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अध्याय - 16
अब तक आपने देखा के गजेंद्र उस वन की माया को पहले जान गया था । विरुपाक्ष से गजेंद्र का युद्ध और अंत मे गजेंद्र की जीत ।
अब आगे --------
विरुपाक्ष को इस प्रकार हाथ जोड़ भूमि पर बैठे हुए देखकर गजेंद्र विरुपाक्ष के मन के भावों को समझ गया और विरुपाक्ष के निकट पहुंच कर
गजेंद्र - उठो विरुपाक्ष उठो ! तुम जैसे वीर को इस प्रकार हाथ जोड़कर भूमि पर बैठना शोभा नहीं देता ।
विरुपाक्ष - हे वीर मैं अब आपको पहचान गया हूं के आप कोई विशिष्ट व्यक्ति हो । आपमे मुझे महादेव का अंश दिखाई दे रहा है , उन्हीं की कृपा से हम यक्षो को इस स्थान पर शरण मिली थी । पहले मैं अपने बल के अहंकार में चूर होकर आपको पहचान नहीं पाया इसलिए मुझे क्षमा कर दीजिए ।
गजेंद्र - हे वीर ! तुमने क्षमा मांगने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है । तुम तो केवल अपने राजा के आदेश का पालन कर रहे थे और अपने सैनिक धर्म का निर्वाह कर रहे थे ।
( फिर आगे बढ़कर विरुपाक्ष को कंधे से पकड़ कर उठाते हुए )
तुम जैसे वीर योद्धा से लड़ कर मुझे तो आनंद ही आया , तुम व्यर्थ में अपने मन में ग्लानि का भाव मत लाओ मित्र
विरुपाक्ष - आपका बहुत-बहुत धन्यवाद , मेरे मनोभावों को समझने के लिए और यह क्या आपने मुझे मित्र का कर संबोधित किया मैं एक यक्ष हूं मैंने अपने जीवन में बहुत सारे पाप किए हैं मैं आपकी मित्रता के योग्य नहीं हूं ।
गजेन्द्र - ऐसा मत कहो मित्र तूम सर्वथा मेरी मित्रता की योग्य हो । मेरा अब तक कोई भी मित्र नहीं है तुम जैसे योद्धा को अपने मित्र रूप में प्राप्त कर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करोगे ।
विरुपाक्ष - मेरे नेत्रों से अहंकार का पर्दा हट गया है और मै स्पष्ट रूप से आपमें स्थित दिव्यता को देख पा रहा हूं , मैं तो केवल आपका दास होने की योग्यता रखता हूं । परंतु आपने मुझे मित्र कहा आपकी मित्रता तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी ।
गजेंद्र - अपने आप को कम मत समझो मित्र तुम सर्वथा मेरे मित्र बनने के योग्य हो
इतना कहकर गजेंद्र ने विरुपाक्ष को गले लगाया अब दोनों के बीच मित्रता का संबंध स्थापित हो गया था । रात का अंधेरा चारों ओर फैल चुका था इसलिए गजेंद्र ने अग्नि तत्व का प्रयोग करते हुए वहां एक अलाव जलाया और उसके प्रकाश में दोनों बैठ गए ।
गजेंद्र - अब कहो मित्र , तुम विस्तार से मुझे पूरी बात बताओ के तुम यक्ष अपना स्थान त्याग के इस जगह पर किस प्रकार और क्यों आए ? और जो तुमने मानव वाली बात कही थी उसका क्या तात्पर्य है ? तुम्हारा राजा कौन है ?
जहां तक मैं जानता हूं सभी यक्षों का तो केवल एक ही राजा है धनाध्यक्ष कुबेर जिनका निवास स्थान कैलाश पर्वत के निकट अलकापुरी में है ।
विरुपाक्ष - मित्र यह जो काले पत्थरों से बना हुआ रास्ता दिख रहा है वह सीधा हमारे नगर को जाता है जो यहां से कुछ ही दूरी पर है यह नगर हमारे राजा कामरान द्वारा बसाया गया है , जिसका नाम यक्षपूर रखा गया हैं ।
गजेंद्र - परंतु मित्र जहां तक मैंने सुना है , यक्षों के राजा तो कुबेर जी है और उनकी नगरी अलकापुरी है , तो यह कामरान किस प्रकार तुम यक्षों का राजा बना और तूम सब इस क्षेत्र में किस प्रकार आकर बसे मुझे पूरा विस्तार से सुनाओ अभी हमारे पास पूरी रात्रि पड़ी है ।
विरुपाक्ष - मित्र आपने बिल्कुल सही कहा कामरान किसी राज परिवार से नहीं है । जब महाराज कुबेर हम यक्षों के अधिपति बने तब यक्षो के वैभव का अत्यंत विस्तार हुआ । हम यक्षो की शक्तियां चरम पर थी ।
महाराज कुबेर ने यक्षों के अनेक यक्ष नगर बसाएं । और हर नगर मे अपना प्रतिनिधी राजा , नगर के शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए नियुक्त किया ।
उन में से ही एक हिमालय की गोदी में स्थित हमारा नगर भी था , कामरान वहाँ के सेनानायक का पुत्र था । जो बहुत महत्वाकांक्षी क्रूर और बहुत बलवान था उसने बहुत सारे यक्षों को भडकाकर और अनेक प्रकार के षडयन्त्र कर अपनी एक अलग सेना बना ली थी ।
उसी समय पृथ्वी पर यज्ञ और धर्म अपनी चरम पर था , जिसके कारण देवता भी अधिक बलवान हो गए थे और इस कारण असुरों की दयनीय अवस्था हो गई थी असुर अब केवल पाताल लोक तक ही सीमित रह गए थे ।
यहां कामरान कुबेर जी द्वारा नियुक्त किए गए हमारे नगर के राजा के विरुद्ध षड्यंत्र करके अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था और वहां पाताल लोक में असुर कुल में ही उत्पन्न काली शक्तियों का उपासक एक अघोर तांत्रिक भद्रा असुरों के उत्थान और त्रिलोक पर अपने अधिकार प्राप्त करने के उपायो को ढूंढने में लगा हुआ था ।
उस समय दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी असुरों के संग नहीं थे । वह किसी तपस्या में कई वर्षो से संलग्न थे ।
शुक्राचार्य जी की अनुपस्थिति में तांत्रिक भद्रा ने असुरों को अपने वश में कर लिया । परंतु वह जानता था कि असुरों की शक्ति अभी क्षीण है उसे ऐसा कोई योद्धा चाहिए था जो उसके उद्देश्यों को पूरा कर सके ।
तांत्रिक भद्रा ने पाताल लोक में एक अनुष्ठान प्रारंभ किया जिससे उसे एक महायोद्धा प्राप्त होना था जो उसके सपनों को पूरा कर सके ।
अनुष्ठान में उसने सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई । अनुष्ठान की समाप्ति पर उस कुंड की धधकती हुई ज्वाला से एक विशाल असुर प्रकट हुआ अनल अर्थात अग्नि से प्रकट होने के कारण उसे असुर का नाम अनलासुर रखा ।
वह असुर बड़ा ही विशाल और भयावह था । प्रकट होते ही उसने इतनी जोर से अट्टाहास किया की उसकी ध्वनी से पाताल लोक की भूमि कंपायमान हो गई अपना अनुष्ठान को सफल हुआ देखकर तांत्रिक भाद्रा बहुत ही प्रसन्न हुआ ।
अनालासुर - प्रणाम गुरुदेव मेरे लिए क्या आज्ञा है ! आपने मुझे क्यों प्रकट किया आदेश कीजिए ।
तांत्रिक भद्रा - अमलापुर मेरे पुत्र ! हम असुरों के साथ देवों ने सदैव ही छल किया है ।
हमें उनके छल का प्रतिशत लेना है और अपनी असुर जाति का उत्थान करना है । हम असुर सृष्टि पर शासन करने के सर्वथा योग्य होते हुए भी हम असुरों को पाताल लोक में बंदी बना दिया गया है । जब अधिकार सहजता से प्राप्त न हो तो उसे छीन लेना ही उचित है , यही हमारा धर्म हैं ।
तुम्हें सर्वप्रथम तपस्या करके बल एकत्रित करना होगा और ऐसा वर मांगना होगा के ना तो तुम्हारा वध कोई देवता असुर दानव दैत्य कर पाए और ना ही त्रिदेव ।
तांत्रिक भाद्रा के कहने पर अनलासुर ने ब्रह्मा जी का कठिन तप किया , और मनचाहा वरदान पाया । वरदान पाकर अनलासुर , वापस पाताल लोक आया और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए असुरों की सेना संगठित करने लगा ।
तांत्रिक भद्रा और अनलासुर ने सर्वप्रथम स्वर्ग को अपना लक्ष्य बनाया देवताओं से युद्ध करने के लिए उन्हें आवश्यकता थी एक विशाल सेना की जो अभी उनके पास नहीं थी ।
तांत्रिक भद्रा पूर्व में कामरान से मिल चुका था । वह जानता था के कामरान अत्यन्त महत्वकांक्षी है अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए वह उनका साथ अवश्य देगा । तांत्रिक भद्र जानता था के देवताओं और असुरों के पश्चात यदि कोई शक्तिशाली प्रजाति है तो वह है यक्ष । यक्ष भी उनके साथ मिल गए तब निश्चित ही वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा ।
इसलिए उसने कामरान से भेंट की और उसे आश्वासन दिया यदि वह उनका साथ देता है तो तीनों लोको का शासन उनके हाथ में आएगा तब संपूर्ण यक्षों का राजा उसे बना दिया जाएगा ।
