
पैंटी का कपड़ा उसकी योनि से चिपक गया था। और ऐसा चिपका था की फुला हुआ त्रिकोण साफ अपनी मौजूदकी का अहसास दिला रहा था, कामिनी ने अपने काँपते हाथो से अपनी कच्छी की इलास्टिक को पकड़ आगे की ओर खिंच दिया, एक गाढ़े तार जैसा द्रव खिंचता हुआ उसकी कच्छी से चिपक अलग होने लगा.

और बिना किसी पूर्व-चेतावनी के, वह मोटी गाजर उसकी चूत के मुहाने पर रखकर जोर से धक्का दे दिया।
आखिर भोर होते-होते उसकी आँख लग गई।Kamuk update bhai Kamini ki pyaas ab ye sharabi bujhatega jisse khud uske pati ne andar bhejaअपडेट - 3
कामिनी ने बाथरूम का दरवाज़ा बंद किया और कुंडी चढ़ा दी। एक "खट" की आवाज़ के साथ वह बाहरी दुनिया से कट गई—न कोई बेटा, न कोई शराबी पति, और न ही समाज की बेड़ियाँ। यहाँ सिर्फ़ वह थी, उसका उबलता हुआ जिस्म था और कांच में दिखती उसकी परछाई।
बाथरूम की सफ़ेद रौशनी में कामिनी की साँसें भारी चल रही थीं।
उसने कांपते हाथों से अपने ब्लाउज के हुक खोले। टक.. टक...एक...टक.... दो... टककककक.....तीन।
जैसे ही ब्लाउज हटा, उसकी भारी भरकम छाती, जो अब तक कसकर कैद थी, ब्रा के कप्स से बाहर झलकने लगी। साँस लेने की आज़ादी मिलते ही उसके गोरे, भरे हुए स्तन और भी ज्यादा फूल गए थे, जैसे बाहर आने को बेताब हों। ब्रा की पट्टियाँ उसके मांस में धंस गई थीं, और वहाँ लाल निशान पड़ गए थे।
उसने पेटीकोट का नाड़ा खोला। पेटीकोट सरक कर पैरों में गिर गया।
अब वह सिर्फ़ ब्रा और पैंटी में थी।
कामिनी की नज़र सामने लगे आदमकद शीशे पर गई। वह ठिठक गई।
क्या यह वही है? 36 साल की एक औरत? एक जवान लड़के की माँ?
शीशे में जो औरत खड़ी थी, वह किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। भरा हुआ, गठीला बदन, चौड़ी कमर, गहरी नाभि और पसीने से चमकता हुआ गोरा रंग।
उसकी नज़र अपनी पैंटी पर गई। सफ़ेद रंग की पैंटी बीचों-बीच से पूरी तरह पारदर्शी हो चुकी थी। वहाँ एक बड़ा सा गीला धब्बा था।
कामिनी ने झुककर अपनी पैंटी उतारी।
उतारते वक़्त उसने महसूस किया कि उसकी जांघों के बीच एक लिसलिसा पदार्थ लगा है।पैंटी का कपड़ा उसकी योनि से चिपक गया था। और ऐसा चिपका था की फुला हुआ त्रिकोण साफ अपनी मौजूदकी का अहसास दिला रहा था, कामिनी ने अपने काँपते हाथो से अपनी कच्छी की इलास्टिक को पकड़ आगे की ओर खिंच दिया, एक गाढ़े तार जैसा द्रव खिंचता हुआ उसकी कच्छी से चिपक अलग होने लगा.
बिलकुल चाशनी जैसा—गाढ़ा, चिपचिपा और गर्म।
ऐसा उसने आज से पहले नहीं देखा था, ऐसा गाड़ा गिलापन कभी नहीं आया था,
अनायास ही उसने अपनी उंगलियों पर उस कामरस को मसल कर देखा।
उसे खुद पर शर्म भी आ रही थी और हैरानी भी। उसका शरीर इतना रस छोड़ रहा था?![]()
सांसे भूल रही थी, स्तन और भी कड़क हो चुके थे.
अब बारी थी उस "जंगल" को साफ़ करने की।
कामिनी ने वीट क्रीम का डिब्बा खोला।
उसने प्लास्टिक के स्पैचुला को किनारे रख दिया और क्रीम अपनी उंगलियों पर ली।
जैसे ही उसकी उंगलियां उसकी जांघों के बीच उस बालों से भरे हिस्से पर लगीं, उसके बदन में एक बिजली सी दौड़ गई।
क्रीम ठंडी थी, और उसकी त्वचा जल रही थी।
उसने धीरे-धीरे क्रीम लगाना शुरू किया। अनजाने में उसकी उंगलियां उसकी जांघों के जोड़ों, उसकी नाभि और फिर ऊपर उठकर उसके स्तनों तक पहुँच गईं।
एक अजीब सी मादकता ने उसे घेर लिया था।
उसने अपनी ब्रा के ऊपर से ही अपने स्तनों को भींच लिया। निप्पल, जो अब तक सोए हुए थे, कपड़े के अंदर ही तनकर पत्थर जैसे हो गए थे।
"उफ्फ्फ..." उसके मुँह से एक सिसकी निकली।
कुछ मिनटों के इंतज़ार के बाद, उसने पानी का शावर चलाया और उस हिस्से को साफ़ करना शुरू किया।
जब सारे बाल साफ़ हो गए और उसने तौलिए से पोंछा, तो वह नज़ारा देखकर दंग रह गई।
सालों बाद उसने अपनी योनि को इस तरह देखा था।
बालों का वह काला जंगल अब गायब था।
वहाँ अब सिर्फ़ गोरा, चिकना मांस था। रौशनी पड़ते ही वह हिस्सा चमक रहा था।
उसकी चूत थोड़ी सूजी हुई और फूली हुई लग रही थी।
जांघों के बीच जैसे एक 'समोसा' रखा हो—उभरा हुआ, मांसल और बेहद खूबसूरत।
और उस उभार के बीचों-बीच एक गुलाबी लकीर थी। एक महीन दरार, जो अभी भी गीली थी।
कामिनी को यकीन नहीं हो रहा था कि यह उसी का अंग है। यह इतना सुंदर था?
उसका हाथ अपने आप उस चिकने उभार की तरफ बढ़ा।
जैसे ही उसकी हथेली ने उस बाल रहित, नंगी चूत को स्पर्श किया, कामिनी के घुटनों से जान निकल गई।
उस स्पर्श में इतना करंट था कि वह खड़ी नहीं रह सकी।
वह लड़खड़ाते हुए वहीं बाथरूम के ठंडे फर्श पर बैठ गई, बल्कि गिर ही पड़ी।
उसकी टांगें अपने आप चौड़ी हो गईं।
उसकी चूत से पानी का रिसाव अब भी जारी था, बल्कि अब और तेज़ हो गया था।
कामिनी ने अपनी हथेली उस दरार (slit) पर कसकर दबा ली, जैसे अंदर से कोई उबलता हुआ लावा निकलने वाला हो और वह उसे रोकने की कोशिश कर रही हो।
"हाय राम... ये क्या हो रहा है..." वह बुदबुदाई।
लेकिन रोकने से क्या होता?
वहाँ इतनी फिसलन, इतनी चिकनाहट थी कि उसकी दो उंगलियां अपने आप रपट कर उस गुलाबी दरार के अंदर धंस गईं।
"इफ्फ्फफ्फ्फ्फ़.... उउउफ्फ्फ... आह्ह्ह्ह..."
कामिनी की गर्दन पीछे की ओर लटक गई। आँखें बंद हो गईं।
उंगलियों के अंदर जाते ही उसे जो सुकून मिला, वह किसी जन्नत से कम नहीं था।एक मीठा दर्द, एक ऐसी खुजली जो सालों से मिटाई नहीं गई थी।![]()
बंद आँखों के अंधेरे में एक तस्वीर कौंध गई।
वो शराबी... वो धूप में चमकता हुआ, काला, लम्बा और मोटा लंड।
कामिनी का हाथ तेज़ी से चलने लगा।
उसने कल्पना की कि उसकी उंगलियां नहीं, बल्कि वही मोटा लंड उसकी चिकनी चूत को चीरते हुए अंदर जा रहा है।
पच... पच... पच...
बाथरूम में गीली आवाज़ें गूंजने लगीं।
"आह्ह्ह... और जोर से... उफ्फ्फ..."
वह अपनी मर्यादा भूल चुकी थी। वह बस एक स्त्री थी, एक कामुक अधूरी जवान औरत, जिसे संतुष्टि चाहिए थी।
लेकिन तभी...
दिमाग के किसी कोने में एक और छवि उभरी।
उसके पति रमेश का चेहरा। उसका नशे में धुत, गालियां बकता हुआ चेहरा।
और उसके साथ ही दिखा उसका वो छोटा, सिकुड़ा हुआ, बेजान लिंग।
जैसे ठंडे पानी की बाल्टी किसी ने उसके ऊपर डाल दी हो।
कामिनी का हाथ रुक गया।
वह झटके से वर्तमान में लौटी। उसकी उंगलियां अभी भी उसकी योनि के अंदर थीं।
उसने अपनी आँखें खोलीं और खुद को आईने में देखा—फर्श पर नंगी, टांगें फैलाए, अपनी ही उंगलियों से खेलती हुई।
"हे भगवान... ये... ये मैं क्या कर रही हूँ?"
संस्कारों ने उसे कसकर जकड़ लिया।
"मैं एक पत्नी हूँ... रमेश जी की पत्नी... बंटी की माँ... मैं यह गंदा काम कैसे कर सकती हूँ? एक शराबी के बारे में सोचकर?"
ग्लानि का एक भारी पहाड़ उस पर टूट पड़ा।
उसने झटके से अपनी उंगलियां बाहर निकालीं।
उसकी आँखों में आंसू आ गए। यह आंसू शर्म के थे, या अधूरी प्यास के, यह वह खुद नहीं जानती थी।
वह वहां फर्श पर सिमट कर बैठ गई, अपने घुटनों में सिर देकर रोने लगी।
उसका बदन अभी भी आग की तरह तप रहा था, चूत अभी भी फड़फड़ा रही थी और चाहत कर रही थी, लेकिन उसका 'माँ' और 'पत्नी' वाला रूप उस 'कामुक प्यासी औरत' पर हावी हो चुका था।
कम से कम अभी के लिए...
