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Incest कथा चोदमपुर की (दोबारा)

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Arthur Morgan

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अध्याय 5

उसी उधेड़बुन में डूबे कर्मा को अचानक जग्गू सामने से आता हुआ दिखाई दिया। जग्गू की भोली मुस्कान और दोस्ताना अंदाज़ देखकर कर्मा को थोड़ी राहत महसूस हुई।
"अरे कर्मा! आजकल कहाँ गुम रहता है तू? दिखाई ही नहीं देता," जग्गू ने पास आकर कहा, कंधे पर हाथ रखते हुए।
कर्मा ने एक फीकी मुस्कान के साथ जवाब दिया, "बस यहीं था... थोड़ा काम में फंसा हुआ था।"
दोनों साथ में चलने लगे और गाँव की इधर-उधर की बातें करने लगे। जग्गू अपने खेतों की नई फसल के बारे में बता रहा था, और कर्मा अनमने ढंग से 'हाँ' 'हूँ' कर रहा था। उसका दिमाग अभी भी रात की घटना और अपने अंदर चल रहे द्वंद्व में उलझा हुआ था।
बातचीत के दौरान, कर्मा के मन में एक विचार कौंधा। जग्गू उसका बचपन का दोस्त था, उस पर वह भरोसा कर सकता था। काश वह उसके साथ अपनी परेशानी साझा कर पाता। शायद जग्गू उसे कोई सलाह दे सके या कम से कम उसका बोझ थोड़ा हल्का हो जाए।
लेकिन फिर उसे डर हुआ। वह जग्गू को क्या बताएगा? कि उसने छिपकर अपने माता-पिता को अंतरंग होते हुए देखा? कि उस दृश्य ने उसे उत्तेजित किया? जग्गू यह सुनकर क्या सोचेगा? क्या वह उसे गलत नहीं समझेगा? क्या उनकी दोस्ती टूट नहीं जाएगी?
इन विचारों के बीच, कर्मा के दिमाग में एक तरकीब आने लगी। वह सीधे-सीधे रात वाली बात तो नहीं बता सकता था, लेकिन शायद वह अपनी दबी हुई यौन इच्छाओं और उस अजीब से नज़रिया के बारे में कुछ संकेत दे सकता था जो उसके अंदर पैदा हो गया था। वह देखना चाहता था कि जग्गू इस बारे में क्या सोचता है, क्या वह भी कभी ऐसी भावनाओं से गुज़रा है?
वह धीरे-धीरे अपनी बातों को उस दिशा में मोड़ने लगा, गाँव की औरतों के बारे में हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ करने लगा, उनकी सुंदरता या पहनावे का ज़िक्र करने लगा। वह जग्गू की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था, यह देखने के लिए कि क्या वह भी उसी तरह की दबी हुई कामुकता को महसूस करता है जैसा वह कर रहा था।
कर्मा उम्मीद कर रहा था कि जग्गू के साथ बातचीत उसे अपनी भावनाओं को समझने और शायद उनसे निपटने का कोई रास्ता खोजने में मदद करेगी। वह उस अकेलेपन से बाहर निकलना चाहता था जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।


जग्गू, कर्मा का बचपन का साथी, भले ही स्वभाव से थोड़ा दब्बू और सीधा-सादा था, पर वह भी जवान था। उसके अंदर भी इच्छाएं थीं, उत्तेजना महसूस होती थी, खासकर गाँव की खूबसूरत महिलाओं को देखकर। ममता ताई की मदमस्त चाल, मंजू ताई की भरी हुई काया और प्रेमा भाभी का आकर्षक सौंदर्य - ये सब जग्गू के युवा मन में भी कहीं न कहीं हलचल पैदा करते थे।

लेकिन जग्गू थोड़ा संकोची किस्म का था। उसे हमेशा यह डर लगा रहता था कि अगर उसने अपनी इन भावनाओं को ज़ाहिर किया तो लोग उसे गलत समझेंगे। गाँव में मर्यादा और रिश्तों का बड़ा ध्यान रखा जाता था, और जग्गू नहीं चाहता था कि उसकी वजह से किसी को बुरा लगे या उसकी छवि खराब हो। इसलिए वह अपनी इन इच्छाओं को अपने अंदर ही दबाकर रखता था, कभी किसी से खुलकर बात नहीं करता था।

जब कर्मा गाँव की औरतों के बारे में हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ करने लगा, तो जग्गू थोड़ा असहज हो गया। उसे लगा कि कर्मा शायद उस दबी हुई कामुकता को ज़ाहिर कर रहा है जिसे वह खुद अंदर ही अंदर महसूस करता था। वह समझ नहीं पा रहा था कि कर्मा का क्या इरादा है। क्या वह उसे परख रहा है? या सिर्फ़ यूँ ही बातें कर रहा है?

जग्गू ने कर्मा की बातों का सीधा जवाब नहीं दिया। वह थोड़ा हँसा और बात को टालने की कोशिश की। "हाँ यार, गाँव में सब अपने-अपने ढंग के हैं," उसने कहा, अपनी नज़रें ज़मीन पर टिकाए हुए।

कर्मा को जग्गू की इस झिझक का एहसास हुआ। वह समझ गया कि जग्गू भी शायद उसी दबी हुई भावनाओं के सागर में गोते लगा रहा है जिससे वह खुद जूझ रहा था, बस उसे ज़ाहिर करने की हिम्मत नहीं मिल रही थी। यह जानकर कर्मा को थोड़ी तसल्ली हुई कि वह अकेला नहीं है, लेकिन साथ ही उसे यह भी महसूस हुआ कि अपनी भावनाओं को खुलकर साझा करना कितना मुश्किल है, खासकर गाँव के इस माहौल में।

अब कर्मा को और भी ज़्यादा तरकीब लगानी होगी अगर वह जग्गू के साथ अपनी उस रात वाली बात को साझा करना चाहता है। उसे पहले जग्गू का भरोसा जीतना होगा और उसे यह महसूस कराना होगा कि वह उसे गलत नहीं समझेगा।

उसी पल से कर्मा ने एक नई राह पकड़ ली। उसने महसूस किया कि जग्गू के अंदर भी दबी हुई इच्छाओं का एक सागर छिपा है, बस उसे सतह पर लाने की ज़रूरत है। और कर्मा ने यह काम धीरे-धीरे, बड़ी सावधानी से शुरू कर दिया।

अब जब भी वे मिलते, कर्मा किसी न किसी बहाने से गाँव की औरतों की बातें छेड़ देता। कभी वह ममता ताई की हँसी की तारीफ करता, तो कभी प्रेमा भाभी के काम करने के अंदाज़ का ज़िक्र करता। वह जानबूझकर ऐसी टिप्पणियाँ करता जिनमें हल्की शरारत और दबी हुई कामुकता का इशारा होता था। वह जग्गू की प्रतिक्रिया को बारीकी से देखता, उसकी आँखों में झांकता, यह समझने की कोशिश करता कि वह कितना खुल रहा है।

शुरू में जग्गू थोड़ा संकोची रहा, कर्मा की बातों को टालने की कोशिश करता या सिर्फ़ हल्की मुस्कान देकर रह जाता। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कर्मा अपनी बातों में और बेबाकी लाता गया, जग्गू भी सहज होने लगा। उसे भी ऐसी बातों में मज़ा आने लगा था। यह एक ऐसा विषय था जिस पर वह अक्सर अकेले में सोचता था, और अब उसे किसी के साथ साझा करने का मौका मिल रहा था, भले ही वह खुलकर न हो।

कभी-कभी जग्गू भी पलटकर कोई टिप्पणी कर देता, गाँव की किसी ख़ास औरत के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करता। उसकी बातों में अब वह दबी हुई उत्तेजना झलकने लगी थी जिसे वह पहले छिपाकर रखता था। कर्मा समझ गया कि उसकी तरकीब काम कर रही है। जग्गू धीरे-धीरे अपनी खोल से बाहर निकल रहा था।

दोनों दोस्त अब घंटों साथ में बैठकर ऐसी बातें करते, गाँव की औरतों के रूप-रंग, उनके हावभाव और उनके पहनावे पर दबी ज़बान में चर्चा करते। यह उनके लिए एक गुप्त दुनिया बन गई थी, एक ऐसा संसार जहाँ वे अपनी दबी हुई इच्छाओं को बिना किसी डर के थोड़ा-बहुत आज़ाद कर सकते थे।

कर्मा को लग रहा था कि वह धीरे-धीरे जग्गू का भरोसा जीत रहा है। वह उम्मीद कर रहा था कि एक दिन वह उसे उस रात वाली घटना के बारे में भी बता पाएगा, और शायद जग्गू उसे समझ पाएगा या कोई सलाह दे पाएगा। लेकिन वह जानता था कि उसे धैर्य रखना होगा और जग्गू को पूरी तरह से खुलने का समय देना होगा। उनकी दोस्ती अब एक नए मोड़ पर आ गई थी, एक ऐसे मोड़ पर जहाँ दबी हुई इच्छाएं और गुप्त बातें उनके बीच एक नया बंधन बना रही थीं।

कर्मा ने जग्गू को और भी सहज करने के लिए एक कदम और आगे बढ़ाया। उसने जानबूझकर जग्गू को तालाब के किनारे ले जाना शुरू कर दिया, उसी जगह जहाँ वह सरजू के साथ छिपकर औरतों को नहाते हुए देखता था। वह जानता था कि इस जगह का माहौल शायद जग्गू को अपनी दबी हुई इच्छाओं को ज़ाहिर करने के लिए और प्रेरित करेगा।

और किस्मत को जैसे कुछ और ही मंज़ूर था। एक दोपहर, जब कर्मा और जग्गू तालाब के किनारे झाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, तो कर्मा ने देखा कि तालाब में कोई और नहीं, सरजू की माँ, रज्जो, नहाने आई थीं।

रज्जो का भरा हुआ शरीर, जिसकी कामुकता पूरे गाँव में मशहूर थी, अब पानी में भी अपनी मादक उपस्थिति दर्ज करा रहा था। उनके भीगे हुए कपड़े उनके अंगों से ऐसे चिपक गए थे जैसे दूसरी त्वचा हों, हर उभार और वक्र स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था।

कर्मा ने जग्गू की ओर देखा। जग्गू की आँखें रज्जो पर टिकी हुई थीं, और उसके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था - आश्चर्य, उत्तेजना और थोड़ी घबराहट का मिश्रण। यह पहली बार था जब जग्गू ने रज्जो को इस तरह देखा था।

कर्मा ने धीरे से फुसफुसाया, "देख रहा है जग्गू?" उसकी आवाज़ में एक दबी हुई शरारत थी।

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया, उसकी नज़रें अभी भी रज्जो पर जमी हुई थीं। कर्मा समझ गया कि उसके दोस्त पर उस दृश्य का गहरा असर हो रहा है।

रज्जो बेफिक्री से नहा रही थीं, अपने बालों को पानी से धो रही थीं और कभी-कभी गुनगुना रही थीं। उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि झाड़ियों के पीछे दो युवा लड़के उन्हें छिपकर देख रहे हैं।

कर्मा ने जग्गू को और उकसाने के लिए धीरे से कहा, "सरजू हमेशा कहता था कि रज्जो ताई... बहुत सुंदर हैं।"

जग्गू ने आखिरकार अपनी नज़रें रज्जो से हटाईं और कर्मा की ओर देखा। उसके चेहरे पर एक अजीब सी उलझन थी। "यह... यह सरजू की माँ हैं," उसने फुसफुसाते हुए कहा, जैसे उसे यकीन न हो रहा हो।

कर्मा समझ गया कि जग्गू अंदर से हिल गया है। अपनी दोस्त की माँ को इस हालत में देखना उसके लिए एक नया और अप्रत्याशित अनुभव था। अब देखना यह था कि जग्गू इस पर कैसी प्रतिक्रिया देता है और क्या यह घटना उन्हें और करीब लाती है या उनके बीच एक अजीब सी दूरी पैदा करती है।

रज्जो को उस रूप में देखकर जग्गू पर एक गहरा प्रभाव पड़ा। पहले तो वह थोड़ा असहज और हैरान था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या महसूस करे। यह सरजू की माँ थीं, एक ऐसी महिला जिसे वह हमेशा सम्मान की नज़र से देखता था। लेकिन रज्जो का अप्रतिम सौंदर्य और उनकी बेफिक्री भरी हरकतें उसके अंदर एक नई तरह की उत्तेजना जगा रही थीं जिसे वह पहले कभी खुलकर महसूस नहीं कर पाया था।

कर्मा की दबी हुई शरारत भरी बातें और उस निषिद्ध दृश्य ने जग्गू के अंदर दबी हुई इच्छाओं के बांध को धीरे-धीरे तोड़ना शुरू कर दिया। वह रज्जो के भीगे हुए शरीर को चोरी-छिपे निहारता रहा, उसके मन में वह सारी दबी हुई कामुक कल्पनाएं हिलोरें मारने लगीं जिन्हें वह हमेशा छिपाकर रखता था।

उसकी आँखें रज्जो के शरीर के हर उभार और वक्र पर ठहर जाती थीं। पानी में उनकी त्वचा की चमक, उनके भीगे कपड़ों से झांकते हुए अंग, सब कुछ जग्गू के युवा मन पर एक नशा बनकर छा गया था। उसे लग रहा था जैसे वह किसी सपने में जी रहा हो, एक ऐसा सपना जो उसे उत्तेजित भी कर रहा था और थोड़ा डरा भी रहा था।

कर्मा ने जग्गू के चेहरे के बदलते भावों को ध्यान से देखा। उसने महसूस किया कि उसका दोस्त उस नए अहसास में धीरे-धीरे बहता चला जा रहा है। उसकी आँखों में एक अलग तरह की चमक थी, एक ऐसी उत्सुकता और उत्तेजना जो पहले कभी नहीं दिखी थी।

जग्गू ने धीरे से फुसफुसाया, उसकी आवाज़ में एक अजीब सी काँप थी, "यह... यह अविश्वसनीय है।"

कर्मा समझ गया कि जग्गू अब उस रास्ते पर चल पड़ा है जिस पर वह खुद भी कभी चला था। उस निषिद्ध दृश्य ने उनके बीच एक नया, अनकहा बंधन बना दिया था। अब वे दोनों एक ही रहस्य को साझा कर रहे थे, एक ही उत्तेजना को महसूस कर रहे थे।

उस दिन के बाद से जग्गू का व्यवहार थोड़ा बदलने लगा। वह अब कर्मा के साथ और ज़्यादा खुलकर बातें करने लगा, गाँव की औरतों के बारे में अपनी दबी हुई राय ज़ाहिर करने लगा। तालाब के किनारे उनकी मुलाक़ातें और बढ़ गईं, और वे दोनों मिलकर उस 'नज़ारे' का इंतज़ार करने लगे जिसने उनके अंदर एक नई दुनिया खोल दी थी। जग्गू अब उस दब्बू और संकोची लड़के से थोड़ा अलग दिखने लगा था, उसके अंदर एक नई आत्मविश्वास और शरारत झलकने लगी थी, उस निषिद्ध ज्ञान का ही असर था जो उसने तालाब के किनारे पाया था।

रज्जो के मोटे उरोज़ों का दृश्य जग्गू के अंदर पहले से ही एक तीव्र उत्तेजना पैदा कर चुका था। वह उस निषिद्ध सौंदर्य को देखकर सम्मोहित हो गया था, उसकी दबी हुई कामुक कल्पनाएं साकार हो रही थीं।

उसी क्षण, कर्मा ने एक और कदम आगे बढ़ाया, जग्गू को पूरी तरह से उस उत्तेजना के सागर में धकेलने के लिए। उसने धीरे से अपना पजामा नीचे खिसका दिया और अपने कठोर लिंग को बाहर निकाल लिया। मंद धूप में वह सीधा और तना हुआ खड़ा था। कर्मा ने उस पर अपना हाथ फेरना शुरू कर दिया, उसकी आँखें जग्गू पर टिकी थीं, यह देखने के लिए कि उसका दोस्त क्या प्रतिक्रिया देता है।

जग्गू पहले तो चौंक गया। उसने कर्मा के अचानक किए गए इस कृत्य को अविश्वास से देखा। उसके चेहरे पर हैरानी और थोड़ी घबराहट का भाव था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कर्मा क्या कर रहा है और इसका क्या मतलब है।

लेकिन फिर, उसकी नज़रें कर्मा के हाथ की हरकत पर टिकी रह गईं। उसने कर्मा के चेहरे पर उस तीव्र उत्तेजना को देखा जो उसके अंदर भी कहीं दबी हुई थी। और फिर, उसकी नज़रें वापस रज्जो पर गईं, जो अभी भी बेफिक्री से नहा रही थीं।

एक पल के लिए जग्गू के मन में कई विचार आए। यह गलत था, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन उस निषिद्ध दृश्य का आकर्षण और कर्मा की खुली हरकत ने उसके अंदर दबी हुई इच्छाओं को आज़ाद कर दिया।

धीरे-धीरे, जग्गू का चेहरा बदलने लगा। उसकी हैरानी की जगह एक दबी हुई उत्सुकता और उत्तेजना ने ले ली। उसकी नज़रें कर्मा के हाथ की हरकत को देखने लगीं, और फिर उसने धीरे-धीरे अपनी कमरबंद की नाड़ी पर अपना हाथ रखा।

कुछ पलों की झिझक के बाद, जग्गू ने भी अपना पजामा नीचे खिसका दिया और अपने लिंग को बाहर निकाल लिया। वह कर्मा की ओर देख रहा था, उसकी आँखों में एक अजीब सी शरारत और उत्तेजना का भाव था। फिर, उसने भी अपने लिंग पर हाथ फेरना शुरू कर दिया, कर्मा की देखा-देखी।

झाड़ियों के पीछे, दो युवा लड़के अपनी दबी हुई कामुक इच्छाओं को आज़ाद कर रहे थे, उनकी आँखें उस निषिद्ध दृश्य पर टिकी थीं जिसने उन्हें इस हद तक पहुँचा दिया था। रज्जो, तालाब में बेखबर नहा रही थीं, इस बात से अनजान कि उनकी उपस्थिति दो युवा दिलों में किस तरह की आग भड़का रही है। वह दिन कर्मा और जग्गू की दोस्ती में एक और गहरा मोड़ ले गया, एक ऐसा मोड़ जहाँ उन्होंने एक और गुप्त और शर्मनाक अनुभव साझा किया था।

