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Incest Gupt sthan old

vhsaxena

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यह मेरे अठारहवें जनमदिन के कुछ ही दिनो बाद की बात है जब मैने ग़लती से अपने पिता के एक छोटे से गुपत स्थान को ढूँढ लिया. इस छोटी सी जगह मे मेरे पिता जी अपने राज़ छिपा कर रखते थे. ये गुपत स्थान बेहद व्यक्तिगत चीज़ों का ख़ज़ाना था. इनमे कुछ सस्ती ज्वेलरी थी जिनकी कीमत बाज़ारु कीमत से ज़्यादा शायद जज़्बाती तौर पर थी. कुछ उनके पुराने दोस्तो के फोटोग्रॅफ्स थे, कुछ कभी नज़दीकी लोगो द्वारा लिखी गयी चिट्ठियाँ थी. कुछ अख़बारों के कटाउट थे जो शायद उनके मतलब के थे. एक खास किसम का मार्का लिए दो रुमाल थे, इस मार्क को मैं जानता नही था. कुछ सिनिमास के, प्लेस के, और क्रिकेट मॅचस के टिकेट थे जो उन्होने इस्तेमाल नही किए थे.

उसके बाद कुछ ख़ास चीज़ें सामने आई. तीन प्रेम पत्र जो उनकी माशूकों ने उनको लिखे थे. दो खत किसी एक औरत के लिखे हुए थे जिसने नीचे, खत के अंत में अपने नाम के सुरुआती अक्षर स से साइन किए हुए थे जो मेरी मम्मी के तो यकीनी तौर पर नही थे. तीसरा खत किसी ऐसी औरत का था जिसका दिल मेरे पिता ने किसी मामूली सी बात को लेकर तोड़ दिया था और वो मेरे पिता से वापस आने की भीख माँग रही थी. इसके अलावा मुझे तीन तस्वीरे या यूँ कहे कि तीन महिलाओं की तस्वीरें मिली. सभी एक से एक सुंदर और जवान, और यही मेरे पिता का असली राज़ था जिसे उन्होने दुनिया से छिपाया हुआ था. उनमे से एक तस्वीर को देख कर मैने फ़ौरन पहचान लिया, वो मेरी आंटी थी, मेरे पिताजी के बड़े भाई की पत्नी यानी उनकी बड़ी भाबी. लेकिन तस्वीर देखकर मैं यह नही कह सकता था कि तस्वीर उसकी मेरे ताऊ से शादी करने के पहले की थी या बाद की.

इन सबको देखना कुछ कुछ दिलचस्प तो था मगर उतना नही जितना मैने जगह ढूढ़ने पर सोचा था. मुझे अपने पिता के अतीत से कुछ लेना देना नही था मगर मुझे ताज्जुब था कि यह सब मेरी मम्मी की नज़रों से कैसे बचा रह गया और अगर उसे मिला तो उसने इनको जलाया क्यों नही. या तो उन्होने ने इस समान की कोई परवाह नही की थी क्योंकि मेरे पिता भी अब अतीत का हिस्सा बन चुके थे या शायद यह जगह अभी तक उनकी निगाह से छिपी हुई थी.

इस सब समान मे जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा वो थी एक बेहद पुरानी काले रंग की जिल्द वाली किताब. वो किताब जब मैने खोलकर देखी तो मालूम चला कि कामसूत्र पर आधारित थी. किताब मे पेन्सिल से महिला और पुरुष को अलग अलग मुद्राओं मे संभोग करते हुए दिखाया गया था या पेन्सिल से अलग अलग आसनों में संभोग की ड्रॉयिंग्स बनाई हुई थी. मेरे जवान जिस्म में हलचल सी हुई, मुझे लगा मेरे हाथ में कोई किताब नही बल्कि दुनिया का कोई अजूबा लग गया था.

