उसने वैक्यूम बनाया।
चप... चप... चप...
कमरे में सिर्फ़ उसके चूसने की गीली आवाज़ें गूंज रही थीं।
वह अपनी जीभ को लंड के नीचे वाली नसों पर फिरा रही थी, और अपने होंठों से सुपारी को चूम रही थी।
उसका सिर लय में ऊपर-नीचे हो रहा था।
उसके कानों में जो झुमके थे, वो हिल रहे थे। मांग का सिंदूर चमक रहा था।
एक सुहागन औरत, माथे पर बिंदी, गले में मंगलसूत्र... और मुंह में नौकर, शराबी मजदूर का लंड।
यह दृश्य जितना पापपूर्ण था, उतना ही कामुक।
रघु नींद में ही कसमसाया।
"उह्ह्ह..." उसके मुंह से एक भारी आवाज़ निकली।
कामिनी के मुंह का जादू चल गया था।
रघु का लंड अब अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो चुका था। वह कामिनी के गले तक जाने की कोशिश कर रहा था।
वह लोहे की रॉड बन चुका था।
कामिनी की आंखों से पानी बहने लगा (गले में लंड जाने की वजह से), लेकिन उसने छोड़ने से मना कर दिया।
वह उसे और जोर से चूसने लगी।
उसे परवाह ही नहीं थी की रघु जग गया तो क्या होगा? वो क्या सोचेगा? वो अपनी धुन, अपने गुस्से मे थी.
वह अपने पति को, शमशेर को, और पूरी दुनिया को दिखा रही थी—
'देखो... यह खड़ा है। लोहे जैसा खड़ा है। और यह मैंने किया है। मैं रंडी नहीं हूँ, मैं जादूगरनी हूँ। मैं किसी को भी पिघला सकती हूँ। मुझमे वो अप्सरा जैसा आकर्षण है.
स्टोर रूम में सिर्फ़ चूसने की आवाज़ें गूंज रही थीं। चप... चप... ग्लप...
कामिनी पूरी शिद्दत से रघु के लंड को अपने मुंह में लिए हुए थी। वह अपनी जीभ और गालों का ऐसा इस्तेमाल कर रही थी जैसा उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसे एक जूनून सवार था—अपने पति को गलत साबित करने का। उसने कभी ऐसा नहीं किया था, बस आज किस आवेश मे कर गई पता नहीं.
सम्भोग कला इंसान स्वम सीखता है, उसे कोई सिखाता नहीं, इसका ताज़ा उदाहरण थी कामिनी.
रघु का लंड उसके मुंह में किसी पत्थर की तरह सख्त हो चुका था।
तभी, रघु का शरीर कसमसाने लगा।
नशे और गहरी नींद के बीच, उसे अपनी जांघों के बीच हो रही उस हलचल का एहसास होने लगा था। उसे लगा जैसे वह कोई हसीन सपना देख रहा है।
अचानक, रघु ने अपना भारी, खुरदरा हाथ उठाया और कामिनी के सिर के पीछे रख दिया।
उसने अपनी उंगलियां कामिनी के रेशमी बालों में फंसा दीं।
और फिर... एक झटके में उसने कामिनी के सिर को नीचे दबा दिया।
ग्लक...
रघु का लंबा लंड कामिनी के हलक तक उतर गया।
कामिनी की सांस रुकने को हो गई। उसकी आँखों से पानी निकल आया। वह सिर पीछे खींचना चाहती थी, लेकिन रघु की पकड़ लोहे जैसी मजबूत थी।
रघु नींद में ही बड़बड़ाया—
"चूस सुगना... चूस मेरी जान... क्या चूसती है तू... आह्ह्ह..."
उसकी आवाज़ में एक तड़प थी, एक पुराना प्यार था। वह कामिनी को अपनी मरी हुई बीवी 'सुगना' समझ रहा था।
"मज़ा आ गया... पूरा मुंह में ले... छोड़ना मत..."
रघु अपनी कमर को ऊपर उठाने लगा, जिससे उसका लंड कामिनी के मुंह में और गहराई तक जाने लगा.
कामिनी एक पल को डर गई। उसे लगा रघु जाग गया है।
लेकिन उसकी बंद आँखें और 'सुगना' का नाम सुनकर वह समझ गई कि वह अभी भी नशे और नींद के आगोश में है।
इस अहसास ने कामिनी के डर को कम किया और उसकी उत्तेजना को बढ़ा दिया।
उसने विरोध करना छोड़ दिया।
उसने अपनी जीभ को और तेज़ कर दिया। उसके मुंह से थूक और लार की धार रघु के लंड और अंडकोषों पर बहने लगी।
करीब 5 मिनट की उस जंगली चुदाई के बाद...
रघु का बदन अकड़ गया। उसके पैरों की उंगलियां मुड़ गईं।
उसने कामिनी के बालों को जड़ से पकड़ लिया और उसे हिलने नहीं दिया।
"आअह्ह्ह.... सुगना... तूने मार डाला.... मैं गया..."
रघु के लंड में एक भयानक विस्फोट हुआ।
पिच... पिच... पिच...
गाढ़ा, गर्म और कसैला वीर्य की एक बाढ़ कामिनी के मुंह के अंदर छूट पड़ी।
वह फव्वारे की तरह उसके गले में, उसकी जीभ पर और उसके दांतों पर गिर रहा था।
जैसे ही वीर्य छूटा, कामिनी को होश आया।
घिन और यथार्थ का एक झटका लगा। वह मुंह हटाना चाहती थी, थूकना चाहती थी।
लेकिन रघु ने कस के उसका पूरा मुंह अपने लंड पर दबाया हुआ था। वह उसे हिलने नहीं दे रहा था।
कामिनी न चाहते हुए भी मजबूर थी।
रघु का सारा वीर्य, बूंद-बूंद करके कामिनी के मुंह में समा गया। उसका मुंह पूरी तरह भर गया था। उसे सांस लेने के लिए कुछ हिस्सा निगलना भी पड़ा।
थोड़ी देर बाद, रघु का शरीर ढीला पड़ गया। उसकी पकड़ ढीली हुई।
कामिनी ने झटके से अपना सिर पीछे खींचा।
पॉप...
एक आवाज़ के साथ लंड बाहर निकला। उसके होंठों से एक तार लार और वीर्य का जुड़ा हुआ था जो टूट कर रघु की जांघ पर गिर गया।
कामिनी हांफ रही थी।
वह जैसे-तैसे लड़खड़ाते हुए उठी। उसने एक बार रघु को देखा जो अब शांत होकर सो गया था।
वह वहां से भागी।
गार्डन पार किया, पिछला दरवाज़ा खोला और बदहवास होकर अपने बेडरूम में घुसी।
उसकी सांसें फूली हुई थीं। उसका पूरा मुंह, जीभ और गला उस कसैले, नमकीन स्वाद से भरा हुआ था।
रघु का 'बीज' उसके अंदर था।
उसमें कुल्ला करने या बाथरूम जाने की भी हिम्मत नहीं थी। उसका जिस्म जल रहा था—शर्म से, थकान से और उस अजीब से नशे से।
वह धम्म से बिस्तर पर गिर गई,
उसकी जाँघे बुरी तरह से गीली थी, लग रहा था जैसे किसी ने जलता कोयला अंदर राख दिया हो.
