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Fantasy 'सुप्रीम' एक रहस्यमई सफर

dhparikh

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#133.

तभी राक्षस ने अपना भेद खुलते देख, त्रिशाल पर हमला कर दिया।

वह मुंह फाड़कर तेजी से त्रिशाल की ओर आया।

“ऊँऽऽऽऽऽऽऽऽ!” त्रिशाल के मुंह से जैसे ही ऊँ का पवित्र शब्द निकला, पानी की लहरें गोल-गोल घूमती हुई उस राक्षस की ओर चल दी।

उस राक्षस ने अपनी पूरी जिंदगी में इस प्रकार की किसी शक्ति का अनुभव नहीं किया था, इसलिये वह समझ नहीं पाया कि इस शक्ति से बचना कैसे है? और इससे पहले कि वह कुछ समझता, पानी की लहरें उसके शरीर के चारो ओर लिपट गईं।

लहरों ने अब राक्षस का शरीर किसी मंथानी की तरह पानी में मंथना शुरु कर दिया।

राक्षस बार-बार उन लहरों से बचने की कोशिश कर रहा था, पर वह उन लहरों के अंदर से निकल नहीं पा रहा था।

कुछ ही देर में राक्षस बेहोश होकर वहीं झील की तली में गिर गया।
राक्षस के बेहोश होते ही वह ध्वनि ऊर्जा लहरों से गायब हो गई।

लहरें अब पहले की तरह सामान्य हो गयीं थीं।

“इसे मारना नहीं है क्या? जो सिर्फ बेहोश करके छोड़ दिया।” कलिका ने त्रिशाल से पूछा।

“अगर इसे बिना मारे ही हमारा काम चल सकता है, तो मारने की जरुरत क्या है? और वैसे भी तुम्हें पता है कि हमें सिर्फ कालबाहु चाहिये।” त्रिशाल ने कलिका को समझाते हुए कहा।

तभी वातावरण में एक स्त्री की तेज आवाज सुनाई दी- “कालबाहु तक तुम कभी नहीं पहुंच पाओगे।”

“लगता है हमें कोई कहीं से देख रहा है?” कलिका ने सतर्क होते हुए कहा।

“कौन हो तुम?” त्रिशाल ने तेज आवाज में पूछा।

पानी के अंदर होने के बाद भी कलिका और त्रिशाल आसानी से उस रहस्यमय शक्ति से बात कर ले रहे थे।

“मैं कालबाहु की माँ ‘विद्युम्ना’ हूं, मेरे होते हुए तुम कालबाहु तक कभी नहीं पहुंच सकते। भले ही तुमने अपनी विचित्र शक्तियों से ‘दीर्घमुख’ को बेहोश कर दिया हो, पर तुम कालबाहु को कभी परजित नहीं कर पाओगे। उसे देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। मैं कहती हूं कि चले जाओ यहां से। अभी भी तुम्हारे पास यहां से बच निकलने का एक मौका है।”

विद्युम्ना ने अपनी गरजदार आवाज से त्रिशाल और कलिका को डराने की कोशिश की।

“सबसे पहले तो मैं आपको प्रणाम करती हूं देवी विद्युम्ना।” कलिका ने राक्षसी को भी सम्मान देते हुए कहा-

“मुझे पता है कि अपनी संतान का वियोग क्या हो सकता है? आप भले ही राक्षसकुल की हों, पर आप भी एक माँ हैं, और माँ का स्थान किसी भी लोक में शीर्ष पर होता है। हमारी आपके पुत्र से कोई सीधी शत्रुता नहीं है, हम भी यहां पर किसी को दिया वचन निभाने ही आये हैं।

"जिस प्रकार से आप अपने पुत्र की रक्षा कर रहीं है, ठीक उसी प्रकार से हम भी अपनी पुत्री की प्राणरक्षा के लिये यहां पर आये हैं। इसलिये कृपा करके हमारा मार्ग मत अवरुद्ध करें और हमें कालबाहु को सौंप दें। हम आपसे वादा करते हैं कि ऐसी स्थिति में कालबाहु का हम कोई अनिष्ट नहीं होने देंगे?”

“तुम लोग अलग हो, तुम देवताओं से भिन्न बातें करते हो, तुमने दीर्घमुख को भी जान से नहीं मारा, तुम कालबाहु को भी क्षमा करने को तैयार हो। आखिर तुम लोग हो कौन? और बिना शत्रुता यहां पर क्या करने आये हो?” इस बार विद्युम्ना की आवाज थोड़ी धीमी थी, शायद वह इन दोनों के व्यवहार से आकृष्ट हो गयी थी।

“देवी विद्युम्ना हम देवता नहीं हैं, हम साधारण मनुष्य हैं, परंतु हम महर्षि विश्वाकु को दिये अपने वचन से बंधे हैं।"

त्रिशाल ने नम्र स्वर में कहा-“आपके पुत्र कालबाहु ने महर्षि विश्वाकु के दोनों पुत्र और पत्नि को अकारण ही मार दिया। जिससे क्रोधित होकर महर्षि विश्वाकु ने हमें आपके पुत्र को पकड़कर या मारकर लाने को कहा। हम इसीलिये यहां आये है।”

त्रिशाल के शब्द सुनकर विद्युम्ना कुछ क्षणों के लिये शांत होकर कुछ सोचने लगी और फिर बोली-

“तुम लोग शुद्ध हो, तुम्हारी भावनाएं और शक्तियां भी शुद्ध हैं, तुम देवताओं और राक्षसों दोनों के ही साथ समान व्यवहार करते हो। यह बहुत ही अच्छी बात है, ऐसा शायद कोई मनुष्य ही कर सकता है क्यों कि देवता तो हमेशा छल से ही काम लेते हैं। परंतु मैं तुम्हें अपने पुत्र को नहीं सौंप सकती। मैं अब तुम लोगों से ज्यादा बात भी नहीं कर सकती, क्यों कि तुम लोग मेरे व्यवहार को भी भ्रमित कर रहे हो।

"तुम जो करने आये हो, उसकी कोशिश करो और मैं अपना धर्म निभाती हूं, पर हां अगर मैंने तुम्हें पराजित किया तो मैं तुम्हें मारुंगी नहीं, ये मेरा तुमसे वादा है। मुझे लगता है कि तुम दोनों भविष्य में पृथ्वी पर एक ऐसे राज्य की स्थापना करोगे, जहां पर देवताओं और राक्षसों को समान अधिकार प्राप्त होंगे। वहां पर राक्षसों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जायेगा।....सदैव शुद्ध रहो...और अपनी आत्मा में शुद्धता का वहन करते रहो, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।” यह कहकर विद्युम्ना की आवाज आनी बंद हो गयी।

विद्युम्ना की बातें सुनकर त्रिशाल और कलिका एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

“त्रिशाल, देवी विद्युम्ना तो समस्त राक्षसों से भिन्न दिख रहीं हैं...क्या हम लोग कालबाहु को पकड़ कर सही करने जा रहे हैं” कलिका के चेहरे पर विद्युम्ना की बातों को सुन आश्चर्य के भाव थे।

“तुम एक बात भूल रही हो विद्युम्ना कि देवता, राक्षस, दैत्य, दानव,गंधर्व सहित सभी जीव-जंतु महर्षि कश्यप की ही संताने हैं।

"महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं से विवाह किया था। जिसमें अदिति से देवता, दिति से दैत्य, दनु से दानव, सुरसा से राक्षस, काष्ठा से अश्व, अरिष्ठा से गंधर्व, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरा गण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन गृध्र, सुरभि से गौव महिष, सरमा से पशु और तिमि से जलीय जंतुओं की उत्पत्ति हुई थी।“

“अगर इस प्रकार से देखा जाये तो सभी के पास समान अधिकार होने चाहिये थे, परंतु देवताओं ने सदैव राक्षसों को पाताल देकर स्वयं देवलोक में विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत किया है। इसलिये कालांतर में राक्षस हमेशा शक्ति प्राप्त करके देवताओं को हराने की कोशिश करते रहें हैं।

"यहां ये जरुर ध्यान रखना कि देवताओं का मतलब ‘त्रि..देव’ से नहीं है। त्रि..देव देवताओं से ऊपर हैं। देवता और राक्षस दोनों ही उनकी की पूजा करते हैं। त्रिदेव ने मनुष्य को इन्हीं सबमें संतुलन बनाये रखने के लिये उत्पन्न किया था।

“अब रही बात देवी विद्युम्ना की, तो उनमें अलग भावों का दिखना कोई विशेष बात नहीं है, बहुत से ऐसे राक्षस रहे, जो अपने बुद्धि और ज्ञान के लिये हमारे समाज में पूजे भी जाते रहें हैं। महाभारत काल की देवी हिडिम्बा के बारे में सभी जानते हैं। इसलिये हमें अपने लक्ष्य पर अडिग रहना चाहिये। हां कालबाहु को पकड़ने के बाद, मैं इस विषय पर ध्यान अवश्य दूंगा, और एक शांति लोक की स्थापना करुंगा, जहां सभी के पास समान अधिकार होंगे।”