हमारा गाँव जो सूरत से कोई चालीस किमी की दूरी पर था, कोई 200 परिवारों का आशियाना था. गाँव में खेतीबाड़ी और पशुपालन का काम था. जवान लोग ज़्यादातर सूरत मे काम धंधा करते थे. इसलिए गाँव में मेरे जैसे जवान मर्द कम नही तो ज़्यादा भी नही थे. उस ज़माने में वो किताब एक तरह से मेरे मनोरंजन का खास साधन बन गयी थी. मेरी माँ सुबह मे खेतो में काम करती थी और मेरी बड़ी बेहन घर पर एक दुकान चलाती थी जो मेरे पिताजी की विरासत थी. दुपहर मे मेरी माँ दुकान पर होती और बेहन घर में खाना तैयार करती. मेरा काम था दुपहर मे खेतो मे काम करना और फिर अपनी दुधारू गाय भैसो को चारा पानी देना जो अक्सर शाम तक चलता था जैसा कयि बार जानवरों के चरते चरते दूर निकल जाने पर होता है. शाम में हमारा परिवार एक ही रुटीन का पालन करता था. मैं खेतो से बुरी तरह थका हारा कीचड़ से सना घर आता और ठंडे पानी से नहाता. मेरी बेहन मुझे गरमा गर्म खाना परोसती और फिर से अपने सिलाई के काम मे जुट जाती जिसमे से उसे अच्छी ख़ासी कमाई हो जाती थी. कई परिवार जिनके मरद सहर में अच्छी ख़ासी कमाई करते थे उनकी औरते महँगे कपड़े सिल्वाती और अच्छी ख़ासी सिलाई देती. मेरी मम्मी शाम को हमारे पड़ोसी और उसकी एक ख़ास सहेली शोभा के घर चली जाती और फिर दोनो आधी रात तक गाँव भर की बाते करती. इसलिए मम्मी से सुबह में जल्दी उठा नही जाता था जिस कारण सुबह मेरी बेहन दुकान चलाती थी. मेरी माँ खेतो में सुबह को काम करती जो कि काम कम ज़्यादा बहाना सुंदर थी
 
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Yeh story meine nahi likhi hai
पढ़ा है स्टोरी मैंने । बहुत ही बढ़िया लिखा था राइटर ने । मुझे लगता है ये कहानी आलरेडी इस फोरम पर मौजूद है ।
 

vhsaxena

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अब मेरा संध्या का समय किताब के पन्नो को पलटते हुए बीतता. मैं निकट भविष्य मे खुद को उन मुद्राओं में तजुर्बा करने की कल्पना करता. मगर असलियत में निकट भविष्य मे एसी कोई संभावना नज़र नही आती. मेरे गाँव में और घरो मे आना जाना कम था, और ना ही मेने किसी को दोस्त बनाया था. गाँव में कुछ औरतें थीं जो काफ़ी सुंदर थी मगर ज़्यादातर वो शादीशुदा थी और अगर कोई कुँवारी थी तो यह पता लगाना बहुत मुश्किल था कि उसका पहले ही किसी के साथ टांका ना भिड़ा हो. हमारी पड़ोसन और मम्मी की फ्रेंड सोभा गाँव की सबसे खूबसूरत औरतों में से एक थी मगर माँ के डर से वो मेरी लिस्ट से बाहर थी.

सबसे ज़यादा सुंदर और सबसे जवान हमारे गाँव में मेरी खुद की बेहन थी जो अपनी एक अलग ही दुनिय में खोई रहती थी. सौंदर्य और मादकता से भरपूर उसका बदन शायद अपनी माँ पर गया था. जी हाँ मेरी माँ जो अब 41 साल की हो चुकी थी अब भी बहुत बहुत खूबसूरत थी बल्कि पूरनी शराब की तरह उमर बढ़ने के साथ साथ उसकी सुंद्रता बढ़ती जा रही थी, उसका रंगरूप और बदन निखरता जाता था. खेतो में काम करने से वो गाँव की और औरतो की तरह मोटी नही हुई थी. अगर आप लोग हैरान हैं कि हमने और लोगों की तरह शहर का रुख़ क्यों नही किया तो इसका सीधा सा जवाब है कि सहर में हमारा कोई जानकार या रिश्तेदार नही है जो हमे कुछ दिनो के लिए सहारा दे सके जब तक हम कोई ढंग का काम कर सकते. मेरे माता पिता हमारे जनम से भी पहले अपने रिश्तेदारों को छोड़ यहाँ बस गये थे और अब हम बस इस जगह जहाँ रहना और गुज़र बसर करना दिन ब दिन मुश्किल हो रहा था फँस गये थे, ना हम ये गाँव छोड़ सकते थे और ना यहाँ हमारा कोई भविष्य था.
 

