Yamraaj
Put your Attitude on my Dick......
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Sabka to pata chal Gaya but ye sala safedposh kidhar gayab h ....
Very nice story☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 16
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अब तक,,,,,
"हाथ में बंदूख ले कर।" मैंने ब्यंग भाव से मुस्कुराते हुए कहा____"और कुत्तों की फ़ौज ले कर मुझे मत डराइए चाचा जी। वैभव सिंह उस ज़लज़ले का नाम है जिसकी दहाड़ से पत्थरों के भी दिल दहल जाते हैं। ख़ैर आप इन लोगों को ले जाइए क्योंकि इन्हें ही न्याय की ज़रूरत है। दादा ठाकुर का जो भी फैसला हो उसका फ़रमान ज़ारी कर दीजिएगा। वैभव सिंह आपसे वादा करता है कि फ़ैसले का फरमान सुन कर सज़ा के लिए हाज़िर हो जाएगा।"
मेरी बात सुन कर जहां दोनों शाहूकार और उनके बेटे आश्चर्य चकित थे वहीं जगताप चाचा दाँत पीस कर रह गए। इधर मैं इतना कहने के बाद पलटा और चन्द्रभान की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला____"तेरे बाप का वीर्य तो गंदे नाली के पानी से भी ज़्यादा गया गुज़रा निकला रे...चल हट सामने से।"
चन्द्रभान मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह तिलमिला कर रह गया जबकि मैं अपने कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ आगे बढ़ गया मगर मैं ये न देख सका कि मेरे जाते ही वहां पर किसी के होठों पर बहुत ही जानदार और ज़हरीली मुस्कान उभर आई थी।
अब आगे,,,,,
साहूकारों के लड़कों को पेलने का मौका तो बढ़िया मिला था मुझे लेकिन चाचा जी के आ जाने से सारा खेल बिगड़ गया था। ख़ैर शाम होने वाली थी और आज क्योंकि होलिका दहन था इस लिए गांव के सब लोग उस जगह पर जमा हो जाने वाले थे जहां पर होलिका दहन होना था। हालांकि अभी उसमे काफी वक़्त था मगर मैंने मुंशी की बहू को यही सोच कर बगीचे में मिलने के लिए कहा था कि उसका ससुर यानी कि मुंशी और पति रघुवीर घर से जल्दी ही हवेली के लिए निकल जाएंगे। वैसे भी मैंने मुंशी की गांड में डंडा डाल दिया था कि वो परसों मेरे लिए एक छोटे से मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाए। हलांकि हवेली में आज जो कुछ भी हुआ था उससे इसकी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी मुझे उम्मीद थी कि मुंशी कुछ भी कर के दादा ठाकुर को इसके लिए राज़ी कर ही लेगा।
मैं हवेली से गुस्से में आ तो गया था मगर अब मुझे अपने लिए कोई ठिकाना भी खोजना था। हवेली में दादा ठाकुर के सामने जाते ही पता नहीं मुझे क्या हो जाता था कि मैं उनसे सीधे मुँह बात ही नहीं करता था और सिर्फ उन्हीं बस से ही नहीं बल्कि कुसुम के अलावा सबसे मेरा ऐसा ही बर्ताव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आज कल मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है और क्यों मैं अपने घर वालों से सीधे मुँह बात नहीं करता? क्या इसकी वजह ये है कि मैंने चार महीने उस बंज़र ज़मीन में रह कर ऐसी सज़ा काटी है जो मुझे नहीं मिलनी चाहिए थी या फिर इसकी वजह कुछ और भी थी? दूसरी कोई वजह क्या थी इसके बारे में फिलहाल मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
मुरारी काका की हत्या का मामला अपनी जगह अभी भी मेरे लिए एक रहस्य के रूप में बना हुआ था और मैं उनके इस मामले पर कुछ कर नहीं पा रहा था। असल में कुछ करूं तो तब जब मुझे कुछ समझ आए या मुझे इसके लिए कुछ करने का मौका मिले। आज अनुराधा से मिला तो उसने जो कुछ कहा उससे तो मेरे लौड़े ही लग गए थे और फिर मैं भी भावना में बह कर उससे ये वादा कर के चला आया कि अब मैं उसे तभी अपनी शक्ल दिखाऊंगा जब मैं उसके पिता के हत्यारे का पता लगा लूंगा। मुझे अब समझ आ रहा था कि इस तरह भावना में बह कर मुझे अनुराधा से ऐसा वादा नहीं करना चाहिए था मगर अब भला क्या हो सकता था? मैं अब अपने ही वादे को तोड़ नहीं सकता था।
मुझे याद आया कि पिता जी ने मुरारी की हत्या की जांच के लिए गुप्त रूप से दरोगा को कहा था तो क्या मुझे इस मामले में दरोगा से मिलना चाहिए? क्या दरोगा इस मामले में मेरी कुछ मदद करेगा? मेरा ख़याल था कि वो मेरी मदद नहीं करेगा क्योंकि उसे दादा ठाकुर ने शख़्त हुकुम दिया होगा कि वो इस मामले में उनके अलावा किसी से कोई ज़िक्र न करे। इसका मतलब इस मामले में जो कुछ करना है मुझे ही करना है मगर कैसे? आख़िर मैं कैसे मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊं? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ फटने लगा तो मैंने सिर को झटका और चलते हुए मुंशी के घर के पास आया।
मुंशी के घर के पास आया तो देखा मुंशी और रघुवीर दोनों बाप बेटे अपने घर के बाहर ही खड़े थे। घर के दरवाज़े पर मुंशी की बीवी प्रभा खड़ी थी जिससे मुंशी कुछ कह रहा था। मैंने कुछ सोचते हुए फ़ौरन ही खुद को पीछे किया और बगल से लगे एक आम के पेड़ के पीछे छुपा लिया। मैं नहीं चाहता था कि इस वक़्त मुंशी और उसके बेटे की नज़र मुझ पर पड़े। इधर पेड़ के पीछे छुपा मैं उन दोनों को ही देख रहा था। कुछ देर मुंशी अपनी बीवी से जाने क्या कहता रहा उसके बाद उसने अपने बेटे रघुवीर को चलने का इशारा किया तो वो अपने बाप के साथ चल पड़ा।
मुंशी और रघुवीर जब काफी आगे निकल गए तो मैं पेड़ के पीछे से निकला और सड़क पर आ गया। मैंने देखा मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद हो चुका था। खिड़की से दिए के जलने की रौशनी दिख रही थी मुझे। ख़ैर मैं सड़क पर चलते हुए काफी आगे आ गया और फिर सड़क से उतर कर बाएं तरफ खेत की पगडण्डी पकड़ ली। ये पगडण्डी हमारे बगीचे की तरफ जाती थी जो यहाँ से एक किलो मीटर की दूरी पर था।
पगडण्डी के दोनों तरफ खेत थे। खेतों में गेहू की पकी हुई फसल थी जिसमे कटाई चल रही थी। मैं जानता था कि इस पगडण्डी से खेतों में कटाई करने वाले मजदूरों से मेरी मुलाक़ात हो जाएगी इस लिए मैं जल्दी जल्दी चलते हुए उन खेतों को पार कर रहा था जिन खेतों में फसल की कटाई शुरू थी क्योंकि मजदूर इन्हीं खेतों पर मौजूद थे।
अंधेरा होता तो इसका मुझे फायदा होता किन्तु चांदनी रात थी इस लिए वहां मौजूद मजदूर मुझे देख सकते थे। मैं जल्दी ही वो सारे खेत पार कर के आगे निकल गया। वैसे तो बगीचे में जाने के लिए एक दूसरा रास्ता भी था लेकिन वो थोड़ा दूर था इस लिए मैंने पगडण्डी से बगीचे पर जाना ज़्यादा सही समझा था। यहाँ से जाने में वक़्त भी कम लगता था। पगडण्डी पर चलते हुए मैं कुछ देर में बगीचे के पास पहुंच गया। बगीचे में आम के पेड़ लगे हुए थे और ये बगीचा करीब दस एकड़ में फैला हुआ था। इसी बगीचे के दाहिनी तरफ कुछ दूरी पर एक पक्का मकान भी बना हुआ था जिसमे जगताप चाचा अक्सर रुकते थे।
मैं मकान की तरफ न जा कर बगीचे की तरफ बढ़ गया। मुंशी की बहू रजनी को मैंने इसी बगीचे में जाने कितनी ही बार बुला कर चोदा था। बगीचे में अपने अड्डे पर आ कर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ गया। शाम के इस वक़्त यहाँ पर कोई भी आने का साहस नहीं करता था किन्तु मेरी बात अलग थी। मैं मस्त मौला इंसान था और किसी बात से डरता नहीं था।
पेड़ के नीचे बैठा मैं उस सबके बारे में सोचता रहा जो कुछ आज हुआ था। पहले साहूकार हरिशंकर के लड़के मानिक का हाथ तोड़ना, फिर हवेली आ कर दादा ठाकुर से बहस करना, उस बहस में जगताप चाचा जी का मुझे थप्पड़ मारना, उसके बाद गुस्से में हवेली से आ कर मणिशंकर के दोनों बेटों से झगड़ा होना। जगताप चाचा जी अगर न आते तो शायद ये मार पीट आगे भी जारी ही रहती और बहुत मुमकिन था कि इस मार पीट में मेरे साथ या मणिशंकर के लड़कों के साथ बहुत बुरा हो जाता।
मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जब मेरे घर वालों के साथ मेरे अच्छे रिश्ते नहीं हैं तो बाहर के लोगों की तो बात ही अलग है। आख़िर ऐसा क्या है कि मेरे अपनों के साथ मेरे रिश्ते अच्छे नहीं हैं या मेरी उनसे बन नहीं पाती है? चार महीने पहले भी मैं ऐसा ही था लेकिन पहले आज जैसे हालात बिगड़े हुए नहीं थे। पहले भी दादा ठाकुर का बर्ताव ऐसा ही था जैसा कि आज है मगर उनके अलावा बाकी लोगों का बर्ताव पहले जैसा आज नहीं है। जहां तक मेरा सवाल है मैं पहले भी ऐसा ही था और आज भी वैसा ही हूं, फ़र्क सिर्फ इतना है कि जब मुझे गांव से निष्कासित कर दिया गया तो मेरे अंदर अपनों के प्रति गुस्सा और भी ज़्यादा बढ़ गया। मैं पहले भी किसी की नहीं सुनता था और आज भी किसी की नहीं सुनता हूं। मैं तो वैसा ही हूं मगर क्या हवेली के लोग वैसे हैं? मेरे बड़े भैया का बर्ताव बदल गया है और जगताप चाचा जी के दोनों लड़को का भी बर्ताव बदल गया है। सवाल है कि आख़िर क्यों उन तीनों का बर्ताव बदल गया है? उन तीनों को आख़िर मुझसे क्या परेशानी है?
मेरे ज़हन में कुसुम और भाभी की बातें गूँज उठीं। अपने नटखटपन और अपनी चंचलता के लिए मशहूर कुसुम ने उस दिन गंभीर हो कर कुछ ऐसी बातें कही थी जिनमे शायद गहरे राज़ छुपे थे। भाभी ने तो साफ़ शब्दों में मुझसे कहा था कि उनके पति दादा ठाकुर की जगह लेने के लायक नहीं हैं। सवाल है कि आख़िर क्यों एक पत्नी अपने ही पति के बारे में ऐसा कहेगी और मुझे दादा ठाकुर की जगह लेने के लिए ज़ोर देगी?
मैं ये सब सोचते हुए एक अजीब से द्वन्द में फंस गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं आख़िर करूं तो करूं क्या? एक तरफ तो मैं इस सबसे कोई मतलब ही नहीं रखना चाहता था और दूसरी तरफ ये सारे सवाल मुझे गहरे ख़यालों में डूबा रहे थे। एक तरफ मुरारी काका की हत्या का मामला तो दूसरी तरफ हवेली में मेरे अपनों की समस्या और तीसरी तरफ इन साहूकारों का मामला। अगर मानिकचंद्र की बात सच है तो ये भी एक सोचने वाली बात ही होगी कि अचानक ही साहूकारों के मन में ठाकुरों से अपने रिश्ते सुधार लेने का विचार क्यों आया? कहीं सच में ये कोई गहरी साज़िश तो नहीं चल रही ठाकुरों के खिलाफ़? अचानक ही मेरे ज़हन में पिता जी के द्वारा कही गई उस दिन की बात गूँज उठी। अगर उन्हें लगता है कि ऐसा कुछ सच में हो रहा है तो ज़ाहिर है कि यकीनन ऐसा ही होगा।
अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी एक आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। बगीचे की ज़मीन पर पड़े सूखे पत्ते किसी के चलने से आवाज़ करते सुनाई देने लगे थे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। सतर्क हो जाने का कारण भी था क्योंकि आज कल सच में मेरा वक़्त ख़राब चल रहा था।
"छोटे ठाकुर।" तभी मेरे कानों में धीमी मगर मीठी सी आवाज़ पड़ी। उस आवाज़ को मैं फ़ौरन ही पहचान गया। ये आवाज़ मुंशी की बहू रजनी की थी। जो अँधेरे में मुझे धीमी आवाज़ में छोटे ठाकुर कह कर पुकार रही थी।
रजनी की आवाज़ पहचानते ही मैं तो खुश हुआ ही किन्तु मेरा लौड़ा भी खुश हो गया। कमीना पैंट के अंदर ही कुनमुना उठा था, जैसे उसने भी अपनी रानी को सूंघ लिया हो।
"बड़ी देर लगा दी आने में।" मैंने उठ कर उसके क़रीब जाते हुए कहा____"मैं कब से तेरे आने की राह ताक रहा था।"
"क्या करूं छोटे ठाकुर।?" रजनी मेरी आवाज़ सुन कर मेरी तरफ बढ़ते हुए बोली____"मां जी की वजह से आने में देरी हो गई।"
"ऐसा क्यों?" मैंने उसके पास पहुंचते ही बोला____"क्या तेरी सास ने तुझे खूंटे से बांध दिया था?"