लेकिन वह नहीं जानती थी कि एक बार शेर के मुँह में खून लग जाए, तो वह शिकार करना नहीं छोड़ता। कामिनी के जिस्म ने आज सुख का जो स्वाद चखा था, वह इतनी आसानी से शांत नहीं होने वाला था।
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बाथरूम के उस तूफ़ान के बाद, कामिनी ने खुद को बमुश्किल समेटा था। उसने वापस साड़ी पहनी, सिंदूर लगाया और एक 'संस्कारी पत्नी' का मुखौटा ओढ़कर रसोई में काम करने लगी।
ना जाने कई, उसने एक बार खिड़की से बाहर झाँका, लेकिन वो शराबी वहां नहीं था। उसे सुकून मिला, पर कहीं न कहीं एक कसक भी थी।
शाम ढल चुकी थी।
घर में हमेशा की तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। बंटी ने चुपचाप खाना खाया। उसकी नज़रें अपनी माँ के चेहरे पर थीं, वो भांप रहा था कि माँ आज कुछ बदली-बदली सी है, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं और अपने कमरे में चला गया।
लेकिन बंटी की आँखों में नींद नहीं थी। उसे चिंता थी, एक अनजाना डर था कि आज रात फिर कुछ होगा।
रात के ठीक 11 बजे, वही हुआ जिसका डर था।
दरवाज़ा जोर से खुला। रमेश लड़खड़ाते हुए घर में दाखिल हुआ। शराब की बदबू ने पूरे हॉल को भर दिया।
कामिनी पानी का गिलास लेकर दौड़ी, "जी, आ गए आप? मैंने आपकी पसंद की..."
"हट्ट रंडी..." रमेश ने गिलास हाथ से झटक दिया। पानी फर्श पर बिखर गया।
"बड़ा पसंद का खाना बनाया है साली ने... मुझे खाना नहीं, तेरी ये गरम चूत चाहिए," रमेश ने गंदी गाली बकते हुए कामिनी के बाल पकड़ लिए।
"आह्ह्ह... छोड़िये ना... बंटी जग जाएगा," कामिनी की चीख दबी हुई थी।
"जगने दे उस पिल्ले को... उसे भी पता चले उसकी माँ कितनी बड़ी रंडी है," रमेश उसे घसीटते हुए बेडरूम में ले गया और दरवाजा पैर से मारकर बंद कर दिया (लेकिन कुंडी नहीं लगाई)।
कमरे में रमेश ने उसे बिस्तर पर पटका।
"कपड़े उतार साली... नंगी हो," रमेश ने हुक्म दिया।
कामिनी का जिस्म कांप रहा था। डर से भी, और उस अजीब सी उत्तेजना से भी जो आज दोपहर से उसके बदन में दौड़ रही थी।
उसने कांपते हाथों से साड़ी गिराई, फिर ब्लाउज और पेटीकोट।
जैसे ही उसके जिस्म से आखिरी कपड़ा हटा, कमरे की पीली रौशनी में उसका बदन कुंदन की तरह दमक उठा। कामुक गद्दाराया जिस्म, सम्पूर्ण नंगा, बहार से आती ठंडी हवा ने उसके रोंगटे खड़े कर दिए थे.
कामिनी के स्तन मे कठोरपान बारकरारा था, पेट सपात लेकिन गद्दाराया हुआ, गहरी नाभि.
लेकिन आज सबसे खास चीज उसकी जांघो के बीच चमक रही थी,
कल तक जहाँ काला जंगल था, आज वहाँ एक साफ़, चिकनी, और उभरी हुई 'चूत' चमक रही थी। एकदम गंजी, गोरी और फूली हुई।
रमेश की धुंधली आँखों ने जब उस चिकने और साफ़ हिस्से को देखा, तो एक पल के लिए वह सम्मोहित हो गया। उसका मुर्दा लंड भी उस नज़ारे को देखकर फड़फड़ाया और खड़ा हो गया।
लेकिन अगले ही पल, उसका शक उसके नशे पर हावी हो गया।
"साली... हरामजादी..." रमेश ने एक जोरदार थप्पड़ कामिनी के गाल पर जड़ा।
"ये चूत क्यों साफ़ की तूने? किसके लिए चिकनी करवाई है? बोल रंडी... मेरे पीठ पीछे किस यार से मरवा रही है?"
कामिनी गाल सहलाते हुए रो पड़ी, "क्या कह रहे हैं आप? आपने ही तो कल कहा था साफ़ करने को... मैंने तो बस आपके लिए..."
"झूठ मत बोल कुत्तिया!" रमेश चिल्लाया, "मैं सब जानता हूँ। तूने चूत इसलिए साफ़ की ताकि तेरे यार को चाटने में मज़ा आए। आज तो मैं तेरा सच निकाल कर रहूँगा।"
रमेश ने कामिनी को बिस्तर पर धक्का दिया और उसकी दोनों टांगें चौड़ी कर दीं।
"देखता हूँ कितनी आग लगी है तुझमे," रमेश कमरे में इधर-उधर कुछ ढूँढने लगा। उसे कुछ नहीं दिखा।
वह लड़खड़ाते हुए किचन की तरफ भागा।
कामिनी बिस्तर पर नंगी पड़ी सिसकती रही। उसे पता था आज रात उसकी शामत है।
रमेश वापस आया, उसके हाथ में एक लाल, मोटी और लम्बी 'गाजर' थी।
वहशीपन उसकी आँखों में तैर रहा था।
"अब देख... ये बताएगी तू कितनी सती-सावित्री है।"
कामिनी कुछ समझ पाती, उससे पहले ही रमेश ने उसकी टांगों को मोड़कर छाती से लगा दियाऔर बिना किसी पूर्व-चेतावनी के, वह मोटी गाजर उसकी चूत के मुहाने पर रखकर जोर से धक्का दे दिया।
"आईईईईईईईई माँ.... मर गई...." कामिनी की चीख निकल गई।
लेकिन हैरानी की बात यह थी कि गाजर अटकी नहीं।
कामिनी की चूत दोपहर से ही गीली थी। उस शराबी की याद और बाथरूम में की गई छेड़छाड़ ने अंदर इतना कुदरती लुब्रिकेंट (पानी) बना दिया था कि वह 6 इंच की मोटी गाजर एक ही झटके में जड़ तक अंदर समा गई।![]()
रमेश यह देखकर आग-बबूला हो गया।
"देखा... देखा रंडी!" वह चीखा, "मैं जानता था! इतनी आसानी से कैसे घुस गया? जरूर तू अभी-अभी किसी से मरवा के आई है... तेरी चूत का रास्ता खुला हुआ है साली..."
कामिनी दर्द और शर्म से लाल हो रही थी। गाजर उसकी बच्चेदानी के मुंह तक ठुंला हुआ था, लेकिन उस भरेपन से उसे एक अजीब सा, दर्दनाक सुकून भी मिल रहा था।
रमेश ने आव देखा न ताव, गाजर के बाहरी हिस्से को पकड़ा और उसे अंदर-बाहर करने लगा।
पच... पच... पच...
गाजर की रगड़ और चूत के पानी की आवाज़ें कमरे में गूंजने लगीं।
"ले... ले और ले... और मजे ले..."
रमेश एक हाथ से गाजर पेल रहा था और दूसरे हाथ से कामिनी की चिकनी चूत और थुलथुली गांड पर थप्पड़ बरसा रहा था।
"आह्ह्ह... उउउफ्फ्फ... धीरे... जी मर जाउंगी... उफ्फ्फ..." कामिनी का शरीर उस गाजर के हर धक्के पर बिस्तर पर उछल रहा था।
गाजर उसकी योनि की दीवारों को बुरी तरह रगड़ रही थी। रमेश अपनी पूरी भड़ास उस सब्जी के जरिये निकाल रहा था।
करीब 10 मिनट तक यह वहशियाना खेल चलता रहा।
रमेश की साँसें फूल गईं। नशा उस पर हावी हो गया।
"साली... भर ले इसे अपनी गांड में..." कहते-कहते रमेश का हाथ ढीला पड़ गया और वह वहीं कामिनी के पैरों के पास लुढ़क गया। कुछ ही पलों में उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कमरा शांत हो गया।
कामिनी की आँखों से आंसू बह रहे थे। वह वैसे ही टांगें फैलाए पड़ी थी।
उसकी चूत के अंदर अभी भी वह लाल गाजर पूरी तरह धंसी हुई थी, सिर्फ़ उसका हरा डंठल बाहर झांक रहा था।![]()
उसका पूरा बदन दुख रहा था, लेकिन जांघों के बीच एक अजीब सी आग अभी भी धधक रही थी। गाजर ने उसकी प्यास बुझाई नहीं थी, बल्कि भड़का दी थी।
तभी...
सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज़ आई।
खिड़की के बाहर, नीचे गली से।
"न कजरे की धार... न मोतियों के हार... न कोई किया सिंगार..."
कोई बेसुरा गाना गा रहा था।
कामिनी चौंक गई। यह आवाज़ जानी-पहचानी थी, लड़खड़ाती आवाज़, जैसे कोई शराबी नशे मे धुत्त गाना गुनगुना रहा था, गुनगुना क्या गधे की तरह रेंक रहा था.
कामिनी का दिल जोर, जोर से बजने लगा, इस बेसुरी आवाज़ मे दम नहीं था, दम था इस आवाज़ के मलिक मे.
शायद... शायद वही है दिन वाला... कामिनी के मन मे एक अजीब सी तेज़ इच्छा हुई खिड़की से बहार झाँकने की, उसका जिस्म उसे खिड़की के पास धकेलने की कोशिश कर रह था.
उसने धीरे से उठने की कोशिश की। उसके अंदर फंसी गाजर हिली, जिससे उसे एक मीठा दर्द महसूस हुआ।
उसने अपनी चूत से गाजर को धीरे-धीरे बाहर खींचना शुरू किया।
स्लूप... पच...पच.... पूछूक....
