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Ye Bhaiya Ji jasoosi karne nikal jate hai lagta hai,khud hi gayab ho jate hai
sahi pakde hai ...
Ye Bhaiya Ji jasoosi karne nikal jate hai lagta hai,khud hi gayab ho jate hai
mujhe dejabu ho raha hai ya ye update dubara post kiya gaya haiभाग ४३)
“क्या... क्या कहा तुमने??”
शंकर एकदम से हड़बड़ा गया.
खाना खाते खाते एकदम से रुक गया और आश्चर्य से आँखें बड़ी बड़ी कर मेरी ओर देखने लगा.
रविवार का दिन है और आज हम दोनों लज़ीज़ नाम के एक बार - कम – रेस्टोरेंट में बैठे खाना खा रहे हैं.
शंकर अपने पुराने काम का रिपोर्ट दे रहा था .... कि तभी मैंने टोकते हुए उसे ऐसी बात बताई की उसका खाना कुछ सेकंड्स के लिए गले में ही अटका रह गया.
ग्लास में से पानी गटक के दुबारा पूछा,
“क्या कह रहे हो तुम...?”
मैं बिल्कुल शांतचित सा बैठा, एक बड़े चम्मच से बिरयानी अपने मुँह में डालते हुए बोला,
“वही जो तुमने अभी अभी सुना.”
“तुम वहाँ जाना चाहते हो..?”
“हाँ..”
“पर क्यों?”
“देखना चाहता हूँ... ख़ुद.”
“मुझ पर भरोसा नहीं?”
“है.. पर अपनी आँखों देखी से तसल्ली होने में एक अलग बात है.”
“पर... एक्साक्ट्ली क्या देखना चाहते हो?”
“देखना उन्ही सामानों को चाहता हूँ जिनके बारे में तुम बता रहे थे उस दिन.”
“कोई विशेष कारण?”
इतनी देर में मेरे दिमाग में आज से कुछ समय पहले उस पुराने बिल्डिंग में मेरे ही द्वारा देखे गए उन पेटियों में बंद हथियार और ड्रग्स के सामान वाला सीन चलने लगा था.
दोनों जगह .. दो अलग जगह ... में मौजूद हथियार और ड्रग्स का आपस में कोई लिंक है भी या नहीं; इस बात को जाने बिना मैं शंकर को फ़िलहाल ज़्यादा कुछ बताने के मूड में नहीं था.
इसलिए जवाब कुछ वैसा ही दिया,
“कारण तो उन सामानों को देखने के बाद ही बता पाऊँगा और रही बात विशेष की... तो ये भी उन सामानों पर निर्भर करता है.”
मेरे इस तरह गोल मोल जवाब देने से शंकर समझ गया कि मैं तुरंत कुछ कहना सुनना नहीं चाहता. अतः वो भी चुपचाप मेरे साथ ही खाने लगा.
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रात डेढ़ बजे हम दोनों मिले.. मनोरम पार्क के कुछ पहले.
शंकर के साथ उसके दो आदमी भी थे.
उन दोनों को शंकर ने अलग अलग जगह तैनात होने का निर्देश दिया और फ़िर मुझे साथ लेकर उस तरफ़ चल दिया जहाँ उस रद्दी वाले की दुकान है.
ताला खोलना शंकर के बाएँ हाथ का काम लगा. दो ही सेकंड में ताला और दरवाज़ा दोनों खुला.
दोनों साथ ही भीतर दाख़िल हुए.
घुप्प अँधेरा छाया हुआ है ... हाथ को हाथ नहीं सूझता...
हम दोनों ने अपना अपना पॉकेट टॉर्च निकाला और बड़ी सावधानी से अंदर चलते चले गए.
जल्द ही हम अंदर के एक कमरे में घुसे जहाँ अखबारों को एक के ऊपर एक रख कर करीब करीब ५ – ६ फ़ीट के आठ आदमकद बंडल बना कर रस्सियों से बाँध कर एक लाइन से आपस में सटा कर खड़ा कर के रखा गया है.
शंकर दो बंडलों को हटाने लगा... मैंने भी उसकी सहायता में हाथ लगाया..
उन खड़े बंडलों के हटते ही एक छोटा दरवाज़ा नज़र आया. ताला लगा था. शंकर ने फ़िर अपना कमाल दिखाया. ताला खोल कर अंदर घुसे.
शंकर ने स्विच बोर्ड दिखाया..
मैंने कुछ स्विच को ट्राई किया पर बत्ती जली नहीं.
अंततः हमें अपने टॉर्च पर ही भरोसा करना पड़ा.
टॉर्च की रोशनी जितनी दूर जा सकती है उतनी दूर तक देखने का प्रयास किया.
रूम बहुत बड़ा है ... और चारों तरफ़ पेटियाँ ही पेटियाँ.
शंकर ने तीन चार पेटियों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया.
उसी ने अपने पैंट के एक पॉकेट से चाकू निकाला और एक पेटी के बाजू से घुसा कर थोड़ा खोला .. दोनों की इकट्ठी टॉर्च की रोशनी में साफ़ नज़र आया की उसमें मशीन गन रखी हुई है.. एक नहीं.. पाँच!!
इसी तरह दो और पेटियाँ खोला हमने और पहले वाले पेटी की तरह ही बाकी दोनों में भी अत्याधुनिक हथियार रखे हुए थे.
फ़िर शंकर मुझे दूसरी तरफ़ ले गया ..
वहाँ रखे पेटियों को भी उसने उसी तरीके से खोला ... यहाँ इन पेटियों में छोटे छोटे पैकेट्स हैं जिनमें भूरे रंग के थोड़े थोड़े परिमाण में कोई पदार्थ भरा हुआ है.
मैंने शंकर को चार पेटियों को खोले रखने को कहा और हर पेटी में से चार से पाँच पैकेट निकाल कर बड़े ध्यान से देखता और नाक के क़रीब ला कर सूँघता.. फ़िर उन पैकेट्स को पेटियों में रख कर पेटियों को पूर्ववत बंद कर दिया.
शंकर को ले कर मैं उसी दिशा में आखिर के पेटियों के पास पहुँचा और उन्हीं में से चार पेटियों को खोल कर पैकेट्स निकाल कर गौर से देखा और सूंघा...
यही काम मैंने बीच के पेटियों में भरे पैकेट्स के साथ भी किया.
शंकर को पूछने को हुआ पर मैंने इशारे से उसे पहले बाहर चलने को बोला ...
उस कमरे से बाहर निकल कर दरवाज़े पर ताला लगाया..
अखबारों के उन बंडल को पूर्ववत अपने स्थान पर रखा.
फ़िर उस कमरे से निकल कर हम सधे क़दमों से बाहर के कमरे में पहुंचे .. उस कमरे के चारों ओर टॉर्च की रोशनी से अच्छे से देखा. साधारण कमरा था.. और थोड़ी गंदगी भी थी.
बगल में ही एक मध्यम आकार का पाँच दराजों वाला टेबल था .. जिसमें दो दराज खुले पड़े थे.. अंदर कुछ नहीं था.
बाकी के तीन दराज लॉक्ड थे.
दोनों बाहर निकले.
मेन दरवाज़े पर ताला लगाया शंकर ने.
मेरी ओर मुड़ा.. कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उसके शर्ट के अंदर के पॉकेट में कोई चीज़ एक धीमी बीप की आवाज़ के साथ जल उठी. हम दोनों ही हड़बड़ा गए. शंकर ने अंदर हाथ डाल कर बाहर निकाला तो देखा कि वह एक छोटा सा गोल आकार का कोई खिलौना है. मेरे चेहरे पर थोड़ा झुँझलाहट उभर आया पर साथ ही एक मुस्कान भी.
“खिलौना रखने लगे?” व्यंग्य करता हुआ बोला.
पर देखा की शंकर बड़े आश्चर्य से उस खिलौने को देखता हुआ अपने पीछे के रोड की ओर देख रहा है.
“क्या हुआ?”
मैंने बड़ी तत्परता से उससे पूछा.
“सुनो, जल्दी कहीं छुप जाते हैं.”
शंकर गजब के तरीके से हड़बड़ा कर बोला.
