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Adultery अद्भुत जाल ....

Bhaiya Ji

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भाग ४२)

नाश्ता कर के उठा ही था की मेरे कमरे का फ़ोन घनघना उठा..

रिसीव किया,

क्रैडल को अभी उठा कर माउथपीस में ‘हैलो’ बोलने ही वाला था कि दूसरी ओर से एक व्याकुलता भरी आवाज़ आई,

“हैलो, अभय?”

“शंकर?.. बोलो भई .. क्या बात है... बड़े व्या...”

मेरी बात को बीच में ही काटते हुए शंकर बोला,

“तुम्हें कुछ बताना है. सोचा जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा रहेगा.”

“ठीक है. बोलो क्या सुनाना है?”

“बताता हूँ.. समय है तुम्हारे पास..?”

“हाँ है.”

“बढ़िया. सुनो तब.... ”

“हम्म.. सुन रहा हूँ.. बोलते जाओ..”

“समझ ही रहे होगे की ये तुम्हारी चाची के विषय में है..”

“हाँ.. समझ रहा हूँ.”

“बहुत अच्छे.. तो जैसा की तुमने बताया था.. मैंने फॉलो किया तुम्हारी चाची को .. आई मीन उस रद्दीवाले को. वह रद्दीवाला मनोरम पार्क के उल्टे तरफ़ बनी रद्दियों की एक दुकान में गया था और रद्दियों के जैसे आम तौर पर मोल भाव किये जाते हैं ... ठीक वैसे ही किया. दो आदमी बाहर आए.. रद्दियों के उन ढेर को उठाया और अंदर चले गए. उनके पीछे पीछे वो लड़का भी अंदर गया और तकरीबन पन्द्रह से बीस मिनट बाद लौट आया.. हाथों में कुछ नोट थे.. चेहरे से ख़ुशी टपक रही थी.. साइकिल पर चढ़ा और खुश होता हुआ अंदर गल्ले पर बैठे एक तीसरे व्यक्ति को सलाम – नमस्ते करता हुआ वहां से चला गया.”

“बस इतना ही....??!!”

“हाँ भई, इतना ही..”

मैं थोड़ी देर शांत खड़ा रहा .. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ. दूसरी और से शंकर भी चुप है .. उसकी भी सिर्फ़ सांसे ही सुनी जा सकती हैं.

जब इसी तरह कुछ और मिनट बीते तो शंकर की आवाज़ आई,

“हैल्लो.. अभय... लाइन पर हो या नहीं?”

“हाँ.. हूँ..”

“हम्म.. किस सोच में डूब गए?”

“सोच रहा हूँ की किस सोच में डूबूँ!”

“मतलब?”

“मतलब ये कि मैं सोच रहा था की कुछ बहुत इंटरेस्टिंग सा .. गोपनीय सा जानकारी हाथ लगेगी.... पर.. “

“पर....?”

“कुछ नहीं.. खैर, जाने दो...”

“जाने कैसे दूँ.. क्यों दूँ?”

“मतलब?”

“भाई मेरे.. ये शंकर कोई अनारी नहीं है.. जब कोई काम हाथ में लेता है तो पूरा कर के ही दम लेता है..”

“हाँ तो पूरा काम कर तो दिया तुमने.?!”

“नहीं!”

“नहीं??”

“हाँ.. नहीं.. अभी पूरा काम नहीं हुआ है.”

“तो क्या करना चाहते हो?”

“हाहाहा.... करना नहीं चाहता.. सुनाना चाहता हूँ.”

“क्या सुनाना चाहते हो.. अभी कुछ बाकी रह गया है क्या?”

“हाँ...”

“वो क्या?”

“तुम्हारे काम के ही बारे में है...”

“समझ रहा हूँ भई, आगे तो बोलो..”