गाजर बाहर निकली, पूरी तरह से उसके रसीले पानी और काम-रस में सनी हुई। एकदम गीली और फिसलन भरी।
कामिनी नंगी ही, हाथ में वह गीली गाजर लिए खिड़की के पास गई। उसने पर्दा हटाकर नीचे देखा।
वही दिन वाला शराबी।
इससससससस..... कामिनी राहत मे सिसकर उठी, उसे जो उम्मीद थी वही था.
वह ठीक कामिनी की खिड़की के नीचे चबूतरे पर पसरा हुआ था। एक हाथ में देसी शराब का पव्वा था और वह आसमान की तरफ देख कर गाना गा रहा था।
कामिनी को उसे देखकर एक अजीब सा गुस्सा भी आया और रोमांच भी।
न जाने क्या सनक सवार हुई, या शायद गुस्से में, उसने हाथ में पकड़ी वह गाजर खिड़की की ग्रिल से बाहर फेंक दी।
गाजर हवा में लहराती हुई नीचे गई और सीधा... 'धप' से उस शराबी के ठीक सामने गिरी।
शराबी गाना गाते-गाते रुक गया।
उसने अपनी धुंधली आँखों से देखा।
"अरे... ये क्या प्रसाद गिरा आसमान से?"
उसने कांपते हाथों से वह गाजर उठाई।
कामिनी ऊपर अँधेरे में छिपी सांस रोके देख रही थी।
शराबी गाजर को मुंह के पास ले गया।
जैसे ही उसने गाजर को सूंघा, वह रुक गया।
गाजर पर कामिनी की चूत का गाढ़ा, कस्तूरी जैसा पानी लगा था। एक मदहोश कर देने वाली, औरत की निजी गंध।
"आहा..." शराबी बड़बड़ाया, "क्या खुशबू है... जन्नत की खुशबू..."
उसने आव देखा न ताव, उस गाजर को—जो अभी कुछ पल पहले कामिनी के चुत के अंदर थी—चाटना शुरू कर दिया।
चप... चप...
उसने एक बड़ा बाइट लिया और चबाने लगा।
"साला... ऐसी नमकीन और रसीली गाजर तो जिन्दगी में नहीं खाई... क्या स्वाद है..."
उस गंध और स्वाद ने शराबी के दिमाग पर असर कर दिया। उत्तेजना में उसने अपनी लुंगी का पल्ला फिर से उठा दिया।
उसका 'काला नाग' (लंड) जो दिन में सो रहा था, अब पूरी तरह जाग चुका था।
विशाल, काला, और अकड़ा हुआ। नसों से भरा हुआ मूसल।
वह अपनी मुठ्ठी में उसे पकड़कर जोर-जोर से हिलाने लगा।
ऊपर खिड़की की आड़ में खड़ी कामिनी की नज़रें फिर से उसी जगह जाकर चिपक गईं।
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उसके पति का छोटा लंड और वह बेजान गाजर अब उसके दिमाग से निकल चुके थे।
उसकी आँखों के सामने सिर्फ़ वो 'दानव' था जो नीचे अंधेरे में अपना फन उठाए खड़ा था।
कामिनी ने अनजाने में अपना हाथ फिर से अपनी गीली चूत पर रख दिया, वो उस तिकोने हिस्से को सहलाने लगी, एक अजीब सा मजा, एक मदहोशी सी गुदगुदी पुरे जिस्म मे चढ़ गई.
कामिनी नीचे सर झुकाये, नीचे शराबी को लंड हिलता देख रही थी. और एक नजर अपने शराबी पति को बिस्तर पर पड़ा हुआ.
शराब शराब मे भी कितना अंतर होता है.
अंधेरा था कुछ साफ नजर तो नहीं आ रहा था, लेकिन जिस हिसाब से हाथ आगे जा कर पीछे आता उस हिसाब से लंड की लम्बाई का जायजा कामिनी को हो ही गया था.
वो शराबी एक हाथ से चूतरस मे सनी गाजर को सूंघ के चबा रहा था, और दूसरे हाथ से अपने लंड को मसल रहा रहा.
जब जब शराबी उस गाजर को काटता कामिनी अपनी चुत को जोर से दबा देती, एक रस बहार को छलक पड़ता.
ईईस्स्स...... उउउफ्फ्फ.... आअह्ह्ह..... कामिनी सिसकार उठी.
तभी शराबी को कुछ महसूस हुआ, उसने सर ऊपर उठा कर देखा....
शायद उसके कानो ने कामुक सिस्कारी को महसूस कर लिया था.
कामिनी तुरंत खिड़की से हट कर बिस्तर पर जा लेटी रमेश के बगल मे, वो खर्राटे भर रहा था.
कामिनी सम्पूर्ण नंगी दोनों जांघो के बीच हाथ दबाये, खुद से ही लड़ रही थी.
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रात जैसे-तैसे गुज़री। कामिनी की आँखों में नींद कम और दहशत ज्यादा थी। उसकी जांघों के बीच अभी भी उस 'गाजर' की रगड़ का मीठा-मीठा दर्द था, और मन में खिड़की के नीचे खड़े उस 'काले नाग' की तस्वीर।
वह करवटें बदलती रही, कभी अपनी चूत सहलाती, तो कभी खुद को कोसती।आखिर भोर होते-होते उसकी आँख लग गई।
सुबह की किरणें खिड़की से छनकर आ रही थीं।
रसोई में कुकर की सीटी बजी, तो मेरी (बंटी की) आँख खुली।
घर का माहौल बिलकुल सामान्य लग रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि इसी घर में कल रात इतना कुछ हुआ था।
मैं कमरे से बाहर निकला तो देखा पापा डाइनिंग टेबल पर अखबार पढ़ रहे थे और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। नहा-धोकर, सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने वो बिलकुल सभ्य इंसान लग रहे थे।
"गुड मॉर्निंग पापा," मैंने डरते-डरते कहा।
"गुड मॉर्निंग बेटा, उठ गया? बैठ नाश्ता कर ले," पापा ने मुस्कुराते हुए कहा।
मैं हैरान था। उनकी आँखों में नशा नहीं था, न ही चेहरे पर कल रात वाली वहशत। उन्हें कल रात का कुछ भी याद नहीं था—न वो मार-पिटाई, न वो गालियाँ, और न ही वो 'गाजर' वाला कांड।
तभी माँ किचन से पोहा लेकर आईं।
माँ ने एक साधारण सी कॉटन की साड़ी पहनी थी, लेकिन उनका चेहरा खिला हुआ था। शायद कल रात वीट (Veet) से की गई सफ़ाई और उस घर्षण ने उनके चेहरे पर एक अलग ही 'ग्लो' (Glow) ला दिया था।
पापा ने अखबार से नज़र हटाकर माँ को देखा।
"अरे कामिनी... आज तो बड़ी निखर रही हो? सुबह-सुबह नहा ली क्या? बड़ी सुंदर लग रही हो," पापा ने मुस्कुराते हुए कहा।
कामिनी के हाथ ठिठक गए। वह मन ही मन सिहर उठी।
'कैसा आदमी है ये?' उसने सोचा। 'रात को रंडी बोलता है, बाल नोचता है, जानवर की तरह बर्ताव करता है... और सुबह होते ही तारीफें? इसे याद भी नहीं कि कल रात इसने मेरे साथ क्या किया?'
माँ ने फीकी मुस्कान के साथ प्लेट टेबल पर रखी, "जी, बस ऐसे ही... आप नाश्ता कीजिये।"
कामिनी जानती थी कि बहस करने का कोई फायदा नहीं। रमेश को अपनी शराब वाली हरकतों का रत्ती भर भी होश नहीं रहता था। यह उसकी रोज़ की कहानी थी—रात का राक्षस, दिन का देवता।
नाश्ता करके पापा ऑफिस के लिए तैयार होने लगे।
वो जूते पहन रहे थे कि उनकी नज़र घर के बाहर वाले छोटे से गार्डन (बगीचे) पर गई।
बरसात की वजह से वहाँ घास बहुत बढ़ गई थी। जंगली पौधे उग आए थे।
"कामिनी," पापा ने आवाज़ दी।
"जी?" माँ तौलिये से हाथ पोंछती हुई आईं।
"ज़रा देखो बाहर, कितना जंगल हो गया है। घास कितनी बढ़ गई है, मच्छर आते हैं। इसे साफ़ क्यों नहीं करवा देती?" रमेश ने झुंझलाते हुए कहा।
कामिनी के दिल की धड़कन बढ़ गई। 'जंगल' शब्द सुनते ही उसे अपनी जांघों के बीच का वो 'जंगल' याद आ गया जिसे उसने कल ही साफ़ किया था।
"मैं... मैं कहाँ बाहर जाती हूँ? और किससे कहूँ? माली तो कब का काम छोड़ गया," कामिनी ने धीरे से कहा। "आप ही किसी को बोल दीजिये ना।"
रमेश ने घड़ी देखी। "हम्म... ठीक है, देखता हूँ। कोई मिल जाए तो भेजता हूँ।"
रमेश अपना बैग उठाकर बाहर निकला।
घर के लोहे के गेट के बाहर, वही चबूतरा था जहाँ कल रात वो ड्रामा हुआ था।
रमेश ने गेट खोला तो देखा, एक आदमी वहां सीढ़ियों पर बैठा बीड़ी पी रहा था।
मैले-कुचैले कपड़े, बिखरे बाल, और चेहरे पर कई दिनों की दाढ़ी।
यह वही था। कल रात वाला शराबी। जिसने कामिनी की 'प्रसादी' गाजर खाई थी।
रमेश को देखते ही वो खड़ा हो गया। उसकी आँखें लाल थीं, शायद कल की उतर रही थी या आज की चढ़नी बाकी थी।
उसने हाथ फैला दिया।
"बाबूजी... माई-बाप... 50 रुपये दे दो... गला सूख रहा है," उसकी आवाज़ फटी हुई और भारी थी।
रमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। हट्टा-कट्टा शरीर था, बस शराब ने हालत खराब कर रखी थी।
रमेश वैसे भी कंजूस था। उसे लगा कि 50 रुपये फोकट में क्यों दूँ? इससे काम करा लेता हूँ।
"पैसे तो मिल जायेंगे," रमेश ने कड़क आवाज़ में कहा, "लेकिन फोकट का नहीं मिलेगा। काम करना पड़ेगा।"
शराबी ने उम्मीद भरी नज़रों से देखा, "क्या काम बाबूजी? जो बोलोगे कर दूंगा... बस बोतल का जुगाड़ कर दो।"
रमेश ने अंदर गार्डन की तरफ इशारा किया।
"वो देख, घास बढ़ गई है। पूरा साफ़ करना है। कुदाल-फावड़ा मैं दे दूंगा। करेगा?"