कलिका ध्यान से त्रिशाल की बातें सुन रही थी, उसने धीरे से सिर हिलाकर अपनी सहमति दी।

दोनों फिर राक्षसलोक का द्वार ढूंढने के लिये आगे की ओर बढ़ गये। कुछ आगे चलने पर कलिका को पानी का रंग कुछ अलग सा प्रतीत हुआ।

“ये आगे पानी का रंग नीले से काला क्यों नजर आ रहा है।” त्रिशाल ने कहा।

“रुक जाओ त्रिशाल, मुझे लग रहा है कि शायद वहां पानी में जहर मिला हुआ है।” कलिका ने त्रिशाल का रोकते हुए कहा।

तभी वह काला पानी एक आकृति का रुप धारण करने लगा।

कुछ ही देर में वह काली आकृति एक विशाल अजगर के रुप में परिवर्तित हो गयी।

अजगर ने त्रिशाल और कलिका को अपनी लंबी सी पूंछ में जकड़ लिया।

पर इससे पहले कि अजगर त्रिशाल और कलिका को हानि पहुंचा पाता, कलिका के हाथों से एक सफेद रंग की रोशनी निकली और अजगर के चेहरे के आसपास फैल गयी।

अचानक से अजगर का दम घुटने लगा और उसकी पकड़ त्रिशाल और कलिका के शरीर पर ढीली पड़ गयी।

अजगर की पकड़ ढीली पड़ते ही दोनों अजगर की पकड़ से बाहर आ गये। अजगर का छटपटाना अभी भी जारी था।

अब कलिका ने अपनी सफेद रोशनी को वापस बुला लिया।

सफेद रोशनी के जाते ही अजगर वहां से भाग खड़ा हुआ।

वह समझ गया था कि इन दोनों से पार पाना उसके बस की बात नहीं है।

त्रिशाल और कलिका फिर से आगे बढ़ने लगे।

तभी कुछ दूरी पर त्रिशाल को पानी के अंदर एक विशाल व्हेल के आकार की मछली, झील की तली पर मुंह खोले हुए पड़ी दिखाई दी।

पास जाने पर उन्हें पता चल गया कि वह असली मछली नहीं थी, बल्कि वही था, राक्षसलोक जाने का द्वार।

त्रिशाल और कलिका उस मछली के मुंह में प्रवेश कर गये। कुछ देर तक अंधेरे में चलते रहने के बाद दोनों को दूर रोशनी दिखाई दी।

कुछ ही देर में दोनों रोशनी के स्रोत तक पहुंच गये।

वहां पर एक बड़ा सा मैदान के समान खाली स्थान था, जिसमें बिल्कुल भी पानी नहीं था। और उस बड़े से स्थान में एक विशाल महल बना हुआ था।

उस महल के द्वार पर राक्षसराज रावण की 10 फुट ऊंची सोने की प्रतिमा लगी हुई थी।

तभी कलिका की नजरें सामने कुछ दूरी पर खड़े एक विशाल राक्षस की ओर गयी, जो कि अभी कुछ देर पहले ही वहां पर प्रकट हुआ था।

उसे देखकर कलिका के मुंह से निकला- “कालबाहु!”

कलिका के शब्द सुन त्रिशाल की भी नजरें कालबाहु की ओर घूम गयीं।

कालबाहु एक 20 फुट ऊंचा मजबूत कद काठी वाला योद्धा सरीखा राक्षस था, उसके शरीर पर 6 हाथ थे, 2 हाथ बिल्कुल इंसानों की तरह थे, परंतु बाकी के 4 हाथ केकड़े के जैसे थे। वह कुछ दूर खड़ा उन्हें ही घूर रहा था।

यह देख कलिका ने बिना कालबाहु को कोई मौका दिये, उस पर प्रकाश शक्ति से हमला बोल दिया।

नीले रंग की घातक प्रकाश तरंगे तेजी से जाकर कालबाहु के शरीर से टकराईं, पर कालबाहु का कुछ नहीं हुआ, बल्कि वह तरंगें ही दिशा परिवर्तित कर राक्षसराज रावण की मूर्ति से जा टकराईं।

रावण की मूर्ति खंड-खंड होकर जमीन पर बिखर गयी।

कालबाहु अभी भी खड़ा उन्हें घूर रहा था। यह देख कलिका फिर अपने हाथों को आगे कर प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने चली।

“रुक जाओ कलिका, तुम जो समझ रही हो, यह वो नहीं है।” त्रिशाल ने कलिका का रोकते हुए कहा-

“प्रकाश शक्ति इस प्रकार से तभी परिवर्तित हो सकती है, जबकि वह किसी दर्पण से टकराये। इसका मतलब यह कालबाहु नहीं है, बल्कि कालबाहु की एक छवि है, जो किसी दर्पण के द्वारा हमें दिखाई दे रही है। अगर तुमने दोबारा इस पर प्रकाश शक्ति का प्रयोग किया तो वह फिर से परावर्तित हो कर हमें भी लग सकती है। इसलिये जरा देर के लिये ठहर जाओ।”

त्रिशाल के इतना कहते ही उस स्थान पर एक नहीं बल्कि सैकड़ों कालबाहु नजर आने लगे।

तभी फिर से विद्युम्ना की आवाज वातावरण में गूंजी- “बिल्कुल सही पहचाना त्रिशाल, अगर तुम्हें पहचानने में जरा भी देर हो जाती तो...? वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि तुम इस समय मेरे बनाये भ्रमजाल में फंस चुके हो। और यहां पर तुम प्रकाश शक्ति का उपयोग कर नहीं बच सकते। अब तुम लोग यहां से निकलने का विचार त्याग दो।”

“आप भूल गयी हैं देवी विद्युम्ना की हमारे पास और भी शक्तियां हैं, जो आसानी से इस भ्रमजाल को तोड़ सकती हैं” इतना कहकर त्रिशाल ने अपने मुंह से ऊँ की तेज ध्वनि निकाली।

वह ध्वनि इतनी तेज थी कि उस स्थान पर मौजूद सभी शीशे तेज आवाज के साथ टूटकर जमीन पर बिखर गये।

अब महल फिर से नजर आने लगा और विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

“अब हमें महल के अंदर की ओर चलना पड़ेगा।”

यह कहकर त्रिशाल कलिका को ले, जैसे ही महल के द्वार से अंदर प्रवेश करना चाहा, उसकी नजर उस स्थान पर पड़ी, जहां रावण की प्रतिमा टूटकर बिखरी थी। उस प्रतिमा के बीच एक कंकाल पड़ा हुआ था।

“यह तो कोई मानव कंकाल लग रहा है।”कलिका ने कहा- “परंतु यह यहां कैसे आया, अभी कुछ देर पहले तो यहां पर कुछ नहीं था । और.... और यह शायद किसी स्त्री का कंकाल है?”

त्रिशाल ने मूर्ति के मलबे को साफ किया, अब वह कंकाल बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

“मुझे लग रहा है कि यह कंकाल उस रावण की मूर्ति के अंदर ही था, जो तुम्हारे प्रकाश शक्ति के प्रहार से टूटा था।...पर मूर्ति में कोई कंकाल क्यों छिपाएगा? कुछ तो रहस्य है इस कंकाल का?” त्रिशाल ने कहा।

कलिका ने आगे बढ़कर उस मूर्ति को धीरे से हाथ लगाया।

मूर्ति को हाथ लगाते ही कलिका को एक अतीन्द्रिय अनुभूति हुई, जो कि बहुत ज्यादा पॉजिटिव ऊर्जा से भरी थी।

“इस कंकाल के अंदर की ऊर्जा बताती है कि यह किसी महाशक्ति का कंकाल है...इसे इस प्रकार यहां छोड़ना सही नहीं होगा। हमें इसका अंतिम संस्कार करना होगा।” कलिका ने कहा।

“पर कलिका....हमें नहीं पता कि यह किस धर्म की महाशक्ति है, फिर हम इसका अंतिम संस्कार कैसे कर सकते हैं?” त्रिशाल के शब्दों में उलझन के भाव थे।

“तुम भूल रहे हो त्रिशाल, हम दोनों के पास इस ब्रह्मांड की सबसे शुद्ध शक्ति है, ब्रह्मांड की हर ऊर्जा का निर्माण प्रकाश और ध्वनि से ही हुआ है। यहां तक की कैलाश पर्वत और मानसरोवर का निर्माण भी इन्हीं दोनों शक्तियों से हुआ है।

"अकेले ‘ऊँ’ शब्द में ही सम्पूर्ण सृष्टि का सार छिपा हुआ है, तो इन शक्तियों से बेहतर अंतिम संस्कार के लिये और कोई शक्ति नहीं हो सकती। इसलिये हम ना तो इस कंकाल को जलायें और ना ही दफनाएं। हमें अपनी शक्तियों से ही इस कंकाल को उस ब्रह्मांड के कणों में मिलाना होगा, जिसने इसकी उत्पत्ति की।”