मेरे कुछ पूछने या सोचने से पहले ही वो मुझे दुकान के चंद कदमों की दूरी पर मौजूद झाड़ियों के पीछे ले गया.
“हुआ क्या?”
काफ़ी सशंकित लहजे में पूछा मैं. घबराहट भी होने लगी थोड़ी बहुत.
झाड़ियों के पीछे छुपते हुए शंकर बोला,
“कोई इसी ओर आ रहा है.”
“तो?”
“खतरा है.”
“किससे? ज़रूरी थोड़े है कि जो कोई भी इस ओर आ रहा है; वो हमारे जान पहचान का होगा या फ़िर...”
“या फ़िर..?”
“या फ़िर ‘हमारी ही’ ओर आ रहा है?”
“वो पता नहीं.. पर रिस्क कौन ले?”
“हूं.”
शंकर की इस बात में दम है.. मैंने भी फिलहाल के लिए शांत रहना उचित समझा.
हालाँकि मेरा दिल इस बात का ज़ोर ज़ोर से चेतावनी देने लगा था कि आने वाला हो न हो, ज़रूर उस दुकान से वास्ता रखने वाला ही कोई हो सकता है.
अगले दो मिनट में ही हम दोनों का आशंका सही सिद्ध हुआ.
तीन कार आ कर रुकी.
तीनों की तीनों काली फ़िएट... लंबी..
कुछ लोग उतरे ..
अँधेरे में किसी का भी चेहरा पहचान पाना बहुत मुश्किल था.
दो आदमी सीधे दुकान की ओर गए.. दरवाज़ा खोला और अंदर घुस गए.
मैं और शंकर दोनों ही दम साधे चुप उन झाड़ियों के पीछे खुद को छुपाए बैठे तो हैं पर मच्छरों के आक्रमण और उनके डंक से खुद को संभाल या बचाए रख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था.
कुछ ही देर में दुकान के अंदर गए दोनों आदमी बाहर निकले.
उनमें से एक आदमी बीच वाले कार के पिछले दरवाज़े के खिड़की के पास थोड़ा झुककर बोला,
“अंदर सब माल चौकस है...........”
यहीं पर मुझे कुछ ऐसा सुनाई दिया जिससे की मेरा माथा ठनका.
‘अंदर सब माल चौकस है.....’ इतने से वाक्य के अंत में उस आदमी ने कुछ ऐसा कहा जिससे की मेरे कान खड़े हो गए. अंतिम उस शब्द ने मुझे हैरत में डाल दिया पर तुरंत ही मैंने इसे अपना भ्रम माना और ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया.
इसी बीच मैंने शंकर की ओर देखा..
वो मेरी ओर एक नज़र देख कर दुबारा उस तरफ़ देखने लगा.
मेरी ही तरह वो काफ़ी चौकन्ना था.
उस पर से मैं नज़रें हटाने ही वाला था कि अचानक से मेरा ध्यान शंकर के दाएँ हाथ की तरफ़ गई... और इसी के साथ ही मानो मेरे पूरे शरीर में करंट सा दौड़ गया. आँखें आश्चर्य से बाहर निकलने को हो आईं.
हो भी क्यों न ...
शंकर के दाएँ हाथ में एक रिवाल्वर थी!
रेडी टू बी फायर अपॉन!!
रिवाल्वर मेरे लिए कोई नई बात बिल्कुल नहीं थी पर ये मैंने उम्मीद ही नहीं किया था की शंकर आज अपने साथ कोई रिवाल्वर ले आएगा. सच कहूं तो अपने साथ किसी तरह का कोई हथियार लाने का विचार तो मेरे दिमाग में आया ही नहीं था. वो तो बस आदतनुसार हमेशा की तरह एक पॉकेट नाइफ ही है आज मेरे पास.
और एक पॉकेट टॉर्च!
“पर इतना तो तय है कि मुखबीर हमारे गैंग में से ही कोई है.”
इस आवाज़ पर मेरा ध्यान फ़िर उन लोगों की ओर गया.
वे लोग आपस में ही बातें कर रहे थे....
“पर अंदर माल तो चौकस है जी...”
“हाँ .. है... पर अभी के लिए..”
“तो क्या किया जाए.. आपका क्या आदेश है... और पीछे उसका क्या करना है?”
“उसे बाहर निकालो और यहाँ मेरे सामने ले आओ.”
बीच वाले कार में बैठे शख्स ने बाहर खिड़की के सामने खड़े आदमी को आदेश दिया जिसका उसने और उसके दो और साथियों ने बड़ी मुस्तैदी से पालन किया.
पीछे वाले कार का पिछला दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर से एक आदमी को लगभग खींचते – घसीटते हुए निकाला गया.
और बीच वाले कार के पिछले दरवाज़े के ठीक सामने चंद क़दमों के फासले पर ला कर उसके टांगो पर लात मार कर उसे घुटने के बल बैठाया.
“लाइट्स !”
दूसरा आदेश आया...
इसका भी फ़ौरन पालन हुआ.
तीन आदमियों ने तीन टॉर्च... शायद बड़ी वाली टॉर्च होगी... ज़्यादा पॉवर वाली.. उस बैठे हुए आदमी के चेहरे पर फोकस करके जलाया.. आदमी की आँखें चौंधिया गई.
वहाँ से दूर बैठे शंकर और मुझे अब कुछ स्पष्ट दिखने लगा.
उस आदमी के दोनों हाथ पीछे की ओर बंधे हुए थे और मुँह में एक कपड़ा ठूँस कर ऊपर से एक और कपड़ा बाँध दिया गया था जिससे वो लाख़ चाह कर भी चीख न सके.
उस बीच वाले कार का पिछला दरवाज़ा खुला...
एक शख्स बाहर निकला..
सधे कदमों से चलता हुआ उस आदमी के कुछ निकट पहुँचा ..
टॉर्च की रोशनी में भी उस आदमी का चेहरा डर से थर्राया हुआ था.. पूरा बदन काँप रहा था.. बोल न पाने की सूरत में बंधे मुँह से ही ‘घ... घं..’ करके कुछ बोल पाने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था.
“इतना जो डर रहे हो... ये डर उस समय लगना चाहिए था जब तुम हमारे खिलाफ़ मुखबिरी के लिए तैयार हुए थे...”
इतना कहने के साथ ही सामने खड़े उस शख्स ने अपना हाथ उस आदमी की ओर सीधा किया ... टॉर्च की रोशनी में हाथ में थामा हुआ रिवाल्वर चमक सा उठा..
नाल की सीध उस आदमी के आँखों के ठीक बीचों बीच थी..
एक हल्की आवाज़ हुई...
“च्यूम!!!”
और इसी के साथ वह वहीँ धराशायी हो गया....
वो शख्स मुड़ा और जा कर कार में बैठ गया.
“अब इस बॉडी का क्या करना है?”
“करना क्या है.. ले जा कर उसी ठिकाने में जा कर फेंक आओ जहाँ यह सुबह शाम पैग पे पैग लगाता है.”
“जी, ठीक है.”
“चलो .. जल्दी करो... अब जल्दी निकलो सब यहाँ से..”
उस मरे हुए को पीछे के कार में लाद दिया गया ...
पहली वाली और बीच वाली कार एक साथ स्टार्ट हो कर बैक हो कर एक ओर निकल गई और तीसरी कार दूसरी ओर घूम कर चली गई.
उन लोगों के चले जाने के काफ़ी देर बाद हम दोनों को ख़ुद के वहाँ होने का एकाएक अहसास हुआ.
“ठीक हो?” शंकर ने पूछा...
“हाँ.. तुम?”
“हम्म.. मैं भी..चलो निकल चलते हैं यहाँ से.”
“हाँ .. जल्दी चलो.”
शंकर ने अपने शर्ट के अंदर हाथ डाल कर वही खिलौना नुमा चीज़ निकाला और ख़ास तरीके से तीन बार दबाया... इस बार आवाज़ नहीं हुआ पर वह हल्की नीली और हरी रोशनी से जल उठा.
थोड़ी ही देर... अंदाजन दस – बारह मिनट में एक एम्बेसडर आ कर दुकान के सामने रुकी.
