कहानी समीक्षा: विश्वास और इंतज़ार
लेखक महोदय: Raj_sharma
‘विश्वास और इंतज़ार’ — एक भावनात्मक पुनर्जन्म की कथा
‘विश्वास और इंतज़ार’ यह कहानी उन रिश्तों की परतें उधेड़ती है जो सामाजिक जिम्मेदारियों, आत्मबलिदान और प्रेम की अदृश्य जटिलताओं में उलझे होते हैं। लेखक ने बड़ी आत्मीयता और सादगी से एक ऐसी कथा बुनी है, जो दिल को छूती है.. अपनी स्थायी छाप भी छोड़ जाती है।
कहानी बारिश की एक सुबह से शुरू होती है — एक ऐसा आरंभ जिसे पढ़ते ही पाठक भी बाल्कनी में बैठा कॉफी पीते शेखर के पास खड़ा हो जाता है। वातावरण-निर्माण में लेखक की पकड़ बहुत सधी हुई है। बादलों की चाल, हवाओं की सरसराहट और पहाड़ों की चुप्पी — सब शेखर के भीतर चल रही उथल-पुथल के प्रतीक बन जाते हैं।
फिर फ्लैशबैक आता है — कॉलेज के दिनों की रोमांटिक हलचलें, गिटार पर गाना गाता शेखर, और भीड़ में अलग दिखती, एकाकी, मासूम शिखा। यह हिस्सा एक मीठी फिल्मी याद की तरह है, मगर उसमें भी एक यथार्थ बसी हुई है — वर्ग भेद, अनाथ होने की पीड़ा, और समाज की अपरिवर्तनीय रूढ़ियाँ।
शेखर और शिखा दो विपरीत ध्रुव हैं — एक समृद्ध घर का लड़का, दूसरी एक अनाथ। लेकिन दोनों के भीतर जो संवेदनशीलता, त्याग, और विश्वास है, वही उन्हें जोड़े रखता है।
शेखर का अपने परिवार और प्रेम के बीच का द्वंद्व — विशेषकर वह क्षण जब उसकी मम्मी चुपचाप पापा की बात से सहमत हो जाती हैं — दिल को भीतर से झकझोर देता है। यह सीन अद्भुत है, क्योंकि यह पुरुषों की असहाय भावनाओं को भी उतनी ही संजीदगी से दिखाता है, जितनी आमतौर पर स्त्रियों की दिखाई जाती हैं।
शिखा का एकाकी जीवन, बेटियों को गोद लेना, और कैंसर से लड़ाई — यह सब कहानी को उस स्तर पर ले जाता है जहाँ प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं लगता।
इस भावुक और गहन कथा में लेखक ने मानवीय विसंगतियों को भी सटीक ढंग से पकड़ा है। मिसाल के तौर पर, शेखर का शिखा का नंबर मिलाते हुए बार-बार फोन काटना — यह उतना ही हास्यास्पद है जितना मार्मिक। एक परिपक्व पुरुष का किशोर जैसा घबराना कहानी को यथार्थ के करीब भी लाता है और चेहरे पर मुस्कान भी छोड़ जाता है।
और जब एक बच्ची फोन उठाकर शेखर को "अंकल" कहती है — उस क्षण का ट्विस्ट पाठक की छाती में धक कर जाता है! शेखर का "पापा??...नहीं हैं वो..." सुनते ही जैसे कहानी की दिशा बदल जाती है — और यहाँ से लेखक पाठक को भावनाओं के उस ऊँचाई पर ले जाता है, जहाँ आँसू और मुस्कान दोनों साथ-साथ बहते हैं।
लेखक की भाषा बेहद सहज, प्रवाहमयी और आत्मीय है। संवादों में जीवंतता है, और वर्णन इतना स्पष्ट कि हर दृश्य आँखों के सामने उतर आता है। वहीं, अंत में जो कविता जोड़ी गई है, वह कहानी के भावों को एक खूबसूरत स总结 देती है — जैसे किसी फिल्म का टाइटल ट्रैक।
कुछ वाक्य प्रयोग बड़े ही अनोखे लगे, जैसे..
"शेखर ने खुद को ‘धन की मशीन’ में बदल दिया था" — यह एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है जो आज के युवा प्रोफेशनल्स के मन की विडंबना को भी पकड़ती है।
"चार फिट का आभास देता पाँच फिट का शरीर" — यह वाक्य बेहद असरदार है, और उसमें भी एक तीखा यथार्थ है, जो किसी कैंसर रोगी को देखकर मन में उठता है।
निष्कर्ष:
‘विश्वास और इंतज़ार’ एक सहज, मार्मिक, और प्रेरक कहानी है, जिसमें सामाजिक वर्जनाएँ, आत्मबलिदान, और अंततः प्रेम की विजय — तीनों बख़ूबी चित्रित होते हैं। कहानी का रियलिज़्म उसे फिल्मी होने से बचाता है, और भावनात्मक गहराई इसे पाठकों के दिलों में बसने वाला बनाती है।
रेटिंग: 9.5/10