कामिनी से रहा नहीं गया, उसने हाथ अपनी जांघो के बीच डाल बहार निकाल लिया, उसकी आँखों के सामने सफ़ेद चासनी सी लकीर उसकी उंगलियों मे फसी हुई थी.
आआआहहहहह...... कामिनी कांप उठी, उसकी चुत ने इतना पानी आजतक नहीं छोड़ा था.
वो खुद नहीं जानती थी वो क्या कर रही है, क्यों कर रही है. बस अपने जिस्म की गुलाम होती जा रही थी.
उसकी नजरें अपनी ऊँगली के बीच रिसती चासनी पर थी. उसे समझ जाना चाहिए था की वो बेइज़्ज़त हो कर भी उत्तेजित हो जाती है, लेकिन ये सामन्य घटना नहीं थी,.
भला कौन औरत अपने अपमान मे उत्तेजित होती है.
या फिर कामिनी को आदत हो गई थी रमेश की मार पिट की उसकी बेइज़्ज़ती की.
कामिनी दुविधा मे थी, भयंकर दुविधा मे.
वो कभी खुद को 18 साल की महसूस करती, जिसे भावनात्मक प्यार चाहिए होता है तो कभी खुद को प्यासी औरत महसूस करती जिसे सिर्फ लंड चाहिए भले वो किसी का भी हो, ऐसा ना होता तो वो रघु जैसे मेले कुचले शराबी आदमी का लंड चूसने की हिम्मत कर पति.
वो खुद सकते मे थी की उसने ऐसा कर कैसे लिया, उसकी अंतरात्मा इसे धिक्कार रही थी.
"साली रंडी......"
कामिनी की आंखे भर आई.
थकान इतनी ज्यादा थी कि न जाने कब उसकी आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला।
कुछ देर बाद (स्टोर रूम में):
स्टोर रूम में सन्नाटा था।
रघु की आंखें धीरे-धीरे खुलीं। नशा थोड़ा कम हुआ था।
उसने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे उसने एक बहुत ही प्यारा सपना देखा है—सुगना उसके पास थी, उसे प्यार कर रही थी।
लेकिन फिर उसे अपनी जांघों के बीच एक अजीब सा गीलापन और ठंडक महसूस हुई।
रघु ने उठकर देखा।
उसका लंड अभी भी आधा खड़ा था।
लेकिन वह गीला था।
वह थूक, लार और वीर्य से लथपथ था। उसकी जांघों पर सफ़ेद, चिपचिपा द्रव बिखरा हुआ था।
रघु सन्न रह गया।
उसने अपनी उंगली से उस गीलेपन को छुआ और सूंघा।
"यह क्या?" रघु का दिमाग चकरा गया।
"यह सपना था... या हकीकत?"
अगर यह सपना था, तो इतना गीलापन कहाँ से आया?
और अगर यह हकीकत थी... तो....
उसकी नजर ज़मीन पर पड़ी उसने देखा।
वहां धूल में कांच की चूड़ी का एक छोटा सा, चमकीला टुकड़ा पड़ा था।
रघु के चेहरे पर एक अजीब सी हैरानी ने जगह ले ली....
"मेमसाब..." वह बुदबुदाया।
शाम के 6 बज रहे थे।
घर के गेट पर रवि की स्पोर्ट्स बाइक आकर रुकी।
घर्रर्रर्र....
इंजन बंद हुआ, लेकिन कामिनी के दिल की धड़कनें अभी भी रेस लगा रही थीं।
पीछे बैठी कामिनी ने रवि की कमर से अपनी पकड़ ढीली की और धीरे से नीचे उतरी। उतरते वक़्त जानबूझकर या अनजाने में, उसका भारी वक्षस्थल एक बार फिर रवि की पीठ से रगड़ खा गया।
"थैंक यू रवि बेटा..." कामिनी ने साड़ी ठीक करते हुए कहा। उसके चेहरे पर अभी भी हवा और उत्तेजना की लाली थी।
"अरे थैंक यू कैसा आंटी... सवारी में तो मुझे भी बड़ा मज़ा आया," रवि ने हेलमेट उतारते हुए, अपनी बालों में हाथ फेरते हुए कहाँ.
कामिनी समझ गई कि वह 'बाइक की सवारी' की बात नहीं कर रहा। वह शरमा कर मुस्कुरा दी। कामिनी का अंतर्मन ख़ुश था, उसे जवान महसूस करवा रहा था.
उसे गर्व हो रहा था की एक 20 साल का लड़का उसे भाव दे रहा है.
वरना उसका अब तक का जीवन अवहेलना मे ही बिता था.
कामिनी आगे बड़ी उसकी नजर स्टोर रूम की तरफ गई, वहाँ कोई खास साफ सफाई नहीं हुई थी, स्टोर रूम का दरवाज़ा बंद था।
कामिनी की नज़रें बंटी पर गईं जो बरामदे में खड़ा था।
"रघु कहाँ गया?" कामिनी ने हैरानी से पूछा।
"वो तो चला गया मम्मी," बंटी ने बताया, "मैंने उसे पैसे दे दिए थे। कह रहा था— आज मन ठीक नहीं है, कल आऊंगा
ना जाने क्यों कामिनी को एक शराबी, देहाती मजदूर की चिंता हुई "क्या हुआ रघु को?"
खेर कामिनी कपड़े बदलने और रात के खाने की तैयारी करने अपने कमरे और फिर रसोई में चली गई।
उधर रवि और बंटी अपने कमरे में आ गए।
रवि बिस्तर पर पसर गया। उसकी आँखों में अभी भी मार्किट वाला मंजर था—कामिनी की गांड पर अपना लंड रगड़ना।
"भाई बंटी..." रवि ने छत को घूरते हुए कहा, "तेरी मम्मी बहुत... बहुत अच्छी हैं। मतलब, घर भी संभालती हैं और खुद को इतना 'फिट' भी रखा है। आजकल ऐसी औरतें कम देखने को मिलती हैं।"
रवि की आवाज़ में तारीफ थी, लेकिन दिमाग में कुछ खुराफ़ात चल रही थी,
बंटी, जो अपनी माँ की मज़बूरी एयर उसका बदलता स्वभाव महसूस कर रहा था, सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। "हाँ भाई, मम्मी बहुत मेहनत करती हैं।"
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रात के 9 बजे:
घर के बाहर बुलेट की भारी आवाज़ गूंजी। डुग-डुग-डुग...
रमेश और शमशेर आ गए थे।
हॉल में शराब की महक और भारी जूतों की आवाज़ गूंज उठी।
बंटी और रवि अपने कमरे से बाहर आए।
उसने रवि का परिचय रमेश से करवाया, रमेश ने कोई खास रिस्पांस नहीं किया, उसे तो दारू पीने से मतलब था, घर मे कौन है कौन नहीं इस से कोई मतलब नहीं.
शमशेर ने भी बस औपचारिका ही की क्यूंकि उसकी नजर तो कामिनी को तलाश रही थी.
