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Incest प्रेम बंधन

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L.king

जलना नही मुझसे नही तो मेरी DP देखलो।
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अध्याय – 2


“विवान "...

स्नेहा से बात करने के पश्चात मैं काफी अच्छा महसूस कर रहा था और सुबह से ही जो उदासी और द्वंद्व मेरे भीतर चल रहे थे उनसे मुझे कुछ राहत भी मिल गई थी। नाश्ता करने का फिलहाल मेरा मन नहीं था, इसीलिए अपनी कुछ किताबें लेकर मैं बाहर आ गया। मेरा मकान कुछ डेढ़ सौ गज के क्षेत्र में बना था और उसके चारों ओर लगभग पांच फीट ऊंची चारदीवारी की हुई थी। दरवाज़े को खोलते ही बाहर बैठने के लिए एक कुर्सी भी रखी हुई थी जिस से दस – पंद्रह कदम आगे मकान की चारदीवारी के बीच एक लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था। मैं बाहर आकर उसी कुर्सी पर अपनी किताब में नज़रें गड़ाकर बैठ गया। अभी मुझे अध्ययन करते हुए कुछ ही पल हुए थे कि किसीके द्वारा मेरा नाम पुकारे जाने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी। इस स्वर से मैं भली – भांति परिचित था, इसीलिए बिना उस आवाज़ की दिशा में देखे, मेरे होंठों पर एक मुस्कान नाच उठी।

मैंने वो किताब वहीं कुर्सी पर रखी और उस दिशा में देखा। स्वतः ही मेरे होंठों की वो मुस्कान कुछ और भी गहरा गई। मैं मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ता हुआ दीवार के पास जाकर खड़ा हो गया। दीवार के उस ओर शायद दुनिया की सबसे खूबसूरत कलाकृतियों में से एक मौजूद थी। हल्के गुलाबी रंग का सलवार कमीज़, कानों में छोटे – छोटे मोरपंखी झुमके और बाएं कान के करीब से लटक रही उसके बालों की वो लट, शायद आज वो मेरा कत्ल करने का निश्चय कर आई थी। बूंदा – बांदी अब थम चुकी थी, शुक्र है कि तेज़ बरसात नही हुई परंतु मौसम में ठंडक अभी भी बनी हुई थी, जो उसकी मौजूदगी को और भी खास बना रही थी। मैंने अपनी दोनो बाजुओं को मोड़कर उस दीवार पर रख दिया और बीच में अपना सर रख उसके चेहरे को देखने लगा। इस बीच मुझे एक टक देख रही उस परी की आंखों में लज्जा उभरते हुए मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा था। पर कुछ न कहकर मैं बस उसकी आखों में झांकते हुए मुस्कुराने लगा।

तभी, उसने अपने बाएं हाथ की अंगुलियों से उस कहर ढाती लट को अपने कान के पीछे कर दिया। उसी क्षण मैंने उसकी आंखों में ही झांकते हुए हल्के से ना में सर हिला दिया। जिसपर उसने अपनी बौहें हल्की सी उठाते हुए प्रश्नजनक निगाहों से मुझे देखा। मैंने बिना हिचकिचाए अपने हाथ को धीमे से आगे बढ़ाकर वापस से उस लट को उसके कान के पीछे से हटा आगे की ओर कर दिया। पहली बार मेरे मुख से शब्द निकले, “ऐसे अच्छी लगती हो"!

जैसे ही मेरी अंगुलियों का हल्का सा स्पर्श उसके बाएं गाल के किनारे पर हुआ उसकी आंखें एक पल को बोझिल सी हो गई और अगले ही पल मेरी अंगुलियों की क्रिया ने उसे बेशक अचंभित कर दिया। किंतु अगले ही पल मेरे मुख से निकले शब्दों के चलते लज्जा वश उसकी नज़रें झुक गई और गालों पर लाली आने लगी। कुछ पलों के लिए मैं शांत ही रहा और वो चोरी चोरी मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही। तभी,

मैं : आशु...

[ अस्मिता शर्मा {आशु} (आयु : 21 वर्ष) : मेरे मकान के बिल्कुल बगल में बना घर इसका ही है। घर में केवल ये और इसकी दादी ही रहते हैं। अस्मिता के माता – पिता की मृत्यु आज से पंद्रह बरस पहले हो गई थी, अर्थात जब वो मात्र 6 वर्ष की थी तब एक सड़क दुर्घटना में उन दोनों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। उसी दुर्घटना में अस्मिता की दादी को भी गहरी चोटें आई थीं जिसके कारण आज वो अपने पैरों पर खड़ी भी नही हो पाती। अस्मिता के लिए उसकी दादी ही उसका संसार थी और हैं भी परंतु आज से तीन वर्ष पूर्व इसके संसार में एक नाम और जुड़ गया था और ऐसा जुड़ा की अस्मिता शायद खुद को ही भुला बैठी। मेरे साथ, मेरी ही कॉलेज और कक्षा में पढ़ती है। जितनी खूबसूरत ये सूरत से है उतनी ही सुंदर इसकी सीरत है। छोटे बच्चों और जानवरों से भी खास लगाव है इसे। ]

मैंने जैसे ही उसे “आशु" कहकर पुकारा तो एक दम से नज़रें उठाकर उसने मेरी और देखा। उसकी दादी उसे आशु कहकर ही पुकारती थीं जबकि मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता था। परंतु एक बार उसने खुद ही मुझसे कहा था कि उसे आशु कहकर पुकारा जाना ज़्यादा पसंद है। खैर, वो एक अलग किस्सा है। परंतु, उसके बाद भी मैं कम ही उसे इस नाम से पुकारता था, इसके भी दो कारण थे। पहला, कहीं न कहीं उसका पूर्ण नाम मुझे बहुत भाता था और दूसरा, उसका वो चेहरा, जब मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता तो उसके चेहरे पर आए नाराजगी के भाव मेरे दिल के तार छेड़ दिया करते। खैर, आज एकांकी अपने लिए मेरी ओर से ये संबोधन सुन उसके चेहरे पर स्वतः ही अचंभे और खुशी के भाव आ गए।

अस्मिता : फिर से कहना।

मैं (मुस्कुराकर) : क्या?

अस्मिता : विवान..

भोला सा चेहरा बनाते हुए कहा उसने जिसपर मैंने उसकी नाक को हल्के से खींच दिया और,

मैं : तू कितने साल की है आशु?

पुनः वही संबोधन सुन जहां उसकी खुशी बढ़ गई वहीं मेरे सवाल पर नासमझी के भाव उसके चेहरे पर उभर आए। पर तभी,

अस्मिता : लड़कियों से उनकी उम्र नही पूछते बुद्धू!

विवान : बता ना, मुझसे क्या छुपाना।

अस्मिता ने एक पल मुझे देखा और फिर, “21.. क्यों"?

मैं : लेकिन तेरी बातें पांच साल की बच्ची जैसी हैं। बड़ी हो जा वरना कोई शादी भी नही करेगा तुझसे, कहे देता हूं।

अस्मिता : मैं जिससे शादी करूंगी वो मुझे ना बोल ही नहीं सकता।

मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत से कहा उसने जिसपर,

मैं : कौन है वो बद.. मेरा मतलब खुशकिस्मत?

अस्मिता ने एक पल मुझे घूरा और जैसे ही वो कुछ जवाब देती, उससे पहले ही उसकी दादी द्वारा उसे पुकारने की आवाज़ आ गई। वो दो पल मुझे देखती रही और जैसे ही पलटकर जाने को हुई, तभी,

मैं : गुलाबी रंग जंचता है तुझ पर।

अचानक ही उसके कदम वहीं जम से गए परंतु वो पलटी नही, बस अगले ही पल तेज़ कदमों से अपने घर की तरफ चल दी। मैं वहीं खड़ा उसे जाते देखने लगा और जब उसका अक्स भी उसके घर के अंदर, मेरी नज़रों की सीमा से दूर निकल गया, तब भी मैं वहीं खड़ा रहा। जाने क्या जादू था उस लड़की में, जब भी पास होती तो दूर लगती, और जब दूर होती तो उसकी खुशबू अपने सबसे करीब लगती। खैर, कुछ देर मैं वहीं खड़ा अस्मिता के बारे में सोचता रहा और फिर वापिस उस कुर्सी की तरफ बढ़ गया।


“भाईसाहब, आप मेरी बात नही समझ रहे हैं, ये हमारे लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है"।

एक बड़े से कमरे में जहां एक शख्स आरामदायक कुर्सी पर बैठा था तो वहीं एक और व्यक्ति उसके समक्ष हाथ बांधे खड़ा था। उसने ही ये शब्द बैठे हुए शख्स से कहे थे जिसपर,

“मुझसे ज़्यादा खतरनाक कुछ नही है, जानते हो ना"।

“ज.. जी भाईसाहब, प.. पर वो, अगर वो यहां पहुंच गया तो"?