फ़ौरन शंकर के हाथ में मौजूद वह खिलौना तीन बार धीमी ‘बीप’ के आवाज़ के साथ जल उठी.
शंकर ने मुझे चलने का इशारा किया.
दोनों झाड़ियों से निकले और एम्बेसडर की ओर बढ़ गए.
हमारे बैठते ही एम्बेसडर एक ओर चल दिया.
शंकर और मैं पीछे बैठे थे. गाड़ी शंकर का ही आदमी चला रहा था और ड्राइविंग सीट के बगल में ही शंकर का दूसरा आदमी बैठा था.
खिड़की से बाहर देखते हुए मैं रह रह के बार बार उस बीच वाले कार में बैठे शख्स और उसकी आवाज़ के बारे में सोच रहा था. बल्कि सच कहूं तो सोचने के लिए विवश हुआ जा रहा था. ऐसा होने का कारण फिलहाल मेरे लिए थोड़ा अस्पष्ट है. तह तक पहुँचने में समय लगेगा.
मैंने सिर दायीं ओर घूमा कर शंकर को देखा.
वह भी मेरी ही तरह खिड़की से बाहर देख रहा था.
साथ ही किसी चिंता में था.
उन लोगों के जाने के बाद से ही शंकर तनिक विचलित सा उठा था. चिंतित था. ऐसा लग रहा था मानो वो दिमाग पर ज़ोर दे कर कुछ सोच या समझ पाने का भरपूर प्रयास कर रहा हो.
मैंने भी उसे कह तो दिया था कि मैं ठीक हूँ पर सच कहूं तो पहली बार सामने से किसी का खून होते देख कर मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए थे.
आसमान बादलों से भर जाने के कारण तारे अब दिखाई नहीं दे रहे थे.
तेज़ हवा भी चलने लगी थी अब तक.
खिड़की पर अपना हाथ रख कर ठोढ़ी रखते हुए आँखें बंद कर लिया मैंने.
अब इतना तो तय था की आने वाले दिनों में बहुत कुछ होने वाला है.....
मेरा खुद का जीवन भी अब एक नई करवट लेगा और इसका ज़िम्मेवार भी मैं ही होऊँगा.
क्रमशः
********************
ye bhi purani haiभाग ४४)
सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही चाची की नींद खुली.
खिड़की से आती सुनहरी धूप का कुछ हिस्सा बिस्तर के थोड़े से भाग के साथ साथ उनके चेहरे पर भी आ रही थी.
पहले तो हाथ उठा कर अपने आँखों पर रख कुछ और देर सोयी रही ... फ़िर जब मन नहीं माना तो उठने का निर्णय कर ही ली.
अंगड़ाईयाँ लेते हुए करवट बदली ...
इसी के साथ उनकी नज़र पड़ी उनके ठीक बगल में लेटा, दुनिया जहाँ से बेख़बर बेसुध सा सोता अभय यानि मुझ पर..!
चेहरा उन्हीं की ओर कर पेट के बल लेटा हुआ था ..
निश्चित ही उन्हें उस समय मेरा चेहरा बहुत भाया होगा.. तभी तो बरबस ही अपना एक हाथ मेरे बाएँ गाल पर रख कर सहला दी...
बहुत देर तक मुझे देखते हुए मंद मंद मुस्कराता उनका चेहरा इस बात की तस्दीक कर रहा था कि निश्चय ही उनके मन में प्यार की उमंगें नई तारतम्यता के साथ अंदर ही अंदर नए नए हिल्लोरें मारे जा रहा है.
एकाएक ही उन्हें एक बात का अहसास हुआ.
और वो यह कि,
वह समय मेरे साथ पलंग पर बिल्कुल नंगी हैं..!!
मैं भी....
पूर्ण निर्वस्त्र....
हमारे कपड़े पलंग पर तो क्या... कदाचित उस कमरे में ही नहीं होंगे..!
अपनी नग्नता का अनुभव होते ही चाची स्वयं को ढकने के लिए आस पास चादर ढूँढने लगी.
चादर मेरे शरीर के नीचे ही दबा पड़ा था.
खींच कर अपने तरफ़ करने की व्यर्थ प्रयास जब उनकी सफ़ल न हुई तब चादर के थोड़े से हिस्से को इतना ही खींची की उस हिस्से से किसी तरह अपने जांघों के बीच शोभायमान यौनांग... अर्थात अपनी योनि के ऊपर किसी तरह रखते हुए ढक ली.
उसके बाद फ़िर थोड़ी देर तक मुझे देखती रही.
फ़िर,
खुद ही को घसीट कर मेरे और करीब आ गई.
अपना एक हाथ मेरे गाल पर रखी.. जब मेरी ओर से कोई हरकत नहीं हुई तो ... और भी बड़े ध्यान से देखी...
उनकी मुस्कराहट और भी बड़ी हो गई.
अपने हथेलियों के नर्म स्पर्शों से मेरे पीठ को सहलाने लगी और कंधे पर दो किस दे बैठी.
पीठ पर रेंगती हथेली को आहिस्ते से बिस्तर और मेरे कमर के बीच बन रहे थोड़े से गैप में घुसा दी और धीरे धीरे मेरे यौनांग की ओर अग्रसर होने लगी.
जब उनकी अँगुलियों के पोर मेरे ट्रिम किए झांटो के आस पास पहुँचे तब एक हल्की सी गुदगुदी हुई मुझे और मैंने तनिक इस तरह करवट लिया कि वो गैप और बड़ी हो गई.
चाची को और आसानी हुई ...
बड़े आराम से हथेली और आगे सरक गई.
और तभी,
उनकी आँखें आश्चर्य से बड़ी बड़ी हो गई.. चेहरे पर शर्मो ह्या की लालिमा छा गई.
सुबह सुबह किस मर्द का जननांग अपने बुलंदी के शिखर पर नहीं होता...
यही हुआ था मेरे साथ भी...
मैं भले ही थका हारा, दुनिया से बेख़बर... सुध बुध खोया सो रहा था... पर मेरा छोटा अभय तो कब का जाग गया था.
और जागा भी था तो इतना सख्ती से कि चाची की हथेली उसे अपने गिरफ़्त में लेते ही एक अलग सा रोमांच महसूस करने लगी.
छन छन से चूड़ियों को बजाते हुए उनकी हथेली मेरे छोटे अभय के सिर से लेकर नीचे तक ऊपर नीचे होने लगी.
थोड़े ही देर बाद,
स्पष्ट अनुभव किया की उनकी हथेली एक भिन्न व विशिष्ट तरीके से मेरे जननांग से खिलवाड़ कर रही है जोकि इस बात का द्योतक है.... की चाची अब पूर्णरूपेण रोमांचित हो चुकी हैं और निश्चित ही एकबार पुनः प्रेम युक्त वासना से परिपूर्ण संसर्ग हेतु स्वयं को तैयार कर चुकी हैं.
अब तक मैं भी पीठ के बल सीधा लेट चुका था ..
चाची खुद को अपने जगह से उठा कर मेरे से बिल्कुल सट कर लेट गई और साथ ही खुद को थोड़ा ऊपर उठाते हुए अपने बाएँ वक्ष को कुछ इस तरह मेरे मुँह पर रख दी जिससे की तनिक सख्त हो चुका उनका निप्पल सीधे मेरे होंठों के अंदर प्रविष्ट कर गया...
उनके हथेली का भी ऊपर नीचे होने की गति काफ़ी बढ़ चुकी है...
मेरे से और रहा नहीं गया ...
और अपने दोनों बाहें फैला कर उन्हें कस कर बाँहों में लेते हुए अपने चेहरे को उनकी दो सुडौल, पुष्ट स्तनों के मध्य दबा दिया;
ये सोचते हुए कि ..
किसी ने सत्य ही कहा है,
“औरत को ताज चाहिए न तख़्त....
सिर्फ़ एक लंड चाहिए सख्त!”
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उसी दिन... सुबह १० बजे के अखबार में मुखपृष्ट के एक कोने में छपी एक ख़बर पर मेरी नज़र टिक गई.