लेकिन वो आज रसोई से बहार नहीं आई,
रमेश ने माहौल भांप लिया। उसे लगा बच्चे सामने हैं, तो खुल के पी नहीं पाएंगे।
"कामिनी..." रमेश ने आर्डर दिया, "सुन, हम लोग छत वाले कमरे में बैठ रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं होनी चाहिए।"
उसने रवि और बंटी की तरफ देखकर एक फीकी मुस्कान दी।
"और सुन, कुछ चखना—काजू, चने और सलाद, और बर्फ... सब ट्रे में सजाकर ऊपर ले आ। जल्दी करना।"
रमेश और शमशेर सीढ़ियाँ चढ़कर छत की तरफ चले गए। जाते-जाते भी शमशेर ने मुड़कर एक बार पीछे देखा, उसे लगा शायद कामिनी बहार आई हो,
लेकिन कामिनी ने आज पूरी तरह से उसके मनसूबो पर पानी फेर दिया.
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छत पर बैठे रमेश ने आर्डर दिया था— "कामिनी, गिलास और चखना लेकर ऊपर आ जा।"
शमशेर की आँखें चमक उठी थीं। वह फिर से कामिनी को घूरने और उसे छेड़ने के लिए तैयार बैठा था।
लेकिन कामिनी रसोई में सब्जी छौंकने में व्यस्त थी, और हाथ सने हुए थे।
"बंटी बेटा... ज़रा यह ट्रे पापा को दे आ," कामिनी ने बंटी को आवाज़ दी।
बंटी ट्रे लेकर ऊपर चला गया।
जैसे ही शमशेर ने बंटी को ट्रे लाते देखा, उसका मुंह उतर गया। वह 'शिकार' का इंतज़ार कर रहा था, और सामने 'बेटा' आ गया। उसने बेमन से गिलास उठाया।
रसोई का दृश्य:
नीचे रसोई में गर्मी अपने चरम पर थी।
गैस पर चढ़ी कढ़ाई और बंद हवा की वजह से तापमान बढ़ा हुआ था। कामिनी पसीने में तर-बतर थी।
उसकी साड़ी का पल्लू पसीने से गीला होकर उसके वक्षस्थल से चिपक गया था। गर्दन से पसीने की बूंदें रेंगती हुई उसकी पीठ की गहराई में समा रही थीं।
वह पूरी शिद्दत से खाना बनाने में मशगूल थी कि तभी उसे अपने पीछे किसी की आहट महसूस हुई।
"आंटी... कुछ हेल्प कर दूँ?"
कामिनी पलटी। रवि खड़ा था।
कामिनी के चेहरे पे मुस्कान आ गई, जैसे वो जानती हो रवि यहाँ क्यों आया है.
वह रसोई के दरवाजे पर टेक लगाए, अपनी भूखी नज़रों से कामिनी की भीगी हुई हालत का मुआयना कर रहा था।
"अरे नहीं बेटा... तुम क्यों करोगे? तुम मेहमान हो, जाकर बैठो," कामिनी ने पल्लू से माथा पोंछते हुए कहा।
"अरे मुझे आता है आंटी... मैं घर पर अपनी मम्मी की हेल्प करता हूँ," रवि ने बहुत ही मासूमियत से झूठ बोला और सीधे अंदर आ गया।
रवि कामिनी के बिल्कुल पास आकर खड़ा हो गया।
किचन का स्लैब छोटा था। रवि ने धनिया उठाया और उसे काटने लगा।
दोनों के बीच मुश्किल से 2-3 इंच का फासला था।
रसोई की गर्मी में कामिनी के जिस्म से उठती पसीने की एक मादक गंध रवि की नाक से टकराई।
यह किसी इत्र की खुशबू नहीं थी, यह एक पकी हुई औरत के फेरोमोंस (Pheromones) की गंध थी—कच्ची, नमकीन और नशीली।
रवि ने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे वह किसी नशे में डूब रहा है।
वह कनखियों से कामिनी को देख रहा था—पसीने से भीगा ब्लाउज, चिपकी हुई लटें और सांस लेते हुए ऊपर-नीचे होता उसका सीना।
'उफ्फ्फ... क्या चीज़ है यार... पसीने में तो और भी नमकीन लग रही है,' रवि मन ही मन बड़बड़ाया।
सब्जी में नमक डालना था।
कामिनी ने इधर-उधर देखा। नमक का डब्बा ऊपर वाली शेल्फ (Shelf) पर रखा था।
कामिनी ने डब्बा उतारने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाया।
उसकी हाइट थोड़ी कम पड़ रही थी।
उसने अपने पंजों पर जोर दिया और अपनी एड़ियां उठा दीं।
जैसे ही कामिनी ने हाथ ऊपर खींचा, उसका ब्लाउज भी ऊपर खिंच गया।
उसकी साड़ी कमर से थोड़ी नीचे खिसक गई, जिससे उसकी गोरी, चिकनी कमर और गहरी नाभि का एक हिस्सा रवि की आँखों के सामने आ गया।
लेकिन रवि की नज़र कहीं और अटक गई।
कामिनी के हाथ ऊपर करने से, उसकी साड़ी का पल्लू हट गया था और उसकी कांख (Armpit) पूरी तरह रवि के सामने उजागर हो गई थी।
वह कांख एकदम साफ़-सुथरी, गोरी और पसीने से भीगी हुई थी। वहां पसीने की एक छोटी सी बूंद चमक रही थी।
रवि के बिल्कुल चेहरे के पास से एक कड़क और उत्तेजक गंध का झोंका आया।
उस गंध ने रवि के दिमाग के तार हिला दिए।
कामिनी का पूरा बदन तना हुआ था, वह डब्बे तक पहुँचने की कोशिश कर रही थी, उसका जिस्म एक धनुष की तरह मुड़ा हुआ था।
कामिनी की उंगलियां डब्बे को छू रही थीं, लेकिन पकड़ नहीं पा रही थीं। लेकिन इस प्रयास मे गांड बहार को निकल कर साड़ी मे और ज्यादा कस गई थी,
"उह्ह्ह..." कामिनी ने और जोर लगाया।
तभी रवि, जो ठीक उसके पीछे खड़ा था, अचानक आगे बढ़ा।
उसने कामिनी के पीछे से अपना हाथ बढ़ाया और आसानी से नमक का डब्बा उतार लिया।
लेकिन इस प्रक्रिया में...
रवि का पूरा शरीर कामिनी की पीठ से सट गया।
रवि की छाती कामिनी की पीठ से चिपकी थी, और उसका निचला हिस्सा (Groin) कामिनी के कूल्हों के बिल्कुल बीचो-बीच जाकर दब गया।
उस एक पल के लिए... रसोई में समय थम गया।
रवि की जींस का सख्त कपड़ा और उसके अंदर का तनाव कामिनी की साड़ी के पार उसकी कोमल त्वचा को चुभ गया।
"सीईईईईई............"