"नहीं ऐसी बात तो नहीं है।" रजनी ने अपने हाथ में लिए पानी से भरे डोलचे को ज़मीन पर रखते हुए कहा____"वो दिशा मैदान के लिए मुझे अपने साथ ले जाना चाहतीं थी।"
"अच्छा फिर?" मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"फिर कैसे मना किया उसे?"
"मैंने उनसे कहा कि मुझे अभी हगास नहीं लगी है।" रजनी ने हंसते हुए कहा_____"इस लिए आप जाओ और जब मुझे हगास लगेगी तो मैं खुद ही चली जाऊंगी।"
"अच्छा फिर क्या कहा तेरी सास ने?" मैंने रजनी की एक चूची को उसके ब्लॉउज के ऊपर से ही मसलते हुए कहा तो रजनी सिसकी लेते हुए बोली____"क्या कहेंगी? गाली दे कर हगने चली गईं और फिर जब वो वापस आईं तो मैंने कहा कि माँ जी मुझे भी हगास लग आई है। मेरी बात सुन कर माँ जी ने मुझे गरियाते हुए कहा भोसड़ी चोदी जब पहले चलने को कह रही थी तब तो बोल रही थी कि हगास ही नहीं लगी है। अब अकेले ही जा और हग के आ।"
मैं रजनी की बातें सुन कर हंसते हुए बोला____"अच्छा तो इस लिए आने में देर हो गई तुझे?"
"और नहीं तो क्या?" रजनी ने मेरे सीने में हाथ फेरते हुए कहा____"वरना मैं तो यही चाहती थी कि उड़ के जल्दी से आपके पास पहुंच जाऊं और फिर आपका...!"
"आपका क्या??" मैंने उसके चेहरे को अपने चेहरे की तरफ उठा कर कहा____"खुल कर बोल न?"
"और फिर आपका ये मोटा तगड़ा लंड।" रजनी ने मेरे पैंट के ऊपर से मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"अपनी प्यासी चूत में डलवा कर आपसे चुदाई करवाऊं। शशशश छोटे ठाकुर आज ऐसे चोदिए मुझे कि चार महीने की प्यास आज ही बुझ जाए और मेरी तड़प भी मिट जाए।"
रजनी बाइस साल की कड़क माल थी। साल भर पहले उसकी शादी रघुवीर से हुई थी। पहले तो मेरी नज़र उस पर नहीं पड़ी थी लेकिन जब पड़ी तो मैंने उसे अपने नीचे लेटाने में देर नहीं लगाई। मुँह दिखाई में चांदी की एक अंगूठी उसे दी तो वो लट्टू हो गई थी मुझ पर। रही सही कसर अंजाने में मुंशी की बीवी ने मेरी तारीफें कर के पूरी कर दी थी।
"क्या सोचने लगे छोटे ठाकुर?" रजनी की इस आवाज़ से मैं ख्यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा तो उसने कहा____"मुझे यहाँ से जल्दी जाना भी होगा इस लिए जो करना है जल्दी से कर लीजिए।"
रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को ऊपर किया और अपने होठ उसके दहकते होठों में रख दिए। रजनी मुझसे जोंक की तरह लिपट गई और खुद भी मेरे होंठों को चूमने चूसने लगी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर उसकी एक चूची को पकड़ लिया और मसलने लगा जिससे उसकी सिसकियां मेरे मुँह में ही दब कर रह गईं।
कुछ देर हम दोनों एक दूसरे के होठों को चूमते रहे उसके बाद रजनी झट से नीचे बैठ गई और मेरे पैंट को खोलने लगी। कुछ ही पलों में उसने मेरे पैंट को खोल कर और मेरे कच्छे को नीचे कर के मेरे नाग की तरह फुँकारते हुए लंड को पकड़ लिया।
"आह्ह छोटे ठाकुर।" मेरे लंड को सहलाते हुए उसने सिसकी लेते हुए कहा____"आपके इसी लंड के लिए तो चार महीने से तड़प रही थी मैं। आज इसे जी भर के प्यार करुँगी और इसे अपनी चूत में डलवा कर इसकी सवारी करुंगी।"
कहने के साथ ही रजनी ने अपना चेहरा आगे कर के मेरे लंड को अपने मुँह में लपक लिया। उसके कोमल और गरम मुँह में जैसे ही मेरा लंड गया तो मेरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ गई। मेरा लंड इस वक़्त अपने पूरे शबाब पर था और उसकी मुट्ठी में समां नहीं रहा था। लंड का टोपा उसके मुख में था जिसे वो जल्दी जल्दी अपने सिर को आगे पीछे कर के चूसे जा रही थी। मैंने मज़े के तरंग में अपने हाथों से उसके सिर को पकड़ा और अपने लंड की तरफ खींचा जिससे मेरा लंड उसके मुख में और भी अंदर घुस गया। मोटा लंड रजनी के मुख में गया तो वो गूं गूं की आवाज़ें निकालने लगी।
मुझे इतना मज़ा आ रहा था कि मैं रजनी का सिर पकड़ कर उसके मुख में अपने लैंड को और भी अंदर तक घुसेड़ता ही जा रहा था। मुझे इस बात का अब होश ही नहीं रह गया था कि मेरे द्वारा ऐसा करने से रजनी की हालत कितनी ख़राब हो गई होगी। मैं तो रजनी के मुख को उसकी चूत समझ कर ही अपने लंड को और भी अंदर तक पेलता जा रहा था। इधर रजनी बुरी तरह छटपटाने लगी थी और अपने सिर को पीछे की तरफ खींच लेने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही थी जबकि मैं चेहरा ऊपर किए और अपनी आँखे मूंदे पूरे ज़ोर से उसका सिर पकड़े अपनी कमर हिलाए जा रहा था।
रजनी की हालत बेहद नाज़ुक हो चली थी। जब उसने ये जान लिया कि अब वो मेरी पकड़ से अपना सिर पीछे नहीं खींच सकती तो उसने मेरी जांघ पर ज़ोर से च्युंटी काटी जिससे मैं एकदम से चीख पड़ा और झट से अपना लंड उसके मुख से निकाल कर पीछे हट गया।
"मादरचोद साली रंडी।" फिर मैंने उसे गाली देते हुए कहा____"च्युंटी क्यों काटी मुझे?"
"म..मैं..मैं क्या करती छोटे ठाकुर?" रजनी ने बुरी तरह हांफते हुए और खांसते हुए कहा____"अगर मैं ऐसा न करती तो आप मेरी जान ही ले लेते।"
"ये क्या बकवास कर रही है तू?" मैं एकदम से चौंकते हुए बोला____"मैं भला तेरी जान क्यों लूँगा?"
"आपको तो अपना लंड मेरे मुँह में डाल कर मेरा मुंह चोदने में मज़ा आ रहा था।" रजनी ने अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए कहा____"मगर आप अपने मज़े में ये भूल गए थे कि आप अपने इस मोटे लंड को मेरे मुँह में गले तक उतार चुके थे जिससे मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी। थोड़ी देर और हो जाती तो मैं तो मर ही जाती। आप बहुत ज़ालिम हैं छोटे ठाकुर। आपको अपने मज़े के आगे दूसरे की कोई फ़िक्र ही नहीं होती।"
रजनी की बातें सुन कर जैसे अब मुझे बोध हुआ था कि मज़े के चक्कर में मुझसे ये क्या हो गया था। मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मैंने रजनी को उसके दोनों कन्धों से पकड़ कर ऊपर उठाया और फिर उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में ले कर कहा____"मुझे माफ़ कर दे रजनी। मैं सच में ये भूल ही गया था कि मैं मज़े में क्या कर रहा था।"
"आप नहीं जानते कि उस वक़्त मेरी हालत कितनी ख़राब हो गई थी।" रजनी ने बड़ी मासूमियत से कहा____"मैं ये सोच कर बुरी तरह घबरा भी गई थी कि कहीं मैं सच में न मर जाऊं।"
"मैंने कहा न कि मुझसे भूल हो गई मेरी जान।" मैंने रजनी के दाएं गाल को प्यार से चूमते हुए कहा____"अब दुबारा ऐसा नहीं होगा।"
रजनी मेरी बात सुन कर मुस्कुराई और फिर मेरे सीने से छुपक गई। कुछ पलों तक वो मुझसे ऐसे ही छुपकी रही फिर मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके चेहरे को पकड़ कर उसके होठों पर अपने होंठ रख दिए। अब मैं अपना होश नहीं खोना चाहता था। इस लिए बड़े प्यार से रजनी के होठों को चूमने लगा। रजनी खुद भी मेरा साथ देने लगी थी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर रजनी के ब्लॉउज के बटन खोले और उसकी दोनों मुलायम चूचियों को बाहर निकाल कर एक चूंची को मसलते हुए दूसरी चूंची को अपने मुँह में भर लिया।
रजनी के सीने के उभार मेरे हाथ में पूरी तरह समां रहे थे और मैं उन्हें सहलाते हुए मुँह में भर कर चूमता भी जा रहा था। रजनी मज़े में सिसकारियां भरने लगी थी और अपने एक हाथ से मेरे सिर को अपनी चूंची पर दबाती भी जा रही थी। मैंने काफी देर तक रजनी की चूचियों को मसला और उसके निप्पल को मुँह में भर कर चूसा। उसके बाद मैंने रजनी को अपनी साड़ी उठाने को कहा तो उसने दोनों हाथों से अपनी साड़ी उठा कर पलट गई।
पेड़ पर अपने दोनों हाथ जमा कर रजनी झुक गई थी। उसकी साड़ी और पेटीकोट उसकी कमर तक उठा हुआ था। मैंने आगे बढ़ कर अँधेरे में ही रजनी की चूत पर अपने लंड को टिकाया और फिर उसकी कमर पकड़ कर अपनी कमर को आगे की तरफ ठेल दिया जिससे मेरा मोटा लंड रजनी की चूत में समाता चला गया। लंड अंदर गया तो रजनी के मुख से आह निकल गई। मुझे रजनी की चूत इस बार थोड़ी कसी हुई महसूस हुई थी। शायद चार महीने मेरे लंड को न लेने का असर था। ख़ैर लंड को उसकी चूत के अंदर डालने के बाद रजनी की कमर को पकड़े मैंने धक्के लगाने शुरू कर दिए।
बगीचे के शांत वातावरण में जहां एक तरफ मेरे द्वारा लगाए जा रहे धक्कों की थाप थाप करती आवाज़ गूँज रही थी वहीं हर धक्के पर रजनी की आहें और सिसकारियां गूँज रही थीं। रजनी मज़े में आहें भरते हुए मुझसे जाने क्या क्या कहती जा रही थी। इधर मैं उसकी बातें सुन कर दोगुने जोश में धक्के लगाये जा रहा था। काफी दिनों बाद आज चूत मिली थी मुझे।
"आह्ह छोटे ठाकुर इसी के लिए तो तड़प रही थी इतने महीनों से।" रजनी अपनी उखड़ी हुई साँसों को सम्हालते हुए और सिसकियां लेते हुए बोली____"आह्ह आज मेरे चूत की प्यास बुझा दीजिए अपने इस हलब्बी लंड से। आह्ह्ह और ज़ोर से छोटे ठाकुर आह्ह्ह बहुत मज़ा आ रहा है। काश! आपके जैसा लंड मेरे पति का भी होता।"
"साली रांड ले और ले मेरा लंड अपनी बुर में।" मैंने हचक हचक के उसकी चूत में अपना लंड पेलते हुए कहा____"तेरे पति का अगर मेरे जैसा लंड होता तो क्या तू मुझसे चुदवाती साली?"