उत्तेजना के चरम पर पहुँचकर, दोनों के लंड ने कुछ ही देर में अपना पानी झाड़ियों के पत्तों और सूखी मिट्टी पर गिरा दिया। उनकी साँसें तेज़ी से चल रही थीं, और उनके शरीर में एक अजीब सी शांति छा गई थी।
जब उनकी उत्तेजना शांत हुई, तो दोनों चुपचाप बैठे रहे, उस अप्रत्याशित घटना के बारे में सोच रहे थे जो अभी-अभी हुई थी। खासकर जग्गू के मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था। यह पहली बार था जब उसने खुलेआम, किसी और के साथ मिलकर इस तरह की हरकत की थी।
कर्मा ने जग्गू की ओर देखा। वह जानता था कि उसका दोस्त थोड़ा घबराया हुआ और उलझन में होगा। उसने धीरे से कहा, "सब ठीक है, जग्गू।"
जग्गू ने कर्मा की ओर देखा, उसकी आँखों में अभी भी थोड़ी हैरानी और शर्म का भाव था। "यह... यह हमने क्या किया?" उसने फुसफुसाते हुए कहा।
कर्मा ने मुस्कुराने की कोशिश की। "हमने बस... अपनी उत्तेजना को बाहर निकाला। इसमें कोई बुरी बात नहीं है।"
कर्मा की सहजता और खुलेपन ने जग्गू को थोड़ा आराम दिया। उसे लगा कि कर्मा उसे जज नहीं कर रहा है। धीरे-धीरे, उसकी घबराहट कम होने लगी और वह भी सहज महसूस करने लगा।
दोनों कुछ देर तक चुप रहे, तालाब में नहाती हुई रज्जो को देखते रहे। फिर जग्गू ने धीरे से कहा, "मुझे... मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ।"
कर्मा समझ गया कि जग्गू अपनी दबी हुई भावनाओं को ज़ाहिर कर रहा है। उसने कहा, "यह स्वाभाविक है, जग्गू। हम जवान हैं, और ऐसी भावनाएं आती हैं।"
उस दिन के बाद, कर्मा और जग्गू के बीच एक नई तरह की दोस्ती की शुरुआत हुई। वह दब्बू और संकोची जग्गू अब कर्मा के साथ खुलकर अपनी दबी हुई इच्छाओं और उत्तेजनाओं के बारे में बात करने लगा था। कर्मा ने उसे सहज कर दिया था, और जग्गू को यह जानकर राहत मिली थी कि वह अकेला नहीं है जो ऐसी भावनाएं महसूस करता है।
तालाब का किनारा उनकी गुप्त मुलाक़तों का ठिकाना बन गया, जहाँ वे न सिर्फ़ छिपकर औरतों को नहाते हुए देखते थे, बल्कि अपनी दबी हुई कामुक कल्पनाओं और अनुभवों को भी खुलकर साझा करते थे। उनकी दोस्ती अब एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गई थी जहाँ शारीरिक इच्छाएं और गुप्त बातें उनके बीच एक गहरा बंधन बना रही थीं।

उस रात, चोदामपुर गाँव की शांत हवाओं में थोड़ी सी खुमारी घुलने वाली थी। राजन और नीलेश, गाँव के दो पुराने दोस्त, खेत की मेड़ पर बैठकर शराब पीने की योजना बना रहे थे। यह उनका पुराना शगल था, जिसे वे अक्सर अपनी पत्नियों की नज़रों से बचाकर अंजाम देते थे। खेत की खामोशी और तारों भरा आसमान उनकी गुप्त महफिल के गवाह बनते थे।

उधर, घर पर सभ्या गर्मी से बेहाल थीं। रसोई में चूल्हे की आग और उमस भरी हवा ने उन्हें पसीने से तर कर दिया था। वह धीरे-धीरे खाना बना रही थीं, माथे पर आई पसीने की बूँदों को पोंछते हुए।

कर्मा ने अपनी माँ की यह हालत देखी तो उसके मन में एक विचार आया। वह जानता था कि गर्मी सभ्या को कितनी परेशान करती है। अचानक, उसने अपनी माँ से ज़िद करना शुरू कर दिया, "माँ, इतनी गर्मी में साड़ी पहनकर क्यों काम कर रही हो? उतार दो ना इसे। तुम्हें बहुत गर्मी लग रही होगी।"

सभ्या अपने बेटे की इस अजीब सी ज़िद से हैरान हुईं। "क्या कह रहा है, कर्मा? घर में बिना साड़ी के कैसे रहूँगी? यह अच्छा नहीं लगता।" उन्होंने हल्की सी झिझक दिखाई।

लेकिन कर्मा अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। "अरे माँ, कौन देख रहा है? सिर्फ़ हम दोनों तो हैं। उतार दो ना, तुम्हें बहुत आराम मिलेगा। देखो, कितना पसीना आ रहा है तुम्हें।" उसकी आवाज़ में आग्रह था, लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। वह अपनी माँ को कम कपड़ों में देखने की दबी हुई इच्छा को पूरा करना चाहता था।

सभ्या थोड़ी देर तक हिचकिचाईं, फिर गर्मी से बेहाल होकर और बेटे की ज़िद के आगे हार मान गईं। "ठीक है, तू इतना कह रहा है तो उतार देती हूँ," उन्होंने धीरे से कहा और अपनी साड़ी का पल्लू खोल दिया।

कर्मा की आँखें चमक उठीं। उसने अपनी माँ को सिर्फ़ ब्लाउज़ और पेटीकोट में देखा, और उसके अंदर की दबी हुई उत्तेजना एक बार फिर जाग उठी। सभ्या, अपने बेटे की असली मंशा से अनजान, अपनी साड़ी को तह करके एक तरफ़ रखने लगीं। कर्मा की नज़रें उनके खुले हुए पेट और उनकी गहरी नाभि पर टिकी थीं, उस दृश्य ने उसके अंदर एक नई आग भड़का दी।

अपनी माँ को सिर्फ़ ब्लाउज़ और पेटीकोट में देखकर कर्मा के शरीर में एक तीव्र सिहरन दौड़ गई। उसकी आँखें सभ्या के खुले हुए पेट और गहरी नाभि पर टिकी रह गईं, उस दृश्य ने उसके अंदर दबी हुई वासना को एक बार फिर जगा दिया।

गरमी से राहत पाने के लिए सभ्या ने अपने कंधे से साड़ी का पल्लू हटाया, जिससे उनके ब्लाउज़ का कुछ और हिस्सा खुल गया। कर्मा की नज़रें अनायास ही उनके उभरे हुए वक्षों पर जा टिकीं, जो पतले ब्लाउज़ के कपड़े के नीचे से साफ़ झलक रहे थे।

उस दृश्य का कर्मा के शरीर पर तत्काल प्रभाव पड़ा। उसका लंड, जो पहले से ही दबी हुई उत्तेजना महसूस कर रहा था, अब उसके पजामे में कड़क हो गया। कपड़े के दबाव के बावजूद उसकी कठोरता साफ़ महसूस हो रही थी। कर्मा ने जल्दी से अपने हाथों को अपनी जेबों में डाल लिया, ताकि अपनी उत्तेजना को छिपा सके।

उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी गर्मी महसूस हुई। वह अपनी माँ को इस नज़र से देखने पर खुद से शर्मिंदा था, लेकिन उस दृश्य का आकर्षण इतना प्रबल था कि वह अपनी नज़रें हटा नहीं पा रहा था। सभ्या, अपने बेटे की बेचैनी से अनजान, रसोई में खाना बनाने में व्यस्त थीं, जबकि कर्मा अंदर ही अंदर एक तीव्र द्वंद्व से जूझ रहा था।
कर्मा तब तक रसोई में ही खड़ा रहा, अपनी माँ को देखता रहा। सभ्या गर्मी से बेहाल होकर भी पूरे मन से खाना बना रही थीं, और कर्मा की आँखें उनके हर हावभाव, उनके शरीर के हर मोड़ पर टिकी थीं। ब्लाउज़ और पेटीकोट में उनकी सहजता कर्मा के अंदर दबी हुई उत्तेजना को और भी ज़्यादा भड़का रही थी। वह अपनी कल्पनाओं में खोया हुआ था, उस रात के दृश्य को याद कर रहा था जब उसने उन्हें अंतरंग होते हुए देखा था।

जब खाना बन गया, तो सभ्या ने सबको परोसा। नीलेश देर रात घर लौटे, शराब के नशे में धुत्त। सबके खा लेने के बाद सभ्या ने उनके लिए भी खाना निकाला। कर्मा ने अपने पिता को लड़खड़ाते हुए और मदहोश आँखों से सभ्या को देखते हुए देखा।

नीलेश की एक आदत थी - जिस रात वह शराब पीकर आते थे, उस रात वह सभ्या के साथ दमदार तरीके से संभोग करते थे। शराब उनके अंदर की झिझक को खत्म कर देती थी और उनकी कामुकता को खुलकर सामने लाती थी। सभ्या भी उनकी इस आदत से वाकिफ थीं और जानती थीं कि आज रात क्या होने वाला है।

कर्मा अपने कमरे में चला गया, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। उसे अपने माता-पिता के कमरे से आने वाली दबी हुई आवाज़ों का इंतज़ार था। वह जानता था कि आज रात फिर वही दृश्य दोहराया जाएगा जिसे उसने कुछ रातों पहले छिपकर देखा था। उसका शरीर बेचैन हो रहा था और उसके मन में एक अजीब सी उत्तेजना और डर का मिश्रण था। वह उस रात के बारे में सोच रहा था, अपनी माँ के नग्न शरीर और उनके अंतरंग पलों के बारे में, और उसके अंदर दबी हुई वासना एक बार फिर सिर उठाने लगी थी। वह जानता था कि उसे यह सब नहीं सोचना चाहिए, लेकिन वह खुद को रोक नहीं पा रहा था।

जारी रहेगी।
 

Punit Kumar

Punit
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Bhai story to faru hai, but , apna hero ko to pheli chodai to karow , rajjo tai ka sath pheli chodai kera ga ??? New update kubtak milga, asha karta hu, 🙏🙏🙏🙏
 

Premkumar65

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अध्याय 3

कर्मा और सरजू की हरकतें तेज़ होती गईं, उनकी आँखें अभी भी रज्जो पर टिकी थीं, जो अपनी ही दुनिया में मग्न थीं। उनके हाथों की लय में तेज़ी और अधीरता साफ़ झलक रही थी, हर रग में दौड़ती उत्तेजना उन्हें एक अलग ही दुनिया में ले जा रही थी।

कर्मा की कल्पना उड़ान भर रही थी। रज्जो का भीगा हुआ शरीर उसकी आँखों के सामने एक जीवंत तस्वीर बन गया था। उसे लग रहा था जैसे वह उसे छू रहा हो, उसकी चिकनी त्वचा को महसूस कर रहा हो। उसके दिमाग में दबी हुई इच्छाएं हिलोरें मार रही थीं, वे सारी दबी हुई कल्पनाएं जो गाँव की औरतों को लेकर उसके मन में कभी-कभार उठती थीं, आज रज्जो के रूप में साकार हो रही थीं। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं और उसके होंठ हल्के से काँप रहे थे।

सरजू की स्थिति भी कुछ अलग नहीं थी। अपनी माँ को इस तरह देखना उसके लिए एक अजीब सा नशा था। अपराधबोध और वर्जित का रोमांच उसकी उत्तेजना को और बढ़ा रहा था। उसकी कल्पना में रज्जो का वह रूप था जिसे उसने कभी नहीं देखा था, एक कामुक और मादक स्त्री का रूप। उसका हाथ तेज़ी से चल रहा था, हर हरकत के साथ उसके अंदर एक अजीब सी सिहरन दौड़ रही थी।

झाड़ियों के पीछे दबी हुई आहें अब हल्की कराहों में बदलने लगी थीं। दोनों के चेहरे पर वासना का रंग चढ़ गया था, उनकी आँखें धुंधली हो रही थीं और उनकी पूरी चेतना उस शारीरिक सुख पर केंद्रित हो गई थी जो वे खुद को दे रहे थे।

बाहर, रज्जो ने पानी से निकलकर किनारे पर रखे अपने सूखे कपड़े उठाने के लिए झुकीं। इस हरकत से उनके भीगे कपड़े और कस गए और उनके शरीर का हर उभार और स्पष्ट हो गया। झाड़ियों के पीछे छिपे दोनों लड़कों की साँसें थम गईं। वह दृश्य उनकी उत्तेजना को चरम पर ले गया।

कुछ और तेज़ हरकतों के बाद, दोनों के शरीर में एक झटके के साथ तनाव आया और फिर धीरे-धीरे शिथिल पड़ गया। उनकी पकड़ ढीली हुई और उनके हाथ रुक गए। उनकी आँखें अभी भी रज्जो पर टिकी थीं, जिनमें अभी भी वासना की धुंध छाई हुई थी, लेकिन अब उसमें एक अजीब सी खालीपन और शर्म भी घुल गई थी।

रज्जो ने अपने कपड़े पहने और तालाब से चली गईं, उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि झाड़ियों के पीछे उनके बेटे और उसके दोस्त ने क्या किया है।

जब रज्जो आँखों से ओझल हो गईं, तो कर्मा और सरजू ने धीरे-धीरे अपने पजामे ऊपर खींचे। दोनों की नज़रें एक-दूसरे से नहीं मिल रही थीं। हवा में एक अजीब सी चुप्पी छाई हुई थी, जिसे सिर्फ़ तालाब में गिरती पानी की बूँदें तोड़ रही थीं। उनके अंदर अभी भी उस तीव्र शारीरिक सुख की गूँज बाकी थी, लेकिन उसके साथ ही एक भारी अपराधबोध और शर्म भी महसूस हो रही थी। उन्होंने एक ऐसी सीमा लांघ दी थी जिसे वे कभी वापस नहीं ला सकते थे।

वह दिन कर्मा और सरजू की दोस्ती में एक अनकहा मोड़ ले आया। उन्होंने एक ऐसा रहस्य साझा किया था जो उन्हें हमेशा के लिए जोड़ देगा, लेकिन साथ ही उनके बीच एक अजीब सी दूरी भी पैदा कर देगा। उन्हें पता था कि उन्होंने जो किया वह गलत था, लेकिन उस पल वासना इतनी प्रबल थी कि वे खुद को रोक नहीं पाए थे। अब उन्हें उस शर्म और अपराधबोध के साथ जीना सीखना होगा जो उस निषिद्ध दृश्य को देखने और उसमें शामिल होने से पैदा हुआ था।

तालाब पर रज्जो को नहाते हुए देखने और फिर सरजू के साथ की गई उस गुप्त हरकत के बाद, कर्मा की दुनिया पूरी तरह से बदल गई। उसकी आँखों पर एक नया चश्मा चढ़ गया था, एक ऐसा चश्मा जो हर औरत को एक अलग ही नज़र से देखता था।

पहले, कर्मा गाँव की औरतों को माँ, बहन, चाची या ताई के रूप में देखता था - रिश्तों के दायरे में बंधी हुई शख्सियतें, जिनके प्रति सम्मान और मर्यादा का भाव स्वाभाविक था। लेकिन उस दिन के बाद, उन रिश्तों की सीमाएं धुंधली पड़ने लगी थीं। अब जब वह किसी औरत को देखता, तो उसके मन में अनायास ही वह भीगा हुआ शरीर, वह क्षणिक दृश्य कौंध जाता था।

ममता ताई की हँसती-खेलती छवि के पीछे अब उसे तालाब के किनारे भीगे कपड़ों में लिपटी उनकी काया दिखाई देती थी। मंजू ताई की बातूनी और स्नेहिल आँखों में अब उसे पानी में नहाती हुई उनकी कामुक झलक नज़र आती थी। यहाँ तक कि प्रेमा भाभी, जिनके साथ वह हमेशा हँसी-मज़ाक करता था, अब उसे एक अलग ही आकर्षण से भरी हुई लगने लगी थीं।

उसकी अपनी माँ, सभ्या, भी इस नए नज़रिया से अछूती नहीं रहीं। पहले उसने कभी अपनी माँ के शारीरिक रूप के बारे में इस तरह नहीं सोचा था, लेकिन अब अनजाने में ही उसकी नज़रें उनके शरीर के उन हिस्सों पर टिक जाती थीं जिन्हें वह पहले कभी नोटिस भी नहीं करता था। यह विचार उसे असहज करता था, लेकिन वह अपनी इस नई आदत को रोक नहीं पा रहा था।

कर्मा के अंदर एक अजीब सी बेचैनी रहने लगी थी। वह जानता था कि उसका यह नज़रिया गलत है, कि वह औरतों को सिर्फ़ एक वस्तु की तरह देख रहा है, लेकिन वह अपनी इस सोच को बदल नहीं पा रहा था। उसके मन में दबी हुई यौन इच्छाएं अब पहले से कहीं ज़्यादा प्रबल हो गई थीं और हर औरत उसे उस उत्तेजना की याद दिलाती थी जो उसने तालाब के किनारे महसूस की थी।

गाँव का शांत और साधारण जीवन अब कर्मा के लिए पहले जैसा नहीं रहा था। हर चेहरा, हर हरकत में उसे एक छिपी हुई कामुकता नज़र आती थी। उसकी नज़रें अब औरतों के कपड़ों, उनके चलने के तरीके और उनके शारीरिक हावभाव को बारीकी से देखती थीं, मानो वह उस छिपे हुए रहस्य को उजागर करने की कोशिश कर रहा हो जिसे उसने रज्जो को देखते हुए महसूस किया था।

यह बदलाव कर्मा के व्यवहार में भी झलकने लगा था। वह औरतों से बात करते हुए थोड़ा झिझकने लगा था, उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई थी जिसे शायद कुछ लोग भांप भी लेते थे। वह अब पहले से ज़्यादा गुमसुम रहने लगा था, अपने ही विचारों में खोया रहता था, उस निषिद्ध दृश्य और उसके बाद पैदा हुई उत्तेजना के भंवर में फंसा हुआ।

उस घटना ने कर्मा की मासूमियत छीन ली थी और उसे एक ऐसी दुनिया में धकेल दिया था जहाँ हर औरत एक संभावित कामुक कल्पना का स्रोत बन गई थी।

कुछ दिनों बाद, कर्मा और सरजू गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, जहाँ अक्सर लड़के घंटों गप्पें मारा करते थे। लेकिन आज माहौल में एक अजीब सी खामोशी थी। कर्मा अभी भी उस तालाब वाली घटना के बाद उपजे अजीब से एहसास से जूझ रहा था, और सरजू भी गुमसुम लग रहा था।

आखिरकार, सरजू ने चुप्पी तोड़ी, उसकी आवाज़ में एक अजीब सी भारीपन था। "यार कर्मा," उसने कहा, उसकी नज़रें दूर कहीं खोई हुई थीं, "उस दिन के बाद... सब कुछ बदल गया है।"

कर्मा ने उसकी ओर देखा, जानता था कि सरजू किस 'उस दिन' की बात कर रहा है। वह खुद भी उसी उथल-पुथल से गुज़र रहा था।

सरजू ने गहरी साँस ली। "मैं... मैं अपनी माँ को उस नज़र से नहीं देख पा रहा हूँ जैसे पहले देखता था। उसका... उसका बदन... यार, मैं पागल हो गया हूँ उसके लिए।" उसकी आवाज़ में एक अजीब सी हताशा और वासना का मिश्रण था।

कर्मा सन्न रह गया। वह जानता था कि उस दृश्य ने सरजू को भी प्रभावित किया होगा, लेकिन उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इस कदर खो जाएगा।

सरजू आगे कहने लगा, उसकी आँखें अब कर्मा से मिलीं, उनमें एक अजीब सी बेचैनी थी। "मैं... मैं हमेशा तरकीबें लगाता रहता हूँ उसे देखने के लिए। जब वह नहाती है तो बहाने से उधर चला जाता हूँ। घर में जब वह कपड़े बदलती है तो दरवाज़े के पास कान लगाए रहता हूँ।" उसकी आवाज़ धीमी और शर्मिंदगी से भरी थी, लेकिन उसमें एक अनियंत्रित इच्छा भी झलक रही थी।

कर्मा को यह सुनकर और भी ज़्यादा असहज महसूस हुआ। वह खुद भी औरतों को एक नई नज़र से देखने लगा था, लेकिन सरजू तो एक कदम और आगे बढ़ गया था। वह अपनी ही माँ के प्रति इस तरह की भावनाएं रख रहा था, यह सोचकर ही कर्मा का मन घिन से भर गया।

"सरजू, यह... यह ठीक नहीं है," कर्मा ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ में हिचकिचाहट थी। "वह तुम्हारी माँ है।"

सरजू ने एक कड़वी हँसी हँसी। "माँ? हाँ, कहने को तो माँ है। लेकिन जब मैं उसे देखता हूँ... यार, सब भूल जाता हूँ। उसकी वो... वो सब... मुझे पागल कर देता है।" उसकी आँखें चमक रही थीं, उनमें एक अजीब सी उन्माद था।

कर्मा को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। वह खुद भी उसी आग से जूझ रहा था, लेकिन सरजू की बातें उसे डरा रही थीं। क्या वह भी इसी रास्ते पर चला जाएगा? क्या वह भी एक दिन अपनी माँ या किसी और करीबी औरत के बारे में इस तरह सोचने लगेगा?