कामिनी के मुंह से एक दबी हुई सिसकी निकल गई।
नमक का डब्बा रवि के हाथ में था, लेकिन करंट कामिनी के पूरे बदन में दौड़ गया।
उसकी कमर रवि की कमर से चिपकी हुई थी। पीछे से मिल रही उस मर्दाना गर्माहट ने उसकी टांगों को कमजोर कर दिया।
वह चाहती तो हट सकती थी, लेकिन उसका जिस्म उत्तेजना से कसमसा गया।
पसीने से भीगे हुए दो जिस्म एक-दूसरे की गर्मी सोख रहे थे।
"ये लीजिये आंटी... नमक," रवि ने उसके कान के बिल्कुल पास फुसफुसाते हुए कहा। उसकी गर्म सांस कामिनी की गर्दन पर लगी।
कामिनी ने कांपते हाथों से डब्बा लिया।
"थ... थैंक यू..."
वह रवि से अलग हुई, लेकिन उस एक पल के रगड़ ने उसकी चूत में फिर से वही आग लगा दी थी जो सुबह से सुलग रही थी।
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रात के 11 बज चुके थे।
"खाना ले आना ऊपर " रमेश के चिल्लाने की आवाज़ से कामिनी चौंक गई.
वो शांति से कमरे मे बैठी थी, आज उसका दिन शांति से बिता था और उम्मीद थी की रात भी शांति से ही गुजरेगी.
कामिनी ने जल्दी से दो थालियों में खाना लगाया और भारी कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ रही थी।
उसके दिल में धक-धक हो रही थी। उसे लगा था कि इतनी देर हो गई है, शायद दोनों सो गए होंगे या नशा चढ़ गया होगा।
उसने छत के कमरे का दरवाज़ा धीरे से धक्का देकर खोला।
अंदर का नज़ारा देखकर उसके कदम ठिठक गए।
उसका अंदाज़ा गलत था।
रमेश सोया नहीं था। वह बिस्तर पर बैठा था, लेकिन उसकी हालत बहुत खराब थी। आँखें एकदम चढ़ी हुई थीं, बाल बिखरे थे और वह नशे में झूल रहा था।
और उसके ठीक सामने कुर्सी पर शमशेर बैठा था।
शमशेर ने अपनी वर्दी उतार दी थी। वह सिर्फ़ अपनी एक छोटी सी, टाइट चड्डी में बैठा था। चौड़ी छाती पर बालो का झुरमुत चमक रहा रहा,
कामिनी को देखते ही रमेश का पारा चढ़ गया।
"साली अंदर आ..." रमेश गुर्राया।
"कहाँ गांड मरा रही थी इतनी देर से? खाना लाने में इतना टाइम लगता है?"
कामिनी को गहरा धक्का लगा। उसका पति एक पराये मर्द के सामने उसे इतनी गंदी गाली दे रहा है,
"वो... वो... गर्म कर रही थी..." कामिनी ने सफाई देनी चाही।
"चुप! बहस मत कर," रमेश चिल्लाया।
कामिनी की आँखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने डरते-डरते थाली टेबल पर रख दी।
तभी उसकी नज़र शमशेर पर गई।
शमशेर अपनी टांगें चौड़ी करके बैठा था।
उसकी उस छोटी सी चड्डी के अंदर एक विशाल उभार साफ़ दिख रहा था। उसका लंड पूरी तरह खड़ा था, मोटा और लंबा... नसों से भरा हुआ। वह चड्डी के कपड़े को फाड़कर बाहर आने को बेताब था।
कामिनी की नज़रें उस उभार पर चिपक गईं।
"कोई नहीं अब खाना आ ही गया है तो खा ही लेंगे " शमशेर ने कामिनी की भूखी नज़रों को भांप लिया। उसने जानबूझकर अपनी जांघों पर हाथ फेरा और एक कुटिल मुस्कान दी।
"चल बैठ मेरे पास," रमेश ने बिस्तर की तरफ इशारा किया।
"साला नशे में खूंखार हो जाता है," शमशेर ने हंसते हुए कहा, जैसे उसे मजा आ रहा था मियां बीवी के बीच.
कामिनी डरते-डरते बिस्तर के किनारे, रमेश के पास बैठ गई।
रमेश ने कामिनी को घूरा।
"साली आज बड़ी चमक रही है... किसके लिए सज के घूम रही है?"
बोलते-बोलते रमेश ने अपनी पैंट की जिप खोली।
उसने अपना हाथ अंदर डाला और अपना लंड बाहर निकाल लिया।
वह छोटा सा, सिकुड़ा हुआ और ढीला था। नशे की वजह से उसमें जान नहीं थी।
"हिला इसे..." रमेश ने हुक्म दिया।
"खड़ा कर इसे... साली इतनी सुंदर बनी फिरती है तु आजकल।
कामिनी सकपका गई। अचानक से ये क्या हुआ? उसे रमेश के इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी.
"क्या? यहाँ? इनके सामने?" उसने शमशेर की तरफ देखा।
शमशेर कुर्सी पर बैठा, यह सब देख रहा था।
कामिनी की बेबसी और रमेश की बेशर्मी देखकर शमशेर की उत्तेजना बढ़ गई। उसने अपना हाथ अपनी चड्डी के ऊपर रखा और अपने लोहे जैसे सख्त लंड को सहलाने लगा।
कामिनी ने देखा कि शमशेर का लंड रमेश के लंड से कितना बड़ा और ताकतवर लग रहा था।
"तू खड़ा कर मेरा लंड... उधर क्या देख रही है?" रमेश ने कामिनी की नज़र शमशेर की तरफ जाते देख ली।
चटाक!
एक जोरदार थप्पड़ कामिनी के गाल पर पड़ा।
"आह्ह्ह..." कामिनी का गाल सुन्न हो गया। आँखों से आंसू टपक पड़े। गाल पर रमेश की उंगलियों के निशान छप गए।
"जल्दी कर रंडी... वरना आज यही खाल उधेड़ दूंगा," रमेश ने धमकी दी।
कामिनी के पास कोई चारा नहीं था, पता नहीं कामिनी की ऐसी क्या मज़बूरी थी की वो रमेश से इतना ख़ौफ़ खाती थी.
उसने अपने कांपते हाथ रमेश के लंड की तरफ बढ़ाए।
उसने उस छोटे, ढीले मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में पकड़ा। वह इतना छोटा था कि कामिनी की एक मुट्ठी में ही गायब हो गया।
कामिनी उसे हिलाने लगी।
खन-खन-खन...
कमरे में सिर्फ़ कामिनी की चूड़ियों की आवाज़ गूंज रही थी।
जैसे-जैसे उसका हाथ चल रहा था, उसके ब्लाउज में कैद उसके भारी स्तन हिल रहे थे।
शमशेर की नज़रें उन हिलते हुए स्तनों पर गड़ी थीं। वह अपनी चड्डी के ऊपर से अपने लंड को ज़ोर-ज़ोर से रगड़ रहा था। उसका उभार और बड़ा होता जा रहा था।
कामिनी एक अजीब सी दुविधा में थी।
शर्म और अपमान से वह मरी जा रही थी—पति के दोस्त के सामने मुठ मारना?
