अपडेट 56
अजय को अपना शरीर भार-शून्य सा लग रहा था - जैसे भौतिकी के नियम उस पर लागू ही न हो रहे हों। वो ‘वहाँ’ था भी और नहीं भी। वो उस स्थान का हिस्सा था भी और नहीं भी। ‘वहाँ’ - यह कौन सी जगह थी, उसका कोई ठीक ठीक अंदाज़ा लगा पाना कठिन था। कहीं तो था वो! कोई ऐसा स्थान जहाँ भौतिकी के सिद्धाँत लागू नहीं थे! ‘वो’ एक ऐसा स्थान था, जहाँ उसको अबूझ रोशनियों के कोमल तंतु दिखाई दे रहे थे। फिर उसने देखा कि उसका स्वयं का शरीर भी रौशनी की एक किरण समान ही लग रहा था। उन अनगिनत कोमल किरणों के बीच उसको ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे वो अनंत में घुल मिल गया हो।
इस स्थिति में अजीब अजीब से दृश्य देख रहा था वो - शब्द भी दृश्य बन गए थे और भावनाएँ भी। उन दृश्यों में उसको अशोक जी, किरण जी, माया दीदी, रूचि, रूचि के मम्मी पापा, कमल, प्रशांत भैया, पैट्रिशिया भाभी, किशोर जी, सरिता जी, रागिनी, उसकी माँ, मनोहर भैया, जेलखाना और न जाने क्या क्या - शायद सब कुछ दिख रहा था। इन सबके बीच में वो कुछ नया देख रहा था - अजीब अजीब से शब्द! अजीब अजीब से बैज्ञानिक दृश्य - ठीक वैसे जैसे स्कूल कॉलेज में रसायन विज्ञान के मॉडल दिखते हैं। उसको इतना तो समझ आ रहा था कि कोई गंभीर और चिंताजनक बात चल रही है... लेकिन फिर भी मन से वो शांत था। कमाल की बात थी।
कुछ ऐसी ही अनुभूति उसको ‘उस दिन’ हुई थी, जब वो वापस अपने भूतकाल में आ गया था। इस बात के संज्ञान से उसको थोड़ी सी उलझन महसूस हुई - कई सारे कार्य जो उसने करने को सोच रखे थे, वो अभी भी शेष थे। कमल और माया दीदी की शादी अभी तक नहीं हुई थी और न ही प्रशांत भैया और पैट्रिशिया भाभी की! और तो और, उसका भी तो रूचि के साथ रिश्ता तय हो गया था - ऐसे में वो सब बीच में ही छोड़ कर जाना थोड़ा निराशा वाली बात लग रही थी। लेकिन अगर ईश्वर ने उसको इतने ही समय के लिए वापस भेजा था, तो यह संभव है कि उसने वो सब कर दिया हो, जो उससे बन पड़ा! तो अगर वो अब वापस भविष्य की ओर जा रहा था, तो वो भी ठीक था। शायद भविष्य में उसको परिवर्तन महसूस हो! शायद वो और रूचि साथ हों! शायद माया दीदी और प्रशांत भैया का जीवन बेहतर हो सका हो... शायद पापा जीवित हो और स्वस्थ हों!
*
जब अजय की आँखें खुलीं, तो उसने स्वयं को एक बड़े से सफ़ेद रंग के कमरे में एक अपेक्षाकृत ठन्डे और कठोर बिस्तर पर पाया।
जाहिर सी बात थी कि यह उसका कमरा नहीं था। आँखें उसकी अभी भी पूरी तरह से फ़ोकस नहीं थीं - लेकिन वो देख रहा था कि कम से कम दो लोग सफ़ेद लम्बे कपड़े पहने उसके बगल खड़े थे। उसके हाथ में थोड़ा दर्द महसूस हो रहा था, और उसके सर पर सख़्त से कुछ वस्तुएँ चिपकी हुई थीं, जिससे उसको खुजली महसूस हो रही थी। उसे यह समझने में कुछ क्षण लगे कि वो हॉस्पिटल में था - उसके हाथ में एक आई वी ड्रिप लगी हुई थी, और उसके सर और सीने पर सेंसर और प्रोब्स चिपके हुए थे।
एक कोई चालीस बयालीस साल का आदमी उसको आँखें खोलते हुए देख कर मुस्कुराते हुए बोला, “हैलो अजय बेटे, कैसा लग रहा है तुमको?”