सरजू ने फिर कहा, उसकी आवाज़ अब थोड़ी धीमी हो गई थी, "तुम भी तो देखते थे, कर्मा। तुम्हें कुछ महसूस नहीं हुआ?"

कर्मा ने नज़रें चुरा लीं। "हाँ... लेकिन... यह अलग है, सरजू। वह तुम्हारी माँ है।"

सरजू ने एक गहरी साँस छोड़ी। "मुझे पता है... मुझे पता है कि यह गलत है। लेकिन मैं क्या करूँ? मैं खुद को रोक नहीं पाता।" उसकी आवाज़ में लाचारी थी।

उस दिन, कर्मा को एहसास हुआ कि उस तालाब वाली घटना ने सिर्फ़ उसकी ही नहीं, बल्कि सरजू की भी ज़िंदगी को एक अंधेरी राह पर धकेल दिया था। और उसे डर था कि यह राह उन्हें कहाँ ले जाएगी।

सरजू से बात करने के बाद कर्मा का मन भारी हो गया था। अपने दोस्त की बातें सुनकर उसे एक अजीब सी डर और घिन महसूस हो रही थी। वह घर लौट आया और खुद को उस उत्तेजना और गलत विचारों से दूर रखने की कोशिश करने लगा जो उस तालाब वाली घटना के बाद से उसके मन में घर कर गए थे। उसने सोचा कि उसे अपनी माँ और गाँव की अन्य महिलाओं को पहले की तरह ही सम्मान की नज़र से देखना होगा, उसे अपनी दबी हुई इच्छाओं पर काबू पाना होगा।

लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था।

उस दिन, जब कर्मा घर पहुँचा, तो उसने देखा कि उसकी माँ, सभ्या, आंगन में कपड़े सुखा रही थीं। गर्मी बहुत ज़्यादा थी और सभ्या ने सिर्फ़ एक पतला ब्लाउज़ और पेटीकोट पहना हुआ था। कर्मा ने पहले कभी अपनी माँ को इस तरह कम कपड़ों में नहीं देखा था।

पतले ब्लाउज़ के नीचे से उनकी चिकनी त्वचा की हल्की झलक मिल रही थी और उनका गोरा पेट, जिसकी गहरी नाभि थी, कर्मा की नज़रों के सामने था। सभ्या की उम्र के बावजूद उनका शरीर अभी भी सुडौल और आकर्षक था, और उस पल कर्मा की सारी कोशिशें धरी की धरी रह गईं।

अपनी माँ को उस रूप में देखकर कर्मा पर एक अलग ही असर पड़ा। वह जानता था कि सभ्या उसकी माँ हैं, वह औरत जिसने उसे जन्म दिया और पाला-पोसा, लेकिन उस पल उसके अंदर एक अजीब सी उत्तेजना पैदा हो गई। वह अपनी नज़रें हटाना चाहता था, लेकिन जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे उस दृश्य से बांध दिया हो।

सभ्या इस बात से बिल्कुल बेखबर थीं कि उनके बेटे पर उनकी इस वेशभूषा का क्या असर हो रहा है। उनके लिए कर्मा उनका बेटा था, उनका लाडला। बेटे के सामने उन्हें किसी तरह की झिझक महसूस नहीं होती थी। वह अपने घर में सहज और स्वाभाविक रूप से रहती थीं, बिना इस बात का अंदाज़ा लगाए कि उनकी यह सादगी उनके बेटे के अंदर एक अनचाही आग भड़का रही है।

कर्मा का मुँह सूख गया। वह अपनी माँ को उस नज़र से देखने पर खुद से नाराज़ था, लेकिन वह अपनी आँखों को उस दृश्य से हटा नहीं पा रहा था। उसके दिमाग में सरजू की बातें गूँज रही थीं, उस तालाब वाला दृश्य घूम रहा था, और अब उसकी अपनी माँ का यह रूप उसके अंदर एक नई उथल-पुथल मचा रहा था।

वह जल्दी से अंदर चला गया, अपनी माँ से नज़रें चुराकर। उसके दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी और उसके चेहरे पर एक अजीब सी गर्मी महसूस हो रही थी। वह खुद को धिक्कार रहा था, लेकिन साथ ही उसके अंदर एक दबी हुई इच्छा भी जाग रही थी जिसे वह नकार नहीं पा रहा था।

उस दिन कर्मा को एहसास हुआ कि यह सिर्फ़ बाहरी औरतें नहीं थीं जिन्हें वह अब अलग नज़र से देखता था, बल्कि उसकी अपनी माँ भी उस नए नज़रिया से अछूती नहीं थीं। और यह विचार उसे और भी ज़्यादा परेशान और उलझन में डाल गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह इस स्थिति से कैसे निपटे।

दिन बीतते गए, और कर्मा के लिए हर दिन एक नई परीक्षा की तरह था। किस्मत जैसे उसके साथ कोई क्रूर खेल खेल रही थी। अनजाने में ही, बार-बार ऐसे दृश्य उसकी आँखों के सामने आते रहे जो उसकी दबी हुई उत्तेजना को और भड़काते रहे।

कभी वह देखता कि ममता ताई आँगन में झुककर कपड़े उठा रही हैं, और उनकी साड़ी का पल्लू सरक जाता, उनकी कमर का चिकना हिस्सा पल भर के लिए उसकी नज़रों में कैद हो जाता। कभी मंजू ताई कुएँ से पानी भरतीं और भीगे कपड़ों में उनके शरीर की रेखाएँ स्पष्ट हो जातीं, एक ऐसा नज़ारा जो कर्मा के मन में उस तालाब वाले दृश्य की याद ताज़ा कर देता।

प्रेमा भाभी, जिनके साथ वह पहले खुलकर हँसी-मज़ाक करता था, अब उनके हर छोटे से हावभाव में उसे एक अलग आकर्षण नज़र आता। उनके बालों को ठीक करने का अंदाज़ हो, या झुककर कोई काम करने का तरीका, हर चीज़ कर्मा की कामुक कल्पना को उड़ान देने के लिए काफ़ी थी।

और सबसे ज़्यादा, उसकी अपनी माँ, सभ्या। गर्मी के दिनों में उनका सहज और लापरवाह पहनावा कर्मा के लिए एक निरंतर चुनौती बना रहता। ब्लाउज़ और पेटीकोट में घर के काम करते हुए उनकी चाल-ढाल, उनके शरीर का स्वाभाविक उभार, और खासकर वह गोरा पेट और गहरी नाभि - ये सब कर्मा के अंदर एक ऐसी आग जलाते जिसे बुझाना उसके लिए नामुमकिन होता जा रहा था। सभ्या अपनी दुनिया में मग्न रहतीं, अपने बेटे की बदलती हुई नज़रों से बेखबर, जबकि कर्मा हर पल एक आंतरिक युद्ध लड़ता रहता।

उसकी रातों की नींद उड़ गई थी। बिस्तर पर लेटकर वह उन दृश्यों को याद करता, उसकी कल्पना बेलगाम हो जाती और उसे खुद को शांत करना मुश्किल हो जाता। दिन में भी, काम करते वक्त या दोस्तों के साथ घूमते हुए, उसका ध्यान भटक जाता और उसकी नज़रें अनायास ही किसी औरत के शारीरिक आकर्षण पर टिक जातीं।


कर्मा जानता था कि यह सब गलत है, कि वह एक अंधेरी राह पर जा रहा है, लेकिन वह खुद को रोक नहीं पा रहा था। वह उस उत्तेजना के दलदल में धंसता जा रहा था जिसे किस्मत बार-बार उसके सामने परोस रही थी। उसका पहले वाला भोला और सीधा-सादा स्वभाव अब कहीं खो गया था, उसकी जगह एक बेचैन और दबी हुई इच्छाओं से भरा युवक ने ले ली थी, जिसकी नज़रें हर औरत को एक नए, कामुक नज़रिया से देखती थीं।
Bahut hi badhiya story hai. Mazaaa aa raha hai.
 

Premkumar65

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अध्याय 4

एक दिन कर्मा को अचानक खबर मिलती है कि सरजू शहर चला गया है किसी फैक्ट्री में उसे काम मिल गया है कर्मा को यह सुनकर एक अजीब सी खालीपन महसूस हुआ कि सरजू शहर चला गया है। भले ही सरजू की हरकतें उसे परेशान करती थीं, लेकिन वह एक ऐसा दोस्त था जिसके साथ वह अपनी दबी हुई भावनाओं को, भले ही खुलकर नहीं, पर किसी न किसी स्तर पर साझा कर लेता था। उनके बीच वह तालाब वाली घटना एक अनकहा बंधन बन गई थी, एक ऐसा रहस्य जो सिर्फ़ वे दोनों जानते थे।

अब सरजू के चले जाने से कर्मा बिल्कुल अकेला पड़ गया था। उसके मन में उठने वाली हवस की आग और उस अपराधबोध को वह अब किससे साझा करता? गाँव में उसके बाकी दोस्त साधारण थे, उनकी बातों में वह दबी हुई कामुकता नहीं थी जो सरजू की बातों में झलकती थी।

सरजू के शहर जाने के बाद कर्मा और भी ज़्यादा अंतर्मुखी हो गया। वह लोगों से कम मिलता-जुलता और ज़्यादातर अपने ही ख्यालों में खोया रहता। उसके मन में उठने वाली उत्तेजना अब और भी तीव्र हो गई थी, क्योंकि उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। वह उस उबलते हुए ज्वालामुखी की तरह महसूस कर रहा था जिसके अंदर लावा लगातार बढ़ रहा हो।

गाँव की वही औरतें, वही दृश्य अब कर्मा के लिए और भी ज़्यादा असहनीय हो गए थे। पहले कम से कम सरजू के साथ वह उन दबी हुई इच्छाओं को एक विकृत तरीके से ही सही, पर साझा तो कर लेता था, लेकिन अब वह बिल्कुल अकेला था। उसकी हवस उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी, और उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह इस आग को कैसे शांत करे।

उसकी रातों की नींद और भी कम हो गई थी। अब तो दिन में भी काम करते वक्त उसके दिमाग में बस वही कामुक कल्पनाएं घूमती रहती थीं। वह खुद से नफ़रत करता था कि वह इस तरह की सोच रखता है, लेकिन वह अपनी सोच पर काबू नहीं पा रहा था। वह एक ऐसी दलदल में फंसता जा रहा था जिससे निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।

सरजू का जाना कर्मा के लिए एक अकेलापन और निराशा लेकर आया था। उसकी दबी हुई हवस अब और भी ज़्यादा बेलगाम हो गई थी, और उसे डर था कि यह अकेलापन और यह दबी हुई आग उसे किसी दिन कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर देगी जिसका उसे हमेशा पछतावा रहेगा।
उस रात कर्मा की आँखों से नींद कोसों दूर थी। बिस्तर पर करवटें बदलते-बदलते जब उसे बिल्कुल भी चैन नहीं मिला, तो वह उठ खड़ा हुआ। कमरे में घुटन महसूस हो रही थी, इसलिए उसने सोचा कि छत पर जाकर थोड़ी ताज़ी हवा लेगा।
अपने कमरे से बाहर निकलकर वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। रात गहरी और शांत थी, सिर्फ़ दूर से कुत्तों के भौंकने की हल्की आवाज़ आ रही थी। जब वह अपने माता-पिता के कमरे के पास से गुज़रा, तो उसे अंदर से कुछ दबी हुई आवाज़ें सुनाई दीं। पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया, सोचा कि शायद वे सोकर बड़बड़ा रहे होंगे।
लेकिन जैसे ही वह एक और कदम आगे बढ़ा, आवाज़ें थोड़ी और साफ़ हुईं। ये फुसफुसाहटें थीं, और उनके साथ कुछ और अस्पष्ट ध्वनियाँ भी आ रही थीं। कर्मा का पैर वहीं थम गया। उसके अंदर एक अजीब सी जिज्ञासा पैदा हो गई। उसने अनजाने में अपना कान दरवाज़े पर लगा दिया।
अब आवाज़ें और भी साफ़ सुनाई दे रही थीं। वह अपनी माँ, सभ्या, की दबी हुई साँसें पहचान सकता था, और उसके साथ उसके पिता, नीलेश, की धीमी और भारी आवाज़ भी आ रही थी। उन आवाज़ों में एक अजीब सी लय थी, एक ऐसी तीव्रता जो कर्मा ने पहले कभी नहीं सुनी थी।
फिर उसे एक हल्की सी कराह सुनाई दी - यह सभ्या की आवाज़ थी। उस कराह में दर्द नहीं, बल्कि एक दबी हुई भावना थी जिसे कर्मा पहचान नहीं पा रहा था। उसके बाद उसके पिता की कुछ और फुसफुसाहटें आईं, और फिर एक और धीमी कराह, इस बार थोड़ी लंबी।
कर्मा का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसके अंदर एक अजीब सी बेचैनी छा गई। वह समझ नहीं पा रहा था कि अंदर क्या हो रहा है, लेकिन उन आवाज़ों में कुछ ऐसा था जिसने उसे सुन्न कर दिया था। वह अपनी माँ और पिता को हमेशा शांत और सहज देखता था, लेकिन इन आवाज़ों में एक अलग ही तरह की ऊर्जा और तीव्रता थी।
उसने अपना हाथ दरवाज़े के हैंडल पर रखा, शायद अंदर झांकने के लिए, लेकिन फिर उसका हाथ रुक गया। उसके अंदर एक अजीब सा डर समा गया था। उसे लग रहा था कि वह कुछ ऐसा देखने वाला है जिसे उसे नहीं देखना चाहिए।
उसके कान दरवाज़े पर जमे रहे, और अंदर से आती हुई दबी हुई साँसें, फुसफुसाहटें और कराहें उसके दिमाग में एक अजीब सी उलझन पैदा कर रही थीं। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसके माता-पिता के कमरे में रात के इस पहर क्या हो रहा है, लेकिन उन आवाज़ों ने उसके अंदर एक नई तरह की जिज्ञासा और बेचैनी को जन्म दे दिया था। वह उस शांत रात में अपने ही घर में एक अनजाने रहस्य का सामना कर रहा था।

दरवाज़े की हल्की सी दरार से झांकती कर्मा की आँखें उस दृश्य पर पड़ीं जिसने उसके पैरों तले की ज़मीन खिसका दी। कमरे में मंद रोशनी थी, और उस रोशनी में, बिस्तर पर, कर्मा ने अपने माता-पिता को नग्न अवस्था में देखा।

शुरू के कुछ पल तो कर्मा सुन्न रह गया। उसका दिमाग काम करना बंद कर दिया था, और उसकी आँखें उस अप्रत्याशित और चौंकाने वाले दृश्य पर टिकी रह गईं। उसके माता-पिता, जिन्हें उसने हमेशा कपड़ों में शालीनता से देखा था, आज इस तरह नग्न अवस्था में उसके सामने थे।

फिर, अचानक, उसे होश आया कि वह क्या देख रहा है। शर्म और डर की एक लहर उसके पूरे शरीर में दौड़ गई। उसे महसूस हुआ कि वह एक निजी और पवित्र पल में दखल दे रहा है। उसे तुरंत वहाँ से हट जाना चाहिए था।

उसने तेज़ी से खुद को दरवाज़े के पीछे छुपा लिया, दीवार से सटकर खड़ा हो गया ताकि कमरे के अंदर से उसे कोई न देख सके। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था और उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं। उसे लग रहा था जैसे वह कोई बहुत बड़ा पाप कर रहा हो।

लेकिन जिज्ञासा अभी भी उसके अंदर प्रबल थी। वह पूरी तरह से जा नहीं पाया। उसके कदम वहीं जमे रहे, और उसकी आँखें धीरे-धीरे दरवाज़े की दरार की ओर लौट गईं। वह अब छुपकर, सावधानी से, कमरे के अंदर होने वाली क्रियाओं को देखने लगा।

मंद रोशनी में उसके माता-पिता की नग्न देह एक दूसरे से लिपटी हुई थी। उनके शरीर में एक लयबद्ध गति हो रही थी, और उनकी दबी हुई साँसें और हल्की कराहें कमरे के शांत वातावरण में गूँज रही थीं। कर्मा ने पहले कभी इस तरह का नज़ारा नहीं देखा था। यह अंतरंगता, यह शारीरिक जुड़ाव उसके लिए बिल्कुल नया और चौंकाने वाला था।

उसके अंदर भावनाओं का एक अजीब सा मिश्रण उठ रहा था। शर्म और घिन तो थे ही, लेकिन उनके साथ एक अजीब सी उत्सुकता और उत्तेजना भी पैदा हो रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या महसूस कर रहा है। यह उसके माता-पिता थे, लेकिन जिस रूप में वह उन्हें देख रहा था, वह बिल्कुल अलग था।

वह छुपकर उनकी क्रियाओं को देखता रहा, उसकी आँखें हर हरकत, हर स्पर्श को ध्यान से निहार रही थीं। उसके दिमाग में उथल-पुथल मची हुई थी, उसकी दबी हुई यौन इच्छाएं इस अप्रत्याशित दृश्य से और भी ज़्यादा उत्तेजित हो रही थीं। वह एक ऐसी दुनिया में झांक रहा था जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था, और उस दुनिया का केंद्र उसके अपने माता-पिता थे।