vhsaxena

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मेरी बेहन मुझसे चार साल बड़ी थी और अपनी एक अलग दुनिया में रहती थी, वो दुनिया जो उन न्यूज़ पेपर और मॅगज़ीन्स के किरदारों से बनी थी जो हम अपनी दुकान मे बेचते थे. दरअसल हम अपनी दुकान मे दो तीन मन्थलि मॅगज़ीन्स और तीन वीक्ली के अख़बार बेचते थे. यह अख़बार एक हाथ से होता हुआ दूसरे तक पहुँचता जाता जब तक पूरा गाँव इसे सुरू से आख़िर तक पढ़ ना लेता. मॅगज़ीन्स और न्यूसपेपर ज़्यादातर अंत मे वापिस हमारी दुकान पर पहुँच जाते जहाँ मेरी बेहन उनसे सिलाई का कोई नया डिज़ाइन बनाने की प्रॅक्टीस करती. मेरी बेहन अपनी इस खून पसीने की कमाई को किसी अग्यात स्थान पर हमारी माँ से छुपा कर रखती. वो उस दिन का इंतज़ार कर रही थी जब उसके पास इतना पैसा हो जाए कि वो हमारे गाँव को छोड़ किसी दूसरी जगह जा सके जहाँ उसका भविष्य शायद उसकी कल्पनाओं जैसा सुखद और आनंदमयी हो. जबकि मैं पूरी तरह बेपरवाह था. स्कूल मैं कब का छोड़ चुका था और किसी किस्म की मुझे चिंता थी नही. मेरा काम सिर्फ़ ये सुनिश्चित करना होता था कि हमारे जानवरों का पेट भरा होना चाहिए ऑर बरसात से पहले खेत जुते हुए होने चाहिए नयी फसल की जुताई के लिए. इसके अलावा मेरा काम था गाँव के बाहर खुले आसमान के नीचे किसी युवा शेर की तरह आवारा घूमना.

किसी कारण वश मैं किताब को वापस उसी जगह रख देता जहाँ मैने उसे खोजा था. अब यह मेरे पिता का छिपाने का गुपत स्थान नही मेरा छिपाने का गुप्त स्थान भी था. वो किताब अब मेरा राज़ थी और उसे मैं हमेशा उसी जगह छिपाए रखता. हर शाम मैं किताब निकालता और हर सुबह वापिस उसी जगह रख देता. मैं ना सिरफ़ अपने राज़ की हिफ़ाज़त करता बल्कि उसे उस जगह मे कैसे कहाँ किस पोज़ीशन मे रखा इस बात का भी पूरी शिद्दत से ध्यान रखता. इसीलिए यह बात मुझसे छिपी ना रह सकी कि मेरे उस गुपत स्थान की किसी और को भी जानकारी है और मेरे उस राज़ की भी. मैं खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा था.

मैं जानता था कि वो मेरी मम्मी नही है जिसे इस जगह की मालूमात हो गयी थी, यह ज़रूर मेरी बेहन थी अथवा वो चीज़ें उस जगह ना रहती. मेरी मम्मी बिना शक उन सब चीज़ों को नष्ट कर देती.