लेकिन साथ ही... एक गंदी उत्तेजना भी उसे महसूस हो रही थी।
उसकी नज़र बार-बार शमशेर के विशाल 'उभार' पर जाती, और फिर अपने हाथ में पकड़े रमेश की 'लुल्ली ' पर।
तुलना साफ़ थी।
एक तरफ 'पहाड़' था, और दूसरी तरफ 'कंकड़'।
कामिनी मन ही मन सोच रही थी— 'हे भगवान... मेरे पति के पास कुछ नहीं है... और वो सामने बैठा आदमी... वो तो पूरा घोड़ा है।'
यह सोचकर उसकी चूत गीली होने लगी। उसे अपनी इस बेइज़्ज़ती में, इस बेहयाई मे एक अलग सा अहसास हो रहा था, उसे उत्तेजना के साथ साथ शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी,
रमेश नशे में गालियां बके जा रहा था।
"आअह्ह्ह.... हिला इसे.... जोर से..."
लेकिन उसका लंड खड़ा ही नहीं हो रहा था। वह बिल्कुल मरा हुआ था।
"उफ्फ्फ्फ़.... इसससस.... साली रंडी.... हिलाना भी नहीं आता तुझे? किस काम की है तू?"
रमेश ने कामिनी के बाल पकड़ लिए और उसे झकझोर दिया।
"देख शमशेर... देख इस कुलच्छनी को... अपने खसम का लंड खड़ा नहीं कर पा रही।"
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कामिनी की कलाई दुखने लगी थी।
वह पिछले दस मिनट से रमेश के उस छोटे, ढीले और बेजान मांस के टुकड़े को अपनी मुट्ठी में रगड़ रही थी। लेकिन नतीजा सिफर था। वह लंड खड़ा होना तो दूर, हिल भी नहीं रहा था।
रमेश की बर्दाश्त की हद पार हो गई।
"हट्ट साली..." रमेश ने कामिनी के हाथ को झटक दिया।
"बताओ साली... तू एक मर्द का लंड भी नहीं खड़ा कर सकती? कैसी औरत है तू? तेरे अंदर वो कशिश ही नहीं है जो मुर्दे में जान डाल दे।"
चटक.... चाटक..... रमेश ने कामिनी के स्तनों पर जोरदार चाटा मारा.....
कामिनी के स्तन लाल पड़ गए "आआआहहहह..... क्या कर रहे है आप?"
चुप साली.....
रमेश अपनी नामर्दी का सारा ठीकरा कामिनी पर फोड़ रहा था। वह उसे जलील कर रहा था, गालियां दे रहा था।
पास बैठे शमशेर ने यह तमाशा देखा और एक कुटिल मुस्कान दी।
उसने व्हिस्की की बोतल उठाई और एक और कड़क पेग बनाया।
"ले भाई... मूड ठीक कर," शमशेर ने गिलास रमेश को थमाया।
फिर उसने अपनी चड्डी के ऊपर से अपने उभरे हुए लंड को सहलाते हुए सुझाव दिया—
"यार रमेश... हाथ से तो यह खड़ा होने से रहा। इसे मुंह की गर्मी चाहिए। इसे चूसने को बोल... देख शायद खड़ा हो जाये।"
रमेश ने एक ही घूंट में आधा गिलास खाली किया और कामिनी को घूरा।
"सुना नहीं तूने? मुंह में ले इसे..."
कामिनी की रूह कांप गई। पति का लंड चूसना?
इस से पहले भी उसने ऐसी कोशिश की थी, उसे घिन आती थी।
वह चुपचाप बैठी रही, सिर झुकाए।
"अबे, इसे तो चूसना भी नहीं आता," रमेश ने हताशा में कहा, "साली गांव की गंवार है।"
"अरे यह क्या बात हुई?" शमशेर ने हैरानी जताई, "शादी के इतने साल हो गए और लंड चूसना भी नहीं आता?"
शमशेर ने अपनी जांघों को और चौड़ा किया।
"तू कहे तो मैं सीखा दूँ?" शमशेर ने बेशर्मी से ऑफर दिया।
रमेश, जो नशे और हताशा में अंधा हो चुका था, उसे इसमें कोई बुराई नहीं लगी। उसे बस अपना काम बनवाना था, चाहे तरीका कोई भी हो।
"सिखा यार... तू ही कुछ सिखा इसे। तेरे पास तो तजुर्बा भी बहुत है रंडियों का।"
रमेश की 'हाँ' मिलते ही शमशेर की आँखों में शैतान जाग उठा।
वह अपनी कुर्सी से खड़ा हुआ।
कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी थी, उसका चेहरा शमशेर के पेट के बराबर था।
शमशेर ने एक हाथ अपनी कमर पर रखा और दूसरे हाथ से अपनी चड्डी को पकड़ा।
सर्रर्र...
एक झटके में उसने अपनी चड्डी नीचे खींच दी।
धप्प...
जैसे कोई भारी-भरकम चीज़ हवा में आज़ाद हुई हो।
कामिनी को तो जैसे सांप ही सूंघ गया।
उसकी आँखों के ठीक सामने, मुश्किल से 4 इंच की दूरी पर...
शमशेर का विशाल, काला और खूंखार लंड हवा में लहरा रहा था।
करीब 9 इंच लंबा। कलाई जितनी मोटाई।
उस पर उभरी हुई हरी-नीली नसें किसी नक्शे की तरह दिख रही थीं। उसका मुंड किसी मशरूम की तरह फैला हुआ था और गहरा लाल था।
वह रमेश के लंड जैसा नहीं था। उसमें जीवन था, ताकत थी, और क्रूरता थी।
जैसे ही वह बाहर आया, कामिनी की नाक में एक अजीब सी गंध का भभका लगा।
यह गंध पसीने, वीर्य, मूत्र और एक मर्द की कामुक गंध का मिश्रण थी। वह गंध तीखी थी, कड़वी थी... लेकिन कामिनी के नथुनों से होते हुए सीधे उसके दिमाग और फिर उसकी चूत तक पहुँच गई।
कमरे में हवा भारी हो गई थी, सिर्फ कामिनी की भरी साँसो की आवाज़ गूंज रही थी, उसे लगा जैसे उसका बलात्कार ही हो जायेगा.
कुछ भी हो एक औरत ऐसी स्थति मे फसना कभी नहीं चाहती.
उसके पति का ये extrim रूप था, वो इतना नीचे भी गिर सकता है उसे ये अहसास आज हुआ.
रमेश ने कामिनी की कलाई को लोहे की तरह जकड़ लिया, "साली रंडी... नखरे मत कर," रमेश गुर्राया, उसकी आँखों में नशा और हैवानियत थी।
"वो मेरा दोस्त है... उसके बहुत अहसान हैं मेरे ऊपर। अगर वो खुश नहीं हुआ तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा। पकड़ उसका लंड!"
रमेश ने पूरी ताकत लगाकर कामिनी का हाथ खींचा और शमशेर के तने हुए, विशाल लंड पर रख दिया।
कामिनी के बदन में 440 वोल्ट का झटका लगा।
उसकी स्थिति किसी भी विवाहित स्त्री के लिए नरक से बदतर थी।
उसके एक हाथ में उसके पति का छोटा, ढीला और बेजान लंड था।
और दूसरे हाथ के नीचे... शमशेर का फौलादी, गरम और धड़कता हुआ लंड।
उसकी हथेली शमशेर के लंड की नसों पर फिसली। वह इतना गरम था कि कामिनी की उंगलियां जलने लगीं।
उस स्पर्श से उसकी चूत एक पल के लिए कुलबुला उठी—यह उसके जिस्म की गद्दारी थी।
लेकिन अगले ही पल... उसके दिमाग में एक विस्फोट हुआ।
"नहीं!"