"हां छोटे ठाकुर।" रजनी ने ज़ोर ज़ोर से आहें भरते हुए कहा____"मैं तब भी आपसे चुदवाती। भला आपके जैसा कोई चोद सकता है क्या? आप तो असली वाले मरद हैं छोटे ठाकुर। मेरा मन करता है कि आह्ह्ह शशशश दिन रात आपके इस मोटे लंड को अपनी बुर में डाले रहूं।"
रजनी की बातें सुन कर मैं और भी जोश में उसकी बुर में अपना लंड डाले उसे चोदने लगा। मेरे धक्के इतने तेज़ थे कि रजनी ज़्यादा देर तक पेड़ का सहारा लिए झुकी न रह सकी। कुछ ही देर में उसकी टाँगे कांपने लगीं और एकदम से उसका जिस्म अकड़ गया। झटके खाते हुए रजनी बड़ी तेज़ी से झड़ रही थी जिससे उसकी बुर के अंदर समाया हुआ मेरा लंड उसके चूत के पानी से नहा गया और बुर में बड़ी आसानी से फच्च फच्च की आवाज़ करते हुए अंदर बाहर होने लगा।
रजनी झड़ने के बाद एकदम से शांत पड़ गई थी और जब उससे झुके न रहा गया तो मैंने उसकी चूत से लंड निकाल कर उसे वहीं पर नीचे सीधा लिटा दिया। रजनी को सीधा लेटाने के बाद मैंने उसकी दोनों टाँगें फैलाई और टांगों के बीच में आते हुए उसकी चूत में लंड पेल दिया रजनी ने ज़ोर की सिसकी ली और इधर मैं उसकी दोनों टांगों को अपने कन्धों पर टिका कर ज़ोर ज़ोर से धक्के लगाने लगा। बगीचे में पेड़ों की वजह से अँधेरा था इस लिए मुझे उसका चेहरा ठीक से दिख तो नहीं रहा था मगर मैं अंदाज़ा लगा सकता था कि रजनी अपनी चुदाई का भरपूर मज़ा ले रही थी। कुछ ही देर में रजनी के शिथिल पड़े जिस्म पर फिर से जान आ गई और वो मुख से आहें भरते हुए फिर से बड़बड़ाने लगी।
मैं कुछ पल के लिए रुका और झुक कर रजनी की एक चूंची के निप्पल को मुँह में भर लिया जबकि दूसरी चूंची को एक हाथ से मसलने लगा। मेरे ऐसा करने पर रजनी मेरे सिर को पकड़ कर अपनी चूंची पर दबाने लगी। वो फिर से गरम हो गई थी। कुछ देर मैंने बारी बारी से उसकी दोनों चूचियों के निप्पल को चूसा और मसला उसके बाद चेहरा उठा कर फिर से धक्के लगाने लगा।
रजनी की चूंत में मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था और रजनी मज़े में आहें भर रही थी। मुझे महसूस हुआ कि मेरे जिस्म में दौड़ते हुए खून में उबाल आने लगा है और अद्भुत मज़े की तरंगे मेरे जिस्म में दौड़ते हुए मेरे लंड की तरफ बढ़ती जा रही हैं। मैं और तेज़ी से धक्के लगाने लगा। रजनी बुरी तरह सिसकारियां भरने लगी और तभी फिर एकदम से उसका जिस्म अकड़ने लगा और वो झटके खाते हुए फिर से झड़ने लगी। इधर मैं भी अपने चरम पर था। इस लिए पूरी ताकत से धक्के लगाते हुए आख़िर मैं भी मज़े के आसमान में उड़ने लगा और मेरे लंड से मेरा गरम गरम वीर्य रजनी की चूंत की गहराइयों में उतरता चला गया। झड़ने के बाद मैं बुरी तरह हांफते हुए रजनी के ऊपर ही ढेर हो गया। चुदाई का तूफ़ान थम गया था। कुछ देर मैं यूं ही रजनी के ऊपर ढेर हुआ अपनी उखड़ी हुई साँसों को शांत करता रहा उसके बाद मैं उठा और रजनी की चूंत से अपना लंड बाहर निकाल लिया। रजनी अभी भी वैसे ही शांत पड़ी हुई थी।
"अब ज़िंदा लाश की तरह ही पड़ी रहेगी या उठेगी भी?" मैंने अपने पैंट को ठीक से पहनते हुए रजनी से कहा तो उसने थकी सी आवाज़ में कहा____"आपने तो मुझे मस्त कर दिया छोटे ठाकुर। मज़ा तो बहुत आया लेकिन अब उठने की हिम्मत ही नहीं है मुझ में।"
"ठीक है तो यहीं पड़ी रह।" मैंने कहा____"मैं तो जा रहा हूं अब।"
"मुझे ऐसे छोड़ के कैसे चले जाएंगे आप?" रजनी ने कराहते हुए कहा, शायद वो उठ रही थी जिससे उसकी कराह निकल गयी थी, बोली____"बड़े स्वार्थी हैं आप। अपना मतलब निकल गया तो अब मुझे छोड़ कर ही चले जाएंगे?"
"मतलब सिर्फ मेरा ही बस तो नहीं निकला।" मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा____"तेरा भी तो निकला ना? तूने भी तो मज़े लिए हैं।"
"वैसे आज आपको हो क्या गया था?" खड़े होने के बाद रजनी ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा____"इतनी ज़ोर ज़ोर से मेरी बुर चोद रहे थे कि मेरी हालत ही ख़राब हो गई।"
"तूने ही तो कहा था कि चार महीने की प्यास आज ही बुझा दूं।" मैंने उसे खींच कर अपने से छुपकाते हुए कहा____"इस लिए वही तो कर रहा था। वैसे अगर तेरी प्यास न बुझी हो तो बता दे अभी। मैं एक बार फिर से तेरी बुर में अपना लंड डाल कर तेरी ताबड़तोड़ चुदाई कर दूंगा।"
"ना बाबा ना।" रजनी ने झट से कहा____"अब तो मुझ में दुबारा करने की हिम्मत ही नहीं है। आपके मोटे लंड ने तो एक ही बार में मेरी हालत ख़राब कर दी है। अब अगर फिर से किया तो मैं घर भी नहीं जा पाऊंगी।"
रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया और उसके होठों को चूमने लगा। उसके शहद जैसे मीठे होठों को मैंने कुछ देर चूमा चूसा और फिर उसकी चूचियों को मसलते हुए उसे छोड़ दिया।
"लगता है आपका अभी मन नहीं भरा है।" रजनी ने अपने ब्लॉउज के बटन लगाते हुए कहा____"लेकिन मैं बता ही चुकी हूं कि अब दुबारा करने की मुझ में हिम्मत नहीं है। अभी भी ऐसा महसूस हो रहा है जैसे आपका मोटा लंड मेरी बुर में अंदर तक घुसा हुआ है।"
"तुझे चोदने से मेरा मन कभी नहीं भरेगा मेरी जान।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तू कह रही है कि अब तुझमे हिम्मत ही नहीं है चुदवाने की वरना मैं तो एक बार और तुझे जी भर के चोदना चाहता था।"
"रहम कीजिए छोटे ठाकुर।" रजनी दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"फिर किसी दिन मुझे चोद लीजिएगा लेकिन आज नहीं। वैसे भी बहुत देर हो गई है। माँ जी मुझ पर गुस्सा भी करेंगी।"
"चल ठीक है जा तुझे बक्श दिया।" मैंने कहा____"वैसे आज मैं तेरे ही घर में रुकने वाला हूं।"
"क्या???" रजनी चौंकते हुए बोली____"मेरा मतलब है कि क्या सच में?"
"हां मेरी जान।" मैंने कहा____"अब मैं हवेली नहीं जाऊंगा। आज की रात तेरे ही घर में गुज़ारुंगा। कल कोई दूसरा ठिकाना देखूंगा।"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रजनी ने हैरानी से पूछा____"और हवेली क्यों नहीं जाएंगे आप?"
"बस मन भर गया है हवेली से।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"असल में हवेली मेरे जैसे इंसान के लिए है ही नहीं। ख़ैर छोड़ ये बात और निकल यहाँ से। तेरे घर पहुंचने के बाद मैं भी कुछ देर में आ जाऊंगा।"
मैंने रजनी को घर भेज दिया और खुद बगीचे से निकल कर उस तरफ चल दिया जहां पर मकान बना हुआ था। मकान के पास आ कर मैं चबूतरे पर बैठ गया। रजनी को छोड़ने के बाद मेरे अंदर की कुछ गर्मी निकल गई थी और अब ज़हन कुछ शांत सा लग रहा था। अभी मैं रजनी के बारे में सोच ही रहा था कि तभी किसी चीज़ की आहट को सुन कर मैं चौंक पड़ा।
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Nice updateअध्याय - 74"आप जानती थी न कि मुझे सब पता है?" रूपा ने कहा____"इसी लिए तो आपने मुझे मेरे कमरे में बंद कर दिया था ताकि मैं यहां ना आ सकूं और किसी को सच न बता सकूं? आख़िर क्या सोच कर अब आप सब सच को छुपा रही हैं मां? क्या आप सब ये चाहती हैं कि जो ज़िंदा बचे हुए हैं उनकी भी हत्या हो जाए?"
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रूपा की बात सुन कर ललिता देवी कुछ न बोल सकी। बस अपने दांत पीस कर रह गईं। यही हाल उनकी जेठानी और बाकी देवरानियों का भी था। फिर सहसा जैसे उन्हें किसी बात का एहसास हुआ तो एक एक कर के सभी चेहरों के भाव बदलते नज़र आए।
अब आगे....
"मुझमें अब यहां से कहीं जाने की हिम्मत नहीं है रूप बेटा।" पास ही के जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे गौरी शंकर ने असहाय भाव से कहा____"मुझे समझ आ गया है कि हम अपनी मौत से दूर नहीं भाग सकते। मेरे भाई मेरे बच्चे सब मर चुके हैं और अब मैं भी जीना नहीं चाहता।"
"बदला लिए बिना हम मर नहीं सकते काका।" रूपचंद्र ने गुस्से से कहा____"हिसाब तो बराबर का करना ही पड़ेगा। उन्होंने हमारे इतने सारे अपनों की जान ली है तो उनमें से भी किसी को ज़िंदा रहने का हक़ नहीं है।"
"नहीं रूप बेटा।" गौरी शंकर जाने किस चीज़ की कल्पना से कांप उठा था, बोला____"अब ऐसा सोचना भी मत। हमने अपने सभी लोगों को खो दिया है। खानदान का वंश बढ़ाने के लिए अब सिर्फ तुम ही बचे हो मेरे बच्चे। इस लिए अब अपने ज़हन में बदले का कोई भी ख़याल मत लाओ।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं काका?" रूपचंद्र ने चीखते हुए कहा____"नहीं, हर्गिज़ नहीं। मैं उनमें से किसी को भी ज़िंदा नहीं छोडूंगा। जैसे हमारा खानदान पूरी तरह से मिटा दिया है दादा ठाकुर ने उसी तरह मैं उसके भी खानदान का नामो निशान मिटा दूंगा। हवेली के ज़र्रे ज़र्रे में करुण क्रंदन गूंजेगा।"
"नहीं बेटा ऐसा मत कह।" गौरी शंकर बेबस भाव से कह उठा____"तुझे मरे हुए हमारे अपनों की क़सम है। तू ऐसा कुछ भी करने का नहीं सोचेगा। हमारी स्थिति अब बेहद कमज़ोर हो गई है बेटा। तू अकेला उनका कुछ नहीं कर सकेगा, उल्टा होगा ये कि तू भी बाकी सबकी तरह अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। अगर ऐसा हुआ तो खानदान का वंश ही नष्ट हो जाएगा। मेरी जांघ में गोली लगी है जिसके चलते अब मैं अपाहिज सा हो गया हूं। एक तू ही है जिसे अब अपने पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी। तेरी मां, तेरी चाचियां, तेरी भाभी और तेरी बहनें उन सबका ख़याल रखना होगा तुझे। सोच अगर तुझे कुछ हो गया तो उन सबका क्या होगा? हमारी बेसहारा बहू बेटियों का जीवन नर्क सा हो जाएगा बेटा। इस लिए कहता हूं कि अब अपने अंदर किसी से भी बदला लेने का ख़याल मत ला।"
रूपचंद्र को पहली बार एहसास हुआ कि उसकी और उसके परिवार की स्थिति वास्तव में कितनी गंभीर और दयनीय हो गई है। ये एहसास होते ही उसके चेहरे पर मौजूद आक्रोश और गुस्सा किसी झाग की तरह बैठता नज़र आया।
"हमें बिल्कुल भी ये अंदाज़ा नहीं था कि अचानक से ऐसा भी कुछ हो जाएगा।" गौरी शंकर ने बेहद गंभीरता से कहा____"जो सोचा था वैसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। शायद ऊपर वाला हमेशा से ही हमारे खिलाफ़ रहा है या फिर हकीक़त यही है कि हमने बेवजह ही इतने वर्षों से अपने अंदर उनके प्रति दुश्मनी को पाले रखा था।"
"ये आप क्या कह रहे हैं काका?" रूपचंद्र ने हैरत से गौरी शंकर को देखा।
"तुझे तो बताया ही था हमने कि वर्षों पहले बड़े दादा ठाकुर की वजह से ये सब शुरू हुआ था।" गौरी शंकर ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"उसी की वजह से हमने हमारी बहन गायत्री को खोया था। उसने हमारी बहन को अपनी हवस का शिकार बनाया और फिर उसे अपने ही एक किसान के साथ जाने कहां भेज दिया। अपने कुकर्म को छुपाने के लिए उसने हर तरफ ये ख़बर फैला दी थी कि साहूकारों की बहन एक किसान के साथ भाग गई। उस समय बड़े दादा ठाकुर की तूती बोलती थी। वो खुद तो ताकतवर और जल्लाद था ही किंतु उसके ताल्लुक बड़ी बड़ी हस्तियों से भी थे। ये उसके ख़ौफ का ही असर था कि बाद में सब कुछ जान लेने के बाद भी हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके थे। हालाकि एक बार पिता जी अपनी इस ब्यथा को ले कर उसके पास गए भी थे लेकिन उसने स्पष्ट रूप से उन्हें धमकी दे कर कहा था कि अगर उन्होंने इस बारे में ज़्यादा हो हल्ला करने की हिमाकत की तो इसका अंजाम उनकी सोच से भी कहीं ज़्यादा उन्हें भुगतना पड़ जाएगा। बस, उसके बाद पिता जी कभी हवेली की दहलीज़ पर नहीं गए। हम लोग भी इतने परिपक्व अथवा ताकतवर नहीं थे जिसके चलते हम अपनी बहन के साथ हुए इस जघन्य अत्याचार का बदला ले लेते। वो तो अच्छा हुआ कि उस कुकर्मी को ऊपर वाले ने ही सज़ा दे दी। ऊपर वाले ने उसे ऐसा बीमार किया कि बड़ा से बड़ा वैद्य भी उसका इलाज़ न कर सका। उसके बाद उनकी गद्दी पर उनका बड़ा बेटा प्रताप सिंह बैठा। आश्चर्य की बात थी कि इतने बड़े कुकर्मी और जल्लाद का बेटा प्रताप सिंह अपने पिता की सोच और विचारों से बिल्कुल उलट था। हालाकि उसका भाई जगताप थोड़ा गुस्सैल स्वभाव का ज़रूर था किंतु ये सच है कि उसमें भी अपने पिता जैसे गुण नहीं थे। दोनों ही भाई अपनी मां पर गए थे।"
"जब प्रताप सिंह दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठा तो हमें फिर से इस बात का ख़ौफ होने लगा कि गद्दी में बैठने के बाद कहीं प्रताप सिंह की भी मानसिकता न बदल जाए।" कुछ पल रुकने के बाद गौरी शंकर ने कहा____"सत्ता और ताक़त का नशा ही ऐसा होता है बेटे कि अच्छे अच्छे शरीफ़ और संस्कारी लोग गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लेते हैं। हालाकि ऐसा कुछ हुआ नहीं और ये हमारे लिए आश्चर्य की बात तो थी ही किंतु हम ये भी समझते थे कि प्रताप सिंह बहुत ही धीर वीर और गंभीर प्रकृति का इंसान है। उस दिन तो हम सबको और भी ज़्यादा आश्चर्य हुआ जब प्रताप सिंह दादा ठाकुर बनने के कुछ दिन बाद ही हमारे घर खुद ही आया और हमारे पिता जी से अपने पिता के द्वारा किए गए कुकर्म के लिए माफ़ी मांगी। वो मेरे पिता जी के पैरों को पकड़ के माफ़ियां मांग रहा था और यही कह रहा था कि अब से ऐसा कुछ भी नहीं होगा बल्कि दोनों ही परिवारों के बीच गहरा प्रेम भाव रहे ऐसी वो हमेशा कोशिश करेगा। प्रताप सिंह पिता जी से माफ़ी मांग कर और ये सब कह कर भले ही चला गया था लेकिन इसके बावजूद हमारे अंदर से हवेली में रहने वालों के प्रति घृणा न गई। हवेली में रहने वाले लोग हमें कभी पसंद ही नहीं आए और यही वजह थी कि हमने अपने बच्चों के अंदर भी हवेली वालों के लिए ज़हर ही भरा। आज इतना कुछ हो जाने के बाद एहसास हो रहा है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था। हमारे गुनहगार तो बड़े दादा ठाकुर थे और उसने जो कुकर्म किए थे उसकी सज़ा ऊपर वाले ने खुद ही दे दी थी उसे। यानि हमारा प्रतिशोध उसके मर जाने पर ही ख़त्म हो जाना चाहिए था। उसके बेटे ने या उसके भाई ने तो कभी हमारे साथ कुछ बुरा नहीं किया था। अगर वो सच में अपने पिता की तरह होता तो दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठने के बाद वो खुद हमारे घर आ कर हमारे पिता जी से माफ़ी नहीं मांगता। ख़ैर शायद ये हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम कभी अपने अंदर से उनके प्रति गहराती घृणा को नहीं निकाल पाए जिसका नतीजा आज हमें इस रूप में देखने और भोगने को मिला है।"
"माना कि हम अपने अंदर से उनके प्रति घृणा को नहीं निकाल पाए काका।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन ये घृणा भी तो उन्हीं के द्वारा मिली थी हमें? अगर यही सब उनके साथ हुआ होता तो क्या वो इतने वर्षों तक चुप बैठे रहते? नहीं काका, वो तो पहले ही हमारा क्रिया कर्म कर चुके होते। हमने मान लिया कि हमसे ग़लती हुई लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि उस ग़लती के लिए हमारे पूरे खानदान को ही मिटा दिया जाए? ये कैसा न्याय है काका?"