कलिका का विचार बहुत अच्छा था। इसलिये त्रिशाल सहर्ष ही इसके लिये तैयार हो गया।

अब कलिका और त्रिशाल ने कंकाल के चारो ओर एक लकड़ी से जमीन पर गोला बनाया और दोनों ने एक साथ अपनी शक्तियों का प्रयोग कर उस कंकाल के एक-एक कण को वातावरण में मिला दिया।

दोनों के हाथों से बहुत तेज शक्तियां निकलीं थीं, परंतु ऊर्जा का एक भाग भी उस गोले से बाहर नहीं निकला।

यह कार्य पूर्ण करने के बाद वह दोनों महल के अंदर की ओर चल दिये।

त्रिशाल और कलिका ने चारो ओर देखा। महल में कोई भी नजर नहीं आ रहा था, चारो ओर एक निस्तब्ध सन्नाटा छाया था।

जैसे ही दोनों ने महल के अंदर अपना पहला कदम रखा, अचानक उनके पैरों के नीचे से जमीन गायब हो गई और वह दोनों एक गहरे गड्ढे में गिरने लगे।

वह लगातार गिरते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह पाताल में जाकर ही रुकेंगे।

कुछ देर गिरने के बाद उनका शरीर हवा में लहराने लगा।

त्रिशाल ने देखा कि वह एक पारदर्शी बड़ा सा काँच का कमरा था, जिसमें चारो ओर अंधेरा था।

शायद उस कमरे में वातावरण भी नहीं था, क्यों कि त्रिशाल और कलिका के पैर जमीन को नहीं छू पा रहे थे।

उस काँच के कमरे के बाहर तो प्रकाश था, परंतु वह ना जाने किस प्रकार की तकनीक थी, कि बाहर का प्रकाश काँच के कमरे में नहीं प्रविष्ठ हो पा रहा था।

त्रिशाल ने कलिका को आवाज लगाने की कोशिश की, पर उसके मुंह से आवाज नहीं निकली।

त्रिशाल ने टटोलकर कलिका का हाथ थामा और उसे हवा में अपने पास खींच लिया।

कलिका भी उस स्थान पर नहीं बोल पा रही थी।

तभी दोनों को अपने मस्तिष्क में विद्युम्ना की आवाज सुनाई दी- “यह कमरा तुम दोनों की ही शक्तियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। कलिका को प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने के लिये उसका स्वयं का प्रकाश में रहना आवश्यक है, लेकिन इस कमरे में कभी प्रकाश आ ही नहीं सकता। इसलिये कलिका अपनी शक्तियों का प्रयोग यहां कभी नहीं कर सकती। अब रही तुम्हारी बात त्रिशाल, तो तुम्हारी ध्वनि शक्ति निर्वात में नहीं चल सकती, यह एक छोटी सी वैज्ञानिक थ्योरी है।

“इसलिये मैंने इस कमरे से वातावरण को ही गायब कर दिया। उसी की वजह से तुम दोनों यहां बात नहीं कर पा रहे हो। अब रही बात इस काँच के कमरे को अपने हाथों से तोड़ने की, तो तुम्हें यह जानकारी दे दूं, कि इस काँच पर किसी भी अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, इसलिये इसे तोड़ने का विचार अपने दिमाग से निकाल देना।...इस माया जाल का नाम मैंने भ्रमन्तिका रखा है। यहां तुम साँस तो ले सकते हो, पर ना तो एक दूसरे से बात कर सकते हो और ना ही एक दूसरे का चेहरा देख सकते हो। अब तुम दोनों यहां तब तक बंद रहोगे, जब तक मेरा पुत्र कालबाहु अपनी साधारण आयु पूरी नहीं कर लेता।

“इसके बाद मैं तुम दोनों को यहां से छोड़ दूंगी……मैंने अपने वादे के अनुसार तुम्हें मारा नहीं है। चूंकि इस कमरे में कोई वातावरण नहीं है, इसलिये यहां पर ना तो तुम्हें भूख लगेगी और ना ही प्यास, यहां तक की तुम्हारी आयु भी यहां पर स्थिर हो जायेगी। अब अगर हजारों वर्षों के बाद भी तुम यहां से निकले, तब भी तुम्हारी आयु आज के जितनी ही होगी।…अच्छा तो अब विद्युम्ना को जाने की आज्ञा दीजिये, यह सहस्त्राब्दि आपके लिये शुभ हो।”

इतना कहकर विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

त्रिषाल ने कलिका के गालों को चूम लिया और उसका हाथ दबा कर उसे सांत्वना दी।

दोनों ही विद्युम्ना के भ्रमन्तिका में पूरी तरह से फंस गये थे। अब उनके पास सदियों के इंतजार के अलावा और कोई उपाय नहीं था।

उधर गुरुदेव नीमा हिमालय के पर्वतों में बैठे ध्यान लगा कर त्रिशाल और कलिका को देख रहे थे, परंतु वह भी मजबूर थे।

वह त्रिशाल और कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर नहीं निकाल सकते थे क्यों कि अगर वह किसी भी दैवीय शक्ति से मदद मांगते तो देवताओं और राक्षसों के बीच फिर से युद्ध शुरु हो जाना था क्यों कि देवताओं और राक्षसों के बीच यही तो तय हुआ था, कि कलयुग के समय अंतराल में वह दोनों एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे।

इसलिये नीमा को भी इंतजार था अब उस पल का, जब कोई मनुष्य ही अपनी शक्तियों का प्रयोग कर त्रिशाल व कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर निकाले।

अब सब कुछ समय के हाथों में था, पर समय किसी के भी हाथों में नहीं था।


जारी रहेगा_______✍️
Nice update....
 

Raj_sharma

यतो धर्मस्ततो जयः ||❣️
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Bahut hi gazab ki update he Raj_sharma Bhai,

Trikal aur kalika ko ab lagta he Suyash ya fir Vyom hi bahar nikalenge.........

Keep rocking Bro
Abhi iske baare me kuch kaha nahi ja sakta bhai, kab kya ho jaye, aur kon kya kare abhi kahna muskil hai, intzaar kariye agle update ka :approve:
Thank you very much for your valuable review and support bhai :hug:
 

Raj_sharma

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Raj_sharma

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Dhakad boy

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तभी राक्षस ने अपना भेद खुलते देख, त्रिशाल पर हमला कर दिया।

वह मुंह फाड़कर तेजी से त्रिशाल की ओर आया।

“ऊँऽऽऽऽऽऽऽऽ!” त्रिशाल के मुंह से जैसे ही ऊँ का पवित्र शब्द निकला, पानी की लहरें गोल-गोल घूमती हुई उस राक्षस की ओर चल दी।

उस राक्षस ने अपनी पूरी जिंदगी में इस प्रकार की किसी शक्ति का अनुभव नहीं किया था, इसलिये वह समझ नहीं पाया कि इस शक्ति से बचना कैसे है? और इससे पहले कि वह कुछ समझता, पानी की लहरें उसके शरीर के चारो ओर लिपट गईं।

लहरों ने अब राक्षस का शरीर किसी मंथानी की तरह पानी में मंथना शुरु कर दिया।

राक्षस बार-बार उन लहरों से बचने की कोशिश कर रहा था, पर वह उन लहरों के अंदर से निकल नहीं पा रहा था।

कुछ ही देर में राक्षस बेहोश होकर वहीं झील की तली में गिर गया।
राक्षस के बेहोश होते ही वह ध्वनि ऊर्जा लहरों से गायब हो गई।

लहरें अब पहले की तरह सामान्य हो गयीं थीं।

“इसे मारना नहीं है क्या? जो सिर्फ बेहोश करके छोड़ दिया।” कलिका ने त्रिशाल से पूछा।

“अगर इसे बिना मारे ही हमारा काम चल सकता है, तो मारने की जरुरत क्या है? और वैसे भी तुम्हें पता है कि हमें सिर्फ कालबाहु चाहिये।” त्रिशाल ने कलिका को समझाते हुए कहा।

तभी वातावरण में एक स्त्री की तेज आवाज सुनाई दी- “कालबाहु तक तुम कभी नहीं पहुंच पाओगे।”

“लगता है हमें कोई कहीं से देख रहा है?” कलिका ने सतर्क होते हुए कहा।

“कौन हो तुम?” त्रिशाल ने तेज आवाज में पूछा।

पानी के अंदर होने के बाद भी कलिका और त्रिशाल आसानी से उस रहस्यमय शक्ति से बात कर ले रहे थे।

“मैं कालबाहु की माँ ‘विद्युम्ना’ हूं, मेरे होते हुए तुम कालबाहु तक कभी नहीं पहुंच सकते। भले ही तुमने अपनी विचित्र शक्तियों से ‘दीर्घमुख’ को बेहोश कर दिया हो, पर तुम कालबाहु को कभी परजित नहीं कर पाओगे। उसे देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। मैं कहती हूं कि चले जाओ यहां से। अभी भी तुम्हारे पास यहां से बच निकलने का एक मौका है।”

विद्युम्ना ने अपनी गरजदार आवाज से त्रिशाल और कलिका को डराने की कोशिश की।

“सबसे पहले तो मैं आपको प्रणाम करती हूं देवी विद्युम्ना।” कलिका ने राक्षसी को भी सम्मान देते हुए कहा-

“मुझे पता है कि अपनी संतान का वियोग क्या हो सकता है? आप भले ही राक्षसकुल की हों, पर आप भी एक माँ हैं, और माँ का स्थान किसी भी लोक में शीर्ष पर होता है। हमारी आपके पुत्र से कोई सीधी शत्रुता नहीं है, हम भी यहां पर किसी को दिया वचन निभाने ही आये हैं।

"जिस प्रकार से आप अपने पुत्र की रक्षा कर रहीं है, ठीक उसी प्रकार से हम भी अपनी पुत्री की प्राणरक्षा के लिये यहां पर आये हैं। इसलिये कृपा करके हमारा मार्ग मत अवरुद्ध करें और हमें कालबाहु को सौंप दें। हम आपसे वादा करते हैं कि ऐसी स्थिति में कालबाहु का हम कोई अनिष्ट नहीं होने देंगे?”