“तो वो भी मरेगा। इस बार.. इस बार वही होगा जो मैं चाहता हूं। बहुत हो गया ये नाटक,अब खेल खत्म करने का वक्त आ गया है"।

“आप क्या करने वाले हैं"?

“कहा ना मैंने, अब खेल पूरी तरह से खत्म होगा। दुश्मनी खत्म करने का सिर्फ एक ही तरीका होता है, अपने दुश्मन को खत्म कर दो"।

“म.. मतलब"?

“मतलब वही जो तू सोच रहा है। जितना भी हिसाब बाकी है, सब लिख ले। जल्दी ही सूत समेत वसूलने वाला हूं मैं"।

जितनी रौबदार उस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की आवाज़ थी, उतना ही संजीदा उसका चेहरा दिखाई पड़ रहा था। दूसरा शख्स आगे कुछ कहने को हुआ पर तभी उसने अपना हाथ दिखाकर उसे रोक दिया। एक पल को वो शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठा रहा और फिर अपने सामने रखी एक डिब्बी, जोकि किसी धातु से बनी थी, उसे उठाकर, उसमें से एक महंगी सिगार निकाल अपने मुंह से लगा ली। एक बार हल्की सी नजर उठाकर उसने अपने सामने खड़े उस शख्स को देखा और वो हड़बड़ाकर कुर्सी की ओर बढ़ चला। उसने अपने कांपते हुए हाथों में पकड़े हुए लाइटर से उस सिगार को सुलगाया और फिर कुछ कदम पीछे होकर खड़ा हो गया। फिलहाल उसकी श्वास असामान्य हो चुकी थी, नतीजतन माथे और चेहरे पर पसीना उभरने लगा था। कुर्सी पर बैठे उस व्यक्ति ने इसकी तरफ देखा और एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई।

उस मुस्कान को देखकर ये हड़बड़ा गया और अपनी जेब से रुमाल निकलकर अपने चेहरे को पोंछने लगा। तभी,

“अशफ़ाक को फोन कर"।

अभी वो रुमाल जेब में रखने ही वाला था कि ये शब्द सुनकर उसके हाथ से रुमाल छिटक कर नीचे गिर गया। वो आंखें फाड़े कुर्सी पर बैठे इस आदमी को देखने लगा और फिर बड़ी मुश्किल से उसने अपने कंठ से ये शब्द निकाले,

“अ.. अशफ़ाक"!?

“मुझे अपनी बातें दोहराने की आदत नही है, और तुम ये अच्छी तरह जानते हो"।

“प.. पर"...

बस एक बार जलती हुई निगाहों से उसने इसकी तरफ देखा और आगे के शब्दों ने इसके कंठ में ही प्राण त्याग दिए। अपने और अधिक कांप रहे हाथों से इसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और जल्दी – जल्दी उसपर अंगुलियां चलाने लगा। कुछ देर बाद वो कुर्सी के नज़दीक हाथ में मोबाइल पकड़े खड़ा था, और उसकी सहमी सी नज़रें कुर्सी पर बैठे उस शख्स पर ही जमी हुई थी। तभी मोबाइल से एक स्वर उत्पन्न हुआ, “कहो, रणवीर बाबू आज कैसे याद किया"। शायद मोबाइल फोन स्पीकर पर था, इसीलिए कुर्सी पर बैठे उस शख्स के कानों तक भी ये स्वर पहुंच गया।

रणवीर (फोन पर) : भाईसाहब तुमसे बात करेंगे अशफ़ाक।

जैसे ही रणवीर ने ये शब्द कहे, फोन के उस ओर से कुछ गिरने की आवाज़ उत्पन्न हुई जिसका कारण ये दोनो ही समझ गए थे। नतीजतन, उस कुर्सी पर बैठे शख्स के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान ने अपनी जगह बना ली। खैर, उसने रणवीर के हाथों में ही फोन रहने दिया और बोला,

“एक काम है तुम्हारे लिए अशफ़ाक"।

अशफ़ाक (फोन पर) : ज.. जी मालिक हुकुम कीजिए।

“अगले हफ्ते 10 तारीख को, मुझे उन सभी की लाशें चाहिए। सबकी"।

अशफ़ाक : अ.. आप किसकी बात कर रहें हैं मालिक?

उस शख्स ने इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस अपनी अंगुलियों में पकड़ी उस सिगार, जो अब समाप्त हो चुकी थी, उसे वहीं रखे एक छोटे से बक्से में रख दिया। इस खामोशी से जहां रणवीर के पसीने छूट रहे थे वहीं फोन पर अशफ़ाक की तीव्र होती श्वास उसकी घबराहट की भी गवाही दे रही थी। तभी,

अशफाक : समझ गया मालिक.. समझ गया। प.. पर...

उसकी बात को काटकर,

“वो यहां नही आने वाला अशफ़ाक और इस बार अगर कोई भी चूक हुई तो..."

उस शख्स ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।

अशफ़ाक : नहीं मालिक कोई गलती नहीं होगी। अगर हो तो मैं...

फिर उसकी बात को काटकर,

“अगर हुई!? सोच भी मत अशफ़ाक, क्योंकि इस अगर के सत्य में बदलते ही तेरी ज़िंदगी मौत में बदल जाएगी"!

इतना कहते ही उसने रणवीर को घूरा और रणवीर ने भी फटाफट फोन काट दिया।


*खट ~ खट ~ खट*...

रात का वक्त था, चांद बखूबी अपनी चांदनी बिखेर रहा था और आज भोर से ही लगातार, थोड़े – थोड़े अंतराल पर चली आ रही धीमी बरसात के कारण मौसम बड़ा सुहावना सा हो चुका था। मैं इस समय एक घर के दरवाज़े पर खड़ा उसपर दस्तक दे रहा था कि तभी मुझे अंदर से आती कदमों की आहट सुनाई दी। फलस्वरूप, मैंने अपने हाथों की क्रिया को रोक दिया। जैसे ही दरवाज़ा खुला एक साथ ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। पहली, मेरे सामने खड़ी अस्मिता को देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, वहीं अस्मिता मुझे देखकर प्रसन्न और हैरान, दोनों ही हो गई। हैरानी का कारण जल्दी ही पता चल जाएगा, और प्रसन्नता का बताने की आवश्यकता है?

अस्मिता : विवान! तुम यहां?

मैं (मुस्कुराकर) : क्यों? नही आ सकता?

अस्मिता : नहीं – नहीं.. हां.. मेरा मतलब दादी गुस्सा होंगी।

मैं : तो क्या हुआ? उनका गुस्सा देखकर मुझे तो बड़ा मज़ा आता है।

अस्मिता : गुस्सा देखकर मज़ा?

मैं : अपनों की मार दुलार के ही समान लगती है अस्मिता।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : दादी तुम्हारी अपनी हैं?

मैं : जो तुम्हारे जितने करीब है, वो उतने ही नजदीक मेरे भी है।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : वो कैसे?

मैं : तुम भी तो मेरी ही...

मैं अपनी बात भी पूरी नही कर पाया था कि तभी अंदर से अस्मिता की दादी की आवाज़ आई, “कौन है आशु"? इधर अस्मिता मेरी बात को समझकर जहां शर्मा गई थी वहीं उसकी दादी की अचानक ही आवाज़ से मेरे मुंह से स्वयं ही निकल गया,

मैं : कबाब में हड्डी।

अस्मिता (घूरते हुए) : क्या कहा तुमने?

मैंने उसी बात का कोई जवाब नही दिया और बिना कुछ कहे अंदर आ गया। मैं उसकी दादी के कमरे की तरफ बढ़ ही रहा था की तभी अचानक ही मुझे कुछ स्मरण हुआ और मैं वापिस पीछे की तरफ पलटा। अस्मिता जोकि दरवाज़ा लगा रही थी वो भी उसी पल मेरी और मुड़ी और अचानक से ही हड़बड़ा गई। पर मैंने बिना कुछ कहे उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और अपनी अंगुलियों से एक बार फिर उसके कान के पीछे अटकी उस ज़ुल्फ को आगे उसके चेहरे पर कर दिया।

मैं : कहा था ना कि ऐसे अच्छी लगती है तू।

इतना कहकर मैं पलट गया और अस्मिता की दादी के कमरे की ओर अपना रुख कर लिया। मैंने अस्मिता की प्रतिक्रिया नही देखी थी परंतु मैं जानता था कि वो जड़वत सी खड़ी मुझे ही ताक रही थी।

“कैसी हो दादी"?

मैं जैसे ही अस्मिता की दादी के कमरे में पहुंचा तो उनकी नजर सीधा मुझपर ही पड़ी और एकाएक उनके चेहरे पर गुस्से के भाव आ गए। उसके उपरांत मेरे द्वारा किए गए सवाल पर,

दादी : तू यहां क्या कर रहा है?

मैं : आराम से दादी, धीरे बोलो, मैं बराबर सुन सकता हूं।

दादी : अस्मिता.. ए अस्मिता..

