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अध्याय - 23
उसके पश्चात कई बातों पर वहां चर्चा हुई जहां यह तय हुआ गजेंद्र के वापस आने पर दोनों का विवाह संपन्न कराया जाएगा ।
अभी अपराधियों को दंड देने का कार्य भी रह गया था , सो गजेंद्र को कामरान ने 1 दिन के लिए रुकने का आग्रह किया ।
तो यह तय हुआ कि कल दरबार में सारी बातें स्पष्ट होने के पश्चात गजेंद्र अपनी अगली यात्रा पर निकलेगा , थोड़ी देर यूं ही बातें चलती रही उसके पश्चात गजेंद्र अपने कक्ष में चला गया ।
अब आगे ---
वह दिन भी लगभग बीत चुका था गजेंद्र संध्या वंदन करने के पश्चात ध्यान करने के लिए बैठ गया । ध्यान में उसे अपने अगले लक्ष्य की ओर बढ़ने के चिन्ह दिखाई देने लगे ।
ध्यान करते-करते काफी समय बीत गया था । राजकुमारी अमृता रात्रि का भोजन लेकर दासियों के साथ जब गजेंद्र के कक्ष में पहुंची तब गजेंद्र को इस प्रकार ध्यान करते हुए देखकर वह उसे आप्लाक निहारने लगी ।
गजेंद्र को ध्यान में बैठा हुआ देखकर अमृता ने दासियों को थोड़ी देर के पश्चात भोजन लाने का कहकर उन्हें भेज दिया और स्वयं गजेंद्र के ध्यान से उठने की प्रतीक्षा करने लगी ।
गजेंद्र के साथ भावी जीवन की कल्पना करते हुए उसके चेहरे पर शर्म की लाली और मुस्कान झलकने लगी ।
गजेंद्र ने जब ध्यान से अपने नेत्र खोले तो अपने सामने राजकुमारी अमृता को निहारते हुए पाया ।
राजकुमारी अमृता का अनुपम सौंदर्य और उसके नेत्रों में गजेंद्र के लिए प्रेम , गजेंद्र को अपनी और आकर्षित कर रहा था वह भी सौंदर्य मूर्ति को देखने में जैसा खो ही गया ।
दोनों उपलक बस एक दूसरे को निहारने लगे , दोनों की तंद्रा तब टूटी जब एक दासीयां भोजन लेकर आयी ।
अमृता ने भोजन के थाल रखवाकर दासियों को वापस भेज दिया और भोजन के लिए आसान बिछाकर , चुपचाप सिर निचे करके थाली में भोजन परोसने लगी सारी तैयारी होने के बाद ।
अमृता - आईये भोजन कर लीजिए ।
इतना कहकर वह फिर चुप हो गई
राजकुमारी अमृता को सिर नीचे झुका कर चुपचाप बैठे हुए देखकर गजेंद्र उसके निकट गया ।
गजेंद्र - क्या बात है राजकुमारी जी , आज आप मुझसे कुछ रूष्ट दिखाई दे रही हो आप ऐसे चुपचाप क्यों हो ,क्या मुझसा कोई अपराध हो गया ।
अमृता - आप भोजन कर लीजिए , अन्यथा भजन ठंडा हो जाएगा ।
गजेंद्र - भोजन तो मैं कर लूंगा , परंतु आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नही दिया । मुझे तो लग रहा है कि आप हमारे विवाह संबंध की बात से प्रसन्न नहीं है । यदि आपको इसमें कोई आपत्ति है तो आप मना कर सकती हैं ।
गजेंद्र के ऐसा कहने पर राजकुमारी अमृता ने अपना सेर उपर उठाया और गजेंद्र को देखने लगी ।
अमृता के नेत्रों से अश्रु धारा बह रही थी ।
गजेंद्र ने इस प्रकार अमृता के नेत्रों से अश्रु बहते हुए देखे तो उसके हृदय में एक टिस सी उठी , उसने आगे आकर उसने अमृता के नेत्रों से अश्रु पोंछने का प्रयास किया , परंतु अमृता ने उसे रोक दिया ।
अमृता - हटिये आप ! पहले तो स्वयं रुलाते हो , फिर अश्रु पोंछने आ जाते हो , आपने यह कैसे कह दिया के इस संबंध से मैं प्रसन्न नहीं हूं क्या आपको मेरे नेत्रों में आपके प्रति प्रेम दिखाई नहीं देता , मेरे व्यवहार से आपको पता नहीं चलता कि मैं आपको अपना मान चुकी हूं फिर भी इस प्रकार कहते हो ।
अमृता के ऐसा कहने पर गजेंद्र फिर पास आते हुए अपने हाथों से उसके अश्रु पोंछते हुए
गजेंद्र - मैं तो बस परिहास कर रहा था । तुम जो इतनी चुपचाप थी कोई बात भी नहीं कर रही थी और मेरी तरफ देख भी नहीं रही थी । तुम्हारे प्रेम पर तो कोई शंका नहीं है परंतु अब तक तुमने स्वीकार भी तो नहीं किया ।
अमृता - स्वीकार नहीं किया ? हर बात कही जाए यह जरूरी नहीं है । कुछ बातें समझ भी लेना चाहिए , और मैं तो स्त्री हूं लज्जा वश कह नही पायी , परंतु आपको तो स्वीकार करना चाहिए । आपने भी तो अपना प्रेम प्रकट नहीं किया मुझसे कुछ कहा भी नहीं और मुझे दोष दे रहे हो ।
अमृता के ऐसे कहने पर गजेंद्र ने दोनों हथेलियां के मध्य अमृता का चेहरा लेकर प्रेम से उसके नेत्रों में देखते हुए
गजेंद्र - मैं पहले अपने हृदय के भावों को प्रकट नहीं कर पाया , परंतु अब करता हूं , अमृता जब युद्ध भूमि में मैंने तुम्हें प्रथम बार देखा था तभी तुम मेरे हृदय में बस गई थी , प्रे क्या हैं यह मुझे नही पता , परंतु इतना जानता हूं कि मैं तुम्हारे बिना अपने आगे के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता , यही प्रेम है तो हां मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूं क्या तुम मेरी जीवन संगिनी बनोगी ।
गजेंद्र के द्वारा प्रेम की स्वीकृत करने पर ----
राजकुमारी अमृता - मैं तो कब से इसी क्षण की प्रतीक्षा में थी । मैंने आपको कई बार अपने सपनों में देखा , तब से ही मैं आपसे मिलने के लिए व्याकुल थी । आज आपसे मिलकर तथा आपके मुख से प्रेम की स्वीकृति सुनकर मेरी सारी व्याकुलता समाप्त हो गई ।
इतना कहकर राजकुमारी अमृता ने अपना मुख गजेंद्र के सीने में छुपा लिया गजेंद्र ने भी अपने दोनों बाँहों की कैद में उसे भरकर आलिंगनबद्ध कर लिया ।
दोनों इसी प्रकार एक दूसरे के आलिंगन में बंधे खड़े थे , दोनों की हृदय की धड़कने एक दूसरे से बाते कर रही थी , शरीर में प्रेम की तरंगे संचार कर रही थी , वासना रहित उस आलिंगन में केवल प्रेम ही प्रेम था ।
गजेंद्र ने अमृता की ठुड्डी को पकड़ कर धीरे से उसका चेहरा ऊपर किया , अमृता के नेत्र बंद थे , वह बस प्रेम के उस क्षण को महसूस कर रही थी , उसके लाल लाल रसभरे होंठ कांप रहे थे ।
गजेंद्र ने धीरे -धीरे अपने होंठ अमृता के सिर की तरफ ले जाते हुए , उसके मस्तक पर अपने प्रेम का पहला चुंबन दिया । अपने मस्तक पर गजेंद्र के होंठो का स्पर्श पाकर अमृता के पूरे शरीर में एक विद्युत लहर सी दौड़ पड़ी उसने अपने नेत्र खोलकर उसने गजेंद्र की ओर देखा ।
गजेंद्र भी उसके नेत्रों में देख रहा था दोनों के नेत्र आपस में मानो मूक भाषा में बातें करने लगे । अमृता को अपने आलिंगन में प्रकार गजेंद्र के शरीर में भी प्रेम की लहरें दौड़ने लगी थी । दोनों एक दूसरे की सांसों की सुगंध को महसूस कर रहे थे ।
धीरे-धीरे दोनों के होंठ पास आते गए और इतने पास आ गये की दोनों एक दूसरे के होठों की गर्मी को महसूस कर सकते थे
गजेंद्र - ( धीरे से फुसफुसाते हुए ) अमृता !!!!
गजेंद्र के इस प्रकार उसका नाम लेने से अमृता ने भी अपने होंठ आगे करके उसे मौन स्वीकृति देदी ।
अब दोनों के होंठ आपस में मिल गए , एक दूसरे के होठों का स्पर्श पाकर दोनों मानो खो से गए , दोनों धीरे-धीरे एक दूसरे के होठों को चूमने लगे ।
होठों को चूमते हुए दोनों एक दूसरे के प्रेम को महसूस करने लगे , चुम्मन के साथ ही उन दोनों का प्रेम और भी गहरा होता गया । एक दूसरे के होंठो का रसपान करते हुए जैसे दोनों की आत्माएं एक साथ जुड़ रही हो । उस चुंबन में कोई भी वासना नहीं थी , था तो बस केवल प्रेम ही प्रेम ।
बड़ी देर तक एक दूसरे के होठों को चूमते हुए दोनों ने एक दूसरे को आलिंगनबद्ध किया हुआ था । जहां गजेंद्र के हाथ अमृता के कमर में कसे हुए थे तों वही अमृता की बाँहे गजेन्द्र की पीठ को सहला रही थी ।
विवाह से पूर्व इसके आगे बढ़ना गजेंद्र को उचित नहीं लगा इसलिए चुंबन रोकते हुए अमृता के चेहरे की ओर देखने लगा ।
चुम्बन रुक जाने के कारण अमृता ने नेत्र खोले और प्रश्नवाचक दृष्टि से गजेंद्र की ओर देखने लगी , उसके मनोभाव को समझते हुए ------
गजेंद्र - अमृता !!! अब हमें यही रुक जाना चाहिए । विवाह के बंधन में बांधने से पूर्व हमें अपनी मर्यादा का ध्यान आवश्य रखना चाहिए ।
अमृता - मेरे स्वामी !!!! मैंने तो अब अपने आपको आपके सुपुर्द कर दिया है । आपका कहना भी उचित है ऐसी स्थिति में भी आपने अपना विवेक नहीं खोया , मुझे आप पर गर्व है आपको पाकर में धन्य हो गई , परंतु --------
गजेंद्र - परंतु क्या प्रिये ?????