"वहां पर कोई है शायद।" रूपचंद्र की बात पर गौरी शंकर अभी कुछ बोलने ही वाला था कि तभी एक मर्दाना आवाज़ सुन कर चौंक पड़ा। उसके साथ रूपचंद्र भी चौंक पड़ा था।
"लगता है उन्होंने हमें खोज लिया है काका।" रूपचंद्र ने एकदम से आवेश में आते हुए कहा____"हमें फ़ौरन ही यहां से निकल लेना चाहिए।"
"नहीं बेटा।" गौरी शंकर ने शांत भाव से कहा____"अब हम कहीं नहीं जाएंगे। अगर यहां से हमने भागने की कोशिश की तो संभव है कि वो लोग हम पर गोली चला दें जिससे हम दोनों ही मारे जाएं। बेहतर यही है कि हम खुद को उनके सामने आत्म समर्पण कर दें।"
"आत्म समर्पण करने से भी तो वो हमें मार ही डालेंगे काका।" रूपचंद्र के चेहरे पर एकाएक ख़ौफ के भाव उभरते नज़र आए____"क्या आपको लगता है कि वो हमें जीवित छोड़ देंगे?"
"सब ऊपर वाले पर छोड़ दो बेटा।" गौरी शंकर ने गहरी सांस ली____"अब जो होगा देखा जाएगा। आत्म समर्पण करने से बहुत हद तक संभव है कि हमारे साथ वैसा सलूक न हो जैसा हमारे अपनों के साथ हुआ है।"
"वो रहे।" तभी दाएं तरफ से एक आदमी की आवाज़ आई____"घेर लो उन दोनों को किंतु सम्हल कर।"
गौरी शंकर ने जब महसूस किया कि आवाज़ एकदम पास से ही आई है तो वो अपनी जगह से किसी तरह उठा और पेड़ के पीछे से निकल कर बोला____"गोली मत चलाना, हम खुद को आत्म समर्पण करने को तैयार हैं।"
अगले कुछ ही देर में गौरी शंकर और रूपचंद्र को गिरफ़्त में ले लिया गया। शेरा के साथ पांच आदमी और थे जिन्होंने दोनों को रस्सियों में जकड़ लिया था। तलाशी में शेरा के हाथ एक पिस्तौल लगी जो रूपचंद्र के पास थी। शेरा के इशारे पर बाकी लोग दोनों चाचा भतीजे को ले कर चल पड़े।
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जैसे ही गौरी शंकर और रूपचंद्र को लिए शेरा हवेली के विशाल मैदान में लगी पंचायत के सामने पहुंचा तो लोग बड़ी तेज़ी से तरह तरह की बातें करने लगे। उधर दोनों चाचा भतीजे को देख साहूकारों के घर की औरतें और बहू बेटियों के चेहरे देखने लायक हो गए। उन सभी के चेहरों पर डर और घबराहट साफ दिखाई देने लगी थी। ज़ाहिर है उन सभी को ये एहसास हो गया था कि उनके घर के अंतिम बचे हुए मर्द भी अब मौत के मुंह में आ गए हैं।
वातावरण में एक सनसनी सी फैल गई। मंच पर बैठे महेंद्र सिंह के कहने पर गौरी शंकर और रूपचंद्र को बेड़ियों से आज़ाद कर दिया गया। दोनों चाचा भतीजे सिर झुकाए खड़े थे। ये अलग बात है कि इसके पहले वो दोनों एक एक कर के वहां उपस्थित सभी का चेहरा देख चुके थे।
"गौरी शंकर सिंह।" मंच में कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में गौरी शंकर को देखते हुए कहा____"क्या तुम क़बूल करते हो कि तुमने मुंशी चंद्रकांत के साथ मिल कर हवेली में रहने वालों के ख़िलाफ़ गहरी साज़िश रची और फिर उसी साज़िश के तहत ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की? इतना ही नहीं चंदनपुर में अपने आदमियों को भेज कर ठाकुर साहब के छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने का प्रयास किया था?"
"नहीं नहीं।" गौरी शंकर की बीवी सुनैना सिंह तेज़ी से भागती हुई गौरी शंकर के पास आई, फिर उसे देखते हुए लगभग रोते हुए बोली____"कह दीजिए कि आप पर लगाए गए ये सारे आरोप झूठ हैं। बता दीजिए सबको कि आपने किसी के भी साथ मिल कर न तो कोई साज़िश रची है और ना ही किसी की हत्या की है।"
सुनैना की बातों को सुन कर गौरी शंकर ने सख़्ती से अपने होठ भींच लिए। चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते और लोप होते नज़र आए। तभी मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने सख़्त भाव से सुनैना देवी से कहा____"आप एक तरफ हट जाएं, हमने जिससे सवाल किया है उसे जवाब देने दें।"
सुनैना देवी तब भी न हटीं। वो अपने पति को आशा भरी नज़रों से देखती रहीं। उधर कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद गौरी शंकर ने कहा____"हां, मैं क़बूल करता हूं ठाकुर साहब कि मुंशी चंद्रकांत के साथ मिल कर हमने ही ये सब किया है।"
"नहीं.....नहीं।" सुनैना देवी पूरी ताक़त से चिल्ला उठी____"ये सच नहीं हो सकता। कह दीजिए कि ये सब झूठ है। कह दीजिए कि आपने कुछ नहीं किया है।"
सुनैना देवी कहने के साथ ही वहीं घुटनों के बल बैठ कर फूट फूट कर रोने लगी। यही हाल उनके घर की बाकी औरतों और बहू बेटियों का भी था। गौरी शंकर ने जब अपनी बीवी को यूं सरे आम फूट फूट कर रोते देखा तो उसका कलेजा हिल गया। अपने अंदर उमड़ उठे भयंकर तूफ़ान सतत को उसने अपनी आंखें बंद कर के जज़्ब करने की कोशिश की। उधर रूपचंद्र का चेहरा अजीब तरह से सख़्त नज़र आ रहा था।
"क्यों? आख़िर क्यों?" मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह तेज़ आवाज़ में बोले____"पंचायत ही नहीं बल्कि यहां उपस्थित सब लोग भी ये जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों किया तुमने?"
"हम चारो भाई।" गौरी शंकर ने अजीब भाव से कहा____"अपने अंदर से वर्षों पहले पैदा हुई नफ़रत को कभी मिटा नहीं पाए ठाकुर साहब। वर्षों पहले जो ज़ख्म बड़े दादा ठाकुर ने हमें हमारी बहन गायत्री को बर्बाद कर के दिया था वो ज़ख्म कभी भरा ही नहीं बल्कि हर गुज़रते वक्त के साथ वो नासूर ही बनता चला गया। बहुत कोशिश की हमने हवेली में रहने वालों के प्रति अपनी नफ़रत को दूर करने की मगर कभी कामयाब न हो सके। ये उसी का नतीजा है ठाकुर साहब कि हमारे द्वारा ये सब हो गया और हमारे साथ भी इतना कुछ हो गया।"
"तुम जिस ज़ख्म की बात कर रहे हो गौरी शंकर।" पिता जी ने कहा____"उसका पहले भी हमें बेहद दुख और अफ़सोस था और उसके लिए हमारे पिता भले ही खुद को गुनहगार न समझते रहे हों मगर हम ज़रूर समझते थे। तभी तो उनके बाद जब हम दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठे तो हम खुद तुम्हारे घर आए और उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराध के लिए तुम्हारे पिता जी से हमने माफ़ी मांगी थी। इतना ही नहीं ये वचन भी दिया था कि अब से कभी भी हमारे द्वारा तुम में से किसी के भी साथ बुरा नहीं होगा। ऊपर वाले की क़सम खा कर कहो कि क्या हमने अपने इस वचन को नहीं निभाया? बच्चों के लड़ाई झगड़े की बातें छोड़ो क्योंकि बच्चे तो अक्सर झगड़ते ही हैं लेकिन क्या कभी किसी ने उस नीयत से तुम्हारे साथ बुरा किया कभी?"
"माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर सहसा घुटनों के बल बैठ गया____"ये हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम चारो भाई उस बात को कभी अपने दिल से निकाल नहीं सके और हमेशा आपसे नफ़रत करते रहे। ऐसा शायद इस लिए भी कि इतने वर्षों की खोज के बाद भी जब हमें हमारी बहन कहीं नहीं मिली तो मन में हवेली में रहने वालों के प्रति नफ़रत में और भी इज़ाफा होता गया। एक ही तो बहन थी हमारी। वर्षों से हम चारो भाइयों की कलाइयां सूनी थी। जब भी रक्षाबंधन का पावन त्यौहार आता था तो बहन की याद आती थी और अपनी अपनी कलाइयां देख कर हम चारो भाइयों के अंदर टीस सी उभरती थी। बस, जिस ज़ख्म को भरने की कोशिश करते थे वो ये सब सोच कर फिर से हरा हो जाता था। ज़हन में बस यही सवाल उभरते थे कि आख़िर क्या कसूर था हमारी बहन का? क्यों वो बड़े दादा ठाकुर की हवस का शिकार हो गई और क्यों उसे इस तरह से गायब कर दिया गया कि आज इतने वर्षों बाद भी उसका कहीं कोई पता तक नहीं है? वो इस दुनिया में कहीं है भी या उसे जान से ही मार दिया गया? दादा ठाकुर, कहने के लिए अक्सर लोग बड़ी बड़ी बातें करते हैं मगर जिनके साथ गुज़रती है उसका दर्द वही जानते हैं।"
"माना कि तुम्हारी बहन के साथ गुनाह ही नहीं बल्कि संगीन अत्याचार हुआ था।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन किसी और के द्वारा किए गए गुनाह के लिए किसी दूसरे की हत्या कर देना क्या उचित था?"
