अध्याय – 2
“विवान "...
स्नेहा से बात करने के पश्चात मैं काफी अच्छा महसूस कर रहा था और सुबह से ही जो उदासी और द्वंद्व मेरे भीतर चल रहे थे उनसे मुझे कुछ राहत भी मिल गई थी। नाश्ता करने का फिलहाल मेरा मन नहीं था, इसीलिए अपनी कुछ किताबें लेकर मैं बाहर आ गया। मेरा मकान कुछ डेढ़ सौ गज के क्षेत्र में बना था और उसके चारों ओर लगभग पांच फीट ऊंची चारदीवारी की हुई थी। दरवाज़े को खोलते ही बाहर बैठने के लिए एक कुर्सी भी रखी हुई थी जिस से दस – पंद्रह कदम आगे मकान की चारदीवारी के बीच एक लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था। मैं बाहर आकर उसी कुर्सी पर अपनी किताब में नज़रें गड़ाकर बैठ गया। अभी मुझे अध्ययन करते हुए कुछ ही पल हुए थे कि किसीके द्वारा मेरा नाम पुकारे जाने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी। इस स्वर से मैं भली – भांति परिचित था, इसीलिए बिना उस आवाज़ की दिशा में देखे, मेरे होंठों पर एक मुस्कान नाच उठी।
मैंने वो किताब वहीं कुर्सी पर रखी और उस दिशा में देखा। स्वतः ही मेरे होंठों की वो मुस्कान कुछ और भी गहरा गई। मैं मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ता हुआ दीवार के पास जाकर खड़ा हो गया। दीवार के उस ओर शायद दुनिया की सबसे खूबसूरत कलाकृतियों में से एक मौजूद थी। हल्के गुलाबी रंग का सलवार कमीज़, कानों में छोटे – छोटे मोरपंखी झुमके और बाएं कान के करीब से लटक रही उसके बालों की वो लट, शायद आज वो मेरा कत्ल करने का निश्चय कर आई थी। बूंदा – बांदी अब थम चुकी थी, शुक्र है कि तेज़ बरसात नही हुई परंतु मौसम में ठंडक अभी भी बनी हुई थी, जो उसकी मौजूदगी को और भी खास बना रही थी। मैंने अपनी दोनो बाजुओं को मोड़कर उस दीवार पर रख दिया और बीच में अपना सर रख उसके चेहरे को देखने लगा। इस बीच मुझे एक टक देख रही उस परी की आंखों में लज्जा उभरते हुए मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा था। पर कुछ न कहकर मैं बस उसकी आखों में झांकते हुए मुस्कुराने लगा।
तभी, उसने अपने बाएं हाथ की अंगुलियों से उस कहर ढाती लट को अपने कान के पीछे कर दिया। उसी क्षण मैंने उसकी आंखों में ही झांकते हुए हल्के से ना में सर हिला दिया। जिसपर उसने अपनी बौहें हल्की सी उठाते हुए प्रश्नजनक निगाहों से मुझे देखा। मैंने बिना हिचकिचाए अपने हाथ को धीमे से आगे बढ़ाकर वापस से उस लट को उसके कान के पीछे से हटा आगे की ओर कर दिया। पहली बार मेरे मुख से शब्द निकले, “ऐसे अच्छी लगती हो"!
जैसे ही मेरी अंगुलियों का हल्का सा स्पर्श उसके बाएं गाल के किनारे पर हुआ उसकी आंखें एक पल को बोझिल सी हो गई और अगले ही पल मेरी अंगुलियों की क्रिया ने उसे बेशक अचंभित कर दिया। किंतु अगले ही पल मेरे मुख से निकले शब्दों के चलते लज्जा वश उसकी नज़रें झुक गई और गालों पर लाली आने लगी। कुछ पलों के लिए मैं शांत ही रहा और वो चोरी चोरी मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही। तभी,
मैं : आशु...