‘कौन सा अस्पताल था यह?’ उसने दिमाग पर ज़ोर डाला।
उसके प्रश्न का उत्तर डॉक्टर के सफ़ेद रंग के ऐप्रन पर कढ़े हुए अस्पताल के लोगो से मिल गया - ‘वानप्रस्थ अस्पताल’!
‘वानप्रस्थ अस्पताल!’ उसके दिमाग में यह परिचित सा नाम गूँजा, ‘ये तो वही अस्पताल है...’
हाँ - यह वही अस्पताल था जहाँ अशोक जी की मृत्यु हुई थी। लेकिन फिर भी इस विचार से अजय को न जाने क्यों घबराहट नहीं हुई। उसको खुद ही इस बात से आश्चर्य हुआ।
‘लेकिन उसको यहाँ क्यों लाया गया है?’ उसने सोचा, ‘उसको कुछ हो गया क्या?’
फिर उसकी नज़र डॉक्टर के नेम बैज पर पड़ी,
‘अजिंक्य देशपाण्डे,’
अजय ने एक पल के लिए इस नाम के बारे में सोचा - उसका सर एक बार फिर से घूमने लगा, लेकिन बस दो पलों के लिए ही।
“डॉक्टर देशपाण्डे?” उसके मुँह से अस्पष्ट से शब्द निकले।
“यस,” डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए और थोड़ा कौतूहल से अजय को देखा, “हैव व्ही मेट, यंग मैन?”
‘यंग मैन?’ उसने एक पल सोचा, ‘चालीस साल का आदमी किसी तीस साल के आदमी को बेटा या यंग मैन तो नहीं कहेगा... तो क्या वो अभी भी अपने पहले वाले रूप में है?’
“आई डोंट नो,” वो बुदबुदाया।
उसको शरीर में कमज़ोरी महसूस हो रही थी, लेकिन अब वो पूरी तरह से चौकन्ना था।
“हाऊ आर यू फ़ीलिंग?” डॉक्टर ने पूछा।
“आई थिंक आई ऍम फीलिंग गुड,” उसने कहा, “व्हाट हैपेंड?”
“तुम्हें क्या क्या याद है?” डॉक्टर ने पूछा।
“मैं... मैं अपनी फिएंसी के घर में था,” अजय ने याद करते हुए कहा, “आई वास मीटिंग हर रिलेटिव्स...” उसने मुख्य ‘ट्रिगर’ को छुपाते हुए बताया, “कि अचानक से सब कुछ हेज़ी हेज़ी हो गया... आई थिंक, आई फ़ेंटेड,” उसने निराशा के साथ कहा।
डॉक्टर देशपाण्डे ने थोड़ा इंतज़ार किया, लेकिन जब अजय ने कुछ और नहीं कहा, तो उन्होंने बताया,
“नॉट जस्ट फ़ेंटेड,” वो बोले, “तुम थर्टी टू हॉर्स से बेहोश हो...”
“व्हाट!” अजय चौंका - उसको तो लग रहा था कि बस कुछ ही समय हुआ रहेगा, “थर्टी टू हॉर्स! ... मतलब... मतलब दिवाली गई?”
“तुमको उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए!” डॉक्टर ने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा, “एक्चुअली, तुमको चिंता ही नहीं करनी चाहिए,”
“सो आई ऍम फाइन?”