मेरी बेहन किताब के साथ उतनी ही सावधानी वरत रही थी जितनी मैं. मेरे ख्याल से वो इसे दोपहर में देखती होगी जब मैं खेतों में काम कर रहा होता था. मेरे घर लौटने से पहले वो किताब को वापिस उसी जगह रख देती हालाँकि मैं इतना नही कह सकता था कि उसे इस बात की जानकारी थी कि वो किताब मैं भी पढ़ता था. मगर अब समस्या यह थी कि मेरा राज़ अब सिरफ़ मेरा राज़ नही था, अब हम दोनो का राज़ था और यह जानने के बाद कि वो उन्ही तस्वीरों को देखती है जिन्हे मैं देखता था और मेरी तरह यक़ीनन वो भी कल्पना करती होगी खुद को उन संभोग की विभिन्न मुद्राओं में बस फ़र्क था तो इतना कि वो खुद को उन मुद्राओं में औरत की जगह रखती होगी जबकि मैं खुद को मर्द की जगह रखता था. इसका नतीज़ा यह हुआ कि उन पोज़िशन्स को आज़माने के लिए मुझे एक पार्ट्नर मिल गयी थी चाहे वो काल्पनिक ही थी. मगर समस्या यह थी कि वो पार्ट्नर मेरी बेहन थी.
 

vhsaxena

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यह कुछ ऐसा था जैसे मैं कहूँ कि मुझे एक आसन या एक पोज़िशन में दिलचपसी थी जिसमे आदमी औरत के पीछे खड़ा होता है और औरत अपने हाथों और पावं पर चौपाया हो खड़ी हो एक घोड़ी की तरह. मेरा लिंग उसकी योनि से एक या दो इंच की दूरी पर हो और उसके अंदर जाने के लिए तैयार हो. अब मेरी कल्पना में वो आदमी मैं था. मैं ही वो था जिसके हाथ उस औरत की कमर को पीछे से ज़ोर से पकड़ते हैं, जिसकी पूरी ताक़त उसकी कमर में इकट्ठा हो जाती है और वो तैयार होता है एक जबरदस्त धक्के के साथ अपने लिंग को उस योनि की जड़ तक पेल देने के लिए. अब इसी पोज़ में मेरी बेहन खुद को उस औरत की जगह देखती होगी जो अपने पीछे खड़े एक तक़तबार मर्द से ठुकने वाली हो जिसका लिंग अविस्वसनीय तौर पर लंबा, मोटा हो. मेरी बेहन उस औरत की तरह ज़रूर मुस्कुराएगी जब उस मर्द का लंबा लिंग उसकी योनि की परतों को खोलता हुआ उसके पेट के अंदर पहुँचेगा और उसका दिल मचल उठेगा.

अब इसे दूसरी तरह से देखते हैं. मान लीजिए मेरी बेहन को वो पोज़िशन पसंद है जिसमे मर्द पीठ के बल लेटा हुआ है और औरत उसके सीने पर दोनो तरफ़ पैर किए हुए उसके लिंग पर नीचे आती है और उस लिंग को अपनी योनि की गहराइयों में उतार लेती है. मेरी बेहन की कल्पना मे वो खुद वोही औरत है जो मर्द के उपर झुकती है और उसके लिंग को अपनी योनि में समेट लेती है. अब मेरी कल्पना में वो सख्स मैं था जो उसकी चुचियों को मसल रहा था और जिसका लिंग उस गीली, गरम और अत्यधिक आनंदमयी योनि में डूबा हुआ था. किताब की उस तस्वीर मे मेरी कल्पना अनुसार मैं वो जीता जागता मर्द था जो उस तस्वीर की औरत की योनि के अंदर दाखिल होता है. उसी तस्वीर मे मेरी बेहन की सोच अनुसार वो खुद वो जीती जागती औरत थी जिसके अंदर किताब का वो मर्द दाखिल होता है. मैं उस औरत के अंदर अपना लिंग डालता हूँ और वो मर्द मेरी बेहन के अंदर अपना लिंग डालता है. मैं अपना लिंग डालता हूँ और जबकि मेरी बेहन डलवाती है. इस तरह मैं अपनी बेहन के अंदर दाखिल होता हूँ. अपनी बेहन के बारे में ऐसे विचार ऐसे ख़यालात अविस्वसनीय तौर पर कामुक थे और इन विचारों के साथ होने वाला अपराध बोध भी अविस्वसनीय था. उस अपराध बोध के बिना अपनी बेहन के अंदर दाखिल होने की मैं कल्पना नही कर सकता था क्यॉंके मैं अपनी बहन के साथ ऐसा नही कर सकता था. अपनी बेहन, अपनी सग़ी बेहन के अंदर दाखिल होने का आनंद किसी दूसरी औरत जैसे सोभा के अंदर दाखिल होने से कहीं ज़्यादा था. मेरी बेहन जैसी किसी जवान, खूबसूरत और अल्लहड़ लड़की से संभोग की संभावना शोभा जैसी किसी प्रौढ़ उमर की औरत से कहीं ज़्यादा उत्तेजित करने वाली थी. और अगर मैं सोभा के साथ संभोग कर सकता था तो निश्चय ही अपनी मम्मी के साथ भी कर सकता था. आख़िर उन दोनो की उमर और सूरत सीरत में ज़्यादा फरक नही था. मुझे फिर से अपराधबोध का एहसास हुआ और खुद पर शरम आई जब मैने कामसूत्र की उन पोजीशंस मे अपनी मम्मी की कल्पना की. मुझे अपनी कल्पनाओं के साथ होने वाला वो अपराध बोध अच्छा नही लगता. पहले मैं संभोग की उन विभिन्न मुद्राओं को किसी एसी औरत के साथ भोगने की कल्पना करता जिसके जिस्म की कोई पहचान नही थी, जो अंतहीन थी, जिसका कोई वजूद संभव नही था मगर अब जो मेरी कल्पनाओं में थी वो एक काया थी, एक देह थी, जिसका वजूद था और उस काया के लिए मेरी कल्पनाएं अदुभूत आनंदमयी होने के साथ साथ बहुत दर्द देने वाली भी थी. मुझे इस समस्या का जल्द ही कोई हल निकालना था.
 