मनोरंजन सिनेमा हॉल के पीछे वाली गली में मौजूद एक शराब का ठेका जो विगत कई वर्षों से फल फूल रहा है, वहाँ उसके सामने परसों रात जो लाश मिली थी उसकी अब तक शिनाख्त नहीं हो पाई है.
सूत्रों के अनुसार,
‘ये हत्या शराब के नशे में की गई हो सकती है.. पैसे के लेन-देन या किसी तरह की कोई उधार चुकता न होने के कारण ऐसे मामले पिछले कई दिनों से बढ़ गए हैं. वैसे, संभावना ये भी जताई जा रही है कि मृत व्यक्ति कदाचित पुलिस की मुखबिरी के कारण मारा गया हो सकता है. पुलिस फ़िलहाल कुछ भी कहने से इंकार कर रही है और पूछे जाने पर सिर्फ़ इतना ही भरोसा दिया जा रहा है की अपराधी को जल्द से जल्द गिरफ्तार कर लिया जाएगा.’
इस ख़बर के ऊपर ही उस मृत व्यक्ति का फ़ोटो भी छपा था..
मैं फ़ोटो को गौर से देख कर उसे पहचानने की कोशिश करने लगा..
और,
इधर चाची रसोई घर से मुझे गौर से देख रही थी....
क्रमशः
***********************
mujhe dejabu ho raha hai ya ye update dubara post kiya gaya hai![]()
bahut hi badhiya dostभाग ४५)
अखबार को पढ़ने के कुछ देर बाद मैं घर से निकल कर ‘नशा’ बार में पहुँचा जहाँ शंकर के होने की बात थी.
बार में शंकर मुझे बियर पीटा हुआ मिला.
मेरे बैठते ही एक मेरे लिए भी मँगवाया...
कुछ देर बियर की चुस्कियों के बाद जब दिमाग थोड़ा स्थिर हुआ तो बात बढ़ाने का दायित्व मैंने ही लिया,
“कुछ पढ़ा – सुना तुमने?”
शंकर – “हाँ”
“क्या लगता है?”
“किस बारे में?”
“अख़बार में छपी ख़बर के बारे में... उस हत्या के बारे में”
मेरे इस प्रश्न के साथ ही शंकर का चेहरा थोड़ा बुझ सा गया, चेहरे पर ऐसे भाव आए मानो खुद को किसी बात के लिए दोषी ठहराने का उसका जी कर रहा हो.
थोड़ा दुखी स्वर में बोला,
“मैं उसे जानता था.”
मैं – “किसे? वह आदमी जिसकी हत्या हुई?”
“हाँ”
सुनते ही मैं चौंकते हुए पूछा,
“क्या कह रहे हो?”
शंकर ने पूर्ववत दुखी स्वर में कहा,
“सच कह रहा हूँ.”
“कैसे जानते थे उसे?”
“अपने ही कम के लिए मैंने उसे नियुक्त किया था.. जासूसी के लिए.”
“किसकी जासूसी?”
“इंस्पेक्टर दत्ता की.”
अब तक दिमाग में जो नशा छाना शुरू हुआ था... शंकर के इस एक उत्तर ने एक झटके में सब धुआं बना कर हवा में उड़ा दिया...
अबकी बार तो और भी बुरी तरह से चौंक गया और ऊँची आवाज़ में बोल पड़ा,
“क्या?? इंस्पेक्टर दत्ता की?!!”
शंकर – “अरे आराम से भाई... मरवाओगे क्या?”
मैं अपलक शंकर की ओर देखने लगा..
बियर का एक अच्छा सा घूँट लेते हुए शंकर ने सिर्फ़ सहमति में अपना सिर हिलाया.
मुझे तो अभी भी अपने कानों पर यकीं नहीं हो रहा था.. खुद को संयत करता हुआ हुआ बोला,
“थोड़ा ठीक से बताओ मामला क्या है?”
बियर के ग्लास को दाएँ तरफ़ थोड़ा परे रख कर एक सिगरेट सुलगाया शंकर ने;
फ़िर,
“मैंने उसे महीने भर पहले नियुक्त किया था.. शहर में हो रहे आपराधिक घटनाओं और उनमें संलिप्त अपराधियों का यूँ बच कर निकल जाना कहीं न कहीं मेरे दिमाग में यह संदेह बैठा रहे थे कि हो न हो इन घटनाओं के बारे में जानकारी पूर्व ही किसी दूसरे पार्टी को मिल जा रही है और वह पार्टी निश्चय ही एक खास पॉवर रखती जो ऐसी घटनाओं में संलिप्त लोगों को सुरक्षित बचा ले जाती है. तुम्हारे कहे अनुसार मैंने बहुत जाँच की.. ख़ोज की पर सफलता हाथ न लगी. तब मैंने अपनी ओर से एक चाल चलने की सोची.
जितने भी पुलसिये ख़बरी/मुखबीर थे; सबके बारे में पता लगाने के लिए अपने आदमी फ़िट कर दिया. परिणाम जल्द ही मंगरू के रूप में मिला, उसे पैसे की सख्त ज़रुरत थी और उससे भी बड़ी बात यह कि वो किसी समय इंस्पेक्टर विनय का ख़बरी हुआ करता था. विनय के अचानक गायब हो जाने के बाद से बहारे की कमाई पर प्रभाव पड़ा था . मैंने अपने आदमियों के द्वारा मंगरू से बात की.. हमारे साथ काम करने के लिए मनाया. वो राज़ी हुआ और लगा हमारे लिए काम करने .. पर .. सिर्फ़ दो महीने ही काम कर सका.. पर इन दो महीनों में उसने बहुत सारे कमाल की ख़बरें ला कर दी. उसे ने ये ख़बर भी दी थी की पुलिस महकमा हर संभव प्रयास करने के बाद जब इंस्पेक्टर विनय को खोजने में नाकाम रही तब यह निर्णय लिया जाने लगा था कि विनय के केस को बंद कर दिया जाए..
पर पुलिस कमिश्नर निरंजन बोस , एसीपी आदित्य तिवारी और ख़ुद इंस्पेक्टर दत्ता ने एक कोशिश और करने का सोचा है. इन तीनो का कहना है कि अंतिम बार एक वृहद् और गहन छानबीन पर शायद इंस्पेक्टर विनय का कुछ पता चल सकता है. ख़ुद मंगरू का मानना है कि इंस्पेक्टर विनय को किसी ने गायब नहीं किया है.. बल्कि वह ख़ुद गायब हुआ है. हालाँकि उसका ऐसा मानने का कोई पुख्ता कारण उसके पास भी नहीं था.
और भी कई ख़बर मिलने की उम्मीद थी उससे... पर.....”
चेहरे पर अफ़सोस वाले भाव लिए शंकर ने सिर हिलाया .. फ़िर पास रखे बोतल को उठा कर अपने और मेरे ग्लास में परोसा ... और फ़िर बियर और सिगरेट दोनों बारी बारी से पीने लगा...
मंगरू के इस तरह से मर जाने का अफ़सोस अब मुझे भी होने लगा..
अपने हिस्से का बियर पीते हुए बोला,
“ज़रूर उसके बारे में किसी ने ख़बर लीक कर दिया था.”
शंकर – “तुम्हें ऐसा लगता है?”
“बिल्कुल.. तुम्हीं सोचो.. उसके बारे में तो सिर्फ़ तुम और तुम्हारे आदमी जानते थे... और शायद पुलिस महकमे में इंस्पेक्टर विनय के अलावा १-२ पुलिस वाले जानते होंगे. वो भेदिया जो कोई भी है.. इन्हीं लोगों में से कोई एक होगा...”
कहते हुए अपना ग्लास खाली किया और तुरंत ही एक सिगरेट सुलगा कर धुआँ छोड़ता हुआ बोला,
“पर एक बात समझ में नहीं आई.”
“वो क्या?”
“जिन लोगों ने उस रात मंगरू की हत्या की... उस दुकान के सामने ला कर क्यों की...? .. वो तो उसे कहीं और भी मार सकते थे... तो फ़िर.......”
“उस दुकान.....की ख़बर मंगरू ने ही दी थी.”
मेरी बात को बीच में काटते हुए शंकर बोला.
सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ मुझे.. क्योंकि अब तक मुझे थोड़ा थोड़ा अंदाज़ा हो गया था..