मुझे घूरते हुए उन्होंने तेज़ आवाज़ में अस्मिता को पुकारा तो अगले ही पल अस्मिता भी मेरे पास ही आकर खड़ी हो गई। कुछ असमंजस में फंसी लग रही थी वो।

दादी : ये यहां क्यों आया है आशु?

अस्मिता : वो.. दादी.. वो..

मैं : अरे दादी, इसने ही तो मुझे बुलाया है खाने पर।

जहां मेरी बात सुनकर अस्मिता मुंह फाड़े मेरी ओर देखने लगी वहीं दादी अब अस्मिता को घूरने लगी थी।

मैं : आशु.. तुमने दादी को बताया नहीं?

दादी : ये क्या कह रहा है आशु? और ये तुझे आशु क्यों कह रहा है?

बेहद गुस्से में अपनी दोनों बातें कहीं उन्होंने जिसपर अस्मिता मासूम सा चेहरा बनाकर मेरी ओर देखने लगी। जैसे कह रही हो कि, मैं उसे क्यों फंसा रहा हूं।

मैं : अब यहीं खड़ी रहोगी तो खाना कैसे बनाओगी आशु? चलो जल्दी करो, देख रही हो ना, दादी को कितनी भूख लग रही है?

मैंने अस्मिता को आंखों के इशारे से बाहर जाने को कहा तो वो कुछ सोचकर बाहर की तरफ चल दी। इधर दादी उसे आवाज़ लगाती रही पर वो... खैर, मैंने एक पल दादी की तरफ देखा और फिर चलकर उनके पैरों के नजदीक ज़मीन पर ही बैठ गया। वो एक पहियेदार कुर्सी पर बैठी थीं, आज पहली बार मैं उनके पांव के पास बैठा था, और इसी वजह से अचानक ही उनके चेहरे के भाव बदल गए।

मैं : आप आशु से बहुत प्यार करती हो ना दादी?

उन्होंने कोई जवाब नही दिया, बस मुझे हैरानी से देखती रहीं। मैंने उनके दाएं हाथ को अपने हाथों में पकड़ लिया,

मैं : और इसीलिए आप मुझपर गुस्सा करती हो कि कहीं मैं भी और लड़कों की तरह आपकी पोती को बुरी नज़र से ना देखता होऊं।

दादी ने अचानक ही मेरे सर पर हाथ रख दिया,

दादी : ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं। दुनिया देखी है इस बुढ़िया की आंखों ने, अच्छे – बुरे की परख है मुझे। अगर तुम्हारी नज़र मेरी पोती पर वैसी ही होती जैसी आज कल के लड़कों की होती है तो हर रोज़ तेरे भरोसे उसे कालेज नही भेजती। तुझे क्या लगता है, मैं नही पढ़ पाई हूं तेरी आंखों को, जो उनमें मेरी आशु के लिए है उसे? मैंने कहा ना विवान, इन आंखों ने दुनिया देखी है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी तू यहां मेरे घर में है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी आशु को कभी मना नही करती तेरे साथ कालेज जाने से। बाकी रही बात गुस्से की, तो उसकी वजह जानता है तू, और वो गुस्सा कभी कम नहीं होने वाला, हां।

पूरी बात जिस प्रेम और भावना से कही उन्होंने, खासकर जिस “विश्वास" की बात उन्होंने की, मेरी आंखों में नमी उतरने लगी। पर तभी अपनी कमीज़ के किनारों से अपनी आंखों को पोंछ मैंने मुस्कुराकर कहा,

मैं : उस बात के लिए कितनी बार तो माफी मांग चुका हूं मैं आपसे।

दादी : पर मैंने तो माफ नही किया है।

अभी मैं आगे कुछ कहता उससे पहले ही मुझे हल्की सी सुबकने की आवाज़ सुनाई दी। जिसका कारण मैं भली – भांति समझ गया था, मैंने दादी की तरफ देखा तो उन्होंने प्रथम बार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और हां में सर हिला दिया। मैं बिना कोई आवाज़ किए अपनी जगह से उठा और धीमे कदमों से चलकर कमरे के दरवाज़े के नज़दीक खड़ा हो गया। मेरा अंदेशा सही ही था, वहीं दरवाज़े की ओट में खड़ी अस्मिता अपने मुंह पर हाथ रखे सुबक रही थी। शायद वो हमारी बातें ही सुन रही होगी। जैसे ही उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वो रोते हुए भी मुस्कुरा दी और अपनी आंखों को पोंछकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। तभी, “मुस्कुराते हुए भी अच्छी लगती हो तुम"!

इस बार वो पलटी और मुस्कुराते हुए,

अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...


X––––––––––X
आपके लेखनी कमाल की है जिसमे चार चांद आपके द्वारा उपयोग किया गया लेखनी की भाषा है। इस अपडेट में आपने प्रेम की एक झलक दिखाया है, साथ में ही विश्वास का भी जिसके कारण आपके द्वारा लिखी गई यह कहानी को आगे पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है अब प्रतीक्षा है अगले अपडेट की जिसमे आशु और विवान का प्रेम लीला देखने को मिलेगा............................................
 

Kala Nag

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भाई आपकी दोनों अपडेट्स पढ़े
दिल को छू गई
अब मुझे भी अपने पाठकों में गिने
साधुवाद एक
भावनात्मक कहानियाँ हमेशा से मेरी पसंदीदा रहीं हैं और आपके द्वारा प्रस्तुत दोनों ही अपडेटस बहुत ही भावनात्मक रूप से दिल को छू गए हैं
 

parkas

Well-Known Member
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अध्याय – 2


“विवान "...

स्नेहा से बात करने के पश्चात मैं काफी अच्छा महसूस कर रहा था और सुबह से ही जो उदासी और द्वंद्व मेरे भीतर चल रहे थे उनसे मुझे कुछ राहत भी मिल गई थी। नाश्ता करने का फिलहाल मेरा मन नहीं था, इसीलिए अपनी कुछ किताबें लेकर मैं बाहर आ गया। मेरा मकान कुछ डेढ़ सौ गज के क्षेत्र में बना था और उसके चारों ओर लगभग पांच फीट ऊंची चारदीवारी की हुई थी। दरवाज़े को खोलते ही बाहर बैठने के लिए एक कुर्सी भी रखी हुई थी जिस से दस – पंद्रह कदम आगे मकान की चारदीवारी के बीच एक लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था। मैं बाहर आकर उसी कुर्सी पर अपनी किताब में नज़रें गड़ाकर बैठ गया। अभी मुझे अध्ययन करते हुए कुछ ही पल हुए थे कि किसीके द्वारा मेरा नाम पुकारे जाने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी। इस स्वर से मैं भली – भांति परिचित था, इसीलिए बिना उस आवाज़ की दिशा में देखे, मेरे होंठों पर एक मुस्कान नाच उठी।

मैंने वो किताब वहीं कुर्सी पर रखी और उस दिशा में देखा। स्वतः ही मेरे होंठों की वो मुस्कान कुछ और भी गहरा गई। मैं मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ता हुआ दीवार के पास जाकर खड़ा हो गया। दीवार के उस ओर शायद दुनिया की सबसे खूबसूरत कलाकृतियों में से एक मौजूद थी। हल्के गुलाबी रंग का सलवार कमीज़, कानों में छोटे – छोटे मोरपंखी झुमके और बाएं कान के करीब से लटक रही उसके बालों की वो लट, शायद आज वो मेरा कत्ल करने का निश्चय कर आई थी। बूंदा – बांदी अब थम चुकी थी, शुक्र है कि तेज़ बरसात नही हुई परंतु मौसम में ठंडक अभी भी बनी हुई थी, जो उसकी मौजूदगी को और भी खास बना रही थी। मैंने अपनी दोनो बाजुओं को मोड़कर उस दीवार पर रख दिया और बीच में अपना सर रख उसके चेहरे को देखने लगा। इस बीच मुझे एक टक देख रही उस परी की आंखों में लज्जा उभरते हुए मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा था। पर कुछ न कहकर मैं बस उसकी आखों में झांकते हुए मुस्कुराने लगा।

तभी, उसने अपने बाएं हाथ की अंगुलियों से उस कहर ढाती लट को अपने कान के पीछे कर दिया। उसी क्षण मैंने उसकी आंखों में ही झांकते हुए हल्के से ना में सर हिला दिया। जिसपर उसने अपनी बौहें हल्की सी उठाते हुए प्रश्नजनक निगाहों से मुझे देखा। मैंने बिना हिचकिचाए अपने हाथ को धीमे से आगे बढ़ाकर वापस से उस लट को उसके कान के पीछे से हटा आगे की ओर कर दिया। पहली बार मेरे मुख से शब्द निकले, “ऐसे अच्छी लगती हो"!

जैसे ही मेरी अंगुलियों का हल्का सा स्पर्श उसके बाएं गाल के किनारे पर हुआ उसकी आंखें एक पल को बोझिल सी हो गई और अगले ही पल मेरी अंगुलियों की क्रिया ने उसे बेशक अचंभित कर दिया। किंतु अगले ही पल मेरे मुख से निकले शब्दों के चलते लज्जा वश उसकी नज़रें झुक गई और गालों पर लाली आने लगी। कुछ पलों के लिए मैं शांत ही रहा और वो चोरी चोरी मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही। तभी,

मैं : आशु...