अमृता - आपका इस प्रकार मुझे छोड़ कर जाना , मुझे व्यथित कर रहा है यदि जाना आवश्यक है आप मुझे भी अपने साथ ले चलिए , अब मैं आपसे अलग नहीं रह पाऊंगी ।
गजेंद्र - तुमसे अलग होने का तो मेरा भी मन नहीं है प्रिये । परंतु कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते हुए हमें अपनी इच्छाओं का परित्याग करना ही पड़ता है । चिंता मत करो मैं तुम्हें वचन देता हूं मैं अपना लक्ष्य शीघ्र ही प्राप्त कर तुम्हें अपना बनाने के लिए आऊंगा ।
थोड़ी देर तक दोनों के मध्य ऐसे ही प्रेम की वार्ता चली उसके पश्चात दोनों ने साथ में भोजन किया । अमृता के आग्रह पर गजेंद्र और अमृता एक दूसरे को बाहों में भरकर वही सो गए ।
दूसरे दिन राज दरबार खचाखच भरा हुआ था , कामरान अपने सिंहासन पर विराजमान था तो वही विरुपाक्ष गजेंद्र विश्वकसेन और राजकुमारी अमृता भी उपस्थित थे ।
कामरान के आदेश पर सैनिक कंक को बेडियो में जकड़ कर लाए थे
बेडियो में जकड़े हुए कंक को अपने बचाव का कोई भी मार्ग नहीं दिख रहा था । कामरान के कहने पर इस आशा के साथ के सब कुछ बता देने के पश्चात हो सकता है उसे प्राण दंड ना मिले वह सब कुछ शुरू से बताता चला गया ।
बात उस समय शुरू हुई थी जब कामरान अनलासुर के साथ मिलकर भोगों में संलिप्त था और उसी के कारण उसके साथी अधिकारी भी भोगलोलुप हो गए थे । इनमें से ही एक था कंक ।
कामरान के वैभव को देखकर उसके मन में वह सब कुछ पाने की इच्छा जागृत हुई । उसी समय कामरान के परिवार की हत्या हुई और असुरों के कारण कामरान को अपना नगर त्याग कर जाना पड़ा । कुबेर जी की सहायता से कामरान ने इस भूखंड में विरुपाक्ष के साथ में मिलकर नए नगर का निर्माण किया ।
प्राण बचाने के कारण विरुपाक्ष कामरान के बहुत निकट हो गया था । कामरान भी उसे अपने छोटे भाई की तरह मानने लगा था ।
विरूपाक्ष राजकुमारी अमृता को अपनी पुत्री की भांति स्नेह करने लगा था । राजकुमारी अमृता भी विरूपाक्ष को अपने पिता स्वरूप ही मानने लगी ।
कामरान के कहने पर विरुपाक्ष राजकुमारी अमृता को यक्ष विद्या , योगविद्या और शस्त्रविद्या के बारे में शिक्षण देने लगा ।
राज दरबार की जब स्थापना हुई तब विरुपाक्ष को महामंत्री का पद दिया गया और सेनापति का पद विश्वकसेन को
विश्वकसेन कामरान की पत्नी महारानी शलाका के काका श्री थे पिता की मृत्यु के पश्चात उन्होने ही उसे पाल पोसकर बड़ा किया था , माता के ना होने के कारण अमृता का भी अधिक समय उन्ही के घर व्यतीत होता था ।
एक तरह से विश्वकसेन कामरान के ससुर भी लगते थे । उनकी वीरता भी उस समय सर्वप्रसिद्ध थी ।
विश्वकसेन की एक कन्या थी जिसका नाम था चंचला । चंचला और विरुपाक्ष दूसरे से प्रेम करते थे । वही कंक की भी बुरी नजर चंचला पर थी । वह कुछ भी करके उसे पाना चाहता था ।
कामरान की चापलूसी करके उसने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने का बड़ा प्रयत्न किया परंतु विरुपाक्ष और विश्वक सेन के कारण वह कर नहीं पाया और दूसरी ओर दूसरी ओर उसने चंचला को पाने के बहुत प्रयास किये परंतु विरूपाक्ष के कारण सभी विफल रहे ।
इसलिए उसने अब लोभी और लालची लोगों को एकत्रित करके विरूपाक्ष , विश्वक सेन और कामरान के विरुद्ध षडयंत्र करने की योजना बनाई।
यह बात उस समय की है जब अमृता 12 वर्ष की थी तब तक कंक और सतपाल कामरान को काफी हद तक अपने वश में करने में सफल हो गए थे ।
उन्होंने राज वैद्य को लोभ मे फसाकर कामरान के भजन में निरंतर ऐसी औषधी का प्रयोग करना शुरू किया जिससे कामवासना अपने चरम पर पहुंचती थी ।
जिस कारण कामरान कामवासना से अत्यधिक त्रस्त होने लगा और उसके कामवासना की पूर्ति नई नई युवतियाँ को लाकर कंक और सतपाल पूरी करने लगे ।
कामरान को नई युवतियों का और मदिरा पान का चस्का लग गया , अब वह कंक और सतपाल को ही अपना सच्चा हितैशी मानने लगा जो वह कहते उसे ही सत्य मानने लगा ।
एक समय जब कंक ने चंचला का बलात्कार करने का प्रयत्न किया तो उस समय विरुपाक्ष ने चंचला की रक्षा की । तथा कंक को बहुत बुरी तरह से मारा था ।
कंक ने अपने आपको निर्दोश बताते हुए महाराराज की निकटता के कारण ईर्श्या वश विरूपाक्ष ने ऐसा किया है , झूठे साक्ष्य से यह सिद्ध कर ।
अपनी पुत्री के अपराधी का पक्ष लेने पर विश्वकसेन ने कामरान के न्याय पर प्रश्न उठाए । ससुर होने के नाते कामरान को कंक और सतपाल से दूर रहने के लिए भी कहा , और साथ ही भोग वासना और व्यसन से दूर रहने की का भी परामर्श दिया ।
एक पिता की तरह बहुत बातें समझाई परंतु इसका प्रभाव उल्टा ही हुआ कामरान के मन में विश्वक सेन के प्रति भी दुर्भावना प्रकट हुई ।
ऐसे ही एक दिन जब नगर में महायक्षिणी देवी के मंदिर की स्थापना थी । उस दिन मंदिर के प्रांगण में भव्य उत्सव था सारे नगर वासी तथा राज्य के सभी अधिकारी वहां उपस्थित थे एक तरफ जहां सभी के लिए महाप्रसाद बन रहा था दूसरी तरफ देवी की प्रतिमा स्थापना की तैयारी शुरू थी ।
विरूपाक्ष को धोके से कंक ने राजवैद्य द्वारा ऐसी औषधि मिला हुआ जल दीया के उसे पीने से विरुपाक्ष मदिरा पान किए हुए की भांति झूमने लगा ।
औषधि के प्रभाव से उसका क्रोध भी बढ़ने लगा । उसी समय उस तक यह खबर पहुंचाई गई की महाप्रसाद में विष मिलाया गया है । औषधि के प्रभाव में सोचने समझने की शक्ति विरुपाक्ष गवा बैठा था उसके ध्यान में बस इतना था कि महाप्रसाद में विष मिलाया गया है , उसे विष मिले प्रसाद को नष्ट करना है , वहां जाकर सारा महाप्रसाद फेंकने लगा ।
जब वहां लोगों ने उसे रोकने का प्रयत्न किया तो महाप्रसाद बनाने वाले सभी को उसने बड़ी बुरी तरह से मारा । जब सैनिक रोकने आए तो सैनिकों की को भी बड़ी बुरी तरीके से मारा ।
वहां सब इतना शोर होते हुए देखकर कामरान सभी अधिकारियों के सहित पहुंचा , तो देखा विरूपाक्ष क्रोधित होकर वहां उत्पाद मचाए हुए हैं । विरुपाक्ष ने कहा कि महाप्रसाद में विष मिला हुआ है , तो कांक ने महाप्रसाद का परीक्षण करने की का सुझाव दिया , परीक्षण करने पर पता चला कि महाप्रसाद में कोई भी विष नहीं है । औषधि के कारण विरुपाक्ष ऐसा लग रहा था जैसे खूब मदिरापान करके आया हो ।
इस प्रकार के अभद्र व्यवहार के कारण विरूपाक्ष को तुरंत महामंत्री पद से निष्कासित किया गया ।
इस प्रकार के अभद्र व्यवहार के कारण विरूपाक्ष को तुरंत महामंत्री पद से निष्कासित किया गया । जब कुछ दिन पश्चात कुबेर जी नगर देखने आए तो सारी स्थिति समझकर वह विरुपाक्ष से मिलने गए ।
इस बात का गलत अर्थ निकालकर कंक ने कामरान के मन में यह बात बिठा दी विरुपाक्ष कुबेर जी की सहायता से उसे राजगद्दी से हटकर स्वयं में राजा बनना चाहता है ।
ऐसे ही अनेक प्रकार की षडयंत्र रचते हुए और झूठे साक्ष्य कामरान के सामने पेश करते हुए सतपाल और कांकने विरुपाक्ष और कामरान के मध्य में एक गहरी खाई उत्पन्न कर दी थी ।
साथ ही साथ राजवैद्य के द्वारा कामरान को भी ऐसी जडी दी जाने लगी जिससे उसकी शक्तियां समाप्त होने लगी । जिससे वक्त आने पर कंक कामरान को समाप्त कर स्वयं राजगद्दी पर बैठे ।
अब तक वह यह कर भी चुका होता परंतु विश्वकसेन उसके दल और विरुपाक्ष के भय के कारण उसने अब तक ऐसा नहीं किया ।
धीरे-धीरे कामरान कंक के षडयंत्रों में फसता गया और उसने सतपाल को महामंत्री और कंक को सेनापति पद दे दिया ।
सारी बातें स्पष्ट होने के पश्चात कंक को मृत्युदंड की सजा दी गई ।
कंक के मृत्यु दंड के पश्चात गजेंद्र ने कामरान और विरुपाक्ष से विदाई ली । राजकुमारी
अमृता से मिलकर शीघ्र वापस आने का वचन देकर वहां से विदा ली और अपने अगले लक्ष्य को प्राप्त करने की यात्रा पर निकल पडा ।
आज के लिए इतना ही ---------
अगला अध्याय शीघ्र ही --------
सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें -
धन्यवाद
स्वस्थ रहे --- प्रसन्न रहे
आपका मित्र - अभिनव![]()
Fantastic update with excellent writing skills bahut khubअध्याय -- 6