[
अस्मिता शर्मा {
आशु} (आयु : 21 वर्ष) : मेरे मकान के बिल्कुल बगल में बना घर इसका ही है। घर में केवल ये और इसकी दादी ही रहते हैं। अस्मिता के माता – पिता की मृत्यु आज से पंद्रह बरस पहले हो गई थी, अर्थात जब वो मात्र 6 वर्ष की थी तब एक सड़क दुर्घटना में उन दोनों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। उसी दुर्घटना में अस्मिता की दादी को भी गहरी चोटें आई थीं जिसके कारण आज वो अपने पैरों पर खड़ी भी नही हो पाती। अस्मिता के लिए उसकी दादी ही उसका संसार थी और हैं भी परंतु आज से तीन वर्ष पूर्व इसके संसार में एक नाम और जुड़ गया था और ऐसा जुड़ा की अस्मिता शायद खुद को ही भुला बैठी। मेरे साथ, मेरी ही कॉलेज और कक्षा में पढ़ती है। जितनी खूबसूरत ये सूरत से है उतनी ही सुंदर इसकी सीरत है। छोटे बच्चों और जानवरों से भी खास लगाव है इसे। ]
मैंने जैसे ही उसे “आशु" कहकर पुकारा तो एक दम से नज़रें उठाकर उसने मेरी और देखा। उसकी दादी उसे आशु कहकर ही पुकारती थीं जबकि मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता था। परंतु एक बार उसने खुद ही मुझसे कहा था कि उसे आशु कहकर पुकारा जाना ज़्यादा पसंद है। खैर, वो एक अलग किस्सा है। परंतु, उसके बाद भी मैं कम ही उसे इस नाम से पुकारता था, इसके भी दो कारण थे। पहला, कहीं न कहीं उसका पूर्ण नाम मुझे बहुत भाता था और दूसरा, उसका वो चेहरा, जब मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता तो उसके चेहरे पर आए नाराजगी के भाव मेरे दिल के तार छेड़ दिया करते। खैर, आज एकांकी अपने लिए मेरी ओर से ये संबोधन सुन उसके चेहरे पर स्वतः ही अचंभे और खुशी के भाव आ गए।
अस्मिता : फिर से कहना।
मैं (मुस्कुराकर) : क्या?
अस्मिता : विवान..
भोला सा चेहरा बनाते हुए कहा उसने जिसपर मैंने उसकी नाक को हल्के से खींच दिया और,
मैं : तू कितने साल की है आशु?
पुनः वही संबोधन सुन जहां उसकी खुशी बढ़ गई वहीं मेरे सवाल पर नासमझी के भाव उसके चेहरे पर उभर आए। पर तभी,
अस्मिता : लड़कियों से उनकी उम्र नही पूछते बुद्धू!
विवान : बता ना, मुझसे क्या छुपाना।
अस्मिता ने एक पल मुझे देखा और फिर, “21.. क्यों"?
मैं : लेकिन तेरी बातें पांच साल की बच्ची जैसी हैं। बड़ी हो जा वरना कोई शादी भी नही करेगा तुझसे, कहे देता हूं।
अस्मिता : मैं जिससे शादी करूंगी वो मुझे ना बोल ही नहीं सकता।
मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत से कहा उसने जिसपर,
मैं : कौन है वो बद.. मेरा मतलब खुशकिस्मत?
अस्मिता ने एक पल मुझे घूरा और जैसे ही वो कुछ जवाब देती, उससे पहले ही उसकी दादी द्वारा उसे पुकारने की आवाज़ आ गई। वो दो पल मुझे देखती रही और जैसे ही पलटकर जाने को हुई, तभी,
मैं : गुलाबी रंग जंचता है तुझ पर।
अचानक ही उसके कदम वहीं जम से गए परंतु वो पलटी नही, बस अगले ही पल तेज़ कदमों से अपने घर की तरफ चल दी। मैं वहीं खड़ा उसे जाते देखने लगा और जब उसका अक्स भी उसके घर के अंदर, मेरी नज़रों की सीमा से दूर निकल गया, तब भी मैं वहीं खड़ा रहा। जाने क्या जादू था उस लड़की में, जब भी पास होती तो दूर लगती, और जब दूर होती तो उसकी खुशबू अपने सबसे करीब लगती। खैर, कुछ देर मैं वहीं खड़ा अस्मिता के बारे में सोचता रहा और फिर वापिस उस कुर्सी की तरफ बढ़ गया।
“भाईसाहब, आप मेरी बात नही समझ रहे हैं, ये हमारे लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है"।
एक बड़े से कमरे में जहां एक शख्स आरामदायक कुर्सी पर बैठा था तो वहीं एक और व्यक्ति उसके समक्ष हाथ बांधे खड़ा था। उसने ही ये शब्द बैठे हुए शख्स से कहे थे जिसपर,
“मुझसे ज़्यादा खतरनाक कुछ नही है, जानते हो ना"।
“ज.. जी भाईसाहब, प.. पर वो, अगर वो यहां पहुंच गया तो"?
“तो वो भी मरेगा। इस बार.. इस बार वही होगा जो मैं चाहता हूं। बहुत हो गया ये नाटक,अब खेल खत्म करने का वक्त आ गया है"।
“आप क्या करने वाले हैं"?