“तुम लोग अलग हो, तुम देवताओं से भिन्न बातें करते हो, तुमने दीर्घमुख को भी जान से नहीं मारा, तुम कालबाहु को भी क्षमा करने को तैयार हो। आखिर तुम लोग हो कौन? और बिना शत्रुता यहां पर क्या करने आये हो?” इस बार विद्युम्ना की आवाज थोड़ी धीमी थी, शायद वह इन दोनों के व्यवहार से आकृष्ट हो गयी थी।

“देवी विद्युम्ना हम देवता नहीं हैं, हम साधारण मनुष्य हैं, परंतु हम महर्षि विश्वाकु को दिये अपने वचन से बंधे हैं।"

त्रिशाल ने नम्र स्वर में कहा-“आपके पुत्र कालबाहु ने महर्षि विश्वाकु के दोनों पुत्र और पत्नि को अकारण ही मार दिया। जिससे क्रोधित होकर महर्षि विश्वाकु ने हमें आपके पुत्र को पकड़कर या मारकर लाने को कहा। हम इसीलिये यहां आये है।”

त्रिशाल के शब्द सुनकर विद्युम्ना कुछ क्षणों के लिये शांत होकर कुछ सोचने लगी और फिर बोली-

“तुम लोग शुद्ध हो, तुम्हारी भावनाएं और शक्तियां भी शुद्ध हैं, तुम देवताओं और राक्षसों दोनों के ही साथ समान व्यवहार करते हो। यह बहुत ही अच्छी बात है, ऐसा शायद कोई मनुष्य ही कर सकता है क्यों कि देवता तो हमेशा छल से ही काम लेते हैं। परंतु मैं तुम्हें अपने पुत्र को नहीं सौंप सकती। मैं अब तुम लोगों से ज्यादा बात भी नहीं कर सकती, क्यों कि तुम लोग मेरे व्यवहार को भी भ्रमित कर रहे हो।

"तुम जो करने आये हो, उसकी कोशिश करो और मैं अपना धर्म निभाती हूं, पर हां अगर मैंने तुम्हें पराजित किया तो मैं तुम्हें मारुंगी नहीं, ये मेरा तुमसे वादा है। मुझे लगता है कि तुम दोनों भविष्य में पृथ्वी पर एक ऐसे राज्य की स्थापना करोगे, जहां पर देवताओं और राक्षसों को समान अधिकार प्राप्त होंगे। वहां पर राक्षसों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जायेगा।....सदैव शुद्ध रहो...और अपनी आत्मा में शुद्धता का वहन करते रहो, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।” यह कहकर विद्युम्ना की आवाज आनी बंद हो गयी।

विद्युम्ना की बातें सुनकर त्रिशाल और कलिका एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

“त्रिशाल, देवी विद्युम्ना तो समस्त राक्षसों से भिन्न दिख रहीं हैं...क्या हम लोग कालबाहु को पकड़ कर सही करने जा रहे हैं” कलिका के चेहरे पर विद्युम्ना की बातों को सुन आश्चर्य के भाव थे।

“तुम एक बात भूल रही हो विद्युम्ना कि देवता, राक्षस, दैत्य, दानव,गंधर्व सहित सभी जीव-जंतु महर्षि कश्यप की ही संताने हैं।

"महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं से विवाह किया था। जिसमें अदिति से देवता, दिति से दैत्य, दनु से दानव, सुरसा से राक्षस, काष्ठा से अश्व, अरिष्ठा से गंधर्व, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरा गण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन गृध्र, सुरभि से गौव महिष, सरमा से पशु और तिमि से जलीय जंतुओं की उत्पत्ति हुई थी।“

“अगर इस प्रकार से देखा जाये तो सभी के पास समान अधिकार होने चाहिये थे, परंतु देवताओं ने सदैव राक्षसों को पाताल देकर स्वयं देवलोक में विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत किया है। इसलिये कालांतर में राक्षस हमेशा शक्ति प्राप्त करके देवताओं को हराने की कोशिश करते रहें हैं।

"यहां ये जरुर ध्यान रखना कि देवताओं का मतलब ‘त्रि..देव’ से नहीं है। त्रि..देव देवताओं से ऊपर हैं। देवता और राक्षस दोनों ही उनकी की पूजा करते हैं। त्रिदेव ने मनुष्य को इन्हीं सबमें संतुलन बनाये रखने के लिये उत्पन्न किया था।

“अब रही बात देवी विद्युम्ना की, तो उनमें अलग भावों का दिखना कोई विशेष बात नहीं है, बहुत से ऐसे राक्षस रहे, जो अपने बुद्धि और ज्ञान के लिये हमारे समाज में पूजे भी जाते रहें हैं। महाभारत काल की देवी हिडिम्बा के बारे में सभी जानते हैं। इसलिये हमें अपने लक्ष्य पर अडिग रहना चाहिये। हां कालबाहु को पकड़ने के बाद, मैं इस विषय पर ध्यान अवश्य दूंगा, और एक शांति लोक की स्थापना करुंगा, जहां सभी के पास समान अधिकार होंगे।”

कलिका ध्यान से त्रिशाल की बातें सुन रही थी, उसने धीरे से सिर हिलाकर अपनी सहमति दी।

दोनों फिर राक्षसलोक का द्वार ढूंढने के लिये आगे की ओर बढ़ गये। कुछ आगे चलने पर कलिका को पानी का रंग कुछ अलग सा प्रतीत हुआ।

“ये आगे पानी का रंग नीले से काला क्यों नजर आ रहा है।” त्रिशाल ने कहा।

“रुक जाओ त्रिशाल, मुझे लग रहा है कि शायद वहां पानी में जहर मिला हुआ है।” कलिका ने त्रिशाल का रोकते हुए कहा।

तभी वह काला पानी एक आकृति का रुप धारण करने लगा।

कुछ ही देर में वह काली आकृति एक विशाल अजगर के रुप में परिवर्तित हो गयी।

अजगर ने त्रिशाल और कलिका को अपनी लंबी सी पूंछ में जकड़ लिया।

पर इससे पहले कि अजगर त्रिशाल और कलिका को हानि पहुंचा पाता, कलिका के हाथों से एक सफेद रंग की रोशनी निकली और अजगर के चेहरे के आसपास फैल गयी।

अचानक से अजगर का दम घुटने लगा और उसकी पकड़ त्रिशाल और कलिका के शरीर पर ढीली पड़ गयी।

अजगर की पकड़ ढीली पड़ते ही दोनों अजगर की पकड़ से बाहर आ गये। अजगर का छटपटाना अभी भी जारी था।

अब कलिका ने अपनी सफेद रोशनी को वापस बुला लिया।

सफेद रोशनी के जाते ही अजगर वहां से भाग खड़ा हुआ।

वह समझ गया था कि इन दोनों से पार पाना उसके बस की बात नहीं है।

त्रिशाल और कलिका फिर से आगे बढ़ने लगे।

तभी कुछ दूरी पर त्रिशाल को पानी के अंदर एक विशाल व्हेल के आकार की मछली, झील की तली पर मुंह खोले हुए पड़ी दिखाई दी।

पास जाने पर उन्हें पता चल गया कि वह असली मछली नहीं थी, बल्कि वही था, राक्षसलोक जाने का द्वार।

त्रिशाल और कलिका उस मछली के मुंह में प्रवेश कर गये। कुछ देर तक अंधेरे में चलते रहने के बाद दोनों को दूर रोशनी दिखाई दी।

कुछ ही देर में दोनों रोशनी के स्रोत तक पहुंच गये।

वहां पर एक बड़ा सा मैदान के समान खाली स्थान था, जिसमें बिल्कुल भी पानी नहीं था। और उस बड़े से स्थान में एक विशाल महल बना हुआ था।

उस महल के द्वार पर राक्षसराज रावण की 10 फुट ऊंची सोने की प्रतिमा लगी हुई थी।

तभी कलिका की नजरें सामने कुछ दूरी पर खड़े एक विशाल राक्षस की ओर गयी, जो कि अभी कुछ देर पहले ही वहां पर प्रकट हुआ था।

उसे देखकर कलिका के मुंह से निकला- “कालबाहु!”