थोड़ा रुक कर बोला,
“ओह.. तभी उन में से दो आदमी उस दुकान में जाकर कुछ चेक किया और आ कर कहा की सब ठीक है... अगर कुछ ठीक नहीं होता या गायब होता तो वे लोग मंगरू से वहीँ सब कुछ उगलवाने की कोशिश करते .”
“हम्म.. ऐसा ही होता शायद. और वो दुकान तो नहीं.. गोदाम बोलना ही बेहतर है.”
“हाँ .. सही कहा तुमने.. अच्छा एक बात बताओ.. कोई भी गुप्त ख़बर देना जब देना होता था तो तुम्हें कैसे देता था..?”
“कौन...? मंगरू??”
“हाँ..”
“मैंने ख़ुद उसे एक बिल्डिंग के बारे में बताया था .. वह बिल्डिंग मेरे ही एक दोस्त का है जो अब यहाँ नहीं रहता.. वो बिल्डिंग.. जोकि एक घर है.. उसमें जाने के लिए एक बड़ा सा लोहे का गेट के अंदर से होकर घुसना पड़ता है.. घुसने के बाद घर तक जाने के लिए थोड़ी दूर चलना पड़ता है.. उससे पहले गेट से अंदर की ओर दस कदम चलने पर दाएँ साइड पेड़ - पौधों के झुरमुठ में एक लैटर बॉक्स / मेल बॉक्स है जो लकड़ी के तीन मोटे डालों के सहारे एक छोटा घर नुमा आकार में टिका हुआ है... ये मेल बॉक्स हमेशा एक स्पेशल ताले से बंद रहता है और खुलता भी है तो स्पेशल चाबी से ही.. ये स्पेशल ताला और चाबी मैंने खुद ही बनाया था... बॉक्स स्टील का है और चिट्ठी डालने के लिए ऊपरी हिस्से में एक पतला सा गैप है. मंगरू के लिए मेरा निर्देश यही था कि उसे जब भी कोई विशेष या कोई गुप्त बात बतानी हो तो एक कागज़ में लिख कर उसी मेल बॉक्स में डाल डाल दे. सप्ताह के सातों दिन मैं ख़ुद वहाँ जा कर उस मेल बॉक्स को चेक करता था. बहुत बार उसमें से मंगरू के लिखे कई कागज़ मिले जिनमें अक्सर दूसरे कई और चिट्ठीयों के अलावा मंगरू के भी लिखे कागज़ होते थे..”
“हम्म.. तो .. उस दुकान .. या गोदाम.. जो भी कहो... उसके बारे में मंगरू ने तुम्हें तुम्हारे इसी बताए तरीके से ख़बर दिया था?”
“हाँ.. पहले तो उसकी इस ख़बर में मुझे कुछ झोल लगा था.. इसलिए मैंने अपने आदमी भेजा और इसको अपने सामने उपस्थित किया.. फ़िर आराम से पूछा.. उसने मुझे बताया की उसे शक है कि एक दुकान में कुछ बहुत ही गलत काम हो रहा है.. क्या गलत काम हो रहा है ...यह वो बता न पाया.. लेकिन अपने शक पर उसे इस कदर भरोसा था कि यहाँ तक कह दिया था की अगर वहाँ कुछ न मिले तो मैं चाहूँ तो उसे फ़ौरन मरवा दूँ.. और देखो.. मिलने को तो बहुत कुछ मिला पर फ़िर भी वो मारा गया.”
निराशा के भाव एक बार फ़िर उसके चेहरे पर दिखाई देने लगे.
“लगता है तुम्हारा ख़ास आदमी बन गया था वह..”
“ख़ास का तो पता नहीं.. पर ऐसे आदमी.. इतने काम के आदमी हमेशा मिला नहीं करते.”
“मंगरू ने कुछ बताया था तुम्हें... की उसे उस दुकान पर कैसे शक हुआ था...?”
“हाँ.. मैंने भी यही पूछा था.. तो उसने बताया था की पिछले २-३ महीने से कुछेक इलाकों के घरों पर उसे अनायास ही संदेह हुआ था.. उसका मानना था की इन घरों में कुछ ऐसा था जिसका सम्बन्ध उस दुकान से था ...और वो भी गैर कानूनी रूप से. इससे ज़्यादा कुछ न बोला वो.”
“तुम्हें चेहरे से पहचानता था वो?”
“नहीं... मैं जल्द अपने किसी भी आदमी के सामने ऐसे ही नहीं आता.. सिर्फ़ दो ने ही मुझे देखा है और काफ़ी भरोसे के हैं.. मंगरू से मैं हमेशा अँधेरे की ओट में बात करता... चाहे कुछ भी हो जाए.. अपने चेहरे पर रोशनी नहीं पड़ने देता और आवाज़ भी बदल कर बात करता...”
“हम्म.. ठीक है..”
“अभय.. अब तुम एक बात बताओ.. आख़िर क्या बात है की तुम उस रात उस दुकान... सॉरी.. गोदाम में .. एक एक कर कई साड़ी पेटियों को खोल खोल कर देख रहे थे... और कुछ पेटियों में से तुमने पैकेट्स निकाल कर सूंघा भी था... क्यों?”
“हाहा.. क्यों.. तुम्हें नहीं सूझी उन पैकेट्स को सूँघने की?”
“सूझी थी.. पर ज़रूरी नहीं समझा..”
“अगर सूँघते तब पता लगता..”
“ठीक है.. अब तुम्हीं बता दो.”
“शुरू के और अंत के पेटियों में जो पैकेट्स थे उनमें वाकई ड्रग्स थे और असली थे... पर बीच के पेटियों में........”
“बीच के पेटियों में??”
“बीच के पेटियों में जो पैकेट्स थे वो ड्रग्स के नहीं थे.. ड्रग्स जैसे दिखने में ज़रूर थे ... मगर ड्रग्स नहीं थे...”
“व्हाट?!!” अविश्वास से शंकर की आँखें चौड़ी हो गईं.. कुछ इस तरह से चौंका था वो कि कुछ पलों के लिए उसे ये समझ ही नहीं आया की अब आगे क्या बोले..
मैंने बात जारी रखा,
“इतना ही नहीं.. वहाँ कई पेटियाँ ऐसी भी थीं जिनमें अत्याधुनिक हथियार रखे हुए थे.. राईट?”
“हाँ..”
“वेल,... कुछ पेटियों में नकली ड्रग्स की तरह ही नकली हथियार रखे हुए थे..”
मेरी इस बात को सुन कर शंकर मेरी ओर एकटक देखता रहा.. शायद वो अपने हिसाब से ड्रग्स और हथियारों के नकली होने के गणित को सुलझाने लगा होगा या फ़िर नकली ड्रग्स वाली बात के जैसा ही नकली हथियारों के बारे में सुन कर उसे दोबारा अपने कानों पर विश्वास न हो रहा हो..
किसी तरह उसके मुँह से निकला,
“इन सबका मतलब क्या हुआ?”
“मतलब यही हुआ की कोई इन नकली सामानों के साथ असली सामानों की अदला बदली करना चाहता है.. ऐसा मेरा अंदाज़ा है...”
“सच बताओ.. ऐसा तुम्हारा अंदाज़ा है या तुम कुछ जानते हो इस मामले में और मुझे बताना नहीं चाहते.. ? क्योंकि जब से तुम्हारे साथ हूँ... आज तक तो तुम्हारा कोई अंदाज़ा गलत नहीं हुआ.”
“ऊपरवाले की दया है.”
“चलो ड्रग्स का तो मान लिया की वो नकली थे.. लेकिन.. ये तुम कैसे कह सकते हो कि हथियार भी नकली थे..?”
“बैरल से ..”
“ओह... ह्म्म्म”
फ़िर जैसे अचानक से शंकर को कुछ याद आया; तपाक से बोला,
“अरे.. देखो... एक और खास बात तो मैं तुम्हें बताने ही भूल गया था...”
“ठीक है.. अब याद आ गया है तो बोल दो.”