“उस लड़के के वहाँ से चले जाने के बाद मैं भी चला आया था पर मन मान नहीं रहा था की अपनी खोज अधूरी छोड़ दूँ. इसलिए रात के दो बजे एकबार फ़िर वहाँ जाने का प्लान बनाया. रात को गया भी. उस समय तो सभी सोते ही हैं. वो एरिया भी पूरी तरह से शांत था. दुकान के ताले खोल कर अंदर गया.. कुछ न था सिवाय रद्दियों के. मायूस होने का समय न था वो... सो मैंने इधर उधर टटोल कर अपना ख़ोज जारी रखा. जल्द ही एक छोटा ख़ुफ़िया दरवाज़ा मिला जिसे अखबारों के तीन बड़े बड़े ढेर ... करीब पांच पांच फुट के बंडल के पीछे छुपाया गया था. सब हटा कर दरवाज़े को किसी तरह से खोला और अंदर घुसा. उस घुप्प अँधेरे में अपने पॉकेट टॉर्च की रोशनी में स्विच बोर्ड ढूँढने की कोशिश की ... स्विच बोर्ड मिली भी पर पांच में से एक भी स्विच ने काम नहीं किया. खैर, उसी पॉकेट टॉर्च की रोशनी में ही जब उस कमरे के चारों ओर देखा तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गई. बड़े और माध्यम आकार के कई बक्सें रखे हुए थे. समय ना गँवाते हुए मैंने तुरंत उन बक्सों को एक एक कर खोलना शुरू किया. तकरीबन दस बक्सों को खोल कर देखा मैंने. यकीन नहीं करोगे तुम. सब में एक से बढ़ कर एक हथियार रखे हुए थे ! ज़्यादा गौर से देखने लायक समय नहीं था मेरे पास पर जितना की पहली नज़र में लगा.. शायद सब के सब फ़ुल ऑटोमेटिक हैं. वहाँ से हटा तो फ़िर आई अखबारों की बारी.. मेरा मतलब रद्दियों की बारी.. कुछ मिलेगा, इसकी उम्मीद न थी.. पर हुआ ठीक उल्टा. सभी अखबारों के हरेक दो – तीन पृष्ठों के बाद छोटे छोटे प्लास्टिक्स में कुछ काले या भूरे रंग के पदार्थ थे.. नशे का कोई सामान होगा. उस समय वहाँ से निकलने की भी जल्दबाज़ी थी इसलिए जल्दी जल्दी सब देखा और निकल आया वहाँ से.”

शंकर अपनी बात ख़त्म कर रुका.

उसके हरेक शब्द मेरे दिमाग में घर कर गए.

पूरा वाक्या ऐसा था की तुरंत कुछ बोलते नहीं बना मुझसे.

कुछ मिनट लगे मन को स्थिर करने में..

फ़िर पूछा,

“अच्छा पहले एक बात बताओ...”

“हाँ पूछो.”

“रात को तुम जिस समय वहाँ पहुंचे थे.. वो पूरी तरह सूनसान था?”

“हाँ भई, था.. कन्फर्म.”

“जब वहाँ से निकले... तो इस बात को अच्छे से जांच – परख लिया था कि कोई तुम्हारे पीछे तो नहीं लगा हुआ है..या नज़र बनाए हुए है?”

“हाँ.. अच्छी तरह पता है मुझे... कोई न था आस पास... और दूर दूर तक भी होने का सवाल होता दिख नहीं रहा है.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि मैंने अपने दो आदमी थोड़ी थोड़ी दूर पर छोड़ रखा था.”

“हम्म.”

“पर तुम ऐसा पूछ क्यों रहे हो?”

“पूछना नहीं चाहिए?”

“पूछना चाहिए.. ज़रूर पूछो.. जो और जितना पूछना चाहो पूछ लो.”

“ये सवाल बेकार है?”

“बेकार तो नहीं पर वाकई ज़रूरी है क्या?” इस बार शंकर सच में सशंकित हो उठा.

मैं हँस पड़ा...

बोला,

“खुद सोचो शंकर... एक ऐसी जगह जहाँ इतने आधुनिक हथियार और नशीले सामान रखे गए हों... उस जगह पहरा देने के लिए एक ... एक आदमी तक नहीं??”

मेरे इस सवाल पर शंकर भी सोच में पड़ गया..

बोला,

“हाँ.. बात तो सही है.. कम से कम एक आदमी तो होना ही चाहिए था वहाँ...भई, यहाँ तो पूरी दाल ही काली लग रही है.”

“मुझे तो दाल ही नज़र नहीं आ रही.” शंकाओं के कई बीज एक साथ मेरे मन में भी बो गए.

बस इतना ही निकला मुँह से,

“आधुनिक हथियार... ऑटोमेटिक... और वो पैकेट... निश्चित रूप से ड्रग्स ही होंगे उन पैकेटो में.”

“वही होंगे.”

कुछ क्षणों के लिए हम दोनों ही चुप रहे, फ़िर इस बात पर की कल मैं दोबारा उसे इसी समय फ़ोन करूँगा.. मैंने फ़ोन रख दिया.





क्रमशः

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Chutiyadr

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भाग ४२)

नाश्ता कर के उठा ही था की मेरे कमरे का फ़ोन घनघना उठा..

रिसीव किया,

क्रैडल को अभी उठा कर माउथपीस में ‘हैलो’ बोलने ही वाला था कि दूसरी ओर से एक व्याकुलता भरी आवाज़ आई,

“हैलो, अभय?”

“शंकर?.. बोलो भई .. क्या बात है... बड़े व्या...”