महामंत्री विरुपाक्ष -- वाह महाराज वाह आपने क्या खूब जाल बिछाया है , आज तो उस याग्नेश की कहानी खत्म आपके रची हुए व्यू का सामना याग्नेश तो क्या संसार का बड़े से बड़ा योद्धा भी नहीं कर सकता , इसलिए तो मैं कहता हूं कि आप ही हमारे भगवान हैं सर्वश्रेष्ठ हो।।
अभी यहां यह लोग बातें कर ही रहे थे के ताभी महल के मुख्य द्वार से एक जोरदार धमाके की आवाज आई
ऽऽधडाम्
अब आगे --------------
वहां महल के द्वार के भीतर काले वस्त्रों में हजारो सशस्त्र सैनिकों की दो दुकड़िया किसी भी प्रकार के हमले के लिए सज्ज थी उन दो टुकड़ियों की अगवाई दो घुड़सवार सेनानायक कर रहे थे।
यहां याग्नेश जब महल के द्वार पर पहुंचा तब उसने सबसे पहले काली शक्तियों के कवच से अपने आप को सुरक्षित कर लिया।
उसके पश्चात उसने अपने भीतर की शक्तियों को जागृत करके अपने नेत्र खोलें , उसके नेत्रों से नीले रंग की तीव्र किरणें निकली जिसके लगते ही महल का मुख्य प्रवेश द्वार एक बड़े धमाके के साथ ध्वस्त हो गया।
द्वार के साथ-साथ उसके निकट खड़े हुए द्वार पर तैनात सैनिकों के भी परखच्चे उड़ गए।
याग्नेश ने मुख्य प्रवेश द्वार के ध्वसत होते ही जैसे अपना पहला पग भीतर रखा वैसे ही वहां का मौसम अचानक बदलने लगा तारों से टीमटीमाता आकाश भयंकर काले मेघो से भर गया बिजलिया चमकने लगी और घोर गर्जना होने लगी जिससे वहां का मौसम और भी भयावह हो गया।
अचानक आए हुए मौसम में इस बदलाव को देखकर और टूटे हुए द्वार की और वहां पहरे पर मौजूद सैनिकों की दुर्दशा देखकर सेना की दोनों टुकड़ियों में भय उत्पन्न हो गया उनकी नजर सामने खड़े काले चोंगे खड़े आचार्य याग्नेश पर पड़ी जो आज किसी मृत्यु दूत की भांति लग रहा था।
सैनिकों के भीतर पनपते डर को देखकर उनके सेनानायक ने अपने सेना ढाढस बंधाने के लिए जोर से गर्जना करते हुए कहा
सेनानायक -- देव नगर के सेना के शूरवीरो इस माया को देखकर घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है , मत भूलो कि तुमने अपने पिछले युद्धो मे ऐसे कई परिस्थितियों का सामना वीरता पूर्वक किया है, मत भूलो कि हमारे देवता गजेंद्र का आशीर्वाद सदैव हम पर है इस हत्यारे याग्नेश के छोटे मोटे जादू के प्रयोग देखकर भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
आज हम अपने देवता गजेंद्र के अपराधी को दंड देकर उसका शीश काटकर अपने देवता को अर्पण करेंगे इसलिए सज्ज हो जाओ और घेर लो इसे----
अपने सेनानायक की बात सुनकर सभी सैनिकों के भीतर का डर चला गया और दोनों सेना की टुकड़ियों ने याग्नेश को घेर लिया।
अपने आप को उन सैनिकों द्वारा घेरे जाने को देखकर याग्नेश गोर गर्जना करते हुए बोला
याग्नेश-- हट जाओ तुम सब तुम सब से मेरी कोई शत्रुता नहीं है यदि अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हो मेरे सामने से हट जाओ यह मेरी तुम सबके लिए अंतिम चेतावनी है।
सेनानायक -- लगता है अपने समक्ष मृत्यु को देखकर तुम भयभीत हो गए हो याग्नेश, इसीलिए व्यर्थ का प्रलाप कर रहे हो अब अपनी मृत्यु के लिए सज्ज हो जाओ।
सैनिकों देख क्या रहे हो समाप्त कर दो इसे आक्रमण-----
सेनानायक के इतना कहते ही दोनों टुकड़ियों के प्रथम श्रेणी में खड़े हुए सारे सैनिक अपने शस्त्र लिए याग्नेश की ओर दौड़ पड़े।
उन्हें अपनी ओर बढ़ते हुए देखकर याग्नेश के चेहरे पर एक क्रुर मुस्कान उमर आई
याग्नेश - मेरी चेतावनी को प्रलाप समझने वालो अब तूम सब मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ
इतना कहते हुए याग्नेश ने अपने दोनों हाथ आगे कर दिए जिनमें से एक साथ सैकड़ों नुकीली चकरिया निकाल करो 9 सैनिकों के शरीर में प्रवेश कर गई और इसके साथ ही उन सब की दर्दनाक चीखें वहां गूंजने लगी देखते ही देखते हम सैनिकों के शरीर के टुकड़े कट कट कर जमीन पर गिरने लगे
अपने साथियों सैनिकों की यह दुर्दशा देखकर पीछे खड़े सभी सैनीक भय के मारे कांपने लगे
अपने सैनिकों की मना स्थिति को समझते हुए दूसरा सेनानायक सैनिकों का ढाडस बंधाते हुए बोला
" इस प्रकार भयभीत होने से कुछ नहीं होने वाला मत भूलो कि तुम इस समय युद्ध भूमि में हो अपनी उर्जा को एकत्रित करो और वार करो"
इतना कहकर उस सेनानायक ने अपने सैनिकों की तरफ कुछ इशारा किया जिसे वह बखुबी समझ गये
सभी सैनिकों ने अपनी उर्जा को एकत्रित किया और अपने शस्त्रों को याग्नेश की ओर कर दिया याग्नेश अभी कुछ समझ पाता तभी उन सभी सैनिकों के शस्त्रों से उर्जा कीरणे निकलकर एक हो गई और बड़ी तीव्रता के साथ याग्नेश को जाकर लगी
याग्नेश को उन सैनिकों से इस प्रकार के हमले की कोई आशंका नहीं थी यह सब कुछ ही पलों में हुआ जिससे याग्नेश को संभलने का मौका नहीं मिला और वह ऊर्जा किरण बड़ी तीव्रता के साथ याग्नेश के सीने में जाकर लगी।
काली शक्तियों के कवच के कारण यह वार याग्नेश का ज्यादा कुछ तो नहीं बिगाड़ पाया परंतु इसकी तीव्रता के कारण वह पीछे की ओर कुछ कदम लड़खड़ा या परंतु फिर संभल कर खड़ा हो गया।
यहां सैनिक फिर से अपने अगले वार करने की तैयारी में लग गए और फिर एक बार ऊर्जा किरण चमकी और याग्नेश की तरफ बढ़ी याग्नेश ने उस वार को रोकने के लिए अपने हाथ आगे किए
अभी वह इस बार को रोकता के तभी किले की दीवार पर तैनात धनुर्धर ओके धनुष से एक साथ सैकड़ों तीर साए साए करते हुए याग्नेश की तरफ बढ़े
यह दो तरफा हमला जितनी तीव्रता के साथ हुआ था यदि याग्नेश की जगह कोई और होता तो उसकी जीवन लीला यहीं समाप्त हो जाती
परंतु याग्नेश भी कोई कम नहीं था उसने एक हाथ से अपनी ऊर्जा प्रकट करके सैनिकों की उर्जा के वार को रोक दिया था और दूसरे हाथ की ऊर्जा से उन तीरों का रुख शत्रु सेना की ओर ही मोड़ दिया जिससे सैकड़ों चीखें एक बार फिर वहां गुंजायमान होने लगी।
धनुर्धर द्वारा किए गए वार को समझने और रोकने के लिए याग्नेश को जितना समय लगा इतने समय में कुछ तीर याग्नेश को भी आकर लगे काली शक्ति की उर्जा के घेरे में होने के कारण वह तेरी अग्नेश का ज्यादा कुछ तो नहीं बिगाड़ पाए परंतु फिर भी हल्के हल्के घाव तो दे ही गये।
याग्नेश के लिए एक आश्चर्य की बात थी के उन साधारण धनुर्धर ओके तीर उसके काली शक्ति की उर्जा के घेरे को कैसे भेज सकते हैं परंतु अभी समय सोचने का नहीं था वार करने का था
याग्नेश ने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाएं और कुछ मंत्र बुदबुदाया इसके साथ ही उसकी आंखें चमकने लगी और आकाश से बिजली की तरंगे उन सैनिकों पर पड़ने लगी उनकी दर्दनाक चीखें एक बार फिर वहां गूंजने लगी।
अपने सैनिकों की ऐसी दुर्दशा देखकर एक सेनानायक ने अपने घोड़े को संपूर्ण गति के साथ याग्नेश की ओर दौडाया, वायु की सी गति के साथ याग्नेश की दाई ओर जोर से टकराया ।
याग्नेश का ध्यान पूरी तरह से सैनिकों पर था। टक्कर का वेग इतना था कि याग्नेश को संभलने का मौका नहीं मिला और वह दाई और कुछ दूर जाकर गिरा।
परंतु इससे वह सेनानायक और उसका घोड़ा बच नही पाये, वहा याग्नेश की विद्युत उर्जी के कारण पूरी तरह से झुलस गये ।
इस अप्रत्याशित हमले के कारण याग्नेश का क्रोध अब बहुत बढ़ गया था उसकी आंखें अंगार उगलने लगी थी अब तक इस युद्ध को वह सहजता से ले रहा था।
परंतु अब नहीं--- उसने अपने दोनो हाथ आकाश की ओर फैलाए और काली शक्ति के प्रचंड समूल प्रणांनतक ऊर्जा का आह्वान करने लगा यह एक ऐसा वार था, जो वहां उपस्थित संपूर्ण जीवधारी चाहे वह जीव जंतु हो या आकाश में उड़ने वाले पंछी सभी को पल भर में राख के ढेर में बदलने की क्षमता रखता था।
वहीं दूसरी ओर महल के भीतर जब राजा सुजान सिंह अपने मंत्रियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे उसी समय मुख्य द्वार के ध्वस्त होने की ध्वनि ने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
उस ध्वनि से राजा इतना तो समझ गया था मुख्य द्वार ध्वस्त हो गया है और उसका सबसे बड़ा शत्रु याग्नेश जिसके आने की वह प्रतीक्षा कर रहा था वह आ चुका है।
सुजान सिंह को अपनी योजना पर पूरा भरोसा था उसे यकीन था के आज वह याग्नेश नाम के इस कांटे को जड़ से उखाड़ फेंकेगा।