शराबी ने झांककर देखा। काम ज्यादा था, लेकिन तलब भी बड़ी थी।
"कर दूंगा साहब।"
"देख, 50 नहीं, पूरा 200 दूंगा। लेकिन काम चकाचक होना चाहिए। और सुन, साफ़-सफाई से रहना, घर में औरत-बच्चे हैं," रमेश ने अपनी 'सभ्य' हिदायत दी।
200 रुपये सुनकर शराबी की आँखों में चमक आ गई। 200 मतलब दो बोतल और साथ में चखना भी।
"जी मालिक... अभी कर दूंगा... लोहा बना दूंगा साफ़ करके," उसने गमछे से मुँह पोंछा।
रमेश खुश हो गया। सस्ता मजदूर मिल गया। उसे क्या पता था कि वह 200 रुपये में सिर्फ़ गार्डन साफ़ करने वाले को नहीं, बल्कि अपनी पत्नी की 'प्यास' बुझाने वाले को घर के अंदर बुला रहा है।
"आ चल अंदर," रमेश ने गेट पूरा खोल दिया।
शराबी ने अपनी लुंगी ठीक की। वही लुंगी, जिसके नीचे कल रात कामिनी ने वो 'काला अजगर' देखा था।
वह लड़खड़ाते कदमों से, लेकिन एक अजीब सी अकड़ के साथ, रमेश के पीछे-पीछे घर की बाउंड्री में दाखिल हुआ।
"कामिनी... ओ कामिनी..." रमेश ने लॉन से ही आवाज़ लगाई।
कामिनी रसोई में थी। आवाज़ सुनकर बाहर बरामदे में आई।
"जी?"
"ये बंदा मिला है, इसे बता देना क्या-क्या साफ़ करना है। मैं ऑफिस निकल रहा हूँ, ये काम करके चला जायेगा," रमेश ने कहा और अपनी स्कूटर स्टार्ट करने लगा।
कामिनी की नज़र रमेश के पीछे खड़े उस आदमी पर गई।
धूप तेज थी, लेकिन कामिनी को लगा जैसे उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो।
उसका दिल एक पल के लिए रुक सा गया।
वह वही था।
वही शराबी।
उसने एक गंदी सी बनियान और चेकदार लुंगी पहनी थी। उसके बाज़ू (arms) धूप में तपकर काले और सख्त लग रहे थे।
और उसकी नज़रें...
जैसे ही रमेश मुड़ा, उस शराबी ने सर उठाकर सीधा कामिनी की आँखों में देखा।
उसकी आँखों में पहचान थी।
एक शैतानी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई। उसने अपनी जीभ से अपने होंठों को ऐसे चाटा, जैसे उसे कल रात वाली 'गाजर' का स्वाद याद आ गया हो।
कामिनी का पूरा शरीर कांप गया। उसके पैरों के बीच, साड़ी के अंदर, उसकी चिकनी चूत ने तुरंत पानी छोड़ दिया।
पति ऑफिस जा रहा था, और घर में वह उस जंगली मर्द के साथ अकेली रहने वाली थी जिसने उसे नंगा देखा था।
रमेश स्कूटर लेकर निकल गया।
अब घर के गार्डन में सिर्फ़ दो लोग थे—एक सहमी हुई प्यासी कामिनी, और दूसरा वो भूखा भेड़िया।
और बीच में था... जंगल, जिसे 'साफ़' करना था।
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Sex Storiesअपडेट -2
मेरी माँ कामिनी
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कल रात जो हुआ, उसके बाद घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था। पापा तो सुबह-सुबह बिना किसी से नज़र मिलाए ऑफिस निकल गए थे, जैसे रात कुछ हुआ ही न हो। लेकिन माँ... माँ की आँखों में सूजन थी और चाल में थोड़ी लचक, शायद पापा की बेमतलब की मार का असर अभी भी जिस्म पर था।
लेकिन कामिनी एक भारतीय नारी थी, घर तो चलाना ही था।
दोपहर के करीब 12 बज रहे थे।
"बंटी, तैयार हो जा, राशन खत्म है और मुझे कुछ अपने लिए भी लेना है, मार्किट चलते हैं," माँ ने अपनी रोज़मर्रा की आवाज़ में कहा, लेकिन वो खनक गायब थी, सिर्फ एक जिम्मेदारी का भाव था माँ की आवाज़ मे.
कारण मे जनता ही था, कल रात मेरे लिए भी मुश्किल ही थी.
माँ तैयार होकर निकलीं। आज उन्होंने फिरोज़ी रंग की साड़ी पहनी थी। ब्लाउज का गला पीछे से काफी गहरा था और बाहें (sleeves) छोटी थीं। 36 साल की उम्र और एक बच्चे की माँ होने के बावजूद, उनका बदन किसी कसी हुई 25 साल की लड़की जैसा था। ख़ासकर उनकी छाती, जो ब्लाउज में मुश्किल से कैद थी, और उनकी चौड़ी कमर।
मै माँ को देख के हैरान हो जाता था, माँ किस किस्म की औरत है, रात मे इतना कुछ झेलती है, और दिन के उजाले मे ऐसी दिखती है.
, वैसे देखा जाये तो मेरी माँ सुन्दर तो है., माँ का जिस्म आज भी किसी जवान लड़की को मात दे सकता है.
हमारे घर से मेन मार्किट थोड़ी दूर था। धूप तेज़ थी, इसलिए हमने गली के बाहर से एक ऑटो रिक्शा रोका।
ऑटो में पीछे की सीट पर पहले से एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था।
"आ जाओ मैडम," ऑटो वाले ने रोका।
"बेटा, तू आगे आ जा मेरे पास, मैडम को पीछे बैठने दे," ड्राइवर ने मुझे इशारा किया।
मैं ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ गया, और माँ पीछे उस आदमी के साथ विंडो साइड (खिड़की की तरफ) बैठ गईं।
ऑटो चल पड़ा। हवा के झोंकों से माँ के चेहरे पर लटें आ रही थीं, जिसे वो बार-बार ठीक कर रही थीं। मैं साइड मिरर से माँ को देख पा रहा था। वो उदास लग रही थीं, खिड़की से बाहर देख रही थीं।
रास्ते में 'लाल चौक' वाला नुक्कड़ आया। यह इलाका थोड़ा बदनाम था क्योंकि यहाँ एक देशी शराब का ठेका था। दिन हो या रात, यहाँ हमेशा पियक्कड़ों की भीड़ लगी रहती थी।
जैसे ही ऑटो वहाँ धीमे हुआ, दो आदमी लड़खड़ाते हुए ऑटो की तरफ लपके। उनके कपड़े मेले थे, और चाल से ही लग रहा था कि अभी-अभी 'चढ़ा' कर आए हैं।
"ए भाई, रोक... हमें भी आगे तक जाना है," एक ने ऑटो की रॉड पकड़ते हुए कहा।
माँ ने तुरंत विरोध किया, "भैया, जगह नहीं है, चलो आगे।"
माँ को शायद उन शराबियों को देखकर कल रात का मंजर याद आ गया होगा। उन्हें शराबी आदमियों से नफरत सी हो गई थी।
लेकिन ऑटो वाला लालची था। "अरे मैडम, एडजस्ट कर लो ना, बस यहीं आगे पुलिया तक छोड़ना है। किराया कम कर दूँगा आपका।"
इससे पहले कि माँ कुछ और बोलतीं, वो दोनों शराबी जबरदस्ती अंदर घुस गए।
पीछे की सीट पर अब चार लोग हो गए थे—माँ (खिड़की की तरफ), फिर वो शराबी, फिर उसका साथी, और कोने में वो पुराना सवारी।
भीड़ बहुत ज्यादा हो गई थी।
माँ बिलकुल सिमट कर बैठ गईं। उन्होंने अपना पर्स अपनी छाती के पास कस लिया था।
लेकिन वो शराबी, जो माँ के ठीक बगल में बैठा था, उसने जानबूझकर अपनी टांगें फैला लीं। उसकी जांघ माँ की जांघ से सट रही थी।
उसके मुँह से कच्ची, सस्ती शराब और बीड़ी की मिली-जुली बदबू आ रही थी। साथ ही पसीने की एक तीखी गंध।
नफरत से माँ ने अपनी नाक सिकोड़ ली। यह वही बदबू थी जो पापा से आती थी। लेकिन... यह बदबू पापा की बदबू से कुछ अलग भी थी। पापा की बदबू में 'कमज़ोरी' थी, लेकिन इस आदमी की गंध में एक अजीब सा जंगलीपन था। एक पराये, अनजान मर्द की गंध।
माँ का शरीर अकड़ गया था। मैं शीशे में देख रहा था कि वो असहज हो रही हैं।
सड़क खराब थी और ऑटो वाला भी जैसे जानबूझकर गड्ढों में कुदा रहा था।
झट... झटक...
जैसे ही ऑटो एक गड्ढे में कूदा, वो शराबी पूरी तरह माँ के ऊपर झूल गया।
उसका बाज़ू और उसकी खुरदरी कोहनी माँ के साड़ी में कसे हुए, उभरे हुए स्तन (boobs) से जोर से रगड़ खा गई।
माँ के मुँह से एक हल्की सी "उफ्फ" निकली।
"देखकर भाई..." माँ ने गुस्से में कहा और खुद को और खिड़की से चिपका लिया।
"माफ़ करना भाभीजी... रोड खराब है," शराबी ने दाँत निपोरते हुए कहा। उसकी नज़रें माँ के चेहरे पर नहीं, बल्कि माँ के ब्लाउज के उस हिस्से पर गड़ी थीं जहाँ से उनकी छाती का गोरा मांस झलक रहा था।
उसने माफ़ी मांगी, लेकिन पीछे हटने के बजाय, अपनी कोहनी को वहीं टिकाए रखा।
ऑटो फिर चला। इंजन की थरथराहट पूरी बॉडी में हो रही थी। माँ के स्तन उछल उछल कर बहार निकलने को बेताब हो जाये थे.