मेरी बात को बीच में ही काटते हुए शंकर बोला,

“तुम्हें कुछ बताना है. सोचा जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा रहेगा.”

“ठीक है. बोलो क्या सुनाना है?”

“बताता हूँ.. समय है तुम्हारे पास..?”

“हाँ है.”

“बढ़िया. सुनो तब.... ”

“हम्म.. सुन रहा हूँ.. बोलते जाओ..”

“समझ ही रहे होगे की ये तुम्हारी चाची के विषय में है..”

“हाँ.. समझ रहा हूँ.”

“बहुत अच्छे.. तो जैसा की तुमने बताया था.. मैंने फॉलो किया तुम्हारी चाची को .. आई मीन उस रद्दीवाले को. वह रद्दीवाला मनोरम पार्क के उल्टे तरफ़ बनी रद्दियों की एक दुकान में गया था और रद्दियों के जैसे आम तौर पर मोल भाव किये जाते हैं ... ठीक वैसे ही किया. दो आदमी बाहर आए.. रद्दियों के उन ढेर को उठाया और अंदर चले गए. उनके पीछे पीछे वो लड़का भी अंदर गया और तकरीबन पन्द्रह से बीस मिनट बाद लौट आया.. हाथों में कुछ नोट थे.. चेहरे से ख़ुशी टपक रही थी.. साइकिल पर चढ़ा और खुश होता हुआ अंदर गल्ले पर बैठे एक तीसरे व्यक्ति को सलाम – नमस्ते करता हुआ वहां से चला गया.”

“बस इतना ही....??!!”

“हाँ भई, इतना ही..”

मैं थोड़ी देर शांत खड़ा रहा .. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ. दूसरी और से शंकर भी चुप है .. उसकी भी सिर्फ़ सांसे ही सुनी जा सकती हैं.

जब इसी तरह कुछ और मिनट बीते तो शंकर की आवाज़ आई,

“हैल्लो.. अभय... लाइन पर हो या नहीं?”

“हाँ.. हूँ..”

“हम्म.. किस सोच में डूब गए?”

“सोच रहा हूँ की किस सोच में डूबूँ!”

“मतलब?”

“मतलब ये कि मैं सोच रहा था की कुछ बहुत इंटरेस्टिंग सा .. गोपनीय सा जानकारी हाथ लगेगी.... पर.. “

“पर....?”

“कुछ नहीं.. खैर, जाने दो...”

“जाने कैसे दूँ.. क्यों दूँ?”

“मतलब?”

“भाई मेरे.. ये शंकर कोई अनारी नहीं है.. जब कोई काम हाथ में लेता है तो पूरा कर के ही दम लेता है..”

“हाँ तो पूरा काम कर तो दिया तुमने.?!”

“नहीं!”

“नहीं??”

“हाँ.. नहीं.. अभी पूरा काम नहीं हुआ है.”

“तो क्या करना चाहते हो?”

“हाहाहा.... करना नहीं चाहता.. सुनाना चाहता हूँ.”

“क्या सुनाना चाहते हो.. अभी कुछ बाकी रह गया है क्या?”

“हाँ...”

“वो क्या?”

“तुम्हारे काम के ही बारे में है...”

“समझ रहा हूँ भई, आगे तो बोलो..”

“उस लड़के के वहाँ से चले जाने के बाद मैं भी चला आया था पर मन मान नहीं रहा था की अपनी खोज अधूरी छोड़ दूँ. इसलिए रात के दो बजे एकबार फ़िर वहाँ जाने का प्लान बनाया. रात को गया भी. उस समय तो सभी सोते ही हैं. वो एरिया भी पूरी तरह से शांत था. दुकान के ताले खोल कर अंदर गया.. कुछ न था सिवाय रद्दियों के. मायूस होने का समय न था वो... सो मैंने इधर उधर टटोल कर अपना ख़ोज जारी रखा. जल्द ही एक छोटा ख़ुफ़िया दरवाज़ा मिला जिसे अखबारों के तीन बड़े बड़े ढेर ... करीब पांच पांच फुट के बंडल के पीछे छुपाया गया था. सब हटा कर दरवाज़े को किसी तरह से खोला और अंदर घुसा. उस घुप्प अँधेरे में अपने पॉकेट टॉर्च की रोशनी में स्विच बोर्ड ढूँढने की कोशिश की ... स्विच बोर्ड मिली भी पर पांच में से एक भी स्विच ने काम नहीं किया. खैर, उसी पॉकेट टॉर्च की रोशनी में ही जब उस कमरे के चारों ओर देखा तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गई. बड़े और माध्यम आकार के कई बक्सें रखे हुए थे. समय ना गँवाते हुए मैंने तुरंत उन बक्सों को एक एक कर खोलना शुरू किया. तकरीबन दस बक्सों को खोल कर देखा मैंने. यकीन नहीं करोगे तुम. सब में एक से बढ़ कर एक हथियार रखे हुए थे ! ज़्यादा गौर से देखने लायक समय नहीं था मेरे पास पर जितना की पहली नज़र में लगा.. शायद सब के सब फ़ुल ऑटोमेटिक हैं. वहाँ से हटा तो फ़िर आई अखबारों की बारी.. मेरा मतलब रद्दियों की बारी.. कुछ मिलेगा, इसकी उम्मीद न थी.. पर हुआ ठीक उल्टा. सभी अखबारों के हरेक दो – तीन पृष्ठों के बाद छोटे छोटे प्लास्टिक्स में कुछ काले या भूरे रंग के पदार्थ थे.. नशे का कोई सामान होगा. उस समय वहाँ से निकलने की भी जल्दबाज़ी थी इसलिए जल्दी जल्दी सब देखा और निकल आया वहाँ से.”