छुपकर अपने माता-पिता की अंतरंग क्रियाओं को देखते हुए, कर्मा की नज़रें अनायास ही अपनी माँ, सभ्या, के शरीर पर टिक गईं। मंद रोशनी में उनकी नग्न देह एक अलग ही रूप में सामने आ रही थी, एक ऐसा रूप जिसे कर्मा ने पहले कभी इतने ध्यान से नहीं देखा था।
उस पल, कर्मा को ज्ञात हुआ कि उसकी माँ का बदन सच में कितना सुंदर है। उनकी त्वचा, जो हमेशा साड़ी और ब्लाउज़ के नीचे ढकी रहती थी, अब पीली रोशनी में चिकनी और मुलायम दिख रही थी। उनके सुडौल अंग, जिन पर उम्र का हल्का सा प्रभाव ज़रूर था, फिर भी एक अद्भुत आकर्षण लिए हुए थे।
उनकी कमर की कोमल वक्रता, उनके भरे हुए वक्षों का उभार, और उनके पेट की हल्की सी गोलाई - हर अंग एक कुशल शिल्पकार द्वारा तराशी गई मूरत जैसा लग रहा था। कर्मा ने पहले कभी अपनी माँ के शरीर को इस तरह समग्र रूप से नहीं देखा था, और इस नग्न रूप ने उसे अचंभित कर दिया।
उन्हें हमेशा एक शांत और शालीन महिला के रूप में देखने का आदी कर्मा, आज उनके शरीर की इस अप्रत्याशित सुंदरता को देखकर स्तब्ध था। उनके शरीर में एक सहज लालित्य था, एक ऐसी मादकता जो उनकी शांत और सरल स्वभाव के बिल्कुल विपरीत थी।
कर्मा की आँखें सभ्या के शरीर के हर हिस्से को निहारती रहीं, मानो किसी अद्भुत कलाकृति का अध्ययन कर रही हों। उनके मन में उस उत्तेजना के साथ-साथ एक प्रशंसा का भाव भी पैदा हो रहा था। यह वही माँ थीं जिन्होंने उसे जन्म दिया था, जिन्होंने उसे पाला-पोसा था, और आज उनका शरीर उसके सामने एक अलग ही रहस्य और सौंदर्य लिए हुए था।
उस क्षण, कर्मा के मन में अपनी माँ के प्रति एक नया सम्मान और आकर्षण पैदा हो गया। वह उस सुंदरता को देखकर हैरान था जिसे उसने हमेशा अनदेखा किया था। सभ्या का शरीर, जो उसके लिए हमेशा मातृत्व और स्नेह का प्रतीक रहा था, आज उसके लिए एक कामुक कल्पना का भी स्रोत बन गया था। यह खोज कर्मा के अंदर एक और जटिल भावना को जन्म दे गई - अपनी माँ की सुंदरता की प्रशंसा और उस प्रशंसा के साथ जुड़ा हुआ अपराधबोध।
अपनी माँ के नग्न और सुंदर शरीर को देखते हुए, कर्मा के मन में एक और तीव्र भावना जन्म लेने लगी - जलन। वह अपने पिता, नीलेश, को उस नज़दीकी और अंतरंग पल में अपनी माँ के साथ देखकर अंदर ही अंदर कुढ़ रहा था।

नीलेश के हाथ सभ्या के शरीर पर घूम रहे थे, उनकी त्वचा को छू रहे थे, उन अंगों को सहला रहे थे जिन्हें कर्मा ने पहले कभी इस तरह नग्न अवस्था में नहीं देखा था। उस नज़दीकी, उस स्पर्श को देखकर कर्मा के अंदर एक तीखी ईर्ष्या पैदा हो रही थी। वह सोच रहा था कि उसके पिता को यह अधिकार कैसे मिला कि वह उसकी माँ के इस अद्भुत शरीर को इस तरह छू सके, इस तरह से उसका आनंद ले सके।

कर्मा के मन में एक अजीब सी स्वामित्व की भावना जाग रही थी। यह उसकी माँ थीं, और उस पल उन्हें किसी और के साथ इस तरह देखना उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह उस अंतरंगता से दूर रहना चाहता था, उस नज़दीकी को तोड़ देना चाहता था जो उसके पिता और माँ के बीच उस पल मौजूद थी।

उसकी दबी हुई यौन इच्छाएं, जो अपनी माँ के सौंदर्य को देखकर और भी उत्तेजित हो गई थीं, अब इस जलन की भावना से और भी तीव्र हो गईं। वह उस जगह पर खुद को रखना चाहता था, वह चाहता था कि वह अपनी माँ के शरीर को इस तरह छुए, इस तरह से उसका आनंद ले। यह विचार उसे और भी ज़्यादा बेचैन और व्याकुल कर रहा था।

कर्मा ने अपने हाथों को मुट्ठियों में भींच लिया, उसकी आँखें अपने पिता की हर हरकत पर टिकी हुई थीं। उसे लग रहा था जैसे नीलेश उससे कुछ छीन रहे हो, एक ऐसा अधिकार जिसका हकदार सिर्फ़ वह था। यह एक अतार्किक और विकृत सोच थी, लेकिन उस पल कर्मा की भावनाओं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।

वह उस अंतरंग दृश्य को छिपकर देखता रहा, उसकी जलन हर पल बढ़ती जा रही थी। उसे अपने पिता से नफ़रत होने लगी थी, उस नज़दीकी के लिए जो वे अपनी माँ के साथ साझा कर रहे थे। वह उस पल को खत्म करना चाहता था, उस दृश्य को अपनी आँखों से ओझल कर देना चाहता था, लेकिन वह मजबूर था, सिर्फ़ एक छिपकर देखने वाला।

उस रात, कर्मा ने न सिर्फ़ अपनी माँ के सौंदर्य को देखा, बल्कि उसने अपने अंदर एक नई और खतरनाक भावना को भी महसूस किया - अपने ही पिता के प्रति जलन और द्वेष। यह खोज उसे और भी ज़्यादा उलझन और अंधेरे में धकेल गई।

अपनी तीव्र जलन और द्वेष की भावना में बहते हुए, कर्मा के मन में अचानक एक झटका लगा। एक ठंडी लहर उसके शरीर से गुज़री और उसे वास्तविकता का एहसास हुआ। उसने खुद को टोका, अपने विचारों पर गहरा पश्चाताप हुआ।

"यह मैं क्या सोच रहा हूँ?" वह मन ही मन खुद को धिक्कारने लगा। "मैं कौन होता हूँ उन्हें दोषी ठहराने वाला? यह उनका निजी पल है, उनका अपना रिश्ता है।"

उसे अपनी शर्मनाक हरकत का एहसास हुआ। वह छुपकर अपने माता-पिता के अंतरंग पलों को देख रहा था, एक ऐसा कार्य जो सरासर गलत और अनैतिक था। और उस पर भी, वह उस स्वाभाविक नज़दीकी के लिए अपने पिता से जल रहा था, उन्हें दोषी ठहरा रहा था।

कर्मा को अपनी सोच पर घिन आने लगी। वह कितना नीच और स्वार्थी हो गया था? उसकी दबी हुई वासना और विकृत नज़रिया उसे कहाँ ले जा रहा था? वह अपने ही माता-पिता के बारे में ऐसी घिनौनी बातें सोच रहा था।

उसने अपने मन को फटकारा, उस जलन और द्वेष को झटकने की कोशिश की जो उसे अंधा कर रही थी। उसके पिता ने कुछ भी गलत नहीं किया था। वे पति-पत्नी थे, और उनके बीच का यह संबंध स्वाभाविक और पवित्र था। दोषी तो वह था, जो छिपकर उनकी निजता का उल्लंघन कर रहा था और अपने मन में गंदे विचार ला रहा था।

कर्मा ने अपनी आँखों को कसकर बंद कर लिया, जैसे उस दृश्य को अपने दिमाग से मिटा देना चाहता हो। उसे अपनी गलती का गहरा एहसास हुआ। उसे अपने माता-पिता से माफ़ी माँगनी चाहिए, भले ही वे कभी न जान पाएं कि उसने क्या देखा और क्या सोचा।

उस रात, कर्मा ने एक महत्वपूर्ण सबक सीखा। उसने अपनी दबी हुई वासना और विकृत नज़रिया की गहराई को महसूस किया, और उसे यह भी समझ में आया कि वह किस हद तक गलत रास्ते पर जा सकता है। उस पल, उसने खुद को बदलने का, अपनी सोच को शुद्ध करने का संकल्प लिया। उसे पता था कि यह आसान नहीं होगा, लेकिन उसे अपनी उस काली छाया से लड़ना होगा जो उसके मन पर हावी हो रही थी।

अपने मन को शुद्ध करने और गलत विचारों से दूर रहने का कर्मा का संकल्प पल भर भी नहीं टिक पाया। जैसे ही उसकी नज़र दरवाज़े की दरार से फिर से कमरे के अंदर गई, उसकी सारी नैतिकता और आत्म-नियंत्रण हवा में उड़ गया।

मंद रोशनी में उसकी माँ, सभ्या, की नग्न देह का दृश्य अभी भी उतना ही मादक और आकर्षक था जितना पहले था। और इस बार, कर्मा की नज़रें सीधे उनके मोटे-मोटे उरोज़ों पर टिक गईं।

उनका भरा हुआ और सुडौल आकार, पीली रोशनी में और भी ज़्यादा उभरा हुआ लग रहा था। कर्मा ने पहले कभी अपनी माँ के इस अंग को इस तरह खुलकर नहीं देखा था। उनके उभार की कोमलता और उनका स्वाभाविक सौंदर्य कर्मा के अंदर एक तीव्र यौन उत्तेजना पैदा कर गया।

उस पल, कर्मा सब कुछ भूल गया - अपना संकल्प, अपना अपराधबोध, सही और गलत का सारा ज्ञान। उसकी आँखों के सामने सिर्फ़ उसकी माँ के वे आकर्षक वक्ष थे, और उसके अंदर एक अनियंत्रित इच्छा जाग उठी कि वह उन्हें छुए, उन्हें महसूस करे।

उसका दिमाग सुन्न हो गया, और उसकी दबी हुई वासना का वेग इतना प्रबल था कि वह किसी और विचार को आने ही नहीं दे रहा था। वह फिर से उस निषिद्ध दृश्य में खो गया, अपनी उत्तेजना को शांत करने के लिए अपनी कल्पना का सहारा लेने लगा।

उस रात, कर्मा की लड़ाई हार गई। उसकी वासना उसके संकल्प पर भारी पड़ गई, और वह फिर से उस अंधेरी राह पर फिसल गया जहाँ नैतिकता और मर्यादा का कोई स्थान नहीं था। उसकी माँ का सौंदर्य उसके लिए एक ऐसा जाल बन गया था जिससे वह चाहकर भी नहीं निकल पा रहा था।

वासना के तीव्र वेग में बहते हुए, कर्मा का शरीर काँपने लगा। उसकी आँखें दरवाज़े की दरार से अपनी माँ के नग्न शरीर पर टिकी थीं, और उसका मन अनियंत्रित कल्पनाओं से भरा हुआ था। सही और गलत का भेद पूरी तरह से मिट चुका था, उसकी चेतना पर सिर्फ़ शारीरिक इच्छा का नशा छाया हुआ था।

अनजाने में ही, उसका हाथ अपने निक्कर की नाड़ी पर पहुँच गया। उंगलियाँ कपड़े को कसकर पकड़ रही थीं, दबी हुई उत्तेजना का प्रतीक। फिर, बिना किसी सोच-विचार के, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे मजबूर कर दिया हो, उसने अपने निक्कर को नीचे खिसका दिया। ठंडी हवा उसकी उत्तेजित त्वचा पर लगी, जिससे उसकी सिहरन और बढ़ गई।

उसकी आँखें अभी भी कमरे के अंदर थीं, अपनी माँ के नग्न शरीर के हर हिस्से को निहार रही थीं। उसके दिमाग में उस दृश्य के सिवा और कुछ नहीं था। सभ्या के मोटे-मोटे उरोज़, उनकी चिकनी कमर, उनके सुडौल अंग - यह सब उसके अंदर एक तीव्र शारीरिक प्रतिक्रिया पैदा कर रहा था।

उसका हाथ तेज़ी से चलने लगा। उसकी आँखें अपनी माँ के चेहरे पर टिकी थीं, लेकिन उसकी कल्पना उनके नग्न शरीर पर दौड़ रही थी। शर्म और उत्तेजना का एक अजीब सा मिश्रण उसके अंदर घुमड़ रहा था। वह जानता था कि यह गलत है, घोर गलत, लेकिन उस पल वासना की आग इतनी तेज़ थी कि नैतिकता की सारी दीवारें ढह गई थीं।

दरवाज़े के बाहर खड़े हुए, अंधेरे में छिपा हुआ, कर्मा अपनी कामुक कल्पनाओं में खो गया। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं और उसके शरीर में एक अजीब सी बेचैनी दौड़ रही थी। उस निषिद्ध दृश्य को देखते हुए, वह आत्म-सुख में लीन हो गया, अपनी दबी हुई इच्छाओं को शांत करने का एक विकृत प्रयास कर रहा था।

बाहर की शांत रात और कमरे के अंदर की दबी हुई आहें एक गुप्त और शर्मनाक दृश्य रच रही थीं। कर्मा, अपनी ही माँ के अंतरंग पलों का दर्शक और भागीदार दोनों बन गया था, वासना के उस अंधेरे कुएँ में और गहरा उतरता चला गया जहाँ सही और गलत का कोई मायने नहीं रह गया था।

दरवाज़े की दरार से झांकते कर्मा की आँखें उस दृश्य पर टिकी थीं जिसने उसकी उत्तेजना को और भी चरम पर पहुँचा दिया। कमरे के मंद प्रकाश में, सभ्या अपने पति के ऊपर बैठी हुई थीं, और उनका शरीर एक लयबद्ध गति में ऊपर-नीचे हो रहा था।

उस दृश्य को देखकर कर्मा का हाथ भी अनजाने में उसी लय में ऊपर-नीचे होने लगा। उसकी आँखें अपनी माँ के चेहरे और उनके शरीर की हर हरकत पर टिकी थीं। सभ्या की गर्दन थोड़ी पीछे झुकी हुई थी और उनकी आँखें बंद थीं, उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था जिसे कर्मा समझ नहीं पा रहा था, लेकिन जिसने उसके अंदर की आग को और भड़का दिया।

उनके शरीर की हर ऊपर-नीचे की हरकत कर्मा के अंदर एक तीव्र सिहरन पैदा कर रही थी। वह उस नज़दीकी, उस अंतरंगता को छिपकर देख रहा था, और उसकी अपनी दबी हुई इच्छाएं उस दृश्य के साथ तालमेल बिठा रही थीं। उसे लग रहा था जैसे वह भी उस क्रिया में शामिल हो गया हो, जैसे वह भी अपनी माँ के साथ उस पल को जी रहा हो।

उसका हाथ तेज़ी से चलने लगा, उसकी साँसें तेज़ हो गईं और उसका शरीर काँपने लगा। शर्म और उत्तेजना का वह भयानक मिश्रण एक बार फिर उस पर हावी हो गया था। वह जानता था कि यह गलत है, लेकिन उस पल उसकी वासना इतनी प्रबल थी कि वह किसी और विचार को आने ही नहीं दे रहा था।

कमरे के अंदर दबी हुई आहें और शरीर की लयबद्ध हरकतें दरवाज़े के बाहर खड़े कर्मा की उत्तेजना को और भी बढ़ा रही थीं। वह उस निषिद्ध दृश्य का दर्शक बना हुआ था, और उसकी अपनी शारीरिक प्रतिक्रिया उस दृश्य की तीव्रता को और भी ज़्यादा महसूस करा रही थी। वह उस अंधेरे कुएँ में और गहरा उतरता जा रहा था, जहाँ वास्तविकता और कल्पना की सीमाएं धुंधली पड़ गई थीं।

मंद रोशनी में, कर्मा की नज़रें अपनी माँ के शरीर पर टिकी थीं, उस अंतरंग मिलन के हर विवरण को सोखने की कोशिश कर रही थीं। सभ्या अपने पति के ऊपर बैठी हुई थीं, और उनके शरीर की लयबद्ध गति स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। उस हरकत के केंद्र में, जहाँ नीलेश का कठोर लिंग उनके अंदर समाया हुआ था, कर्मा ने एक और विवरण देखा जिसने उसकी उत्तेजना को और बढ़ा दिया।

उनकी योनि का वह हिस्सा, जहाँ नीलेश का लिंग प्रवेश कर रहा था, नमी से चमक रहा था। वह चमक उस अंदरूनी उत्तेजना का स्पष्ट प्रमाण थी जो सभ्या उस पल महसूस कर रही थीं। वह आनंद में डूबी हुई थीं, और उनके शरीर की यह भीगी हुई चमक उस सुख की तीव्रता को बयान कर रही थी।

उस दृश्य को देखकर कर्मा की साँसें तेज़ हो गईं। वह उस नमी को महसूस कर सकता था, उस गर्माहट की कल्पना कर सकता था जो उस अंतरंग मिलन में मौजूद थी। उनकी माँ का शरीर, जो हमेशा उसके लिए पवित्र और अछूत रहा था, आज इस तरह खुलकर अपनी कामुकता का प्रदर्शन कर रहा था।

उसकी अपनी दबी हुई इच्छाएं उस दृश्य के साथ और भी ज़्यादा उत्तेजित हो उठीं। वह उस नमी को छूना चाहता था, उस गर्माहट को महसूस करना चाहता था। उसका हाथ तेज़ी से चलने लगा, उसकी कल्पना बेलगाम हो गई।

कमरे के अंदर सभ्या की दबी हुई आहें और उनके शरीर की लयबद्ध हरकतें उस आनंद की गवाही दे रही थीं जो उन्हें मिल रहा था, और दरवाज़े के बाहर खड़ा कर्मा उस दृश्य में पूरी तरह से खो गया था, उसकी अपनी शारीरिक उत्तेजना उस नमी और गर्माहट की कल्पना से और भी ज़्यादा तीव्र और अनियंत्रित हो गई थी। सभ्या की योनि की वह भीगी हुई चमक कर्मा के लिए एक ऐसा रहस्य बन गई थी जिसे वह कभी नहीं भूल पाएगा।

कमरे के मंद प्रकाश में, दृश्य ने एक नया मोड़ लिया जिसने कर्मा की उत्तेजना को अंतिम सीमा तक पहुँचा दिया। सभ्या ने अपनी स्थिति बदली, और अब वह अपने पति के ऊपर घूमकर बैठ गईं। इस परिवर्तन के साथ, कर्मा के सामने उनकी माँ के मोटे-मोटे उरोज़ों की जगह उनके गोल-मटोल नितंब आ गए।