“मुझे अपने एक और काबिल ख़बरी से पता चला है की इस शहर में अवैध हथियारों का धंधा कोई अगर कर सकता है तो वो है डिकोस्टा .. हालाँकि और भी कई ऐसे हैं जो ये धंधा यहाँ कर सकते हैं पर डिकोस्टा के जैसा नहीं.”
डिकोस्टा!
ये नाम मेरे कानों में पड़ते ही मेरे शरीर में जैसे करंट सा लगा..
तुरंत ही याद आ गया की ये नाम मैंने उस दिन उस टूटे से मकान के ऊपरी तल्ले पर वहाँ मौजूद कुछ लोगों के मुँह से सुना था..
अनभिज्ञ बनता हुआ बोला,
“अब भई.. ये डिकोस्टा कौन है?”
“क्राइम की दुनिया में एक उभरता और चमकता नाम है.. नाम क्या सितारा बोलो सितारा... ऐसे ऐसे कारनामों को अंजाम दिया है इसने की क्या बताऊँ... इस देश के लगभग आधे से ज़्यादा शहरों में इसके ठिकाने हैं और उतने ही पुलिस थानों में इसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज है. तुमने कभी सुना नहीं इसके बारे में ? ... कमाल है.”
“सुना हूँ... पर कभी ज़्यादा जानने को न अवसर मिला और न दिल किया.”
“हम्म.. ओके.. एक खास बात और है..”
“वो क्या?”
“उसके क्राइम और फाइनेंस .... साथ ही जीवन से जुड़ी कई बातें एक फ़ाइल में कलमबद्ध है और हमारे ही शहर के इसी पुलिस थाने में रखा हुआ है. अगर वो किसी को मिल जाए तो समझो एक तरह से डिकोस्टा का कच्चा चिट्ठा हाथ लग गया.”
मैंने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया. सिर्फ़ उसकी बातों को सुनता रहा.
थोड़ी देर बाद शंकर उठता हुआ बोला,
“अच्छा.. चलता हूँ.. कोई और ख़िदमत हो तो याद करना.”
“हाँ.. ठीक है...”
“घर में सब कैसे हैं...?”
“ठीक ही हैं... चाचा तो दो हफ्ते के लिए बाहर गए हुए हैं... घर पर मैं और चाची ही हैं बस.”
चाची की बात करते ही मुझे पिछले तीन चार दिनों से मेरा उनके साथ लगातार हो रहे संसर्ग याद आ गए..
“ओके.. अच्छे से रहना... निकलता हूँ अब.”
“हम्म.. ओके. टेक केयर.”
शंकर के जाने के बीस मिनट बाद मैं भी वहाँ से निकल कर सीधे घर पहुँचा.
और वहाँ से बगल में ही स्थित अपने इंस्टिट्यूट में गया.
वहाँ मेरे एक स्टाफ़ ने बताया कि किसी मोना नाम की लड़की का पिछले आधे घंटे में तीन बार फ़ोन आ चुका है और कहा है की मैं इंस्टिट्यूट आते ही उसे फ़ोन करूँ.
मैंने तुरंत मोना को फ़ोन लगाया.. उसने कहा की कुछ ज़रूरी बात करनी है इसलिए मैं फ़ौरन इंस्टिट्यूट से निकलूँ और हम लोगों के पसंदीदा कैफ़े में पहुँचू जल्द से जल्द..
उठ कर निकलने ही वाला था कि फ़ोन फ़िर घनघना उठा..
रिसीवर उठाया.. गोविंद था दूसरी ओर.
उसे भी कुछ इम्पोर्टेन्ट बात करनी है .. कहा की मिलना ज़रूरी है..
मैंने उसे उसी कैफ़े का नाम और एड्रेस दिया और जल्द पहुँचने को बोल कर वहाँ से निकल गया.
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कैफ़े में बने एक अलग केबिन में मैं कॉफ़ी और सिगरेट लिए था और मोना एक कोल्डड्रिंक बोतल लिए बैठे थी..
५ मिनट पहले ही मैंने उसे कबाड़ीवाले, रद्दी कागज़, अख़बार और उस रात घटी घटनाओं के बारे में सब खुल कर बताया ... पर नकली ड्रग्स और हथियार के बारे में कुछ नहीं बताया.
अगले कुछ मिनटों तक वो कोल्ड ड्रिंक पीती रही और मैं भी धुआँ उड़ाता रहा.
फ़िर एकाएक पूछी,
“तुम्हें क्या सच में ऐसा लगता है कि तुम उस आवाज़ को पहचानते हो?”
“हाँ .. बिल्कुल.”
“कैसे भला..”
“क्योंकि उस आवाज़ को मैं हमेशा ही सुनता रहता हूँ.”
ये वाक्य बोलते बोलते मैं एकदम से सीरियस हो गया.. आँखें और और भवें सिकुड़ कर ऐसे हो गए जैसे कुछ सोच रहा हूँ और जो कुछ भी मैं सोच रहा हूँ ; उसपे मेरा पूरा भरोसा है.
मेरे इस तरह के गोल मोल बातों से मोना थोड़ा खीझ उठी,
“ओफ़्फ़ो... अरे साफ़ साफ़ बोलो न की अगर तुम उसे जानते या पहचानते हो तो आखिर वो है कौन?”
“दीप्ति!”
“अं..? क..कौन....?”
“दीप्ति..”
“कौन दीप्ति...”
मैं धीरे से मुस्कराया... मोना की ओर देखा और धीरे से ही पूछा,
“तुम नहीं जानती??”
मोना मेरी ओर विस्मय से अपलक देखती रही.. मुँह खुला ही रह गया.. पलकें झपकाना जैसे भूल ही गई..
बड़ी मुश्किल से उसके गले से आवाज़ निकली,
“स.. सच....?”
“हाँ.. सच...”
“कोई मजाक तो नहीं ना?”
“बिल्कुल नहीं.”
“ओह माई गॉड!! ... आई कैन नॉट बिलीव दिस..!!”
खुद को कुर्सी पर फैला कर पसरते हुए बोला,
”या.. मी टू.”
“आर यू श्योर??!!!... व ... वो .... नहीं नहीं... तुमसे कोई बहुत बड़ी गलती हो रही है.. ये वो नहीं हो सकती यार..”
“विश्वास करना बहुत ही कठिन है ये मैं जानता हूँ.. पर जो सच है उसे मैं बदल तो नहीं सकता न...”
मोना अपने सिर पर हाथ रख टेबल से कोहनी टिका कर बैठ गई..
अविश्वास और आश्चर्य से उसकी आँखें अभी भी बाहर की ओर निकली जा रही थीं.
तभी गोविंद केबिन में घुसा.
मैंने पहले ही काउंटर/रिसेप्शन में बोल रखा था की अगर कोई मुझे यानि अभय को खोजता हुआ आए तो उसे प्लीज़ मेरे केबिन में भेज दे.
गोविंद के साथ ही उस कैफ़े में काम करने वाला एक लड़का भी आया था.. इस बात को जाँच लेने की ये मुझे ही ढूँढ रहा था.
मेरे सिर हिला का सहमति देते ही वह लड़का वहाँ से चला गया.
गोविंद मेरे सामने की एक कुर्सी पर बैठ गया ... बैठते हुए आश्चर्य से मोना की ओर देखा और फ़िर मेरी ओर.
“मेरी पहचान की है..तुम बोलो.. क्यों मिलना चाह रहे थे.?”
“अम्म... कुछ.. कहना है.. “
“क्या कहना है..?”
गोविंद मोना की ओर देखा.. मानो समझ नहीं पा रहा हो कि इसके सामने कहना ठीक होगा या नहीं..
“कोई दिक्कत नहीं.. तुम इसके सामने बेहिचक सब कुछ कह सकते हो.”
मेरे इतना कहते ही गोविंद; बन्दूक की नली से निकली गोली की तरह बोल पड़ा,
“पुलिस को एक ख़ास बात पता चली है... पर पूरी तरह नहीं....”
बोलते बोलते वो हांफने लगा इसलिए उसे बीच में ही रोकते हुए पानी दिया.
पानी पिया.. थोड़ा शांत हुआ वो.