[ अस्मिता शर्मा {आशु} (आयु : 21 वर्ष) : मेरे मकान के बिल्कुल बगल में बना घर इसका ही है। घर में केवल ये और इसकी दादी ही रहते हैं। अस्मिता के माता – पिता की मृत्यु आज से पंद्रह बरस पहले हो गई थी, अर्थात जब वो मात्र 6 वर्ष की थी तब एक सड़क दुर्घटना में उन दोनों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। उसी दुर्घटना में अस्मिता की दादी को भी गहरी चोटें आई थीं जिसके कारण आज वो अपने पैरों पर खड़ी भी नही हो पाती। अस्मिता के लिए उसकी दादी ही उसका संसार थी और हैं भी परंतु आज से तीन वर्ष पूर्व इसके संसार में एक नाम और जुड़ गया था और ऐसा जुड़ा की अस्मिता शायद खुद को ही भुला बैठी। मेरे साथ, मेरी ही कॉलेज और कक्षा में पढ़ती है। जितनी खूबसूरत ये सूरत से है उतनी ही सुंदर इसकी सीरत है। छोटे बच्चों और जानवरों से भी खास लगाव है इसे। ]

मैंने जैसे ही उसे “आशु" कहकर पुकारा तो एक दम से नज़रें उठाकर उसने मेरी और देखा। उसकी दादी उसे आशु कहकर ही पुकारती थीं जबकि मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता था। परंतु एक बार उसने खुद ही मुझसे कहा था कि उसे आशु कहकर पुकारा जाना ज़्यादा पसंद है। खैर, वो एक अलग किस्सा है। परंतु, उसके बाद भी मैं कम ही उसे इस नाम से पुकारता था, इसके भी दो कारण थे। पहला, कहीं न कहीं उसका पूर्ण नाम मुझे बहुत भाता था और दूसरा, उसका वो चेहरा, जब मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता तो उसके चेहरे पर आए नाराजगी के भाव मेरे दिल के तार छेड़ दिया करते। खैर, आज एकांकी अपने लिए मेरी ओर से ये संबोधन सुन उसके चेहरे पर स्वतः ही अचंभे और खुशी के भाव आ गए।

अस्मिता : फिर से कहना।

मैं (मुस्कुराकर) : क्या?

अस्मिता : विवान..

भोला सा चेहरा बनाते हुए कहा उसने जिसपर मैंने उसकी नाक को हल्के से खींच दिया और,

मैं : तू कितने साल की है आशु?

पुनः वही संबोधन सुन जहां उसकी खुशी बढ़ गई वहीं मेरे सवाल पर नासमझी के भाव उसके चेहरे पर उभर आए। पर तभी,

अस्मिता : लड़कियों से उनकी उम्र नही पूछते बुद्धू!

विवान : बता ना, मुझसे क्या छुपाना।

अस्मिता ने एक पल मुझे देखा और फिर, “21.. क्यों"?

मैं : लेकिन तेरी बातें पांच साल की बच्ची जैसी हैं। बड़ी हो जा वरना कोई शादी भी नही करेगा तुझसे, कहे देता हूं।

अस्मिता : मैं जिससे शादी करूंगी वो मुझे ना बोल ही नहीं सकता।

मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत से कहा उसने जिसपर,

मैं : कौन है वो बद.. मेरा मतलब खुशकिस्मत?

अस्मिता ने एक पल मुझे घूरा और जैसे ही वो कुछ जवाब देती, उससे पहले ही उसकी दादी द्वारा उसे पुकारने की आवाज़ आ गई। वो दो पल मुझे देखती रही और जैसे ही पलटकर जाने को हुई, तभी,

मैं : गुलाबी रंग जंचता है तुझ पर।

अचानक ही उसके कदम वहीं जम से गए परंतु वो पलटी नही, बस अगले ही पल तेज़ कदमों से अपने घर की तरफ चल दी। मैं वहीं खड़ा उसे जाते देखने लगा और जब उसका अक्स भी उसके घर के अंदर, मेरी नज़रों की सीमा से दूर निकल गया, तब भी मैं वहीं खड़ा रहा। जाने क्या जादू था उस लड़की में, जब भी पास होती तो दूर लगती, और जब दूर होती तो उसकी खुशबू अपने सबसे करीब लगती। खैर, कुछ देर मैं वहीं खड़ा अस्मिता के बारे में सोचता रहा और फिर वापिस उस कुर्सी की तरफ बढ़ गया।


“भाईसाहब, आप मेरी बात नही समझ रहे हैं, ये हमारे लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है"।

एक बड़े से कमरे में जहां एक शख्स आरामदायक कुर्सी पर बैठा था तो वहीं एक और व्यक्ति उसके समक्ष हाथ बांधे खड़ा था। उसने ही ये शब्द बैठे हुए शख्स से कहे थे जिसपर,

“मुझसे ज़्यादा खतरनाक कुछ नही है, जानते हो ना"।

“ज.. जी भाईसाहब, प.. पर वो, अगर वो यहां पहुंच गया तो"?

“तो वो भी मरेगा। इस बार.. इस बार वही होगा जो मैं चाहता हूं। बहुत हो गया ये नाटक,अब खेल खत्म करने का वक्त आ गया है"।

“आप क्या करने वाले हैं"?

“कहा ना मैंने, अब खेल पूरी तरह से खत्म होगा। दुश्मनी खत्म करने का सिर्फ एक ही तरीका होता है, अपने दुश्मन को खत्म कर दो"।

“म.. मतलब"?

“मतलब वही जो तू सोच रहा है। जितना भी हिसाब बाकी है, सब लिख ले। जल्दी ही सूत समेत वसूलने वाला हूं मैं"।

जितनी रौबदार उस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की आवाज़ थी, उतना ही संजीदा उसका चेहरा दिखाई पड़ रहा था। दूसरा शख्स आगे कुछ कहने को हुआ पर तभी उसने अपना हाथ दिखाकर उसे रोक दिया। एक पल को वो शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठा रहा और फिर अपने सामने रखी एक डिब्बी, जोकि किसी धातु से बनी थी, उसे उठाकर, उसमें से एक महंगी सिगार निकाल अपने मुंह से लगा ली। एक बार हल्की सी नजर उठाकर उसने अपने सामने खड़े उस शख्स को देखा और वो हड़बड़ाकर कुर्सी की ओर बढ़ चला। उसने अपने कांपते हुए हाथों में पकड़े हुए लाइटर से उस सिगार को सुलगाया और फिर कुछ कदम पीछे होकर खड़ा हो गया। फिलहाल उसकी श्वास असामान्य हो चुकी थी, नतीजतन माथे और चेहरे पर पसीना उभरने लगा था। कुर्सी पर बैठे उस व्यक्ति ने इसकी तरफ देखा और एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई।

उस मुस्कान को देखकर ये हड़बड़ा गया और अपनी जेब से रुमाल निकलकर अपने चेहरे को पोंछने लगा। तभी,

“अशफ़ाक को फोन कर"।

अभी वो रुमाल जेब में रखने ही वाला था कि ये शब्द सुनकर उसके हाथ से रुमाल छिटक कर नीचे गिर गया। वो आंखें फाड़े कुर्सी पर बैठे इस आदमी को देखने लगा और फिर बड़ी मुश्किल से उसने अपने कंठ से ये शब्द निकाले,

“अ.. अशफ़ाक"!?

“मुझे अपनी बातें दोहराने की आदत नही है, और तुम ये अच्छी तरह जानते हो"।

“प.. पर"...

बस एक बार जलती हुई निगाहों से उसने इसकी तरफ देखा और आगे के शब्दों ने इसके कंठ में ही प्राण त्याग दिए। अपने और अधिक कांप रहे हाथों से इसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और जल्दी – जल्दी उसपर अंगुलियां चलाने लगा। कुछ देर बाद वो कुर्सी के नज़दीक हाथ में मोबाइल पकड़े खड़ा था, और उसकी सहमी सी नज़रें कुर्सी पर बैठे उस शख्स पर ही जमी हुई थी। तभी मोबाइल से एक स्वर उत्पन्न हुआ, “कहो, रणवीर बाबू आज कैसे याद किया"। शायद मोबाइल फोन स्पीकर पर था, इसीलिए कुर्सी पर बैठे उस शख्स के कानों तक भी ये स्वर पहुंच गया।

रणवीर (फोन पर) : भाईसाहब तुमसे बात करेंगे अशफ़ाक।

जैसे ही रणवीर ने ये शब्द कहे, फोन के उस ओर से कुछ गिरने की आवाज़ उत्पन्न हुई जिसका कारण ये दोनो ही समझ गए थे। नतीजतन, उस कुर्सी पर बैठे शख्स के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान ने अपनी जगह बना ली। खैर, उसने रणवीर के हाथों में ही फोन रहने दिया और बोला,

“एक काम है तुम्हारे लिए अशफ़ाक"।

अशफ़ाक (फोन पर) : ज.. जी मालिक हुकुम कीजिए।

“अगले हफ्ते 10 तारीख को, मुझे उन सभी की लाशें चाहिए। सबकी"।

अशफ़ाक : अ.. आप किसकी बात कर रहें हैं मालिक?