कामिनी की अंतरात्मा चीख पड़ी।
'मैं क्या कर रही हूँ? मैं रंडी नहीं हूँ... मैं एक पत्नी हूँ, एक माँ हूँ। मैं अपने पति के सामने किसी और मर्द का लंड नहीं पकड़ सकती।'
आत्मग्लानि के एक भारी पहाड़ ने उसे कुचल दिया।
उसे अपने पति पर, शमशेर पर और सबसे ज्यादा खुद पर घिन आई।
उसका दम घुटने लगा। उसे लगा कि अगर वह एक पल भी और इस कमरे में रही, तो वह मर जाएगी या पागल हो जाएगी।
उसने झटके से अपने दोनों हाथ खींचे।
रमेश और शमशेर कुछ समझ पाते, इससे पहले ही कामिनी किसी घायल हिरनी की तरह उछलकर खड़ी हो गई।
उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली।
"छिः... छिः..." उसके मुंह से बस यही निकला।
वह मुड़ी और दरवाजे की तरफ भागी।
"अरे रुक साली... कहाँ जा रही है?" रमेश पीछे से चिल्लाया, लेकिन वह उठ नहीं पाया।
शमशेर भी हड़बड़ा गया, "अरे भाभी..."
लेकिन कामिनी रुकी नहीं।
वह नंगे पाँव सीढ़ियों से नीचे भागी।
उसका पल्लू गिर रहा था, बाल बिखर गए थे, लेकिन उसे किसी चीज़ की होश नहीं थी।
वह बदहवास होकर हॉल में आई, फिर आंगन में...
घर की दीवारे जैसे उसे काटने को दौड़ रही थीं। उसे खुली हवा चाहिए थी। उसे सांस लेनी थी।
उसने पीछे का दरवाज़ा खोला और सीधे गार्डन की तरफ भागी।
अंधेरे में ठोकर खाते हुए वह उसी जामुन के पेड़ के पास पहुंची।
वही जगह... जहाँ अक्सर रघु बैठा करता था।
कामिनी वहां पहुँचकर हांफते हुए रुक गई।
उसने चारों तरफ देखा। उसकी आँखें अंधेरे में रघु को तलाश रही थीं।
शायद उसे लगा था कि वह यहाँ होगा... शायद वह उसे बचा लेगा... या कम से कम उसकी बात सुन लेगा।
लेकिन आज... वहाँ कोई नहीं था।
गार्डन वीरान था। सन्नाटा पसरा हुआ था।
सिर्फ़ झींगुरों की आवाज़ थी और कामिनी की सिसकियाँ।
कामिनी उसी पेड़ के नीचे, सूखी घास पर घुटनों के बल गिर पड़ी।
उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
"ये... ये क्या हो गया?" वह हिचकियों के बीच बुदबुदाई।
"मेरा पति... मेरा सुहाग... वो मुझे दूसरे मर्द के हवाले कर रहा था? वो मुझे उसके सामने 'रंडी' बोल रहा था.
कैसा इंसान है ये? अकेले कमरे मे की गई हरकत अलग बात थी.... लेकिन... लेकिन.... ये...
सुबुक.... सुबुक.... कामिनी बर्दाश्त ना कर सकी उसका दिल रो पड़ा.
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कामिनी गार्डन में पागलों की तरह टहल रही थी।
उसके नंगे पैर गीली घास और कंकड़ों पर पड़ रहे थे, लेकिन उसे कोई होश नहीं था। उसका दिमाग अभी भी उसी छत वाले कमरे में अटका था।
“साली रंडी... मर्द का लंड भी खड़ा नहीं कर सकती... गांव की गंवार है, चूसना भी नहीं आता।”
रमेश के वो शब्द, उसकी वो घिनौनी हंसी, और शमशेर का वो नंगापन... सब कुछ उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था।
वह वापस अंदर नहीं जा सकती थी। वहां वो दो दरिंदे थे।
चलते-चलते उसके कदम अनजाने में ही घर के पीछे बने स्टोर रूम की तरफ मुड़ गए। शायद उसका अवचेतन मन उसे वहीं ले आया था जहाँ उसे सुकून (या शायद एक अलग तरह की आग) मिलती थी।
स्टोर रूम का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर एक मद्धम, पीली रौशनी जल रही थी।
कामिनी ने दरवाज़ा धकेला और अंदर दाखिल हुई।
अंदर का दृश्य देखकर उसके होश उड़ गए। पैर ज़मीन पर जम गए।
सामने एक पुरानी खटिया पर, रघु पड़ा हुआ था।
वह पूरी तरह नंगा था।
शायद गर्मी की वजह से या नशे की वजह से उसने अपनी लुंगी उतार फेंक दी थी।
वह चित लेटा था, टांगें थोड़ी फैली हुई थीं। उसका सांवला, गठीला और पसीने से चमकता बदन उस पीली रौशनी में किसी सोये हुए योद्धा जैसा लग रहा था।
उसका साँवला, गठीला बदन पसीने की एक पतली परत से चमक रहा था। छाती धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हो रही थी।
लेकिन कामिनी की नज़रें उसके चेहरे पर नहीं रुकीं।
वे सीधे नीचे फिसल गईं... रघु की दोनों फैली हुई, मांसल जांघों के बीच।
वहाँ... काले, घुंघराले बालों के जंगल के बीच... उसका विशाल पौरुष निढाल होकर पड़ा था।
वह अभी सोया हुआ था, लेकिन फिर भी वह इतना बड़ा और भारी लग रहा था कि कामिनी की सांसें अटक गईं।
वह एक तरफ लुढ़का हुआ था, उसका मुंड जांघ से सटा हुआ था।
कामिनी वहीं, दरवाजे पर जमी रह गई।
उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रही है।
ऊपर उसका पति उसे 'नामर्द' साबित करने पर तुला था, और यहाँ नीचे कुदरत का एक 'विशाल नमूना' बेहोश पड़ा था।
कामिनी की चूत, जो अपमान से गीली थी, इस नज़ारे को देखकर बाढ़ की तरह बह निकली।
एक अजीब सी सम्मोहन शक्ति उसे खटिया की तरफ खींचने लगी।
वह दबे पाँव, किसी बिल्ली की तरह आगे बढ़ी।
खटिया के पास जाकर वह घुटनों के बल बैठ गई। उसकी रेशमी साड़ी स्टोर रूम की धूल भरी ज़मीन पर फ़ैल गई, लेकिन उसे होश नहीं था। वो क्या कर रही है, क्यों कर रही उसे होश ही नहीं था.