थोड़ा रुक कर बोलना शुरू किया उसने,
“पुलिस को ये बात पता चली है कि शहर में दो ख़ास जगह अवैध हथियारों और ड्रग्स की नई खेप आई है.. भारी मात्रा में.. और हाल फिलहाल नहीं तो भी कुछ दिनों या महीनों के अंदर शायद इस शहर में कुछ बड़ा होने वाला है. इन्हीं हथियारों में कुछ बम इतने ख़तरनाक हैं की उनमें से अगर दस भी फट जाएँ... शहर के अलग अलग जगहों में तो पूरा शहर पलक झपकते ही राख के ढेर में बदल सकता है.”
“हम्म.. ये तो वाकई बहुत परेशान और चिंता करने वाली बात है....”
“हाँ है तो सही.. पूरा पुलिस महकमे में इसी एक बात से हड़कंप मचा हुआ है. अगले दो तीन दिनों के अंदर अंदर ही पूरे शहर भर में तलाशी ली जाएगी. कोना कोना छाना जाएगा.”
“ह्म्म्म.. ठीक है... और दूसरी बात..?”
“कौन सी दूसरी बात?”
“तुमने आते ही कहा था न कि पुलिस को एक ख़ास बात पता चली है... पर पूरी तरह नहीं ... क्या पता नहीं चला है उन्हें पूरी तरह..?”
“ओह हाँ... वो ... पुलिस को अवैध हथियारों के बारे में तो पता चल गया है.. ये भी पता चला है की ऐसे अवैध माल दो जगहों पर मौजूद हैं... पर हैं कहाँ... ये पता नहीं चल पाया है... और इसलिए शायद पुलिस दो तीन दिन का टाइम ले रही है.”
“पुलिस अपनी जगह सही है.. पर मुझे कुछ और पता चला है और ख़बर पूरी तरह से सही है.”
“कैसी ख़बर?”
मैंने गोविंद को भी उस दुकान / गोदाम के बारे में सब कह सुनाया पर कुछ परिवर्तनों के साथ.. परिवर्तन बस इतना ही था की :-
पहला, उस दुकान की गतिविधियाँ संदिग्ध हैं और अवैध हथियारों की खेप अभी तक आया नहीं हैं ... वो आएगा आज से एक सप्ताह के बाद.
दूसरा, उस दरजी वाले दुकान के ऊपरी मंजिल पर अवैध हथियारों के कई खेप का आना जाना पिछले ५ महीनों से चल रहा है.
तीसरा, हमारे ही पुलिस थाने में माफ़िया डिकोस्टा से संबंधित एक फ़ाइल है जिसमें उसके बहुत से काले कारनामों और उसके पिछले कुछ सालों में पकड़ाए अवैध माल और उनसे संबंधित लेन – देन का पूरा ब्यौरा है. अगर उस फ़ाइल को स्टडी किया जाए तो डिकोस्टा के बारे में हमें या पुलिस को गौर करने लायक कुछ मिल सकता है.
जैसे मैंने शंकर की बातें सुनने के बाद तुरंत ही कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया था.. वैसे ही मेरी बातें सुनने के बाद गोविंद और मोना में से किसी ने भी तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया. पर एक बात मैंने नोटिस की और उसी से तनिक अचंभित भी हुआ.
हम तीनों के लिए ही एक एक बोतल कोल्डड्रिंक मँगवाया..
कोल्डड्रिंक पीते पीते ही मैंने अचानक ऐसा कुछ कहा की मोना और गोविंद; दोनों के ही होश उड़ गए.
साफ़ था, दोनों ने ही ऐसा कुछ एक्स्पेक्ट नहीं किया था.
“मोना.. गोविंद.. अब मैं जो बात कहने जा रहा हूँ.. उसे अच्छे से सुनो.. कान से सुनो और दिमाग में बैठा लो. एक सप्ताह बाद जब वो हथियारों का माल आएगा... तब उसके दो दिन बाद ही हमें वहाँ से उन हथियारों को हटाना होगा. किसी भी कीमत पर वे हथियार उन लोगों के किसी भी काम में नहीं आने चाहिए.”
गोविंद घबरा उठा.. हकलाते हुए कहा,
“म...म...मतलब...”
“मतलब की हमें माल गायब करना होगा.” मैंने निर्णायक स्वर में कहा.
“ठीक है.. पर होगा कैसे.. कोई तरकीब सोची है तुमने?” मोना पूछी.
मेरे कहने से पहले गोविंद बोल उठा,
“पर हम पुलिस को भी तो इन्फॉर्म कर सकते हैं...और क्या पता तुम्हारा ये तरकीब काम करेगा या नहीं?”
“हाँ .. तरकीब काम भी ज़रूर करेगा. पुलिस को बिना बताए करना होगा.. अगर बता दिया तो बहुत बड़ा रिस्क हो जाएगा... कैसे बताएँगे कि हमें ऐसी ख़बरें कहाँ से या कैसे मिली... मेरा ये तरकीब काम तो ज़रूर करेगा पर यहाँ थोड़ा खतरा है. हमें दो अलग दिन दो जगहों से दो चीज़ें गायब करनी है... एक तो हथियारों का वो माल और दूसरा................”
धीरे धीरे मैं दोनों को अपना प्लान समझाने लगा.
समझाते हुए मैंने देखा की गोविंद जहाँ घबरा रहा था.. मोना उतनी ही दृढ़ता से मेरी बातों को सुन व समझ रही थी.
करीब आधे घंटे के बाद प्लान समझाने के साथ साथ कोल्ड ड्रिंक भी ख़त्म हुआ.... इतनी देर में दो राउंड और कोल्ड ड्रिंक मंगवा लिया था मैंने.
अपने हिस्से की कोल्डड्रिंक खत्म करता हुआ गोविंद उठा,
“अच्छा, अब मैं चलता हूँ.. कुछ और भी काम हैं..”
“क्या काम है?”
“घर के ही काम हैं.”
“प्लान से संबंधित कुछ पूछना है?” मैंने दोनों की ओर देखा... दोनों ने ही ना में सिर हिलाया.. तब मैं गोविंद की ओर देखता हुआ बोला,
“अच्छा ठीक है.. तुम जाओ... पर जब कॉल करूँ तो मिलना...”
“हाँ .. बिल्कुल..”
चेहरे पर हंसी लिए गोविंद वहाँ से निकल गया.. मैं ऐसी हंसी को बहुत अच्छे से पहचानता हूँ.. बनावटी हंसी थी वो.. हँस कर कुछ छुपाने की कोशिश करना चाह रहा था. जाने से पहले कोल्डड्रिंक के पैसे देना चाहा पर मेरे मना करने पर सीधे ही निकल लिया.
मैं उठ कर केबिन से बाहर निकला और कैफ़े के मेन दरवाज़े; जो मोटे लकड़ियों से बना हुआ था...उसका ओट ले कर सामने... बाहर सड़क को पार कर दूसरी तरफ़ जाते गोविंद को देखने लगा..
गोविंद सड़क पार कर सामने के कई दुकानों में से एक के बाजू में गया.. वहाँ एक पीसीओ है.. लाल रंग का.. उसके सामने पहुँचा.. दरवाज़ा खोला.. एक कदम अंदर रखा... तनिक रुका... लगा की जैसे कुछ सोच रहा है... फ़िर पलट कर कैफ़े की ओर देखा... मैं तुरंत दरवाज़े की ओट में पूरी तरह आ गया.. दो मिनट रुक कर सिर को ज़रा सा बाहर निकालते हुए सड़क के उस पार देखा.. पीसीओ बंद था.. अंदर कोई नहीं था.. आश्चर्य.. कहाँ गया...
कैफ़े से बाहर निकल कर स्कूटर की ओर गया... उसको बस ऐसे ही इधर उधर देखते हुए चोर नज़रों से सड़क के दोनों ओर देखा.. गोविंद कहीं नहीं दिखा.
वापस कैफ़े में घुसा और केबिन की ओर बढ़ा..