कामरान एक महत्वाकांक्षी , छल और कपट से भरपूर यक्ष था । उसे पता था के वह कितना भी प्रयत्न कर ले परंतु वह संपूर्ण यक्षों का राजा नहीं बन सकता था । परंतु अब उसके सामने तांत्रिक भद्रा अनलासुर के रूप में एक विकल्प था । सो उसने उनका साथ देने का निश्चय किया ।
तांत्रिक भद्रा और अनलासुर की सहायता से कामरान ने एक विशाल यक्ष सेना खड़ी कर दी ।
सर्वप्रथम उसने असुरों की सहायता से खुशी अक्षय नगर के राजा तथा उसके संपूर्ण परिवार और उसके सहायकों को समाप्त कर दिया और स्वयं राजगद्दी पर विराजमान हो गया ।
असूरों की सहायता से कुबेर जी की अलकापुरी को छोड़कर कामरान ने सभी यक्षो के नगरों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया था ।
अलकापुरी कैलाश पर्वत की सीमा भीतर थी इसलिए वहां प्रवेश कर पाना उनके लिए असंभव था ।
अब उसके पास यक्षो की एक विशाल सेना थी ।
यक्षो की सेना और असुरों की सेना को साथ मे लेकर अनलासुर ने स्वर्ग पर भीषण आक्रमण कर दिया ।
बड़ा ही भयंकर संग्राम हुआ परंतु अनलासुर शक्ति के आगे देवताओं की सेना हार गई और उन्हें स्वर्ग छोड़कर जाना पड़ा अनलासुर अब स्वर्ग का अधिपति बन गया था ।
धीरे-धीरे करके उसने संपूर्ण लोकों में अपनी सत्ता स्थापित कर दी थी उसने यज्ञ कार्य धर्म पूजा पाठ आदि सब बंद करवा दिए थे।
कामरान भी अनलासुर की मित्रता प्राप्त कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा था । अब उसे किसी का भी भय नही था ।
अनलासुर एक नरभक्षी था , क्योंकि उसकी उत्पत्ति ऐसे कुंड से हुई थी जिसमें सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई थी ।
मनुष्य का मांस से उसे अत्यंत प्रिया था । अनलासूर का संग पाकर कामरान भी अब नरभक्षी बन गया था । उसके यक्ष नित्यप्रति किसी ने किसी मनुष्य को पकड़ कर लाते और उसका माँस कामरान को परोसते थे ।
परंतु बुराई का संग सदैव ही बुरा परिणाम देता है । कामरान के साथ भी वही हुआ ।
असुर स्वभाव से ही कामवासना में लिप्त होते है ।
मानव कन्या और अप्सराओ से अब उनका मन भर गया था इसलिए उन्होंने यक्ष कन्याओं को अपनी कामवासना का शिकार बनना शुरू किया ।
पहले वह यक्ष कन्याओं को अपने कामवासना का शिकार बनाते उसके पश्चात् उन्हें खा जाते ।
जिस कारण यक्षो में अब असुरों का भय व्याप्त होने लगा ।
नगर वासियों ने यह सारी बात कामरान को बताई , परंतु कामरान असूरों के विरुद्ध जाकर कुछ भी करना नहीं चाहता था । उसे केवल अपनी सत्ता प्रिय थी जो असुरों का विरोध करने पर जा भी सकती थी ।
कामरान की इसी उदासीनता के कारण सभी यक्ष उसके विरुद्ध एकजुट होने लगे ।
उसके नगर से विद्रोह की आवाज़े उठने लगी उसे पता था कि यदि प्रजा ठान ले तो शासक कितना भी बलवान क्यों ना हो उसका पतन हो ही जाता है । इसलिए उसने इस समस्या के निदान के लिए अनलासुर को संदेश भेजा।
कामरान का संदेश प्रकार अनलासुर ने तांत्रिक भद्रा से भेंट की के अब क्या करना चाहिए इस बारे में बताए
तांत्रिक भद्रा - पुत्र अब हमारा शासन संपूर्ण लोको पर है । केवल यक्षों को छोड़कर अब समय आ गया है उन्हें भी अपने अधीन करने का ।
अभी सृष्टि का केवल एक ही राजा होगा । तुम्हें क्या करना है यह तुम भली-भांति समझ चुके हो ।
अनलासुर - जी गुरुदेव आपने जैसा कहा वैसा ही होगा अब हमें उस मुर्ख कामरान की कोई आवश्यकता नहीं है ।
उसके पश्चात अनलासुर ने कामरान को संदेश भेजा की समस्या का निदान करने के लिए वह स्वयं नगरी में आ रहा है
अनलासुर का संदेश प्रकार कामरान बड़ा ही प्रसन्न हुआ ।
अपने शक्तिशाली मित्र के स्वागत करने के लिए उसने पूरा नगर सजाया । अपनी पत्नी शलाका छोटी कन्या अमृता जिसकी अवस्था 5 वर्ष जितनी होगी और उसका युवा पुत्र भानु सब नगर के मुख्य द्वार पर अनलासुर का स्वागत करने के लिए खड़े हो गए ।
अनलासुर जब उस नगर में आया तो उसकी दृष्टि कामरान की पत्नी शलाका पर गई जो अत्यंत रूपवती थी । उसको देखकर उसके तन - मन में कामवासना का संचार हुआ ।
कामरान अपने मित्र का स्वागत बड़ी भव्यता के साथ किया और अपने महल में उत्तम कक्षा में व्यवस्था की । रात्रि भोज के पश्चात उसने सारी समस्या अनलासुर के सामने रखी ।
कामरान की सारी बातें सुनने के बाद
अनलासुर - हा हा हा हा , यह कोई इतनी विकट समस्या नहीं है , प्रजा तो होती ही है भोगने के लिए , फिर भी मैं तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा ।
परंतु अब तक मैंने तुम्हारी बहुत सहायता की और उसके बदले में मैंने तुमसे कुछ नहीं लिया और तुमने भी मुझे अब तक भेंट रूप में कोई वस्तु नहीं दी इसे क्या कहा जाए ।
कामरान - यह कैसी बातें कर रहे हो मित्र मेरा सब कुछ तो तुम्हारा ही दिया हुआ है, सब पर तुम्हारा अधिकार प्रथम है ।
अनलासुर - अधिकार की बात है तब तो तुम्हारी पत्नी पर भी मेरा अधिकार होना चाहिए । आह ! कितनी सुंदर है जब से उसे देखा है मेरे तन मन में आग सी लग गई है
कामरान क्रोध में भरकर - अनलासुर ! मर्यादा में रहो । शलाका मेरी धर्मपत्नी है उस पर को दृष्टि डालने का तुमने साहस भी कैसे किया ।
कामरान अनलासुर को क्रोध की दृष्टि से देख ही रहा था कि तभी उसे अपनी पत्नी के चीखने चिल्लाने की आवाज आई तो उसने पलट कर देखा उसकी पत्नी शलाका को दो असुर पकडकर ला रहे हैं जो की पूरी तरह से निर्वस्त्र थी ।
असुरों ने शलाका को अनलासुर की गोदी में दे दिया । जिसे उस असुर ने अपनी मजबुत भुजाओ मे जकड लिया । वो चीख रही थी चिल्ला रही थी , अपने पति को देखकर अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी ।
अपनी पत्नी की ऐसा दशा देखकर कामरान क्रोध में भरकर गर्जना करता हुआ अपनी तलवार लेकर अनलासुर की और बड़ा परंतु तभी अनलासुर ने उसे अपने पाश में बांध दिया ।
अनलासुर - ना ना ना कामरान ऐसी भूल मत करना , तुम्हें समाप्त करने के लिए मुझे एक क्षण भी नहीं लगेगा । चुपचाप इस दृश्य का आनन्द लो , तुम्हे तो यह सब देखकर आनान्द आता था, अब क्या हुआ ।
अनलासुर के पाश में बंधकर कामरान भूमि पर गिर पड़ा अपनी दयनीय दशा देख कर उसकी नेत्रों से अश्रु बहने लगे कतर स्वर में वह अनलासुर से प्रार्थना करने लगा ।
कामरान - अनलासुर छोड़ दो मेरी पत्नी को , कुछ तो विचार करो , तुम तो मेरे मित्र थे इस प्रकार अनाचार मत करो ,दया करो अपने मित्र पर , मैने तूम्हारी इतनी सहायता की उसका यह कैसा प्रतिफल दे रहे हो।
अनलासुर - हा हा हा हा ! मित्र ! किस प्रकार का मित्र ! तुमसे मेरी कोई मित्रता - वित्रता नहीं थी अपनी , ( गोदी में नग्न शलाका जो छूटने का असफल प्यास कर रही थी , उसके स्तनों का मर्दन करते हुए )
तुमने भी तो मेरे साथ मिलकर इस प्रकार का दुसरो के साथ कई बार आनंद लिया है । वही अब यदि मैं तुम्हारे साथ यह कर रहा हूं तो तूम्हे आपत्ति हो रही है । अब यदि एक शब्द भी कुछ और कहा तुम्हारे सामने ही तुम्हारी पत्नी को भोगूंगा ।
अभी यहाँ इतना कुछ हो ही रहा था के कामरान का पुत्र भानु ने उस कक्ष में प्रवेश किया । अपने माता-पिता की ऐसी अवस्था देखकर उसे अत्यंत क्रोध आया ,
वह अपनी तलवार निकाल कर अनलासुर की ओर दौड़ पड़ा के तभी अनलासुर के असुर ने अपना खड़क उसकी और फेंक कर प्रहार किया जिससे कामरान पुत्र भानु का सिर धड़ से अलग हो गया और रक्त का फवारा उठने लगा ।
अपने नेत्रों के सामने अपने पुत्र की ऐसी स्थिति देखकर कामरान जोर से चीख पड़ा नहीं ऽऽऽऽऽऽऽ
और मूर्छित हो गया ।
आज के लिए इतना ही -------
अगला अध्याय शीघ्र ही -----
सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
स्वस्थ रहे , प्रसन्न न रहे
धन्यवाद
आपका मित्र - अभिनव
बहुत-बहुत धन्यवाद Ajju भाईBahut hi umda update he jaggi57 Abhinav Bhai,
Virupaksh ne jo kahani sunayi he........uske hisab se to Anlasur se gajender ki mualaqat bahut hi jaldi hone wali he...............