उनका मांसल और सुडौल आकार, नीचे से आती हुई पीली रोशनी में और भी ज़्यादा उभरा हुआ लग रहा था। कर्मा की आँखें उन पर टिक गईं, उनके सौंदर्य और कामुकता से सम्मोहित। और फिर, उसकी नज़रें उन नितंबों के बीच की गहरी दरार पर पड़ीं।

उस दरार के अंदर, लगभग छिपा हुआ, कर्मा ने वह भूरा छेद देखा। वह योनि का द्वार था, उस अंतरंग मिलन का केंद्र जिसे वह इतनी देर से छिपकर देख रहा था। उस छिपे हुए रहस्य को देखकर कर्मा के अंदर एक तीव्र और अनियंत्रित भावना उमड़ पड़ी।

उसकी साँसें थम गईं। उसका शरीर काँपने लगा। उसकी कल्पना में उस छेद की नमी, उसकी गर्माहट और उस अंतरंग सुख का एहसास दौड़ गया जिसे उसकी माँ अनुभव कर रही थीं। उस पल, उसकी दबी हुई वासना अपने चरम पर पहुँच गई।

उसका हाथ तेज़ी से चलने लगा, उसकी पकड़ और मज़बूत हो गई। उसकी आँखें उस भूरे छेद पर टिकी थीं, मानो किसी सम्मोहन में बंध गया हो। उसका दिमाग सुन्न हो गया, और उसके शरीर में एक तीव्र झटके के साथ तनाव आया।

एक दबी हुई आह उसके गले से निकली, और वह चरम पर पहुँच गया। उसकी उत्तेजना शांत हो गई, लेकिन उसकी आँखों के सामने अभी भी उसकी माँ के गोल-मटोल नितंब और उनके बीच छुपा हुआ वह भूरा छेद घूम रहा था।

उस रात, कर्मा ने अपने माता-पिता के अंतरंग पलों का न सिर्फ़ दर्शक बना, बल्कि अपनी दबी हुई वासना की अंतिम सीमा को भी छू लिया। वह दृश्य, वह उत्तेजना, और वह चरम अनुभव हमेशा के लिए उसके मन में अंकित हो गया।

अगली सुबह, कर्मा की नींद देर से खुली, और जब वह जागा तो उसका मन भारी और उलझन भरा था। रात की घटनाएँ उसके दिमाग में घूम रही थीं, एक ऐसा दृश्य जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं पा रहा था। उसके अंदर भावनाओं का एक अजीब सा द्वंद्व चल रहा था।

एक तरफ़ तो शर्म और अपराधबोध था। उसने छिपकर अपने माता-पिता के निजी पलों को देखा था, एक ऐसा कार्य जो सरासर गलत और अनैतिक था। उस रात उसने अपनी दबी हुई वासना को तृप्त करने के लिए उस निषिद्ध दृश्य का इस्तेमाल किया था, और इस विचार ने उसे अंदर तक कचोट रहा था। वह खुद को धिक्कार रहा था कि वह कितना नीच और स्वार्थी हो गया था।

दूसरी तरफ़, उसके मन में उस रात देखे गए दृश्य की उत्तेजना अभी भी ताज़ा थी। अपनी माँ का नग्न सौंदर्य, उनके अंतरंग पलों की कामुकता - यह सब उसके दिमाग में बार-बार घूम रहा था, उसकी दबी हुई इच्छाओं को और भड़का रहा था। उसे अपनी माँ के उस रूप को याद करके एक अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी।

उसके मन में कई सवाल उठ रहे थे। क्या उसे अपने माता-पिता को बताना चाहिए कि उसने क्या देखा? लेकिन वह कैसे बताएगा? क्या वे उस पर विश्वास करेंगे? और अगर उन्होंने किया भी, तो उनका क्या रिएक्शन होगा? क्या उनका रिश्ता पहले जैसा रह पाएगा?

क्या उसे इस बारे में किसी से बात करनी चाहिए? लेकिन वह किससे बात करेगा? सरजू तो शहर चला गया था, और गाँव के बाकी लोग इन बातों को सुनकर क्या सोचेंगे? उसे डर था कि वह उपहास का पात्र बन जाएगा या लोग उसे गलत समझेंगे।

क्या उसे बस चुपचाप सब कुछ भूल जाने की कोशिश करनी चाहिए? लेकिन वह उस दृश्य को कैसे भुला पाएगा जो उसकी आँखों में हमेशा के लिए कैद हो गया था? और क्या उसकी दबी हुई वासना उसे फिर से इस तरह की हरकत करने पर मजबूर नहीं करेगी?

कर्मा पूरी तरह से खोया हुआ महसूस कर रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। वह एक ऐसी स्थिति में फंस गया था जहाँ हर रास्ता मुश्किल और उलझन भरा लग रहा था। उसके अंदर की शर्म, अपराधबोध और उत्तेजना उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी, और उसे कोई ऐसा नहीं दिख रहा था जिससे वह अपनी इस परेशानी को साझा कर सके या कोई ऐसा जो उसे सही राह दिखा सके। वह एक अकेले और अंधेरे रास्ते पर खड़ा था, और उसे नहीं पता था कि उसे आगे कहाँ जाना है।
Very nice update. Ladke ke man ki bhavnaon ka bahut achhha varna kiya hai.
 

Premkumar65

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अध्याय 5

उसी उधेड़बुन में डूबे कर्मा को अचानक जग्गू सामने से आता हुआ दिखाई दिया। जग्गू की भोली मुस्कान और दोस्ताना अंदाज़ देखकर कर्मा को थोड़ी राहत महसूस हुई।
"अरे कर्मा! आजकल कहाँ गुम रहता है तू? दिखाई ही नहीं देता," जग्गू ने पास आकर कहा, कंधे पर हाथ रखते हुए।
कर्मा ने एक फीकी मुस्कान के साथ जवाब दिया, "बस यहीं था... थोड़ा काम में फंसा हुआ था।"
दोनों साथ में चलने लगे और गाँव की इधर-उधर की बातें करने लगे। जग्गू अपने खेतों की नई फसल के बारे में बता रहा था, और कर्मा अनमने ढंग से 'हाँ' 'हूँ' कर रहा था। उसका दिमाग अभी भी रात की घटना और अपने अंदर चल रहे द्वंद्व में उलझा हुआ था।
बातचीत के दौरान, कर्मा के मन में एक विचार कौंधा। जग्गू उसका बचपन का दोस्त था, उस पर वह भरोसा कर सकता था। काश वह उसके साथ अपनी परेशानी साझा कर पाता। शायद जग्गू उसे कोई सलाह दे सके या कम से कम उसका बोझ थोड़ा हल्का हो जाए।
लेकिन फिर उसे डर हुआ। वह जग्गू को क्या बताएगा? कि उसने छिपकर अपने माता-पिता को अंतरंग होते हुए देखा? कि उस दृश्य ने उसे उत्तेजित किया? जग्गू यह सुनकर क्या सोचेगा? क्या वह उसे गलत नहीं समझेगा? क्या उनकी दोस्ती टूट नहीं जाएगी?
इन विचारों के बीच, कर्मा के दिमाग में एक तरकीब आने लगी। वह सीधे-सीधे रात वाली बात तो नहीं बता सकता था, लेकिन शायद वह अपनी दबी हुई यौन इच्छाओं और उस अजीब से नज़रिया के बारे में कुछ संकेत दे सकता था जो उसके अंदर पैदा हो गया था। वह देखना चाहता था कि जग्गू इस बारे में क्या सोचता है, क्या वह भी कभी ऐसी भावनाओं से गुज़रा है?
वह धीरे-धीरे अपनी बातों को उस दिशा में मोड़ने लगा, गाँव की औरतों के बारे में हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ करने लगा, उनकी सुंदरता या पहनावे का ज़िक्र करने लगा। वह जग्गू की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था, यह देखने के लिए कि क्या वह भी उसी तरह की दबी हुई कामुकता को महसूस करता है जैसा वह कर रहा था।
कर्मा उम्मीद कर रहा था कि जग्गू के साथ बातचीत उसे अपनी भावनाओं को समझने और शायद उनसे निपटने का कोई रास्ता खोजने में मदद करेगी। वह उस अकेलेपन से बाहर निकलना चाहता था जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।


जग्गू, कर्मा का बचपन का साथी, भले ही स्वभाव से थोड़ा दब्बू और सीधा-सादा था, पर वह भी जवान था। उसके अंदर भी इच्छाएं थीं, उत्तेजना महसूस होती थी, खासकर गाँव की खूबसूरत महिलाओं को देखकर। ममता ताई की मदमस्त चाल, मंजू ताई की भरी हुई काया और प्रेमा भाभी का आकर्षक सौंदर्य - ये सब जग्गू के युवा मन में भी कहीं न कहीं हलचल पैदा करते थे।

लेकिन जग्गू थोड़ा संकोची किस्म का था। उसे हमेशा यह डर लगा रहता था कि अगर उसने अपनी इन भावनाओं को ज़ाहिर किया तो लोग उसे गलत समझेंगे। गाँव में मर्यादा और रिश्तों का बड़ा ध्यान रखा जाता था, और जग्गू नहीं चाहता था कि उसकी वजह से किसी को बुरा लगे या उसकी छवि खराब हो। इसलिए वह अपनी इन इच्छाओं को अपने अंदर ही दबाकर रखता था, कभी किसी से खुलकर बात नहीं करता था।

जब कर्मा गाँव की औरतों के बारे में हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ करने लगा, तो जग्गू थोड़ा असहज हो गया। उसे लगा कि कर्मा शायद उस दबी हुई कामुकता को ज़ाहिर कर रहा है जिसे वह खुद अंदर ही अंदर महसूस करता था। वह समझ नहीं पा रहा था कि कर्मा का क्या इरादा है। क्या वह उसे परख रहा है? या सिर्फ़ यूँ ही बातें कर रहा है?

जग्गू ने कर्मा की बातों का सीधा जवाब नहीं दिया। वह थोड़ा हँसा और बात को टालने की कोशिश की। "हाँ यार, गाँव में सब अपने-अपने ढंग के हैं," उसने कहा, अपनी नज़रें ज़मीन पर टिकाए हुए।

कर्मा को जग्गू की इस झिझक का एहसास हुआ। वह समझ गया कि जग्गू भी शायद उसी दबी हुई भावनाओं के सागर में गोते लगा रहा है जिससे वह खुद जूझ रहा था, बस उसे ज़ाहिर करने की हिम्मत नहीं मिल रही थी। यह जानकर कर्मा को थोड़ी तसल्ली हुई कि वह अकेला नहीं है, लेकिन साथ ही उसे यह भी महसूस हुआ कि अपनी भावनाओं को खुलकर साझा करना कितना मुश्किल है, खासकर गाँव के इस माहौल में।

अब कर्मा को और भी ज़्यादा तरकीब लगानी होगी अगर वह जग्गू के साथ अपनी उस रात वाली बात को साझा करना चाहता है। उसे पहले जग्गू का भरोसा जीतना होगा और उसे यह महसूस कराना होगा कि वह उसे गलत नहीं समझेगा।

उसी पल से कर्मा ने एक नई राह पकड़ ली। उसने महसूस किया कि जग्गू के अंदर भी दबी हुई इच्छाओं का एक सागर छिपा है, बस उसे सतह पर लाने की ज़रूरत है। और कर्मा ने यह काम धीरे-धीरे, बड़ी सावधानी से शुरू कर दिया।

अब जब भी वे मिलते, कर्मा किसी न किसी बहाने से गाँव की औरतों की बातें छेड़ देता। कभी वह ममता ताई की हँसी की तारीफ करता, तो कभी प्रेमा भाभी के काम करने के अंदाज़ का ज़िक्र करता। वह जानबूझकर ऐसी टिप्पणियाँ करता जिनमें हल्की शरारत और दबी हुई कामुकता का इशारा होता था। वह जग्गू की प्रतिक्रिया को बारीकी से देखता, उसकी आँखों में झांकता, यह समझने की कोशिश करता कि वह कितना खुल रहा है।

शुरू में जग्गू थोड़ा संकोची रहा, कर्मा की बातों को टालने की कोशिश करता या सिर्फ़ हल्की मुस्कान देकर रह जाता। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कर्मा अपनी बातों में और बेबाकी लाता गया, जग्गू भी सहज होने लगा। उसे भी ऐसी बातों में मज़ा आने लगा था। यह एक ऐसा विषय था जिस पर वह अक्सर अकेले में सोचता था, और अब उसे किसी के साथ साझा करने का मौका मिल रहा था, भले ही वह खुलकर न हो।

कभी-कभी जग्गू भी पलटकर कोई टिप्पणी कर देता, गाँव की किसी ख़ास औरत के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करता। उसकी बातों में अब वह दबी हुई उत्तेजना झलकने लगी थी जिसे वह पहले छिपाकर रखता था। कर्मा समझ गया कि उसकी तरकीब काम कर रही है। जग्गू धीरे-धीरे अपनी खोल से बाहर निकल रहा था।

दोनों दोस्त अब घंटों साथ में बैठकर ऐसी बातें करते, गाँव की औरतों के रूप-रंग, उनके हावभाव और उनके पहनावे पर दबी ज़बान में चर्चा करते। यह उनके लिए एक गुप्त दुनिया बन गई थी, एक ऐसा संसार जहाँ वे अपनी दबी हुई इच्छाओं को बिना किसी डर के थोड़ा-बहुत आज़ाद कर सकते थे।

कर्मा को लग रहा था कि वह धीरे-धीरे जग्गू का भरोसा जीत रहा है। वह उम्मीद कर रहा था कि एक दिन वह उसे उस रात वाली घटना के बारे में भी बता पाएगा, और शायद जग्गू उसे समझ पाएगा या कोई सलाह दे पाएगा। लेकिन वह जानता था कि उसे धैर्य रखना होगा और जग्गू को पूरी तरह से खुलने का समय देना होगा। उनकी दोस्ती अब एक नए मोड़ पर आ गई थी, एक ऐसे मोड़ पर जहाँ दबी हुई इच्छाएं और गुप्त बातें उनके बीच एक नया बंधन बना रही थीं।

कर्मा ने जग्गू को और भी सहज करने के लिए एक कदम और आगे बढ़ाया। उसने जानबूझकर जग्गू को तालाब के किनारे ले जाना शुरू कर दिया, उसी जगह जहाँ वह सरजू के साथ छिपकर औरतों को नहाते हुए देखता था। वह जानता था कि इस जगह का माहौल शायद जग्गू को अपनी दबी हुई इच्छाओं को ज़ाहिर करने के लिए और प्रेरित करेगा।

और किस्मत को जैसे कुछ और ही मंज़ूर था। एक दोपहर, जब कर्मा और जग्गू तालाब के किनारे झाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, तो कर्मा ने देखा कि तालाब में कोई और नहीं, सरजू की माँ, रज्जो, नहाने आई थीं।

रज्जो का भरा हुआ शरीर, जिसकी कामुकता पूरे गाँव में मशहूर थी, अब पानी में भी अपनी मादक उपस्थिति दर्ज करा रहा था। उनके भीगे हुए कपड़े उनके अंगों से ऐसे चिपक गए थे जैसे दूसरी त्वचा हों, हर उभार और वक्र स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था।

कर्मा ने जग्गू की ओर देखा। जग्गू की आँखें रज्जो पर टिकी हुई थीं, और उसके चेहरे पर एक अजीब सा भाव था - आश्चर्य, उत्तेजना और थोड़ी घबराहट का मिश्रण। यह पहली बार था जब जग्गू ने रज्जो को इस तरह देखा था।

कर्मा ने धीरे से फुसफुसाया, "देख रहा है जग्गू?" उसकी आवाज़ में एक दबी हुई शरारत थी।

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया, उसकी नज़रें अभी भी रज्जो पर जमी हुई थीं। कर्मा समझ गया कि उसके दोस्त पर उस दृश्य का गहरा असर हो रहा है।

रज्जो बेफिक्री से नहा रही थीं, अपने बालों को पानी से धो रही थीं और कभी-कभी गुनगुना रही थीं। उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि झाड़ियों के पीछे दो युवा लड़के उन्हें छिपकर देख रहे हैं।

कर्मा ने जग्गू को और उकसाने के लिए धीरे से कहा, "सरजू हमेशा कहता था कि रज्जो ताई... बहुत सुंदर हैं।"

जग्गू ने आखिरकार अपनी नज़रें रज्जो से हटाईं और कर्मा की ओर देखा। उसके चेहरे पर एक अजीब सी उलझन थी। "यह... यह सरजू की माँ हैं," उसने फुसफुसाते हुए कहा, जैसे उसे यकीन न हो रहा हो।

कर्मा समझ गया कि जग्गू अंदर से हिल गया है। अपनी दोस्त की माँ को इस हालत में देखना उसके लिए एक नया और अप्रत्याशित अनुभव था। अब देखना यह था कि जग्गू इस पर कैसी प्रतिक्रिया देता है और क्या यह घटना उन्हें और करीब लाती है या उनके बीच एक अजीब सी दूरी पैदा करती है।

रज्जो को उस रूप में देखकर जग्गू पर एक गहरा प्रभाव पड़ा। पहले तो वह थोड़ा असहज और हैरान था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या महसूस करे। यह सरजू की माँ थीं, एक ऐसी महिला जिसे वह हमेशा सम्मान की नज़र से देखता था। लेकिन रज्जो का अप्रतिम सौंदर्य और उनकी बेफिक्री भरी हरकतें उसके अंदर एक नई तरह की उत्तेजना जगा रही थीं जिसे वह पहले कभी खुलकर महसूस नहीं कर पाया था।

कर्मा की दबी हुई शरारत भरी बातें और उस निषिद्ध दृश्य ने जग्गू के अंदर दबी हुई इच्छाओं के बांध को धीरे-धीरे तोड़ना शुरू कर दिया। वह रज्जो के भीगे हुए शरीर को चोरी-छिपे निहारता रहा, उसके मन में वह सारी दबी हुई कामुक कल्पनाएं हिलोरें मारने लगीं जिन्हें वह हमेशा छिपाकर रखता था।

उसकी आँखें रज्जो के शरीर के हर उभार और वक्र पर ठहर जाती थीं। पानी में उनकी त्वचा की चमक, उनके भीगे कपड़ों से झांकते हुए अंग, सब कुछ जग्गू के युवा मन पर एक नशा बनकर छा गया था। उसे लग रहा था जैसे वह किसी सपने में जी रहा हो, एक ऐसा सपना जो उसे उत्तेजित भी कर रहा था और थोड़ा डरा भी रहा था।

कर्मा ने जग्गू के चेहरे के बदलते भावों को ध्यान से देखा। उसने महसूस किया कि उसका दोस्त उस नए अहसास में धीरे-धीरे बहता चला जा रहा है। उसकी आँखों में एक अलग तरह की चमक थी, एक ऐसी उत्सुकता और उत्तेजना जो पहले कभी नहीं दिखी थी।

जग्गू ने धीरे से फुसफुसाया, उसकी आवाज़ में एक अजीब सी काँप थी, "यह... यह अविश्वसनीय है।"