कलिका के शब्द सुन त्रिशाल की भी नजरें कालबाहु की ओर घूम गयीं।

कालबाहु एक 20 फुट ऊंचा मजबूत कद काठी वाला योद्धा सरीखा राक्षस था, उसके शरीर पर 6 हाथ थे, 2 हाथ बिल्कुल इंसानों की तरह थे, परंतु बाकी के 4 हाथ केकड़े के जैसे थे। वह कुछ दूर खड़ा उन्हें ही घूर रहा था।

यह देख कलिका ने बिना कालबाहु को कोई मौका दिये, उस पर प्रकाश शक्ति से हमला बोल दिया।

नीले रंग की घातक प्रकाश तरंगे तेजी से जाकर कालबाहु के शरीर से टकराईं, पर कालबाहु का कुछ नहीं हुआ, बल्कि वह तरंगें ही दिशा परिवर्तित कर राक्षसराज रावण की मूर्ति से जा टकराईं।

रावण की मूर्ति खंड-खंड होकर जमीन पर बिखर गयी।

कालबाहु अभी भी खड़ा उन्हें घूर रहा था। यह देख कलिका फिर अपने हाथों को आगे कर प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने चली।

“रुक जाओ कलिका, तुम जो समझ रही हो, यह वो नहीं है।” त्रिशाल ने कलिका का रोकते हुए कहा-

“प्रकाश शक्ति इस प्रकार से तभी परिवर्तित हो सकती है, जबकि वह किसी दर्पण से टकराये। इसका मतलब यह कालबाहु नहीं है, बल्कि कालबाहु की एक छवि है, जो किसी दर्पण के द्वारा हमें दिखाई दे रही है। अगर तुमने दोबारा इस पर प्रकाश शक्ति का प्रयोग किया तो वह फिर से परावर्तित हो कर हमें भी लग सकती है। इसलिये जरा देर के लिये ठहर जाओ।”

त्रिशाल के इतना कहते ही उस स्थान पर एक नहीं बल्कि सैकड़ों कालबाहु नजर आने लगे।

तभी फिर से विद्युम्ना की आवाज वातावरण में गूंजी- “बिल्कुल सही पहचाना त्रिशाल, अगर तुम्हें पहचानने में जरा भी देर हो जाती तो...? वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि तुम इस समय मेरे बनाये भ्रमजाल में फंस चुके हो। और यहां पर तुम प्रकाश शक्ति का उपयोग कर नहीं बच सकते। अब तुम लोग यहां से निकलने का विचार त्याग दो।”

“आप भूल गयी हैं देवी विद्युम्ना की हमारे पास और भी शक्तियां हैं, जो आसानी से इस भ्रमजाल को तोड़ सकती हैं” इतना कहकर त्रिशाल ने अपने मुंह से ऊँ की तेज ध्वनि निकाली।

वह ध्वनि इतनी तेज थी कि उस स्थान पर मौजूद सभी शीशे तेज आवाज के साथ टूटकर जमीन पर बिखर गये।

अब महल फिर से नजर आने लगा और विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

“अब हमें महल के अंदर की ओर चलना पड़ेगा।”

यह कहकर त्रिशाल कलिका को ले, जैसे ही महल के द्वार से अंदर प्रवेश करना चाहा, उसकी नजर उस स्थान पर पड़ी, जहां रावण की प्रतिमा टूटकर बिखरी थी। उस प्रतिमा के बीच एक कंकाल पड़ा हुआ था।

“यह तो कोई मानव कंकाल लग रहा है।”कलिका ने कहा- “परंतु यह यहां कैसे आया, अभी कुछ देर पहले तो यहां पर कुछ नहीं था । और.... और यह शायद किसी स्त्री का कंकाल है?”

त्रिशाल ने मूर्ति के मलबे को साफ किया, अब वह कंकाल बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

“मुझे लग रहा है कि यह कंकाल उस रावण की मूर्ति के अंदर ही था, जो तुम्हारे प्रकाश शक्ति के प्रहार से टूटा था।...पर मूर्ति में कोई कंकाल क्यों छिपाएगा? कुछ तो रहस्य है इस कंकाल का?” त्रिशाल ने कहा।

कलिका ने आगे बढ़कर उस मूर्ति को धीरे से हाथ लगाया।

मूर्ति को हाथ लगाते ही कलिका को एक अतीन्द्रिय अनुभूति हुई, जो कि बहुत ज्यादा पॉजिटिव ऊर्जा से भरी थी।

“इस कंकाल के अंदर की ऊर्जा बताती है कि यह किसी महाशक्ति का कंकाल है...इसे इस प्रकार यहां छोड़ना सही नहीं होगा। हमें इसका अंतिम संस्कार करना होगा।” कलिका ने कहा।

“पर कलिका....हमें नहीं पता कि यह किस धर्म की महाशक्ति है, फिर हम इसका अंतिम संस्कार कैसे कर सकते हैं?” त्रिशाल के शब्दों में उलझन के भाव थे।

“तुम भूल रहे हो त्रिशाल, हम दोनों के पास इस ब्रह्मांड की सबसे शुद्ध शक्ति है, ब्रह्मांड की हर ऊर्जा का निर्माण प्रकाश और ध्वनि से ही हुआ है। यहां तक की कैलाश पर्वत और मानसरोवर का निर्माण भी इन्हीं दोनों शक्तियों से हुआ है।

"अकेले ‘ऊँ’ शब्द में ही सम्पूर्ण सृष्टि का सार छिपा हुआ है, तो इन शक्तियों से बेहतर अंतिम संस्कार के लिये और कोई शक्ति नहीं हो सकती। इसलिये हम ना तो इस कंकाल को जलायें और ना ही दफनाएं। हमें अपनी शक्तियों से ही इस कंकाल को उस ब्रह्मांड के कणों में मिलाना होगा, जिसने इसकी उत्पत्ति की।”

कलिका का विचार बहुत अच्छा था। इसलिये त्रिशाल सहर्ष ही इसके लिये तैयार हो गया।

अब कलिका और त्रिशाल ने कंकाल के चारो ओर एक लकड़ी से जमीन पर गोला बनाया और दोनों ने एक साथ अपनी शक्तियों का प्रयोग कर उस कंकाल के एक-एक कण को वातावरण में मिला दिया।

दोनों के हाथों से बहुत तेज शक्तियां निकलीं थीं, परंतु ऊर्जा का एक भाग भी उस गोले से बाहर नहीं निकला।

यह कार्य पूर्ण करने के बाद वह दोनों महल के अंदर की ओर चल दिये।

त्रिशाल और कलिका ने चारो ओर देखा। महल में कोई भी नजर नहीं आ रहा था, चारो ओर एक निस्तब्ध सन्नाटा छाया था।

जैसे ही दोनों ने महल के अंदर अपना पहला कदम रखा, अचानक उनके पैरों के नीचे से जमीन गायब हो गई और वह दोनों एक गहरे गड्ढे में गिरने लगे।

वह लगातार गिरते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह पाताल में जाकर ही रुकेंगे।

कुछ देर गिरने के बाद उनका शरीर हवा में लहराने लगा।

त्रिशाल ने देखा कि वह एक पारदर्शी बड़ा सा काँच का कमरा था, जिसमें चारो ओर अंधेरा था।

शायद उस कमरे में वातावरण भी नहीं था, क्यों कि त्रिशाल और कलिका के पैर जमीन को नहीं छू पा रहे थे।

उस काँच के कमरे के बाहर तो प्रकाश था, परंतु वह ना जाने किस प्रकार की तकनीक थी, कि बाहर का प्रकाश काँच के कमरे में नहीं प्रविष्ठ हो पा रहा था।

त्रिशाल ने कलिका को आवाज लगाने की कोशिश की, पर उसके मुंह से आवाज नहीं निकली।

त्रिशाल ने टटोलकर कलिका का हाथ थामा और उसे हवा में अपने पास खींच लिया।

कलिका भी उस स्थान पर नहीं बोल पा रही थी।

तभी दोनों को अपने मस्तिष्क में विद्युम्ना की आवाज सुनाई दी- “यह कमरा तुम दोनों की ही शक्तियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। कलिका को प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने के लिये उसका स्वयं का प्रकाश में रहना आवश्यक है, लेकिन इस कमरे में कभी प्रकाश आ ही नहीं सकता। इसलिये कलिका अपनी शक्तियों का प्रयोग यहां कभी नहीं कर सकती। अब रही तुम्हारी बात त्रिशाल, तो तुम्हारी ध्वनि शक्ति निर्वात में नहीं चल सकती, यह एक छोटी सी वैज्ञानिक थ्योरी है।

“इसलिये मैंने इस कमरे से वातावरण को ही गायब कर दिया। उसी की वजह से तुम दोनों यहां बात नहीं कर पा रहे हो। अब रही बात इस काँच के कमरे को अपने हाथों से तोड़ने की, तो तुम्हें यह जानकारी दे दूं, कि इस काँच पर किसी भी अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, इसलिये इसे तोड़ने का विचार अपने दिमाग से निकाल देना।...इस माया जाल का नाम मैंने भ्रमन्तिका रखा है। यहां तुम साँस तो ले सकते हो, पर ना तो एक दूसरे से बात कर सकते हो और ना ही एक दूसरे का चेहरा देख सकते हो। अब तुम दोनों यहां तब तक बंद रहोगे, जब तक मेरा पुत्र कालबाहु अपनी साधारण आयु पूरी नहीं कर लेता।