Agli update ki pratiksha rahgi Bhai
बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र आपके साथ के लिएAti uttam update .. bus yeh update thoda bikhra bikhra sa laga … sab kuch ek dum faila hua …
Bahot behtareen shaandar update bhaiअध्याय - 16
अब तक आपने देखा के गजेंद्र उस वन की माया को पहले जान गया था । विरुपाक्ष से गजेंद्र का युद्ध और अंत मे गजेंद्र की जीत ।
अब आगे --------
विरुपाक्ष को इस प्रकार हाथ जोड़ भूमि पर बैठे हुए देखकर गजेंद्र विरुपाक्ष के मन के भावों को समझ गया और विरुपाक्ष के निकट पहुंच कर
गजेंद्र - उठो विरुपाक्ष उठो ! तुम जैसे वीर को इस प्रकार हाथ जोड़कर भूमि पर बैठना शोभा नहीं देता ।
विरुपाक्ष - हे वीर मैं अब आपको पहचान गया हूं के आप कोई विशिष्ट व्यक्ति हो । आपमे मुझे महादेव का अंश दिखाई दे रहा है , उन्हीं की कृपा से हम यक्षो को इस स्थान पर शरण मिली थी । पहले मैं अपने बल के अहंकार में चूर होकर आपको पहचान नहीं पाया इसलिए मुझे क्षमा कर दीजिए ।
गजेंद्र - हे वीर ! तुमने क्षमा मांगने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है । तुम तो केवल अपने राजा के आदेश का पालन कर रहे थे और अपने सैनिक धर्म का निर्वाह कर रहे थे ।
( फिर आगे बढ़कर विरुपाक्ष को कंधे से पकड़ कर उठाते हुए )
तुम जैसे वीर योद्धा से लड़ कर मुझे तो आनंद ही आया , तुम व्यर्थ में अपने मन में ग्लानि का भाव मत लाओ मित्र
विरुपाक्ष - आपका बहुत-बहुत धन्यवाद , मेरे मनोभावों को समझने के लिए और यह क्या आपने मुझे मित्र का कर संबोधित किया मैं एक यक्ष हूं मैंने अपने जीवन में बहुत सारे पाप किए हैं मैं आपकी मित्रता के योग्य नहीं हूं ।
गजेन्द्र - ऐसा मत कहो मित्र तूम सर्वथा मेरी मित्रता की योग्य हो । मेरा अब तक कोई भी मित्र नहीं है तुम जैसे योद्धा को अपने मित्र रूप में प्राप्त कर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करोगे ।
विरुपाक्ष - मेरे नेत्रों से अहंकार का पर्दा हट गया है और मै स्पष्ट रूप से आपमें स्थित दिव्यता को देख पा रहा हूं , मैं तो केवल आपका दास होने की योग्यता रखता हूं । परंतु आपने मुझे मित्र कहा आपकी मित्रता तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी ।
गजेंद्र - अपने आप को कम मत समझो मित्र तुम सर्वथा मेरे मित्र बनने के योग्य हो
इतना कहकर गजेंद्र ने विरुपाक्ष को गले लगाया अब दोनों के बीच मित्रता का संबंध स्थापित हो गया था । रात का अंधेरा चारों ओर फैल चुका था इसलिए गजेंद्र ने अग्नि तत्व का प्रयोग करते हुए वहां एक अलाव जलाया और उसके प्रकाश में दोनों बैठ गए ।
गजेंद्र - अब कहो मित्र , तुम विस्तार से मुझे पूरी बात बताओ के तुम यक्ष अपना स्थान त्याग के इस जगह पर किस प्रकार और क्यों आए ? और जो तुमने मानव वाली बात कही थी उसका क्या तात्पर्य है ? तुम्हारा राजा कौन है ?
जहां तक मैं जानता हूं सभी यक्षों का तो केवल एक ही राजा है धनाध्यक्ष कुबेर जिनका निवास स्थान कैलाश पर्वत के निकट अलकापुरी में है ।
विरुपाक्ष - मित्र यह जो काले पत्थरों से बना हुआ रास्ता दिख रहा है वह सीधा हमारे नगर को जाता है जो यहां से कुछ ही दूरी पर है यह नगर हमारे राजा कामरान द्वारा बसाया गया है , जिसका नाम यक्षपूर रखा गया हैं ।
गजेंद्र - परंतु मित्र जहां तक मैंने सुना है , यक्षों के राजा तो कुबेर जी है और उनकी नगरी अलकापुरी है , तो यह कामरान किस प्रकार तुम यक्षों का राजा बना और तूम सब इस क्षेत्र में किस प्रकार आकर बसे मुझे पूरा विस्तार से सुनाओ अभी हमारे पास पूरी रात्रि पड़ी है ।
विरुपाक्ष - मित्र आपने बिल्कुल सही कहा कामरान किसी राज परिवार से नहीं है । जब महाराज कुबेर हम यक्षों के अधिपति बने तब यक्षो के वैभव का अत्यंत विस्तार हुआ । हम यक्षो की शक्तियां चरम पर थी ।
महाराज कुबेर ने यक्षों के अनेक यक्ष नगर बसाएं । और हर नगर मे अपना प्रतिनिधी राजा , नगर के शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए नियुक्त किया ।
उन में से ही एक हिमालय की गोदी में स्थित हमारा नगर भी था , कामरान वहाँ के सेनानायक का पुत्र था । जो बहुत महत्वाकांक्षी क्रूर और बहुत बलवान था उसने बहुत सारे यक्षों को भडकाकर और अनेक प्रकार के षडयन्त्र कर अपनी एक अलग सेना बना ली थी ।
उसी समय पृथ्वी पर यज्ञ और धर्म अपनी चरम पर था , जिसके कारण देवता भी अधिक बलवान हो गए थे और इस कारण असुरों की दयनीय अवस्था हो गई थी असुर अब केवल पाताल लोक तक ही सीमित रह गए थे ।
यहां कामरान कुबेर जी द्वारा नियुक्त किए गए हमारे नगर के राजा के विरुद्ध षड्यंत्र करके अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था और वहां पाताल लोक में असुर कुल में ही उत्पन्न काली शक्तियों का उपासक एक अघोर तांत्रिक भद्रा असुरों के उत्थान और त्रिलोक पर अपने अधिकार प्राप्त करने के उपायो को ढूंढने में लगा हुआ था ।
उस समय दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी असुरों के संग नहीं थे । वह किसी तपस्या में कई वर्षो से संलग्न थे ।
शुक्राचार्य जी की अनुपस्थिति में तांत्रिक भद्रा ने असुरों को अपने वश में कर लिया । परंतु वह जानता था कि असुरों की शक्ति अभी क्षीण है उसे ऐसा कोई योद्धा चाहिए था जो उसके उद्देश्यों को पूरा कर सके ।
तांत्रिक भद्रा ने पाताल लोक में एक अनुष्ठान प्रारंभ किया जिससे उसे एक महायोद्धा प्राप्त होना था जो उसके सपनों को पूरा कर सके ।
अनुष्ठान में उसने सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई । अनुष्ठान की समाप्ति पर उस कुंड की धधकती हुई ज्वाला से एक विशाल असुर प्रकट हुआ अनल अर्थात अग्नि से प्रकट होने के कारण उसे असुर का नाम अनलासुर रखा ।
वह असुर बड़ा ही विशाल और भयावह था । प्रकट होते ही उसने इतनी जोर से अट्टाहास किया की उसकी ध्वनी से पाताल लोक की भूमि कंपायमान हो गई अपना अनुष्ठान को सफल हुआ देखकर तांत्रिक भाद्रा बहुत ही प्रसन्न हुआ ।
अनालासुर - प्रणाम गुरुदेव मेरे लिए क्या आज्ञा है ! आपने मुझे क्यों प्रकट किया आदेश कीजिए ।
तांत्रिक भद्रा - अमलापुर मेरे पुत्र ! हम असुरों के साथ देवों ने सदैव ही छल किया है ।
हमें उनके छल का प्रतिशत लेना है और अपनी असुर जाति का उत्थान करना है । हम असुर सृष्टि पर शासन करने के सर्वथा योग्य होते हुए भी हम असुरों को पाताल लोक में बंदी बना दिया गया है । जब अधिकार सहजता से प्राप्त न हो तो उसे छीन लेना ही उचित है , यही हमारा धर्म हैं ।
तुम्हें सर्वप्रथम तपस्या करके बल एकत्रित करना होगा और ऐसा वर मांगना होगा के ना तो तुम्हारा वध कोई देवता असुर दानव दैत्य कर पाए और ना ही त्रिदेव ।