"उचित तो ये भी नहीं था न ठाकुर साहब कि हमने जो किया वही दादा ठाकुर ने भी कर दिया।" गौरी शंकर ने फीकी मुस्कान के साथ कहा____"मान लिया मैंने कि हम चारो भाइयों ने किसी और के द्वारा किए गए अपराध के चलते बदले की भावना में मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की हत्या कर दी। मगर इन्होंने जो किया क्या वो सही था? अगर इन्हें सच में पता चल गया था कि हमने ही वो सब किया था तो क्या इन्हें इतना जल्दी नर संघार ही कर देना चाहिए था? क्या इन्हें एक बार भी ये नहीं सोचना चाहिए था कि हमें भी अपनी बात रखने का मौका देना चाहिए? ये तो मुखिया हैं ठाकुर साहब और सिर्फ इसी गांव बस के ही नहीं बल्कि आस पास कई गावों के भी। इसके बावजूद इन्होंने इस मामले का फ़ैसला किसी पंचायत में नहीं बल्कि जंग के मैदान में कर डाला। क्या ये अन्याय और अपराध नहीं है?"
"बेशक है।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"और यकीन मानो हर अपराधी को उचित दंड दिया जाएगा, फिर चाहे वो खुद दादा ठाकुर ही क्यों न हों।"
"हमें हमारे अपराध के लिए मिलने वाली सज़ा से इंकार नहीं है।" पिता जी ने कहा____"किंतु उससे पहले हम कुछ और भी जानना चाहते हैं। अभी भी कुछ ऐसा बाकी है जिसे हमारे लिए ही नहीं बल्कि सबके लिए जानना ज़रूरी है।"
"आपके मन में अगर अभी कुछ सवाल हैं तो बेशक पूछ सकते हैं।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"हम भी उत्सुक हैं ये जानने के लिए कि इस मामले में अभी और क्या शेष है?"
"ये तो समझ आया कि अपनी नफ़रत के चलते अथवा ये कहें कि बदले की भावना के चलते गौरी शंकर ने अपने भाइयों सहित हमारे मुंशी चंद्रकांत के साथ गठजोड़ कर के ये सब किया।" पिता जी के कहा____"किंतु हम इन लोगों से ये भी जानना चाहते हैं कि इन लोगों ने अपने साथ किसी सफ़ेदपोश का ज़िक्र क्यों नही किया? जबकि शुरू से ही वो रहस्यमय आदमी हमारे छोटे बेटे वैभव को जान से मारने की फ़िराक में रहा है और इतना ही नहीं कई बार उसने उसके ऊपर जान लेवा हमला भी किया। और तो और अभी पिछली रात वो हमारी हवेली के बाहर बने कमरे से मुरारी के भाई जगन को भी छुड़ा ले गया।"
"मैं किसी सफ़ेदपोश को नहीं जानता ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"बल्कि ये जान कर तो अब मैं खुद ही हैरान हो गया हूं कि हमारे अलावा भी कोई ऐसा था जो हवेली के किसी व्यक्ति को जान से मारना चाहता था।"
"तो आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसे किसी सफ़ेदपोश को आप नहीं जानते?" पिता जी ने कहा____"और ना ही उससे आपका कोई ताल्लुक है?"
"अगर जानता तो क़बूल करने में मुझे भला क्या आपत्ति होती ठाकुर साहब?" गौरी शंकर ने कहा____"जब इतना सब क़बूल कर लिया है तो उसके बारे में भी क़बूल कर लेता।"
"तुम्हारा क्या कहना है उस सफ़ेदपोश के बारे में?" पिता जी ने मुंशी की तरफ पलट कर उससे पूछा____"क्या तुम्हें भी उसके बारे में कुछ नहीं पता?"
"हाहाहाहा।" पिता जी के पूछने पर मुंशी पहले तो ज़ोर से हंसा फिर बोला____"वैसे तो मैं ऐसे किसी सफ़ेदपोश के बारे में नहीं जानता और ना ही मेरा उससे कोई संबंध है लेकिन इस बात से मैं खुश ज़रूर हूं कि हमारे बाद भी अभी कोई है जो हवेली में रहने वालों से इस क़दर नफ़रत करता है कि उनकी जान तक लेने का इरादा रखता है। ख़ास कर इस वैभव सिंह की। ये तो कमाल ही हो गया, हाहाहा।"
मुंशी चंद्रकांत जिस तरीके से हंस रहा था उसे देख मेरा खून खौल उठा। गुस्से से मेरी मुट्ठियां भिंच गईं। जी किया कि अभी जा के उसकी गर्दन मरोड़ दूं मगर फिर किसी तरह अपने गुस्से को पी कर रह गया।
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अध्याय - 74"आप जानती थी न कि मुझे सब पता है?" रूपा ने कहा____"इसी लिए तो आपने मुझे मेरे कमरे में बंद कर दिया था ताकि मैं यहां ना आ सकूं और किसी को सच न बता सकूं? आख़िर क्या सोच कर अब आप सब सच को छुपा रही हैं मां? क्या आप सब ये चाहती हैं कि जो ज़िंदा बचे हुए हैं उनकी भी हत्या हो जाए?"
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रूपा की बात सुन कर ललिता देवी कुछ न बोल सकी। बस अपने दांत पीस कर रह गईं। यही हाल उनकी जेठानी और बाकी देवरानियों का भी था। फिर सहसा जैसे उन्हें किसी बात का एहसास हुआ तो एक एक कर के सभी चेहरों के भाव बदलते नज़र आए।
अब आगे....
"मुझमें अब यहां से कहीं जाने की हिम्मत नहीं है रूप बेटा।" पास ही के जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे गौरी शंकर ने असहाय भाव से कहा____"मुझे समझ आ गया है कि हम अपनी मौत से दूर नहीं भाग सकते। मेरे भाई मेरे बच्चे सब मर चुके हैं और अब मैं भी जीना नहीं चाहता।"
"बदला लिए बिना हम मर नहीं सकते काका।" रूपचंद्र ने गुस्से से कहा____"हिसाब तो बराबर का करना ही पड़ेगा। उन्होंने हमारे इतने सारे अपनों की जान ली है तो उनमें से भी किसी को ज़िंदा रहने का हक़ नहीं है।"
"नहीं रूप बेटा।" गौरी शंकर जाने किस चीज़ की कल्पना से कांप उठा था, बोला____"अब ऐसा सोचना भी मत। हमने अपने सभी लोगों को खो दिया है। खानदान का वंश बढ़ाने के लिए अब सिर्फ तुम ही बचे हो मेरे बच्चे। इस लिए अब अपने ज़हन में बदले का कोई भी ख़याल मत लाओ।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं काका?" रूपचंद्र ने चीखते हुए कहा____"नहीं, हर्गिज़ नहीं। मैं उनमें से किसी को भी ज़िंदा नहीं छोडूंगा। जैसे हमारा खानदान पूरी तरह से मिटा दिया है दादा ठाकुर ने उसी तरह मैं उसके भी खानदान का नामो निशान मिटा दूंगा। हवेली के ज़र्रे ज़र्रे में करुण क्रंदन गूंजेगा।"
"नहीं बेटा ऐसा मत कह।" गौरी शंकर बेबस भाव से कह उठा____"तुझे मरे हुए हमारे अपनों की क़सम है। तू ऐसा कुछ भी करने का नहीं सोचेगा। हमारी स्थिति अब बेहद कमज़ोर हो गई है बेटा। तू अकेला उनका कुछ नहीं कर सकेगा, उल्टा होगा ये कि तू भी बाकी सबकी तरह अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। अगर ऐसा हुआ तो खानदान का वंश ही नष्ट हो जाएगा। मेरी जांघ में गोली लगी है जिसके चलते अब मैं अपाहिज सा हो गया हूं। एक तू ही है जिसे अब अपने पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी। तेरी मां, तेरी चाचियां, तेरी भाभी और तेरी बहनें उन सबका ख़याल रखना होगा तुझे। सोच अगर तुझे कुछ हो गया तो उन सबका क्या होगा? हमारी बेसहारा बहू बेटियों का जीवन नर्क सा हो जाएगा बेटा। इस लिए कहता हूं कि अब अपने अंदर किसी से भी बदला लेने का ख़याल मत ला।"
रूपचंद्र को पहली बार एहसास हुआ कि उसकी और उसके परिवार की स्थिति वास्तव में कितनी गंभीर और दयनीय हो गई है। ये एहसास होते ही उसके चेहरे पर मौजूद आक्रोश और गुस्सा किसी झाग की तरह बैठता नज़र आया।
"हमें बिल्कुल भी ये अंदाज़ा नहीं था कि अचानक से ऐसा भी कुछ हो जाएगा।" गौरी शंकर ने बेहद गंभीरता से कहा____"जो सोचा था वैसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। शायद ऊपर वाला हमेशा से ही हमारे खिलाफ़ रहा है या फिर हकीक़त यही है कि हमने बेवजह ही इतने वर्षों से अपने अंदर उनके प्रति दुश्मनी को पाले रखा था।"
"ये आप क्या कह रहे हैं काका?" रूपचंद्र ने हैरत से गौरी शंकर को देखा।
"तुझे तो बताया ही था हमने कि वर्षों पहले बड़े दादा ठाकुर की वजह से ये सब शुरू हुआ था।" गौरी शंकर ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"उसी की वजह से हमने हमारी बहन गायत्री को खोया था। उसने हमारी बहन को अपनी हवस का शिकार बनाया और फिर उसे अपने ही एक किसान के साथ जाने कहां भेज दिया। अपने कुकर्म को छुपाने के लिए उसने हर तरफ ये ख़बर फैला दी थी कि साहूकारों की बहन एक किसान के साथ भाग गई। उस समय बड़े दादा ठाकुर की तूती बोलती थी। वो खुद तो ताकतवर और जल्लाद था ही किंतु उसके ताल्लुक बड़ी बड़ी हस्तियों से भी थे। ये उसके ख़ौफ का ही असर था कि बाद में सब कुछ जान लेने के बाद भी हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके थे। हालाकि एक बार पिता जी अपनी इस ब्यथा को ले कर उसके पास गए भी थे लेकिन उसने स्पष्ट रूप से उन्हें धमकी दे कर कहा था कि अगर उन्होंने इस बारे में ज़्यादा हो हल्ला करने की हिमाकत की तो इसका अंजाम उनकी सोच से भी कहीं ज़्यादा उन्हें भुगतना पड़ जाएगा। बस, उसके बाद पिता जी कभी हवेली की दहलीज़ पर नहीं गए। हम लोग भी इतने परिपक्व अथवा ताकतवर नहीं थे जिसके चलते हम अपनी बहन के साथ हुए इस जघन्य अत्याचार का बदला ले लेते। वो तो अच्छा हुआ कि उस कुकर्मी को ऊपर वाले ने ही सज़ा दे दी। ऊपर वाले ने उसे ऐसा बीमार किया कि बड़ा से बड़ा वैद्य भी उसका इलाज़ न कर सका। उसके बाद उनकी गद्दी पर उनका बड़ा बेटा प्रताप सिंह बैठा। आश्चर्य की बात थी कि इतने बड़े कुकर्मी और जल्लाद का बेटा प्रताप सिंह अपने पिता की सोच और विचारों से बिल्कुल उलट था। हालाकि उसका भाई जगताप थोड़ा गुस्सैल स्वभाव का ज़रूर था किंतु ये सच है कि उसमें भी अपने पिता जैसे गुण नहीं थे। दोनों ही भाई अपनी मां पर गए थे।"
"जब प्रताप सिंह दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठा तो हमें फिर से इस बात का ख़ौफ होने लगा कि गद्दी में बैठने के बाद कहीं प्रताप सिंह की भी मानसिकता न बदल जाए।" कुछ पल रुकने के बाद गौरी शंकर ने कहा____"सत्ता और ताक़त का नशा ही ऐसा होता है बेटे कि अच्छे अच्छे शरीफ़ और संस्कारी लोग गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लेते हैं। हालाकि ऐसा कुछ हुआ नहीं और ये हमारे लिए आश्चर्य की बात तो थी ही किंतु हम ये भी समझते थे कि प्रताप सिंह बहुत ही धीर वीर और गंभीर प्रकृति का इंसान है। उस दिन तो हम सबको और भी ज़्यादा आश्चर्य हुआ जब प्रताप सिंह दादा ठाकुर बनने के कुछ दिन बाद ही हमारे घर खुद ही आया और हमारे पिता जी से अपने पिता के द्वारा किए गए कुकर्म के लिए माफ़ी मांगी। वो मेरे पिता जी के पैरों को पकड़ के माफ़ियां मांग रहा था और यही कह रहा था कि अब से ऐसा कुछ भी नहीं होगा बल्कि दोनों ही परिवारों के बीच गहरा प्रेम भाव रहे ऐसी वो हमेशा कोशिश करेगा। प्रताप सिंह पिता जी से माफ़ी मांग कर और ये सब कह कर भले ही चला गया था लेकिन इसके बावजूद हमारे अंदर से हवेली में रहने वालों के प्रति घृणा न गई। हवेली में रहने वाले लोग हमें कभी पसंद ही नहीं आए और यही वजह थी कि हमने अपने बच्चों के अंदर भी हवेली वालों के लिए ज़हर ही भरा। आज इतना कुछ हो जाने के बाद एहसास हो रहा है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था। हमारे गुनहगार तो बड़े दादा ठाकुर थे और उसने जो कुकर्म किए थे उसकी सज़ा ऊपर वाले ने खुद ही दे दी थी उसे। यानि हमारा प्रतिशोध उसके मर जाने पर ही ख़त्म हो जाना चाहिए था। उसके बेटे ने या उसके भाई ने तो कभी हमारे साथ कुछ बुरा नहीं किया था। अगर वो सच में अपने पिता की तरह होता तो दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठने के बाद वो खुद हमारे घर आ कर हमारे पिता जी से माफ़ी नहीं मांगता। ख़ैर शायद ये हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम कभी अपने अंदर से उनके प्रति गहराती घृणा को नहीं निकाल पाए जिसका नतीजा आज हमें इस रूप में देखने और भोगने को मिला है।"
"माना कि हम अपने अंदर से उनके प्रति घृणा को नहीं निकाल पाए काका।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन ये घृणा भी तो उन्हीं के द्वारा मिली थी हमें? अगर यही सब उनके साथ हुआ होता तो क्या वो इतने वर्षों तक चुप बैठे रहते? नहीं काका, वो तो पहले ही हमारा क्रिया कर्म कर चुके होते। हमने मान लिया कि हमसे ग़लती हुई लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि उस ग़लती के लिए हमारे पूरे खानदान को ही मिटा दिया जाए? ये कैसा न्याय है काका?"