सुजान सिंह -- चलो साथियों जिस पल की हमें प्रतीक्षा थी वह सन्मुख है चलो जरा अपने बाल सखा का स्वागत तो कर ले
सेनापति जी, युद्धवीर सिंह, राजगुरु जी चलो अपनी योजना को मूर्त रूप देने का समय आ गया है परंतु ध्यान रहे जरा सी भी चूक भयंकर परिणाम को निमंत्रण दे सकती है।
इतना कहकर राजा सुजान सिंह और साथ ही साथ सभी महल से निकलकर मुख्य द्वार की दिशा में बढ़ चले जहां से अभी सैनिकों की दर्दनाक चीखें सुनाई दे रही थी।
यहां याग्नेश लगभग प्रणांतक ऊर्जा का आह्वान कर चुका था, जिसका असर उसके प्रयोग करने से पूर्व ही सैनिकों पर दिखाई देने लग गया था , उस अस्त्र के प्रभाव से कई दुष्ट आत्माए वहां प्रकट हो गई थी जो अस्त्र के प्रयोग होते ही वहां मौजूद सभी शरीर धारियों के प्राणों को सोख लेने के लिए तत्पर थी उनकी डरावनी आवाजें वहां के वातावरण को और भी भयावह बना रही थी।
युद्ध भूमि में अपने साथियों के कटे हुए शव और बहते हुए रक्त को देखकर सैनिक पहले ही भयभीत थे अपने किसी भी वार का याग्नेश पर कोई भी असर ना होता हुआ देखकर हताश भी थे और रही सही कसर इस भयंकर अस्त्र के आवाहन से प्रगट हुई दुष्ट प्रेत आत्माओं की ध्वनि ने पूरी कर दी अब उन सब को अपनी मृत्यु स्पष्ट नजर आने लगी थी।
याग्नेश ने एक नजर बची हुई शत्रु सेना पर डाली और अपने आव्हान किए हुए अस्त्र का प्रयोग करने ही वाला था के एक श्वेत ऊर्जा का बड़ा सा गोला उस अस्त्र की काली शक्तियों की ओर जा से टकराया और देखते ही देखते जितने भी दुष्ट आत्माएं वहां प्रकट हुई थी सभी पल भर में लुप्त हो गई।
अपने इस भयंकर अस्त्र को विफल होते हुए देखकर याग्नेश को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही मेघ की गर्जना की तरह जानी पहचानी एक आवाज उभरी
" रुक जाओ इन साधारण सैनिकों पर अपनी प्रचंड काली शक्तियों की ऊर्जा का प्रयोग करते हुए तूने लज्जा नहीं आई क्या यही है तुम्हारी वीरता या इन काली शक्तियों ने तुम्हें अंदर से खोखला कर दिया है "
इस जानी पहचानी आवाज को सुनकर और आवाज की दिशा में खड़े व्यक्ति को देखकर याग्नेश के चेहरे पर एक मुस्कान उभर आई
आज के लिए इतना ही -----अगला अपडेट शीघ्र ही-------
सभी पाठकों से निवेदन हैं इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें आपके सहयोग का अभिलाषी -----
आपका मित्र ------- अभिनव![]()
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Shandaar update bhai , bahut hi kamal ka likhte ho bhai aapअध्याय - 7
अपने इस भयंकर अस्त्र को विफल होते हुए देखकर याग्नेश को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही मेघ की गर्जना की तरह जानी पहचानी एक आवाज उभरी
" रुक जाओ इन साधारण सैनिकों पर अपनी प्रचंड काली शक्तियों की ऊर्जा का प्रयोग करते हुए तूने लज्जा नहीं आई क्या यही है तुम्हारी वीरता या इन काली शक्तियों ने तुम्हें अंदर से खोखला कर दिया है "
इस जानी पहचानी आवाज को सुनकर और आवाज की दिशा में खड़े व्यक्ति को देखकर याग्नेश के चेहरे पर एक मुस्कान उभर आई।
अब आगे ------
यह आवाज थी सेनापति समर सिंह की जो किसी समय में याग्नेश के युद्ध कला के गुरु रह चुके थे
समर सिंह--- मुझे दुख होता है यह सोच कर कि तुम जैसा व्यक्ति कभी मेरा शिष्य था , मैंने कभी सोचा नहीं था के तुम अधर्म के मार्ग चुनोगे और उस पर चलकर इतना आगे निकल जाओगे , अभी भी समय है याग्नेश, यह पाप पूर्ण मार्ग त्याग दो।
याग्नेश-- प्रणाम गुरुदेव , सर्वप्रथम आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें इतने समय पश्चात आपको देखकर बहुत अच्छा लगा आखिर किसी समय मैंने आपको अपने पिता तुल्य माना था।
समर सिंह-- मत कहो तुम मुझे अपना गुरुदेव तुम वह अधिकार खो चुके हो अभी भी समय है पुत्र तुम वापस लौट आओ यह पाप का मार्ग त्याग दो और अपने कर्मों का प्रायश्चित करो।
याग्नेश-- यह पाप पुण्य धर्म अधर्म का मुझे ज्ञान मत दो गुरुदेव मैं यह सब जानता हूं धर्म के मार्ग ने और मेरे पूर्वजों द्वारा पुण्यों ने आखिर दिया ही क्या है, आप मेरे लिए पूजनीय हैं इसलिए आप मेरे मार्ग से हट जाइए क्योंकि मैं नहीं चाहता क्यों मेरे द्वारा यहां होने वाले विनाश मैं मरने वालों मैं आपका भी नाम हो मुझे बहुत दुख होगा।
समर सिंह-- ठीक है तुम युद्ध ही चाहते हो तो युद्ध ही सही जरा देखे तो जादुई विद्याओं का प्रयोग करते करते युद्ध कला तो नहीं भूल गए
इतना कहकर सेनापति समर सिंह ने अपनी मयान से अपनी तलवार बाहर निकाल ली और उधर याग्नेश भी अपनी तलवार के साथ समर सिंह से युद्ध के लिए सज्ज हो गया
दोनों गुरु शिष्य युद्ध के मैदान में अब आमने-सामने थे जहां सेनापति ने सभी को दोनों के युद्ध में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया नहीं याग्नेश ने बिना काली शक्तियों के प्रयोग और उसके कवच के बिना युद्ध करने का निर्णय लिया।
राजा सुजान सिंह समेत वहां मौजूद सभी योद्धा इन दोनों के युद्ध के परिणाम को देखने के लिए उत्सुक थे।
समर सिंह ने आगे बढ़कर अपनी तलवार का प्रथम और भरपूर वार याग्नेश के सिर की तरफ किया और वही याग्नेश ने भी बड़ी फुर्ती के साथ अपनी तलवार से उस वार को रोककर साथ ही साथ अपनी तलवार घुमाकर समर सिंह के तलवार को झटका दिया और दूसरे हाथ से समर सिंह के सीने पर जोर से मुक्का मारा जिसके प्रभाव से वह कुछ कदम पीछे हटा।
समर सिंह-- बहुत खूब ! बहुत खूब ! दिख रहा है के तलवारबाजी का हुनर तुम भूले नहीं हो लो संभालो मेरे अगले बार को
इतना कहकर समर सिंह ने विद्युत किसी गति के साथ सीधी तलवार से याग्नेश के पेट की तरफ वार किया, परंतु याग्नेश ने भी इतनी फुर्ती के साथ अपनी तलवार को गोलाकार घुमाते हुए समर सिंह के वार को विफल किया और चकरी की तरह घूम कर समर सिंह के पीछे पहुंचकर अपने पैर से एक बार पुरवार उनकी कमर पर किया। यह सब इतनी तेजी के साथ हुआ था समर सिंह को संभलने का मौका नहीं मिला आगे जाकर मुंह के बल गिरा।
याग्नेश--- जब गुरु आपके जैसा सक्षम हो तो तलवारबाजी का हुनर मैं कैसे भूल सकता हूं परंतु लगता है कि आप अपना हुनर भूल गए हो खड़े हो जाइए गुरुदेव और सामना करिए।
याग्नेश की बात सुनकर समर सिंह बड़ी तेजी के साथ उठ खड़ा हुआ वह समझ गया था याग्नेश के साथ युद्ध करना इतना आसान नहीं है समर सिंह ने अपना ध्यान केंद्रित किया अपने संपूर्ण इंद्रियों को सजग किया जिससे वह याग्नेश के हर बार को समझ सके
समर सिंह--- यू मुझे बार-बार गुरुदेव मत कहो तुम्हारे जैसा नीच, अधर्मी , पापी और हत्यारा मेरा शिष्य नहीं हो सकता , अरे तुमने तो अपने पुर्वजो के आदर्शों की भी लाज नहीं रखी । अपने स्वार्थवश न जाने कितने बेगुनाहों की हत्या की।
समर सिंह के द्वारा कहे गए कटु वचनों को सुनकर याग्नेश को बहुत क्रोध आया जिससे वह अपना संतुलन खो बैठा यही तो समर सिंह भी चाहता था।
क्रोध के आवेग में याग्नेश ने समर सिंह को समाप्त करने के लिए छलांग लगाकर अपनी तलवार का वार समर सिंह के गर्दन की तरफ किया परंतु यहां समर सिंह भी पूरी तरह सचेत था कितनी गति से वार हुआ था उतनी ही गति से वह एक ओर हट गया और याग्नेश भूमि पर जोर से गिरा, समर सिंह याग्नेश को समझने का मौका नहीं देना चाहता था वह बड़ी तेजी के साथ आगे बढ़ा इससे पहले कि याग्नेश संभल पाता उसने जोरदार ठोकर याग्नेश की पसलियों में मारी जिससे याग्नेश वहा से उडकर पीछे जा गीरा।
समर सिंह शरीर से बहुत बलिष्ठ था शारीरिक बल के मामले में वह याग्नेश से दुगना शक्तिशाली था इस प्रकार से याग्नेश की पसलियों में तेज दर्द हुआ परंतु वह अपने दर्द को भूल कर इससे पहले कि समर सिंह उस तक पहुंचता वह फुर्ती के साथ खड़ा हुआ।
याग्नेश तेजी से समर सिंह की ओर बढ़ा और तलवार को विद्युत गति से घुमाता हुआ प्राण घातक वार करने लगा उसके प्रत्युत्तर में समर सिंह एकाग्रचित मन के कारण उसकी हर बार को सहजता से विफल कर रहा था दोनों योद्धाओं की तलवारों की टंकार वातावरण में गूंज रही थी बाकी सभी योद्धा अपनी सांस थामे देख रहे थे।