तांत्रिक भाद्रा के कहने पर अनलासुर ने ब्रह्मा जी का कठिन तप किया , और मनचाहा वरदान पाया । वरदान पाकर अनलासुर , वापस पाताल लोक आया और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए असुरों की सेना संगठित करने लगा ।
तांत्रिक भद्रा और अनलासुर ने सर्वप्रथम स्वर्ग को अपना लक्ष्य बनाया देवताओं से युद्ध करने के लिए उन्हें आवश्यकता थी एक विशाल सेना की जो अभी उनके पास नहीं थी ।
तांत्रिक भद्रा पूर्व में कामरान से मिल चुका था । वह जानता था के कामरान अत्यन्त महत्वकांक्षी है अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए वह उनका साथ अवश्य देगा । तांत्रिक भद्र जानता था के देवताओं और असुरों के पश्चात यदि कोई शक्तिशाली प्रजाति है तो वह है यक्ष । यक्ष भी उनके साथ मिल गए तब निश्चित ही वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा ।
इसलिए उसने कामरान से भेंट की और उसे आश्वासन दिया यदि वह उनका साथ देता है तो तीनों लोको का शासन उनके हाथ में आएगा तब संपूर्ण यक्षों का राजा उसे बना दिया जाएगा ।
कामरान एक महत्वाकांक्षी , छल और कपट से भरपूर यक्ष था । उसे पता था के वह कितना भी प्रयत्न कर ले परंतु वह संपूर्ण यक्षों का राजा नहीं बन सकता था । परंतु अब उसके सामने तांत्रिक भद्रा अनलासुर के रूप में एक विकल्प था । सो उसने उनका साथ देने का निश्चय किया ।
तांत्रिक भद्रा और अनलासुर की सहायता से कामरान ने एक विशाल यक्ष सेना खड़ी कर दी ।
सर्वप्रथम उसने असुरों की सहायता से खुशी अक्षय नगर के राजा तथा उसके संपूर्ण परिवार और उसके सहायकों को समाप्त कर दिया और स्वयं राजगद्दी पर विराजमान हो गया ।
असूरों की सहायता से कुबेर जी की अलकापुरी को छोड़कर कामरान ने सभी यक्षो के नगरों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया था ।
अलकापुरी कैलाश पर्वत की सीमा भीतर थी इसलिए वहां प्रवेश कर पाना उनके लिए असंभव था ।
अब उसके पास यक्षो की एक विशाल सेना थी ।
यक्षो की सेना और असुरों की सेना को साथ मे लेकर अनलासुर ने स्वर्ग पर भीषण आक्रमण कर दिया ।
बड़ा ही भयंकर संग्राम हुआ परंतु अनलासुर शक्ति के आगे देवताओं की सेना हार गई और उन्हें स्वर्ग छोड़कर जाना पड़ा अनलासुर अब स्वर्ग का अधिपति बन गया था ।
धीरे-धीरे करके उसने संपूर्ण लोकों में अपनी सत्ता स्थापित कर दी थी उसने यज्ञ कार्य धर्म पूजा पाठ आदि सब बंद करवा दिए थे।
कामरान भी अनलासुर की मित्रता प्राप्त कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा था । अब उसे किसी का भी भय नही था ।
अनलासुर एक नरभक्षी था , क्योंकि उसकी उत्पत्ति ऐसे कुंड से हुई थी जिसमें सैकड़ो मनुष्यों की बलि दी गई थी ।
मनुष्य का मांस से उसे अत्यंत प्रिया था । अनलासूर का संग पाकर कामरान भी अब नरभक्षी बन गया था । उसके यक्ष नित्यप्रति किसी ने किसी मनुष्य को पकड़ कर लाते और उसका माँस कामरान को परोसते थे ।
परंतु बुराई का संग सदैव ही बुरा परिणाम देता है । कामरान के साथ भी वही हुआ ।
असुर स्वभाव से ही कामवासना में लिप्त होते है ।
मानव कन्या और अप्सराओ से अब उनका मन भर गया था इसलिए उन्होंने यक्ष कन्याओं को अपनी कामवासना का शिकार बनना शुरू किया ।
पहले वह यक्ष कन्याओं को अपने कामवासना का शिकार बनाते उसके पश्चात् उन्हें खा जाते ।
जिस कारण यक्षो में अब असुरों का भय व्याप्त होने लगा ।
नगर वासियों ने यह सारी बात कामरान को बताई , परंतु कामरान असूरों के विरुद्ध जाकर कुछ भी करना नहीं चाहता था । उसे केवल अपनी सत्ता प्रिय थी जो असुरों का विरोध करने पर जा भी सकती थी ।
कामरान की इसी उदासीनता के कारण सभी यक्ष उसके विरुद्ध एकजुट होने लगे ।
उसके नगर से विद्रोह की आवाज़े उठने लगी उसे पता था कि यदि प्रजा ठान ले तो शासक कितना भी बलवान क्यों ना हो उसका पतन हो ही जाता है । इसलिए उसने इस समस्या के निदान के लिए अनलासुर को संदेश भेजा।
कामरान का संदेश प्रकार अनलासुर ने तांत्रिक भद्रा से भेंट की के अब क्या करना चाहिए इस बारे में बताए
तांत्रिक भद्रा - पुत्र अब हमारा शासन संपूर्ण लोको पर है । केवल यक्षों को छोड़कर अब समय आ गया है उन्हें भी अपने अधीन करने का ।
अभी सृष्टि का केवल एक ही राजा होगा । तुम्हें क्या करना है यह तुम भली-भांति समझ चुके हो ।
अनलासुर - जी गुरुदेव आपने जैसा कहा वैसा ही होगा अब हमें उस मुर्ख कामरान की कोई आवश्यकता नहीं है ।
उसके पश्चात अनलासुर ने कामरान को संदेश भेजा की समस्या का निदान करने के लिए वह स्वयं नगरी में आ रहा है
अनलासुर का संदेश प्रकार कामरान बड़ा ही प्रसन्न हुआ ।
अपने शक्तिशाली मित्र के स्वागत करने के लिए उसने पूरा नगर सजाया । अपनी पत्नी शलाका छोटी कन्या अमृता जिसकी अवस्था 5 वर्ष जितनी होगी और उसका युवा पुत्र भानु सब नगर के मुख्य द्वार पर अनलासुर का स्वागत करने के लिए खड़े हो गए ।
अनलासुर जब उस नगर में आया तो उसकी दृष्टि कामरान की पत्नी शलाका पर गई जो अत्यंत रूपवती थी । उसको देखकर उसके तन - मन में कामवासना का संचार हुआ ।
कामरान अपने मित्र का स्वागत बड़ी भव्यता के साथ किया और अपने महल में उत्तम कक्षा में व्यवस्था की । रात्रि भोज के पश्चात उसने सारी समस्या अनलासुर के सामने रखी ।
कामरान की सारी बातें सुनने के बाद
अनलासुर - हा हा हा हा , यह कोई इतनी विकट समस्या नहीं है , प्रजा तो होती ही है भोगने के लिए , फिर भी मैं तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा ।
परंतु अब तक मैंने तुम्हारी बहुत सहायता की और उसके बदले में मैंने तुमसे कुछ नहीं लिया और तुमने भी मुझे अब तक भेंट रूप में कोई वस्तु नहीं दी इसे क्या कहा जाए ।
कामरान - यह कैसी बातें कर रहे हो मित्र मेरा सब कुछ तो तुम्हारा ही दिया हुआ है, सब पर तुम्हारा अधिकार प्रथम है ।
अनलासुर - अधिकार की बात है तब तो तुम्हारी पत्नी पर भी मेरा अधिकार होना चाहिए । आह ! कितनी सुंदर है जब से उसे देखा है मेरे तन मन में आग सी लग गई है
कामरान क्रोध में भरकर - अनलासुर ! मर्यादा में रहो । शलाका मेरी धर्मपत्नी है उस पर को दृष्टि डालने का तुमने साहस भी कैसे किया ।
कामरान अनलासुर को क्रोध की दृष्टि से देख ही रहा था कि तभी उसे अपनी पत्नी के चीखने चिल्लाने की आवाज आई तो उसने पलट कर देखा उसकी पत्नी शलाका को दो असुर पकडकर ला रहे हैं जो की पूरी तरह से निर्वस्त्र थी ।
असुरों ने शलाका को अनलासुर की गोदी में दे दिया । जिसे उस असुर ने अपनी मजबुत भुजाओ मे जकड लिया । वो चीख रही थी चिल्ला रही थी , अपने पति को देखकर अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगी ।
अपनी पत्नी की ऐसा दशा देखकर कामरान क्रोध में भरकर गर्जना करता हुआ अपनी तलवार लेकर अनलासुर की और बड़ा परंतु तभी अनलासुर ने उसे अपने पाश में बांध दिया ।