उस शख्स ने इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस अपनी अंगुलियों में पकड़ी उस सिगार, जो अब समाप्त हो चुकी थी, उसे वहीं रखे एक छोटे से बक्से में रख दिया। इस खामोशी से जहां रणवीर के पसीने छूट रहे थे वहीं फोन पर अशफ़ाक की तीव्र होती श्वास उसकी घबराहट की भी गवाही दे रही थी। तभी,

अशफाक : समझ गया मालिक.. समझ गया। प.. पर...

उसकी बात को काटकर,

“वो यहां नही आने वाला अशफ़ाक और इस बार अगर कोई भी चूक हुई तो..."

उस शख्स ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।

अशफ़ाक : नहीं मालिक कोई गलती नहीं होगी। अगर हो तो मैं...

फिर उसकी बात को काटकर,

“अगर हुई!? सोच भी मत अशफ़ाक, क्योंकि इस अगर के सत्य में बदलते ही तेरी ज़िंदगी मौत में बदल जाएगी"!

इतना कहते ही उसने रणवीर को घूरा और रणवीर ने भी फटाफट फोन काट दिया।


*खट ~ खट ~ खट*...

रात का वक्त था, चांद बखूबी अपनी चांदनी बिखेर रहा था और आज भोर से ही लगातार, थोड़े – थोड़े अंतराल पर चली आ रही धीमी बरसात के कारण मौसम बड़ा सुहावना सा हो चुका था। मैं इस समय एक घर के दरवाज़े पर खड़ा उसपर दस्तक दे रहा था कि तभी मुझे अंदर से आती कदमों की आहट सुनाई दी। फलस्वरूप, मैंने अपने हाथों की क्रिया को रोक दिया। जैसे ही दरवाज़ा खुला एक साथ ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। पहली, मेरे सामने खड़ी अस्मिता को देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, वहीं अस्मिता मुझे देखकर प्रसन्न और हैरान, दोनों ही हो गई। हैरानी का कारण जल्दी ही पता चल जाएगा, और प्रसन्नता का बताने की आवश्यकता है?

अस्मिता : विवान! तुम यहां?

मैं (मुस्कुराकर) : क्यों? नही आ सकता?

अस्मिता : नहीं – नहीं.. हां.. मेरा मतलब दादी गुस्सा होंगी।

मैं : तो क्या हुआ? उनका गुस्सा देखकर मुझे तो बड़ा मज़ा आता है।

अस्मिता : गुस्सा देखकर मज़ा?

मैं : अपनों की मार दुलार के ही समान लगती है अस्मिता।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : दादी तुम्हारी अपनी हैं?

मैं : जो तुम्हारे जितने करीब है, वो उतने ही नजदीक मेरे भी है।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : वो कैसे?

मैं : तुम भी तो मेरी ही...

मैं अपनी बात भी पूरी नही कर पाया था कि तभी अंदर से अस्मिता की दादी की आवाज़ आई, “कौन है आशु"? इधर अस्मिता मेरी बात को समझकर जहां शर्मा गई थी वहीं उसकी दादी की अचानक ही आवाज़ से मेरे मुंह से स्वयं ही निकल गया,

मैं : कबाब में हड्डी।

अस्मिता (घूरते हुए) : क्या कहा तुमने?

मैंने उसी बात का कोई जवाब नही दिया और बिना कुछ कहे अंदर आ गया। मैं उसकी दादी के कमरे की तरफ बढ़ ही रहा था की तभी अचानक ही मुझे कुछ स्मरण हुआ और मैं वापिस पीछे की तरफ पलटा। अस्मिता जोकि दरवाज़ा लगा रही थी वो भी उसी पल मेरी और मुड़ी और अचानक से ही हड़बड़ा गई। पर मैंने बिना कुछ कहे उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और अपनी अंगुलियों से एक बार फिर उसके कान के पीछे अटकी उस ज़ुल्फ को आगे उसके चेहरे पर कर दिया।

मैं : कहा था ना कि ऐसे अच्छी लगती है तू।

इतना कहकर मैं पलट गया और अस्मिता की दादी के कमरे की ओर अपना रुख कर लिया। मैंने अस्मिता की प्रतिक्रिया नही देखी थी परंतु मैं जानता था कि वो जड़वत सी खड़ी मुझे ही ताक रही थी।

“कैसी हो दादी"?

मैं जैसे ही अस्मिता की दादी के कमरे में पहुंचा तो उनकी नजर सीधा मुझपर ही पड़ी और एकाएक उनके चेहरे पर गुस्से के भाव आ गए। उसके उपरांत मेरे द्वारा किए गए सवाल पर,

दादी : तू यहां क्या कर रहा है?

मैं : आराम से दादी, धीरे बोलो, मैं बराबर सुन सकता हूं।

दादी : अस्मिता.. ए अस्मिता..

मुझे घूरते हुए उन्होंने तेज़ आवाज़ में अस्मिता को पुकारा तो अगले ही पल अस्मिता भी मेरे पास ही आकर खड़ी हो गई। कुछ असमंजस में फंसी लग रही थी वो।

दादी : ये यहां क्यों आया है आशु?

अस्मिता : वो.. दादी.. वो..

मैं : अरे दादी, इसने ही तो मुझे बुलाया है खाने पर।

जहां मेरी बात सुनकर अस्मिता मुंह फाड़े मेरी ओर देखने लगी वहीं दादी अब अस्मिता को घूरने लगी थी।

मैं : आशु.. तुमने दादी को बताया नहीं?

दादी : ये क्या कह रहा है आशु? और ये तुझे आशु क्यों कह रहा है?

बेहद गुस्से में अपनी दोनों बातें कहीं उन्होंने जिसपर अस्मिता मासूम सा चेहरा बनाकर मेरी ओर देखने लगी। जैसे कह रही हो कि, मैं उसे क्यों फंसा रहा हूं।

मैं : अब यहीं खड़ी रहोगी तो खाना कैसे बनाओगी आशु? चलो जल्दी करो, देख रही हो ना, दादी को कितनी भूख लग रही है?

मैंने अस्मिता को आंखों के इशारे से बाहर जाने को कहा तो वो कुछ सोचकर बाहर की तरफ चल दी। इधर दादी उसे आवाज़ लगाती रही पर वो... खैर, मैंने एक पल दादी की तरफ देखा और फिर चलकर उनके पैरों के नजदीक ज़मीन पर ही बैठ गया। वो एक पहियेदार कुर्सी पर बैठी थीं, आज पहली बार मैं उनके पांव के पास बैठा था, और इसी वजह से अचानक ही उनके चेहरे के भाव बदल गए।

मैं : आप आशु से बहुत प्यार करती हो ना दादी?

उन्होंने कोई जवाब नही दिया, बस मुझे हैरानी से देखती रहीं। मैंने उनके दाएं हाथ को अपने हाथों में पकड़ लिया,

मैं : और इसीलिए आप मुझपर गुस्सा करती हो कि कहीं मैं भी और लड़कों की तरह आपकी पोती को बुरी नज़र से ना देखता होऊं।

दादी ने अचानक ही मेरे सर पर हाथ रख दिया,

दादी : ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं। दुनिया देखी है इस बुढ़िया की आंखों ने, अच्छे – बुरे की परख है मुझे। अगर तुम्हारी नज़र मेरी पोती पर वैसी ही होती जैसी आज कल के लड़कों की होती है तो हर रोज़ तेरे भरोसे उसे कालेज नही भेजती। तुझे क्या लगता है, मैं नही पढ़ पाई हूं तेरी आंखों को, जो उनमें मेरी आशु के लिए है उसे? मैंने कहा ना विवान, इन आंखों ने दुनिया देखी है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी तू यहां मेरे घर में है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी आशु को कभी मना नही करती तेरे साथ कालेज जाने से। बाकी रही बात गुस्से की, तो उसकी वजह जानता है तू, और वो गुस्सा कभी कम नहीं होने वाला, हां।

पूरी बात जिस प्रेम और भावना से कही उन्होंने, खासकर जिस “विश्वास" की बात उन्होंने की, मेरी आंखों में नमी उतरने लगी। पर तभी अपनी कमीज़ के किनारों से अपनी आंखों को पोंछ मैंने मुस्कुराकर कहा,

मैं : उस बात के लिए कितनी बार तो माफी मांग चुका हूं मैं आपसे।

दादी : पर मैंने तो माफ नही किया है।

अभी मैं आगे कुछ कहता उससे पहले ही मुझे हल्की सी सुबकने की आवाज़ सुनाई दी। जिसका कारण मैं भली – भांति समझ गया था, मैंने दादी की तरफ देखा तो उन्होंने प्रथम बार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और हां में सर हिला दिया। मैं बिना कोई आवाज़ किए अपनी जगह से उठा और धीमे कदमों से चलकर कमरे के दरवाज़े के नज़दीक खड़ा हो गया। मेरा अंदेशा सही ही था, वहीं दरवाज़े की ओट में खड़ी अस्मिता अपने मुंह पर हाथ रखे सुबक रही थी। शायद वो हमारी बातें ही सुन रही होगी। जैसे ही उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वो रोते हुए भी मुस्कुरा दी और अपनी आंखों को पोंछकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। तभी, “मुस्कुराते हुए भी अच्छी लगती हो तुम"!