अति व्यग्रता और क्रोध के कारण याग्नेश का हर वार विफल हो रहा था , के तभी
समर सिंह ने तेजी से घूम कर याग्नेश के बाजू पर तलवार से वार किया जिससे बाई बाजू जख्मी हो गई।
इसी घाव के साथ याग्नेश को अपनी भूल का अंदाजा हो गया की व्यग्रता के साथ लड़ा गया कोई भी युद्ध जीत तक नहीं ले जाता अब उसने भी अपने मन को एकाग्र किया अपनी इंद्रियों को संयत करके अपने घाव के दर्द को भुलाकर वह किसी चक्कर की तरह घूमता हुआ और साथ ही साथ अपनी तलवार को घुमाता हुआ समर सिंह की और बढा।
याग्नेश में आए हुए इस बदलाव को देखकर समर सिंह के चेहरे पर मुस्कान उभर आई वह भी अपनी तलवार लेकर याग्नेश के वार का प्रत्युत्तर देने लगा।
तभी समर सिंह ने नीचे झुक कर अपनी तलवार का भरपूर वार याग्नेश के पैरों की तरफ किया याग्नेश ने भी छलांग लगाकर उस वार से अपना बचाव किया और साथ ही साथ समर सिंह के हाथ पर जोरदार ठोकर मारी जिसे समर सिंह की तलवार भूमि पर गिर गई।
तलवार के भूमि पर गिरते ही इससे पहले कि याग्नेश अपना अगला वार करता समर सिंह ने भी हवा में उछल कर कलाबाजी या खाता हुआ याग्नेश के दाई और से उसकी कलाई पर प्रहार किया जिससे याग्नेश की भी तलवार भूमि पर गिर गई।
अब दोनों योद्धा मल्ल युद्ध करने लगे एक दूसरे पर लात घूसों के दाव पेच आजमाने लगे दोनों किसी मतवाली हाथी की तरह एक दूसरे से टकरा रहे थे।
अभी दोनो लड ही रहे थे के अचानक कड़क की आवाज के साथ किसी की चीखने की भी आवाज आई यह आवाज की समर सिंह की।
हुआ यूं के मल्लयुद्ध के दौरान समर सिंह ने जैसे ही जोरदार मुक्का याग्नेश के सीने में मारना चाहा तब याग्नेश ने बड़ी फुर्ती के साथ समर सिंह की कलाई पकडी और पूरी वेग के साथ घुमा दी जिससे समर सिंह हवा में घूमता हुआ भूमि पर आ गिरा उसके हाथ की हड्डी टूट चुकी थी समर सिंह की भूमि पर गिरते ही याग्नेश ने एक जोरदार ठोकर समर सिंह की पसलियों में मारी जिससे उसकी कई पसलियां टूट गई अब समर सिंह हिलने की भी हालत में नहीं रहा, और मूर्झीत हो गया।
समर सिंह को धराशाई होता हुआ देखकर राजा सुजान सिंह सभी योद्धा और सैनिक जो इस द्वंद्व को देख रहे थे वह सचेत हो गए क्योंकि वह जानते थे के याग्नेश को रोकना बहुत कठिन होगा।
समर सिंह के धराशाई होते ही याग्नेश ने सुजान सिंह की ओर देखा।
याग्नेश सुजान सिंह अब अपने किए हुए हर अपराध का दंड भुगतने के लिए तैयार हो जाओ आज तुम्हें मेरे हाथों से कोई नहीं बचा सकता तुम्हारा सेनापति तो धराशाई हो गया अब और कोई बचा है जो मेरा सामना कर सके तो उन्हें भी भेजो
इतना कहकर याग्नेश अपनी तलवार संभाल कर सुजान सिंह की और बढा जब सुजान सिंह के अंगरक्षको ने याग्नेश को अपने राजा की ओर बढ़ता हुआ देखा जो गिनती में लगभग 100 के बराबर थे उनमें से लगभग 50 योद्धाओं ने राजा के चारों तरफ एक घेरा बना लिया और बाकी बचे 50 अपने शस्त्र लिए याग्नेश की ओर दौड़ पड़े।
उधर यागनेश भी किसी चक्र की मानिंद घूमता हुआ और तलवार घुमाता हुआ आगे बढ़ा और देखते ही देखते कुछ ही पल में आगे आ रहे दो अंग रक्षकों के सिर भूमि पर उसकी तलवार से कट कर गिर चुके थे , तब तक याग्नेश के पीछे चार अंगरक्षक पहुंच गए थे और उन्होंने एक साथ उसके ऊपर वार किया।
इंद्रियों के सजग रहने के कारण याग्नेश को इस बार का पता चल गया और उसने नीचे बैठकर अपनी तलवार ऊपर उठा दिया और उनके वारो को रोक दिया और साथ ही साथ बड़ी फुर्ती से घूम कर उन चारों के पैर काट दिए , पैरों के कटते हैं कि वो चारों किसी कटे हुए वृक्ष की भांति वह चारों धड़ाम से धरती पर आकर गिरे।
अपने साथियों की ऐसी हालत देखकर बाकी बचे हुए सभी योद्धाओ ने एक साथ याग्नेश के ऊपर छलांग लगा दी, इतने योद्धाओं के एक साथ टकराने से याग्नेश अपना संतुलन खो बैठा और भूमि पर जा गिरा सभी योद्धाओं ने मिलकर याग्नेश को अपने नीचे दबा दिया था, वहां मानो मानव शरीर का एक छोटा सा टीला सा बन गया था।
इस दृश्य को देखकर सुजान सिंह बड़ा प्रसन्न हुआ और वह आगे बढ़ने वाला था यह तभी उस मानव टीले के नीचे जहां याग्नेश दबा पड़ा था, एक तेज नीली रोशनी चमकी और देखते ही देखते वो सभी योद्धा जो याग्नेश को अपने नीचे दबाए हुए पड़े थे वह हवा में तैरते हुए भूमि पर गिर पड़े मानो घास के तिनको को हवा के झोंके ने उड़ा कर फेंक दिया हो।
याग्नेश अब अपने कपड़ों को झाड़ता हुआ खड़ा हो गया , उसकी आंखें क्रोध की अधिकता के कारण लाल हो गई थी अपने चारों तरफ गिरे हुए सुजान सिंह के अंगरक्षको को समाप्त करने के लिए उसने उन सभी को विद्युत पाश में बांध दिया और उनके प्राणों को सोखने लगा के , तभी एक सशक्त उर्जा पाश ने उसे जकड लिया।
वह अदृश्य ऊर्जा पाश याग्नेश के शरीर पर पूरी तरह कस गया था, उस ऊर्जा पाश ने याग्नेश के हाथ पैरों को पूरी तरह बांध दिया था उस अदृश्य ऊर्जा पाश के बंधन में जकड़ा हुआ याग्नेश अब घुटनों के बल भूमि पर बैठ गया था---- के तब ही-----
आज के लिए इतना ही अगला अध्याय शिघ्र ही-----
सभी पाठकों से नम्र निवेदन है कि वह इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया और अपने सुझाव अवश्य दें-----
आप सभी के प्रेम और साथ का अभिलाषी
आपका अपना मित्र --- अभिनव![]()
Execellent update bhai with awesome writing skillsअध्याय -- 8
याग्नेश अब अपने कपड़ों को झाड़ता हुआ खड़ा हो गया , उसकी आंखें क्रोध की अधिकता के कारण लाल हो गई थी अपने चारों तरफ गिरे हुए सुजान सिंह के अंगरक्षको को समाप्त करने के लिए उसने उन सभी को विद्युत पाश में बांध दिया और उनके प्राणों को सोखने लगा के , तभी एक सशक्त उर्जा पाश ने उसे जकड लिया।
वह अदृश्य ऊर्जा पाश याग्नेश के शरीर पर पूरी तरह कस गया था, उस ऊर्जा पाश ने याग्नेश के हाथ पैरों को पूरी तरह बांध दिया था उस अदृश्य ऊर्जा पाश के बंधन में जकड़ा हुआ याग्नेश अब घुटनों के बल भूमि पर बैठ गया था---- के तब ही-----
अब आगे -----
ऊर्जा पाश में बंधा हुआ याग्नेश अपने आप को छुड़ाने का प्रयत्न कर रहा था, उसे आश्चर्य हो रहा था यह इतना शक्तिशाली ऊर्जा पाश जो उस की काली शक्तियों के कवच को भी भेद सकता है यह किसके द्वारा प्रयोग किया गया है । के तभी सामने से आते हुए युद्धवीर सिंह क्यों पर उसकी दृष्टि पड़ी।
युद्धवीर सिंह को देखकर याग्नेश के मुख पर व्यंगात्मक मुस्कान उभरी
याग्नेश-- ओह ! तो युद्धवीर सिंह तुम भी यहां उपस्थित हो अच्छा है , तुम्हारे पिता विक्रम सिंह को तो मैं यमलोक भेज चुका हूं अब तुम भी यमलोक में उनके पास जाने के लिए सज्ज हो जाओ।
युद्धवीर सिंह -- हा हा हा ! मेरे पिता की हत्या करके तुम क्या सोचते हो मेरी भी हत्या कर दोगे , यह इतना आसान नहीं है याग्नेश। प्रतिशोध तो मैं लूंगा तुमसे अपने पिता की हत्या का , मेरी बहन के अपहरण का। कुछ जादुई शक्तियों का उपयोग करके तुम अपने आप को शक्तिशाली समझ रहे हो देखो मेरे छोटे से पास में तुम्हारी क्या दशा कर दी अब अपनी मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ।
इतना कहकर युद्धवीर सिंह अपनी तलवार लेकर याग्नेश की और बड़ा ही था कि याग्नेश ने अपने हाथों को झटका दिया और ऊर्जा पाश से मुक्त हो गया । इससे पहले कि युद्धवीर सिंह याग्नेश पर कोई वार करता याग्नेश ने तेजी से उसे उठाकर दूर फेंक दिया
याग्नेश -- बच्चे हो तुम मेरे सामने अभी युद्धवीर सिंह ! तुम क्या सोचते थे कि यह ऊर्जा पाश मुझे बान्ध सकता है , याग्नेश हूं मै , यह छोटे मोटे पाश मेरा कुछ नही बीगाड सकतें , मैं तो बस तुम्हे सामने लाने के लिए बन्ध गया था ।
इतना कहकर याग्नेश ने नीले रंग के प्रकाश का एक गोला युद्धवीर सिंह की ओर फेंका, परंतु युद्धवीर सिंह भी कोई कम नहीं था उसने उतनी ही तेजी दिखाकर अपने स्थान से छलांग लगाकर याग्नेश के वार से बच गया और साथ ही साथ एक श्वेत ऊर्जा का गोले से याग्नेश पर प्रहार किया।
याग्नेश ने उस उर्जा के गोले के प्रहार को अपनी उर्जा से काट दिया और साथ ही साथ अपने दोनों हाथ युद्धवीर सिंह की ओर झटके जिससे असंख्य छोटे-छोटे चक्र तेजी से घूमते हुए युद्धवीर सिंह की ओर बढ़े ।