कर्मा समझ गया कि जग्गू अब उस रास्ते पर चल पड़ा है जिस पर वह खुद भी कभी चला था। उस निषिद्ध दृश्य ने उनके बीच एक नया, अनकहा बंधन बना दिया था। अब वे दोनों एक ही रहस्य को साझा कर रहे थे, एक ही उत्तेजना को महसूस कर रहे थे।

उस दिन के बाद से जग्गू का व्यवहार थोड़ा बदलने लगा। वह अब कर्मा के साथ और ज़्यादा खुलकर बातें करने लगा, गाँव की औरतों के बारे में अपनी दबी हुई राय ज़ाहिर करने लगा। तालाब के किनारे उनकी मुलाक़ातें और बढ़ गईं, और वे दोनों मिलकर उस 'नज़ारे' का इंतज़ार करने लगे जिसने उनके अंदर एक नई दुनिया खोल दी थी। जग्गू अब उस दब्बू और संकोची लड़के से थोड़ा अलग दिखने लगा था, उसके अंदर एक नई आत्मविश्वास और शरारत झलकने लगी थी, उस निषिद्ध ज्ञान का ही असर था जो उसने तालाब के किनारे पाया था।

रज्जो के मोटे उरोज़ों का दृश्य जग्गू के अंदर पहले से ही एक तीव्र उत्तेजना पैदा कर चुका था। वह उस निषिद्ध सौंदर्य को देखकर सम्मोहित हो गया था, उसकी दबी हुई कामुक कल्पनाएं साकार हो रही थीं।

उसी क्षण, कर्मा ने एक और कदम आगे बढ़ाया, जग्गू को पूरी तरह से उस उत्तेजना के सागर में धकेलने के लिए। उसने धीरे से अपना पजामा नीचे खिसका दिया और अपने कठोर लिंग को बाहर निकाल लिया। मंद धूप में वह सीधा और तना हुआ खड़ा था। कर्मा ने उस पर अपना हाथ फेरना शुरू कर दिया, उसकी आँखें जग्गू पर टिकी थीं, यह देखने के लिए कि उसका दोस्त क्या प्रतिक्रिया देता है।

जग्गू पहले तो चौंक गया। उसने कर्मा के अचानक किए गए इस कृत्य को अविश्वास से देखा। उसके चेहरे पर हैरानी और थोड़ी घबराहट का भाव था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कर्मा क्या कर रहा है और इसका क्या मतलब है।

लेकिन फिर, उसकी नज़रें कर्मा के हाथ की हरकत पर टिकी रह गईं। उसने कर्मा के चेहरे पर उस तीव्र उत्तेजना को देखा जो उसके अंदर भी कहीं दबी हुई थी। और फिर, उसकी नज़रें वापस रज्जो पर गईं, जो अभी भी बेफिक्री से नहा रही थीं।

एक पल के लिए जग्गू के मन में कई विचार आए। यह गलत था, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन उस निषिद्ध दृश्य का आकर्षण और कर्मा की खुली हरकत ने उसके अंदर दबी हुई इच्छाओं को आज़ाद कर दिया।

धीरे-धीरे, जग्गू का चेहरा बदलने लगा। उसकी हैरानी की जगह एक दबी हुई उत्सुकता और उत्तेजना ने ले ली। उसकी नज़रें कर्मा के हाथ की हरकत को देखने लगीं, और फिर उसने धीरे-धीरे अपनी कमरबंद की नाड़ी पर अपना हाथ रखा।

कुछ पलों की झिझक के बाद, जग्गू ने भी अपना पजामा नीचे खिसका दिया और अपने लिंग को बाहर निकाल लिया। वह कर्मा की ओर देख रहा था, उसकी आँखों में एक अजीब सी शरारत और उत्तेजना का भाव था। फिर, उसने भी अपने लिंग पर हाथ फेरना शुरू कर दिया, कर्मा की देखा-देखी।

झाड़ियों के पीछे, दो युवा लड़के अपनी दबी हुई कामुक इच्छाओं को आज़ाद कर रहे थे, उनकी आँखें उस निषिद्ध दृश्य पर टिकी थीं जिसने उन्हें इस हद तक पहुँचा दिया था। रज्जो, तालाब में बेखबर नहा रही थीं, इस बात से अनजान कि उनकी उपस्थिति दो युवा दिलों में किस तरह की आग भड़का रही है। वह दिन कर्मा और जग्गू की दोस्ती में एक और गहरा मोड़ ले गया, एक ऐसा मोड़ जहाँ उन्होंने एक और गुप्त और शर्मनाक अनुभव साझा किया था।

उत्तेजना के चरम पर पहुँचकर, दोनों के लंड ने कुछ ही देर में अपना पानी झाड़ियों के पत्तों और सूखी मिट्टी पर गिरा दिया। उनकी साँसें तेज़ी से चल रही थीं, और उनके शरीर में एक अजीब सी शांति छा गई थी।
जब उनकी उत्तेजना शांत हुई, तो दोनों चुपचाप बैठे रहे, उस अप्रत्याशित घटना के बारे में सोच रहे थे जो अभी-अभी हुई थी। खासकर जग्गू के मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था। यह पहली बार था जब उसने खुलेआम, किसी और के साथ मिलकर इस तरह की हरकत की थी।
कर्मा ने जग्गू की ओर देखा। वह जानता था कि उसका दोस्त थोड़ा घबराया हुआ और उलझन में होगा। उसने धीरे से कहा, "सब ठीक है, जग्गू।"
जग्गू ने कर्मा की ओर देखा, उसकी आँखों में अभी भी थोड़ी हैरानी और शर्म का भाव था। "यह... यह हमने क्या किया?" उसने फुसफुसाते हुए कहा।
कर्मा ने मुस्कुराने की कोशिश की। "हमने बस... अपनी उत्तेजना को बाहर निकाला। इसमें कोई बुरी बात नहीं है।"
कर्मा की सहजता और खुलेपन ने जग्गू को थोड़ा आराम दिया। उसे लगा कि कर्मा उसे जज नहीं कर रहा है। धीरे-धीरे, उसकी घबराहट कम होने लगी और वह भी सहज महसूस करने लगा।
दोनों कुछ देर तक चुप रहे, तालाब में नहाती हुई रज्जो को देखते रहे। फिर जग्गू ने धीरे से कहा, "मुझे... मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ।"
कर्मा समझ गया कि जग्गू अपनी दबी हुई भावनाओं को ज़ाहिर कर रहा है। उसने कहा, "यह स्वाभाविक है, जग्गू। हम जवान हैं, और ऐसी भावनाएं आती हैं।"
उस दिन के बाद, कर्मा और जग्गू के बीच एक नई तरह की दोस्ती की शुरुआत हुई। वह दब्बू और संकोची जग्गू अब कर्मा के साथ खुलकर अपनी दबी हुई इच्छाओं और उत्तेजनाओं के बारे में बात करने लगा था। कर्मा ने उसे सहज कर दिया था, और जग्गू को यह जानकर राहत मिली थी कि वह अकेला नहीं है जो ऐसी भावनाएं महसूस करता है।
तालाब का किनारा उनकी गुप्त मुलाक़तों का ठिकाना बन गया, जहाँ वे न सिर्फ़ छिपकर औरतों को नहाते हुए देखते थे, बल्कि अपनी दबी हुई कामुक कल्पनाओं और अनुभवों को भी खुलकर साझा करते थे। उनकी दोस्ती अब एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गई थी जहाँ शारीरिक इच्छाएं और गुप्त बातें उनके बीच एक गहरा बंधन बना रही थीं।

उस रात, चोदामपुर गाँव की शांत हवाओं में थोड़ी सी खुमारी घुलने वाली थी। राजन और नीलेश, गाँव के दो पुराने दोस्त, खेत की मेड़ पर बैठकर शराब पीने की योजना बना रहे थे। यह उनका पुराना शगल था, जिसे वे अक्सर अपनी पत्नियों की नज़रों से बचाकर अंजाम देते थे। खेत की खामोशी और तारों भरा आसमान उनकी गुप्त महफिल के गवाह बनते थे।

उधर, घर पर सभ्या गर्मी से बेहाल थीं। रसोई में चूल्हे की आग और उमस भरी हवा ने उन्हें पसीने से तर कर दिया था। वह धीरे-धीरे खाना बना रही थीं, माथे पर आई पसीने की बूँदों को पोंछते हुए।

कर्मा ने अपनी माँ की यह हालत देखी तो उसके मन में एक विचार आया। वह जानता था कि गर्मी सभ्या को कितनी परेशान करती है। अचानक, उसने अपनी माँ से ज़िद करना शुरू कर दिया, "माँ, इतनी गर्मी में साड़ी पहनकर क्यों काम कर रही हो? उतार दो ना इसे। तुम्हें बहुत गर्मी लग रही होगी।"

सभ्या अपने बेटे की इस अजीब सी ज़िद से हैरान हुईं। "क्या कह रहा है, कर्मा? घर में बिना साड़ी के कैसे रहूँगी? यह अच्छा नहीं लगता।" उन्होंने हल्की सी झिझक दिखाई।

लेकिन कर्मा अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। "अरे माँ, कौन देख रहा है? सिर्फ़ हम दोनों तो हैं। उतार दो ना, तुम्हें बहुत आराम मिलेगा। देखो, कितना पसीना आ रहा है तुम्हें।" उसकी आवाज़ में आग्रह था, लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। वह अपनी माँ को कम कपड़ों में देखने की दबी हुई इच्छा को पूरा करना चाहता था।

सभ्या थोड़ी देर तक हिचकिचाईं, फिर गर्मी से बेहाल होकर और बेटे की ज़िद के आगे हार मान गईं। "ठीक है, तू इतना कह रहा है तो उतार देती हूँ," उन्होंने धीरे से कहा और अपनी साड़ी का पल्लू खोल दिया।

कर्मा की आँखें चमक उठीं। उसने अपनी माँ को सिर्फ़ ब्लाउज़ और पेटीकोट में देखा, और उसके अंदर की दबी हुई उत्तेजना एक बार फिर जाग उठी। सभ्या, अपने बेटे की असली मंशा से अनजान, अपनी साड़ी को तह करके एक तरफ़ रखने लगीं। कर्मा की नज़रें उनके खुले हुए पेट और उनकी गहरी नाभि पर टिकी थीं, उस दृश्य ने उसके अंदर एक नई आग भड़का दी।

अपनी माँ को सिर्फ़ ब्लाउज़ और पेटीकोट में देखकर कर्मा के शरीर में एक तीव्र सिहरन दौड़ गई। उसकी आँखें सभ्या के खुले हुए पेट और गहरी नाभि पर टिकी रह गईं, उस दृश्य ने उसके अंदर दबी हुई वासना को एक बार फिर जगा दिया।

गरमी से राहत पाने के लिए सभ्या ने अपने कंधे से साड़ी का पल्लू हटाया, जिससे उनके ब्लाउज़ का कुछ और हिस्सा खुल गया। कर्मा की नज़रें अनायास ही उनके उभरे हुए वक्षों पर जा टिकीं, जो पतले ब्लाउज़ के कपड़े के नीचे से साफ़ झलक रहे थे।

उस दृश्य का कर्मा के शरीर पर तत्काल प्रभाव पड़ा। उसका लंड, जो पहले से ही दबी हुई उत्तेजना महसूस कर रहा था, अब उसके पजामे में कड़क हो गया। कपड़े के दबाव के बावजूद उसकी कठोरता साफ़ महसूस हो रही थी। कर्मा ने जल्दी से अपने हाथों को अपनी जेबों में डाल लिया, ताकि अपनी उत्तेजना को छिपा सके।

उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी गर्मी महसूस हुई। वह अपनी माँ को इस नज़र से देखने पर खुद से शर्मिंदा था, लेकिन उस दृश्य का आकर्षण इतना प्रबल था कि वह अपनी नज़रें हटा नहीं पा रहा था। सभ्या, अपने बेटे की बेचैनी से अनजान, रसोई में खाना बनाने में व्यस्त थीं, जबकि कर्मा अंदर ही अंदर एक तीव्र द्वंद्व से जूझ रहा था।
कर्मा तब तक रसोई में ही खड़ा रहा, अपनी माँ को देखता रहा। सभ्या गर्मी से बेहाल होकर भी पूरे मन से खाना बना रही थीं, और कर्मा की आँखें उनके हर हावभाव, उनके शरीर के हर मोड़ पर टिकी थीं। ब्लाउज़ और पेटीकोट में उनकी सहजता कर्मा के अंदर दबी हुई उत्तेजना को और भी ज़्यादा भड़का रही थी। वह अपनी कल्पनाओं में खोया हुआ था, उस रात के दृश्य को याद कर रहा था जब उसने उन्हें अंतरंग होते हुए देखा था।

जब खाना बन गया, तो सभ्या ने सबको परोसा। नीलेश देर रात घर लौटे, शराब के नशे में धुत्त। सबके खा लेने के बाद सभ्या ने उनके लिए भी खाना निकाला। कर्मा ने अपने पिता को लड़खड़ाते हुए और मदहोश आँखों से सभ्या को देखते हुए देखा।

नीलेश की एक आदत थी - जिस रात वह शराब पीकर आते थे, उस रात वह सभ्या के साथ दमदार तरीके से संभोग करते थे। शराब उनके अंदर की झिझक को खत्म कर देती थी और उनकी कामुकता को खुलकर सामने लाती थी। सभ्या भी उनकी इस आदत से वाकिफ थीं और जानती थीं कि आज रात क्या होने वाला है।

कर्मा अपने कमरे में चला गया, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। उसे अपने माता-पिता के कमरे से आने वाली दबी हुई आवाज़ों का इंतज़ार था। वह जानता था कि आज रात फिर वही दृश्य दोहराया जाएगा जिसे उसने कुछ रातों पहले छिपकर देखा था। उसका शरीर बेचैन हो रहा था और उसके मन में एक अजीब सी उत्तेजना और डर का मिश्रण था। वह उस रात के बारे में सोच रहा था, अपनी माँ के नग्न शरीर और उनके अंतरंग पलों के बारे में, और उसके अंदर दबी हुई वासना एक बार फिर सिर उठाने लगी थी। वह जानता था कि उसे यह सब नहीं सोचना चाहिए, लेकिन वह खुद को रोक नहीं पा रहा था।


जारी रहेगी।
Very very interesting update. Teenage ladki ki bhavnaon ko bahut achhi tarah se darshaya hai.
 

Arthur Morgan

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अध्याय 6
कुछ ही देर में कर्मा को जिस पल का इंतज़ार था, वह आ गया। नीचे से दबी हुई फुसफुसाहटें और हल्की कराहों की आवाज़ें आने लगीं। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह धीरे से अपने बिस्तर से उठा और दबे पाँव अपने माता-पिता के कमरे की ओर बढ़ा।

लेकिन कमरे के पास पहुँचकर वह हैरान रह गया। दरवाज़ा थोड़ा खुला हुआ था, लेकिन अंदर कोई नहीं था। कमरे में मंद रोशनी जल रही थी, लेकिन सभ्या और नीलेश कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे।

तभी कर्मा को कुछ और दबी हुई आवाज़ें सुनाई दीं। उसे लगा कि ये आवाज़ें छत से आ रही हैं। उसका मन जिज्ञासा और एक अजीब सी बेचैनी से भर गया। वह दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ते हुए छत की ओर बढ़ा।

छत पर पहुँचकर उसने धीरे से झांक कर देखा और जो दृश्य उसकी आँखों के सामने था, उसे देखकर वह पूरी तरह से हैरान रह गया। चांदनी रात में, छत पर उसकी माँ, सभ्या, और उसके पिता, नीलेश, पूरी तरह से नग्न थे।

चाँद की दूधिया रोशनी उनके नग्न शरीरों पर पड़ रही थी, उनके अंगों की रेखाओं को और भी स्पष्ट कर रही थी। सभ्या के खुले बाल हवा में लहरा रहे थे और नीलेश का मजबूत शरीर उनके पास खड़ा था। कर्मा ने पहले कभी अपने माता-पिता को इस तरह खुले में, नग्न अवस्था में नहीं देखा था। यह दृश्य जितना अप्रत्याशित था, उतना ही कामुक और विस्मयकारी भी था।
चांदनी रात में, छत पर नग्न खड़े नीलेश के हाथ सभ्या के चूचों को मसल रहे थे। उनकी उंगलियां सभ्या के गोल और उभरे हुए वक्षों पर घूम रही थीं, कभी हल्के से दबातीं तो कभी उनके निप्पलों को सहलातीं। सभ्या ने अपनी आँखें बंद कर रखी थीं और उनकी गर्दन थोड़ी पीछे की ओर झुकी हुई थी, उनके चेहरे पर एक शांत आनंद का भाव था। चांदनी उनके नग्न शरीर पर पड़ रही थी, उनके वक्षों के उभार और नीलेश के हाथों की गति को स्पष्ट रूप से दिखा रही थी। कर्मा, नीचे सीढ़ियों पर छिपकर यह दृश्य देख रहा था और उसके अंदर एक अजीब सी उत्तेजना और अविश्वास का मिश्रण महसूस हो रहा था
सीढ़ियों पर छिपकर कर्मा अपनी माँ के चेहरे पर आते कामुक भावों को देख रहा था और उसकी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। चांदनी रात में सभ्या का चेहरा शांत और आनंद से भरा हुआ था, उनकी आँखें बंद थीं और उनके होंठ हल्के से खुले हुए थे। उनके चेहरे पर वह सुकून और तृप्ति साफ़ झलक रही थी जो उनके पति के स्पर्श से मिल रही थी।

कर्मा जानता था कि सभ्या गाँव में सबके सामने एक बड़ी ही सुशील और संस्कारी महिला के रूप में जानी जाती थीं। उनकी शालीनता और मर्यादा की हर कोई मिसाल देता था। लेकिन छत पर, चांदनी रात में, वह एक बिल्कुल अलग रूप में थीं। वह एक कामुक औरत थीं, जिसे अपने पति के शरीर का स्पर्श और उनके साथ अंतरंग होना बहुत पसंद था। उनके चेहरे के भाव, उनकी दबी हुई आहें और उनके शरीर की प्रतिक्रिया साफ़ बता रही थी कि वह उस पल का पूरा आनंद ले रही थीं।

जब नीलेश उनके बदन को मसल रहे थे और उनके साथ खेल रहे थे, तो सभ्या के चेहरे पर जो आनंद और तृप्ति के भाव आ रहे थे, उन्हें देखकर कर्मा की उत्तेजना और भी बढ़ रही थी। वह अपनी माँ के इस छिपे हुए रूप को देखकर हैरान भी था और कहीं न कहीं आकर्षित भी। यह वही माँ थीं जिन्हें उसने हमेशा शांत और संयमित देखा था, और आज वह उन्हें इस तरह खुलकर अपनी कामुकता का प्रदर्शन करते हुए देख रहा था। यह दृश्य कर्मा के मन में अपनी माँ के प्रति एक नया नज़रिया पैदा कर रहा था, एक ऐसा नज़रिया जिसमें मातृत्व के साथ-साथ एक स्त्री की कामुकता भी शामिल थी।