इस बार वो पलटी और मुस्कुराते हुए,

अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...


X––––––––––X
Nice and beautiful update....
 

Ajju Landwalia

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Bhai, Shandar, kaafi dino baad ek achchi jaandar prem kahani padhne ko mili he

Bhai, Gazab ka likh rahe ho aap, keep posting
 

The Sphinx

𝙸𝙽𝚂𝙲𝚁𝚄𝚃𝙰𝙱𝙻𝙴...
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कहानी में सेक्स अपडेट देने से कहानी के अपडेट में बढ़ोतरी होती है न की कहानी में।कहानी में सेक्स तभी डाले जब उसकी आवश्यकता हो फालतू मे ये न करे की हीरो जहां जाए वहा केवल सेक्स ही करे इससे केवल उत्तेजना ही होती है बाकी कहानी का कोई मजा नही आता है। आप अपने हिसाब से कहानी को लिखे क्योंकि कहानी यदि कई लोगो के मंतव्य से लिखी गई तो कहानी का लय बिगाड़ भी सकता है।
............

आपकी कहानी के लिए हमारे तरफ से शूभकमनाए, आशा करते है की कहानी अपने अंतिम अध्याय की यात्रा अवश्य पूरा करेगी..................
स्वागत है भाई आपका कहानी में। मेरी भी इस मामले में यही राय है। बिल्कुल, कहानी की पूर्ण पटकथा, मैने सोच रखी है, इसलिए आगे चलकर कहानी में कोई बदलाव नहीं होगा।
बड़े भाई आपने मेरा दिल जीत लिया इतनी अच्छी शुरुआत करके, आपने एक एक शब्द उसके उपयुक्त जगह पर उपयोग किया है जिससे कहानी को पढ़ने पर मेरा मन ही प्रफुल्लित हो गया आपने वास्तव में ही एक अच्छी कहानी की शुरुआत की है।
आपके लेखनी कमाल की है जिसमे चार चांद आपके द्वारा उपयोग किया गया लेखनी की भाषा है। इस अपडेट में आपने प्रेम की एक झलक दिखाया है, साथ में ही विश्वास का भी जिसके कारण आपके द्वारा लिखी गई यह कहानी को आगे पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है अब प्रतीक्षा है अगले अपडेट की जिसमे आशु और विवान का प्रेम लीला देखने को मिलेगा............................................
प्रसन्नता हुई जानकर कि आपको दोनों अध्याय पसंद आए। अस्मिता और विवान की प्रेम कहानी आगे और भी अधिक भावनात्मक मोड़ लेगी जो निश्चित ही आपको पसंद आएगा। आज के अध्याय में भी दोनों के प्रेम की झलक पढ़ने को मिलेगी आपको।

बने रहिएगा!
 

The Sphinx

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भाई आपकी दोनों अपडेट्स पढ़े
दिल को छू गई
अब मुझे भी अपने पाठकों में गिने
साधुवाद एक
भावनात्मक कहानियाँ हमेशा से मेरी पसंदीदा रहीं हैं और आपके द्वारा प्रस्तुत दोनों ही अपडेटस बहुत ही भावनात्मक रूप से दिल को छू गए हैं
शुक्रिया मेरे भाई। खुशी हुई कि आप कहानी की भावनाओं से जुड़ पाए। साथ बने रहिएगा!
Bhai, Shandar, kaafi dino baad ek achchi jaandar prem kahani padhne ko mili he

Bhai, Gazab ka likh rahe ho aap, keep posting
शुक्रिया बंधु। अभी तो ये प्रेम परवान चढ़ना बाकी है। निश्चित ही आपको आनंद आएगा, आगे पढ़ने में।
Nice and lovely start of the story....
Lovely updates bro.
Nice and beautiful update....
आप सभी को धन्यवाद भाइयों। बने रहिएगा!
 

The Sphinx

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अध्याय – 3


चारों ओर घना अंधेरा छाया हुआ था, आस – पास क्या कुछ था ये देखना भी संभव न था। मैं धीमे कदमों से उस अंधेरे में आगे बढ़ रहा था, मेरे कदमों के नीचे आ रही लकड़ियों और पत्तों के कुचले जाने से तीक्ष्ण स्वर भी उत्पन्न हो रहा था जो उस सन्नाटे को चीर रहा था। मैं नही जानता था कि मैं कहां था, क्यों था और यहां कब आया। मैं जानता था तो बस इतना कि यहां से निकलने का मार्ग मुझे बिल्कुल नज़र नहीं आ रहा था। परंतु कहीं न कहीं मुझे ये सब कुछ एक भ्रम समान ही प्रतीत हो रहा था। हर बीतते पल के साथ मानो अंधेरा और भी गहरा होने लगा था। अभी मैं एक ही दिशा में आगे बढ़ रहा था और तभी मुझे ऐसा लगा जैसे कोई ठीक मेरे पीछे खड़ा हो। मेरी सांसें अचानक ही तीव्र हो गई और माथे पर छलक रहा पसीना मेरे गालों से होते हुए नीचे गिरने लगा। मैंने अपना हृदय मज़बूत किया और एक दम धीरे से पीछे पलटा और पलटते ही मेरे मुख से स्वयं ही निकल गया, “तुम"!

वहां एक लड़की खड़ी थी जिसने पीले रंग की पोशाक पहनी हुई थी। वो पोशाक क्या थी, ये मैं ठीक से देख नही पाया। उसका चेहरा भी अंधेरे में खो सा गया था परंतु उसकी आंखें मैं साफ देख पा रहा था और उन्हीं आंखों को देख कर मैं हैरान सा हो गया था और मेरे मुख से वो शब्द फूट पड़ा। ना जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो आंखें किसी और की नही अपितु मेरी ही थीं। मेरी आंखों की पुतलियों का रंग काला ना होकर भूरा था, और बचपन से ही जिससे भी मैं मिलता वो एक बार तो ज़रूर कहा करता कि तुम्हारी आंखों में कुछ तो अलग है। उन आंखों को देखकर मुझे भी कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। मैं जानता था कि कहीं तो मैंने ये आंखें देखी थी, परंतु कहां ये स्मरण नही हो रहा था। खैर, अभी मैं उन आंखों की कशिश की चपेट में था कि तभी उस लड़की की आवाज़ मुझे सुनाई दी जिसने मेरा वजूद हिलाकर रख दिया।

उसके शब्द, “छोड़ गए ना तुम मुझे इस जंगल में, मरने के लिए"... ये शब्द मुझे झकझोर रहे थे। नहीं जानता था वो कौन थी, और ना ही ये जानता था कि उसके शब्दों का अर्थ क्या था, परंतु उसके स्वर में झलक रही पीड़ा मुझे हिला कर रख देने के लिए पर्याप्त थी। उसकी आवाज़ सुनकर भी मुझे वही अनुभूति हुई जो उसकी आंखें देखकर हुई थी। जैसे कहीं तो, कभी तो उसे सुना हो मैंने। उसके स्वर से मैं चौंका ही था कि तभी एक तेज़ गुर्राहट मेरे कानों में पड़ी। ये ध्वनि मेरे दाईं ओर से ही आई थी, मैंने उस तरफ जैसे ही देखा, वो जीव उस लड़की के ऊपर झपट पड़ा और,

“नहींहींहींहींहींहींहींहींहीं"...