इधर युद्धवीर सिंह ने भी अपने दोनों हाथों को घुमा कर वायु का एक बड़ा गोला तैयार किया और चक्रों की दिशा में प्रहार किया, वायु का वह गोला उन सारे चक्रों को अपने में समाता हुआ याग्नेश की और बड़ा और बड़ी तेजी से टकराया।
वह चक्र याग्नेश की ही काली ऊर्जा से निर्मित थे , इस कारण उन चक्रों के टकराव से याग्नेश का कवच कई जगह से फट गया और उसके शरीर पर काफी घाव हो गए।
युद्धवीर सिंह का इस प्रकार उसके किए गए वार का प्रतिकार करना याग्नेश के लिए आश्चर्यजनक था याग्नेश युद्धवीर सिंह केबल और शक्ति के बारे में जानता था परंतु उसका सामना आज जिस युद्धवीर सिंह से हो रहा था वह सर्वथा भिन्न था।
याग्नेश जानता था कि यह समय विचार करने का नहीं युद्ध करने का है इसलिए अपने मन में आ रहे सभी विचारों को शांत करके एक बार फिर याग्नेश युद्ध के लिए सज्ज हो गया।
परंतु इतनी देर में युद्धवीर सिंह ने अपना अगला वार कर दिया था याग्नेश युद्धवीर सिंह की और बड़ा ही था की एक विद्युत किरण उसके सीने से टकराई जिसके प्रभाव से वह कुछ दुर पीछे गिरा।
परंतु याग्नेश भी कोई साधारण योद्धा नहीं था गिरते-गिरते भी उसने बड़ी तीव्रता के साथ अपनी उर्जा का प्रहार युद्धवीर सिंह की ओर किया।
अपने किए गए प्रहार की सफलता देखकर युद्धवीर सिंह प्रसन्न हो ही रहा था के याग्नेश की उर्जा उसके सीने से टकराई और एक धमाका हुआ जिससे वह उड़ते हुए दूर जा गिरा।
याग्नेश के इस वार से युद्धवीर सिंह बुरी तरह से घायल हो गया था , उसके सारे शरीर में भयंकर पीड़ा होने लगी थी।
अपने दर्द पर काबू पाता हुआ वह लड़खड़ाते हुए कदमों से खड़ा हुआ ही था के
युद्धवीर सिंह को समाप्त करने के लिए याग्नेश ने अपना अगला वार कर दिया ।
अनेक प्रकार के अस्त्र तीव्र गति से युद्धवीर सिंह की ओर बढ़ रहे थे, घायल अवस्था में भी युद्धवीर सिंह पूरी तरह से सजग था, अपनी ओर आते हुए अनेक घातक शस्त्रों को रोकने के लिए युद्धवीर सिंह ने अपना हाथ आगे करके एक मोटी सी ऊर्जा की ढाल बनाई । वह सारे शस्त्र उस उर्जा की परत से आकर टकराई।
युद्धवीर सिंह उन शस्त्रों को अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर रोक रहा था, जब उसे अंदाजा हुआ के वह श्वेत ऊर्जा द्वारा इन घातक अस्त्रों को ज्यादा देर तक नहीं रोक सकता तब उसने अपनी आंखें बंद कर ली और कुछ बुदबुदाने लगा , कुछ ही पलों में उसने अपनी आंखें खोली अब उसकी आंखों का संपूर्ण रंग काला हो गया था।
उसके शरीर से गहरे नीले रंग की उर्जा किरणे निकलने लगी थी । उस ऊर्जा की किरणों का उन घातक अस्त्रों के साथ संपर्क होते ही वह सारे अस्त्र दूर से झीटक कर गिर गए ।
उस गहरे नीले रंग की उर्जा के प्रभाव से अब वीर सिंह के सारे घाव अब ठीक हो चुके थे। जिसे देखकर याग्नेश के आश्चर्य की सीमा नहीं रही क्योंकि वह उस नीले रंग की ऊर्जा को पहचानता था, क्योकि यह उर्जा किसी देवता की नही उसके मालिक जिसकी वह उपासना करता था उस ईब्लिस की थी।
अब युद्धवीर सिंह ने अपनी उसी उर्जा का वार याग्नेश पर किया, याग्नेश ने भी बड़ी तीव्रता के साथ इस वार का प्रत्युत्तर दिया और उसके वार को नष्ट किया,
अब दोनों ओर से काली शक्तियों की ऊर्जा के प्रहार हो रहे थे, दोनों में से कोई किसी से कम नजर नहीं आ रहा था , सतत दोनो ओर से काली उर्जाओ के टकराने से वहां की सारी सकारात्मक उर्जाएं नष्ट हो रही थी।
वहां चारों ओर नकारात्मक शक्ति फैलने लगी थी। जिसका प्रभाव वहां खड़े हुए योद्धाओं के मन पर पढ़ रहा था।
वहां खड़े योद्धा और सैनिक जो याग्नेश और युद्धवीर सिंह दोनों काली शक्तियों के धारक के टकराव को देख रहे थे , उन में अब दो दल बन गए थे
जहां एक दल शोर मचा कर याग्नेश का समर्थन कर रहा था वही दूसरा दल युद्धवीर सिंह के जयकारे लगाकर समर्थन कर रहा था।
जैसे-जैसे दोनों का युद्ध और गहरा होता जा रहा था वैसे वैसे वहांकि नकारात्मकता भी बढती जा रही थी , जिसके प्रभाव के कारण उन दोनों दलों की व्यग्रता भी बढ़ती जा रही थी ।
उस प्रभाव में आकर वह दोनों सैनिको के दल आपस में ही भिड़ गए और एक दूसरे को मारने लगे, एक-एक करके वह सभी मृत्यु की आगोश में जा रहे थे उनके शरीर के कटे हुए अंग और बहता हुआ रक्त उनकी वह चीख पुकार वहां के वातावरण को और भयावह बना रही थी।
अब तक के युद्ध से याग्नेश इस बात को जान गया था कि केवल काली शक्तियों के प्रहार से वह युद्धवीर सिंह से नहीं जीत सकता , इसलिए अब उसने अपने पिता द्वारा सिखाई गई पंच तत्वों की उर्जा का काली शक्तियों के साथ सम्मीश्रण करके प्रयोग करने का निर्णय लिया।
आचार्य पद के जाने के बाद याग्नेश ने अपने पिता द्वारा सिखाए गए श्वेत ऊर्जा और पंच तत्व के प्रयोग की कलाओं को याग्नेश ने त्याग दिया था क्योंकि यह सब सात्विक प्रयोग थे।
काली शक्तियों का धारक होने के कारण वह श्वेत ऊर्जा का प्रयोग तो नहीं कर सकता था , परंतु पंचतत्व की ऊर्जा का अवश्य प्रयोग कर सकता था , क्योंकि सभी शरीर धारी पंचतत्व की उर्जा के धारक होते हैं जहां यह ऊर्जा समाप्त होती है वही जीवन भी समाप्त हो जाता है।
याग्नेश ने अब वायु जल और पृथ्वी तत्व और अब सम्मिलित उर्जा का प्रयोग करके एक विशाल चक्रवात का निर्माण किया जिसमें उसने विद्युत तरंगों का भी प्रयोग किया।
वह चक्रवात तेजी से आगे बढ़ता हुआ युद्धवीर सिंह को अपने में समा गया,
युद्धवीर सिंह ने उस चक्रवात से निकलने का भरसक प्रयास किया , परंतु उसके सभी प्रयास विफल हो गए।
उस तेजी से घूमते हुए चक्रवात में भूमि तत्वों से निर्मित विशाल शिलाखंड और जल तत्व और वायु तत्व के सहयोग से बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े टकराने से युद्धवीर सिंह का शरीर कई जगह से घायल हो गया था।
अत्यंत पीड़ा का अनुभव करते हुए और उस चक्रवात में घूमते हुए युद्धवीर सिंह मृत:प्राय हो गया था।
उसकी सांसे बहुत धीमी गति से चलने लगी कुछ ही क्षणों में वह निर्जीव सा हो गया और देखते ही देखते हुए चक्रवात भी शांत हो गया ।
चक्रवात के शांत होते ही युद्धवीर सिंह का शरीर धड़ाम से भूमि पर आकर गिरा युद्धवीर सिंह के शरीर को क्षत विक्षत अवस्था में भूमि पर अचेत अवस्था में पड़ा देखकर , याग्नेश के चेहरे पर मुस्कान उभर आई उसे मृत समझकर याग्नेश अपने अगले शत्रु राजा सुजान सिंह की ओर बढ़ गया।
राजा के अंगरक्षक पहले ही याग्नेश और युद्धवीर सिंह के काली शक्तियों के प्रयोग से उत्पन्न होनेवाली नकारात्मक ऊर्जा की भेंट चढ़ गए थे ।
याग्नेश को अपनी और बढ़ता हुआ देखकर सुजान सिंह भय के मारे थर-थर कांपने लगा। उसने अपनी मदद की आशा से चारों ओर नजर दौड़ाई ,परंतु निराशा ही हाथ लगी , क्योंकि वह इस समय अकेला ही सही सलामत युद्ध भूमी पर खड़ा था।
एक ओर सेनापति समर सिंह अभी भी मूर्छित अवस्था में भूमि पर पड़े थे , तो दूसरी ओर युद्धवीर सिंह भी मृतप्राय अवस्था में भूमि पर अचेत पड़ा हुआ था । उसके सारे सैनिक और अंगरक्षक एक दूसरे को समाप्त कर चुके थे, उसके महामंत्री और राजगुरु का दूर-दूर तक पता नहीं था , शायद मृत्यू के भय से पलायन कर गये हो । चारों ओर लाशों के ढेर और रक्त के कीचड़ के बीच में सुजान सिंह अकेला खड़ा था।
सुजान सिंह को भय के मारे थरथर कांपता हुआ देखकर याग्नेश जोर से ठहाका लगाकर हंसने लगा , उसकी वह भयावह हंसी सुनकर सुजान सिंह का रंग पीला पड़ गया।
याग्नेश -- सुजान सिंह ! देखो अपने चारों ओर है कोई जो तुम्हारी रक्षा करने वाला हो, अब अपने किए गए अपराधों का दंड भुगतने के लिए तैयार हो जाओ।
सुजान सिंह -- मुझे क्षमा कर दो याग्नेश ! तुम जैसा बोलोगे वैसा ही मैं करूंगा, तुम चाहो तुम मेरा सारा धन ले लो परंतु मुझे जीवनदान दे दो, मैं अपने किये अपराधों का प्रायश्चित करना चाहता हूं । कृपया मुझे बस एक अवसर देदो।
याग्नेश -- क्षमा कर दो ! तुम्हें लज्जा नहीं आई सुजान सिंह क्षमा मांगते हुए , मेरे पिता तुम्हें भी अपने पुत्र के समान मानते थे, उनके प्रति किए गए विश्वासघात के लिए तो मैं क्षमा कर दूं ?