शराबी की कोहनी अब लगातार माँ के दाहिने स्तन के साइड वाले हिस्से को दबा रही थी। ब्लाउज टाइट होने की वजह से माँ का मांस वहां से फूला हुआ था, जो बहुत नरम था।
हर झटके पर वो सख्त कोहनी उस नरमी में धंस जाती।
कामिनी को गुस्सा आ रहा था। उसे उस आदमी को थप्पड़ मार देना चाहिए था। उसे चिल्लाना चाहिए था।
लेकिन... उसने ऐसा नहीं किया।
गुस्से के उस परत के नीचे, उसके जिस्म में एक अजीब सी हलचल होने लगी थी।
सालों से उसका पति उसके पास नहीं आया था। कल रात भी पापा ने उसे मारा था, छुआ नहीं था। उसका जिस्म स्पर्श का भूखा था—चाहे वो स्पर्श कैसा भी हो।
उस शराबी की कोहनी की रगड़ से माँ के पूरे बदन में एक मीठी-मीठी, सिहरन दौड़ने लगी।
उन्हें घिन आ रही थी, पर साथ ही उनकी जांघों के बीच एक गीलापन भी महसूस होने लगा था।
‘ये क्या हो रहा है मुझे?’ माँ ने मन ही मन सोचा। ‘ये गंदा आदमी मुझे छू रहा है और मुझे... मुझे अच्छा लग रहा है?’
वो शराबी भी समझ गया था कि 'भाभीजी' कुछ बोल नहीं रही हैं। उसका हौसला बढ़ गया।
उसने अपना हाथ घुटने पर रखा, लेकिन उसका बाज़ू अब पूरी तरह माँ के स्तन से सट गया था। वो ऑटो के हिलने के बहाने, अपनी बांह को हल्का-हल्का ऊपर-नीचे करने लगा, जैसे अनजाने में माँ के चूचियों को सहला रहा हो।
माँ ने अपनी आँखें मूंद लीं। उन्होंने अपने पर्स को और जोर से भींच लिया।
मैं आगे बैठा था, बेखबर कि पीछे मेरी माँ के साथ क्या हो रहा है। मैं तो बस यही देख रहा था कि माँ का चेहरा लाल पड़ गया है—शायद गर्मी से, या गुस्से से।
लेकिन मैं नहीं जानता था कि वो लालिमा शर्म और एक दबी हुई हवस की थी।
माँ की साँसें थोड़ी तेज़ हो गई थीं। उनका सीना ऊपर-नीचे हो रहा था, जिससे वो शराबी को और ज्यादा रगड़ने का मौका मिल रहा था।
नुक्कड़ से मार्किट का रास्ता सिर्फ़ 15 मिनट का था, लेकिन माँ के लिए वो 15 मिनट किसी तूफ़ान से कम नहीं थे। एक ऐसा तूफ़ान जिसने उनकी बरसों की जमी हुई बर्फ को पिघलाना शुरू कर दिया था।
जब मार्किट आया और ऑटो रुका, तो वो शराबी पहले उतरा। उतरते वक़्त उसने जानबूझकर अपना हाथ माँ की जांघ पर टिकाकर सहारा लिया।
"धन्यवाद भाभीजी," उसने एक गंदी मुस्कान के साथ कहा और भीड़ में गायब हो गया।
माँ कुछ पल तक ऑटो में ही बैठी रहीं, जैसे सुन्न हो गई हों।
"माँ? उतर जाओ, आ गया मार्किट," मैंने आवाज़ दी।
माँ हड़बड़ा कर उतरीं। उन्होंने अपनी साड़ी ठीक की, पल्लू को कसकर ओढ़ा। उनका चेहरा पसीने से भीगा था। वो मुझसे नज़रें नहीं मिला पा रही थीं।
उन्हें लग रहा था कि वो अपवित्र हो गई हैं, लेकिन उनका जिस्म अभी भी उस शराबी के स्पर्श की झनझनाहट को महसूस कर रहा था। उनकी चूत में एक अजीब सा मीठा दर्द उठने लगा था, जो कल रात पापा की मार से नहीं, बल्कि आज उस अनजान मर्द की रगड़ से जागा था।
ऑटो से उतरकर हम मार्किट की भीड़भाड़ वाली संकरी गली में दाखिल हुए। दोपहर की चिलचिलाती धूप थी, और उमस इतनी कि साँस लेना भारी हो रहा था।
माँ मेरे बगल में चल रही थीं, लेकिन उनकी चाल आज कुछ अलग थी। वह सामान्य से थोड़ा धीरे चल रही थीं और बार-बार अपनी साड़ी को पीछे से ठीक कर रही थीं।
कामिनी का दिमाग सुन्न था, लेकिन उसका जिस्म पूरी तरह जाग चुका था। ऑटो में उस शराबी की कोहनी की रगड़ ने उसके बदन में एक ऐसी आग सुलगा दी थी जो अब बुझने का नाम नहीं ले रही थी।
चलते वक़्त उसे महसूस हो रहा था कि उसकी दोनों जांघों के बीच एक चिपचिपा गीलापन जमा हो गया है। साड़ी और पेटीकोट का कपड़ा उसकी जांघों के बीच फंस रहा था।
हर कदम के साथ उसकी भरी हुई, सुडौल जांघें आपस में रगड़ खा रही थीं।
पच... पच... की एक बहुत ही धीमी, गीली रगड़ उसे खुद महसूस हो रही थी।
कामिनी को खुद पर घिन आ रही थी और हैरानी भी।
'हे भगवान, ये मुझे क्या हो गया है? उस गंदे, बदबूदार शराबी के छूने से मैं... मैं गीली हो गई? छी...' उसने मन ही मन खुद को कोसना चाहा।
लेकिन सच यह था कि वह गीलापन सिर्फ़ उस शराबी की वजह से नहीं था। यह उस बरसों की प्यास का नतीजा था जो कल रात पति की गालियों और आज उस अनजान स्पर्श से फूट पड़ी थी। उसकी चूत अब एक स्वतंत्र अस्तित्व बन गई थी, जिसे बस 'भरने' की ज़रूरत थी।
जल्द ही राशन की दुकान आ गई, जहाँ से हम लोग आम तौर पर समान लिया करते थे.
"बंटी, तू लिस्ट निकाल, मैं सामान बोलती हूँ," माँ ने पसीने से भीगे माथे को पोंछते हुए कहा।
हम 'गुप्ता जनरल स्टोर' पर पहुँचे। दुकान पर काफी भीड़ थी। पसीने की गंध और मसालों की महक मिली-जुली आ रही थी।
माँ ने दुकानदार को चीनी, दाल, तेल वगैरह का ऑर्डर दिया।
दुकानदार, गुप्ता जी, जो करीब 50 साल के होंगे, चश्मा लगाए हुए थे। उनकी नज़रें बार-बार सामान तौलते हुए माँ के भीगे हुए ब्लाउज पर जा रही थीं। माँ का पसीना उनके सीने (cleavage) में चमक रहा था, और ऑटो के सफर के बाद उनकी साड़ी थोड़ी अस्त-व्यस्त हो गई थी।
सामान पैक हो रहा था, लेकिन माँ के चेहरे पर एक बेचैनी थी। उन्हें कुछ और भी लेना था, लेकिन शायद शर्म आ रही थी।
तभी उनके दिमाग में कल रात की वो कड़वी याद कौंध गई।
रमेश की वो शराबी आवाज़ गूंजी— "साली ये क्या चुत का जंगल बना रखा है... कल साफ़ कर लेना इसे।"
कामिनी सिहर उठी। उसे याद आया कि अगर आज उसने वो 'जंगल' साफ़ नहीं किया, तो रात को फिर वही गालियाँ, वही मार-पिटाई होगी। पति चाहे नामर्द हो, लेकिन उसका हुक्म तो मानना ही था।
माँ ने हिम्मत जुटाई।
"गुप्ता जी..." माँ की आवाज़ थोड़ी दबी हुई थी।
"जी भाभीजी? और क्या चाहिए?" गुप्ता जी ने अपनी लार घोंटते हुए पूछा।
माँ ने इधर-उधर देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा। मैं बगल में ही खड़ा था।
"वो... वो..एक.. एक....'वीट' (Veet) क्रीम भी दे देना।"
मेरे कान खड़े हो गए। मुझे पता था कि वीट किस काम आती है—अनचाहे बाल हटाने के लिए। औरतों के विज्ञापनों में देखा था।
"कौन सी भाभीजी? बड़ी वाली?" गुप्ता जी ने रैक से एक गुलाबी डिब्बा निकाला।
"हाँ, वही दे दो," माँ ने नज़रें झुका लीं।
गुप्ता जी ने वो पैकेट काउंटर पर रखा। उनकी आँखों में एक चमक थी। वो समझ रहे थे कि भाभीजी को आज बाल साफ़ करने की ज़रूरत क्यों पड़ी है। जरूर आज रात कुछ 'खास' होने वाला है।
"और कुछ?" गुप्ता जी ने मुस्कुराते हुए पूछा, उनकी नज़र माँ के पेट और नाभि के आस-पास डोल रही थी।
"नहीं, बस बिल बना दो," माँ ने जल्दी से कहा।
मैंने देखा माँ ने वो गुलाबी डिब्बा सबसे पहले उठाया और जल्दी से अपने पर्स के अंदर डाल लिया, जैसे कोई चोरी का माल हो।
मेरे दिमाग में कल रात वाली बात घूम गई— "तुझे चूत के बाल काटने में क्या दिक्कत होती है?"