एक साथ ही उस लड़की की और मेरी चीख निकल गई। जहां वो लड़की उस जीव का ग्रास बन चुकी थी वहीं मैं अपने बिस्तर से उठकर बैठ गया। मैंने अपने चेहरे को छुआ तो वो पूरी तरह से पसीने से तर था, तभी मुझे अनुभव हुआ कि मेरे हाथ बुरी तरह कांप रहे थे और ये देखकर स्वतः ही मेरे मुख से निकल गया, “आज.. आज फिर यही सपना"। तीन बरस हो चुके थे मुझे उज्जैन आए हुए और तीन ही बरस से यही सपना मुझे परेशान करता। इस सपने के बाद, सुबह जब भी मैं जागता, मेरे हाथ बुरी तरह से कांप रहे होते। पहले तो हफ्ते – दस दिन में एक दफा ये सपना आया करता परंतु पिछले आठ दिन से लगातार, हर रात मुझे यही स्वप्न परेशान किए जा रहा था। खैर, इसके बारे में अधिक ना सोचकर मैं उठा और कमरे से ही जुड़े स्नानघर में घुस गया। ठंडे पानी के छींटे जब मैंने अपने मुंह पर मारे तब जाकर मुझे कुछ बेहतर लगा।

आज मुझे कॉलेज भी जाना था और उसके पश्चात नौकरी पर भी। इसीलिए मैं जल्दी से नित्य क्रिया से फुर्सत होकर रसोईघर में पहुंच गया, नाश्ता बनाने के लिए। परंतु तभी मुझे घर का दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी और अचानक ही सुबह से मेरे दिल में चल रही सारी परेशानी गायब हो गई। क्योंकि मैं पहचान गया था कि दरवाज़े पर कौन था। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला मेरा अंदाज़ा सही साबित हो गया। ये अस्मिता ही थी, और मैं जानता था की वो इतनी सुबह यहां क्यों आई होगी। मैंने उसे देखकर कुछ नहीं कहा, बस मुस्कुराकर अपना दाहिना हाथ आगे की तरफ कर दिया। उसने भी मुस्कुराते हुए उसमें एक छोटा डिब्बा रख दिया फिर बिन कुछ कहे मुझे दो पल देखकर वहां से चल दी।

मैं कुछ देर तक उसे जाते देखता रहा और फिर अंदर आकर खाने की मेज पर बैठ गया। मैंने जैसे ही वो डिब्बा खोला मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गई, क्योंकि ये वही सुगंध थी जिसका मैं दीवाना था। बचपन से ही मुझे पोहा खाना कुछ ज़्यादा पसंद नही था परंतु जब पहली बार मैंने अस्मिता के हाथ का बना पोहा खाया था, तबसे ही मैं इस व्यंजन का दीवाना हो गया था। अस्मिता भी इस बात से परिचित थी, इसीलिए जब भी वो सुबह नाश्ते के लिए पोहा बनाती,याद से मुझे दे जाया करती। खैर, मैंने अपनी आदत अनुसार जल्दी – जल्दी खाना शुरू किया और कुछ ही पलों में वो डिब्बा खाली हो चुका था। मैं उठा और अपना बस्ता लेकर बाहर निकल आया, जब मैं बाहर मुख्य दरवाजे (जो लोहे का बना था) उसपर ताला लगा रहा था तभी अस्मिता भी अपने घर से बाहर निकली। मैं ताला लगाते हुए भी उसके दरवाज़े को ही ताक रहा था, फलस्वरूप जैसे ही वो बाहर निकली हमारी नज़रें मिल गईं। आज अस्मिता का चेहरा और दिनों के मुकाबले अधिक खिला – खिला सा लग रहा था जिसका कारण मैं जानता था।


कल रात...


अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...

जैसे ही अस्मिता ने मुझसे ये शब्द कहे मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव गर्दिश करने लगे। हां, मैं और अस्मिता, हम दोनों ही एक – दूसरे के प्रति कुछ भाव अपने – अपने दिलों में रखते थे, वो जानती थी मेरे भावों को और मैं जानता था उसके विचारों को। परंतु आज से पहले उसने यूं खुलकर अपने दिल का हाल कभी बयान नही किया था। मैं तो फिर भी कभी – कभी उसे अपनी बातों और क्रियाओं से छेड़ दिया करता था परंतु अस्मिता.. कभी नहीं। शायद, दादी और मेरी बातों का कुछ गहरा असर पड़ा था उस पर। खैर, जैसे ही उसने अपनी बात खत्म की और मेरे चेहरे पर उभरी हैरानी से वो वाकिफ हुई, तभी उसके गालों पर लाली आने लगी।

वो कह तो गई थी परंतु क्यों और कैसे, ये शायद वो खुद भी नही जानती थी। इसीलिए वो अगले ही पल पलटकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई और मेरे कदम भी कुछ पलों बाद ठीक उसके पीछे ही चल दिए। वो गैस स्टोव की सामने खड़ी थी और आटे की लोई बनाकर उसे बेलने में लगी थी। मैं ठीक उसके बगल में खड़ा हो गया और एक टक उसके चेहरे को देखने लगा। उसे मेरे आगमन की अनुभूति हो चुकी थी पर वो अपने काम में ही लगी रही। पता नही कैसे पर मेरा हाथ स्वयं ही उसके चेहरे की तरफ बढ़ा, और उसकी विचलित होती सांसों के बीच उसके दाएं गाल पर मेरी उंगलियां स्पर्श हो गई। मैंने अपनी उंगलियों पर थोड़ा ज़ोर दिया तो उसका चेहरा मेरी तरफ मुड़ गया और एक दफा फिर उसके गालों पर लालिमा ने घेरा डाल लिया। अब भी उसकी नज़रें नीचे झुकी हुई थी और वो मुझे देखने से कतरा रही थी।

मैं : आशु, देखो मेरी तरफ...

परंतु अभी भी वो नीचे ही देख रही थी, मैंने एक दफा फिर उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और उसकी ठुड्डी को अपनी उंगलियों से सहारे ऊपर की तरफ उठा दिया। बस उसी पल उसकी आंखें पुनः मेरी आंखों से मिल गई, और प्रथम बार वो भाव उसकी आंखों में छलका जो देखने हेतु मैं ना जाने कबसे आतुर था। केवल और केवल प्रेम, केवल यही भाव था उसकी आंखों में जो वो मुझसे छुपाना चाहती थी परंतु छुपा नही पाई। उसके शरीर में हल्की सी कम्पन भी मैं महसूस कर पा रहा था और इसीलिए मैंने उसके हाथों को अपने हाथों में थामा और उसकी आंखों में प्रेम भाव से देखते हुए कहा,

मैं : देखना, एक दिन तुम्हें अपनी बना लूंगा मैं...

बस, मुझे लगा कि शायद इससे अधिक कुछ कहना कहीं ज़्यादा ना हो जाए, इसीलिए मैं पलटकर रसोई घर से बाहर की तरफ बढ़ गया पर तभी उसकी मधुर आवाज़ मेरे कानों में पड़ी,

अस्मिता : मैं इंतज़ार करूंगी!

मेरे होंठों पर स्वतः ही एक मुस्कुराहट आ गई और फिर मैं दोबारा दादी के कमरे में चला गया। खैर, उसके बाद अस्मिता के हाथों से बना भोजन हम तीनों ने साथ में किया, और सही मायेनों में, उसे ग्रहण कर मेरी आत्मा तक तृप्त हो गई।


वर्तमान समय...


यही कारण था अस्मिता के चेहरे पर दिखाई दे रही उस खुशी का जो आज से पहले मैंने कभी नहीं देखी थी। वो मेरी ही तरफ आई पर मुझसे बिना कुछ कहे मुस्कुराते हुए आगे भी बढ़ गई। मैं अब तक ताला लगा चुका था और उसे जाते देखकर सर हिलाता हुआ मैं भी उसके पीछे ही चल दिया। तभी उसकी चलने की गति थोड़ी धीमी हो गई और इससे अनजान होने के कारण मैं हल्के से उससे टकरा गया। परंतु इस झटके के कारण मेरा बटुआ जिसे मैं अभी अपनी जेब में रख ही रहा था, मेरे हाथ से गिर पड़ा। अस्मिता उस झटके के कारण एक दम से पलटी और उसकी नज़र भी मेरे बटुए पर पड़ गई और उसी क्षण उसकी खुशी शायद गुस्से में परिवर्तित हो गई।

उसने एक दफा मेरी ओर देखा और फिर झुककर मेरा बटुआ उठा लिया। उसके भीतर एक लड़की की तस्वीर लगी हुई थी, और यही कारण था उसके बदले भावों का।

अस्मिता : कौन है ये?

उसने सीधे मुझसे सवाल किया और उसका स्वर आज पहली बार मुझे क्रोधपूर्ण लग रहा था। मैं हल्का सा मुस्कुराया और उसे परेशान करने के लिए,

मैं : जिससे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करता हूं, वो...

अस्मिता की आंखें बड़ी हो गई और वो मानो मुझपर झपट ही पड़ी। हम दोनों पगडंडी के छोर पर खड़े थे और उसे आस – पास की कोई फिक्र थी ही नहीं। वैसे वहां कोई फिलहाल था भी नही परंतु होता भी तो अस्मिता को क्या ही फर्क पड़ना था। उसने एक दम से मेरे गिरेबान को अपने हाथों में भींच लिया और अपनी जलती हुई निगाहों के ताप से मेरे चेहरे को जलाते हुए बोली,

अस्मिता : फिर से कहना..