“कहा ना मैंने, अब खेल पूरी तरह से खत्म होगा। दुश्मनी खत्म करने का सिर्फ एक ही तरीका होता है, अपने दुश्मन को खत्म कर दो"।
“म.. मतलब"?
“मतलब वही जो तू सोच रहा है। जितना भी हिसाब बाकी है, सब लिख ले। जल्दी ही सूत समेत वसूलने वाला हूं मैं"।
जितनी रौबदार उस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की आवाज़ थी, उतना ही संजीदा उसका चेहरा दिखाई पड़ रहा था। दूसरा शख्स आगे कुछ कहने को हुआ पर तभी उसने अपना हाथ दिखाकर उसे रोक दिया। एक पल को वो शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठा रहा और फिर अपने सामने रखी एक डिब्बी, जोकि किसी धातु से बनी थी, उसे उठाकर, उसमें से एक महंगी सिगार निकाल अपने मुंह से लगा ली। एक बार हल्की सी नजर उठाकर उसने अपने सामने खड़े उस शख्स को देखा और वो हड़बड़ाकर कुर्सी की ओर बढ़ चला। उसने अपने कांपते हुए हाथों में पकड़े हुए लाइटर से उस सिगार को सुलगाया और फिर कुछ कदम पीछे होकर खड़ा हो गया। फिलहाल उसकी श्वास असामान्य हो चुकी थी, नतीजतन माथे और चेहरे पर पसीना उभरने लगा था। कुर्सी पर बैठे उस व्यक्ति ने इसकी तरफ देखा और एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई।
उस मुस्कान को देखकर ये हड़बड़ा गया और अपनी जेब से रुमाल निकलकर अपने चेहरे को पोंछने लगा। तभी,
“अशफ़ाक को फोन कर"।
अभी वो रुमाल जेब में रखने ही वाला था कि ये शब्द सुनकर उसके हाथ से रुमाल छिटक कर नीचे गिर गया। वो आंखें फाड़े कुर्सी पर बैठे इस आदमी को देखने लगा और फिर बड़ी मुश्किल से उसने अपने कंठ से ये शब्द निकाले,
“अ.. अशफ़ाक"!?
“मुझे अपनी बातें दोहराने की आदत नही है, और तुम ये अच्छी तरह जानते हो"।
“प.. पर"...
बस एक बार जलती हुई निगाहों से उसने इसकी तरफ देखा और आगे के शब्दों ने इसके कंठ में ही प्राण त्याग दिए। अपने और अधिक कांप रहे हाथों से इसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और जल्दी – जल्दी उसपर अंगुलियां चलाने लगा। कुछ देर बाद वो कुर्सी के नज़दीक हाथ में मोबाइल पकड़े खड़ा था, और उसकी सहमी सी नज़रें कुर्सी पर बैठे उस शख्स पर ही जमी हुई थी। तभी मोबाइल से एक स्वर उत्पन्न हुआ, “कहो, रणवीर बाबू आज कैसे याद किया"। शायद मोबाइल फोन स्पीकर पर था, इसीलिए कुर्सी पर बैठे उस शख्स के कानों तक भी ये स्वर पहुंच गया।
रणवीर (फोन पर) : भाईसाहब तुमसे बात करेंगे अशफ़ाक।
जैसे ही रणवीर ने ये शब्द कहे, फोन के उस ओर से कुछ गिरने की आवाज़ उत्पन्न हुई जिसका कारण ये दोनो ही समझ गए थे। नतीजतन, उस कुर्सी पर बैठे शख्स के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान ने अपनी जगह बना ली। खैर, उसने रणवीर के हाथों में ही फोन रहने दिया और बोला,
“एक काम है तुम्हारे लिए अशफ़ाक"।
अशफ़ाक (फोन पर) : ज.. जी मालिक हुकुम कीजिए।
“अगले हफ्ते 10 तारीख को, मुझे उन सभी की लाशें चाहिए। सबकी"।
अशफ़ाक : अ.. आप किसकी बात कर रहें हैं मालिक?
उस शख्स ने इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस अपनी अंगुलियों में पकड़ी उस सिगार, जो अब समाप्त हो चुकी थी, उसे वहीं रखे एक छोटे से बक्से में रख दिया। इस खामोशी से जहां रणवीर के पसीने छूट रहे थे वहीं फोन पर अशफ़ाक की तीव्र होती श्वास उसकी घबराहट की भी गवाही दे रही थी। तभी,
अशफाक : समझ गया मालिक.. समझ गया। प.. पर...