vhsaxena

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अंत मैं मेने एक हल ढूंड निकाला. मैं अपनी कल्पनायों में अपनी बेहन के जिस्म पर सोभा का सिर रख देता इससे मेरे अंदर का अपराधबोध का एहसास कम होता. अब मैं उस औरत को अपनी एक साइड पर लेटे हुए देखता जिसकी एक टाँग हवा में लहरा रही होती तो कैंची के उस पोज़ में उसके साथ संभोग करने वाला मर्द मैं होता. मेरी कमर के नीचे या मेरे कंधे पर रखी टाँग मेरी बेहन की होती, बेड पर लेटी नारी की देह मेरी बेहन की होती मगर उसकी चूत, उसका चेहरा शोभा का होता. इस तरह मैं बिना किसी पाप बिना किसी आत्मग्लानी के उस रोमांच उस आनंद को महसूस करता. जब मैं कुर्सी पर बैठा होता और वो मेरे सामने अपने घुटनो पर खड़ी मेरे लंड को अपने मुँह मे लिए कामुकता और मदहोशी से मेरी आँखो में झाँकती तो वो जिस्म मेरी बेहन का होता मगर वो मुख सोभा का होता जिसके अंदर मैं अपना वीर्य छोड़ता. सीधे लेटे हुए मेरी बेहन की टाँगे मेरी कमर के गिर्द कसी होती मगर मेरा लंड सोभा की चूत के अंदर होता. मैं अपनी बेहन को सहलाता, चूमता मगर चोदता सोभा को.

यही एक तरीका था जो मुझे मेरे दिमाग़ ने सुझाया था उस आत्मग्लानि को दूर करने का. मैं अपनी बेहन को छू सकता था, चूम सकता था , मगर उसे चोद नही सकता था. कई बार मैने सिर्फ़ रोमांच के लिए सोभा के जिस्म को भोगने की कोशिस की जिस पर चेहरा मेरी बेहन का होता, मगर मैं अपनी बेहन की आँखो मे नही देख सकता था और शर्म से अपना चेहरा घुमा लेता. इसी तरह मेने जाना कि मैं सोभा के जिस्म को चोदते हुए अगर मैं अपनी मम्मी का चेहरा उसके जिस्म पर लगाऊ तो मुझे वो पापबोध महसूस नही होता. मगर मुझे सबसे अधिक रोमांच और मज़ा तभी आता जब मैं सोभा के जिस्म पर अपनी बेहन का चेहरा लगा कर कल्पनाओं मे उसे चोदता. मगर जल्द ही सोभा का चेहरा भी गुम होने लगा, अब मेरे ख्यालों में सिर्फ़ मेरी बेहन का जिस्म होता जिसका चेहरा किसी नक़ाब से ढका होता. यह सबसे बढ़कर रोमचित कर देने वाली कल्पना थी क्यॉंके इसमे मैं सोभा या किसी और के बिना सीधा अपनी अपनी बेहन के साथ संभोग करता. नक़ाब के अंदर वो चेहरा मेरी बेहन का भी हो सकता था या किसी और का भी मगर ढका होने की वजह से मुझे कोई चिंता नही थी. अब मेरी कल्पनाओं में अगर कभी मेरी बेहन का मुस्कराता चेहरा मेरी आँखो के सामने आ जाता तो मैं अपनी शरम को नज़रअंदाज़ कर देता, अब मैं अपनी बेहन को एक नयी रोशनी में देख रहा था.