कुछ पल बाद, निलेश ने सभ्या को धीरे से घुमाया और उसे अपने सामने बैठा लिया। चांदनी रात में दोनों के नग्न शरीर एक दूसरे के करीब आ गए। फिर, नीलेश ने अपने कठोर लंड को पकड़ा और धीरे-धीरे सभ्या के होंठों के बीच घुसा दिया।

सभ्या ने भी बड़े चाव के साथ अपने पति के लिंग को अपने मुँह में ले लिया। उनकी आँखें अभी भी बंद थीं, और उनके चेहरे पर आनंद का भाव और गहरा हो गया। उन्होंने धीरे-धीरे अपने होंठों और जीभ से नीलेश के लंड को चूसना शुरू कर दिया, उनकी हर हरकत में एक गहरी तृप्ति झलक रही थी।

सीढ़ियों पर छिपा कर्मा यह दृश्य देखकर अपनी उत्तेजना को काबू नहीं कर सका। उसके मुँह से दबी हुई आहें निकलने लगीं। अपनी माँ को इस तरह अपने पिता के लिंग को चूसते हुए देखना उसके लिए एक शक्तिशाली और कामुक अनुभव था। शर्म और उत्तेजना का एक अजीब सा मिश्रण उसके अंदर घुमड़ रहा था।

चांदनी रात में छत पर नग्न माता-पिता का यह अंतरंग दृश्य कर्मा के मन पर एक गहरी छाप छोड़ गया। सभ्या, जो दिन में एक संस्कारी पत्नी और माँ थीं, रात के अंधेरे में अपने पति के साथ खुलकर अपनी कामुकता का प्रदर्शन कर रही थीं, और कर्मा उस छिपे हुए रूप का दर्शक बन गया था।

थोड़ी देर तक सभ्या के मुँह का आनंद लेने के बाद, नीलेश ने उन्हें धीरे से उठाया और छत की एक ओर की लगभग तीन फीट ऊँची बाउंड्री की ओर ले गए। उन्होंने सभ्या को उस बाउंड्री को पकड़कर थोड़ा झुकने के लिए कहा। इस स्थिति में सभ्या के गोल-मटोल नितम्ब और भी ज़्यादा स्पष्ट रूप से खुल गए, उनकी दरार और गहरी दिख रही थी।

इस दृश्य का कर्मा पर गहरा असर हुआ, जो सीढ़ियों पर छिपकर सब देख रहा था। उसकी उत्तेजना और भी बढ़ गई। वहीं, नीलेश भी अपनी पत्नी के खुले हुए नितम्बों को देखकर मदहोश हो गया।

वह सभ्या के पीछे झुक गए और अपने दोनों हाथों से उनके नितम्बों को पकड़कर मसलने लगे। उनकी उंगलियाँ सभ्या के मांसल चूतड़ों पर घूम रही थीं, उन्हें सहला रही थीं और हल्का सा दबा रही थीं। फिर, उन्होंने अपना चेहरा दोनों नितम्बों के बीच घुसा दिया और अपनी जीभ से सभ्या की योनि को चाटने लगे।

चांदनी रात में, छत पर नग्न सभ्या का यह रूप और नीलेश की कामुक हरकतें कर्मा के मन पर एक अमिट छाप छोड़ गईं। सभ्या की दबी हुई आहें और उनके शरीर की प्रतिक्रिया साफ़ बता रही थी कि उन्हें अपने पति का यह प्यार बहुत पसंद आ रहा था। कर्मा, छिपकर यह सब देख रहा था, उसकी उत्तेजना चरम पर पहुँच रही थी, और उसके मन में अपनी माँ के प्रति एक अजीब सा आकर्षण और इच्छा पैदा हो रही थी।
सभ्या आहें भर रही थीं, उनकी साँसें तेज़ चल रही थीं। उनकी आँखें आधी खुली थीं और वे छत के किनारे से दूर तक फैले हुए खेतों को देख रही थीं। चांदनी रात में खेत शांत और रहस्यमय लग रहे थे। उनके चेहरे पर आनंद और तृप्ति का भाव स्पष्ट था।

वहीं, उनके पीछे, उनके फैले हुए चूतड़ों को उनके पति, नीलेश, और उनका बेटा, कर्मा, देख रहे थे। नीलेश अभी भी अपनी जीभ से सभ्या की योनि को चाट रहे थे, उनके हाथों ने उनके नितम्बों को कसकर पकड़ रखा था। उनकी हर हरकत में एक गहरी कामुकता झलक रही थी।

सीढ़ियों पर छिपा कर्मा अपनी माँ के उस रूप को देखकर पूरी तरह से सम्मोहित हो गया था। उनके फैले हुए चूतड़, उनकी दरार और उस नमी का दृश्य जो उनके पति की जीभ से पैदा हो रही थी, कर्मा के अंदर एक तीव्र यौन उत्तेजना पैदा कर रहा था। उसे लग रहा था जैसे वह किसी निषिद्ध स्वर्ग का दर्शन कर रहा हो। उसकी साँसें भी तेज़ चल रही थीं और उसका शरीर काँप रहा था।

चांदनी रात में छत पर यह दृश्य एक अजीब त्रिकोण बना रहा था - सभ्या अपने आनंद में डूबी हुई, नीलेश अपनी पत्नी की कामुकता का आनंद ले रहे थे, और कर्मा, छिपकर उस अंतरंग पल का दर्शक बना हुआ था, उसकी दबी हुई इच्छाएं और उत्तेजना चरम पर पहुँच रही थीं।

कर्मा ने देखा कि कुछ देर बाद नीलेश खड़े हो गए। उन्होंने सभ्या को उसी झुकी हुई अवस्था में पकड़ रखा था, उनके हाथ अब भी उनके नितम्बों पर टिके हुए थे। फिर, बिना किसी चेतावनी के, नीलेश ने अपने कठोर लिंग को पीछे से ही सभ्या की योनि के अंदर घुसा दिया।
सभ्या के मुँह से एक दबी हुई चीख निकली, जो आनंद और थोड़ी सी असहजता का मिश्रण थी। उनकी पकड़ बाउंड्री पर और मज़बूत हो गई और उनके शरीर में एक झटका सा महसूस हुआ। चांदनी रात में उनके नग्न शरीर का यह अचानक मिलन कर्मा के लिए एक शक्तिशाली दृश्य था।
नीलेश धीरे-धीरे आगे-पीछे होने लगे, उनका कठोर लिंग सभ्या के अंदर गहराई तक जा रहा था। सभ्या आहें भर रही थीं, उनकी आधी खुली आँखें अब आसमान की ओर टिकी थीं। उनके चेहरे पर आनंद और तृप्ति के भाव और गहरे हो गए थे।
सीढ़ियों पर छिपा कर्मा यह सब देखकर अपनी उत्तेजना को काबू नहीं कर पा रहा था। अपनी माँ को इस तरह अपने पिता के साथ अंतरंग होते हुए देखना उसके लिए एक अजीब और तीव्र अनुभव था। उसके अंदर शर्म, जिज्ञासा और एक दबी हुई इच्छा का मिश्रण महसूस हो रहा था। चांदनी रात में छत पर नग्न माता-पिता का यह अंतरंग दृश्य कर्मा के मन पर एक अमिट छाप छोड़ गया।

कर्मा ने देखा कि कुछ पलों के लिए नीलेश की हरकत रुकी। उन्होंने अपना कठोर लिंग सभ्या की योनि से बाहर निकाल लिया। चांदनी रात में उनके नग्न शरीर पर पसीने की हल्की चमक दिखाई दे रही थी।

कुछ क्षण बाद, बिना किसी चेतावनी के, नीलेश ने अपने लिंग को वापस सभ्या की योनि में घुसा दिया। इस बार, सभ्या की चीख कुछ तेज़ थी, उसमें आनंद के साथ थोड़ी सी कसक भी महसूस हो रही थी। उनकी पकड़ बाउंड्री पर और मज़बूत हो गई और उनका शरीर थोड़ा काँप गया।

कर्मा, सीढ़ियों पर छिपकर यह सब देख रहा था, उसकी उत्तेजना और भी बढ़ गई। अपनी माँ की उस चीख में छिपी हुई भावना को वह महसूस कर सकता था। चांदनी रात में छत पर नग्न माता-पिता का यह अंतरंग दृश्य उसके मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ रहा था, और उसके अंदर दबी हुई इच्छाएं और भी प्रबल हो रही थीं।

लेकिन तभी कर्मा की नज़र एक ऐसी चीज़ पर पड़ी जिसने उसे पूरी तरह से हैरान कर दिया। चांदनी रात में, नीलेश का कठोर लिंग सभ्या की योनि में नहीं, बल्कि उनके मुड़े हुए शरीर के पीछे, उनके गुदा की चीरता हुआ अंदर जा रहा था।

कर्मा अविश्वास से अपनी आँखें मलने लगा। क्या वह ठीक देख रहा था? उसकी माँ, सभ्या, हमेशा इतनी शालीन और संस्कारी दिखने वाली महिला, अपने पति को इस तरह अपनी गांड में प्रवेश करने दे रही थीं?

और हैरानी की बात यह थी कि सभ्या के चेहरे पर दर्द या असहजता के कोई भाव नहीं थे। बल्कि, उनकी आँखें बंद थीं और उनके चेहरे पर आनंद और तृप्ति के भाव पहले से भी ज़्यादा गहरे हो गए थे। उनकी दबी हुई आहें और तेज़ हो गईं और उनका शरीर एक अजीब सी लय में हिल रहा था। उन्हें यह अच्छा लग रहा था।

कर्मा पूरी तरह से भौंचक्का रह गया। यह उसके लिए एक नया रहस्य खुल गया था, उसके माता-पिता के अंतरंग जीवन का एक ऐसा पहलू जिसके बारे में उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसकी माँ, जो हमेशा मर्यादा की प्रतिमूर्ति थीं, बंद दरवाज़ों के पीछे इतनी कामुक और साहसी हो सकती थीं?

उस पल, कर्मा के मन में अपनी माँ के प्रति सम्मान और आश्चर्य का भाव और भी बढ़ गया। वह एक ऐसी महिला थीं जिनके व्यक्तित्व के कई परतें थीं, और हर परत पिछली से ज़्यादा अप्रत्याशित और आकर्षक थी। चांदनी रात में छत पर नग्न माता-पिता का यह अंतरंग दृश्य कर्मा के मन पर एक अमिट छाप छोड़ गया, और उसके अंदर दबी हुई इच्छाएं और भी ज़्यादा जटिल और उलझन भरी हो गईं।


चांदनी रात में, छत पर नीलेश अपनी पत्नी सभ्या के चूतड़ों के बीच अपना कठोर लिंग चला रहे थे। हर धक्के के साथ उनके शरीर आपस में टकरा रहे थे और दबी हुई आहों की आवाज़ें हवा में घुल रही थीं। दोनों ही उस अंतरंग मिलन के आनंद में डूबे हुए थे, उनके चेहरे पर तृप्ति और सुख के भाव स्पष्ट थे।

सीढ़ियों पर छिपकर यह दृश्य देख रहे कर्मा का हाल बेहाल था। उसके अंदर भावनाओं का एक अजीब सा बवंडर उठ रहा था। अविश्वास, आश्चर्य, उत्तेजना और एक अजीब सी जिज्ञासा का मिश्रण उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या महसूस करे। अपनी माँ को इस तरह देखना, उनके अंतरंग पलों का साक्षी बनना, उसके लिए एक ऐसा अनुभव था जिसने उसकी दुनिया को हिला कर रख दिया था।

उसका शरीर काँप रहा था और उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं। अनजाने में ही, उसका हाथ उसके पजामे के अंदर अपने कठोर लिंग पर चल रहा था। उसकी उंगलियाँ उस उत्तेजना को महसूस कर रही थीं जो उसके अंदर उस निषिद्ध दृश्य को देखकर पैदा हो रही थी। शर्म और वासना के बीच फंसा कर्मा उस दृश्य से अपनी नज़रें नहीं हटा पा रहा था, मानो किसी सम्मोहन में बंध गया हो। चांदनी रात में छत पर नग्न माता-पिता का यह अंतरंग मिलन उसके मन पर एक गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ रहा था।

चांदनी रात में छत पर अपने माता-पिता का गुदामैथुन देखना कर्मा के लिए एक बेहद आकर्षक विषय बन गया था। वह दृश्य उसके दिमाग में बार-बार घूमता रहता था, एक ऐसा रहस्य खुल गया था जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था।

पहले, उसने सिर्फ़ योनि मैथुन के बारे में सुना था, लेकिन अपनी माँ और पिता को उस तरह अंतरंग होते देखना उसके लिए एक बिल्कुल नया अनुभव था। सभ्या के चेहरे पर आनंद के भाव, नीलेश की कामुकता और उस निषिद्ध क्रिया की तीव्रता - सब कुछ कर्मा के मन पर एक गहरी छाप छोड़ गया था।

अब जब भी वह अकेला होता, तो उसकी कल्पना उस दृश्य पर केंद्रित हो जाती। वह अपनी माँ के मुड़े हुए शरीर, उनके खुले हुए नितम्बों और उस जगह पर अपने पिता के लंड की मां की गांड के छेद में प्रवेश की कल्पना करता। वह उस आनंद और उत्तेजना को महसूस करने की कोशिश करता जो उसके माता-पिता उस पल अनुभव कर रहे थे।

गांड मारना उसके लिए एक वर्जित फल की तरह बन गया था, एक ऐसा रहस्य जिसे वह जानना चाहता था, महसूस करना चाहता था। यह उसके यौन कल्पनाओं का एक नया हिस्सा बन गया था, एक ऐसा पहलू जिसने उसकी दबी हुई इच्छाओं को और भी जटिल और उत्तेजित कर दिया था।

वह अब औरतों को सिर्फ़ एक पारंपरिक दृष्टिकोण से नहीं देखता था। उसके मन में उनके शरीर के छिपे हुए रहस्य, उनकी कामुकता के अनछुए पहलू जानने की इच्छा जाग उठी थी। अपनी माँ का वह रूप देखने के बाद, उसे लगने लगा था कि हर औरत के अंदर एक ऐसी कामुकता छिपी होती है जिसे शायद ही कोई देख पाता है।

गुदामैथुन का वह दृश्य कर्मा के लिए एक ऐसा रहस्यमय द्वार खुल गया था जो उसे यौनता की एक नई और अप्रत्याशित दुनिया में ले जा रहा था। यह आकर्षण उसके मन में गहराई तक समा गया था, और वह अब उस निषिद्ध फल के स्वाद को जानने के लिए बेचैन रहने लगा था।

सुबह जब कर्मा की आँख खुली तो सूरज की हल्की किरणें उसके चेहरे पर पड़ रही थीं। उसकी नींद तो खुल गई थी, लेकिन उसका शरीर अभी भी रात की उत्तेजना के अवशेषों से भरा हुआ था। उसका लंड, जो रात भर दबी हुई वासना का शिकार रहा था, अब भी जाग रहा था और उसके कच्छे के अंदर तम्बू बना कर खड़ा था।

कच्छे के कपड़े पर उसके लिंग की कठोरता साफ़ महसूस हो रही थी। रात के दृश्य, अपनी माँ का नग्न शरीर और उनके अंतरंग पलों की यादें उसके दिमाग में ताज़ा थीं। गुदामैथुन का वह रहस्यमय और आकर्षक दृश्य उसकी कल्पनाओं में घूम रहा था, उसकी दबी हुई इच्छाओं को और भी ज़्यादा उत्तेजित कर रहा था।

उसका शरीर एक अजीब सी बेचैनी से भरा हुआ था। वह उस उत्तेजना को शांत करना चाहता था, लेकिन रात की यादें उसे और भी ज़्यादा भड़का रही थीं। उसका हाथ अनायास ही अपने कच्छे की ओर बढ़ गया, उस उभरे हुए तम्बू को महसूस करने के लिए।

वह बिस्तर पर लेटा रहा, अपनी आँखों को बंद करके उस दृश्य को याद करने की कोशिश कर रहा था जिसने उसे इतना उत्तेजित कर दिया था। उसकी कल्पना में उसकी माँ का नग्न शरीर, उनके खुले हुए नितम्ब और उस निषिद्ध क्रिया का एहसास दौड़ रहा था। उसका लंड और भी ज़्यादा कठोर हो गया, और उसके अंदर एक तीव्र इच्छा जाग उठी कि वह अपनी उत्तेजना को शांत करे।

सुबह की शांत हवा में, कर्मा अपने बिस्तर पर लेटा हुआ, अपनी दबी हुई वासना और रात की यादों के बीच फंसा हुआ था। उसका जागता हुआ लंड उसके अंदर की उस अनसुलझी इच्छा का प्रतीक था जिसे शांत करना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा था।

कर्मा ने जैसे ही अपने लंड को कच्छे से बाहर निकाला और उसे सहलाना शुरू ही किया था, उसे अपने कमरे के बाहर कदमों की आवाज़ सुनाई दी। वह तुरंत सतर्क हो गया। डर और शर्म की एक लहर उसके शरीर से गुज़र गई। अगर किसी ने उसे इस हालत में देख लिया तो क्या होगा?