शंकर अपनी बात ख़त्म कर रुका.

उसके हरेक शब्द मेरे दिमाग में घर कर गए.

पूरा वाक्या ऐसा था की तुरंत कुछ बोलते नहीं बना मुझसे.

कुछ मिनट लगे मन को स्थिर करने में..

फ़िर पूछा,

“अच्छा पहले एक बात बताओ...”

“हाँ पूछो.”

“रात को तुम जिस समय वहाँ पहुंचे थे.. वो पूरी तरह सूनसान था?”

“हाँ भई, था.. कन्फर्म.”

“जब वहाँ से निकले... तो इस बात को अच्छे से जांच – परख लिया था कि कोई तुम्हारे पीछे तो नहीं लगा हुआ है..या नज़र बनाए हुए है?”

“हाँ.. अच्छी तरह पता है मुझे... कोई न था आस पास... और दूर दूर तक भी होने का सवाल होता दिख नहीं रहा है.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि मैंने अपने दो आदमी थोड़ी थोड़ी दूर पर छोड़ रखा था.”

“हम्म.”

“पर तुम ऐसा पूछ क्यों रहे हो?”

“पूछना नहीं चाहिए?”

“पूछना चाहिए.. ज़रूर पूछो.. जो और जितना पूछना चाहो पूछ लो.”

“ये सवाल बेकार है?”

“बेकार तो नहीं पर वाकई ज़रूरी है क्या?” इस बार शंकर सच में सशंकित हो उठा.

मैं हँस पड़ा...

बोला,

“खुद सोचो शंकर... एक ऐसी जगह जहाँ इतने आधुनिक हथियार और नशीले सामान रखे गए हों... उस जगह पहरा देने के लिए एक ... एक आदमी तक नहीं??”

मेरे इस सवाल पर शंकर भी सोच में पड़ गया..

बोला,

“हाँ.. बात तो सही है.. कम से कम एक आदमी तो होना ही चाहिए था वहाँ...भई, यहाँ तो पूरी दाल ही काली लग रही है.”

“मुझे तो दाल ही नज़र नहीं आ रही.” शंकाओं के कई बीज एक साथ मेरे मन में भी बो गए.

बस इतना ही निकला मुँह से,

“आधुनिक हथियार... ऑटोमेटिक... और वो पैकेट... निश्चित रूप से ड्रग्स ही होंगे उन पैकेटो में.”

“वही होंगे.”

कुछ क्षणों के लिए हम दोनों ही चुप रहे, फ़िर इस बात पर की कल मैं दोबारा उसे इसी समय फ़ोन करूँगा.. मैंने फ़ोन रख दिया.





क्रमशः

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hathiyar aur drags :yikes:
ab dekhna hai ki hamara hero kya karta hai , chachi to fansi hui hi hai aur jin logo se ye takrane ki soch raha hai wo iske baap hai har mamle me :)
aur lock down ka ye to asar hua hai ki koi bhi charterer aaj ciggrate nahi pi raha hai :declare:
good update bhaiya ji :good: keep writing:)
 

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Well-Known Member
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Bahut aabhar bhaiya aap wapas padhare.
Mai to ab istehar dene wala tha bhaiya ji ka.

Fabulous update. Godown mai jarur koi ghapla tha itne gafil nahi ho sakte ye log.
Itne important saman rakha tha waha or banda ek bhi nahi. Sach mai garbar ghotala hai koi.


Arre bhai aaj kal corona ki wajah se lockdown hai na iss liye abhay ki jasoosi bhi kam he chal rahi hai .. Deha nahi us gupt raddi wale kamre ki bhi koi nigrani nahi kar raha tha .. Aur ishtrehaar mat lagwana kahi aisa na ho ki police wale Bhaiya Ji ko quarentine kar de ... He he
 
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