अनलासुर - ना ना ना कामरान ऐसी भूल मत करना , तुम्हें समाप्त करने के लिए मुझे एक क्षण भी नहीं लगेगा । चुपचाप इस दृश्य का आनन्द लो , तुम्हे तो यह सब देखकर आनान्द आता था, अब क्या हुआ ।
अनलासुर के पाश में बंधकर कामरान भूमि पर गिर पड़ा अपनी दयनीय दशा देख कर उसकी नेत्रों से अश्रु बहने लगे कतर स्वर में वह अनलासुर से प्रार्थना करने लगा ।
कामरान - अनलासुर छोड़ दो मेरी पत्नी को , कुछ तो विचार करो , तुम तो मेरे मित्र थे इस प्रकार अनाचार मत करो ,दया करो अपने मित्र पर , मैने तूम्हारी इतनी सहायता की उसका यह कैसा प्रतिफल दे रहे हो।
अनलासुर - हा हा हा हा ! मित्र ! किस प्रकार का मित्र ! तुमसे मेरी कोई मित्रता - वित्रता नहीं थी अपनी , ( गोदी में नग्न शलाका जो छूटने का असफल प्यास कर रही थी , उसके स्तनों का मर्दन करते हुए )
तुमने भी तो मेरे साथ मिलकर इस प्रकार का दुसरो के साथ कई बार आनंद लिया है । वही अब यदि मैं तुम्हारे साथ यह कर रहा हूं तो तूम्हे आपत्ति हो रही है । अब यदि एक शब्द भी कुछ और कहा तुम्हारे सामने ही तुम्हारी पत्नी को भोगूंगा ।
अभी यहाँ इतना कुछ हो ही रहा था के कामरान का पुत्र भानु ने उस कक्ष में प्रवेश किया । अपने माता-पिता की ऐसी अवस्था देखकर उसे अत्यंत क्रोध आया ,
वह अपनी तलवार निकाल कर अनलासुर की ओर दौड़ पड़ा के तभी अनलासुर के असुर ने अपना खड़क उसकी और फेंक कर प्रहार किया जिससे कामरान पुत्र भानु का सिर धड़ से अलग हो गया और रक्त का फवारा उठने लगा ।
अपने नेत्रों के सामने अपने पुत्र की ऐसी स्थिति देखकर कामरान जोर से चीख पड़ा नहीं ऽऽऽऽऽऽऽ
और मूर्छित हो गया ।
आज के लिए इतना ही -------
अगला अध्याय शीघ्र ही -----
सभी पाठकों से अनुरोध है के इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
स्वस्थ रहे , प्रसन्न न रहे
धन्यवाद
आपका मित्र - अभिनव
Itna kuch Kamran ke saath hone ke baad bhi woh nahi badla jab tak uske paas kuch nahi tha bada achcha ban gaya tha lekin jaise hi dheere dheere fir se Raaj that aaya apna rang dikhane laga ab dekhte yeh gajendr kia kerta h jisse Kamran ki bhuddhi sahi hoti hअध्याय - 17
अभी यहाँ इतना कुछ हो ही रहा था के कामरान का पुत्र भानु ने उस कक्ष में प्रवेश किया । अपने माता-पिता की ऐसी अवस्था देखकर उसे अत्यंत क्रोध आया , वह अपनी तलवार निकाल कर अनलासुर की ओर दौड़ पड़ा के तभी अनलासुर के असुर ने अपना खड़क उसकी और फेंक कर प्रहार किया जिससे कामरान पुत्र भानु का सिर धड़ से अलग हो गया और रक्त का फवारा उठने लगा । अपने नेत्रों के सामने अपने पुत्र की ऐसी स्थिति देखकर कामरान जोर से चीख पड़ा
नहीं ऽऽऽऽऽऽऽ , और मूर्छित हो गया ।
अब आगे ----------
मूर्छित पड़े कामरान को अनलासुर ने कारागृह में बंद करवा दिया । उस समय मैं ( विरुपाक्ष ) कारागृह का मुख्य प्रभारी था । सारे कारागृह मेरे अधीन थे ।
जिस समय यहां महल में यह सब हो रहा था उसे समय मैं अपने भवन में था । मुझे अपने विश्वास पात्र गुप्तचर द्वारा राजा कामरान के परिवार के साथ हुई सारी घटना ज्ञात हुई और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ के कामरान को कारागृह में डाल दिया गया है ।
सुचना प्राप्त होते ही मै दौड़ता हुआ महल में पहुंचा । वहां पहुंचकर मुझे पता चला की
रानी शलाका की बड़ी पीड़ा दायक मृत्यु हो चुकी थी ।
अपने राजा के कारागृह में बंद होने के कारण और राजा के पुत्र तथा रानी की पीडादायक मृत्यु के कारण , मैं बड़ा दुखी हुआ ।
मुझे अत्यन्त क्रोध भी आया परंतु मैं अनलासुर का सामना करने में सर्वथा असमर्थ था । अब मुझे चिंता थी केवल राजकुमारी अमृता जो एक अबोध बच्ची थी ।
जिसका अभी कोई पता नहीं था , असुर भी उसे ढुंढ रहे थे । ऐसी अवस्था में मेरा प्रथम कर्तव्य था के यदि राजकुमारी जीवित है , तो उसे खोज कर सर्वप्रथम सुरक्षित करना और उसके पश्चात अपने राजा को मुक्त करने की योजना बनाना ।
जब मैं कारागृह पहुंचा तो वहां देखा पूरा कारागृह असुरों के अधिकार में हो गया था और कारागृह के सैनिक उनका हर आदेश का पालन करने के लिए बाध्य थे । जिन्होंने विरोध किया वह सब मारे गए ।
मुझे वहां देखकर असुरों ने मुझे घेर लिया , मुझे वहां विवेक से काम लेना था ,बल से नही , इसलिए मैंने उन असुरों के सामने अपने हाथ जोड़ लिए और कहां मैं तो केवल कारागृह का एक अधिकारी हूं मेरा कर्तव्य राजा के हर आज्ञा का पालन करना है अब यहां के राजा अनलासुर है ।
इसलिए मैं अब उन्हें अपना स्वामी स्वीकार करता हूं । असुर सैनिक मुझे पकड़ कर अनलासुर के पास लेकर गए , मैंने उसे प्रणाम किया और उसके सामने नतमस्तक होकर उन्हें अपना स्वामी स्वीकार किया ।
मेरी बातों पर उसने विश्वास करके मुझे अपना पद वापस दे दिया ।
अब मैं फिर कारागृह में गया वहां मैं असुरों की नजरों से बचकर राजा कामरान से मिला ।
कामरान को अब तक होश आया गया था । अपने जवान बेटे की दर्दनाक मौत और अपनी पत्नी की दुर्दशा से आहत राजा कामरान कैद खाने में दहाडे मार मार कर रो रहा था । मुझे देखकर वह मुझे पुकारने लगा ।
मैंने इशारे से उन्हें शांत कर दिया फिर उचित समय देखकर उनसे से राजकुमारी अमृता के बारे में पूछा ।
परंतु उन्हे बस केवल इतना ही पता था के अमृता अपनी मां के संग अपने कक्ष में थी । उसके पश्चात क्या हुआ वह कहां गई उन्हे कुछ पता नही था ।
कामरान ने मेरे आगे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए राजकुमारी जी को ढूंढ कर बचाने के लिए प्रार्थना की ।
विधि का लेख अजीब है जो कामरान कभी भी जीवन में किसी के आगे झुका नहीं था ।
अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए अहंकार में चूर जिसे अनेको पाप किये वह आज मुझ जैसे एक आदने से सिपाही के आगे अपनी कन्या के लिए हाथ जोड़े खड़ा था ।
असुरों को संदेह न हो जाए इस कारण मैं वहां से शीघ्र ही निकल गया ।
अर्ध रात्रि का प्रहार था , असुरों ने महल में भीषण उत्पात मचाया हुआ था ।
महल की दासीयों की चीख पुकार चारों ओर गूंज रही थी । मुझे क्रोध तो बहुत आ रहा था परंतु मैं भी विवश था ।
मुझ में इतना सामर्थ नहीं था कि मैं हूं उन असूरों का सामना कर सकूं ।
मुझे केवल अपने लक्ष्य राजकुमारी अमृता पर ध्यान केंद्रित करना था ।
मैंने अपनी माया का प्रयोग करते हुए असुर रूप धारण कर , महारानी के कक्ष में प्रवेश किया ।
उस कक्ष का प्रत्येक सामान टूटा फूटा था , ऐसा लग रहा था की वहां कुछ ढूंढा गया है । इस सब से मुझे इतना तो समझ आ गया था असुर भी राजकुमारी अमृता को ढूंढ रहे हैं । तभी मुझे कक्ष के बाहर से कुछ पदचापो की आवाज सुनाई दी ।
मेरी माया उन असुरों को अधिक देर तक भ्रमित नहीं कर सकती थी । इसलिए मैंने वहां से शीघ्र ही निकलने का निश्चय किया ।