तो माँ ने पापा की बात मान ली थी। वो आज अपनी... 'वहाँ' की सफाई करने वाली थीं।
एक बेटे के तौर पर यह सोचना बहुत अजीब था, लेकिन साथ ही मेरे अंदर भी एक अजीब सी जिज्ञासा जाग रही थी।
मैं अपनी माँ को सिर्फ़ 'माँ' नहीं, बल्कि एक 'औरत' के रूप में देखने लगा था, जिसका एक जिस्म है, बाल हैं, और जिसे 'साफ़' करने की ज़रूरत पड़ती है।
**********
सामान लेकर हम बाहर निकले। धूप और तेज़ हो गई थी।
माँ के चलने की रफ़्तार और धीमी हो गई थी।
उनकी जांघों के बीच का वो गीलापन अब शायद बढ़ गया था। वीट खरीदने के बाद, उनके दिमाग में अब बस यही चल रहा था कि घर जाकर उन्हें अपने सबसे निजी हिस्से को नंगा करना है, उस पर क्रीम लगानी है, और उसे चिकना करना है।
यह ख्याल ही कामिनी को उत्तेजित करने के लिए काफी था।
वह सोच रही थी कि जब वह अपनी टांगें फैलाकर, अपनी उंगलियों से वो क्रीम अपनी चूत पर लगाएगी, तो कैसा महसूस होगा?
उसकी चूत, जो अभी गीली है, क्या क्रीम की ठंडक से और फड़फड़ाएगी?
"माँ, रिक्शा कर लें?" मैंने पूछा, क्योंकि माँ बहुत धीरे चल रही थीं।
"हाँ... हाँ बेटा," माँ ने चौंकते हुए कहा, "मुझसे चला नहीं जा रहा। बहुत... बहुत गर्मी है।"
गर्मी तो थी, लेकिन कामिनी की जांघों के बीच जो घर्षण हो रहा था, उसने उसे पैदल चलने लायक नहीं छोड़ा था। उसे जल्द से जल्द घर पहुँचकर अपनी साड़ी उतारने की बेताबी थी।
**************
ऑटो घर के ठीक सामने वाले गेट पर रुका। दोपहर के 1 बज रहे थे, गली में सन्नाटा था।
धूप सीधी सिर पर थी। बंटी ने फुर्ती दिखाई और सामान के थैले उठाकर नीचे उतरा।
"आ जाओ मम्मी," उसने कहा और गेट खोलने आगे बढ़ गया।
कामिनी ऑटो से उतरी। उसका शरीर पसीने और चिपचिपाहट से भरा हुआ था। ऑटो वाले को पैसे देने के लिए वह पर्स टटोल ही रही थी कि उसकी नज़र अचानक गेट के पास बने चबूतरे की तरफ गई।
वहाँ, दीवार की छाया में, एक आदमी बेसुध पड़ा था।
मैले कपड़े, बिखरे बाल, और मुँह से बहती लार। वह कोई शराबी था जो शायद पास वाले ठेके से पीकर यहाँ छाया देख लुढ़क गया था।
शराबियों को देखना कामिनी के लिए नई बात नहीं थी, वह नाक सिकोड़कर आगे बढ़ने ही वाली थी कि उसकी नज़र उस शराबी के निचले हिस्से पर जाकर अटक गई।
शायद गर्मी की वजह से या नशे में करवट लेते वक़्त, उस शराबी की चेकदार लुंगी पूरी तरह ऊपर उठ गई थी—जांघों से भी ऊपर, पेट तक।
और वहाँ... उस शराबी की काली, गंदी जांघों के बीच, कुछ ऐसा था जिसने कामिनी के पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया।
वह नंगा था। उसने अंदर कुछ नहीं पहना था।
और उसकी जांघों के बीच, एक विशाल, काला, लंबा और मोटा लंड अचेत अवस्था में पड़ा था।
वह लंड सुस्त था, लेटा हुआ था, लेकिन उसका आकार कामिनी की सोच से परे था। वह काला मूसल उसकी बाईं जांघ पर लटक रहा था, उसका मोटा, मशरूम जैसा सुपाडा aजांघ की त्वचा पर टिका था।
धूप और छाया के खेल में वह अंग किसी अजगर जैसा लग रहा था।
कामिनी का कलेजा धक से रह गया।
‘हे भगवान... ये... ये क्या है?’
उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकली, लेकिन उसकी चूत ने जवाब दे दिया।
एक ही पल में, कामिनी की योनि ने अंदर से पानी की एक तेज पिचकारी छोड़ दी। उसे महसूस हुआ जैसे उसके अंदर कोई बांध टूट गया हो। पेटीकोट और जांघें उस गर्म स्राव से एकदम लथपथ हो गईं।
उसने आज तक सिर्फ़ अपने पति का देखा था—छोटा, सिकुड़ा हुआ, और बेजान।
एक दम से उसके जहन मे दोनों लंडो की तुलना आ कर निकल गई, इस शराबी के मरे हुए लंड के आगे उसके पति का जिन्दा लंड भी बच्चा ही था.
उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक मर्द का औजार इतना बड़ा, इतना भयानक भी हो सकता है। वो भी एक मामूली शराबी का?
उसकी नज़रें उस लंड से हट ही नहीं रही थीं। उसे घिन आनी चाहिए थी, लेकिन उसे एक अजीब सा आकर्षण महसूस हो रहा था। मन कर रहा था कि झुककर देखे कि क्या यह सच है।
"मम्मी? चले?" बंटी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
बंटी गेट के अंदर जा चुका था। उसने उस शराबी को देखा भी नहीं था, या शायद उसके लिए यह रोज़ की बात थी कि कोई न कोई शराबी वहाँ पड़ा ही रहता है।
कामिनी हड़बड़ा गई।
"हा... हाँ... आ रही हूँ," उसने जल्दी से नज़रें हटाईं, लेकिन वो तस्वीर—वो काला, लंबा मांस का टुकड़ा—उसकी आँखों में छप गया था।
वह कांपते पैरों से घर के अंदर दाखिल हुई।
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घर के अंदर भी कामिनी को सांस नहीं आ रही थी। उसका गला सूख रहा था और दिल हथौड़े की तरह बज रहा था।
बंटी सीधे किचन में सामान रखने चला गया और फिर अपने कमरे में घुस गया।
कामिनी लड़खड़ाते कदमों से अपने बेडरूम में आई।
उसने अपना पर्स बिस्तर पर फेंका और खुद धम्म से बिस्तर पर निढाल होकर गिर गई।
उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था।
‘छि... कामिनी तू कितनी गिर गई है... एक शराबी का नंगा बदन देखकर आ रही है... तू संस्कारी औरत है... माँ है...’ उसका दिमाग उसे धिक्कार रहा था।
लेकिन उसका जिस्म? उसका जिस्म उस काले लंड की छवि को बार-बार याद कर रहा था। उसे अपनी जांघों के बीच एक खालीपन महसूस हो रहा था, एक ऐसा खालीपन जिसे भरने के लिए शायद वैसा ही कुछ चाहिए था जो बाहर पड़ा था।
उसका बेडरूम पहली मंज़िल पर था। उसकी खिड़की ठीक उसी गली और उसी चबूतरे के ऊपर खुलती थी।
कामिनी का मन हुआ कि एक बार... बस एक बार और देख ले।
'नहीं... पागल मत बन... कोई देख लेगा तो?'
'लेकिन अभी दोपहर है... गली सूनी है... और वो तो बेहोश है...'
हवस जीत गई। संस्कार हार गए।
कामिनी उठी। उसके पैर कांप रहे थे। उसने धीरे से खिड़की का पर्दा हटाया और कांच का पल्ला खोला।
उसने खुद को दीवार की आड़ में रखते हुए नीचे झांका।
वो शराबी अभी भी वहीं पड़ा था।
ऊपर से देखने पर, वह नज़ारा और भी साफ था। उसका वह काला लंड उसकी जांघ पर एक अलग ही जीव जैसा लग रहा था। ऊपर के एंगल से उसकी मोटाई और भी ज्यादा लग रही थी।
कामिनी ने अपनी साड़ी के पल्लू को अपनी छाती पर भींच लिया। उसकी सांसें तेज़ हो गईं। उसे अपनी चूत से फिर से पानी बहता हुआ महसूस हुआ। वह इतनी गीली हो चुकी थी कि उसे लग रहा था साड़ी पर धब्बा पड़ जाएगा।
वह एकटक उसे देखती रही, अपनी कल्पनाओं में खो गई— 'अगर यह चीज़ मेरे अंदर जाए तो क्या होगा? क्या मैं फट जाऊँगी? या मुझे वो सुख मिलेगा जो आज तक नहीं मिला?'
तभी नीचे हलचल हुई।
शराबी ने नींद में करवट बदली। उसने अपना पैर मोड़ा और लुंगी उसके ऊपर गिर गई।
शो खत्म हो गया। वो काला अजूबा फिर से कपड़े के नीचे छुप गया।
कामिनी को एक अजीब सी निराशा हुई, जैसे किसी बच्चे से खिलौना छीन लिया गया हो।
उसने झटके से खिड़की बंद कर दी और पर्दा गिरा दिया।
कमरे में अब वह अकेली थी, अपनी अतृप्त प्यास के साथ।
उसका बदन सुलग रहा था। उसे अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उसे खुद को छूना था, अपनी आग को शांत करना था।
उसकी नज़र बिस्तर पर पड़े पर्स पर गई।
वीट (Veet).
उसे याद आया। पति का हुक्म था "साली चुत साफ कर लेना कल "
लेकिन अब यह सिर्फ़ पति का हुक्म नहीं रह गया था। कामिनी को खुद इच्छा होने लगी थी की वो अपनी खूबसूरती को बालरहित कर ले, खुल के सांस लेने दे.
उसने झपटकर पर्स से वो गुलाबी डिब्बा निकाला।
उसकी आँखों में एक पागलपन था।
उसने अपनी साड़ी को एक झटके मे उतार फेंका, और सिर्फ़ ब्लाउज-पेटीकोट में बाथरूम की तरफ चल दी।
उसका भरा हुआ मादक जिस्म बाथरूम की सफ़ेद रौशनी मे चमक रहा था.