और यह जानकर कि मेरी बेहन उन्ही तस्वीरों को देखती है जिन्हे मैं देखता था और शायद मेरी तेरह ही वो भी उन पोज़ो मैं खुद की कल्पना करती थी, मैं एक तरह से यह जानने के लिए हद से ज़्यादा व्याकुल हो उठा था कि वो किन पोज़िशन्स या मुद्राओं में खुद को चुदवाने की कल्पना करती थी. मैं अधीर था यह जानने के लिए कि कामसूत्र की उस किताब में उसकी सबसे पसंदीदा पोज़ीशन कॉन सी है. मेरी इच्छा थी कि मेरी कल्पनाएं बेकार के अंदाज़ों मे भटकने की बजाए ज़्यादा ठोस हों और ज़्यादा केंद्रित हो और यह तभी मुमकिन था जब मुज़े यह पता चलता कि उसके ध्यान का केंदर बिंदु कॉन सी पोज़ीशन है ताकि मैं भी उसी पोज़ीशन पर ज़्यादा ध्यान दूं, उस पोज़िशन पर ज़्यादा समय ब्यतीत करूँ औरों की तुलना में.

पर अब समस्या यह थी कि मैं सीधे मुँह जाकर उससे तो पूछ नही सकता था कि बेहन तुम किस आसान में चुदवाने के सपने देखती हो. असलियत में तो हमे यह भी मालूम नही होना चाहिए था कि दूसरा हमारे राज़ को जानता है. मैं जानता था कि वो भी ज़रूर उस किताब को पढ़ती थी, इसी तरह शायद वो भी इस बात से अंजान नही थी कि मैं भी उस किताब को पढ़ता था. मगर यह बात हम एक दूसरे के सामने मान नहीं सकते थे, कबूल नही कर सकते थे, यह बहुत ही शर्मशार कर देने वाली बात होती.
 

vhsaxena

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मुझे कोई ख़ास कोई रहस्यमयी, कोई गुप्त तरीका अपनाना था जिससे कि मैं उससे कोई संकेत कोई इशारा हासिल कर सकूँ कि उसकी पसंदीदा पोज़िशन कोन्सि है. और बिना किसी सीधी बातचीत के बिना किसी तरह सीधे सीधे यह जताए कि मैं क्या पूछना चाहता हूँ यह काम बेहद मुश्किल था. जब मैं इस बात को लेकर हैरान परेशान था कि उसकी पसंदीदा पोज़िशन कोन्सि है तो एक सवाल और भी था जिसने मुझे परेशान किया हुया था वो कैसे कल्पना करती थी या असल में किसके साथ कल्पना करती थी. मेरी तरह उसकी कल्पनाओं का कोई पार्ट्नर इस गाँव से तो कम से कम नही हो सकता था.