उसकी बात को काटकर,
“वो यहां नही आने वाला अशफ़ाक और इस बार अगर कोई भी चूक हुई तो..."
उस शख्स ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।
अशफ़ाक : नहीं मालिक कोई गलती नहीं होगी। अगर हो तो मैं...
फिर उसकी बात को काटकर,
“अगर हुई!? सोच भी मत अशफ़ाक, क्योंकि इस अगर के सत्य में बदलते ही तेरी ज़िंदगी मौत में बदल जाएगी"!
इतना कहते ही उसने रणवीर को घूरा और रणवीर ने भी फटाफट फोन काट दिया।
*खट ~ खट ~ खट*...
रात का वक्त था, चांद बखूबी अपनी चांदनी बिखेर रहा था और आज भोर से ही लगातार, थोड़े – थोड़े अंतराल पर चली आ रही धीमी बरसात के कारण मौसम बड़ा सुहावना सा हो चुका था। मैं इस समय एक घर के दरवाज़े पर खड़ा उसपर दस्तक दे रहा था कि तभी मुझे अंदर से आती कदमों की आहट सुनाई दी। फलस्वरूप, मैंने अपने हाथों की क्रिया को रोक दिया। जैसे ही दरवाज़ा खुला एक साथ ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। पहली, मेरे सामने खड़ी अस्मिता को देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, वहीं अस्मिता मुझे देखकर प्रसन्न और हैरान, दोनों ही हो गई। हैरानी का कारण जल्दी ही पता चल जाएगा, और प्रसन्नता का बताने की आवश्यकता है?
अस्मिता : विवान! तुम यहां?
मैं (मुस्कुराकर) : क्यों? नही आ सकता?
अस्मिता : नहीं – नहीं.. हां.. मेरा मतलब दादी गुस्सा होंगी।
मैं : तो क्या हुआ? उनका गुस्सा देखकर मुझे तो बड़ा मज़ा आता है।
अस्मिता : गुस्सा देखकर मज़ा?
मैं : अपनों की मार दुलार के ही समान लगती है अस्मिता।
अस्मिता (मुस्कुराकर) : दादी तुम्हारी अपनी हैं?
मैं : जो तुम्हारे जितने करीब है, वो उतने ही नजदीक मेरे भी है।
अस्मिता (मुस्कुराकर) : वो कैसे?
मैं : तुम भी तो मेरी ही...
मैं अपनी बात भी पूरी नही कर पाया था कि तभी अंदर से अस्मिता की दादी की आवाज़ आई, “कौन है आशु"? इधर अस्मिता मेरी बात को समझकर जहां शर्मा गई थी वहीं उसकी दादी की अचानक ही आवाज़ से मेरे मुंह से स्वयं ही निकल गया,
मैं : कबाब में हड्डी।
अस्मिता (घूरते हुए) : क्या कहा तुमने?
मैंने उसी बात का कोई जवाब नही दिया और बिना कुछ कहे अंदर आ गया। मैं उसकी दादी के कमरे की तरफ बढ़ ही रहा था की तभी अचानक ही मुझे कुछ स्मरण हुआ और मैं वापिस पीछे की तरफ पलटा। अस्मिता जोकि दरवाज़ा लगा रही थी वो भी उसी पल मेरी और मुड़ी और अचानक से ही हड़बड़ा गई। पर मैंने बिना कुछ कहे उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और अपनी अंगुलियों से एक बार फिर उसके कान के पीछे अटकी उस ज़ुल्फ को आगे उसके चेहरे पर कर दिया।
मैं : कहा था ना कि ऐसे अच्छी लगती है तू।
इतना कहकर मैं पलट गया और अस्मिता की दादी के कमरे की ओर अपना रुख कर लिया। मैंने अस्मिता की प्रतिक्रिया नही देखी थी परंतु मैं जानता था कि वो जड़वत सी खड़ी मुझे ही ताक रही थी।
“कैसी हो दादी"?
मैं जैसे ही अस्मिता की दादी के कमरे में पहुंचा तो उनकी नजर सीधा मुझपर ही पड़ी और एकाएक उनके चेहरे पर गुस्से के भाव आ गए। उसके उपरांत मेरे द्वारा किए गए सवाल पर,
दादी : तू यहां क्या कर रहा है?
मैं : आराम से दादी, धीरे बोलो, मैं बराबर सुन सकता हूं।
दादी : अस्मिता.. ए अस्मिता..