“फीसिओलॉजिकली हंड्रेड परसेंट!” वो बोले, “आई विल बी ऑनेस्ट विद यू... तुम बेहोश क्यों हो गए, हम तो यह ठीक से नहीं जानते... तुम्हारा हार्ट परफेक्ट है! ब्रीदिंग सॉउन्ड है... और तुम्हारी ब्रेन एक्टिविटी... वेल, आई मस्ट से, दैट इस नॉट नार्मल... नॉट अबनॉर्मल! मोर लाइक हाइपरएक्टिव... आई कैन से कि तुमको ब्रेन में भी किसी तरह का डैमेज नहीं है।”
अजय ने समझते हुए सर हिलाया।
“एक्स-रे और एमआरआई में कोई चोट नहीं दिखाई दी... हाँ, ऐसा ज़रूर लग रहा था कि जैसे तुम सो रहे हो, लेकिन तुम्हारा दिमाग किसी साइंटिस्ट के जैसे सोच रहा हो!” वो मुस्कुराए।
उनकी बता सुन कर अजय के होंठों पर भी मुस्कान आ गई।
“सो, मेरी तरफ़ से तुमको क्लीन बिल ऑफ़ हेल्थ है!” वो बोले, “हाँ... लेकिन अगर तुमको ठीक लगे, तो मैं तुमसे थोड़ा डिटेल में बातें करना चाहूँगा... अभी नहीं, बाद में!”
“श्योर सर,” अजय बोला, “एक बात पूछूँ आपसे?”
“हाँ हाँ, ज़रूर,”
“आपने यहाँ कब ज्वाइन किया? और आपकी स्पेशलटी क्या है?”
“मैंने... एक महीना हुआ है! एंड आई ऍम अ न्यूरोसर्जन,” उन्होंने हँसते हुए बताया, “... बट आई ऍम नाऊ रिसर्चिंग इन न्यूरोऑन्कोलॉजी,”
“ओके,” अजय धीमे से बोला, “ऑन्कोलॉजी...”
“एस आई सेड, रिसर्चिंग... तुमको कोई प्रॉब्लम नहीं है!”
“तो क्या मैं घर जा सकता हूँ?”
“ओह श्योर! चाहो तो आज ही... बट स्ट्रेस न लेना, सुतली पटाखे न चलाना... हो सकता है तेज़ आवाज़ के कारण कान और सर पर ज़ोर पड़े। सो इट इस बेस्ट टू अवॉयड इट फॉर समटाइम...”
“ग्रेट!”
“बट, सबसे पहले तुम्हें अपनी फिएंसी (कहते हुए वो मुस्कुराए) और अपने परिवार से मिलना चाहिए... वे बहुत चिंतित हैं।”
“यहाँ हैं वो?”
“कल से यहीं हैं सभी,” डॉक्टर ने स्टूल से उठते हुए कहा, “मैं उन्हें अंदर आने को कहता हूँ,”
मिनट भर के भीतर ही रूचि भागती हुई कमरे में दाखिल हुई। उसके पीछे माया, किरण जी और रूचि की माँ दौड़ती हुई अंदर आईं। उनके एक मिनट बाद कमल, और तीनों बुज़ुर्ग - अशोक जी, रूचि के पिता, और किशोर जी प्रविष्ट हुए।
रूचि भागती हुई आई और बिस्तर पर लेटे हुए अजय से लिपट कर रोने लगी। अजय उसको यथासंभव आश्वस्त करते हुए मुस्कुराया, और रूचि को अपनी बाहों में भर कर उसे कसकर आलिंगन में पकड़ लिया।
“ओह अज्जू...” रूचि के आवाज़ से लग रहा था कि वो अंदर आने से पहले भी रो रही थी, “व्ही वर सो वरीड!”
अजय रूचि को देख नहीं पा रहा था, लेकिन माया और अपनी माताओं के चेहरे के भावों को देख कर वो महसूस कर सकता था कि सभी बहुत चिंतित थीं, और कुछ समय पहले रो रही थीं। तीनों की आँखें नम थीं।
सभी उसके कारण इतना दुःखी हुए, सभी का त्यौहार ख़राब हुए, यह सोच कर उसको शर्मिंदगी महसूस हुई।
“मैं एकदम ठीक हूँ, माय लव,” उसने बहुत धीरे से रूचि के सर को सहलाते हुए उसके कान में बोला, फिर सभी की तरफ़ मुखातिब हो कर थोड़ी स्पष्ट आवाज़ में बोला, “मैं ठीक हूँ...”
“क्या यार,” कमल थोड़ा याराने वाले अंदाज़ में बोला - लेकिन उसकी बात में भी चिंता साफ़ सुनाई दे रही थी, “क्या करता रहता है! डरा दिया हमको!”