उसका चेहरा अब रघु के लंड के बिल्कुल समानांतर था।
उसने गौर से देखा।
वह लंड शांत था, सोया हुआ था। उसकी खाल थोड़ी ढीली थी, लेकिन उसके नीचे की नसें साफ़ दिखाई दे रही थीं।
कामिनी के मन में एक ज़िद्द जागी।
'रमेश कहता है मैं खड़ा नहीं कर सकती? मैं दिखाती हूँ कि मैं क्या कर सकती हूँ।'
कामिनी के मन मे बदले का भाव पनपने लगा था,
उसने अपना कांपता हुआ हाथ आगे बढ़ाया।
उसकी कोमल, गोरी हथेली ने रघु के उस साँवले, भारी लंड को छुआ।
वह गरम था... बहुत गरम।
और भारी।
जैसे ही कामिनी ने अपने काँपते हाथो से उसे अपनी मुट्ठी में भरा, उसे वजन महसूस हुआ। रमेश का लंड तो रुई जैसा हल्का था, लेकिन यह... यह तो ठोस मांस का टुकड़ा था।
कामिनी की मुट्ठी पूरी नहीं पड़ रही थी, लंड का सुपारी और निचला हिस्सा अभी भी बाहर था।
कामिनी ने धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी को कसना शुरू किया।
उसके हाथ खुद ही रघु के सोये लंड पर आगे पीछे फिसलने लगे,
उसने उसे हिलाना शुरू किया—ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर।
वह उसके सोये हुए मुंड को अपने अंगूठे के पोर से सहलाने लगी।
"उठो..." वह मन ही मन फुसफुसाई, "जागो... मै ुए कर सकती हूँ, मुझे आता है"
रघु के लंड ने कामिनी के अंतर्मन का जवाब तुरंत दिया।
कामिनी के हाथ की गर्मी पाते ही, उस बेजान मांस में खून दौड़ने लगा।
वह कामिनी की मुट्ठी के अंदर फैलने लगा, सख्त होने लगा।
कामिनी की आँखों में चमक आ गई। यह कामिनी के छुवन की ताकत थी। वह जादू कर रही थी।
जो लंड अभी मरा हुआ था, वह उसके छूने भर से ज़िंदा हो रहा था।
'झूठा है रमेश... मैं ठंडी नहीं हूँ। मैं आग हूँ।'
लेकिन अभी परीक्षा बाकी थी।
“चूसना नहीं आता...” रमेश के कातिल शब्द कामिनी के मन मे चोट करने लगे.
कामिनी ने एक गहरी सांस ली।
रघु के लंड से एक तीखी, मर्दाना गंध उठ रही थी—पसीने, मूत्र और वीर्य की मिली-जुली गंध। यह गंध किसी इत्र से ज्यादा नशीली थी।
कामिनी ने अपना चेहरा झुकाया।
उसकी सांसें रघु के लंड पर टकराईं, जिससे वह लंड हल्का सा फड़फड़ाया।
कामिनी ने अपनी जुबान बाहर निकाली।
लाल, गीली जुबान।
उसने रघु के लंड के सुपारी पर, जो अब सख्त होकर चमक रहा था, एक लंबी चाट मारी।
स्लर्रर्रप...
उसका स्वाद नमकीन था। कसैला था।
कामिनी को घिन आनी चाहिए थी। आती भी थी, लेकिन आज.... आना उसे कोई घिन्न नहीं आई, उसकी आँखों मे आंसू थे, एक जज्बा था, वो खुद को औरत साबित कर देना चाहती थी, उसने ये भी नहीं देखा की सामने वाला आदमी नौकर है, एक शराबी, मजदूर है, जिसका लंड वो चाट रही है,
उसे घिन नहीं आई। उसे एक अजीब सा विजयी नशा चढ़ गया।
उसने अपनी जुबान की नोक से उस लंड के छेद को कुरेदा।
और फिर...
उसने अपना मुंह पूरा खोला।
उसने अपने होंठों को गोल किया और उस मोटे मुसल्ल को अपने मुंह के अंदर ले लिया। सुर्ख लाल होंठो के बीच काला गन्दा लंड घुसने को तैयार था,
ग्ल्लप...
गर्म, सख्त मांस उसके गीले मुंह के अंदर घुस गया।
कामिनी का मुंह भर गया था, लेकिन वह रुकी नहीं।
वह उसे चूसने लगी।
अपने गालों को पिचकाकर उसने वैक्यूम बनाया।
चप... चप... चप...
कमरे में सिर्फ़ उसके चूसने की गीली आवाज़ें गूंज रही थीं।
वह अपनी जीभ को लंड के नीचे वाली नसों पर फिरा रही थी, और अपने होंठों से सुपारी को चूम रही थी।
उसका सिर लय में ऊपर-नीचे हो रहा था।
उसके कानों में जो झुमके थे, वो हिल रहे थे। मांग का सिंदूर चमक रहा था।
एक सुहागन औरत, माथे पर बिंदी, गले में मंगलसूत्र... और मुंह में नौकर, शराबी मजदूर का लंड।
यह दृश्य जितना पापपूर्ण था, उतना ही कामुक।
रघु नींद में ही कसमसाया।
"उह्ह्ह..." उसके मुंह से एक भारी आवाज़ निकली।
कामिनी के मुंह का जादू चल गया था।
रघु का लंड अब अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो चुका था। वह कामिनी के गले तक जाने की कोशिश कर रहा था।
वह लोहे की रॉड बन चुका था।
कामिनी की आंखों से पानी बहने लगा (गले में लंड जाने की वजह से), लेकिन उसने छोड़ने से मना कर दिया।
वह उसे और जोर से चूसने लगी।
उसे परवाह ही नहीं थी की रघु जग गया तो क्या होगा? वो क्या सोचेगा? वो अपनी धुन, अपने गुस्से मे थी.
वह अपने पति को, शमशेर को, और पूरी दुनिया को दिखा रही थी—
'देखो... यह खड़ा है। लोहे जैसा खड़ा है। और यह मैंने किया है। मैं रंडी नहीं हूँ, मैं जादूगरनी हूँ। मैं किसी को भी पिघला सकती हूँ। मुझमे वो अप्सरा जैसा आकर्षण है.
स्टोर रूम में सिर्फ़ चूसने की आवाज़ें गूंज रही थीं। चप... चप... ग्लप...
कामिनी पूरी शिद्दत से रघु के लंड को अपने मुंह में लिए हुए थी। वह अपनी जीभ और गालों का ऐसा इस्तेमाल कर रही थी जैसा उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसे एक जूनून सवार था—अपने पति को गलत साबित करने का। उसने कभी ऐसा नहीं किया था, बस आज किस आवेश मे कर गई पता नहीं.
सम्भोग कला इंसान स्वम सीखता है, उसे कोई सिखाता नहीं, इसका ताज़ा उदाहरण थी कामिनी.
रघु का लंड उसके मुंह में किसी पत्थर की तरह सख्त हो चुका था।
तभी, रघु का शरीर कसमसाने लगा।
नशे और गहरी नींद के बीच, उसे अपनी जांघों के बीच हो रही उस हलचल का एहसास होने लगा था। उसे लगा जैसे वह कोई हसीन सपना देख रहा है।
अचानक, रघु ने अपना भारी, खुरदरा हाथ उठाया और कामिनी के सिर के पीछे रख दिया।
उसने अपनी उंगलियां कामिनी के रेशमी बालों में फंसा दीं।
और फिर... एक झटके में उसने कामिनी के सिर को नीचे दबा दिया।
ग्लक...