"वहां पर कोई है शायद।" रूपचंद्र की बात पर गौरी शंकर अभी कुछ बोलने ही वाला था कि तभी एक मर्दाना आवाज़ सुन कर चौंक पड़ा। उसके साथ रूपचंद्र भी चौंक पड़ा था।
"लगता है उन्होंने हमें खोज लिया है काका।" रूपचंद्र ने एकदम से आवेश में आते हुए कहा____"हमें फ़ौरन ही यहां से निकल लेना चाहिए।"
"नहीं बेटा।" गौरी शंकर ने शांत भाव से कहा____"अब हम कहीं नहीं जाएंगे। अगर यहां से हमने भागने की कोशिश की तो संभव है कि वो लोग हम पर गोली चला दें जिससे हम दोनों ही मारे जाएं। बेहतर यही है कि हम खुद को उनके सामने आत्म समर्पण कर दें।"
"आत्म समर्पण करने से भी तो वो हमें मार ही डालेंगे काका।" रूपचंद्र के चेहरे पर एकाएक ख़ौफ के भाव उभरते नज़र आए____"क्या आपको लगता है कि वो हमें जीवित छोड़ देंगे?"
"सब ऊपर वाले पर छोड़ दो बेटा।" गौरी शंकर ने गहरी सांस ली____"अब जो होगा देखा जाएगा। आत्म समर्पण करने से बहुत हद तक संभव है कि हमारे साथ वैसा सलूक न हो जैसा हमारे अपनों के साथ हुआ है।"
"वो रहे।" तभी दाएं तरफ से एक आदमी की आवाज़ आई____"घेर लो उन दोनों को किंतु सम्हल कर।"
गौरी शंकर ने जब महसूस किया कि आवाज़ एकदम पास से ही आई है तो वो अपनी जगह से किसी तरह उठा और पेड़ के पीछे से निकल कर बोला____"गोली मत चलाना, हम खुद को आत्म समर्पण करने को तैयार हैं।"
अगले कुछ ही देर में गौरी शंकर और रूपचंद्र को गिरफ़्त में ले लिया गया। शेरा के साथ पांच आदमी और थे जिन्होंने दोनों को रस्सियों में जकड़ लिया था। तलाशी में शेरा के हाथ एक पिस्तौल लगी जो रूपचंद्र के पास थी। शेरा के इशारे पर बाकी लोग दोनों चाचा भतीजे को ले कर चल पड़े।
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जैसे ही गौरी शंकर और रूपचंद्र को लिए शेरा हवेली के विशाल मैदान में लगी पंचायत के सामने पहुंचा तो लोग बड़ी तेज़ी से तरह तरह की बातें करने लगे। उधर दोनों चाचा भतीजे को देख साहूकारों के घर की औरतें और बहू बेटियों के चेहरे देखने लायक हो गए। उन सभी के चेहरों पर डर और घबराहट साफ दिखाई देने लगी थी। ज़ाहिर है उन सभी को ये एहसास हो गया था कि उनके घर के अंतिम बचे हुए मर्द भी अब मौत के मुंह में आ गए हैं।
वातावरण में एक सनसनी सी फैल गई। मंच पर बैठे महेंद्र सिंह के कहने पर गौरी शंकर और रूपचंद्र को बेड़ियों से आज़ाद कर दिया गया। दोनों चाचा भतीजे सिर झुकाए खड़े थे। ये अलग बात है कि इसके पहले वो दोनों एक एक कर के वहां उपस्थित सभी का चेहरा देख चुके थे।
"गौरी शंकर सिंह।" मंच में कुर्सी पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने अपनी भारी आवाज़ में गौरी शंकर को देखते हुए कहा____"क्या तुम क़बूल करते हो कि तुमने मुंशी चंद्रकांत के साथ मिल कर हवेली में रहने वालों के ख़िलाफ़ गहरी साज़िश रची और फिर उसी साज़िश के तहत ठाकुर जगताप सिंह और बड़े कुंवर अभिनव सिंह की हत्या की? इतना ही नहीं चंदनपुर में अपने आदमियों को भेज कर ठाकुर साहब के छोटे बेटे वैभव को भी जान से मारने का प्रयास किया था?"
"नहीं नहीं।" गौरी शंकर की बीवी सुनैना सिंह तेज़ी से भागती हुई गौरी शंकर के पास आई, फिर उसे देखते हुए लगभग रोते हुए बोली____"कह दीजिए कि आप पर लगाए गए ये सारे आरोप झूठ हैं। बता दीजिए सबको कि आपने किसी के भी साथ मिल कर न तो कोई साज़िश रची है और ना ही किसी की हत्या की है।"
सुनैना की बातों को सुन कर गौरी शंकर ने सख़्ती से अपने होठ भींच लिए। चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते और लोप होते नज़र आए। तभी मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह ने सख़्त भाव से सुनैना देवी से कहा____"आप एक तरफ हट जाएं, हमने जिससे सवाल किया है उसे जवाब देने दें।"
सुनैना देवी तब भी न हटीं। वो अपने पति को आशा भरी नज़रों से देखती रहीं। उधर कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद गौरी शंकर ने कहा____"हां, मैं क़बूल करता हूं ठाकुर साहब कि मुंशी चंद्रकांत के साथ मिल कर हमने ही ये सब किया है।"
"नहीं.....नहीं।" सुनैना देवी पूरी ताक़त से चिल्ला उठी____"ये सच नहीं हो सकता। कह दीजिए कि ये सब झूठ है। कह दीजिए कि आपने कुछ नहीं किया है।"
सुनैना देवी कहने के साथ ही वहीं घुटनों के बल बैठ कर फूट फूट कर रोने लगी। यही हाल उनके घर की बाकी औरतों और बहू बेटियों का भी था। गौरी शंकर ने जब अपनी बीवी को यूं सरे आम फूट फूट कर रोते देखा तो उसका कलेजा हिल गया। अपने अंदर उमड़ उठे भयंकर तूफ़ान सतत को उसने अपनी आंखें बंद कर के जज़्ब करने की कोशिश की। उधर रूपचंद्र का चेहरा अजीब तरह से सख़्त नज़र आ रहा था।
"क्यों? आख़िर क्यों?" मंच पर बैठे ठाकुर महेंद्र सिंह तेज़ आवाज़ में बोले____"पंचायत ही नहीं बल्कि यहां उपस्थित सब लोग भी ये जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों किया तुमने?"
"हम चारो भाई।" गौरी शंकर ने अजीब भाव से कहा____"अपने अंदर से वर्षों पहले पैदा हुई नफ़रत को कभी मिटा नहीं पाए ठाकुर साहब। वर्षों पहले जो ज़ख्म बड़े दादा ठाकुर ने हमें हमारी बहन गायत्री को बर्बाद कर के दिया था वो ज़ख्म कभी भरा ही नहीं बल्कि हर गुज़रते वक्त के साथ वो नासूर ही बनता चला गया। बहुत कोशिश की हमने हवेली में रहने वालों के प्रति अपनी नफ़रत को दूर करने की मगर कभी कामयाब न हो सके। ये उसी का नतीजा है ठाकुर साहब कि हमारे द्वारा ये सब हो गया और हमारे साथ भी इतना कुछ हो गया।"
"तुम जिस ज़ख्म की बात कर रहे हो गौरी शंकर।" पिता जी ने कहा____"उसका पहले भी हमें बेहद दुख और अफ़सोस था और उसके लिए हमारे पिता भले ही खुद को गुनहगार न समझते रहे हों मगर हम ज़रूर समझते थे। तभी तो उनके बाद जब हम दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठे तो हम खुद तुम्हारे घर आए और उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराध के लिए तुम्हारे पिता जी से हमने माफ़ी मांगी थी। इतना ही नहीं ये वचन भी दिया था कि अब से कभी भी हमारे द्वारा तुम में से किसी के भी साथ बुरा नहीं होगा। ऊपर वाले की क़सम खा कर कहो कि क्या हमने अपने इस वचन को नहीं निभाया? बच्चों के लड़ाई झगड़े की बातें छोड़ो क्योंकि बच्चे तो अक्सर झगड़ते ही हैं लेकिन क्या कभी किसी ने उस नीयत से तुम्हारे साथ बुरा किया कभी?"
"माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर सहसा घुटनों के बल बैठ गया____"ये हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम चारो भाई उस बात को कभी अपने दिल से निकाल नहीं सके और हमेशा आपसे नफ़रत करते रहे। ऐसा शायद इस लिए भी कि इतने वर्षों की खोज के बाद भी जब हमें हमारी बहन कहीं नहीं मिली तो मन में हवेली में रहने वालों के प्रति नफ़रत में और भी इज़ाफा होता गया। एक ही तो बहन थी हमारी। वर्षों से हम चारो भाइयों की कलाइयां सूनी थी। जब भी रक्षाबंधन का पावन त्यौहार आता था तो बहन की याद आती थी और अपनी अपनी कलाइयां देख कर हम चारो भाइयों के अंदर टीस सी उभरती थी। बस, जिस ज़ख्म को भरने की कोशिश करते थे वो ये सब सोच कर फिर से हरा हो जाता था। ज़हन में बस यही सवाल उभरते थे कि आख़िर क्या कसूर था हमारी बहन का? क्यों वो बड़े दादा ठाकुर की हवस का शिकार हो गई और क्यों उसे इस तरह से गायब कर दिया गया कि आज इतने वर्षों बाद भी उसका कहीं कोई पता तक नहीं है? वो इस दुनिया में कहीं है भी या उसे जान से ही मार दिया गया? दादा ठाकुर, कहने के लिए अक्सर लोग बड़ी बड़ी बातें करते हैं मगर जिनके साथ गुज़रती है उसका दर्द वही जानते हैं।"
"माना कि तुम्हारी बहन के साथ गुनाह ही नहीं बल्कि संगीन अत्याचार हुआ था।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन किसी और के द्वारा किए गए गुनाह के लिए किसी दूसरे की हत्या कर देना क्या उचित था?"
"उचित तो ये भी नहीं था न ठाकुर साहब कि हमने जो किया वही दादा ठाकुर ने भी कर दिया।" गौरी शंकर ने फीकी मुस्कान के साथ कहा____"मान लिया मैंने कि हम चारो भाइयों ने किसी और के द्वारा किए गए अपराध के चलते बदले की भावना में मझले ठाकुर और बड़े कुंवर की हत्या कर दी। मगर इन्होंने जो किया क्या वो सही था? अगर इन्हें सच में पता चल गया था कि हमने ही वो सब किया था तो क्या इन्हें इतना जल्दी नर संघार ही कर देना चाहिए था? क्या इन्हें एक बार भी ये नहीं सोचना चाहिए था कि हमें भी अपनी बात रखने का मौका देना चाहिए? ये तो मुखिया हैं ठाकुर साहब और सिर्फ इसी गांव बस के ही नहीं बल्कि आस पास कई गावों के भी। इसके बावजूद इन्होंने इस मामले का फ़ैसला किसी पंचायत में नहीं बल्कि जंग के मैदान में कर डाला। क्या ये अन्याय और अपराध नहीं है?"
"बेशक है।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"और यकीन मानो हर अपराधी को उचित दंड दिया जाएगा, फिर चाहे वो खुद दादा ठाकुर ही क्यों न हों।"
"हमें हमारे अपराध के लिए मिलने वाली सज़ा से इंकार नहीं है।" पिता जी ने कहा____"किंतु उससे पहले हम कुछ और भी जानना चाहते हैं। अभी भी कुछ ऐसा बाकी है जिसे हमारे लिए ही नहीं बल्कि सबके लिए जानना ज़रूरी है।"
"आपके मन में अगर अभी कुछ सवाल हैं तो बेशक पूछ सकते हैं।" ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा____"हम भी उत्सुक हैं ये जानने के लिए कि इस मामले में अभी और क्या शेष है?"
"ये तो समझ आया कि अपनी नफ़रत के चलते अथवा ये कहें कि बदले की भावना के चलते गौरी शंकर ने अपने भाइयों सहित हमारे मुंशी चंद्रकांत के साथ गठजोड़ कर के ये सब किया।" पिता जी के कहा____"किंतु हम इन लोगों से ये भी जानना चाहते हैं कि इन लोगों ने अपने साथ किसी सफ़ेदपोश का ज़िक्र क्यों नही किया? जबकि शुरू से ही वो रहस्यमय आदमी हमारे छोटे बेटे वैभव को जान से मारने की फ़िराक में रहा है और इतना ही नहीं कई बार उसने उसके ऊपर जान लेवा हमला भी किया। और तो और अभी पिछली रात वो हमारी हवेली के बाहर बने कमरे से मुरारी के भाई जगन को भी छुड़ा ले गया।"
"मैं किसी सफ़ेदपोश को नहीं जानता ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"बल्कि ये जान कर तो अब मैं खुद ही हैरान हो गया हूं कि हमारे अलावा भी कोई ऐसा था जो हवेली के किसी व्यक्ति को जान से मारना चाहता था।"
"तो आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसे किसी सफ़ेदपोश को आप नहीं जानते?" पिता जी ने कहा____"और ना ही उससे आपका कोई ताल्लुक है?"