“इसके बाद मैं तुम दोनों को यहां से छोड़ दूंगी……मैंने अपने वादे के अनुसार तुम्हें मारा नहीं है। चूंकि इस कमरे में कोई वातावरण नहीं है, इसलिये यहां पर ना तो तुम्हें भूख लगेगी और ना ही प्यास, यहां तक की तुम्हारी आयु भी यहां पर स्थिर हो जायेगी। अब अगर हजारों वर्षों के बाद भी तुम यहां से निकले, तब भी तुम्हारी आयु आज के जितनी ही होगी।…अच्छा तो अब विद्युम्ना को जाने की आज्ञा दीजिये, यह सहस्त्राब्दि आपके लिये शुभ हो।”

इतना कहकर विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

त्रिषाल ने कलिका के गालों को चूम लिया और उसका हाथ दबा कर उसे सांत्वना दी।

दोनों ही विद्युम्ना के भ्रमन्तिका में पूरी तरह से फंस गये थे। अब उनके पास सदियों के इंतजार के अलावा और कोई उपाय नहीं था।

उधर गुरुदेव नीमा हिमालय के पर्वतों में बैठे ध्यान लगा कर त्रिशाल और कलिका को देख रहे थे, परंतु वह भी मजबूर थे।

वह त्रिशाल और कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर नहीं निकाल सकते थे क्यों कि अगर वह किसी भी दैवीय शक्ति से मदद मांगते तो देवताओं और राक्षसों के बीच फिर से युद्ध शुरु हो जाना था क्यों कि देवताओं और राक्षसों के बीच यही तो तय हुआ था, कि कलयुग के समय अंतराल में वह दोनों एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे।

इसलिये नीमा को भी इंतजार था अब उस पल का, जब कोई मनुष्य ही अपनी शक्तियों का प्रयोग कर त्रिशाल व कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर निकाले।

अब सब कुछ समय के हाथों में था, पर समय किसी के भी हाथों में नहीं था।


जारी रहेगा_______✍️
Shandar update bhai
Trishal aur kalika dono hi vidumna ki banayi brmantika me phas gaye
Dhekte hai ab in dono ko yaha se kon nikalta hai suyash vyom shaifali ya phir koyi aur
 

Raj_sharma

यतो धर्मस्ततो जयः ||❣️
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Shandar update bhai
Trishal aur kalika dono hi vidumna ki banayi brmantika me phas gaye
Dhekte hai ab in dono ko yaha se kon nikalta hai suyash vyom shaifali ya phir koyi aur
Ha bhai trishal aur kalika buri tarah fas chuke hai, aur kab tak fase rahenge ye to niyati hi tay karegi:dazed:Sath bane rahiye, thank you very much for your valuable review and support bhai :hug:
 

Sushil@10

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#133.

तभी राक्षस ने अपना भेद खुलते देख, त्रिशाल पर हमला कर दिया।

वह मुंह फाड़कर तेजी से त्रिशाल की ओर आया।

“ऊँऽऽऽऽऽऽऽऽ!” त्रिशाल के मुंह से जैसे ही ऊँ का पवित्र शब्द निकला, पानी की लहरें गोल-गोल घूमती हुई उस राक्षस की ओर चल दी।

उस राक्षस ने अपनी पूरी जिंदगी में इस प्रकार की किसी शक्ति का अनुभव नहीं किया था, इसलिये वह समझ नहीं पाया कि इस शक्ति से बचना कैसे है? और इससे पहले कि वह कुछ समझता, पानी की लहरें उसके शरीर के चारो ओर लिपट गईं।

लहरों ने अब राक्षस का शरीर किसी मंथानी की तरह पानी में मंथना शुरु कर दिया।

राक्षस बार-बार उन लहरों से बचने की कोशिश कर रहा था, पर वह उन लहरों के अंदर से निकल नहीं पा रहा था।

कुछ ही देर में राक्षस बेहोश होकर वहीं झील की तली में गिर गया।
राक्षस के बेहोश होते ही वह ध्वनि ऊर्जा लहरों से गायब हो गई।

लहरें अब पहले की तरह सामान्य हो गयीं थीं।

“इसे मारना नहीं है क्या? जो सिर्फ बेहोश करके छोड़ दिया।” कलिका ने त्रिशाल से पूछा।

“अगर इसे बिना मारे ही हमारा काम चल सकता है, तो मारने की जरुरत क्या है? और वैसे भी तुम्हें पता है कि हमें सिर्फ कालबाहु चाहिये।” त्रिशाल ने कलिका को समझाते हुए कहा।

तभी वातावरण में एक स्त्री की तेज आवाज सुनाई दी- “कालबाहु तक तुम कभी नहीं पहुंच पाओगे।”

“लगता है हमें कोई कहीं से देख रहा है?” कलिका ने सतर्क होते हुए कहा।

“कौन हो तुम?” त्रिशाल ने तेज आवाज में पूछा।

पानी के अंदर होने के बाद भी कलिका और त्रिशाल आसानी से उस रहस्यमय शक्ति से बात कर ले रहे थे।

“मैं कालबाहु की माँ ‘विद्युम्ना’ हूं, मेरे होते हुए तुम कालबाहु तक कभी नहीं पहुंच सकते। भले ही तुमने अपनी विचित्र शक्तियों से ‘दीर्घमुख’ को बेहोश कर दिया हो, पर तुम कालबाहु को कभी परजित नहीं कर पाओगे। उसे देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। मैं कहती हूं कि चले जाओ यहां से। अभी भी तुम्हारे पास यहां से बच निकलने का एक मौका है।”

विद्युम्ना ने अपनी गरजदार आवाज से त्रिशाल और कलिका को डराने की कोशिश की।

“सबसे पहले तो मैं आपको प्रणाम करती हूं देवी विद्युम्ना।” कलिका ने राक्षसी को भी सम्मान देते हुए कहा-

“मुझे पता है कि अपनी संतान का वियोग क्या हो सकता है? आप भले ही राक्षसकुल की हों, पर आप भी एक माँ हैं, और माँ का स्थान किसी भी लोक में शीर्ष पर होता है। हमारी आपके पुत्र से कोई सीधी शत्रुता नहीं है, हम भी यहां पर किसी को दिया वचन निभाने ही आये हैं।

"जिस प्रकार से आप अपने पुत्र की रक्षा कर रहीं है, ठीक उसी प्रकार से हम भी अपनी पुत्री की प्राणरक्षा के लिये यहां पर आये हैं। इसलिये कृपा करके हमारा मार्ग मत अवरुद्ध करें और हमें कालबाहु को सौंप दें। हम आपसे वादा करते हैं कि ऐसी स्थिति में कालबाहु का हम कोई अनिष्ट नहीं होने देंगे?”

“तुम लोग अलग हो, तुम देवताओं से भिन्न बातें करते हो, तुमने दीर्घमुख को भी जान से नहीं मारा, तुम कालबाहु को भी क्षमा करने को तैयार हो। आखिर तुम लोग हो कौन? और बिना शत्रुता यहां पर क्या करने आये हो?” इस बार विद्युम्ना की आवाज थोड़ी धीमी थी, शायद वह इन दोनों के व्यवहार से आकृष्ट हो गयी थी।

“देवी विद्युम्ना हम देवता नहीं हैं, हम साधारण मनुष्य हैं, परंतु हम महर्षि विश्वाकु को दिये अपने वचन से बंधे हैं।"

त्रिशाल ने नम्र स्वर में कहा-“आपके पुत्र कालबाहु ने महर्षि विश्वाकु के दोनों पुत्र और पत्नि को अकारण ही मार दिया। जिससे क्रोधित होकर महर्षि विश्वाकु ने हमें आपके पुत्र को पकड़कर या मारकर लाने को कहा। हम इसीलिये यहां आये है।”

त्रिशाल के शब्द सुनकर विद्युम्ना कुछ क्षणों के लिये शांत होकर कुछ सोचने लगी और फिर बोली-

“तुम लोग शुद्ध हो, तुम्हारी भावनाएं और शक्तियां भी शुद्ध हैं, तुम देवताओं और राक्षसों दोनों के ही साथ समान व्यवहार करते हो। यह बहुत ही अच्छी बात है, ऐसा शायद कोई मनुष्य ही कर सकता है क्यों कि देवता तो हमेशा छल से ही काम लेते हैं। परंतु मैं तुम्हें अपने पुत्र को नहीं सौंप सकती। मैं अब तुम लोगों से ज्यादा बात भी नहीं कर सकती, क्यों कि तुम लोग मेरे व्यवहार को भी भ्रमित कर रहे हो।