मुझे घूरते हुए उन्होंने तेज़ आवाज़ में अस्मिता को पुकारा तो अगले ही पल अस्मिता भी मेरे पास ही आकर खड़ी हो गई। कुछ असमंजस में फंसी लग रही थी वो।
दादी : ये यहां क्यों आया है आशु?
अस्मिता : वो.. दादी.. वो..
मैं : अरे दादी, इसने ही तो मुझे बुलाया है खाने पर।
जहां मेरी बात सुनकर अस्मिता मुंह फाड़े मेरी ओर देखने लगी वहीं दादी अब अस्मिता को घूरने लगी थी।
मैं : आशु.. तुमने दादी को बताया नहीं?
दादी : ये क्या कह रहा है आशु? और ये तुझे आशु क्यों कह रहा है?
बेहद गुस्से में अपनी दोनों बातें कहीं उन्होंने जिसपर अस्मिता मासूम सा चेहरा बनाकर मेरी ओर देखने लगी। जैसे कह रही हो कि, मैं उसे क्यों फंसा रहा हूं।
मैं : अब यहीं खड़ी रहोगी तो खाना कैसे बनाओगी आशु? चलो जल्दी करो, देख रही हो ना, दादी को कितनी भूख लग रही है?
मैंने अस्मिता को आंखों के इशारे से बाहर जाने को कहा तो वो कुछ सोचकर बाहर की तरफ चल दी। इधर दादी उसे आवाज़ लगाती रही पर वो... खैर, मैंने एक पल दादी की तरफ देखा और फिर चलकर उनके पैरों के नजदीक ज़मीन पर ही बैठ गया। वो एक पहियेदार कुर्सी पर बैठी थीं, आज पहली बार मैं उनके पांव के पास बैठा था, और इसी वजह से अचानक ही उनके चेहरे के भाव बदल गए।
मैं : आप आशु से बहुत प्यार करती हो ना दादी?
उन्होंने कोई जवाब नही दिया, बस मुझे हैरानी से देखती रहीं। मैंने उनके दाएं हाथ को अपने हाथों में पकड़ लिया,
मैं : और इसीलिए आप मुझपर गुस्सा करती हो कि कहीं मैं भी और लड़कों की तरह आपकी पोती को बुरी नज़र से ना देखता होऊं।
दादी ने अचानक ही मेरे सर पर हाथ रख दिया,
दादी : ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं। दुनिया देखी है इस बुढ़िया की आंखों ने, अच्छे – बुरे की परख है मुझे। अगर तुम्हारी नज़र मेरी पोती पर वैसी ही होती जैसी आज कल के लड़कों की होती है तो हर रोज़ तेरे भरोसे उसे कालेज नही भेजती। तुझे क्या लगता है, मैं नही पढ़ पाई हूं तेरी आंखों को, जो उनमें मेरी आशु के लिए है उसे? मैंने कहा ना विवान, इन आंखों ने दुनिया देखी है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी तू यहां मेरे घर में है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी आशु को कभी मना नही करती तेरे साथ कालेज जाने से। बाकी रही बात गुस्से की, तो उसकी वजह जानता है तू, और वो गुस्सा कभी कम नहीं होने वाला, हां।
पूरी बात जिस प्रेम और भावना से कही उन्होंने, खासकर जिस “विश्वास" की बात उन्होंने की, मेरी आंखों में नमी उतरने लगी। पर तभी अपनी कमीज़ के किनारों से अपनी आंखों को पोंछ मैंने मुस्कुराकर कहा,
मैं : उस बात के लिए कितनी बार तो माफी मांग चुका हूं मैं आपसे।
दादी : पर मैंने तो माफ नही किया है।
अभी मैं आगे कुछ कहता उससे पहले ही मुझे हल्की सी सुबकने की आवाज़ सुनाई दी। जिसका कारण मैं भली – भांति समझ गया था, मैंने दादी की तरफ देखा तो उन्होंने प्रथम बार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और हां में सर हिला दिया। मैं बिना कोई आवाज़ किए अपनी जगह से उठा और धीमे कदमों से चलकर कमरे के दरवाज़े के नज़दीक खड़ा हो गया। मेरा अंदेशा सही ही था, वहीं दरवाज़े की ओट में खड़ी अस्मिता अपने मुंह पर हाथ रखे सुबक रही थी। शायद वो हमारी बातें ही सुन रही होगी। जैसे ही उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वो रोते हुए भी मुस्कुरा दी और अपनी आंखों को पोंछकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। तभी, “मुस्कुराते हुए भी अच्छी लगती हो तुम"!
इस बार वो पलटी और मुस्कुराते हुए,
अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...
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