अधिकारी होने के कारण मुझे वहां के संपूर्ण गुप्त द्वारों का ज्ञान था । उन असुरो के कक्ष में आने से पूर्व मुझे वहां से निकलना था ।
उस कक्ष में स्थित गुप्त द्वार को खोलकर मैंने उसमें प्रवेश किया और पूर्ववत उसे वैसे ही बंद कर दिया । गुप्त द्वार में प्रवेश करने के बाद नीचे की ओर सीढ़ियां उतरते हुए जब मैं वहां पहुंचा तो वहां मैने राजकुमारी अमृता को मूर्छित अवस्था में देखा ।
हो सकता है रानी ने असुरों को देख लिया हो और कुछ अनहोनी होने की आशंका के कारण उन्होंने राजकुमारी अमृता को यहां छुपा दिया हो ।
मैंने राजकुमारी अमृता को अपनी गोदी में उठाया और गुप्त रास्ते से होते हुए महल के बाहर आ गया । रात्रि का अंधेरा मेरा सहायक हुआ ।
पूरा नगर अब असुर के अधिकार में था ।
इसलिए मैं नगर से बाहर अपने कुछ सहायकों को लेकर अमृता को लेकर निकल गया और निकट वन में एक गुफा में राजकुमारी अमृता को रखकर और कुछ सहायको को वहाँ छोडा ।
और कुछ सहायको अपने विश्वासपात्रों को , परिवारजनो को और असुरों द्वारा पीडित यक्षों को यहाँ एकत्रित करने का कार्य सौंपकर उस स्थान को यक्ष माया से सुरक्षित करके वापस महल पहुंचा ।
अब मुझे राजा कामरान को भी कारागृह से छुड़ाना था । महल पहुंचकर मैं वापस कारागृह में पहुंचा , वहां देखा के कारागृह में कैद बंदियो को असुर घोर यातना दे रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे ।
रात्रि का चौथा प्रहार शुरू हो गया था सुबह होने से पहले मुझे किसी भी प्रकार यहां से निकलना था ।
मैंने उन असुरों के लिए अपने सेवकों से कहकर मदिरा मंगवाई , और चुपके से उसमें विष मिला दिया ।
विष मिले हुए मदिरा को कारागार में स्थित अभी असुरों को पिलाया । थोड़ी ही देर में उस विष ने अपना कार्य किया , उन सभी असुरों की मृत्यु हो गई ।
इससे पहले की किसी और को पता चलता मैं कारागृह से सभी कैदियों को और राजा कामरान को लेकर गुप्त रास्ते से बाहर निकाल कर उसी स्थान पर पहुंचा जहां मैंने राजकुमारी अमृता को रखा था ।
अपनी पुत्री को जीवित देखकर कामरान बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहा था।
वह वन नगर के निकट था , सुबह हो गई थी सूरज अपना प्रकाश चारों ओर बिखर रहा था , परंतु हम सबके जीवन में तो घोर अंधकार छा गया था । हमारा सब कुछ समाप्त हो गया था ।
राजा कामरान के कारागृह से निकलने का और मेरे विश्वासघात का अब तो अनलासुर को पता चल चुका होगा । उसने कामरान को ढुंढने के लिए अपने असुरों को चारो ओर फैला दिए होंगे , यदी हम सब उनके हाथ लगे तो हमारा बचना असम्भव होगा ।
इसलिए हमें वहां से शीघ्र से शीघ्र निकलना था । अब तक हमारे परिवारजन ,सहायक, और सभी वहाँ एकत्रित हो गये थे जिनकी संखया लगभग 1000 होगी ।
अब और अधिक समय तक इतने सारे लोगो के साथ हम यहाँ नही रूक सकते थे । परंतु प्रश्न था के अब हम सब उन असुरो से बचकर अब हम कहां जाएं ।
अब केवल एक ही जगह हमारे लिए शेष बची थी , जहां हम अपने प्राण बचाकर छुप सकते थे और वह जगह थी कुबेर जी की अलकापुरी । वहां असुर प्रवेश नहीं कर सकते थे इसलिए हम हिमालय के बर्फीली रास्तों से होते हुए महाराज कुबेर जी की नगरी अलकापुरी पहुंचे ।
कामरान को देखकर महाराज कुबेर पहले तो बड़े क्रोधित हुए , परंतु उनका हृदय बड़ा विशाल है , इसलिए तो वह भगवान भोलेनाथ के मित्र कहलाते हैं ।
कामरान ने रोते हुए उनके चरण पकड़ लिए और बार-बार क्षमा याचना करने लगे । महाराज कुबेर को जब असुरों द्वारा किया गया विश्वासघात और नृशंषता के बारे में और साथ ही साथ कामरान के परिवार के साथ जो हुआ उसका पता चला तो उन्होंने कामरान को क्षमा कर दिया क्योंकि अपने कर्मों का दंड व भुगत चुका था ।
वरदान के कारण देवता भी अनलासुर का सामना करने में सक्षम नहीं थे । अपने यक्षो के साथ असुरों द्वारा की गई बर्बरता के कारण महाराज कुबेर को भीषण क्रोध आया परंतु वह सीधे-सीधे अनलासुर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे
इसलिए उन्होंने इस बारे में भगवान भोलेनाथ से परामर्श लेना उचित समझा ।
सारी बातों से अवगत होने के पश्चात् उन्होने कहाँ के यक्षों के साथ इस समय जो कुछ भी हो रहा है , वो उनके का कर्मो का दंड है ।
समय आने पर सभी को अपने कर्मों का भोगना पड़ता है ।
फिर कुछ सोचते हुए भगवान भोलेनाथ ने यहां यक्षों की एक नगरी बसाने का परामर्श दिया ।
क्योंकि पृथ्वी का यह भूखंड उन्होंने ऐसे सुरक्षा कवच से सुरक्षित कर रखा है के जहां उनकी इच्छा के बिना यहाँ कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता ।
पश्चात महादेव की ही कृपा से कामरान और हम सभी यक्षों ने मिलकर यहां एक नगरी बसाई जिसका नाम यक्षपुर रखा ।
आपने मुझसे जो कुछ पूछा था वह सब मैं विस्तार पूर्वक कह दिया इतना कहकर विरुपाक्ष चुप हो गया ।
गजेंद्र - मित्र ! तुम्हारे कथन से अनलासुर की शक्ति और क्रुरता के बारे में ज्ञात हुआ और साथ ही साथ कामरान के बारे में सुनकर ज्ञात हुआ के लोभ मनुष्य के पतन का कारण होता है ।
लोभ में पड़कर कामरान ने दुष्ट से मित्रता की और अनेकों पाप कर्म किए ।
उन्ही पाप कर्मों का दंड उसे भुगतना पड़ा ।
परंतु अभी मेरे मन में एक प्रश्न उठ रहा है मित्र ! तुमने कामरान के जीवन की रक्षा की , राजकुमारी को ढूंढ कर उसके प्राण बचाए और साथ ही साथ यह नगर बसाने में भी तुम्हारा बड़ा योगदान है ।
तुम सबको कुबेर जी के पास ना ले जाते तो यह नगर भी नहीं बसता । तुम्हारे इतने उपकार के पश्चात भी तुम्हें केवल नगर द्वार का प्रहरी बना कर रख दिया ।
लगता है राजा कामरान ने इतना कुछ भुगतने की पश्चात भी सुधार नहीं आया ।
विरुपाक्ष - मित्र शुरू शुरू में तो राजा कामरान मेरा बड़ा मान करता था । मेरे उनसे मित्रवत संबंध हो गए थे । मुझे यहाँ के महामंत्री का पद दिया गया था ।
परंतु जैसे-जैसे नगर बसता गया राजा को चापलूससो ने राजा को घेर लिया उन्होंने अपने फायदे के लिए मेरे विरुद्ध राजा के कान भरने शुरू कर दिए ।
अब राजा का व्यवहार मेरे पति बदलने लगा था मैं भी सब समझने लगा था । पुनः राजगद्दी पाने के पश्चात , राजा कामरान को फिर अहंकार ने ग्रसित कर लिया ।
राजा के चाटुकार मुझे राजा के समीप नहीं देखना चाहते थे , इसलिए मुझे नगर के रक्षक के रूप में भेज दिया जिसे मैने अपना कर्तव्य समझकर स्वीकार कर लिया मुझे इसका कोई खेद नहीं है ।
द्वार रक्षक ही सही मैं अपने नगर वासियों के कुछ तो काम आ रहा हूं बस इसी भाव से मैं प्रसन्न हूं ।
बातों ही बातों में सारी रात्रि बीत चुकी थी , सूर्योदय की लालिमा आकाश में छाई हुई थी ।
गजेंद्र - तुम बहुत अच्छे हो मित्र ! देखो बातों ही बातों में सारी रात्रि बीत गई अब हमें नगर में चलना चाहिए , मैं भी तुम्हारे राजा कामरान से मिलने के लिए बड़ा उत्सुक हूं ।