रघु का लंबा लंड कामिनी के हलक तक उतर गया।
कामिनी की सांस रुकने को हो गई। उसकी आँखों से पानी निकल आया। वह सिर पीछे खींचना चाहती थी, लेकिन रघु की पकड़ लोहे जैसी मजबूत थी।
रघु नींद में ही बड़बड़ाया—
"चूस सुगना... चूस मेरी जान... क्या चूसती है तू... आह्ह्ह..."
उसकी आवाज़ में एक तड़प थी, एक पुराना प्यार था। वह कामिनी को अपनी मरी हुई बीवी 'सुगना' समझ रहा था।
"मज़ा आ गया... पूरा मुंह में ले... छोड़ना मत..."
रघु अपनी कमर को ऊपर उठाने लगा, जिससे उसका लंड कामिनी के मुंह में और गहराई तक जाने लगा.
कामिनी एक पल को डर गई। उसे लगा रघु जाग गया है।
लेकिन उसकी बंद आँखें और 'सुगना' का नाम सुनकर वह समझ गई कि वह अभी भी नशे और नींद के आगोश में है।
इस अहसास ने कामिनी के डर को कम किया और उसकी उत्तेजना को बढ़ा दिया।
उसने विरोध करना छोड़ दिया।
उसने अपनी जीभ को और तेज़ कर दिया। उसके मुंह से थूक और लार की धार रघु के लंड और अंडकोषों पर बहने लगी।
करीब 5 मिनट की उस जंगली चुदाई के बाद...
रघु का बदन अकड़ गया। उसके पैरों की उंगलियां मुड़ गईं।
उसने कामिनी के बालों को जड़ से पकड़ लिया और उसे हिलने नहीं दिया।
"आअह्ह्ह.... सुगना... तूने मार डाला.... मैं गया..."
रघु के लंड में एक भयानक विस्फोट हुआ।
पिच... पिच... पिच...
गाढ़ा, गर्म और कसैला वीर्य की एक बाढ़ कामिनी के मुंह के अंदर छूट पड़ी।
वह फव्वारे की तरह उसके गले में, उसकी जीभ पर और उसके दांतों पर गिर रहा था।
जैसे ही वीर्य छूटा, कामिनी को होश आया।
घिन और यथार्थ का एक झटका लगा। वह मुंह हटाना चाहती थी, थूकना चाहती थी।
लेकिन रघु ने कस के उसका पूरा मुंह अपने लंड पर दबाया हुआ था। वह उसे हिलने नहीं दे रहा था।
कामिनी न चाहते हुए भी मजबूर थी।
रघु का सारा वीर्य, बूंद-बूंद करके कामिनी के मुंह में समा गया। उसका मुंह पूरी तरह भर गया था। उसे सांस लेने के लिए कुछ हिस्सा निगलना भी पड़ा।
थोड़ी देर बाद, रघु का शरीर ढीला पड़ गया। उसकी पकड़ ढीली हुई।
कामिनी ने झटके से अपना सिर पीछे खींचा।
पॉप...
एक आवाज़ के साथ लंड बाहर निकला। उसके होंठों से एक तार लार और वीर्य का जुड़ा हुआ था जो टूट कर रघु की जांघ पर गिर गया।
कामिनी हांफ रही थी।
वह जैसे-तैसे लड़खड़ाते हुए उठी। उसने एक बार रघु को देखा जो अब शांत होकर सो गया था।
वह वहां से भागी।
गार्डन पार किया, पिछला दरवाज़ा खोला और बदहवास होकर अपने बेडरूम में घुसी।
उसकी सांसें फूली हुई थीं। उसका पूरा मुंह, जीभ और गला उस कसैले, नमकीन स्वाद से भरा हुआ था।
रघु का 'बीज' उसके अंदर था।
उसमें कुल्ला करने या बाथरूम जाने की भी हिम्मत नहीं थी। उसका जिस्म जल रहा था—शर्म से, थकान से और उस अजीब से नशे से।
वह धम्म से बिस्तर पर गिर गई,
उसकी जाँघे बुरी तरह से गीली थी, लग रहा था जैसे किसी ने जलता कोयला अंदर राख दिया हो.
कामिनी से रहा नहीं गया, उसने हाथ अपनी जांघो के बीच डाल बहार निकाल लिया, उसकी आँखों के सामने सफ़ेद चासनी सी लकीर उसकी उंगलियों मे फसी हुई थी.
आआआहहहहह...... कामिनी कांप उठी, उसकी चुत ने इतना पानी आजतक नहीं छोड़ा था.
वो खुद नहीं जानती थी वो क्या कर रही है, क्यों कर रही है. बस अपने जिस्म की गुलाम होती जा रही थी.
उसकी नजरें अपनी ऊँगली के बीच रिसती चासनी पर थी. उसे समझ जाना चाहिए था की वो बेइज़्ज़त हो कर भी उत्तेजित हो जाती है, लेकिन ये सामन्य घटना नहीं थी,.
भला कौन औरत अपने अपमान मे उत्तेजित होती है.
या फिर कामिनी को आदत हो गई थी रमेश की मार पिट की उसकी बेइज़्ज़ती की.
कामिनी दुविधा मे थी, भयंकर दुविधा मे.
वो कभी खुद को 18 साल की महसूस करती, जिसे भावनात्मक प्यार चाहिए होता है तो कभी खुद को प्यासी औरत महसूस करती जिसे सिर्फ लंड चाहिए भले वो किसी का भी हो, ऐसा ना होता तो वो रघु जैसे मेले कुचले शराबी आदमी का लंड चूसने की हिम्मत कर पति.
वो खुद सकते मे थी की उसने ऐसा कर कैसे लिया, उसकी अंतरात्मा इसे धिक्कार रही थी.
"साली रंडी......"
कामिनी की आंखे भर आई.
थकान इतनी ज्यादा थी कि न जाने कब उसकी आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला।
कुछ देर बाद (स्टोर रूम में):
स्टोर रूम में सन्नाटा था।
रघु की आंखें धीरे-धीरे खुलीं। नशा थोड़ा कम हुआ था।
उसने एक गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे उसने एक बहुत ही प्यारा सपना देखा है—सुगना उसके पास थी, उसे प्यार कर रही थी।
लेकिन फिर उसे अपनी जांघों के बीच एक अजीब सा गीलापन और ठंडक महसूस हुई।
रघु ने उठकर देखा।
उसका लंड अभी भी आधा खड़ा था।
लेकिन वह गीला था।
वह थूक, लार और वीर्य से लथपथ था। उसकी जांघों पर सफ़ेद, चिपचिपा द्रव बिखरा हुआ था।
रघु सन्न रह गया।
उसने अपनी उंगली से उस गीलेपन को छुआ और सूंघा।
"यह क्या?" रघु का दिमाग चकरा गया।
"यह सपना था... या हकीकत?"
अगर यह सपना था, तो इतना गीलापन कहाँ से आया?
और अगर यह हकीकत थी... तो....
उसकी नजर ज़मीन पर पड़ी उसने देखा।
वहां धूल में कांच की चूड़ी का एक छोटा सा, चमकीला टुकड़ा पड़ा था।
रघु के चेहरे पर एक अजीब सी हैरानी ने जगह ले ली....
"मेमसाब..." वह बुदबुदाया।