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भाग ३८
रीत
और चुम्मन का मोबाईल
5,02,064
दो बातें और थी।
एक तो मुझे लग रहा था की कुछ है जो कहीं फिट नहीं बैठ रहा है। मेरा हाथ जेब में चला गया और वहां चुम्मन का मोबाइल था, जो मैंने फर्श से उठाया था, मुझे चाकू लगने के बाद।
और दूसरी बात यह थी की रीत नहीं दिखी थी अभी तक, अब वह पडोसीनो के बीच तो हो नहीं सकती थी।
और अचानक किसी ने मेरी आँखें पीछे से बंद कर ली। ले पहचान तो मैं गया लेकिन देर तक उस छुवन के अहसास के लिए मैंने बहाना बनाया।
मैं बोला- “कौन छोड़ो न…”
“एलो एलो। एलो जी सनम हम आ गए, आज फिर दिल लेकर…”
उछल कर वो सारंग नयनी मेरे सामने आ गई। अपनी बड़ी-बड़ी आँखें नचाते, दो उंगलियों के बीच दुपट्टे की कोर पकड़े।
रीत मेरे सामने खड़ी थी,
बोली- “मैंने बोला था ना की मेरी बायीं आँख फड़क रही है। तुम शाम को जाने के पहले वापस आओगे…”
मैं एक-एक पल को पी रहा था। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। घचर पचर। नीचे कहीं चल रहा टीवी, सरसराती हवा। कुछ भी नहीं। मैं सिर्फ देख रहा था।
रीत मेरे सामने चुटकी बजाते हुए बोली- “ये बाबू जी। मैं हूँ। भूल गए क्या?”
और अब मेरा कान उसके हाथ में था।
“एकदम नहीं …” मैं मुश्कुरा रहा था।
बाहर बरामदे में पडोसीनो की घचर पचर चल रही थी, और चंदा भाभी के कमरे की एक एक चीज बरामदे से दिख भी रही थी और सुनाई भी दे रही थी और स्कूल की सब बातें बिना पूछे वो रहेगी नहीं, और बिना बताये मैं मानूंगा नहीं, लेकिन ये सब बाते मैं नहीं चाहता था पडोसीनो तक पहुंचे, उनके लिए ऑफिसयल वर्ज़न ठीक था, पुलिस ने बचाया। तो मैंने रीत से बोला
“हे नीचे चलें। तुम्हारे कमरे में…” मैंने बोला।
गुंजा से सवाल जवाब कम हो गए थे, और दो-तीन औरतें अब मेरी ओर देख रही थी।
“एकदम सही आइडिया है…” और रीत ने मेरा हाथ पकड़ा और हम लोग सीढ़ी से नीचे।
रीत

और चुम्मन का मोबाईल
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दो बातें और थी।
एक तो मुझे लग रहा था की कुछ है जो कहीं फिट नहीं बैठ रहा है। मेरा हाथ जेब में चला गया और वहां चुम्मन का मोबाइल था, जो मैंने फर्श से उठाया था, मुझे चाकू लगने के बाद।
और दूसरी बात यह थी की रीत नहीं दिखी थी अभी तक, अब वह पडोसीनो के बीच तो हो नहीं सकती थी।
और अचानक किसी ने मेरी आँखें पीछे से बंद कर ली। ले पहचान तो मैं गया लेकिन देर तक उस छुवन के अहसास के लिए मैंने बहाना बनाया।
मैं बोला- “कौन छोड़ो न…”
“एलो एलो। एलो जी सनम हम आ गए, आज फिर दिल लेकर…”
उछल कर वो सारंग नयनी मेरे सामने आ गई। अपनी बड़ी-बड़ी आँखें नचाते, दो उंगलियों के बीच दुपट्टे की कोर पकड़े।

रीत मेरे सामने खड़ी थी,
बोली- “मैंने बोला था ना की मेरी बायीं आँख फड़क रही है। तुम शाम को जाने के पहले वापस आओगे…”
मैं एक-एक पल को पी रहा था। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। घचर पचर। नीचे कहीं चल रहा टीवी, सरसराती हवा। कुछ भी नहीं। मैं सिर्फ देख रहा था।
रीत मेरे सामने चुटकी बजाते हुए बोली- “ये बाबू जी। मैं हूँ। भूल गए क्या?”
और अब मेरा कान उसके हाथ में था।

“एकदम नहीं …” मैं मुश्कुरा रहा था।
बाहर बरामदे में पडोसीनो की घचर पचर चल रही थी, और चंदा भाभी के कमरे की एक एक चीज बरामदे से दिख भी रही थी और सुनाई भी दे रही थी और स्कूल की सब बातें बिना पूछे वो रहेगी नहीं, और बिना बताये मैं मानूंगा नहीं, लेकिन ये सब बाते मैं नहीं चाहता था पडोसीनो तक पहुंचे, उनके लिए ऑफिसयल वर्ज़न ठीक था, पुलिस ने बचाया। तो मैंने रीत से बोला
“हे नीचे चलें। तुम्हारे कमरे में…” मैंने बोला।
गुंजा से सवाल जवाब कम हो गए थे, और दो-तीन औरतें अब मेरी ओर देख रही थी।
“एकदम सही आइडिया है…” और रीत ने मेरा हाथ पकड़ा और हम लोग सीढ़ी से नीचे।
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