विरुपाक्ष - परंतु मित्र तुम्हारा राजा के सम्मुख जाना उचित नहीं है राजा कामरान का कोई पता नहीं कब क्या कर दे मैं तुम्हारी सुरक्षा को खतरे में नहीं डालना चाहता ।
गजेंद्र - मित्र ! क्या अभी भी तुम समझते हो कि तुम्हारा राजा कामरान मेरा कुछ बिगाड़ सकता है तुम निश्चिंत रहो समय आ गया है कि कामरान के अहंकार का समुल नाश हो जाए अन्यथा कामरान का ही नाश हो जाएगा । व्यर्थ की चिंता को छोड़ो और चलो मुझे अपने राजा के सन्मुख ले चलो ।
विरुपाक्ष भी गजेंद्र के सामर्थ को जान गया था ।
तब तक बाकी के सैनिकों को भी होश आ गया था , गजेंद्र ने अपनी प्रकृति की ऊर्जा का प्रयोग करते हुए सभी सैनिकों को स्वस्थ कर दिया था ।
अपने सैनिकों को पूर्ववत देखकर विरुपाक्ष बड़ा प्रसन्न हुआ । उन सैनिकों को द्वार पर तैनात करके गजेंद्र को लेकर पथरीले रास्ते से होता हुआ नगर की ओर चल पड़ा ।
आज के लिए इतना ही ------
अगला अध्याय जल्द ही -------
स्वस्थ रहे ---प्रसन्न रहे
सभी पाठकों से अनुरोध है यह इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
धन्यवाद
आपका मित्र --- अभिनव
अध्याय - 17
अभी यहाँ इतना कुछ हो ही रहा था के कामरान का पुत्र भानु ने उस कक्ष में प्रवेश किया । अपने माता-पिता की ऐसी अवस्था देखकर उसे अत्यंत क्रोध आया , वह अपनी तलवार निकाल कर अनलासुर की ओर दौड़ पड़ा के तभी अनलासुर के असुर ने अपना खड़क उसकी और फेंक कर प्रहार किया जिससे कामरान पुत्र भानु का सिर धड़ से अलग हो गया और रक्त का फवारा उठने लगा । अपने नेत्रों के सामने अपने पुत्र की ऐसी स्थिति देखकर कामरान जोर से चीख पड़ा
नहीं ऽऽऽऽऽऽऽ , और मूर्छित हो गया ।
अब आगे ----------
मूर्छित पड़े कामरान को अनलासुर ने कारागृह में बंद करवा दिया । उस समय मैं ( विरुपाक्ष ) कारागृह का मुख्य प्रभारी था । सारे कारागृह मेरे अधीन थे ।
जिस समय यहां महल में यह सब हो रहा था उसे समय मैं अपने भवन में था । मुझे अपने विश्वास पात्र गुप्तचर द्वारा राजा कामरान के परिवार के साथ हुई सारी घटना ज्ञात हुई और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ के कामरान को कारागृह में डाल दिया गया है ।
सुचना प्राप्त होते ही मै दौड़ता हुआ महल में पहुंचा । वहां पहुंचकर मुझे पता चला की
रानी शलाका की बड़ी पीड़ा दायक मृत्यु हो चुकी थी ।
अपने राजा के कारागृह में बंद होने के कारण और राजा के पुत्र तथा रानी की पीडादायक मृत्यु के कारण , मैं बड़ा दुखी हुआ ।
मुझे अत्यन्त क्रोध भी आया परंतु मैं अनलासुर का सामना करने में सर्वथा असमर्थ था । अब मुझे चिंता थी केवल राजकुमारी अमृता जो एक अबोध बच्ची थी ।
जिसका अभी कोई पता नहीं था , असुर भी उसे ढुंढ रहे थे । ऐसी अवस्था में मेरा प्रथम कर्तव्य था के यदि राजकुमारी जीवित है , तो उसे खोज कर सर्वप्रथम सुरक्षित करना और उसके पश्चात अपने राजा को मुक्त करने की योजना बनाना ।
जब मैं कारागृह पहुंचा तो वहां देखा पूरा कारागृह असुरों के अधिकार में हो गया था और कारागृह के सैनिक उनका हर आदेश का पालन करने के लिए बाध्य थे । जिन्होंने विरोध किया वह सब मारे गए ।
मुझे वहां देखकर असुरों ने मुझे घेर लिया , मुझे वहां विवेक से काम लेना था ,बल से नही , इसलिए मैंने उन असुरों के सामने अपने हाथ जोड़ लिए और कहां मैं तो केवल कारागृह का एक अधिकारी हूं मेरा कर्तव्य राजा के हर आज्ञा का पालन करना है अब यहां के राजा अनलासुर है ।
इसलिए मैं अब उन्हें अपना स्वामी स्वीकार करता हूं । असुर सैनिक मुझे पकड़ कर अनलासुर के पास लेकर गए , मैंने उसे प्रणाम किया और उसके सामने नतमस्तक होकर उन्हें अपना स्वामी स्वीकार किया ।
मेरी बातों पर उसने विश्वास करके मुझे अपना पद वापस दे दिया ।
अब मैं फिर कारागृह में गया वहां मैं असुरों की नजरों से बचकर राजा कामरान से मिला ।
कामरान को अब तक होश आया गया था । अपने जवान बेटे की दर्दनाक मौत और अपनी पत्नी की दुर्दशा से आहत राजा कामरान कैद खाने में दहाडे मार मार कर रो रहा था । मुझे देखकर वह मुझे पुकारने लगा ।
मैंने इशारे से उन्हें शांत कर दिया फिर उचित समय देखकर उनसे से राजकुमारी अमृता के बारे में पूछा ।
परंतु उन्हे बस केवल इतना ही पता था के अमृता अपनी मां के संग अपने कक्ष में थी । उसके पश्चात क्या हुआ वह कहां गई उन्हे कुछ पता नही था ।
कामरान ने मेरे आगे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए राजकुमारी जी को ढूंढ कर बचाने के लिए प्रार्थना की ।
विधि का लेख अजीब है जो कामरान कभी भी जीवन में किसी के आगे झुका नहीं था ।
अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए अहंकार में चूर जिसे अनेको पाप किये वह आज मुझ जैसे एक आदने से सिपाही के आगे अपनी कन्या के लिए हाथ जोड़े खड़ा था ।
असुरों को संदेह न हो जाए इस कारण मैं वहां से शीघ्र ही निकल गया ।
अर्ध रात्रि का प्रहार था , असुरों ने महल में भीषण उत्पात मचाया हुआ था ।
महल की दासीयों की चीख पुकार चारों ओर गूंज रही थी । मुझे क्रोध तो बहुत आ रहा था परंतु मैं भी विवश था ।
मुझ में इतना सामर्थ नहीं था कि मैं हूं उन असूरों का सामना कर सकूं ।
मुझे केवल अपने लक्ष्य राजकुमारी अमृता पर ध्यान केंद्रित करना था ।
मैंने अपनी माया का प्रयोग करते हुए असुर रूप धारण कर , महारानी के कक्ष में प्रवेश किया ।
उस कक्ष का प्रत्येक सामान टूटा फूटा था , ऐसा लग रहा था की वहां कुछ ढूंढा गया है । इस सब से मुझे इतना तो समझ आ गया था असुर भी राजकुमारी अमृता को ढूंढ रहे हैं । तभी मुझे कक्ष के बाहर से कुछ पदचापो की आवाज सुनाई दी ।
मेरी माया उन असुरों को अधिक देर तक भ्रमित नहीं कर सकती थी । इसलिए मैंने वहां से शीघ्र ही निकलने का निश्चय किया ।
अधिकारी होने के कारण मुझे वहां के संपूर्ण गुप्त द्वारों का ज्ञान था । उन असुरो के कक्ष में आने से पूर्व मुझे वहां से निकलना था ।
उस कक्ष में स्थित गुप्त द्वार को खोलकर मैंने उसमें प्रवेश किया और पूर्ववत उसे वैसे ही बंद कर दिया । गुप्त द्वार में प्रवेश करने के बाद नीचे की ओर सीढ़ियां उतरते हुए जब मैं वहां पहुंचा तो वहां मैने राजकुमारी अमृता को मूर्छित अवस्था में देखा ।
हो सकता है रानी ने असुरों को देख लिया हो और कुछ अनहोनी होने की आशंका के कारण उन्होंने राजकुमारी अमृता को यहां छुपा दिया हो ।
मैंने राजकुमारी अमृता को अपनी गोदी में उठाया और गुप्त रास्ते से होते हुए महल के बाहर आ गया । रात्रि का अंधेरा मेरा सहायक हुआ ।
पूरा नगर अब असुर के अधिकार में था ।
इसलिए मैं नगर से बाहर अपने कुछ सहायकों को लेकर अमृता को लेकर निकल गया और निकट वन में एक गुफा में राजकुमारी अमृता को रखकर और कुछ सहायको को वहाँ छोडा ।
और कुछ सहायको अपने विश्वासपात्रों को , परिवारजनो को और असुरों द्वारा पीडित यक्षों को यहाँ एकत्रित करने का कार्य सौंपकर उस स्थान को यक्ष माया से सुरक्षित करके वापस महल पहुंचा ।