वैसे तो मैं उसे परेशान ही कर रहा था परंतु उसका ये रूप देखकर सत्य में मेरे भी प्राण सूख गए।

मैं : आ.. आरोही की तस्वीर ह.. है ये।

अपने आप ही मेरी आवाज लड़खड़ा सी गई थी, जाने क्यों उसके बदले रूप ने अचानक ही मुझे डरा दिया था। परंतु मेरी बात सुनकर वो एक दम से मुझसे अलग हो गई और कुछ पल मुझे देखती रही। मेरे घबराए चेहरे को देखकर अचानक ही वो खिलखिलाकर हंसने लगी और उसकी हंसी देखकर मैं भी शांत हो गया।

अस्मिता : बहुत बुरे हो तुम।

उसने इतना कहकर मुस्कुराते हुए ही मेरा बटुआ मुझे वापिस थमा दिया और आगे की ओर चल दी। मैं भी चुप – चाप उसके पीछे ही चल दिया, पर जब काफी देर तक वो कुछ नहीं बोली तो,

मैं : नाराज़ हो क्या?

उसने एक अदा से मेरी ओर देखा और,

अस्मिता : मुझे तो आज ही पता चला की आप डरते भी हैं मुझसे।

मैंने उसकी बात सुनकर अपनी नजरें फिरा ली पर उसकी हंसी की आवाज़ दोबारा मुझे सुनाई देने लगी।

अस्मिता : वैसे.. तुम्हारी और आरोही की आंखें बिल्कुल एक जैसी हैं।

जैसे ही उसके शब्द मेरे कानों में पड़े, मेरे कदम वहीं थम गए और अचानक से ही वो स्वप्न पुनः मेरी आंखों के आगे आ गया...


यशपुर, हरिद्वार से कुछ 50 किलोमीटर दूर बसा है ये गांव। पहाड़ियों से कुछ ही दूर होने के कारण यहां मौसम अक्सर सुहावना सा ही रहता है। यशपुर की पूर्वी सरहद से लगभग 2 – 3 किलोमीटर दूर एक बेहद ही घना जंगल भी है। आम तौर पर ग्रामवासी इस जंगल की जाने से कतराते हैं क्योंकि यशपुर और पास के 18 गावों में एक ही बात फैली हुई है कि इस जंगल में किसी प्रेत आत्मा का निवास है। जो लोग प्रेतों में विश्वास करते हैं वो केवल इस जंगल का नाम सुनकर ही डरने लगते हैं और जो प्रेतों और आत्माओं को मिथ्या मानते हैं, वो जंगली जानवरों के भय से इस जंगल में नही जाते। अभी 4–5 बरस पहले की ही बात है, एक लकड़हारों का समूह लकड़ी काटने के प्रयोजन से इस जंगल में गया था पर वहां से यदि कुछ लौटा तो वो थी उनकी चींखें और जानवरों के गुर्राने का शोर। फलस्वरूप, ग्रामवासियों ने इस जंगल में ना जाने का निश्चय कर लिया।

यशपुर के मध्य में एक बेहद ही विशालकाय हवेली,या कहूं महल, बना हुआ है। ये हवेली सूर्यकांत सिंह राजपूत की है और वो इस हवेली में अपने परिवार के साथ रहते हैं। इसी हवेली में यशपुर के कुछ ग्रामवासी नौकरों और श्रमिकों के रूप में कार्यरत भी हैं और उन सभी की पूर्ण निष्ठा है सूर्यकांत सिंह के प्रति। इसका कारण, सूर्यकांत सिंह और उनके स्वर्गवासी पिता का दयालु और कृपालु स्वभाव है। सूर्यकांत सिंह वर्षों से यशपुर के निवासियों की आर्थिक तौर पर और उसके अतिरिक्त भी कई मुसीबतों में सहायता करते आए हैं।

इसी हवेली के एक कमरे की खिड़की पर एक लड़की गुमसुम सी होकर खड़ी थी। उसकी नज़रें सामने बहुत दूर नज़र आ रही पहाड़ियों पर गड़ी हुई थी। पहाड़ियों की श्रृंखला हवेली से काफी दूर थी पर ये उनकी विराटता ही थी कि हवेली से भी उन्हें देखा जा सकता था। इस दूरी के ही कारण, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बादलों के एक समूह ने इन पहाड़ियों को चारों तरफ से घेरा हुआ हो। फलस्वरूप, पहाड़ियों का वो दृश्य बेहद ही रमणीय था। वो लड़की जाने कबसे खड़ी उन पहाड़ियों को ताकते हुए कुछ स्मरण करने का प्रयास कर रही थी। परंतु ये उसके विचलित से मन का ही प्रभाव था कि जैसे ही उसकी यादों में वो तस्वीर पनपने लगती, अचानक से ही वो धुंधली हो जाती।

कुछ पलों बाद वो लड़की खिड़की के निचले हिस्से से पीठ लगाकर ज़मीन पर ही बैठ गई। उसने अपने दोनों घुटनों को मोड़ा हुआ था और दोनो हाथों के मध्य अपना सर टिकाया हुआ था। नतीजतन, उसका चेहरा, या कहूं कि उदासी भरा चेहरा कमरे के दरवाज़े से ही दिखाई पड़ रहा था। वो लड़की वहां मायूस बैठी अपनी सोचों में गुम थी कि तभी उसके कानों में एक आवाज़ पड़ी, “क्या हुआ आरोही"? उसने अपनी नज़रें उठाकर देखा तो उसके सामने एक नवयुवती खड़ी थी। असल में ये युवती आरोही के कमरे के पास से गुज़र रही थी कि तभी इनकी नज़र आरोही पर पड़ गई और इसके चेहरे पर झलक रही उदासी इसकी नज़रों से नही बच पाई। आरोही ने उसे देखकर जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की और कहा,

आरोही : कुछ नहीं भाभी...

शुभ्रा, अर्थात आरोही की भाभी उसके पास ही ज़मीन पर बैठ गई और उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए बोली,

शुभ्रा : कम से कम मुझसे तो झूठ मत बोलो आरोही।

ये सुनकर एक फीकी सी मुस्कान, जोकि व्यंग्यात्मक भी थी, आरोही के चेहरे पर उभर आई।

आरोही : झूठ? जब झूठ ज़रूरी बन जाए तो उसे संभाल कर रखना पड़ता है भाभी।

आरोही की बात सुनकर एक पल को तो शुभ्रा हैरान हो गई पर फिर,

शुभ्रा : लेकिन झूठ को ज़रूरत बनाने की ज़रूरत ही क्या है?

आरोही : आप नही जानती भाभी, इस झूठ को तीन बरस से अपने अंदर पाले बैठी हूं मैं। ना तो मैं कभी आपको इसकी उपयोगिता समझा पाऊंगी और ना आप समझ पाओगी। क्योंकि अगर इस झूठ का सच सामने आ गया, तो जाने कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी...

आरोही की बात सुनकर शुभ्रा पूरी तरह से हैरान हो गई। तीन बरस पहले शुभ्रा की शादी इस परिवार में हुई थी। शादी के कुछ ही दिन बाद उसे पता चल गया था कि उसके पति विक्रांत के छोटे भाई विवान को इस घर से एक महीना पहले ही निकल दिया गया था। यहां तक की सूर्यकांत सिंह ने यशपुर से विवान का हुक्का – पानी बंद कर दिया था और यशपुर के सभी निवासियों को चेतावनी दी थी कि जो भी उसे आसरा देगा या उसकी सहायता करेगा उसे भी यही सज़ा मिलेगी। शुभ्रा इस हैरतंगेज तथ्य का कारण कभी नहीं जान पाई। हां, उसने गांव की कुछ महिलाओं के मुंह से सुना ज़रूर था कि एक लड़की की इज्ज़त के खातिर एक दादा को अपने पोते को इतनी कड़ी सज़ा देनी पड़ी थी, परंतु वो इस घटना की असली और पूर्ण वजह कभी नहीं जान पाई।

शुभ्रा ने हवेली के लगभग सभी लोगों से पूछा, परंतु हर कोई उसकी बात को टाल देता। शुभ्रा आरोही से भी ज़रूर पूछती और शायद आरोही उसे बता भी देती, परंतु शुभ्रा ने देखा था कि जब भी आरोही के सामने विवान का जिक्र होता उसका व्यवहार असामान्य सा हो जाता। कभी वो खुदको दो – दो दिन तक अपने कमरे में बंद कर लेती तो कभी खाना – पीना छोड़ देती। एक बात शुभ्रा भली – भांति समझ गई थी कि इस हवेली का हर शख्स कुछ न कुछ रहस्य अपने भीतर दबाए हुए था और अब आरोही की बात ने उसे और भी अधिक हैरान कर दिया था।

शुभ्रा : आरोही तुम मुझे बता सकती हो, शायद मैं तुम्हारी मदद...

आरोही : मेरी मदद? अगर मैने आपको सच्चाई बता दी तो आपकी मदद कौन करेगा भाभी? इस झूठ का सच यदि बाहर आया तो सबसे बड़ा घाव आपके ही जीवन पर लगेगा। इसीलिए यही सही होगा कि ये झूठ ऐसे ही चलता रहे, वैसे भी अब मुझे आदत हो गई है।

इतना कहकर आरोही अपनी भीगी हुई आंखों के साथ कमरे से ही जुड़े स्नानघर में चली गई और इधर शुभ्रा हैरानी से मुंह खोले उसे जाते देखती रही...


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