बिना एक पल भी गंवाए, उसने तेज़ी से अपने हाथ को अपने उत्तेजित लिंग से हटाया और दोनों हाथों को अपने सिर पर रखकर सोने का नाटक करने लगा। उसने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं और अपनी साँसों को धीमा करने की कोशिश की, जैसे गहरी नींद में सोया हुआ हो।

उसके दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी, और उसके चेहरे पर एक अजीब सी गर्मी महसूस हो रही थी। उसे लग रहा था जैसे वह कोई बहुत बड़ा अपराध करते हुए पकड़ा गया हो। वह उम्मीद कर रहा था कि दरवाज़ा नहीं खुलेगा और वह इस शर्मनाक स्थिति से बच जाएगा।

कदमों की आवाज़ धीरे-धीरे उसके कमरे के करीब आ रही थी, और कर्मा का शरीर तनाव से जकड़ गया। उसे लग रहा था जैसे हर पल उसकी पोल खुलने वाली है। वह अपनी आँखें बंद किए हुए लेटा रहा, अपनी साँसों को नियंत्रित करने की पूरी कोशिश कर रहा था, और उस अज्ञात व्यक्ति के चले जाने का इंतज़ार कर रहा था।

जारी रहेगी
 

Arthur Morgan

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अध्याय 7
कुछ पल बाद ही कमरे का दरवाज़ा धीरे से खुला। कर्मा अपनी आँखें कसकर बंद किए हुए लेटा रहा, अपनी साँसों को यथासंभव शांत रखने की कोशिश कर रहा था। कमरे में हल्की सी रोशनी आई और उसे अपनी माँ, सभ्या, की धीमी आवाज़ सुनाई दी।

"कर्मा? बेटा, उठ जा। सुबह हो गई है।"

कर्मा ने सोने का नाटक करते हुए कोई जवाब नहीं दिया। वह उम्मीद कर रहा था कि सभ्या उसे छोड़कर चली जाएँगी।

लेकिन सभ्या कमरे में और अंदर आ गईं। उन्हें लगा कि उनका बेटा गहरी नींद में सोया हुआ है, लेकिन कमरे में एक अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। वह धीरे-धीरे उसके बिस्तर के पास आईं और उसे प्यार से पुकारने के लिए झुक गईं।

झुकते ही उनकी नज़र कर्मा के शरीर पर पड़ी। कंबल थोड़ा हटा हुआ था, और सभ्या ने देखा कि उनके बेटे का लंड उत्तेजित अवस्था में खड़ा है, कच्छे के ऊपर साफ दिखाई दे रहा है।

सभ्या पल भर के लिए स्तब्ध रह गईं। उन्होंने पहले कभी अपने बेटे को इस तरह नहीं देखा था। उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया - आश्चर्य, थोड़ी सी चिंता और एक दबी हुई जिज्ञासा का मिश्रण। वह समझ नहीं पा रही थीं कि सुबह-सुबह कर्मा इस हालत में क्यों है।

उन्होंने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया और उसके माथे पर रखा। "कर्मा, क्या हुआ बेटा? ठीक तो है?" उनकी आवाज़ में ममता और चिंता झलक रही थी।

कर्मा, अपनी आँखें बंद किए हुए, अपनी माँ के स्पर्श को महसूस कर रहा था। उसके अंदर डर और शर्म की एक और लहर दौड़ गई। वह जानता था कि उसकी उत्तेजना सभ्या से छिप नहीं पाई है, और अब उसे नहीं पता था कि वह इस स्थिति का सामना कैसे करेगा।
सभ्या, जो एक माँ होने के साथ-साथ एक बहुत ही कामुक स्त्री थीं, के लिए यह परिस्थिति काफ़ी दिलचस्प हो गई थी। अपने बेटे को इस उत्तेजित अवस्था में देखना उनके अंदर माँ की ममता के साथ-साथ दबी हुई स्त्रीत्व को भी जगा गया।

एक ओर, उन्हें अपने बेटे की इस हालत पर थोड़ी चिंता हुई। वह सोच रही थीं कि क्या उसे कोई परेशानी है या क्या वह किसी तरह की असहजता महसूस कर रहा है। माँ होने के नाते, वह उसकी देखभाल करना और उसे सहज महसूस कराना चाहती थीं।

लेकिन दूसरी ओर, कर्मा का उत्तेजित लिंग देखना उनके अंदर एक दबी हुई जिज्ञासा और उत्तेजना भी पैदा कर गया। रात को छत पर अपने पति के साथ अंतरंग पलों को जीने के बाद, उनकी कामुकता अभी भी शांत नहीं हुई थी। अपने जवान बेटे के शरीर का यह पहलू देखना उनके लिए एक नया और अप्रत्याशित अनुभव था।

उनके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया - आश्चर्य, कौतूहल और एक दबी हुई मुस्कान का मिश्रण। उन्होंने धीरे से अपने हाथ को कर्मा के माथे से हटाकर उसके गाल पर फेरा। उनका स्पर्श हल्का और सहलाने वाला था, लेकिन कर्मा के अंदर एक नई सिहरन पैदा कर गया।

सभ्या की आँखें कर्मा के चेहरे से उसके कच्छे की ओर गईं, जहाँ उसका उत्तेजित लिंग अभी भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। उनके अंदर की कामुक स्त्री उस दृश्य पर अनायास ही आकर्षित हो रही थी। यह उनका अपना बेटा था, लेकिन उस पल वह उन्हें सिर्फ़ एक जवान पुरुष लग रहा था।

उनके मन में कई विचार दौड़ रहे थे। उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें कर्मा को जगाना चाहिए और उससे पूछना चाहिए कि क्या हुआ है? या उन्हें चुपचाप कमरे से चले जाना चाहिए और इस बात को अनदेखा कर देना चाहिए?

लेकिन उनके अंदर की कामुकता उन्हें ऐसा करने से रोक रही थी। यह परिस्थिति उनके लिए अप्रत्याशित रूप से उत्तेजक हो गई थी, और वह देखना चाहती थीं कि यह सब कहाँ जाता है।
कर्मा के उत्तेजित लिंग को देखकर सभ्या की साँसें भारी हो रही थीं। उनके अंदर एक तीव्र द्वंद्व चल रहा था - एक माँ का कर्तव्य और एक दबी हुई कामुक स्त्री की इच्छा के बीच।

एक पल के लिए, उनका मन हुआ कि वह अपने हाथ को आगे बढ़ाएं और अपने बेटे के उत्तेजित लिंग को पकड़कर उसका स्पर्श महसूस करें। उनके अंदर एक प्रबल जिज्ञासा जाग उठी कि वह कैसा महसूस होता होगा, उनके बेटे के शरीर का यह मर्दाना हिस्सा कैसा होगा। रात को अपने पति के साथ अंतरंग पलों की यादें उनके मन में ताज़ा थीं, और उस शारीरिक स्पर्श की लालसा उनके अंदर फिर से जाग उठी थी।

लेकिन अगले ही पल, उनकी माँ की ममता और सामाजिक मर्यादा का भाव प्रबल हो गया। "यह मैं क्या सोच रही हूँ?" उन्होंने मन ही मन खुद को धिक्कारा। "यह मेरा बेटा है। मुझे ऐसी गंदी बातें नहीं सोचनी चाहिए।"

उन्होंने तुरंत अपने हाथ को पीछे खींच लिया, जैसे किसी गर्म चीज़ को छू लिया हो। उनके चेहरे पर शर्म और अपराधबोध के भाव आ गए। उन्होंने अपनी नज़रें कर्मा के उत्तेजित लिंग से हटाकर उसके चेहरे पर टिका दीं। वह अभी भी शांति से सो रहा था, अपनी उत्तेजना से बेखबर।

सभ्या ने एक गहरी साँस ली और अपने मन को शांत करने की कोशिश की। उन्हें लगा कि उन्हें कमरे से चले जाना चाहिए और इस घटना को भूल जाना चाहिए। यह सिर्फ़ एक बुरा सपना था, एक सुबह की स्वाभाविक उत्तेजना। उन्हें इसे ज़्यादा महत्व नहीं देना चाहिए।

लेकिन उनके अंदर की कामुक स्त्री इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। वह उस उत्तेजक दृश्य को भुला नहीं पा रही थीं, और उनके मन में कर्मा के शरीर को और करीब से देखने की दबी हुई इच्छा अभी भी मौजूद थी। वह सही और गलत के इस द्वंद्व में फंसी हुई थीं, यह तय नहीं कर पा रही थीं कि उन्हें क्या करना चाहिए।

सभ्या अपने अंदर चल रहे द्वंद्व में पूरी तरह से खोई हुई थीं, तभी बाहर से उनके छोटे बेटे अनुज की आवाज़ आई, "माँ! माँ! कहाँ हो तुम?"

अनुज की आवाज़ सुनकर सभ्या चौंक गईं। उन्हें अचानक याद आया कि सुबह हो गई है और अनुज उन्हें ढूंढ रहा होगा। उनके चेहरे पर आई शर्म और अपराधबोध और बढ़ गया। वह तुरंत कमरे से उठीं और तेज़ी से दरवाज़े की ओर बढ़ीं, जैसे किसी ने उन्हें पकड़ लिया हो।

उन्होंने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गईं, अनुज की आवाज़ का जवाब देने के लिए। उनके मन में अभी भी कर्मा की उत्तेजित अवस्था का दृश्य घूम रहा था, लेकिन अब उन्हें अपने छोटे बेटे की चिंता सता रही थी।

सभ्या के कमरे से जाते ही, कर्मा ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। उसके चेहरे पर एक धीमी, शरारती मुस्कान बिखर गई। वह जानता था कि उसकी माँ ने उसे उस अवस्था में देख लिया था, और उसे यह भी महसूस हो गया था कि उनकी प्रतिक्रिया सिर्फ़ चिंता या गुस्सा नहीं थी।

सभ्या के चेहरे पर आए भाव, उनकी भारी साँसें और उनके रुके हुए हाथ - सब कुछ कर्मा ने महसूस किया था। उसे लग रहा था कि उसकी माँ भी कहीं न कहीं उस स्थिति से उत्तेजित हुई थीं, भले ही उन्होंने खुद को रोक लिया था।

कर्मा ने बिस्तर पर करवट ली और छत की ओर देखने लगा। रात की घटनाएँ और सुबह का यह वाकया उसके दिमाग में घूम रहे थे। उसे लग रहा था कि उसके और उसकी माँ के बीच एक अनकहा रहस्य बन गया है, एक ऐसा बंधन जो पहले कभी नहीं था। उस मुस्कान के साथ, कर्मा के मन में एक नई उम्मीद और एक शरारती विचार जन्म लेने लगा था।

कर्मा के मन में उपजा शरारती विचार धीरे-धीरे एक योजना का रूप लेने लगा। वह अपनी माँ के साथ उस रात छत पर हुई घटना को बार-बार याद कर रहा था। सभ्या की बेचैनी, उनकी आँखों में झांकती हुई जिज्ञासा और फिर अचानक चले जाना - ये सब कर्मा के लिए एक संकेत थे। उसे लग रहा था कि उसकी माँ भी उस वर्जित आकर्षण से पूरी तरह मुक्त नहीं थीं।

उसने सोचा कि क्यों न इस अनकहे रहस्य को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाए? क्यों न माँ और बेटे के बीच की उस लक्ष्मण रेखा को धीरे-धीरे धुंधला किया जाए? यह विचार उसके अंदर एक रोमांच और थोड़ी घबराहट पैदा कर रहा था। वह जानता था कि यह गलत हो सकता है, लेकिन उस वर्जित फल का स्वाद चखने की इच्छा उसके मन में बलवती होती जा रही थी।

कर्मा बिस्तर से उठा और कमरे में टहलने लगा। उसके दिमाग में अलग-अलग तरीके घूम रहे थे जिससे वह अपनी माँ के करीब आ सके। उसे याद आया कि कैसे बचपन में वह अक्सर अपनी माँ के साथ चिपक कर सोता था, कैसे वह उनके कपड़ों में छुप जाता था। क्या वह मासूमियत की आड़ में फिर से वैसा कर सकता है? शायद नहीं, अब वह बच्चा नहीं रहा था, और सभ्या भी उसे उसी नज़र से नहीं देखेंगी।

फिर उसे याद आया कि कैसे उसकी माँ अक्सर सुबह जल्दी उठकर घर के काम करती हैं। यह वह समय होता था जब घर में ज़्यादा चहल-पहल नहीं होती थी। क्या यह मौका हो सकता है? शायद वह सुबह उठकर माँ की मदद करने का बहाना कर सकता है और धीरे-धीरे वो उनके पास आ सकता है उनके बदन की गर्मी को महसूस कर सकता है

कर्मा ने मन ही मन अपनी योजना बनानी शुरू कर दी। उसे धैर्य रखना होगा और धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा। उसे ऐसे मौके तलाशने होंगे जब वह अपनी माँ के साथ अकेले में बात कर सके और उनके बीच एक विश्वास का रिश्ता बना सके। उसे अपनी बातों और हरकतों से यह जताना होगा कि वह अब बच्चा नहीं रहा, बल्कि एक जवान मर्द बन गया है जो अपनी भावनाओं को समझता है।

उसने तय किया कि वह कोई जल्दबाजी नहीं करेगा। वह बस छोटे-छोटे इशारों से अपनी माँ को यह एहसास दिलाएगा वह उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार करेगा और उसी के अनुसार आगे बढ़ेगा।

उस शरारती मुस्कान के साथ, कर्मा ने अपने दिन की शुरुआत करने का फैसला किया, उसके मन में एक नई उम्मीद और एक गुप्त योजना पल रही थी। उसे लग रहा था कि उसके और उसकी माँ के बीच एक नया अध्याय शुरू होने वाला है, एक ऐसा अध्याय जो वर्जित और रोमांचक दोनों हो सकता है।

सुबह की शांत हवा में, कर्मा अपने कमरे से बाहर निकला। उसका मन अपनी योजना को अंजाम देने के लिए बेचैन था। उसने देखा कि सभ्या आंगन में तुलसी के पौधे को पानी दे रही हैं। सूरज की पहली किरणें उनके चेहरे पर पड़ रही थीं, जिससे उनकी त्वचा और भी निखर रही थी। कर्मा धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ा।

"माँ," कर्मा ने धीमी आवाज़ में कहा।

सभ्या चौंककर मुड़ीं। उनके चेहरे पर सुबह की नींद की खुमारी और थोड़ी सी हैरानी थी। "क्या है, कर्मा? इतनी सुबह क्या कर रहा है?"वैसे तो उठता नहीं है।

"बस... सोचा आपकी मदद कर दूं," कर्मा ने मासूमियत से कहा, जबकि उसके अंदर एक शरारती भावना हिलोरें मार रही थी। "क्या मैं पौधों में पानी डाल दूं?"

सभ्या थोड़ा हिचकिचाईं। "नहीं, बेटा, मैं कर लूंगी। तू जा और अपना काम देख।"

"कोई बात नहीं, माँ। मुझे अच्छा लगेगा," कर्मा ने ज़ोर दिया और उनके हाथ से लोटा लेने के लिए आगे बढ़ा। उनके हाथ हल्के से टकराए, और कर्मा ने उस पल को थोड़ा लंबा खींचने की कोशिश की। सभ्या ने एक पल के लिए उसकी आँखों में देखा, और कर्मा को लगा जैसे उनके अंदर भी कुछ हलचल हो रही है।

सभ्या ने लोटा छोड़ दिया। "ठीक है, अगर तेरा मन है तो डाल दे।"
कर्मा: मैं तो तैयार हूं मां डालने के लिए तुम डालने ही नहीं दे रही।

कर्मा ने दो अर्थी भाषा में कहा जिसे सुनकर सभ्या को भी थोड़ा अजीब लगा पर उसने इतना ध्यान नहीं दिया।
कर्मा ने धीरे-धीरे पौधों में पानी डालना शुरू किया। वह जानता था कि यह सिर्फ़ शुरुआत है। उसे ऐसे संजोग बनाने होंगे जिससे उनकी नज़दीकी बढ़े और उत्तेजना भी पैदा हो।

कुछ देर बाद, सभ्या रसोई में काम कर रही थीं। कर्मा जानबूझकर रसोई के पास से गुजरा। "माँ, क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूँ?"

सभ्या ने पलटकर देखा। "नहीं, बेटा, बस चाय बना रही हूँ।"

"मुझे भी चाय बनानी आती है," कर्मा ने कहा और रसोई में दाखिल हो गया। और जब कर्मा अंदर आया और मां के पास खड़ा हो गया तो दोनों के बीच की दूरी बहुत कम हो गई।

चाय बनाते समय, कर्मा ने 'अनजाने' में अपना हाथ सभ्या के हाथ से छुआ जब वह चीनी का डिब्बा उठा रही थीं। सभ्या ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा, उनकी आँखों में एक सवाल था, लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। कर्मा ने अपनी नज़रें नीची रखीं जैसे कुछ हुआ ही न हो।

फिर, जब सभ्या चूल्हे से केतली उतार रही थीं, तो कर्मा पीछे से उनके बहुत करीब आ गया, 'संतुलन' बनाने के बहाने। उसका शरीर सभ्या के शरीर से हल्का सा टकराया, और कर्मा ने महसूस किया कि सभ्या की साँस तेज़ हो गई है।

"ध्यान से, माँ," कर्मा ने धीमी आवाज़ में कहा, उसकी आवाज़ में एक अनजान कशिश थी।

सभ्या ने बिना कुछ कहे थोड़ा आगे खिसक गईं, लेकिन कर्मा जानबूझकर अपनी जगह पर ही खड़ा रहा, उनकी नज़दीकी को बनाए रखा। रसोई में चाय की मीठी खुशबू और दोनों की दबी हुई उत्तेजना घुलमिल रही थी।

बाद में, सभ्या आंगन में कपड़े सुखा रही थीं। कर्मा भी वहाँ आ गया। हवा चल रही थी और सभ्या की साड़ी का पल्लू उड़कर कर्मा के चेहरे से टकरा गया। जिससे सभ्या के ब्लाउज़ के उभार गोरा मांसल पेट और गहरी नाभी कर्मा के सामने आ गई, कर्मा एक पल के लिए रुक गया, उस दृश्य को महसूस करते हुए उसकी आँखें टकटकी लगा कर सभ्या कि छाती और पेट पर ही रुक गईं सभ्या की नज़र भी उस पल कर्मा पर पड़ी तो अपने बेटे को अपनी ओर यूं देखता हुआ पाया उसे थोड़ा अजीब लगा सभ्या ने जल्दी से अपना पल्लू खींचा और कर्मा की ओर देखा, उनकी आँखों में थोड़ी घबराहट थी।

"हवा चल रही है," सभ्या ने जल्दी से कहा और अपना काम करने लगीं।

कर्मा ने कोई जवाब नहीं दिया, बस उन्हें देखता रहा। उसके मन में शरारती मुस्कान और गहरी होती जा रही थी। उसे लग रहा था कि उसकी योजना काम कर रही है। ये छोटे-छोटे 'संयोग' सभ्या के अंदर भी कुछ जगा रहे थे, एक दबी हुई उत्तेजना जो धीरे-धीरे सतह पर आ रही थी।

दिन प्रतिदिन कर्मा लगातार ऐसे 'संयोग' बनाता रहता जिससे सभ्या के साथ उसकी नज़दीकी बनी रहे। कभी वह उनके पास बैठकर बातें करता, कभी उनके काम में मदद करता, और हर बार 'अनजाने' में उन्हें छू जाता। हर स्पर्श, हर नज़दीकी सभ्या के अंदर एक नई सिहरन पैदा कर रही थी। उन्हें लग रहा था कि ये सब अपने आप हो रहा है, मौसम की गर्मी है या काम की थकान, लेकिन हकीकत में ये सब कर्मा की सोची-समझी चाल थी, उनकी दबी हुई उत्तेजना को भड़काने के लिए।

धीरे धीरे सभ्या के चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी छा गई थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनके साथ क्या हो रहा है। कर्मा का हर स्पर्श उन्हें अंदर तक झकझोर रहा था, उनके शरीर में एक अनजान गर्मी महसूस हो रही थी। उनके अंदर एक द्वंद्व चल रहा था - एक माँ का प्यार और एक दबी हुई स्त्री की उत्तेजना के बीच।

कर्मा अपनी माँ को देखता था और जानता था कि वो क्या सोच रहीं है, उसके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान थी। उसे पता था कि उसने बीज बो दिए हैं, अब बस उनके अंकुरित होने का इंतजार था।
 
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