"तुम जो करने आये हो, उसकी कोशिश करो और मैं अपना धर्म निभाती हूं, पर हां अगर मैंने तुम्हें पराजित किया तो मैं तुम्हें मारुंगी नहीं, ये मेरा तुमसे वादा है। मुझे लगता है कि तुम दोनों भविष्य में पृथ्वी पर एक ऐसे राज्य की स्थापना करोगे, जहां पर देवताओं और राक्षसों को समान अधिकार प्राप्त होंगे। वहां पर राक्षसों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जायेगा।....सदैव शुद्ध रहो...और अपनी आत्मा में शुद्धता का वहन करते रहो, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।” यह कहकर विद्युम्ना की आवाज आनी बंद हो गयी।

विद्युम्ना की बातें सुनकर त्रिशाल और कलिका एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

“त्रिशाल, देवी विद्युम्ना तो समस्त राक्षसों से भिन्न दिख रहीं हैं...क्या हम लोग कालबाहु को पकड़ कर सही करने जा रहे हैं” कलिका के चेहरे पर विद्युम्ना की बातों को सुन आश्चर्य के भाव थे।

“तुम एक बात भूल रही हो विद्युम्ना कि देवता, राक्षस, दैत्य, दानव,गंधर्व सहित सभी जीव-जंतु महर्षि कश्यप की ही संताने हैं।

"महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं से विवाह किया था। जिसमें अदिति से देवता, दिति से दैत्य, दनु से दानव, सुरसा से राक्षस, काष्ठा से अश्व, अरिष्ठा से गंधर्व, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरा गण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन गृध्र, सुरभि से गौव महिष, सरमा से पशु और तिमि से जलीय जंतुओं की उत्पत्ति हुई थी।“

“अगर इस प्रकार से देखा जाये तो सभी के पास समान अधिकार होने चाहिये थे, परंतु देवताओं ने सदैव राक्षसों को पाताल देकर स्वयं देवलोक में विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत किया है। इसलिये कालांतर में राक्षस हमेशा शक्ति प्राप्त करके देवताओं को हराने की कोशिश करते रहें हैं।

"यहां ये जरुर ध्यान रखना कि देवताओं का मतलब ‘त्रि..देव’ से नहीं है। त्रि..देव देवताओं से ऊपर हैं। देवता और राक्षस दोनों ही उनकी की पूजा करते हैं। त्रिदेव ने मनुष्य को इन्हीं सबमें संतुलन बनाये रखने के लिये उत्पन्न किया था।

“अब रही बात देवी विद्युम्ना की, तो उनमें अलग भावों का दिखना कोई विशेष बात नहीं है, बहुत से ऐसे राक्षस रहे, जो अपने बुद्धि और ज्ञान के लिये हमारे समाज में पूजे भी जाते रहें हैं। महाभारत काल की देवी हिडिम्बा के बारे में सभी जानते हैं। इसलिये हमें अपने लक्ष्य पर अडिग रहना चाहिये। हां कालबाहु को पकड़ने के बाद, मैं इस विषय पर ध्यान अवश्य दूंगा, और एक शांति लोक की स्थापना करुंगा, जहां सभी के पास समान अधिकार होंगे।”

कलिका ध्यान से त्रिशाल की बातें सुन रही थी, उसने धीरे से सिर हिलाकर अपनी सहमति दी।

दोनों फिर राक्षसलोक का द्वार ढूंढने के लिये आगे की ओर बढ़ गये। कुछ आगे चलने पर कलिका को पानी का रंग कुछ अलग सा प्रतीत हुआ।

“ये आगे पानी का रंग नीले से काला क्यों नजर आ रहा है।” त्रिशाल ने कहा।

“रुक जाओ त्रिशाल, मुझे लग रहा है कि शायद वहां पानी में जहर मिला हुआ है।” कलिका ने त्रिशाल का रोकते हुए कहा।

तभी वह काला पानी एक आकृति का रुप धारण करने लगा।

कुछ ही देर में वह काली आकृति एक विशाल अजगर के रुप में परिवर्तित हो गयी।

अजगर ने त्रिशाल और कलिका को अपनी लंबी सी पूंछ में जकड़ लिया।

पर इससे पहले कि अजगर त्रिशाल और कलिका को हानि पहुंचा पाता, कलिका के हाथों से एक सफेद रंग की रोशनी निकली और अजगर के चेहरे के आसपास फैल गयी।

अचानक से अजगर का दम घुटने लगा और उसकी पकड़ त्रिशाल और कलिका के शरीर पर ढीली पड़ गयी।

अजगर की पकड़ ढीली पड़ते ही दोनों अजगर की पकड़ से बाहर आ गये। अजगर का छटपटाना अभी भी जारी था।

अब कलिका ने अपनी सफेद रोशनी को वापस बुला लिया।

सफेद रोशनी के जाते ही अजगर वहां से भाग खड़ा हुआ।

वह समझ गया था कि इन दोनों से पार पाना उसके बस की बात नहीं है।

त्रिशाल और कलिका फिर से आगे बढ़ने लगे।

तभी कुछ दूरी पर त्रिशाल को पानी के अंदर एक विशाल व्हेल के आकार की मछली, झील की तली पर मुंह खोले हुए पड़ी दिखाई दी।

पास जाने पर उन्हें पता चल गया कि वह असली मछली नहीं थी, बल्कि वही था, राक्षसलोक जाने का द्वार।

त्रिशाल और कलिका उस मछली के मुंह में प्रवेश कर गये। कुछ देर तक अंधेरे में चलते रहने के बाद दोनों को दूर रोशनी दिखाई दी।

कुछ ही देर में दोनों रोशनी के स्रोत तक पहुंच गये।

वहां पर एक बड़ा सा मैदान के समान खाली स्थान था, जिसमें बिल्कुल भी पानी नहीं था। और उस बड़े से स्थान में एक विशाल महल बना हुआ था।

उस महल के द्वार पर राक्षसराज रावण की 10 फुट ऊंची सोने की प्रतिमा लगी हुई थी।

तभी कलिका की नजरें सामने कुछ दूरी पर खड़े एक विशाल राक्षस की ओर गयी, जो कि अभी कुछ देर पहले ही वहां पर प्रकट हुआ था।

उसे देखकर कलिका के मुंह से निकला- “कालबाहु!”

कलिका के शब्द सुन त्रिशाल की भी नजरें कालबाहु की ओर घूम गयीं।

कालबाहु एक 20 फुट ऊंचा मजबूत कद काठी वाला योद्धा सरीखा राक्षस था, उसके शरीर पर 6 हाथ थे, 2 हाथ बिल्कुल इंसानों की तरह थे, परंतु बाकी के 4 हाथ केकड़े के जैसे थे। वह कुछ दूर खड़ा उन्हें ही घूर रहा था।

यह देख कलिका ने बिना कालबाहु को कोई मौका दिये, उस पर प्रकाश शक्ति से हमला बोल दिया।

नीले रंग की घातक प्रकाश तरंगे तेजी से जाकर कालबाहु के शरीर से टकराईं, पर कालबाहु का कुछ नहीं हुआ, बल्कि वह तरंगें ही दिशा परिवर्तित कर राक्षसराज रावण की मूर्ति से जा टकराईं।

रावण की मूर्ति खंड-खंड होकर जमीन पर बिखर गयी।

कालबाहु अभी भी खड़ा उन्हें घूर रहा था। यह देख कलिका फिर अपने हाथों को आगे कर प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने चली।

“रुक जाओ कलिका, तुम जो समझ रही हो, यह वो नहीं है।” त्रिशाल ने कलिका का रोकते हुए कहा-

“प्रकाश शक्ति इस प्रकार से तभी परिवर्तित हो सकती है, जबकि वह किसी दर्पण से टकराये। इसका मतलब यह कालबाहु नहीं है, बल्कि कालबाहु की एक छवि है, जो किसी दर्पण के द्वारा हमें दिखाई दे रही है। अगर तुमने दोबारा इस पर प्रकाश शक्ति का प्रयोग किया तो वह फिर से परावर्तित हो कर हमें भी लग सकती है। इसलिये जरा देर के लिये ठहर जाओ।”

त्रिशाल के इतना कहते ही उस स्थान पर एक नहीं बल्कि सैकड़ों कालबाहु नजर आने लगे।

तभी फिर से विद्युम्ना की आवाज वातावरण में गूंजी- “बिल्कुल सही पहचाना त्रिशाल, अगर तुम्हें पहचानने में जरा भी देर हो जाती तो...? वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि तुम इस समय मेरे बनाये भ्रमजाल में फंस चुके हो। और यहां पर तुम प्रकाश शक्ति का उपयोग कर नहीं बच सकते। अब तुम लोग यहां से निकलने का विचार त्याग दो।”

“आप भूल गयी हैं देवी विद्युम्ना की हमारे पास और भी शक्तियां हैं, जो आसानी से इस भ्रमजाल को तोड़ सकती हैं” इतना कहकर त्रिशाल ने अपने मुंह से ऊँ की तेज ध्वनि निकाली।

वह ध्वनि इतनी तेज थी कि उस स्थान पर मौजूद सभी शीशे तेज आवाज के साथ टूटकर जमीन पर बिखर गये।

अब महल फिर से नजर आने लगा और विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

“अब हमें महल के अंदर की ओर चलना पड़ेगा।”

यह कहकर त्रिशाल कलिका को ले, जैसे ही महल के द्वार से अंदर प्रवेश करना चाहा, उसकी नजर उस स्थान पर पड़ी, जहां रावण की प्रतिमा टूटकर बिखरी थी। उस प्रतिमा के बीच एक कंकाल पड़ा हुआ था।

“यह तो कोई मानव कंकाल लग रहा है।”कलिका ने कहा- “परंतु यह यहां कैसे आया, अभी कुछ देर पहले तो यहां पर कुछ नहीं था । और.... और यह शायद किसी स्त्री का कंकाल है?”