मैं तो सोभा के बारे में सोच सकता था मगर उसकी जिंदगी मे तो कोई सोभा का हमउम्र मरद भी नही था जिसके बारे में ख्वाइश कर सके, खुद को उस मरद के साथ उन पोज़ में सोच सके. तो फिर वो किसके साथ खुद की कल्पना करती थी, कॉन था जो उसके ख़यालों में मरद का रोल अदा करता था. अगर यह जानना बेहद मुश्किल था कि उसकी पसंदीदा पोज़िशन कोन्सि है तो यह जानना कि उस पोज़िशन में मरद कॉन होता था, लगभग नामुमकिन था. यह वो समय था जब गुजरात में गर्मी पूरे जोरों पर थी. सूर्य की तेज़ झुलसा देने वाली किरणोसे धरती तप जाती. इस तेज़ धूप में हमारी गाय भैसे खेतो में हमारे पुराने भीमकाय पेड़ो के नीचे छाँव मे बैठी रहती और मैं भी. इन्ही सुस्त दिनो में कयि महीने सोचने के पाश्चामत्त अचानक एक दिन वो विचार मेरे दिमाग़ में कोंधा. मुझे इतने महीनो बाद सुघा के मेरे और मेरी बेहन के बीच बातचीत का एक ज़रिया वो किताब खुद थी. मेरा मतलब मेरी तरह वो भी उस किताब में लिखा हुआ हर शब्द पढ़ती थी. क्या होगा अगर मैं एक बेहद सूक्ष्म, बेहद रहस्यमय, लगभग ना मालूम होने वाला एक इशारा उस किताब के ज़रिए उस को करूँ, बिना कोई संदेह जताए? अगर वो भी मेरी तरह उस किताब में उस गहराई तक डूबी हुई थी जिसकी मुझे पूर्ण आशा थी तो वो मेरे इशारे को ज़रूर भाँप जाती. हालाँकि वो उस इशारे का कोई जबाब देती या ना देती यह अलग बात थी. मगर मैं अपनी तरफ से तो कोशिस तो करने वाला था, कितनी और किस हद तक इसका अंदाज़ा भी मुझे नही था.
 

vhsaxena

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मैं अपनी बेहन को अपनी कल्पनाओं में अपनी पार्ट्नर मानता था, इसलिए मैं जानना चाहता था कि उसे सबसे अच्छा क्या लगता है और फिर अपनी कल्पना में वोही करते हुए मैं उसे खुश करना चाहता था. यहाँ पर मेरी पार्ट्नर का मतलब सिर्फ़ मेरी कल्पनाओं की उस युवती से है जिसके साथ मैं कामसूत्र की उन पोज़िशन को आजमाना चाहता था जो मेरी बेहन थी. मगर यहाँ सिर्फ़ मैं अपनी कल्पनाओं की ही बात कर रहा था, असल में हम भाई बेहन के बीच एसा होना संभव ना था.


अपनी कल्पनाओं में मुझे वो काम करने माएँ ज़्यादा मज़ा आता जो मेरी बेहन को पसंद था, ना कि वो काम अपनी बेहन से करवाने में जो मुझे पसंद था. आप सोच सकते हैं कि अगर हमारी सोचों और कल्पनाओं में समानता थी तो मेरी बेहन ज़रूर समझ जाती कि मैं उसे क्या संदेश भेज रहा हूँ और वो भी बिना किसी हिचकिचाहट से उसका जवाब देती. दूसरी तरफ अगर वो मेरा संदेश जान लेने के बाद भी कोई जवाब ना देती तो इसका सीधा मतलब होता वो मुझे अपने काम से मतलब रखने को कह रही है और मुझे ये गंवारा नही था.


अपने काँपते हाथों और धड़कते दिल के साथ मैने पेन्सिल उठाई और अपनी पसंदीदा पोज़िशन या आसान के आगे एक स्टार का निशान बना दिया. मेरे उस स्टार का मतलब उसे यह बताना था कि वो पोज़ मेरा पसंदीदा था. मैं उम्मीद लगाए बैठा था कि वो उस स्टार को देखेगी और उसे बातचीत का ज़रिया मानेगी. मैं एक तरह से हमारे बीच एक संपर्क स्थापित कर रहा था यह बताते हुए कि मेरी पसंदीदा पोज़िशन कोन्सि है और उम्मीद कर रहा था कि वो उत्तर में अपनी पसंदीदा पोज़िशन के आगे स्टार का निशान लगा कर इस बातचीत को आगे बढ़ाएगी. इस तरह हम बिना किसी परेशानी के बिना कोई ख़तरा मोल लिए एक दूसरे को अपनी पसंद नापसंद बता सकते थे. अगर हम मे से कोई उस बातचीत को नापसंद करता तो दूसरा बड़ी आसानी से अंजान बन कर उस निशान की मोजूदगी की जानकारी से इनकार कर सकता था. मैने सुबह वो किताब उसी जगह वापस रख दी. अब मुझे रात तक इंतज़ार करना था, और यह इंतज़ार बहुत ज़्यादा मुश्किल था. मैने पूरे दिन कोशिस करी कि अपने आप को बिज़ी रखू और किताब से अपना ध्यान हटा लूँ मगर लाख चाहने पर भी मेरा ध्यान उधर से हट नही पाया. मैं हद से ज़्यादा व्याकुल और अधीर था अपनी बेहन का रेस्पॉन्स देखने के लिए.