"अगर जानता तो क़बूल करने में मुझे भला क्या आपत्ति होती ठाकुर साहब?" गौरी शंकर ने कहा____"जब इतना सब क़बूल कर लिया है तो उसके बारे में भी क़बूल कर लेता।"
"तुम्हारा क्या कहना है उस सफ़ेदपोश के बारे में?" पिता जी ने मुंशी की तरफ पलट कर उससे पूछा____"क्या तुम्हें भी उसके बारे में कुछ नहीं पता?"
"हाहाहाहा।" पिता जी के पूछने पर मुंशी पहले तो ज़ोर से हंसा फिर बोला____"वैसे तो मैं ऐसे किसी सफ़ेदपोश के बारे में नहीं जानता और ना ही मेरा उससे कोई संबंध है लेकिन इस बात से मैं खुश ज़रूर हूं कि हमारे बाद भी अभी कोई है जो हवेली में रहने वालों से इस क़दर नफ़रत करता है कि उनकी जान तक लेने का इरादा रखता है। ख़ास कर इस वैभव सिंह की। ये तो कमाल ही हो गया, हाहाहा।"
मुंशी चंद्रकांत जिस तरीके से हंस रहा था उसे देख मेरा खून खौल उठा। गुस्से से मेरी मुट्ठियां भिंच गईं। जी किया कि अभी जा के उसकी गर्दन मरोड़ दूं मगर फिर किसी तरह अपने गुस्से को पी कर रह गया।
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उसका दूसरा साथी जब उसके ज़ोर ज़ोर से हिला कर जगाने पर भी न जागा तो वो और भी ज़्यादा घबरा गया। उसका अपना जिस्म ये सोच कर ठंडा सा पड़ गया कि कहीं उसका साथी मर तो नहीं गया? हकबका कर वो एक तरफ को भागा और जल्दी ही हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास पहुंच गया। मुख्य द्वार पर खड़े दरबान को उसने हांफते हुए सारी बात बताई तो उस दरबान के भी होश उड़ गए। उसने फ़ौरन ही अंदर जा कर बैठक में बैठे भैया के चाचा ससुर को सारी बात बताई तो बैठक में बैठे बाकी सब भी बुरी तरह उछल पड़े।
अब आगे....
उस वक्त रात के साढ़े बारह बज रहे थे जब दादा ठाकुर का काफ़िला पास के ही एक गांव माधोपुर के पास पहुंचा। गांव से कुछ दूर ही काफ़िले को रोक कर सब अपनी अपनी गाड़ियों से उतरे। कुल तीन जीपें थी। एक दादा ठाकुर की, दूसरी अर्जुन सिंह की और तीसरी मेरे नाना जी की। तीनों जीपों में आदमी सवार हो कर आए थे। किसी के हाथ में बंदूक, किसी के हाथ में पिस्तौल, किसी के हाथ में लट्ठ तो किसी के हाथ में तलवार। दादा ठाकुर के निर्देश पर सब के सब एक लंबा घेरा बना कर गांव के अंदर की तरफ उस दिशा में बढ़ चले जिधर साहूकारों के मौजूद होने की ख़बर मुखबिरों ने दादा ठाकुर को दी थी।
आधी रात के वक्त पूरे गांव में शमशान की तरह सन्नाटा फैला हुआ था। चारो तरफ अंधेरा तो था किंतु इतना भी नहीं कि किसी को कुछ दिखे ही न। आसमान में हल्का सा चांद था जिसकी मध्यम रोशनी धरती पर आ रही थी, ये अलग बात है कि क्षितिज पर काले बादलों की वजह से कभी कभी वो चांद छुप जाता था जिसकी वजह से उसके द्वारा आने वाली रोशनी लोप भी हो जाती थी।
"मैं अब भी आपसे यही कहूंगा ठाकुर साहब कि थोड़ा होश से काम लीजिएगा।" दादा ठाकुर के बगल से ही चल रहे अर्जुन सिंह ने धीमें स्वर में कहा____"कहीं ऐसा न हो कि आवेश और गुस्से में किए गए अपने कृत्य से बाद में आपको पछतावा हो।"
"हमें अब किसी बात का पछतावा नहीं होने वाला अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने सख़्त भाव से कहा____"बल्कि हमें तो अब इस बात का बेहद अफ़सोस ही नहीं बल्कि दुख भी है कि हमने आज से पहले होश क्यों नहीं गंवाया था? अगर हमने इसके पहले ही पूरी सख़्ती से हर काम किया होता तो आज हमें ये दिन देखना ही नहीं पड़ता। हमारे दुश्मनों ने हमारी नरमी का फ़ायदा ही नहीं उठाया है बल्कि उसका मज़ाक भी बनाया है। इस लिए अब हमें किसी बात के लिए होश से काम नहीं लेना है बल्कि अब तो दुश्मनों के साथ वैसा ही सुलूक किया जाएगा जैसा कि उनके साथ होना चाहिए।"
"मैं आपकी बातों से इंकार नहीं कर रहा ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"यही वजह है कि इस वक्त मैं यहां आपके साथ हूं। मैं तो बस ये कह रहा हूं कि कुछ भी करने से पहले एक बार आपको उन लोगों से भी पूछना चाहिए कि ऐसा उन्होंने क्यों किया है?"
"पूछने की ज़रूरत ही नहीं है अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने आवेशयुक्त भाव से कहा____"हमें अच्छी तरह पता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया है। तुम शायद भूल गए हो लेकिन हम नहीं भूले।"
"क्या मतलब??" अर्जुन सिंह ने उलझन पूर्ण भाव से दादा ठाकुर की तरफ देखा____"मैं कुछ समझा नहीं। आप किस चीज़ की बात कर रहे हैं?"
"बहुत पुराना मामला है अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमारे पिता जी के ज़माने का। अगर हम ये कहें तो ग़लत न होगा कि साहूकारों का मन मुटाव हमारे पिता जी की वजह से ही शुरू हुआ था। हमने एक बार तुम्हें बताया तो था इस बारे में।"
"ओह! हां याद आया।" अर्जुन सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तो क्या साहूकार लोग अभी भी उसी बात को लिए बैठे हैं?"
"कुछ ज़ख्म इंसान को कभी चैन और सुकून से नहीं बैठने देते।" दादा ठाकुर ने कहा____"पिता जी ने उस समय भले ही सब कुछ ठीक कर के मामले को रफा दफा कर दिया था मगर सच तो ये है कि वो मामला साहूकारों के लिए कभी रफा दफा हुआ ही नहीं। उस समय पिता जी के ख़ौफ के चलते भले ही साहूकारों ने कोई ग़लत क़दम नहीं उठाया था मगर वर्षों बाद अब उठाया है। हमें हैरत है कि ऐसा कोई क़दम उठाने में उन लोगों ने इतना समय क्यों लगाया मगर समझ सकते हैं कि हर चीज़ अपने तय वक्त पर ही होती है।"
"आपका मतलब है कि इतने सालों बाद ही उनके द्वारा ऐसा करने का वक्त आया?" अर्जुन सिंह ने बेयकीनी से दादा ठाकुर की तरफ देखा____"पर सोचने वाली बात है कि क्या उन्हें ऐसा करने के बाद अपने अंजाम की कोई परवाह न रही होगी?"
"इंसान के सब्र का घड़ा जब भर जाता है तो उसकी नियति कुछ ऐसी ही होती है मित्र अर्जुन सिंह।" दादा ठाकुर ने कहा____"जैसे इस वक्त हम बदले की भावना में जलते हुए उन सबको ख़ाक में मिलाने के लिए उतावले हो रहे हैं उसी तरह उन लोगों की भी यही दशा रही होगी।"
अर्जुन सिंह अभी कुछ कहने ही वाला था कि दादा ठाकुर ने चुप रहने का इशारा किया और पिस्तौल लिए आगे बढ़ चले। सभी गांव में दाखिल हो चुके थे। हमेशा की तरह बिजली गुल थी इस लिए किसी भी घर में रोशनी नहीं दिख रही थी। हल्के अंधेरे में डूबे गांव के घर भूत की तरह दिख रहे थे। दादा ठाकुर की नज़र घूमते हुए एक मकान पर जा कर ठहर गई। मकान कच्चा ही था जिसके बाहर क़रीब पच्चीस तीस गज का मैदान था। उस मैदान के एक तरफ कुछ मवेशी बंधे हुए थे।
"वो रहा मकान।" दादा ठाकुर ने उंगली से इशारा करते हुए बाकी सबकी तरफ नज़र घुमाई____"तुम सब मकान को चारो तरफ से घेर लो। उनमें से कोई भी बच के निकलना नहीं चाहिए।"
अंधेरे में सभी ने सिर हिलाया और मकान की तरफ सावधानी से बढ़ चले। दादा ठाकुर के साथ में अर्जुन सिंह और मामा लोग थे जबकि बाकी हवेली के मुलाजिम लोग दूसरे छोर पर थे। उन लोगों के साथ में भैया के साले वीरेंद्र सिंह थे और जगताप चाचा का एक साला भी।
सब के सब मकान की तरफ बढ़ ही रहे थे कि तभी अंधेरे में एक तरफ से एक साया भागता हुआ उस मकान के पास पहुंचा और शोर करते हुए अंदर घुस गया। ये देख दादा ठाकुर ही नहीं बल्कि बाकी लोग भी बुरी तरह चौंक पड़े। दादा ठाकुर जल्दी ही सम्हले और सबको सावधान रहने को कहा और साथ ही आने वाली स्थिति से निपटने के लिए भी।
वातावरण में एकाएक ही शोर गुल गूंज उठा और मकान के अंदर से एक एक कर के लोग बाहर की तरफ निकल कर इधर उधर भागने लगे। हल्के अंधेरे में भी दादा ठाकुर ने भागने वालों को पहचान लिया। वो सब गांव के साहूकार ही थे। उन्हें भागते देख दादा ठाकुर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्हें ये सोच कर भी गुस्सा आया कि वो सब बुजदिल और कायरों की तरह अपनी जान बचा कर भाग रहे हैं जबकि उन्हें तो दादा ठाकुर का सामना करना चाहिए था।
इससे पहले कि वो सब अंधेरे में कहीं गायब हो जाते दादा ठाकुर ने सबको उन्हें खत्म कर देने का हुकुम सुना दिया। दादा ठाकुर का हुकुम मिलते ही वातावरण में बंदूखें गरजने लगीं। अगले ही पल वातावरण इंसानी चीखों से गूंज उठा। देखते ही देखते पूरे गांव में हड़कंप मच गया। सोए हुए लोगों की नींद में खलल पड़ गया और सबके सब ख़ौफ का शिकार हो गए। इधर दादा ठाकुर के साथ साथ अर्जुन सिंह और मामा लोगों की बंदूकें गरजती रहीं। जब बंदूक से निकली गोलियों से फिज़ा में गूंजने वाली चीखें शांत पड़ गईं तो दादा ठाकुर के हुकुम पर बंदूक से गोलियां निकलनी बंद हो गईं।
जब काफी देर तक फिज़ा में गोलियां चलने की आवाज़ नहीं गूंजी तो ख़ौफ से भरे गांव के लोगों ने राहत की सांस ली और अपने अपने घरों से निकलने की जहमत उठाई। लगभग सभी घरों के अंदर कुछ ही देर में रोशनी होती नज़र आने लगी। इधर दादा ठाकुर के कहने पर सब मकान की तरफ बढ़ चले।
"सम्हल कर ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"दुश्मन अंधेरे में कहीं छुपा भी हो सकता है और वो आप पर वार भी कर सकता है।"
"यही तो हम चाहते हैं।" दादा ठाकुर आगे बढ़ते हुए बोले____"हम चाहते हैं कि हमारे जिगर के टुकड़ों को छिप कर वार करने वाले एक बार हमारे सामने आ कर वार करें। हम भी तो देखें कि वो कितने बड़े मर्द हैं और कितना बड़ा जिगर रखते हैं।"
थोड़ी ही देर में सब उस मकान के क़रीब पहुंच गए। मकान के दोनों तरफ लाशें पड़ीं थी जिनके जिस्मों से निकलता लहू कच्ची ज़मीन पर अंधेरे में भी फैलता हुआ नज़र आ रहा था।
"अंदर जा कर देखो तो ज़रा।" दादा ठाकुर ने अपने एक मुलाजिम से कहा____"कि इस घर का वो कौन सा मालिक है जिसने हमारे दुश्मनों को अपने घर में पनाह देने की जुर्रत की थी?"