त्रिशाल ने मूर्ति के मलबे को साफ किया, अब वह कंकाल बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

“मुझे लग रहा है कि यह कंकाल उस रावण की मूर्ति के अंदर ही था, जो तुम्हारे प्रकाश शक्ति के प्रहार से टूटा था।...पर मूर्ति में कोई कंकाल क्यों छिपाएगा? कुछ तो रहस्य है इस कंकाल का?” त्रिशाल ने कहा।

कलिका ने आगे बढ़कर उस मूर्ति को धीरे से हाथ लगाया।

मूर्ति को हाथ लगाते ही कलिका को एक अतीन्द्रिय अनुभूति हुई, जो कि बहुत ज्यादा पॉजिटिव ऊर्जा से भरी थी।

“इस कंकाल के अंदर की ऊर्जा बताती है कि यह किसी महाशक्ति का कंकाल है...इसे इस प्रकार यहां छोड़ना सही नहीं होगा। हमें इसका अंतिम संस्कार करना होगा।” कलिका ने कहा।

“पर कलिका....हमें नहीं पता कि यह किस धर्म की महाशक्ति है, फिर हम इसका अंतिम संस्कार कैसे कर सकते हैं?” त्रिशाल के शब्दों में उलझन के भाव थे।

“तुम भूल रहे हो त्रिशाल, हम दोनों के पास इस ब्रह्मांड की सबसे शुद्ध शक्ति है, ब्रह्मांड की हर ऊर्जा का निर्माण प्रकाश और ध्वनि से ही हुआ है। यहां तक की कैलाश पर्वत और मानसरोवर का निर्माण भी इन्हीं दोनों शक्तियों से हुआ है।

"अकेले ‘ऊँ’ शब्द में ही सम्पूर्ण सृष्टि का सार छिपा हुआ है, तो इन शक्तियों से बेहतर अंतिम संस्कार के लिये और कोई शक्ति नहीं हो सकती। इसलिये हम ना तो इस कंकाल को जलायें और ना ही दफनाएं। हमें अपनी शक्तियों से ही इस कंकाल को उस ब्रह्मांड के कणों में मिलाना होगा, जिसने इसकी उत्पत्ति की।”

कलिका का विचार बहुत अच्छा था। इसलिये त्रिशाल सहर्ष ही इसके लिये तैयार हो गया।

अब कलिका और त्रिशाल ने कंकाल के चारो ओर एक लकड़ी से जमीन पर गोला बनाया और दोनों ने एक साथ अपनी शक्तियों का प्रयोग कर उस कंकाल के एक-एक कण को वातावरण में मिला दिया।

दोनों के हाथों से बहुत तेज शक्तियां निकलीं थीं, परंतु ऊर्जा का एक भाग भी उस गोले से बाहर नहीं निकला।

यह कार्य पूर्ण करने के बाद वह दोनों महल के अंदर की ओर चल दिये।

त्रिशाल और कलिका ने चारो ओर देखा। महल में कोई भी नजर नहीं आ रहा था, चारो ओर एक निस्तब्ध सन्नाटा छाया था।

जैसे ही दोनों ने महल के अंदर अपना पहला कदम रखा, अचानक उनके पैरों के नीचे से जमीन गायब हो गई और वह दोनों एक गहरे गड्ढे में गिरने लगे।

वह लगातार गिरते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह पाताल में जाकर ही रुकेंगे।

कुछ देर गिरने के बाद उनका शरीर हवा में लहराने लगा।

त्रिशाल ने देखा कि वह एक पारदर्शी बड़ा सा काँच का कमरा था, जिसमें चारो ओर अंधेरा था।

शायद उस कमरे में वातावरण भी नहीं था, क्यों कि त्रिशाल और कलिका के पैर जमीन को नहीं छू पा रहे थे।

उस काँच के कमरे के बाहर तो प्रकाश था, परंतु वह ना जाने किस प्रकार की तकनीक थी, कि बाहर का प्रकाश काँच के कमरे में नहीं प्रविष्ठ हो पा रहा था।

त्रिशाल ने कलिका को आवाज लगाने की कोशिश की, पर उसके मुंह से आवाज नहीं निकली।

त्रिशाल ने टटोलकर कलिका का हाथ थामा और उसे हवा में अपने पास खींच लिया।

कलिका भी उस स्थान पर नहीं बोल पा रही थी।

तभी दोनों को अपने मस्तिष्क में विद्युम्ना की आवाज सुनाई दी- “यह कमरा तुम दोनों की ही शक्तियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। कलिका को प्रकाश शक्ति का प्रयोग करने के लिये उसका स्वयं का प्रकाश में रहना आवश्यक है, लेकिन इस कमरे में कभी प्रकाश आ ही नहीं सकता। इसलिये कलिका अपनी शक्तियों का प्रयोग यहां कभी नहीं कर सकती। अब रही तुम्हारी बात त्रिशाल, तो तुम्हारी ध्वनि शक्ति निर्वात में नहीं चल सकती, यह एक छोटी सी वैज्ञानिक थ्योरी है।

“इसलिये मैंने इस कमरे से वातावरण को ही गायब कर दिया। उसी की वजह से तुम दोनों यहां बात नहीं कर पा रहे हो। अब रही बात इस काँच के कमरे को अपने हाथों से तोड़ने की, तो तुम्हें यह जानकारी दे दूं, कि इस काँच पर किसी भी अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, इसलिये इसे तोड़ने का विचार अपने दिमाग से निकाल देना।...इस माया जाल का नाम मैंने भ्रमन्तिका रखा है। यहां तुम साँस तो ले सकते हो, पर ना तो एक दूसरे से बात कर सकते हो और ना ही एक दूसरे का चेहरा देख सकते हो। अब तुम दोनों यहां तब तक बंद रहोगे, जब तक मेरा पुत्र कालबाहु अपनी साधारण आयु पूरी नहीं कर लेता।

“इसके बाद मैं तुम दोनों को यहां से छोड़ दूंगी……मैंने अपने वादे के अनुसार तुम्हें मारा नहीं है। चूंकि इस कमरे में कोई वातावरण नहीं है, इसलिये यहां पर ना तो तुम्हें भूख लगेगी और ना ही प्यास, यहां तक की तुम्हारी आयु भी यहां पर स्थिर हो जायेगी। अब अगर हजारों वर्षों के बाद भी तुम यहां से निकले, तब भी तुम्हारी आयु आज के जितनी ही होगी।…अच्छा तो अब विद्युम्ना को जाने की आज्ञा दीजिये, यह सहस्त्राब्दि आपके लिये शुभ हो।”

इतना कहकर विद्युम्ना की आवाज शांत हो गई।

त्रिषाल ने कलिका के गालों को चूम लिया और उसका हाथ दबा कर उसे सांत्वना दी।

दोनों ही विद्युम्ना के भ्रमन्तिका में पूरी तरह से फंस गये थे। अब उनके पास सदियों के इंतजार के अलावा और कोई उपाय नहीं था।

उधर गुरुदेव नीमा हिमालय के पर्वतों में बैठे ध्यान लगा कर त्रिशाल और कलिका को देख रहे थे, परंतु वह भी मजबूर थे।

वह त्रिशाल और कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर नहीं निकाल सकते थे क्यों कि अगर वह किसी भी दैवीय शक्ति से मदद मांगते तो देवताओं और राक्षसों के बीच फिर से युद्ध शुरु हो जाना था क्यों कि देवताओं और राक्षसों के बीच यही तो तय हुआ था, कि कलयुग के समय अंतराल में वह दोनों एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे।

इसलिये नीमा को भी इंतजार था अब उस पल का, जब कोई मनुष्य ही अपनी शक्तियों का प्रयोग कर त्रिशाल व कलिका को भ्रमन्तिका से बाहर निकाले।

अब सब कुछ समय के हाथों में था, पर समय किसी के भी हाथों में नहीं था।


जारी रहेगा_______✍️
Awesome update and nice story
 

KEKIUS MAXIMUS

Supreme
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gajab update ..kalika aur trishal kisi ko jaan se maarna nahi chahte sirf rakshaso ko harana hai aur kalbahu ko bandi banana hai ..
kalbahu ki maa vidhumna bhi ek achche dil wali hai jo apne bete ki raksha karna chahti hai ..
har koi apne uddeshya se bandha hai ,ek maa apne bete ki raksha karna chahti hai wahi kalika trishal kalbahu ko pakadna chahte hai.
ab dono kaise niklenge bhramantika se ,dono apni shaktiyo ka istemal nahi kar sakte ,naa hi gurudev neema koi madad kar sakte hai ...
 
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