अगले दिन शाम को जब मैने किताब उठाई तो मेरे हाथ किसी सूखे पत्ते की तरह कांप रहे थे. मेरी साँस उखड़ी हुई थी. मेरा खून इतनी तेज़ी से नसों में दौड़ रहा था कि मेरे कानो में साय साय की आवाज़ आ रही थी. मैं इतना कामोत्तेजित था जितना शायद जिंदगी मे कभी नही हुआ था. मैं अपनी आँखे किताब के पन्नो पर केंद्रित नही कर पा रहा था जब मैं जल्दबाज़ी में किताब के पन्ने पलटते हुए अपनी बेहन दुबारा लगाए किसी निशान को ढूँढ रहा था. मगर मुझे कोई निशान नही मिला. मुझे अत्यधिक निराशा हुई जिस कारण मेरे दिमाग़ पर सवार कामोत्तेजना थोड़ी कम हो गयी. मैने फिर से बड़े ध्यान से किताब को जाँचा मगर मैं कोई निशान कोई इशारा ढूँडने में नाकामयाब रहा. मैं निराश था और इस निराशा ने मुझे हताश कर दिया था. सच में मैं तनावग्रस्त हो गया था. मैं खुद नही जानता था क्यों मैने अपनी बेहन से कोई इशारा पाने के लिए इतनी उँची उम्मीद लगा रखी थी, जो ना मिलने पर मैं खुद को ठुकराया हुआ महसूस कर रहा था, लगता था मेरी परछाई ने मेरा साथ निभाने से मना कर दिया था.


मेरे दस वार ढूँढने पर भी किताब के पन्नो पर कोई इशारा कोई निशान ना मिला. मुझे लगा शायद उस दिन उसने वो किताब देखी ही नही थी शायद इस लिए उसे मेरे इशारे की जानकारी नही थी. इस से मुझे थोड़ी आस बँधी कि शायद मुझे कल कोई इशारा मिल जाएगा. मगर कयि दिनो के इंतज़ार के बाद भी ना उम्मीदी और हताशा ही हाथ आई. आख़िरकार एक साप्ताह बाद मैने हार मान ली, शायद इस विषय पर हम भाई बेहन आपस में बातचीत नही कर सकते थे. शायद मुझसे बड़ी और अधिक समझदार होने के कारण उसने मुझे बढ़ावा देने की बजाए मुझे चुप करा देने में ही भलाई समझी थी, शायद कोई इशारा ना देकर उसने मुझे उस से दूर रहने का संकेत दिया था. खैर कुछ भी हो अब वो विषय बंद हो चुका था. अंत में जब मैने एक साप्ताह गुजर जाने के बाद बाद उसे किए इशारे की उम्मीद छोड़ी तो मेरा मन कुछ शांत पड़ गया था. मैं अपने सपनो, अपनी रंग बिरंगी काल्पनिक दुनिया में लौट गया जहाँ उसकी मौजूदगी अब बहुत कम हो गयी थी और मैं अब सिर्फ़ सोभा को ही अपनी ख़याली दुनिया में अलग अलग आसनों में चोदता. और यह थोड़ा अच्छा भी था क्यों कि शोभा मुझे दूर रहने को नही बोलती थी, मैं कम से कम ठुकराया हुआ महसूस तो नही करता था.
 
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