अब मुझे राजा कामरान को भी कारागृह से छुड़ाना था । महल पहुंचकर मैं वापस कारागृह में पहुंचा , वहां देखा के कारागृह में कैद बंदियो को असुर घोर यातना दे रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे ।
रात्रि का चौथा प्रहार शुरू हो गया था सुबह होने से पहले मुझे किसी भी प्रकार यहां से निकलना था ।
मैंने उन असुरों के लिए अपने सेवकों से कहकर मदिरा मंगवाई , और चुपके से उसमें विष मिला दिया ।
विष मिले हुए मदिरा को कारागार में स्थित अभी असुरों को पिलाया । थोड़ी ही देर में उस विष ने अपना कार्य किया , उन सभी असुरों की मृत्यु हो गई ।
इससे पहले की किसी और को पता चलता मैं कारागृह से सभी कैदियों को और राजा कामरान को लेकर गुप्त रास्ते से बाहर निकाल कर उसी स्थान पर पहुंचा जहां मैंने राजकुमारी अमृता को रखा था ।
अपनी पुत्री को जीवित देखकर कामरान बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहा था।
वह वन नगर के निकट था , सुबह हो गई थी सूरज अपना प्रकाश चारों ओर बिखर रहा था , परंतु हम सबके जीवन में तो घोर अंधकार छा गया था । हमारा सब कुछ समाप्त हो गया था ।
राजा कामरान के कारागृह से निकलने का और मेरे विश्वासघात का अब तो अनलासुर को पता चल चुका होगा । उसने कामरान को ढुंढने के लिए अपने असुरों को चारो ओर फैला दिए होंगे , यदी हम सब उनके हाथ लगे तो हमारा बचना असम्भव होगा ।
इसलिए हमें वहां से शीघ्र से शीघ्र निकलना था । अब तक हमारे परिवारजन ,सहायक, और सभी वहाँ एकत्रित हो गये थे जिनकी संखया लगभग 1000 होगी ।
अब और अधिक समय तक इतने सारे लोगो के साथ हम यहाँ नही रूक सकते थे । परंतु प्रश्न था के अब हम सब उन असुरो से बचकर अब हम कहां जाएं ।
अब केवल एक ही जगह हमारे लिए शेष बची थी , जहां हम अपने प्राण बचाकर छुप सकते थे और वह जगह थी कुबेर जी की अलकापुरी । वहां असुर प्रवेश नहीं कर सकते थे इसलिए हम हिमालय के बर्फीली रास्तों से होते हुए महाराज कुबेर जी की नगरी अलकापुरी पहुंचे ।
कामरान को देखकर महाराज कुबेर पहले तो बड़े क्रोधित हुए , परंतु उनका हृदय बड़ा विशाल है , इसलिए तो वह भगवान भोलेनाथ के मित्र कहलाते हैं ।
कामरान ने रोते हुए उनके चरण पकड़ लिए और बार-बार क्षमा याचना करने लगे । महाराज कुबेर को जब असुरों द्वारा किया गया विश्वासघात और नृशंषता के बारे में और साथ ही साथ कामरान के परिवार के साथ जो हुआ उसका पता चला तो उन्होंने कामरान को क्षमा कर दिया क्योंकि अपने कर्मों का दंड व भुगत चुका था ।
वरदान के कारण देवता भी अनलासुर का सामना करने में सक्षम नहीं थे । अपने यक्षो के साथ असुरों द्वारा की गई बर्बरता के कारण महाराज कुबेर को भीषण क्रोध आया परंतु वह सीधे-सीधे अनलासुर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे
इसलिए उन्होंने इस बारे में भगवान भोलेनाथ से परामर्श लेना उचित समझा ।
सारी बातों से अवगत होने के पश्चात् उन्होने कहाँ के यक्षों के साथ इस समय जो कुछ भी हो रहा है , वो उनके का कर्मो का दंड है ।
समय आने पर सभी को अपने कर्मों का भोगना पड़ता है ।
फिर कुछ सोचते हुए भगवान भोलेनाथ ने यहां यक्षों की एक नगरी बसाने का परामर्श दिया ।
क्योंकि पृथ्वी का यह भूखंड उन्होंने ऐसे सुरक्षा कवच से सुरक्षित कर रखा है के जहां उनकी इच्छा के बिना यहाँ कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता ।
पश्चात महादेव की ही कृपा से कामरान और हम सभी यक्षों ने मिलकर यहां एक नगरी बसाई जिसका नाम यक्षपुर रखा ।
आपने मुझसे जो कुछ पूछा था वह सब मैं विस्तार पूर्वक कह दिया इतना कहकर विरुपाक्ष चुप हो गया ।
गजेंद्र - मित्र ! तुम्हारे कथन से अनलासुर की शक्ति और क्रुरता के बारे में ज्ञात हुआ और साथ ही साथ कामरान के बारे में सुनकर ज्ञात हुआ के लोभ मनुष्य के पतन का कारण होता है ।
लोभ में पड़कर कामरान ने दुष्ट से मित्रता की और अनेकों पाप कर्म किए ।
उन्ही पाप कर्मों का दंड उसे भुगतना पड़ा ।
परंतु अभी मेरे मन में एक प्रश्न उठ रहा है मित्र ! तुमने कामरान के जीवन की रक्षा की , राजकुमारी को ढूंढ कर उसके प्राण बचाए और साथ ही साथ यह नगर बसाने में भी तुम्हारा बड़ा योगदान है ।
तुम सबको कुबेर जी के पास ना ले जाते तो यह नगर भी नहीं बसता । तुम्हारे इतने उपकार के पश्चात भी तुम्हें केवल नगर द्वार का प्रहरी बना कर रख दिया ।
लगता है राजा कामरान ने इतना कुछ भुगतने की पश्चात भी सुधार नहीं आया ।
विरुपाक्ष - मित्र शुरू शुरू में तो राजा कामरान मेरा बड़ा मान करता था । मेरे उनसे मित्रवत संबंध हो गए थे । मुझे यहाँ के महामंत्री का पद दिया गया था ।
परंतु जैसे-जैसे नगर बसता गया राजा को चापलूससो ने राजा को घेर लिया उन्होंने अपने फायदे के लिए मेरे विरुद्ध राजा के कान भरने शुरू कर दिए ।
अब राजा का व्यवहार मेरे पति बदलने लगा था मैं भी सब समझने लगा था । पुनः राजगद्दी पाने के पश्चात , राजा कामरान को फिर अहंकार ने ग्रसित कर लिया ।
राजा के चाटुकार मुझे राजा के समीप नहीं देखना चाहते थे , इसलिए मुझे नगर के रक्षक के रूप में भेज दिया जिसे मैने अपना कर्तव्य समझकर स्वीकार कर लिया मुझे इसका कोई खेद नहीं है ।
द्वार रक्षक ही सही मैं अपने नगर वासियों के कुछ तो काम आ रहा हूं बस इसी भाव से मैं प्रसन्न हूं ।
बातों ही बातों में सारी रात्रि बीत चुकी थी , सूर्योदय की लालिमा आकाश में छाई हुई थी ।
गजेंद्र - तुम बहुत अच्छे हो मित्र ! देखो बातों ही बातों में सारी रात्रि बीत गई अब हमें नगर में चलना चाहिए , मैं भी तुम्हारे राजा कामरान से मिलने के लिए बड़ा उत्सुक हूं ।
विरुपाक्ष - परंतु मित्र तुम्हारा राजा के सम्मुख जाना उचित नहीं है राजा कामरान का कोई पता नहीं कब क्या कर दे मैं तुम्हारी सुरक्षा को खतरे में नहीं डालना चाहता ।
गजेंद्र - मित्र ! क्या अभी भी तुम समझते हो कि तुम्हारा राजा कामरान मेरा कुछ बिगाड़ सकता है तुम निश्चिंत रहो समय आ गया है कि कामरान के अहंकार का समुल नाश हो जाए अन्यथा कामरान का ही नाश हो जाएगा । व्यर्थ की चिंता को छोड़ो और चलो मुझे अपने राजा के सन्मुख ले चलो ।
विरुपाक्ष भी गजेंद्र के सामर्थ को जान गया था ।
तब तक बाकी के सैनिकों को भी होश आ गया था , गजेंद्र ने अपनी प्रकृति की ऊर्जा का प्रयोग करते हुए सभी सैनिकों को स्वस्थ कर दिया था ।
अपने सैनिकों को पूर्ववत देखकर विरुपाक्ष बड़ा प्रसन्न हुआ । उन सैनिकों को द्वार पर तैनात करके गजेंद्र को लेकर पथरीले रास्ते से होता हुआ नगर की ओर चल पड़ा ।
आज के लिए इतना ही ------
अगला अध्याय जल्द ही -------
स्वस्थ रहे ---प्रसन्न रहे
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धन्यवाद
आपका मित्र --- अभिनव