आज बाथरूम में सिर्फ़ बाल साफ़ नहीं होने वाले थे, आज कामिनी अपनी मर्यादा की पहली परत भी उतारने वाली थी।
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Akhir Kamini ne pehla pehel kar diya magar ab uske andar ek sanskari nari aur ek pyaasi aurat ki jang chal rahi hai jismai jitna to pyaasi aurat ko hi haiअपडेट -4
पापा के जाने के बाद घर में अजीब सी शांति थी, लेकिन यह शांति तूफ़ान से पहले वाली थी।
मैं (बंटी) तैयार होकर अपने कमरे में बैठा था, लेकिन स्कूल जाने की हिम्मत नहीं हुई। पेट दर्द का एक झूठा बहाना बनाया और बिस्तर पकड़ लिया। पापा को तो वैसे भी मेरी फिक्र कम ही रहती थी, वो मान गए थे। लेकिन मेरा असली मकसद पेट दर्द नहीं, बल्कि वो 'दर्द' देखना था जो मेरी माँ की आँखों में कल रात से तैर रहा था।
रघु (वो शराबी) गार्डन में काम शुरू कर चुका था।
धूप चढ़ने लगी थी। रघु ने अपनी बनियान उतार कर एक पेड़ की टहनी पर टांग दी थी। उसका शरीर काला था, मैला था, लेकिन गठीला था। पसीने की बूंदें उसके काले बदन पर ऐसे चमक रही थीं जैसे किसी ने तेल लगा दिया हो।
रसोई की खिड़की से माँ उसे चोरी-चोरी देख रही थीं।
कामिनी की हालत 'कशमकश' वाली थी। एक तरफ वो संस्कारी पत्नी, जो पराये मर्द की परछाई से भी दूर रहती है, और दूसरी तरफ एक अतृप्त औरत, जिसके अंदर कल रात की जगी हुई आग अभी भी धधक रही थी।
प्यासी औरत को एक काला कलूटा, मेला कुचला आदमी भी सुंदर लगता है, इसका ताज़ा उदाहरण कामिनी थी.
वैसे भी मर्दो की खूबसूरती उसकी मर्दानगी मे होती है, जो रघु मे मिल गई थी कामिनी को.
उसका जिस्म रसोई मे था लेकिन दिमाग़ गार्डन मे.
रघु कुदाल चला रहा था। हर वार के साथ उसकी पीठ की मांसपेशियां (muscles) तन जाती थीं।
कामिनी जब भी उसे देखती, उसकी जांघों के बीच एक मीठी सिहरन दौड़ जाती। उसे बार-बार अपनी चिकनी, बाल रहित चूत का ख्याल आ रहा था जो साड़ी के अंदर पसीने और अपनी ही नमी से गीली हो रही थी।
करीब एक घंटे बाद, रघु खिड़की के पास आया।
"मालकिन..." उसने आवाज़ दी।
कामिनी चौंक गई। उसने पल्लू ठीक किया और खिड़की के पास आई।
"कक्क...क्या है?" उसने कड़क आवाज़ बनाने की कोशिश की, पर गला सूख रहा था।
रघु की आँखों में एक अजीब सा नशा था, उसकी नजर कामिनी के ब्लाउज के बीच बनी पसीने से भीगी दरार पर चली गई, वो कामिनी के भीगे हुए ब्लाउज को घूर रहा था।
"मालकिन... गला सूख रहा है... थोड़ी 'ताकत' मिल जाती तो काम जल्दी निपट जाता," रघु ने दांत निपोरते हुए कहा।
"पानी लाती हूँ," कामिनी मुड़ी।
"पानी नहीं मालकिन," रघु ने बेशर्मी से कहा,
"बाबूजी शाम को पैसे देने की बात बोल कर गए थे... पर अगर आप 100 रुपये अभी दे देतीं, तो मैं 'दवाई' ले आता। बिना दवाई के हाथ नहीं चल रहे।"
कामिनी समझ गई कि उसे दारू चाहिए।
उसका दिल किया कि मना कर दे, डांट दे।
लेकिन वो रघु की आँखों में देख कर पिघल गई। रघु वाकई थका हुआ दयनीय हालात मे दिख रहा था,
कामिनी ने बिना कुछ बोले पर्स से 100 का नोट निकाला और ग्रिल से बाहर पकड़ा दिया।
रघु ने नोट लेते वक़्त जानबूझकर अपनी खुरदरी उंगलियां कामिनी की मखमली हथेली से रगड़ दीं।
कामिनी का हाथ झनझना गया, लेकिन उसने हाथ खींचा नहीं।
"अभी आता हूँ मालकिन... फिर देखना कैसा काम करता हूँ," रघु नोट चूमता हुआ गेट से बाहर भाग गया। कामिनी उस मस्तमोला को सिर्फ देखती रह गई.
रघु करीब आधे घंटे बाद लौटा। उसकी चाल में अब लचक आ गई थी।
लालच बुरी बला है। 100 रुपये में दो देसी क्वार्टर आ गए थे और रघु ने दोनों गटक लिए थे। खाली पेट शराब ने अपना काम कर दिया था।
धूप अब सिर पर थी। रघु ने कुदाल उठाई, दो-चार बार ज़मीन पर मारी, लेकिन नशा उस पर हावी हो गया।
उसे चक्कर आने लगे।
वह गार्डन में लगे पुराने जामुन के पेड़ की छांव में बैठ गया। ठंडी हवा और नशा... रघु की आँखें बंद होने लगीं। कुछ ही पलों में वह वहीं, पेड़ के तने से टेक लगाकर पसर गया। उसके खर्राटे गूंजने लगे।
दोपहर के 1:30 बज रहे थे।
कामिनी ने देखा कि कुदाल चलने की आवाज़ बंद हो गई है।
"कहीं भाग तो नहीं गया कामचोर?" उसने सोचा।
लेकिन मन के किसी कोने में एक और आवाज़ थी—'जाकर देख न कामिनी... वो कर क्या रहा है।'
कामिनी ने बहाना ढूंढा। 'बेचारा भूखा होगा, सुबह से लगा है।'
उसने एक थाली में दो रोटियां और थोड़ी सब्जी रखी।
"मैं उस मजदूर को खाना दे आऊं," उसने खुद से (और शायद बंटी को सुनाने के लिए) कहा और पीछे के दरवाजे से गार्डन में निकली।
मैं (बंटी) अपने कमरे की खिड़की से, जो गार्डन की तरफ ही खुलती थी, सब देख रहा था। माँ के हाथ में थाली थी, लेकिन चाल में एक चोरों वाली सावधानी थी।
कामिनी दबे पाँव पेड़ के पास पहुँची।
वहाँ का नज़ारा देखकर वह ठिठक गई।
रघु बेसुध पड़ा था। उसका मुंह खुला था, और मख्खियां भिनभिना रही थीं। वह पूरी तरह नशे में 'टल्ली' होकर सो रहा था।
कामिनी ने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। सन्नाटा था।
उसकी नज़र रघु के शरीर पर घूमने लगी। पसीने से भीगी बनियान, मैली लुंगी...
और फिर उसकी नज़र रघु की लुंगी के उस उभार पर अटक गई। असली खूबसूरती वही तो थी,
रघु ने दोनों पैर फैला रखे थे। लुंगी घुटनों तक ऊपर चढ़ी हुई थी।
और बीच में... जांघों के संगम पर... लुंगी तंबू की तरह तनी हुई थी।
कामिनी का दिल हथौड़े की तरह बजने लगा। थाली उसके हाथ में कांपने लगी। उसने थाली को धीरे से घास पर रख दिया।
यह वही मौका था जिसका वह कल दोपहर से इंतज़ार कर रही थी।
कल उसने उसे खिड़की से देखा था—दूर से, धुंधला सा।
आज वह उसके कदमों में पड़ा था। सोता हुआ। बेखबर।
कामिनी के दिमाग ने कहा—'भाग जा यहाँ से कामिनी... ये पाप है... ये पागलपन है।'
लेकिन उसके जिस्म ने कहा—'बस एक बार देख ले... जी भरकर देख ले... फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा।'
कौन देख रहा है तुझे यहाँ, कामिनी ने चोर नजरों से एक बार इधर उधर देखा, कोई नहीं था, बंटी भी सो ही रहा है.
हवस जीत गई। ना जाने इतनी हिम्मत कामिनी मे कैसे आ गई..
मै खिड़की के पीछे से छुपा माँ की हरकतों को देख रहा था,
ये वही औरत थी जो रात मे पापा के सामने किसी बकरी की तरह मिमियाती थी, मार खाती थी.
और दिन के उजाले मे..... ऊफ्फफ्फ्फ़.... मै सोच भी नहीं पा रहा था.
और मेरी माँ करने का सोच रही थी.
कामिनी घुटनों के बल रघु के पास बैठ गई। उसके नथुनों में रघु के पसीने और शराब की तीखी गंध भर गई, जिसने उसे और मदहोश कर दिया।
उसका हाथ कांपते हुए आगे बढ़ा।
उसकी गोरी, नाजुक उंगलियों ने रघु की मैली, चेकदार लुंगी का किनारा पकड़ा।
सांसें अटक गईं। धाड़... धाड़.... कर दिल बज रहा था, जैसे अभी कलेजा फट जायेगा, उसका पूरा जिस्म पसीना पसीना हो गया, हाँथ कांप रहे थे, जांघो मे वजन उठाने लायक ताकत नहीं थी..
बस दिल मे उठती कामइच्छा ने उसको इतनी मजबूती दे दि थी, की वो अपनी खुवाहिस पूरी कर ले.
उसने धीरे... बहुत धीरे से लुंगी को ऊपर उठाना शुरू किया।
जैसे-जैसे कपड़ा हट रहा था, राज खुल रहा था।
काली, बालों से भरी जांघें... और फिर...
कामिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसके मुंह से एक मूक चीख निकली, जिसे उसने हाथ रखकर दबा लिया।
"हे माँ...उउउउउफ्फ्फफ्फ्फ़..... भगवान "
सामने एक अजूबा पड़ा था।
एक विशाल, काला, और नसों से भरा हुआ मांस का खंभा।
वह सोया हुआ था, फिर भी उसका आकार कामिनी की सोच से परे था।
रमेश का लंड तो इसके सामने किसी बच्चे की उंगली जैसा लगता।
यह लंड नहीं, एक मूसल था। उसका सुपारी (top) किसी मशरूम की तरह बड़ा और बैंगनी रंग का था। पूरा लंड मोटी-मोटी नसों के जाल से घिरा था, जो देखने में ही भयानक और ताकतवर लग रहा था।
वह रघु की बाईं जांघ पर किसी सुस्त अजगर की तरह लेटा हुआ था।
कामिनी सम्मोहित (Hypnotized) हो गई थी। उसका जिस्म किसी मूर्ति मे तब्दील हो गया, बस सांस आ रही थी यही सबूत था उसके जिन्दा होने का.