“चुप रह! कुछ भी कहता रहता है,” किशोर जी ने अपने बेटे को प्यार से झिड़का, फिर अजय की तरफ़ मुखातिब हो कर बोले, “कैसे हो बेटे?”
“परफ़ेक्ट अंकल जी,” अजय मुस्कुराया, “डॉक्टर सर ने भी यही कहा है!”
“आई ऍम सो हैप्पी कि तुम ठीक हो बेटे,” रूचि के पिता बोले, “बहुत चिंता हुई थी हमको!”
“अरे भाई साहब... कुछ नहीं हुआ है! आप नाहक ही परेशान हो गए थे... शायद थकावट, या इलेक्ट्रोलाइट्स की कमी के कारण चक्कर आ गया होगा,” अशोक जी ने माहौल को थोड़ा हल्का करने की कोशिश करी, जिससे रूचि के पिता को बुरा न लगे कि उनके ही घर पर उनके होने वाले दामाद की तबियत इस क़दर बिगड़ गई, “इसको घर ले चलेंगे... फिर मनाएँगे हम सभी साथ में मिल कर दिवाली!”
“हाँ भाई साहब,” रूचि की माँ बोलीं, “त्यौहार की ख़ुशी मनाने का कारण तो आज है,”
“तुम्हें कैसा लग रहा है बाबू?” माया ने अजय का हाथ अपने हाथों में पकड़ते हुए पूछा।
उसके लिए माया का स्नेह स्पष्ट था।
“मैं ठीक हूँ दीदी,” उसने कहा, “आप लोग यूँ ही परेशान हो गए!”
“मैं कहाँ परेशान हुई,” माया ने आँसू पोंछते हुए कहा, “हाल तो रो रो कर भाभी का बुरा हो रक्खा है,”
अजय ने रूचि की तरफ़ देखा - वो अपने आँसू पोंछ रही थी।
“कल से एक निवाला भी नहीं खाया है इसने,” माया ने शिकायत करी।
“बोल तो ऐसे रही हो, जैसे तुम कल से छप्पन भोग लगा रही हो,” रूचि ने रुँधे गले से माया की बात का प्रतिकार किया।
अजय जान गया कि कल से शायद ही किसी ने खाना खाया हो। अपने लिए सभी के मन में ऐसी चिंता और इतना स्नेह देख कर उसका दिल भर आया।
“आप लोग...”
अजय ने कहना शुरू ही किया कि माया ने उसकी बात को बीच में काट दिया, “डॉक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि क्या गड़बड़ है... तुम बस सो रहे थे... देर तक,”
“अरे बिटिया,” किरण जी ने माया को कुछ कहने से रोका, “अब बस कर... और राम कहानी सुनाने की ज़रुरत नहीं है!”
“हाँ माँ! बाबू को ले कर चलते हैं...”
“हाँ हाँ,” यह कह कर सभी बड़े लोग कमरे से बाहर चले गए।
थोड़ा एकांत पा कर रूचि अजय का सीना सहलाती हुई बोली, “अज्जू, अभी कैसा लग रहा है?”
अजय कुछ बोल पाता, उससे पहले ही उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। वह सोफे पर गिर पड़ा, बेहोश।
रूचि ने घबराकर उसका चेहरा छींटों से भिगोया। मासी और रागिनी भी उठकर पास आ गईं। रूचि की माँ ने जल्दी से पानी का गिलास लाया, और कुछ ही मिनटों में अजय को होश आया। उसकी आँखें अभी भी रागिनी पर टिकी थीं, जैसे वह किसी भूत को देख रहा हो।
रूचि ने उसके माथे को सहलाते हुए पूछा, “अज्जू, क्या हुआ? तुम अचानक ऐसे... क्यों...? कैसे...?”
अजय ने दो पल सोचा कि क्या कहे रूचि से वो... फिर बोला,
“रूचि... मुझे तुमको कुछ बताना है,”
“ओके?”
“रूचि... समय चाहिए मुझे... इतनी जल्दी नहीं कह पाऊँगा सब,”
“ओके,”
“अरे चलो उठो...” किरण जी एक नर्स के साथ भीतर आईं, “रूचि बेटे, चलो... गाड़ियाँ रेडी हैं,”
“जी माँ,” फिर अजय को देख कर, “घर पे?”
अजय ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
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