मेरे दादाजी की मृत्यु के लिए तो मैं क्षमा कर दूं ? मेरे कुल का सर्वनाश का कारण बनने के लिए क्षमा कर दूं ?
आज मैं जहां खड़ा हूं उसका केवल एक ही व्यक्ति जिम्मेदार है और वह हो तुम इसलिए अपना दंड पाने के लिए सज्ज हो जाओ।
और इस प्रकार क्षमा दान मांग कर अपने गुरु और मेरे पिता की दी हुई शिक्षा को कलंकित मत करो संभालो अपनी तलवार और मेरा सामना करो।
इतना कहकर याग्नेश में अपने तलवार का भरपूर वार सुजान सिंह की गर्दन की तरफ किया, जिसे सुजान सिंह ने अपनी तलवार से रोकने का प्रयास किया, याग्नेश का प्रहार इतना जोरदार था उसके प्रभाव के कारण सुजान सिंह की तलवार भूमि पर गिर गई और अगले ही पाल सुजान सिंह का कटा हुआ सिर भूमि पर गिर पड़ा ।
सुजान सिंह को मरते हुए देखकर याग्नेश खुशी से झूम उठा के-----
मित्रों आज के लिए इतना ही ---अगला अपडेट जल्दी ही-----
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Bahut hi behtareen update bhaiअध्याय - 9
इतना कहकर याग्नेश में अपने तलवार का भरपूर वार सुजान सिंह की गर्दन की तरफ किया, जिसे सुजान सिंह ने अपनी तलवार से रोकने का प्रयास किया, याग्नेश का प्रहार इतना जोरदार था उसके प्रभाव के कारण सुजान सिंह की तलवार भूमि पर गिर गई और अगले ही पाल सुजान सिंह का कटा हुआ सिर भूमि पर गिर पड़ा । सुजान सिंह को मरते हुए देखकर याग्नेश खुशी से झूम उठा था के-----------
अब आगे ---------
देखते ही देखते सुजान सिंह का शरीर धुएं में परिवर्तित होने लगा । याग्नेश अभी कुछ समझता के इससे पहले उस धूए ने उसे चारों ओर से घेर लिया । अब वह धूआ लोहे की मजबूत पिंजरे में बदल चुका था ।
जिसमें याग्नेश कैद हो चुका था , इस प्रकार की अद्भुत माया याग्नेश पहली बार देख रहा था।
इस प्रकार की अद्भुत माया कौन हो सकता है इस बारे में याग्नेश सोच ही रहा था कि उसे किसी के हंसने की आवाज सुनाई दी। पिंजरे में कैद याग्नेश में जब सामने की ओर देखा तो उसे राजा सुजान सिंह महामंत्री विमलाक्ष और राजगुरु विद्याधर को आते हुए दिखे
उन तीनों को सामने से आता हुआ देखकर याग्नेश का क्रोध और बढ़ गया और वह उस पिंजरे को तोड़ने का प्रयत्न करने लगा परंतु जैसे ही वह उस पिंजरे को तोड़ने का प्रयास करता उसे तेज झटके लगते।
सुजान सिंह - हंसी आती है मुझे याग्नेश तुम्हारी दशा देखकर , देखो किस प्रकार कैद में किसी पंछी की भांति फड़फड़ा रहे हो। तुम कितनी भी कोशिश कर लो इस कैद से बाहर नहीं आ पाओगे क्या सोचा था तुमने फिर तुम मुझे इतनी सरलता से मार दोगे मत भूलो मैं सुजान सिंह हूं देव नगर का राजा, कोई साधारण सैनिक नही जीसे तुम आसानी से मार दोगे।
याग्नेश - सुजान सिंह तुम्हारा यह मायावी पिंजरा मुझे ज्यादा देर तक कैद नहीं रख सकता अच्छा हुआ तुम तीनों एक साथ मेरे सामने आ गए , बचपन की मित्रता को याद करते हुए मैंने सोचा था कि तुम्हें सरल नंबर क्यों दूं परंतु अब नहीं और अच्छा हुई हुआ फिर तुम अपने साथ राजगुरु को भी ले आए।
राजगुरु विद्याधर -- कैसे ना आता मेरे बच्चे ! तुम्हें अंतिम विदाई देने के लिए तो आना ही था । आखिर तुम मेरे प्यारे विग्नेश के पुत्र जो ठहरे , मुझे बहुत दुख हो रहा है तुम्हें इस दशा में देखकर । चिंता मत करो तुम्हें अब शीघ्र ही इस असहनीय दु:ख से मुक्ति मिलने वाली है।
याग्नेश -- मत लो अपने गंदी जुबान से मेरे पिता का नाम । मेरे दादा ने तुम्हें अपना भाई माना था मेरे पिता भी आपको अपने पिता तुल्य मानते थे। ना जाने क्या क्यों और कैसे आपने मेरे परिवार के साथ विश्वासघात किया , परंतु अब तक इतना मैं जान चुका हूं, मेरे परिवार की दुर्दशा मैं सबसे बड़ा हाथ आपका ही है। जितनी पीडा तुम तीनो ने मुझे दी है उससे कई गुना अधिक पीडा मै तूम तीनो को दूंगा।
राजगुरु - ऐसा मत कहो पुत्र मुझे सच में तुम्हारे परिवार के लिए दुख होता है , परंतु अब तुम्हारे सारे दुखों के समाप्त होने का समय आ गया ।
इतना कहकर राजगुरु ने एक इशारा किया और इसके साथ ही वहां 10 धनुर्धर आ गए राजा सुजान सिंह का इशारा पाते ही सभी धनुर्धरोंने याग्नेश की और अपने तीरो की बरसात कर दी अभी वह तीर याग्नेश तक पहुंच पाते एक धमाके के साथ लोहे के पिंजड़े के चिथड़े उड़ गए जो सामने धनुरधरों से इतनी तीव्रता के साथ टकराए के वे दसों धनुर्धर वहीं ढेर हो गए ।
याग्नेश को इतनी सहजता के साथ पिंजरे से मुक्त हुआ होता हुआ देखकर सुजान सिंह राजगुरु और महामंत्री को बड़ा आश्चर्य हुआ मायावी पिंजरे के धमाके मैं नष्ट होने से जो धुआं उठा था उसके छटते ही उन तीनो ने याग्नेश को देखा इस समय याग्नेश की आंखें नीले प्रकाश से चमक रही थी उसके शरीर से निकलता हुआ नीला प्रकाश उसके चारों ओर एक घेरा बना रहा था
याग्नेश -- क्यों सुजान सिंह क्या हुआ इस तरह मुझे आंखें फाड़ फाड़ कर क्या देख रहे हो और राजगुरु तुमने क्या सोचा था कि आपने इस तरह के छोटे-मोटे जादुई प्रयोग करके तुम मुझे कैद कर लोगे, हा हा हा (हसते हुए) यदि और भी कोई प्रयोग करना हो तो कर लो क्योंकि अब ज्यादा समय तुम्हारे पास नहीं रहा।
इतना कहकर याग्नेश तीव्र गति से सुजान सिंह की और बढ़ा , इससे पहले कि सुजान सिंह अपनी रक्षा के लिए कुछ कर पाता याग्नेश ने उसे गर्दन से उठाकर जोर से जमीन पर पटक दिया , यह सब इतनी तेजी से हुआ और सुजान सिंह भूमी पर इतनी तीव्र गति से टकराया था के एक पल तो उसे समझ ही नही आया के अचानक क्या हुआ । उसके शरीर मे भयंकर पीडा हो रही थी ।
उसे समाप्त करने के लिए याग्नेश ने अपने मयान से तलवार बाहर निकाल ली और सुजान सिंह को समाप्त करने के लिए जैसे ही उसने तलवार हवा में उठाई, उसी पल एक भाला तीव्र गति से आकर उसकी पीठ से टकराया।
इस समय याग्नेश की सारी काली शक्तियां जागृत थी , इसलिए वह भाला याग्नेश की पीठ में प्रवेश नहीं कर पाया।
चुपके से वार करने वाला कौन है , यह देखने के लिए याग्नेश ने पलट कर देखा कौन से वहां थोड़ी ही दूर पर महामंत्री विमलाक्ष नजर आया
याग्नेश को अपनी ओर देखते हुए देखकर विरुपाक्ष भय से कांप गया उसे अपनी मृत्यु सामने साक्षात नजर आने लगी वह तुरंत घूम कर वहां से भागने लगा, परंतु याग्नेश उसे भागने नहीं देना चाहता था याग्नेश उसी का फेंका हुआ भाला उठाया और निशाना साधा और महामंत्री विमलाक्ष पर फेंक दिया। वह भाला तीव्र गति से जाकर महामंत्री के पीठ से होकर सीने से आर पार हो गया और एक भयंकर चीख के साथ महामंत्री वि वही धराशाई हो गया। उसके प्राण पखेरू उड चूके थे ।
महामंत्री को मौत के घाट उतारने के पश्चात याग्नेश सुजान सिंह की ओर मुड़ गया, तब तक सुजान सिंह भी संभाल कर खड़ा हो चुका था। इतनी आसानी से हार मानने वालो मे सुजान सिहं नही था , वह शारीरिक बल और युद्ध कला में याग्नेश से किसी भी तरह कम नही था ।
सुजान सिंह को संभल कर खड़े होते हुए देखकर याग्नेश मुस्कुराया
याग्नेश -- संभालो अपनी तलवार सुजान सिंह और मेरा सामना करो मैं एक निहत्थे असहाय कि हत्या नहीं करना चाहता, तुम्हें मारते वक्त मुझे भी ऐसा लगना चाहिए कि मैं एक दयनीय असहाय व्यक्ति का नहीं देव नगर के राजा का वध कर रहा हूं।