उसे यकीन नहीं हो रहा था कि एक इंसान के पास इतना बड़ा हथियार हो सकता है।
'ये... ये अंदर कैसे जाएगा?' यह पहला सवाल था जो उसके दिमाग में आया।
लेकिन डर के साथ-साथ, उसकी चूत ने अपना जवाब दे दिया।
पच... पिच... च... च....
कामिनी की चिकनी चुत ने पानी की एक धार छोड़ दी। वह इतनी गीली हो गई थी कि उसे लगा उसका पेटीकोट अभी भीग जाएगा।
वह एकटक उस काले अजूबे को निहारती रही। उसका मन कर रहा था कि उसे छू ले... बस एक बार छूकर देखे कि क्या यह सच में इतना सख्त है? असली है?
उसका हाथ, उसके काबू से बाहर होकर, उस काले नाग की तरफ बढ़ने लगा...
और मैं... बंटी... अपनी खिड़की के पीछे खड़ा, अपनी माँ को एक गंदे शराबी की लुंगी हटाकर उसका लंड घूरते हुए देख रहा था। मेरा गला सूख गया और मेरा अपना पजामा तंग होने लगा था।
माँ की हरकतों ने मेरे जिस्म मे एक अजीब सी गुदगुदी भर दी, मैंने अपने लंड को अपने हाथो से कस कर पकड़ लिया.
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गार्डन में सन्नाटा था, लेकिन कामिनी के कानों में तूफ़ान चल रहा था।
उसका हाथ, जो अब तक हवा में कांप रहा था, आखिर उस 'काले अजूबे' तक पहुँच ही गया।
जैसे ही कामिनी की मखमली, गोरी उंगलियों ने रघु के उस विशाल, काले लंड को छुआ, उसे लगा जैसे उसने किसी नंगी बिजली की तार को छू लिया हो।
झुरझरी.... एक तेज़ झुरझरी उसके पूरे बदन में, उसकी एड़ियों से लेकर सिर के बालों तक दौड़ गई।
वह गर्म था। बहुत गर्म।
एक इंसान का मांस इतना सख्त और लोहे जैसा कैसे हो सकता है?
कामिनी की धड़कनें रुक सी गई थीं। डर था, पर जिज्ञासा (Curiosity) उस पर हावी थी।
उसने अपनी उंगलियां उस काले मूसल पर फेरना शुरू किया। उसकी त्वचा खुरदरी थी, उस पर उभरी हुई नसें किसी रस्सियों जैसी लग रही थीं।
कामिनी ने हिम्मत करके अपनी मुट्ठी भींची। वह उसे नापना चाहती थी।
लेकिन...
उसकी नाजुक मुट्ठी उस विशाल औज़ार के सामने बहुत छोटी पड़ गई।
उसने अपनी उंगलियां और अंगूठा मिलाकर घेरा बनाने की कोशिश की, लेकिन रघु का लंड इतना मोटा था कि उसकी उंगलियां आपस में मिल ही नहीं पाईं।
"हे भगवान... यह तो मेरी मुट्ठी में भी नहीं समा रहा," कामिनी ने मन ही मन सोचा।
उसने रमेश के लंड को याद किया, जो उसकी एक मुट्ठी में छुप जाता था। और यहाँ... यह 'दानव' उसकी पकड़ से बाहर था।
कामिनी सम्मोहन (Hypnotized) की अवस्था में थी। उसकी सांसें भारी हो गई थीं। अनजाने में उसका हाथ उस गर्म मांस को हल्के-हल्के सहलाने लगा। उसे वो गर्माहट अपनी हथेली में महसूस करके एक अजीब सा सुकून मिल रहा था।
वह भूल गई कि वह कहाँ है, कौन है।
लेकिन तभी...
शायद उस स्पर्श की उत्तेजना नींद में भी रघु के दिमाग तक पहुँच गई थी।
रघु, जो अब तक बेसुध था, अचानक हरकत में आया।
उसने नींद में ही बड़बड़ाते हुए अपना हाथ चलाया—जैसे कोई कीमती चीज़ छिन जाने के डर से उसे कसकर पकड़ना चाहता हो।
और उसका खुरदुरा, सख्त हाथ सीधा कामिनी के उस हाथ पर जा पड़ा जो उसके लंड को पकड़े हुए था।
"अम्मम्म..." रघु ने नींद में हूँकार भरी और कामिनी की कलाई को कसकर दबोच लिया।
कामिनी का खून जम गया।
"ह्ह्ह्क..." उसके गले से आवाज़ ही नहीं निकली।
उसकी कलाई एक लोहे की पकड़ में थी, और उसका हाथ एक पराए मर्द के लंड पर था।
एक पल के लिए उसे लगा कि उसकी दुनिया खत्म हो गई। अगर रघु अभी आँख खोल ले? अगर कोई देख ले?
दहशत ने उसके दिमाग के सुन्न पड़े तारों को झकझोर दिया।
"छोड़... छोड़..." कामिनी ने झटके से अपना हाथ खींचना चाहा।
रघु की पकड़ नींद में ढीली थी, लेकिन कामिनी के लिए वह मौत की पकड़ जैसी थी।
उसने अपनी पूरी जान लगाकर, एक झटके से अपना हाथ छुड़ाया।
उसका हाथ छूटते ही वह पीछे की तरफ गिरी, लेकिन संभल गई।
रघु ने करवट बदली और फिर से खर्राटे लेने लगा। उसने आँखें नहीं खोली थीं।
कामिनी की जान में जान आई, लेकिन वह अब एक पल भी वहाँ रुक नहीं सकती थी।
उसके पैरों में न जाने कहाँ से बिजली जैसी फुर्ती आ गई। वह अपनी चप्पल हाथ में उठाकर नंगे पैर ही घर के अंदर भागी।
साँस फूली हुई थी, चेहरा लाल था, और दिल मुँह को आ रहा था।
वह दौड़ते हुए सीधे अपने बेडरूम में घुसी और दरवाज़ा बंद करके वहीं धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ी।
कमरा ठंडा था, पंखा चल रहा था, लेकिन कामिनी पसीने से लथपथ थी।
वह चित लेटी हुई थी, छत को घूर रही थी। उसकी छाती लोहार की धौंकनी की तरह ऊपर-नीचे हो रही थी।
साड़ी दौड़ते वक़्त ऊपर चढ़ गई थी, जिससे उसकी नंगी, चिकनी जांघें हवा में थीं। ब्लाउज पसीने से चिपक गया था और उसकी भारी छाती को जैसे फाड़कर बाहर आने को तैयार थी। डर और उत्तेजना के उस अजीब मिश्रण से उसके निप्पल (Nipples) ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए पत्थर की तरह तन गए थे।
लेकिन उसका दिमाग... उसका दिमाग अब एक युद्ध का मैदान बन चुका था।
जैसे-जैसे सांसें सामान्य हो रही थीं, वैसे-वैसे 'ग्लानि' (Guilt) का एक काला साया उसे घेर रहा था।
"छि... छि... छि... ये क्या किया मैंने?"
कामिनी ने अपने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया।
"मैं... मैं इतनी गिर गई? एक शराबी... एक मजदूर... और मैं उसका... उसका वो पकड़कर बैठी थी?"
उसकी आँखों से आंसू बह निकले। यह आंसू डर के नहीं, शर्मिंदगी के थे।
"मैं एक इज़्ज़तदार घर की बहू हूँ... एक 18साल के लड़के की माँ हूँ... रमेश जी की पत्नी हूँ... मेरे संस्कार कहाँ गए थे?"
वह अपनी उसी हथेली को देख रही थी जिसने अभी कुछ पल पहले उस काले लंड को छुआ था। उसे लग रहा था कि उसका हाथ गंदा हो गया है, अपवित्र हो गया है।
"अगर... अगर वो जाग जाता तो? अगर बंटी देख लेता तो? मैं किस मुँह से जीती?"
कामिनी का अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था। उसे खुद से घिन आ रही थी।
"रमेश जी ने सही कहा था... मैं रंडी हूँ क्या? नहीं... नहीं... मैं रंडी नहीं हूँ... मैं बस... मैं बस मजबूर थी..."
वह खुद को सफाई देने की कोशिश कर रही थी।
"रमेश जी मुझे प्यार नहीं करते... मुझे मारते हैं... मेरी ज़रूरतें नहीं समझते... लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं किसी गैत मर्द की लुंगी उठाकर..."
कामिनी ने गुस्से और शर्म में अपनी जांघों को अपने नाखूनों से नोच लिया।
"पाप किया है मैंने... घोर पाप।"
वह रो रही थी, सिसक रही थी। उसका 'सती-सावित्री' वाला रूप अब जाग गया था और उस 'प्यासी औरत' को कोड़े मार रहा था।
लेकिन...
इस भारी ग्लानि और पछतावे के बीच भी, एक सच ऐसा था जिसे वह झुठला नहीं पा रही थी।
उसका जिस्म।
उसका दिमाग चाहे जितना रो रहा हो, लेकिन उसका जिस्म अभी भी उस स्पर्श को याद करके मज़े ले रहा था।
उसकी चूत, जो अभी भी गीली और लिसलिसी थी, उसे बता रही थी कि जो हुआ, उसमें 'डर' था, 'पाप' था... लेकिन 'मज़ा' भी सबसे ज्यादा उसी में था।
उसकी तनी हुई छाती और जांघों के बीच की धड़कन गवाही दे रही थी कि 'कामिनी' भले ही पछता रही हो, लेकिन उसके अंदर की 'मादा' उस काले लंड की गर्मी को अब और शिद्दत से महसूस कर रही है।
वह बिस्तर पर पड़ी तड़प रही थी—आधी शर्म से, और आधी उस अधूरी प्यास से जो अब भड़क कर ज्वालामुखी बन चुकी थी।
क्रमशः
Update kab tak aaega ji