दादा ठाकुर के कहने पर मुलाजिम फ़ौरन ही घर के अंदर चला गया। उसके जाने के बाद दादा ठाकुर आगे बढ़े और लाशों का मुआयना करने लगे। ज़ाहिर है उनके साथ बाकी लोग भी लाशों का मुआयना करने लगे थे।
इधर कुछ ही देर में गांव के लोग भी एक एक कर के अपने अपने घरों से बाहर निकल आए थे। कुछ लोगों के हाथ में लालटेनें थी जिसकी रोशनी अंधेरे को दूर कर रही थी। लालटेन की रोशनी में जिसके भी चेहरे दिख रहे थे उन सबके चेहरों में दहशत के भाव थे। तभी मुलाजिम अंदर से बाहर आया। उसने एक आदमी को पकड़ रखा था। मारे ख़ौफ के उस आदमी का चेहरा पीला ज़र्द पड़ा हुआ था। उसके पीछे रोते बिलखते एक औरत भी आ गई और साथ में उसके कुछ बच्चे भी।
"मालिक ये है वो आदमी।" मुलाजिम ने दादा ठाकुर से कहा____"जिसने इन लोगों को अपने घर में पनाह देने की जुर्रत की थी।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए दादा ठाकुर।" वो आदमी दादा ठाकुर के पैरों में ही लोट गया, रोते बिलखते हुए बोला____"लेकिन ऐसा मैंने खुद जान बूझ के नहीं किया था बल्कि ये लोग ज़बरदस्ती मेरे घर में घुसे थे और मुझे धमकी दी थी कि अगर मैंने उनके बारे में किसी को कुछ बताया तो ये लोग मेरे बच्चों को जान से मार डालेंगे।"
"कब आए थे ये लोग तुम्हारे घर में?" अर्जुन सिंह ने थोड़ी नरमी से पूछा तो उसने कहा____"कल रात को आए थे मालिक। पूरा गांव सोया पड़ा था। मेरी एक गाय शाम को घर नहीं आई थी इस लिए उसे देखने के लिए मैं घर से बाहर निकला था कि तभी ये लोग मेरे सामने आ धमके थे। बस उसके बाद मुझे वही करना पड़ा जिसके लिए इन्होंने मुझे मजबूर किया था। मुझे माफ़ कर दीजिए मालिक। मैं अपने बच्चों की क़सम खा के कहता हूं कि मैंने आपसे कोई गद्दारी नहीं की है।"
"मेरा ख़याल है कि ये सच बोल रहा है ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने दादा ठाकुर की तरफ देखते हुए कहा____"इस सबमें यकीनन इसका कोई दोष नहीं है।"
"ठीक है।" दादा ठाकुर ने सपाट लहजे में उस आदमी की तरफ देखते हुए कहा____"हम तुम पर यकीन करते हैं। ख़ैर ज़रा अंदर से लालटेन ले कर तो आओ।"
"जी अभी लाया मालिक।" जान बची लाखों पाए वाली बात सोच कर उस आदमी ने राहत की सांस ली और फ़ौरन ही अंदर भागता हुआ गया। कुछ ही पलों में लालटेन ले कर वो दादा ठाकुर के सामने हाज़िर हो गया।
दादा ठाकुर ने उसके हाथ से लालटेन ली और उसकी रोशनी में लाशों का मुआयना करने लगे। घर से बाहर कुछ ही दूरी पर एक लाश पड़ी थी। दादा ठाकुर ने देखा वो लाश साहूकार शिव शंकर की थी। अभी दादा ठाकुर उसे देख ही रहे थे कि तभी वो आदमी ज़ोर से चिल्लाया जिसकी वजह से सब के सब चौंके और साथ ही सावधान हो कर बंदूखें तान लिए।
दादा ठाकुर ने पलट कर देखा, वो आदमी अपने एक मवेशी के पास बैठा रो रहा था। भैंस का एक बच्चा था वो जो किसी की गोली का शिकार हो गया था और अब वो ज़िंदा नहीं था। वो आदमी उसी को देख के रोए जा रहा था। उसके पीछे उसकी बीवी भी आंसू बहा रही थी। ये देख दादा ठाकुर वापस पलटे और फिर से लाशों का मुआयना करने लगे।
कुछ ही देर में सभी लाशों का मुआयना कर लिया गया। वो क़रीब आठ लाशें थीं। शिनाख्त से पता चला कि वो लाशें क्रमशः शिव शंकर, मणि शंकर, हरि शंकर तथा उनके बेटों की थी। मणि शंकर अपने दोनों बेटों के साथ स्वर्ग सिधार गया था। हरि शंकर और उसका बड़ा बेटा मानिकचंद्र स्वर्ग सिधार गए थे जबकि रूपचंद्र सिंह लाश के रूप में नहीं मिला, यानि वो ज़िंदा था और भागने में कामयाब हो गया था। शिव शंकर और उसका इकलौता बेटा गौरव सिंह मर चुके थे। इधर लाशों में गौरी शंकर तो नहीं मिला लेकिन उसके इकलौते बेटे रमन सिंह की लाश ज़रूर मिली। सभी लाशें बड़ी ही भयानक लग रहीं थी।
अभी सब लोग लाशों की तरफ ही देख रहे थे कि तभी वातावरण में धाएं की आवाज़ से गोली चली। गोली चलते ही एक इंसानी चीख फिज़ा में गूंज उठी। वो इंसानी चीख दादा ठाकुर के पास ही खड़े उनके सबसे छोटे साले अमर सिंह राणा की थी। उनके बाएं बाजू में गोली लगी थी। इधर गोली चलने की आवाज़ सुनते ही गांव में एक बार फिर से हड़कंप मच गया। जो लोग अपने अपने घरों से बाहर निकल आए थे वो सब चीखते चिल्लाते हुए अपने अपने घरों के अंदर भाग लिए। इधर मामा को गोली लगते ही सब के सब सतर्क हो गए और जिस तरफ से गोली चलने की आवाज़ आई थी उस तरफ ताबड़तोड़ फायरिंग करने लगे।
"तुम ठीक तो हो न अमर?" दादा ठाकुर ने अपने सबसे छोटे साले अमर को सम्हालते हुए बोले____"तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं न?"
"मैं बिल्कुल ठीक हूं जीजा जी।" अमर सिंह ने दर्द को सहते हुए कहा____"आप मेरी फ़िक्र मत कीजिए और दुश्मन को ख़त्म कीजिए।"
"वो ज़िंदा नहीं बचेगा अमर।" दादा ठाकुर ने सख़्त भाव से कहने के साथ ही बाकी लोगों की तरफ देखते हुए हुकुम दिया____"सब जगह खोजो उस नामुराद को। बच के निकलना नहीं चाहिए।"
दादा ठाकुर के हुकुम पर सभी मुलाजिम फ़ौरन ही उस तरफ दौड़ पड़े जिधर से गोली चली थी। इधर दादा ठाकुर ने फ़ौरन ही अपने कंधे पर रखे गमछे को फाड़ा और उसे अमर सिंह की बाजू में बांध दिया ताकि खून ज़्यादा न बहे।
"हमारा ख़याल है कि हमें अब यहां से निकलना चाहिए जीजा श्री।" चाची के छोटे भाई अवधराज सिंह ने कहा____"हमारा जो दुश्मन यहां से निकल भागा है वो कहीं से भी छुप कर हमें नुकसान पहुंचा सकता है। मुलाजिमों को आपने उन्हें खोजने का हुकुम दे ही दिया है तो वो लोग उन्हें खोज लेंगे। हवेली चल कर अमर भाई साहब की बाजू से गोली निकालना बेहद ज़रूरी है वरना ज़हर फैल जाएगा तो और भी समस्या हो जाएगी।"
"अवधराज जी सही कह रहे हैं ठाकुर साहब।" अर्जुन सिंह ने कहा____"यहां से अब निकलना ही हमारे लिए उचित होगा।"
"ठीक है।" दादा ठाकुर ने कहा____"मगर यहां पर पड़ी इन लाशों को भी तो यहां से हटाना पड़ेगा वरना इन लाशों को देख कर गांव वाले ख़ौफ से ही मर जाएंगे।"
"हां सही कहा आपने।" अर्जुन सिंह ने सिर हिलाया____"इन लाशों को ठिकाने लगाना भी ज़रूरी है। अगर पुलिस विभाग को पता चला तो मुसीबत हो जाएगी।"
"पुलिस विभाग को तो देर सवेर पता चल ही जाएगा।" दादा ठाकुर ने कहा___"मगर इसकी हमें कोई फ़िक्र नहीं है। हम तो ये सोच रहे हैं कि लाशों को ऐसी जगह रखा जाए जिससे इन गांव वालों को भी समस्या ना हो और साथ ही हमारे बचे हुए दुश्मन भी हमारी पकड़ में आ जाएं।"
"ऐसा कैसे होगा भला?" अर्जुन सिंह के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे।
"इन लाशों का क्रिया कर्म करने के लिए इनके घर वाले इन लाशों को लेने तो आएंगे ही।" दादा ठाकुर ने कहा____"अब ऐसा तो होगा नहीं कि मौत के ख़ौफ से वो लोग इनका अंतिम संस्कार ही नहीं करेंगे। इसी लिए हमने कहा है कि लाशों को ऐसी जगह रखा जाए जहां से इनके चाहने वालों को इन्हें ले जाने में कोई समस्या ना हो किंतु साथ ही वो आसानी से हमारी पकड़ में भी आ जाएं।"
दादा ठाकुर की बात सुन कर अभी अर्जुन सिंह कुछ कहने ही वाला था कि तभी कुछ मुलाजिम दादा ठाकुर के पास आ गए। उन्होंने बताया कि गोली चलाने वाले दुश्मन का कहीं कोई अता पता नहीं है। दादा ठाकुर ने उन्हें हुकुम दिया कि वो सब लाशों को बैलगाड़ी में लाद कर ले चलें।
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"रुक जाओ वरना गोली मार दूंगा।" अंधेरे में भागते एक साए को देख मैंने उस पर रिवॉल्वर तानते हुए कहा तो वो साया एकदम से अपनी जगह पर ठिठक गया।
एक तो अंधेरा दूसरे उसने अपने बदन पर काले रंग की शाल ओढ़ रखी थी इस लिए उसकी परछाईं मुझे धुंधली सी ही नज़र आ रही थी। उधर मेरी बात सुनते ही वो ठिठक गया था किंतु पलट कर मेरी तरफ देखने की जहमत नहीं की उसने। मैं पूरी सतर्कता से उसकी तरफ बढ़ा तो एकदम से उसमें हलचल हुई।
"तुम्हारी ज़रा सी भी हरकत तुम्हारी मौत का सबब बन सकती है।" मैंने सख़्त भाव से उसे चेतावनी देते हुए कहा____"इस लिए अगर अपनी ज़िंदगी से बेपनाह मोहब्बत है तो अपनी जगह पर ही बिना हिले डुले खड़े रहो।"
मगर बंदे पर मेरी चेतावनी का कोई असर न हुआ। वो अपनी जगह से हिला ही नहीं बल्कि पलट कर उसने मुझ पर गोली भी चला दी। पलक झपकते ही मेरी जीवन लीला समाप्त हो सकती थी किंतु ये मेरी अच्छी किस्मत ही थी कि उसका निशाना चूक गया और गोली मेरे बाजू से निकल गई। एक पल के लिए तो मेरी रूह तक थर्रा गई थी किंतु फिर मैं ये सोच कर जल्दी से सम्हला कि कहीं इस बार उसका निशाना सही जगह पर न लग जाए और अगले ही पल मेरी लाश कच्ची ज़मीन पर पड़ी नज़र आने लगे। इससे पहले कि वो मुझ पर फिर से गोली चलाता मैंने रिवॉल्वर का ट्रिगर दबा दिया। वातावरण में धाएं की तेज़ आवाज़ गूंजी और साथ ही उस साए के हलक से दर्द में डूबी चीख भी।
गोली साए की जांघ में लगी थी और ये मैंने जान बूझ कर ही किया था क्योंकि मैं उसे जान से नहीं मारना चाहता था। मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो है कौन जो रात के इस वक्त इस तरह से भागता चला जा रहा था और मेरी चेतावनी के बावजूद उसने मुझ पर गोली चला दी थी। बहरहाल, जांघ में गोली लगने से वो लहराया और ज़मीन पर गिर पड़ा। पिस्तौल उसके हाथ से निकल कर अंधेरे में कहीं गिर गया था। उसने दर्द को सहते हुए ज़मीन में अपने हाथ चलाए। शायद वो अपनी पिस्तौल ढूंढ रहा था। ये देख कर मैं फ़ौरन ही उसके क़रीब पहुंचा और उसके सिर पर किसी जिन्न की तरह खड़ा हो गया।
"मुद्दत हुई पर्दानशीं की पर्दादारी देखते हुए।" मैंने शायराना अंदाज़ में कहा____"हसरत है कि अब दीदार-ए-जमाले-यार हो।"
कहने के साथ ही मैंने हाथ बढ़ा कर एक झटके में उसके सिर से शाल को उलट दिया। मेरे ऐसा करते ही उसने बड़ी तेज़ी से अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया। ये देख कर मैं मुस्कुराया और अगले ही पल मैंने अपना एक पैर उसकी जांघ के उस हिस्से में रख कर दबा दिया जहां पर गोली लगने से ज़ख्म बन गया था। ज़ख्म में पैर रख कर जैसे ही मैंने दबाया तो वो साया दर्द से हलक फाड़ कर चिल्ला उठा।
"शायद तुमने ठीक से हमारा शेर नहीं सुना।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"अगर सुना होता तो हमारी नज़रों से अपनी मोहिनी सूरत यूं नहीं छुपाते।"
कहने के साथ ही मैंने अपने पैर को फिर से उसके ज़ख्म पर दबाया तो वो एक बार फिर से दर्द से चिल्ला उठा। इस बार उसके चिल्लाने से मुझे उसकी आवाज़ जानी पहचानी सी लगी। उधर वो अभी भी अपना चेहरा दूसरी तरफ किए दर्द से छटपटाए जा रहा था और मैं सोचे जा रहा था कि ये जानी पहचानी आवाज़ किसकी हो सकती है? मुझे सोचने में ज़्यादा समय नहीं लगा। बिजली की तरह मेरे ज़हन में उसका नाम उभर आया और इसके साथ ही मैं चौंक भी पड़ा।
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