केबिन के पास पहुँच कर अंदर घुसने ही वाला था कि मुझे याद आया,
‘जब गोविंद मुझे बता रहा था की पुलिस को शहर में दो जगह अवैध हथियारों का जखीरा होने का पता चला है और जब मैं भी उसे दो जगहों का पता बता रहा था तब मोना के चेहरे पर बेचैनी वाले भाव उभर आए थे.. और जैसे ही मैंने यह कहा कि थाने में डिकोस्टा से संबंधित फ़ाइल है जो उसका पूरा कच्चा चिट्ठा खोल सकते हैं तो उस समय मोना की आँखों में एक चमक थी.... मेरे प्लान को सुनते समझते हुए गोविंद जितना घबरा रहा था ; मोना लेकिन उतनी ही तत्पर और दृढ़ दिख रही थी.’
चक्कर क्या है....
------
इधर,
पुलिस हेडक्वार्टर में,
इंस्पेक्टर दत्ता पुलिस कमिश्नर निरंजन बोस के कमरे में उनके ठीक सामने बैठा हुआ था..
“बोलो दत्ता, क्या कह रहे थे?”
“सर, हमें ख़बर मिली है शहर के दो ऐसी जगहों पर अवैध हथियारों का जखीरा है जहाँ अमूमन आम या ख़ास, किसी का भी जल्द नज़र जाना संभव नहीं है. सही से बता पाना भी अभी संभव नहीं है कि उन हथियारों में क्या क्या और किस किस्म के गोला बारूद और गन हैं.. पर इतना ज़रूर है कि इनसे इस शहर में तबाही आसानी से लाई जा सकती है.....स”
दत्ता की बात को बीच में ही काटते हुए कमिश्नर बोला,
“वन मिनट दत्ता... हमारा शहर बहुत बड़ा नहीं है.. मतलब ये कोई महानगर नहीं है.. पर इतना भी छोटा नहीं है की एक या दो दिन में ही छापा मार कर उन हथियारों को कहीं से भी बरामद कर लिया जाए. जो कुछ भी करना है; जल्द से जल्द और बहुत होशियारी से करना है. कहीं ऐसा न हो की हमने रेड डालने शुरू किए और उन लोगों ने या तो हथियारों को ठिकाने लगा दिया या फ़िर समय से पहले ही इस शहर में कोई बहुत बड़े दुर्घटना को अंजाम दे दिया. समझे?”
“जी सर, मैं समझ गया.. उन हथियारों का और उनसे संबंधित लोगों का पकड़ा जाना वाकई बहुत ज़रूरी है क्योंकि शायद तभी हमें डिकोस्टा के बारे में भी कोई महत्वपूर्ण सूचना मिले..”
डिकोस्टा नाम सुनते ही जैसे कमिश्नर को सांप सूँघ गया.
तुरंत ही अपनी कुर्सी पर सीधा होता हुआ बोला,
“व्हाट?! क्या नाम लिया तुमने अभी.. डिकोस्टा??!!”
“यस सर, दैट इनफेमस मोस्ट वांटेड टेररिस्ट... अंडरवर्ल्ड माफ़िया.. ‘डिकोस्टा’ ... देश के कई बड़े शहरों व नगरों में अपना नेटवर्क फ़ैलाने के बाद उसकी बुरी नज़र अब हमारे इस शांत शहर की ओर है. वो यहाँ क्या करने वाला है ये तो सही सही नहीं कहा जा सकता फ़िलहाल ... पर इतना तो तय है कि उसके इरादे ठीक तो बिल्कुल नहीं है.”
“दत्ता... अगर वह हमारे शहर की ओर नज़र लगाने की कोशिश कर रहा है तो हम भी पूरी मुस्तैदी से उसकी यह नज़र उतारने की कोशिश करेंगे. इन फैक्ट, कोशिश नहीं .. करना ही होगा. हंड्रेड परसेंट रिजल्ट के साथ. क्लियर?”
“यस सर.”
“नाउ यू मे लीव.. नेक्स्ट टाइम आई एक्स्पेक्ट यू टू रिपोर्ट मी विथ सम पॉजिटिव न्यूज़.”
दत्ता कुर्सी से उठ कर सैल्यूट मारता हुआ बोला,
“यस सर. ऐसा ही होगा.”
“हम्म. जय हिन्द.”
“जय हिन्द सर.”
हेडक्वार्टर से निकल कर दत्ता जीप चलाते हुए सीधे अपने थाने पहुँचा.
अपनी कुर्सी पर बैठते हुए टेबल पर रखे घंटी को बजाया.
संतरी गिरधर तुरंत उपस्थित हुआ.
“गिरधर... एक ग्लास पानी लाना.. प्यास से मरा जा रहा हूँ.”
“यस सर.”
मुड़ कर तेज़ी से बाहर गया और फ़ौरन ही एक ग्लास पानी के साथ अंदर आया गिरधर.
ग्लास थमाने के बाद वहीँ खड़ा रहा वो.
दो घूँट पानी पी कर दत्ता उसकी ओर देखते हुए पूछा,
“क्या बात है गिरधर... कुछ कहना है?”
“जी सर.. एक लड़के का बार बार फ़ोन आ रहा था.. आपको ढूँढ रहा था.. मैंने कहा भी की अगर कोई बहुत ज़रूरी बात है तो मुझे बता सकता है पर वो माना नहीं. अभी कुछ देर पहले भी उसका फ़ोन आया था. तब मैंने कह दिया की एक घंटे बाद करे .. तो उसने आधे घंटे बाद फ़िर फ़ोन करने की बात कह कर फ़ोन काट दिया.”
“ओह.. कोई नाम वाम बताया उसने अपना?” पानी पीते हुए दत्ता ने पूछा.
“जी सर... गोविंद... गोविंद नाम बताया था उसने अपना.”
गोविंद नाम सुनते ही दत्ता एकदम से चौंक उठा.
कुछ बोलता या सोचता.. की तभी उसके टेबल पर रखा फ़ोन घनघना उठा.
लपक कर फ़ोन उठाया दत्ता ने..
“हैलो..” कहते हुए दत्ता ने हाथ के इशारे से गिरधर को जाने को कहा.
“हैलो ... दत्ता सर?”
“हाँ बोल रहा हूँ.. आप कौन?”
“सर... मैं ... मैं ... गोविंद..”
“हाँ गोविंद .. बोलो.. क्या बात है?”
“सर........”
उधर से गोविंद ज्यों ज्यों कुछ बोलता गया .. त्यों त्यों कभी दत्ता की पेशानियों में बल पड़े तो कभी बड़ी सी मुस्कान उनके चेहरे पर छा गई.
अंत में,
‘गुड.. वैरी गुड’ बोल कर दत्ता ने रिसीवर क्रेडल पर रखा और चेयर से पीठ टिका कर आराम से बैठते – मुस्कुराते हुए कुछ सोचने लगा.
दूसरी ओर,
रात के दस बजे,
अपने घर की छत पर खड़ा मैं दूर क्षितिज की ओर देखता हुआ सिगरेट सुलगा रहा था... एक साथ दिमाग में कई नाम और चेहरे आ और जा रहे थे. साथ ही अपने बनाए प्लान पर कुछ से कुछ सोच रहा था....
वहीँ,
शहर में ही एक बड़े से बिल्डिंग में... अपने आलिशान कमरे में .... सिल्क गाउन में.. अपने बिस्तर पर पसर कर टाँगें फैलाए, हाथों में ब्रैंडी की ग्लास लिए ... उससे थोड़ा थोड़ा सिप लेती मोना के दिमाग में भी कुछ चल रहा था...
पूरा परिदृश्य ही मानो..
एक फ्रेम में आ गया हो... और उस फ्रेम के तीन भाग हो गए हों... बाएँ वाले भाग में .. थाने में अपने कमरे में .. चेयर में बैठा दत्ता.. दाएँ वाले में भाग में थोड़ा थोड़ा कर के ब्रैंडी पीती मोना ... और बीच वाले भाग में .. मैं.... छत पर खड़ा.. धुआँ उड़ाता हुआ...
तीनों के ही दिमाग में कुछ बन पक रहा था.. तीनों ही जैसे अपने अपने दिमाग में कोई प्लान.. कोई जाल बुन रहे थे..
या तो तीनों के बनाए प्लान ... जाल ... में से कोई एक सफ़ल होगा...
या फ़िर तीनों ही सफ़ल होंगे...
या फ़िर,
शायद बने कोई.... अद्भुत जाल....!
क्रमशः
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