सुजान सिंह ने भी अब तक अपनी तलवार मयान से बाहर निकाल ली थी दोनों योद्धा अपनी अपनी तलवार लेकर एक दूसरे से भिड़ गए।
जहां सुजान सिंह ने अपनी तलवार का भरपूर वार याग्नेश की गर्दन की तरफ किया, तो वही याग्नेश ने भी बड़ी सरलता से उस वार को अपनी तलवार पर रोक दिया और साथ ही साथ घुमाते हुए सुजान सिंह को पीछे की ओर धक्का दिया,
याग्नेश ने भी सुजान सिंह के पेट की ओर अपनी तलवार से वार किया , तो वही सुजान सिंह ने भी कलाबाजियां खाकर बड़ी तीव्रता के साथ याग्नेश की कलाई पर वार किया जिससे काली शक्तियों के कवच के कारण याग्नेश पर कोई असर नही हुआ ।
अब याग्नेश भी अपनी तलवार को किसी चक्र की मांनींद तीव्र गति से सुजान सिंह की ओर बढ़ा और बडी फुर्ती से उसके वार से बचते हुए एक वार उसकी बाजू पर और दूसरा उसके पीठ पर कीया जिससे सुजान सिंह घायल हो गया।
अपने किसी भी प्रहार का काली शक्तियों के कवच के कारण याग्नेश पर ना होता हुआ देखकर सुजान सिंह अपनी तलवार नीचे किए घुटने के बल जमीन पर बैठ गया, सुजान सिंह को इस प्रकार अपने हथियार डाल कर जमीन पर बैठा हुआ देखकर याग्नेश मुस्कुराया।
याग्नेश -- बस इतना ही जोर था तुममे सुजान सिंह ! तुम अपने आप को देवनगर का राजा कहते हो , इतना कमजोर राजा जो मेरे सामने थोड़ी देर भी टिक नहीं पाया।
सुजान सिंह -- बल और युद्ध कौशल में मैं किसी भी प्रकार तुम से कम नहीं हूं , यह तुम भी अच्छी प्रकार जानते हो, तुम मुझे कह रहे हो परंतु सच तो यह है कि तुम्हें अपने बल और युद्ध कौशल पर विश्वास नहीं है , इसलिए तुमने अपने आपको काली शक्तियों के कवच से सुरक्षित कर रखा है, इस प्रकार का युद्ध करने का क्या लाभ जब सामने वाला तुम्हारी किसी भी प्रहार से आहत ना हो ।
इसलिए लो मैं तुम्हारे सामने प्रस्तुत हूं कर दो मेरी हत्या यही तो तुम भी चाहते हो मुकाबले का अवसर देना तो बस तुम्हारा एक दिखावा है।
ऐसा कहकर सुजान सिंह ने याग्नेश के अहंकार पर चोट की और निशाना भी सही लगा सुजान सिंह की बात सुनकर याग्नेश ने अब अपना काली शक्तियों का कवच हटा दिया।
याग्नेश -- तुम्हें हराने के लिए मुझे इस कवच की कोई आवश्यकता नहीं है , लो अब मैंने कवच हटा दिया अब सामना करो मेरा।
याग्नेश के द्वारा कवच के हटाए जाने पर सुजान सिंह एक बार फिर अपनी तलवार लेकर सज्ज हो गया दोनों योद्धा किसी मतवाले हाथी की तरह एक दूसरे से भीड गए थे, ना कोई किसी से कम ना कोई किसी से ज्यादा ।
यहां दूसरी ओर राजगुरु विद्याधर अब तक समझ चुके थे सुजान सिंह अकेले याग्नेश का सामना ज्यादा देर तक, नहीं कर सकते और यदी वो राजा की सहायता करने जाता है तो ऐसी स्थिती में याग्नेश भी अपनी काली शक्तियों का प्रयोग करेगा अब तक राजगुरु याग्नेश की शक्तियों को देखकर इतना तो समझ ही चुके थे कि वह उसकी शक्तियों का अकेले सामना नहीं कर सकते
राजगुरू जानते थे के युद्धवीर सिंह की सहायता के बीना वो इस समय याग्नेश को नहीं रोक सकते ।
इसीलिए राजगुरु उस ओर चल पड़ा जहां अभी भी युद्धवीर सिंह भूमि पर पड़ा था, युद्धवीर सिंह को भी अब तक होश आ गया था वह बड़ी कठिनाई से उठने का प्रयत्न कर रहा था , युद्धवीर सिंह को जीवित देखकर राजगुरु की जान में जान आई उसने आगे बढ़ कर युद्धवीर सिंह को सहारा देकर बैठा दिया
राजगुरु -- शुक्र है युद्धवीर सिंह कि तुम सही सलामत हो , तुम्हारी सहायता के बिना याग्नेश को रोकना संभव है।
युद्धवीर सिंह -- राजगुरु यहां मैं खड़ा होने में भी असमर्थ हो रहा हूं और आप कह रहे हो कि मैं याग्नेश का सामना करो , क्षमा करें राजगुरु परंतु अब मैं इस स्थिति में नहीं हूं क्या आपकी कोई सहायता कर सकूं। परंतु आपको मै इस परिस्थिति से निकलने का रास्ता बता सकता हूं जो शायद आप भूल गए हो।
राजगुरु -- कैसा रास्ता , इस समय यूं पहेलीयों मे बात मत करों , स्पष्ट कहो क्या कहना चाहते हो , जरा विस्तार से बताओ।
युद्धवीर सिंह -- राजगुरु आप शायद छोटी रानी को भूल गए हो, एक वही है जो इस समय राजा की रक्षा कर सकती है।
राजगुरु -- बात तो तुम्हारी ठीक है परंतु छोटी रानी तो वर्षों पहले अपने नन्हे कुमार के साथ महल को छोड़कर चली गई थी और वह अब इस समय कहां है किसी को नहीं पता।
युद्धवीर सिंह -- यही तो फर्क है आप में और मुझ में राजगुरु, जीवन मे सफल होने के लिए दुरदर्शीता होना आवश्यक हैं । मुझे पहले ही पता था के इस प्रकार की परिस्थिति सामने आ सकती हैं , इसलिए मैंने पहले ही उन्हें ढूंढ निकाला है, इसलिए अब ज्यादा देर मत करो और शीघ्र जाओ महल के तहखाने में स्थित कैद में तुम्हें वह मिल जाएगी।
युद्धवीर सिंह की बात सुनकर राजगुरु ने तुरंत महल की ओर दौड़ लगा दी।
यहां सुजान सिंह और याग्नेश का युद्ध अपने चरम सीमा पर था, दोनों इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो चुके थे याग्नेश के प्रभावशाली वार को सहते सहते सुजान सिंह के शरीर की शक्ति कम हो गई थी, वह बुरी तरह थक चूका था, और इसी बात का फायदा उठाकर याग्नेश ने अपनी शक्ति एकत्रित करके अपनी जगह से उछलकर अपने दोनों पैरों का वार सुजान सिंह के सीने पर किया जिससे सुजान सिंह भूमि पर गिर गया।
याग्नेश ने अपना अंतिम वार करने के लिए सुजान सिंह के सीने पर पैर रखा हर तलवार हवा में उठाई ही थी की इससे पहले कि वह सुजान सिंह पर वार करता राजगुरु की आवाज वहां गूंज उठी।
राजगुरु -- रुक जाओ याग्नेश सुजान सिंह को मारने से पहले जरा एक बार यहां देख लो कहीं ऐसा ना हो कि बाद में तुम्हें पछताना पड़े।
राजगुरु की बात सुनकर जब याग्नेश ने उस ओर देखा , तो सामने खड़े व्यक्ति को देखकर वह स्तब्ध सा हो गया उसके नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी , होंठ मानो सिल गए हो, वह बहुत कुछ कहना चाह रहा था परंतु शब्द उसका साथ नही दे रहे थे।
आज के लिए इतना ही अगला अध्याय शीघ्र ही ---
आप सब पाठकों से नम्र निवेदन है कि इस कहानी के प्रति अपने सुझाव एवं प्रतिक्रिया अवश्य दें ।
आपके सहयोग का अभिलाषी
आपका मित्र - अभिनव![]()
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Bahut hi behtareen update bhai![]()
Thanku soo much for appreciting my efforts frndFantastic update with excellent writing skills bahut khub![]()
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Shandaar update bhai , bahut hi kamal ka likhte ho bhai aap![]()
Execellent update bhai with awesome writing skills![]()
Bahut bahut dhnyawad Jay bhai aapke support k liyeBahut hi behtareen update bhai![]()
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BAhut bahut dhnyawad Ajju Landwalia bhai aapke saath k liye
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Intezar rahega jaggi57 Abhinav BhaiBAhut bahut dhnyawad Ajju Landwalia bhai aapke saath k liye
Yeh kahani maine ab hinglish mein shuru ki hai toh ab agle update wahi par post honge.
Thanks once again